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सर्वतोभद्रपक्रम पथ नक्षत्रक्रमेण वस्तूनां नामानि देशांश्व-~-~ब्रीहिर्यवाब मणयो हीरका धातवस्तिलाः । कृत्तिकावेधतो मासा-नष्टयाम्यदिशोऽसुखम् ॥३५॥ रोहिण्यां सर्वधान्यानि सर्वे रसाश्च धातवः। जीर्णाः कम्बलकाः प्राध्या-ममुखं दिनसप्तकम् ॥३६॥ भृगशीर्वेऽश्चमहिषी गावो लाक्षादिकोद्रवः । खरा रत्नानि तुरी बोदक्पीडा षष्टिवासरान् ॥३७॥ मार्दायां तैललवणसर्वक्षाररसादयः । श्रीखण्डादिसुगन्धीनि मासं स्यात् पश्चिमाऽसुखम् ॥३८॥ तीनोंमें ग्रहवेध द्वारा जानना ॥३४॥ कृत्तिकाके वेधसे चावल, यव, मणि हीरा , धातु और तिल इन में वेध होता है, तथा आठ महीने दक्षिण दिशा में दुःख होता है ॥ ३५ ॥ रोहिणी में वेध हो तो सब प्रकार के धान्य रस धातु और जीर्ण कंबल इन में वेध हो , तथा पुर्व दिशा में सात दिन दुःख होता है । ३६॥ मृगशीर्ष में वेध हो तो घोड़ा, भैस, गौ , लाख , कोद्रव , गदहा , रन और तुवरी इन का वेध तथा उरारदिशामें साठ दिन पीडा हो ॥३७॥ माके वेधसे तेल,लवण आदि सब प्रकार के क्षार , रस और चंदन आदि मुगंधित वस्तु का वेध तथा
है, इसके लिए नरपतिजयचर्या में सर्वतोभद्र की संस्कृत टीका भी कहा है कि--"ग्रहः सध्यापसव्येन चक्षुषा वेधयेत् पुनः । ऋक्षाक्षरस्वरादिस्तु सम्मुखेनान्त्यभं तथा" | याने बाथीं या दक्षिण ओर दृष्टि होतो राशि, नक्षत्र स्वर, व्यजन और तिथि इन पांचों का वेध होता है। किंतु सम्मुख दृष्टि हो तो अन्त्यका एक नक्षत्र का ही वेध होता है ॥२॥ भौ: दि पांच ( मंगल बुध गुरु शुक्र और शनि ) ग्रहों में से जो ग्रह वक्री हो उसकी दृष्टि दक्षिण मोर,शीघ्रगामी (अतिचारी) ही उमकी दृष्टि बायीं ओर और मध्यचारी हो उसकी तुष्टि सम्मुख होती है ॥३॥ राहु और केतु की सर्वदा वक्रगति तथा चंद्रमा और सूर्य की सदा-शीघ्रगति है, इसलिए इन चारों ग्रह की गति सर्वदा एक ही प्रकार होने से उनकी दृष्टि भी सर्वदा तीनों ओर होती है ॥४॥
"Aho Shrutgyanam"