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सूयचारकथनम्
(४०७)
रिक्तायां रविसंक्रान्त्यां दैन्यसैन्याजनक्षयः । देशक्लेशो नरेशानां मृत्युर्दुःखाकुलाऽचला ॥१०६।। या:-तुलासंक्रान्तिषट्कं चेत् स्वस्या स्वस्या तिथेचलेत् । तदा दुःस्थं जगत्सर्व दुर्भिक्षं डमरादिभिः ॥१०७॥ यबारे रविसंक्रान्तिः पौषे तस्मिन्नमावसी। विलिश्चतुर्युगो लाभस्तदा धान्ये क्रमान्मतः ॥१०८॥ शनिभौमहते मार्गे यावश्चरति भास्करः। अवर्षणं तदा ज्ञेयं गर्भयोगशतैरपि ॥१०॥ यदाह लोकः-पाछह मंगल रविघरह, जइ आसाढइ जोय । वरसे तिहां घण मोकलो, उपराठइ दुःख होय ॥११॥ अग्गइ मंगल रविरहह, जइ रिक्खह भुंजेइ । ता नवि वरसह अंबुहर, जा नवि पछइ एइ ॥११॥ माचे कृष्णदशम्यां चेन्मकरेऽर्कः प्रवर्तते । धान्यसङ्कहणाल्लाभं तदाषाढे करोत्ययम् ॥११२॥ सूर्यसंक्रांति रिक्तातिथिमें हो तो सैन्यसे मनुष्योंका क्षय हो । देशमें कलह हो, राजाका मरण और पृथ्वी दुःखसे आकुल हो ॥१०६ ॥ तुला आदि छः संक्रांति अपनी २ तिथिसे चलित हो.तो सब जगत् दुःखी और दुर्भिक्ष हो ॥१०७॥ पौषमासमें सूर्यसंक्रांति जिस वारको हो और उसी वार को अमावस भी हो तो क्रमसे धान्यमें दूना त्रिगुना तथा चौगुना लाभ हो । १०८ ॥ शनि और मंगल का मार्गमें जितने समय सूर्य चले उतने समय सेंकडों गर्भके योग रहने पर भी वर्षा नहीं होती हैं ॥१०॥ लोकिकमें भी कहा है कि-यदि भाषाढमासमें सूर्यके स्थानसे मंगल पीछे हो तो वर्षा बहुत हो और आगे हो तो दुःख हो ॥११० ॥ एकही नक्षत्र पर रविसे मंगल आगे हो तो वर्षा न बरसे जब तक वह पीछे न हो ॥१११॥ यदि मकरसंक्रांति माघकृष्य दशमी के दिन हो तो धान्यका संग्रह करने से भाषा.
"Aho Shrutgyanam"