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अब शनिनक्षत्रफलज्ञानाय कूर्मापरनामकं पद्मचक्रं प्रागुक्तं तरय विवरणम् -
प्राकाशोपरि वायुघनोदधिस्तदुपरि प्रतिष्ठानः । तस्मिनुदधौ पृथिवी प्रतिष्ठिताधिष्ठिता जीवैः ॥१॥ कठिनतया वृनतयाऽष्टदिग विभागेन पभिनी। पृथिवी उदधेर्मध्यभवत्वादु भूचक्रं पद्मिनीचक्रम् ॥२॥ जलधिशयत्वात् कूर्मोऽप्यसौ निवेद्या परैर्दिजन्मायैः । सर्वसहापि वज्रादि-काण्डयोगेन कठिनतरा ॥३॥ इवादीनामप्रयोगा-दुपमापि च रूपकम् । भ्रममूलमल कार-स्तेषां जज्ञे धियानध्यतः ॥४॥ ऐन्द्रीबुद्धिः पयोवाहे रामादौ भुवनेशधीः । दुष्टे जने दैत्यमति-रूपचारेऽपि तास्विकी ॥५॥ इन चार मण्डलों शनि वक्री हो तो इनके नामसदृश देशमें फल होता है ॥१६॥
आकाशमें सर्वत्र तनबात औ धनवात रहा हुआ है, उसके ऊपर घनोदधि नामका वायुमिश्रित जल है और उसके उपर पृथठी हुई है यही जीवोंका आधार है ॥ १ ॥ वह पृथिवी क.ठी और गोल है, उसका आकार आठ दिशाओंकी अपेक्षासे पाठ पाखडीवाले कालके सदृश होता है । कमल उदधि (समुद्र) में होता है और पृथिवी भी घनो धि (वायु मिश्रित सवन जल)में है इसलिये भूचक्रको पदिनीचक कहा जाता है ॥२॥ किसीके मतसे पमिनीचक्रको कूर्मचक्र भी कहते है, क्योंकि कुर्म (कछवा) भी वज्रदंडके जैसे कठिन, सत्र सहन करनेवाला और जलधिशायी (जलाशयमें रहनेवाला) है ॥ ३ ॥ 'इव' अ.दि श दों का प्रयोग नहीं क ने से उपमा और रूपक भी. भ्रममूलक है. और बुद्धिका विपर्ययसे अलंकाररूप . हो जाते हैं ॥ ४ ॥ जैसे मेघमें इंद्रकी कल्पना, राम आदिमें जगदीश्वर की कल्पना, दुष्ट पुरुषों में दैत्यकी कल्पना और उपचार में भी तात्त्विक कल्पना करना ॥ ५ ॥ तथा अर्हन्तोंकी प्रतिमा कछवा बनाना या उसके उपर
"Aho Shrutgyanam"