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मेघमहोदये
दिव्या तहिं वसुहारा ग बुट्ठा। पहयाओ दुन्दुहीओ सुरेहिं, आगासे अहो दाणं च घुट्ट" । अत्र देवाद्युपलक्षणाद् योगलब्धिमहातपः कृतापि वृष्टिः प्रयोगजन्या मन्तव्या, प्रतीयते वासौ श्रीमद्भागवते पञ्चमस्कन्धे तुर्याध्याये- 'यस्य हीन्द्रः स्पर्द्धमानो भगवद्वर्षे न ववर्ष, तदवधार्य भगवान् ऋषभदेवयोगेश्वरः प्रहस्यात्मयोगमायया स्ववर्षमजनाभं नामाभ्यवहापत्' तस्य वर्षे मण्डले इत्यर्थः । एवं च लौकिकलोकोत्तरशास्त्रविरुद्धं देवाः किं कुर्वन्ति ? योगमन्त्रादिप्रभावात् किंस्यात् ? सर्व स्वकर्मकृत्यमित्यादि मूढवत्रो न प्रमाणीकार्यमित्यलं विस्तरेण ।
वृष्टि का वर्णन है । राजप्रश्नीयसूत्र में समवसरण की रचना के लिये देवों द्वारा की हुई दृष्टि का वर्णन है । एक समय भगवान् श्री महावीरस्वामी विहार कर रहे थे, तब रास्ता में एक तिलका पौधा ( छोड़ ) देख कर गोशाला ने पूछा कि यह उगेगा या नहीं ? तब भगवान् की सेवा में रहा हुवा सिद्धार्थ व्यन्तर बोला कि यह उत्पन्न होगा और इसमें तिल भी उत्त्पन्न होंगे, उसका यह बचन मिथ्या करने के लिये गोशाला ने उस पौधे को उखाड़ डाला, उस समय व्यन्तरों ने वहां जल दृष्टि की, जिस से उसकी जड़ कीचड़ में घुस जाने से तिल उत्पन्न हुआ । इत्यादि वर्णन पञ्चमांगसूत्र में है । उत्तराध्ययनसूत्र के हरिकेशीय अध्ययन में कहा है कि - देवों ने सुगंधी जल पुष्प और वसुधारा की वृष्टि की और आकाश में दुंदुभी का नाद करके अहोदानं ! अहोदानं ! ऐसी उद्घोषणा की। यहां देवादि उपलक्षण से योगके लब्धिके और महान् तपके प्रभाव से भी वृष्टि होती है, इसलिये वृष्टि प्रयोगजन्य मानना प्रतीत होता है ! भागवत के पंचम स्कंध के चौथे अध्ययन में कहा है कि---भगवान् ऋषभदेव से स्पर्द्धा करके इन्द्र ने वर्षान वर्षाईं, तबऋषभदेव भगवान्
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"Aho Shrutgyanam"