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संवत्सराधिकारः
(१०७)
माधवो नैव वर्षेच पिङ्गले नात्र संशयः ॥११॥ गोमहिष्यो हिरण्यं च रौप्यं लानं विशेषतः। सर्वस्वमपि विक्रीय कत्तव्यो धान्यसंग्रहः ॥१२॥ तेन संजायते देवि ! दुर्भिक्ष क्रमतो जने। पश्चाद, वर्षति मेघोऽपि सर्वधान्यं प्रजायते ॥१३॥ जायन्ते बहुला रोगाः कालसंवत्सरे प्रिये !। अल्पोदकास्तथा मेघा अल्पसस्या च मेदिनी ॥१४॥ तोयपूर्णो भवेद् मेघो बहुसस्या वसुन्धरा । निष्ठुराः पार्थिवा देवि! रौद्रे रौद्रं प्रवर्तते ॥१५॥ सुभिक्ष समता धान्ये व्यवहारो न वर्तते । जायते मध्यमा वृष्टिदुर्मतौ वत्सरे सति ॥१६॥ सुभिक्षं जायते स्वस्थ-देशाश्च निरुपद्रवाः । प्रजानां सुखितारोग्यं जाते दुन्दुभिवत्सरे ॥१७॥ सर्वस्वमपि विक्रीय कर्तव्यो धान्यसंग्रहः । रुधिरोद्गारिवर्षे च दुर्भिक्ष भविता महत् ॥१८॥ आदिका विनाश हो, वर्षा न बरसे इस में संशय नहीं ॥ ११ ॥ गौ मेंस सोना चांदी और तांबा आदि बेच कर भी धान्य का संग्रह करना चाहिए ॥ १२ ॥ हे देवि! इस से क्रमशः दुष्काल होगा मगर पीछे से वर्षा भी वरसेगी और सब धान्य भी पैदा होगा ॥ १३ ॥ हे प्रिये! कालवर्ष में बहुत प्रकार के रोग फैलें, वर्षा थोडी हो और पृथ्वी पर धान्य भी थोडा हो ॥ १४ ॥ हे देवि! रौद्रवर्ष में जलसे पूर्ण मेघ हो, पृथ्वी बहुत धान्य वाली हो, राजा निष्ठुर हों और घोर उपद्रव हो ॥ १५ ॥ दुर्मतिवर्षमें सुकाल: हो, धान भाव समान रहै, व्यापार ठीक न चलै और मध्यम वर्षा हो ॥ १६ ॥ दुन्दुभीवर्ष में सुकाल हो, देश उपद्रव रहित स्वस्थ हो, प्रजा सुखी और आरोग्यवाली रहै ॥ १७ !! रुधिरोद्गारीवर्षमें बड़ा दुष्काल हो,
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