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मेघमहोदय
पयोहितमित्युक्ते । यदुक्तम्
घनावृष्टौ यदा माघ-श्चैत्रो निर्मलतां गतः । यसुधान्या तदा भूमि-बूंष्टिश्चैव मनोरमा ॥४८॥ पुनरपिचित्तस्स कसिण पञ्चमी नहु वरसइ दुद्दिणं पुणो । फुणइ गहिऊण उच्चभूमि ता वावह सयल धन्नाणि ॥४६॥ 'चैत्रे च गौरिसंक्रान्तौ' इत्यादिनाने घृष्टिवक्ष्यते । तथापिचैत्रमासे च देवेशि! शुक्ले च पञ्चमीदिने । सप्तम्यां च त्रयोदश्यां यदा मेघः प्रवर्षति ॥५०॥ . . तारकापतनं चान्द-गर्जनं विद्युता सह । वर्षाकालस्तदासन्नो नात्र कार्यविचारणा ॥५॥ ततश्चैत्रे यथायोग्यं साभ्रता वा निरभ्रता । शुभाय चोभयं लोके विपरीतं न सौख्पदम् ॥५२॥ तत एव वृष्टिनिषेधे दिननियमः
पंचमिरोहिणी सत्तमिअद्दा, नवमिपुप्फ नइ पुनमचित्ता। लिखा है वह बिन्दुमात्र होना श्रेयस्कर कहा है । यति मात्र मासमें अधिक वर्षा हो और चैत्रमास निर्मल हो तो भूमि पर अच्छी वर्षा हो और धान्य बहुत हों ॥ ४८॥ फिर भी कहा है कि- चैत्रकी कृष्ण पंचमीके दिन वर्षा न हो मगर दुर्दिन हो तो अच्छी भूमि देखकर सब प्रकारके धान्य बोना चाहिये॥ ४६॥ हे पार्वति. चैत्र मासकी शुक्ल पंचमी सप्तमी और त्रयोदशीके दिन वर्षा हो ॥ ५० ॥ तारा गिरे और विजलीके साथ मेघ गर्जना हो तब वर्षा काल समीप आया जानना इसमें संदेह नहीं ॥५१॥ चैत्र मासमें यथायोग्य वादल का होना या बादलका न होना ये दोनों लोक में शुभं माने हैं और उससे विपरीत हो तो सुखकारी नहीं होता ॥५२॥ इसलिये ही वर्षात निषेधके नियम दिन बतलाते हैं- चैत्रमासमें पंचमीके दिन
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