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मेघमहोदये
(३८८)
संक्रान्ति दिवसे चन्द्रो दुर्भिक्षायाग्निमण्डले । वायौ चन्द्रे चौरभय-मथवा धान्यसंक्षयः ||७|| माहेन्द्रमण्डले चन्द्रे महावर्षा प्रजारुजः । वारुणे मण्डले चन्द्रे वृष्टिः क्षेमं प्रजासुखम् ||८|| दिनरात्रिविभागेन संक्रान्तिफलम् -
पूर्वाह्णे भूपपीडायै मध्याह्ने द्विजजातिषु । वणिजामपराह्णे च संक्रान्तिर्दुःखदायिनी ॥ ६ ॥ अस्तप्राप्तौ च शूद्राणां गोपानामुदये रवेः । लिङ्गिवर्गस्य सन्ध्यायां पिशाचानां प्रदोषके ||१०|| नक्तंचरेष्वर्द्धरात्रेऽपररात्रे नटादिषु ।
रोगमृत्यु विनाशाय जायते रविसंक्रमः ॥११॥
कीदृशरवेः संक्रमस्तत्फलम् -
सुप्तसंक्रमते नागे तैतिले वा चतुष्पदे ।
सूर्य संक्रांति दिन चन्द्रमा अग्निमण्डल में हो तो दुर्भिक्ष; वायुमण्डल में हो तो चोरका भय या धान्यका विनाश हो || ७ || माहेन्द्र मंडल में चंद्र हो सो बड़ी वर्षा हो और प्रजा में रोग हो । वारुणमंडल में चंद्रमा हो तो अच्छी वर्षा, मंगल और प्रजा सुखी हो ॥८॥
दिनके पहले भाग में संक्रांति हो तो राजाओं को पीडा, मध्याह्न में हो तो ब्राह्मणोंको और दिनके पीछला भाग में हो तो वैश्यों को दुःखदायक होती है ॥६॥ सूर्यास्त समय हो तो शूद्रोंको, सूर्योदय में हो तो पशुपालक (गोवाल ) को, संध्या समय हो तो लिंगीजन ( पाखंडी ) को और प्रदीप समय हो तो पिशाचोंको कष्ट करें ॥ १० ॥ अर्द्धरात्रि में हो तो राक्षसों को और पीछली रात्रि में हो तो नट आदिको रोग-मरण- विनाश करती है ॥ ११ ॥ नाग, तैतिल और चतुष्पद करण में सुप्त संक्रांति है । वाणिज, वृष्टि, बालब, गर और बव करण में बैठी संक्रांति होती है | शकुनि किंस्तुघ्न
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