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मेघगर्भलक्षणम्
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सूर्योदये श्रावणमासि गजेंद्रमन्ति नीरोपरि वापि मत्स्याः । घनस्तदाष्टादश ग्राममध्ये, करोति भूमिं सलिलेन पूर्णाम् ॥३॥ वराहः - शुककपोतबिलोचनसन्निभो,
मधुनिभव यदा हिमदीधितिः । प्रतिशशी व यदा दिवि राजते,
पतति वारि तदा न विराद्दियः ॥ १०४ ॥ स्तनितं निशि विद्युतो दिवा, रुधिरनिमा यदि दण्डवत् स्थिता । पवनः पुरतश्च शीतलो यदि,
सलिलस्य तदागमो भवेत् ॥ १०५ ॥ बल्लीवाला गगनोन्मुखाः स्नानं च पक्षिणाम् । जलान्तः पांशुराशौ वा गवामूर्ध्व खवीक्षणम् ॥ १०६ ॥ मार्जारभूमिखननं गोनेत्रात् पयसः श्रवः । नीलिका कज्जलाभं खं शिशुसेतुक्रियाध्वनि ॥ १०७ ॥ पिपीलिकाण्डको सर्प उन्मुखा: कुर्कुरा गृहे ।
१०२ ॥ श्रावणमास में सूर्योदय के समय मेव गर्जना हो, और पानी के पर मछली घूमे तो अठारह पहरके भीतर वर्षा होकर जलसे पृथ्वीको पूर्ण करें ॥ १०३ ॥ जिस समय चन्द्रमाका रंग तोते, तथा कबूतरकी आंख समान लालवर्णवाले या मध की समान रंगवाले हो अथवा आकाश में चन्द्रनाका दूसरा प्रतिबिम्ब दिखलाई देतत्र आकाशसे शीघ्रही वर्षा होती है ॥ १०४ ॥ रात्रि में मेव गर्जना हो, दिनमें लालवर्णवाली बिजली दंडके समान सीधी दीखे और पवन आगेसे शीतल हो तो उस समय जलका आगमन होता हैं ॥ १०५ ॥ लताओं के नवीन पत्ते आकाश की ओर उच्चें उठ जाय, पक्षिगण जल या धूलिसे स्नान कर, गौ ऊँचे सुख करके आकाश को देखे ॥१०६ ॥ बिल्ली भूमिको खने, गौके आंखसे जल गिरे, नीलिका कज्जल के सदृश मा
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