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मेघगर्भम
तो आदा मांहे आदरे, जलथल एक करेइ ॥५७॥ ततः स्युर्ज्ञापके गर्भे मासा षद् सप्त चाष्ट* वा । स्थापको ज्येष्ठमूलादि-पूर्वाषाढाम्बुदोदयः ॥५८॥ यतः -गली रोहिणी गली पडिवा, गलिया जेहा मल । पूर्वाषाढ धडकिओ, नीपना सातु नूर ॥ ५९ ॥ उत्पादकस्तु द्विविधस्तात्कालिकः स लक्षणः । सार्द्धषाण्मासिकस्त्वन्यः प्रथमः समयोद्भवः ॥ ६० ॥ शित्रिपञ्चादिदिवसमा साधन्तजलप्रदाः ।
से मध्यमाः परिज्ञेया- स्तात्कालिकाः पुनस्त्वमी ॥ ६१ ॥ मेघचक्रं रौद्रीय मेघमालायाम्
(*२७)
पूर्वास्यां यदि सन्ध्यायां मेघैराच्छादिनं नभः ।
कृष्ण सप्तमीको यदि वर्षा न हो तो आर्द्रा नक्षत्र में वर्षाका प्रारंभ हो याने जल स्थल एकाकार हो ॥ ५७ ॥
ज्ञापकगर्भ छ सात या आठ मास के बाद बरसता है । स्थापक गर्भ ज्येष्ठ मूल और पूर्वाषाढा नक्षत्र में उदय होता है ॥५८॥ इसलिये कहा है कि- प्रतिपदा तिथि, रोहिणी, ज्येष्ठ और मूलनक्षत्र इनमें वर्षा हो और पूर्वाषाढा में गर्जना हो तो सातों नूर उत्पन्न हों ॥ ५६ ॥ उत्पादक गर्भ दो प्रकारके हैं- एक 'तात्कालिक' शीघ्र ही बरसनेवाला और दूसरा समय पर बरसनेवाला साढ़े छनासिक ॥ ६० ॥ गर्भ होने बाद जो दो तीन पांच . आादि दिनों में या मासके भीतर ही बरसनेवाला हो यह मध्यम तात्कालिक गर्म जानना ॥ ६१ ॥
पूर्व दिशामें यदि सन्ध्या समय आकाश बादलों से आच्छादित हो
* टी- अत्राष्टौ मासाः पौषदशमीत्यादावपि तथैव, मावशुद्धसप्तभ्यां गर्भोऽप्याश्विनेऽष्टमासजः, आश्विनकृष्णे सार्द्राष्टमासजः । पौष पूर्णि मागर्भ प्राषाढशुले बारामासिकः कृष्णे तु सार्द्धषागमासिकः कृष्णादिमवैः शुक्लादिमते तु आषाढशुले सार्द्धपारामासिकः, कृष्णपचे खातमाखिकः ।
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