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सूर्यचारकथनम्
द्वित्रिचतुर्गुणो लाभ इत्युक्तं पूर्वसूरिभिः ॥१५४॥ + कुम्भमोनान्तरेऽष्टम्यां नवम्यां दशमीदिने । रोहिणी चेत्तदा वृष्टिरल्पा मध्याधिका क्रमात् ।। १५५ ।। गार्गीयसंहितायां पुन:
कार्तिके फाल्गुने मार्गे चैत्रे श्रावणभावयोः । संक्रमेष्वशुभः षट्सु यदि वर्षति वारिदः ॥१५६॥ पौषे माये सवैशाखे ज्येष्ठाषाढाश्विनेषु च । संक्रान्तो वर्षति घनः सर्वदैव सुशोभनः ॥ १५७॥ x इत्येवमादित्यसुराशिगत्या,
विभाव्य भाव्यं फलमन्त्र मत्या । कार्यस्तदायैरिह वर्ष बोधः,
परोपकाराय स निर्विरोधः ॥ १५८ ॥
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धान्यका संग्रह करने से द्विगुना, त्रिगुना या चौगुना लाभ हो ऐसा प्राचीन आचार्योंने कहा है ॥ १५४ ॥ कुंभ और मीनकी संक्रांति के अंतर याने बीच में अष्टमी, नवमी या दशमी के दिन रोहिणी नक्षत्र हो तो क्रमसे स्वल्प मध्यम और अधिक वर्षा हो ॥ १५५ ॥ गार्गीयसंहितामें कहा है किकार्तिक फाल्गुन मार्गशीर्ष चैत्र श्रावण और भाद्रपद इन छ: महीने की संक्रांति में यदि वर्षा हो तो अशुभ है ॥ १५६ ॥ पौष, माघ, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ और आश्विन इन छः महीने की संक्रांति के दिन वर्षा हो तो सर्वदा शुभ हो ॥ १५७ ॥ इसी तरह सूर्य की राशि पर डी गतिसे यहां बुद्धिसे विचार करके फल कहना । यह वर्षाका ज्ञान सज्जनोंने परोपकार के लिये किया है यह बात निर्विरोध है ॥ १५८ ॥ सूर्य द्वारा वर्षा
+ टी- अत्र कुम्भमीन संक्रान्त्योर्मध्ये इत्यर्थः ।
x टीमत का प्रमाणसंवत्सरे तुर्यो भेदः; याविस्य संवत्सरः प्रागुक्तः सिद्धान्ते ।
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