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मेघमहोदये
पर्वताकृतिभिः कश्चित् कश्चित्कुञ्जरमृतिभिः ॥६२॥ नानाकृतिधरैरन - मानङ्गवलेघनैः ।
पञ्चरात्रात् सप्तरात्रात् सद्यां दृष्टिनिंगद्यते ॥ ६३ ॥ उत्तरस्यां च सन्ध्यायां गिरिमालेव विस्तृतः । मेघस्तृतीयदिवसे वृष्ट्या तुष्टेकरी नृणाम् ॥ ६४|| पश्चिमायां तु सन्ध्यायां घनाः स्युः पर्वता इव । श्यामाऽस्तंगते भानौ सद्यो वर्षाभिलक्षणम् ॥ ६५ ॥ दक्षिणस्यां यदा मेघः स कोटीनारसम्भवः । त्रिपञ्चसप्तरात्रान्तः किञ्चिद् वृष्टिविधायकः ॥ ६६ ॥ आग्नेय्यां बहुतापाय मेवाः स्वल्यजलप्रदाः । नैर्ऋत्यामीतिरुन्ताप-रोगवर्षाकराः स्मृताः ॥६७॥ वातवृष्टिकराः सद्यो वायव्यामुन्नता घनः । ऐशान्यामशनिश्यक्ता मेवाः सुखकरा जलात् ॥ ६८ ॥
और यही बादलों की आकृति पर्वत या हाथी समान देखने में आवे ॥ ६२ ॥ और अनेक प्रकार व हानियोंके सदृश बदल दीखे तो पांच या सात रात्रि बाद वर्षा हो ॥ ६३ ॥ उत्त दिज्ञाने संध्या के समय पर्वतपंक्तिकी समान विस्तृत बादल हो तो तीन दिनों मनुकों को संतुष्ट करनेवाली अच्छी वर्षा हो ॥ ६४ ॥ पश्चिम दिशानें सन्ध्या के समय पर्वतकी समान वाइल हों और सूतिके समय बाल शान रंगवाले हो तो शीघ्र ही वर्षा होती है । ६५ ।। दक्षि दिशा में संध्या के समय जया या मुकुटकी समान बादल हो तो तीन पांच या सताकि बाद कुछ वर्षा हो ॥ ६६ ॥ आग्नेय कोण में बाइल हो तो गरी अधिक पड़े और वर्षा थोड़ी हो । नैॠत्य कोण में बादल हो तो ईतिका उपद्रव हो और रोगकारक वर्षा हो ॥६७॥ वायव्य कोण में उन्नत बदल हो तो शीघ्र ही वायु और वर्षा करते है । ईशान कोण में बादल को बिजली चमके सो सुखकारक जल वर्षा हो ॥६॥
"Aho Shrutgyanam"