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मेवमहोदय बेघद्धाराविश्वानिर्णय:----
सौम्या पूर्णरशा पश्यन् विध्यन् वर्णादिपशकम्। फल विंशोपकान् पञ्च रस्तु चतुरो दिशेत् ॥८॥ पर्णादिपलके यावत् स्थानत्वे वैव यावता। इष्टिस्तदनुमानेन वाच्यास्तत्र विंशोपकाः ॥८॥ एवं पिशोपका यत्र संभवन्ति शुभाशुभाः। भन्योऽन्यशोधने तेषां फलं ज्ञेयं शुभाशुभम् ॥८६॥ वर्तमानाघेविंशांशाः कल्पा इह विशोपकाः ।... नहीं होता ॥३॥
यदि वेधकर्ता ग्रह वर्ण आदि पांचों को पूर्ण दृष्टि से देखें और वेधे तो शुभप्राह पांच विश्वा, और कूरग्रह चार विश्वा फल देते हैं ॥ ८४ ॥ वर्ण, स्वर, तिथि, नक्षत्र और राशि इन पांचोमें वेधकर्ता ग्रह की. जितने पाद दृष्टि हो उसके अनुसार ग्रहोंके विश्वे कहना चाहिये ॥८५ ॥ इस प्रकार जहां शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के ग्रहोंके विश्वे प्राप्त हो, वहां उन दोनोंका परस्पर अंतर करें, इसमें बाकी शुभ ग्रहों के विश्वे रहे तो शुभ और क्रूर ग्रहोंके रहे तो अशुभ जानना ॥८६॥ जिस वस्तु का वेध द्वारा निर्णय करना हो उस वस्तु का वर्तमान में (अर्थात वर्ष मास तथा दिनमेंसे जिस समय निर्णय करना हो उसके * वर्ष प्रवेशमें) जो भाव हो उसके वीश विश्वे याने वीस भाग कल्पना करें, उनमेंसे एक भाग तुल्य विश्वे मान कर पूर्वोक्त क्रमसे प्राप्त शेष विश्वे जो शुभग्रहोंके हो तो उस में मिला दें और कूरग्रहों के हो तो घटा दें। ऐसा करनेसे यदि बीस से जिसने अधिक हो उतने विश्वे वस्तु मन्दी और जितने न्यून हो उतने *प्रलोक्य प्रकाशम भी चैत्रमे याने वर्ष प्रवेशमें जो मुख्य भाव हो उसका यहां ग्रहण करना इत्यादि कहा है। जैसे-~_.. "चैत्रेया र प्रधानोऽर्थः स पण्या?ऽत्र गृह्यते।
प्रत्यहं प्रतिमंचापि प्रतिपण्यं च नूतनः " ॥१॥
"Aho Shrutgyanam"