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देवाधिकारः
(१७)
अन्नाया अदिवा असुया अविण्णाया तेमि वा वमणकाइयाणं देवाणं इति ।
_ नन्वेवमेतेषां देवानां वृष्टिज्ञानित्वमेव न तु तत्कत्तृत्वमिति. किमेषामाराधनेनेति चेद् देवासुरनागानां तु कर्तृत्वं सादादागमे श्रूयते. यदुक्तं तत्रैव षष्ठे शतके पश्चमाद्देशके
“अस्थि णं भंते ! किं देवो पकरेड, असुरो पकरेड, जागो पकरेड ? गोयमा! देवो विपकरेइ. असुरो वि पकरेइ, गागो विपकरेइ" इति । एवं जम्बूद्वीपप्रज्ञप्त्यां मेघप्रमुखनागकुमारकृता वृष्टिः । ज्ञानाङ्गे सौधर्मदेवकृना वृष्टिः । राजप्रश्नीयोगाङ्गे समवसरणरचनार्थ देवकृता वृष्टिरप्युदाहर्त्तव्या । भगवतः श्रीवर्द्धमानस्य तिलस्तम्बो निष्पत्स्यतीति वचःसिद्वार्थ, यथा सन्निहितैव्यन्तरैः कृता वृष्टिः पञ्चमाङ्गेऽपि सूत्रे पठिता। उत्तराध्ययनेऽपि हरिकेशीये-"तहियं गन्धोदयपुष्फवास , हैं, नहीं देखे हुए नहीं हैं, नहीं सुने हुए नहीं हैं, और अविज्ञात नहीं हैं अर्थात् ये सब वरुण काइक देवों से अज्ञात नहीं हैं ॥ .
इस तरह इन दवों को तो वृष्टि जानने वाले बतलाये, किंतु वृष्टि करने वाले नहीं बतलाये तो उसकी आराधना करने में क्या ? साक्षात् आगम में कहा है कि देव असुर और नागकुमार ये वृष्टि करने वाले हैं। भगवतीसूत्र का छट्ठा शतक का पांचवां उद्देशा में कहा है कि .... हे भगवन् ! तमस्काय में उदार-बड़ा-मेघ संस्वेद पाते हैं । संमूच्छे हैं ?
और वर्षण वर्षे हैं ? हे गौतम ! ईं। ऐसे हैं । हे भगवन् ! क्या उसको देव करते हैं ? असुर करते हैं ? या नागकुमार करते हैं ? हे गौतम ! देव भी करते हैं, असुर भी करते हैं और नागकुमार भी करते हैं। इस तरह जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति सूत्र में मेधकुमार अादि नागकुमारदेवों से की हुई वष्टि का वर्णन है । ज्ञाताधर्मकथांगसूत्र में सौधर्मदेवसे की हुई
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