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मेषगर्भलक्षणम् लावर्षति माम्भोद-स्तनपायी नवा जनः॥११२॥ बराह-सन्ध्याकाले स्निग्धा दण्डहिन्मत्स्यपरिधिपरिवेषाः। सरपतिवापरावर्तरषिकिरणामासुकृष्टिकराः ॥११३॥ . पिच्छिमाविषमविश्वस्तविकृताः कुटिलापसव्यपरिकृत्ताः। तहस्तविकलकलषाः सविग्रहा वृष्टिदाः किरणाः ॥११४॥ अधीतिमा प्रसत्रा ऋजवो दीर्घाः प्रदक्षिणावर्ताः। किरणा:शिवाय जगतो वितमस्के नभसि भानुमतः॥११५।। शुमला करादिकृतों दिवादिमध्यान्तगामिनः । विस्थामव्युच्छिमाजवो दृष्टिकरास्ते स्वमोघाख्या।११६ महालमिदं गुयं न वाच्यं यस्य कस्यचित् । सम्यकपरीक्ष्य दातव्यं नोपहासो यथा भवेत् ॥११७॥
से नहीं, जिससे मनुष्योंको छाश पीने को न मिले ।। ११२॥ सन्ध्याकालमें सूर्यके किरण स्निग्ध हों, परिव, मिजली, मत्स्य, परिधि तथा परिबेघ याले हो और इन्द्र धनुषसे घिरे हुए हो तो शीघ्रही वर्षा करनेवाले होते हैं । ११३ ॥ खंड विषम, विध्यस्त, विकारयुक्त, कुदिल, अपसव्यमार्गसे विसी दुई, तनु, हस्व, विकल भौर शरीरधारियों की जैसी भाकृति वाली सूर्यकी किरखें हो तो कृष्टिकारक होती हैं ॥ ११ ॥ प्रकाशवाली, प्रसन्न, ऋजु, दीकिार और प्रदक्षिणा के सदृश फिरणे स्वच्छ पाकःशमें दृष्टि में भाये तो जगत् का कल्याण के लिये हो ।। ११५॥ उदय, मध्याह और सायंकालके साव्य सफेद, स्निग्ध, प्रखंड और सरलाकार किरणें देखने में भावे वे - मोष नाम से कही जाती हैं और वे वर्षा करनेवाली होती हैं ॥११६ ॥
यह गुप्त रखने लायक धके गर्भका ज्ञान जिस किसीके आगे नहीं काना चाहिये, सिल्पकी अच्छी तरह परीक्षा करके देवे जिससे उपहास
११. मदेव ब्रामणमे अपनी घराला में कहा है कि यदि स्वयं
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