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मेघमहोदये
मेमनवेशलोच गदि स्याद् वर्षजन्मनि । सहस्थो यदा पापो धान्यजातं विनाशयेत् ॥१३७॥ चने व्यये व सौम्यश्चेत् केन्द्रे वा मेषसंक्रमे । स्वः शुभमुहद्दष्टः सुभिक्षं व्यत्ययोऽन्यथा ॥१३८॥ मतान्तरे पुनरेवम्-- गणकै क्षेत्रमासस्य शुक्लपक्षस्य मूलतः। प्रतिपल्लमवेलायां लग्नं शोध्यं शुभाशुभम् ॥१३॥ मेषलग्ने तु पूर्वस्यां दुर्भिक्षं राजविग्रहः । दक्षिणत्यां सुभिक्षं स्याद् बहुधान्यरसा च भूः ॥१४०॥ धान्यानां विक्रये लाभः पूर्णमेघमहोदयः । घृततैलादिवस्तूनां पण्यानां च महर्घता ॥१४॥ उत्तरस्यां सुभिक्षं स्याद् राज्ञामुछेगकारणम् । मध्यदेशे महावृष्टि-निष्पत्तिर्धान्यसन्ततः ॥१४२।। पृष्टेऽपि पश्चिमे कालः पूर्वस्यां राजविग्रहः । शुभ फल का विचार करना ॥१३६॥ मेष प्रवेश लग्नमें यदि वर्ष प्रवेश हो और सप्तम स्थानमें पाप ग्रह हो तो धान्यका नाश हो ॥ १३७|| अथवा मेषसंकान्ति के प्रवेशमें धन स्थान, व्यय स्थान और केन्द्र इनमें शुभग्रह हों, तथा अपने नक्षत्र पर शुभग्रह की या मित्रत्रह की दृष्टि हो तो मुभिक्ष होता है अन्यथा दुर्भिक्ष हो । १३८॥
ज्योतिषियोंको चैत्र मासके शुक्लपक्षकी प्रतिपदाके दिन प्रारंभमें वर्ष लग्नका शुभाशुभ विचार करना चाहिये ॥१३६॥ मेष. लग्न में वर्ष प्रवेश हो तो पूर्व दिशामें दुर्भिक्ष और राज्य विग्रह । दक्षिण में सुभिक्ष, पृथ्वी धान्य और रससे पूर्ण हो ॥१४॥ धान्यको बेचने में लाभ, पूर्ण मेघ बरसे, बी, तेल आदि वस्तुओंकी महता हो ॥१४१॥ उत्तर में मुभिक्ष, राजाओं मे उग, मध्यदेशमें महावर्षा और धान्यकी प्राप्ति हो ॥१४२॥ वृषलग्नमें
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