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सर्वतोभद्रम्
ते क्रमाद वर्तमानायें देयाः पात्याः शुभाशुभे ॥८७॥ भूमिकम्परजोरक्लैर्दृष्टिर्निघातवर्जिते ।
देशे सर्वसुखोपेते वेधादर्घ वदेद बुधैः ॥८८॥ इति सर्वतोभद्रचक्रम् ।
अथ सर्वविचारचक्रे बलाबलं पूर्वाचार्यकथितं यथाशुक्रास्ते भाद्रमासे शुभभगणगते वाक्पतौ सौस्थ्य हेतौ, ज्येष्ठाचाहे सुवारे शशिसितधिषणेषूदिते निश्यगस्त्ये । क्रूरे भूपादिवर्गे विघटिनि समये मङ्गले वक्रितेऽपि, आषाढ्यां पूर्णविष्ण्ये प्रहरवसुगते जायते दिव्यकालः ॥८६॥ भूपेऽमात्येऽनाथे कुशलकृति रवेः संक्रमे वृद्धभे स्या
दाषायां सौम्यपूर्वे प्रसरति पवने दुर्द्दिनं सर्वयाम्याम् । रात्रावार्द्राप्रवेशे वृषभतनुगते सौम्ययुक्ते च सूर्ये,
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विश्व तेजी जाननं । याने वस्तुके विश्वे बढ़े तो वस्तुकी वृद्धि और मूल्य की ह नि, तथा वस्तुके विश्वे घंटे सो वस्तु की हानि और मूल्यको वृद्धि होती है ॥ ८७ ॥ भूमि कंप रज तथा लोही की वृष्टि, और उल्कापान इनसे रहित सब सुखवाले देशों में वेध द्वारा विद्वानोंको अर्ध (मूल्यभाव) कहने चाहिये ॥८॥
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भाद्रमासमें शुक्र का अस्त हो, सुखके हेतुभूत बृहस्पति शुभ राशि पर हो, ज्येष्ट शुकी आदिमें अच्छे वारको चंद्रमा और शुक्र के नक्षत्रों में रात्रि के समय अगस्ति का उदय हो, क्रूर ग्रह राजवर्ग में हो, सुन्दर समय हो और मंगल की हो, तथा आषाढ पूर्णिमा को आषाढी नक्षत्र आठ प्रहर पूर्ण हो तो दिव्य काल (शुभ वर्ष) होता है ॥ ८६ ॥ वर्षके राजा मंत्री और धान्याधिपति ये शुभ हो, रवि की संक्रांति बृहत् नक्षत्र में हो, भाषा पूर्णिमाको उत्तर तथा पूर्व दिशाका वायु चलें, आठों ही प्रहर दुर्दिन रहें, रात्रि भद्रां प्रवेश हो, वृष लग्न में स्थित सूर्य सौम्य ग्रह से
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