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मेघमहोदये
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अश्वप्लुतं माधवगर्जितं च स्त्रीणां चरित्रं भवितव्यतां च । अवर्षणं चाप्यतिवर्षणं च देवो न जानाति कुतो मनुष्यः ॥ पौषमासे श्वेतपक्षे ऋक्षं शतभिषग् यदा । वाताभ्रविद्युत्पञ्चम्यां गर्भश्चैवं प्रजायते ॥ २९२ ॥ स चाषा कृष्णपक्षे चतुथ्यों वर्षति ध्रुवम् । द्रोणसंज्ञस्तत्र मेघः सप्तरात्रं प्रवर्षति ॥ २६३|| सप्तम्यादित्रये पौधे शुक्ले पौष्णादिभत्रयम् । विद्युत्तुषारवानाभ्र हिमैर्गर्भसमुद्भवः ॥२९४॥ एकादशी पौषशुक्ले सहिमा विद्युता युता । सजला रोहिणीयोगाच्छुभाऽऽदेश्या विचक्षणैः ॥२६५॥ मतान्तरे तु एकादश्यामहोरात्रं कृत्तिका भोगसम्भवे । पौ शुक्ले साभ्रतायां रक्तवस्तुमहर्घता ॥ २६६ ॥ पौषे मूलाक्षके दशैं विद्युदभ्रातिगर्जितम् ।
(३०८)
मेघमाला नामका सहा शास्त्र है उसमेंसे यह उद्धृत किया है ॥ २६० ॥ घोडे का कूदना, मेघका गर्जना, स्त्रियों के चरित्र, भवितव्यता (होनहार ), वर्षा का होना या न होना ये देव भी नहीं जान सकता तो मनुष्य क्या है ! ॥ २६१ ॥ पौष शुक्लपक्षमें शतभिषा नक्षत्र पंचमी के दिन हो और उस दिन वायु, बादल, बिजली हो तो वर्षाका गर्भ होता है || २६२ ॥ वह गर्भ आषाढ कृष्णपक्ष की चतुर्थीके दिन अवश्य बरसता है । उस समय द्रोण नामका मेव सात दिन तक बरसता है ॥ २६३ ॥ पौष शुक्ल सप्तमी आदि तीन दिन और रेवती आदि तीन नक्षत्र इनमें बिजली, तुषार, वायु, बादल और हिम हो तो वर्षा के गर्भकी उत्पत्ति जानना || २६४ ॥ पौष शुक्ल एकादशी हिम और विजली सहित हो, रोहिणीका योग हो और कुछ वर्षा भी हो तो विद्वानोंने शुभ कहा है || २६५॥ पौष शुक्ल एकादशी को दिन रात कृत्तिका नक्षत्र हो और बादल भी हो तो लाल वस्तु महँगी हो ॥
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