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वाताधिकारः
(५३)
दक्षिगास्या भवेद्वायुरभ्रच्छन्नं यदा नभः ॥४४॥ धान्यानां तिलतैलानां सङ्ग्रहः क्रियते तदा । द्विगुण स्त्रिगुणी लाभ: क्रमान्मासचतुष्टये ॥४५॥ सिताष्टम्यां ज्येष्ठमासे चतस्रो वायुधारणाः । मृदुवायुः शुभोवातः स्निग्धाभ्रः स्थगिताभ्रकः ॥४६॥ तत्रैव स्वात्याये वृष्टे भवतुष्टये क्रमान्मासाः । श्रावणपूर्वा ज्ञेयाः परिश्रुता धारणास्ताः स्युः ॥४७॥ यदि ता एकरूपाः स्युः सुभिक्षं सुखकारिकाः । सान्तरा न शिवायैतास्तस्कराग्निभयप्रदाः ॥४८॥ ज्येष्ठस्य शुक्लैकादश्यां पूजां कृत्वा सुशोभनाम् । शुभं मण्डलकं कृत्वा पुष्पधूपैर लङ्कृतम् ॥ ४६ ।। उच्चस्थाने प्रतिष्ठाप्य दीर्घदण्डे महाध्वजः ।
के दिन मेघ गर्जना हो, दक्षिण का वायु चले और आकाश बादलों से आच्छादित हो तो।। ४४ ॥ घान्य तिल तेल इनका संग्रह करना, चार महीने पीछे द्विगुणा त्रिगुणा लाभ होता है ||४५ ॥ ज्येष्ठ शुक्ल अष्टमी के दिन चार प्रकार के वायु माने हैं-----मृदुवायु, शुभवायु, स्निग्धाभ्र और स्थगिताम्रक ।।४६ ॥ इनमें आदि और अंत्य वायु में वृष्टि हो तो संसार को अानंद देने वाली है । ये चार प्रकार के वायु क्रमस चले तो श्रावण आदि चार महीनों में क्रमम वर्षा होती है॥४७॥ यदि ये वाय सब मिले हुरा चले तो मुभिक्ष और मम्वकारक होते हैं , यदि पृथक पृथक चले तो अच्छा नहीं, चौर अग्नि का भय देने वाले होते हैं ॥ ४८ ॥ ज्येष्ठ महीने की शुक्ल एकादशी के दिन अच्छी तरह पूजा करके, धुप दीप आदि से मुशोभित अच्छा मंडल करके ॥ ४६ ॥ एक बड़े नंबे दंड में बडी ध्वजा लगा कर उसको ऊँचे स्थान में रक्खें । इसी प्रकार यत्नपूर्वक
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