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चन्द्रचारफलम्
ऊयनाडीस्थितैर्वायुः खण्डवृष्टिस्तु मध्यगैः । ग्रहैः पातालनाडीस्थैः सौम्यैः क्रूरैजेलं बहु ॥७॥ ऊर्ध्वनाडीगते शुक्रे चन्द्रेऽधो नाडिकास्थिते । महावायुरधो नाड्यां योर्योगे महाजलम् ॥६॥ सौम्यग्रहयुते चन्द्रे सौम्यनाडी प्रचारिणी । जलराशिप्रसङ्गेन वृष्टियोगः प्रकीर्तितः ॥७॥ एकत्र बुधशुक्राभ्यां जलनाड्यां शशी भवेत् । महावृष्टिस्तदा वाच्याऽहिचक्रे सप्तनाडिके॥७८॥ अमृतांशुरयं साक्षात् करोत्यमृतवर्षणम् । स्थितोऽप्यमृतनाड्यां चेत् सौम्यासौम्यसमन्वितः ॥७६||
इति सप्तनाडीचक्रे चन्द्राद् वृष्टिज्ञानम् । उत्तरेण ग्रहाणां तु चन्द्रचारो भवेद्यदि । सुभिक्षं क्षेममारोग्यं विग्रहो नात्र वत्सरे ॥८॥ पश्चतारा ग्रहा यत्र सोमं कुर्वन्ति दक्षिणे। ग्रह ऊर्चनाडी पर हो तो वायु चल, मध्यनाडी पर हो तो खण्डवर्षा हो और पातालनाडी पर हो तो वर्षा अधिक हो । ७५ ॥ ऊर्ध्वनाडी पर शुक्र और अधःनगडी पर चंद्रमा हो तो अध:नाडी से महावायु और दोनों के योगमें महावृष्टि हो ॥ ७६ ॥ चन्द्रमा सौम्यग्रहों के साथ सौम्यनाडी पर हो तो जलराशि के द्वारा वर्षाका योग कहा है ॥ ७७॥ सतनाडीवक्रमें एकही साथ बुध शुक्र और चंद्रमा जलनाडी पर हो तो महान् वर्षा हो ॥ ७८॥ यदि चन्द्रमा शुभग्रहों के साथ अमृतनाडी पर हो तो अमृत-जल की वर्षा करता है ॥ ७९ ॥ इति सप्तनाडीचक !!
प्रोंके उत्तर भागमें चन्द्रमा हो तो उस वर्ष में सुभिक्ष, क्षेम, और आरोग्यता हो,विन न हो ॥८०॥ यदि पांच प्रड क्रमसे चन्द्रमा के दक्षिण दिशामें हों तो उसका फल-मंगल हो तो राजाको कष्टकारक, शुक्र हो तो
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