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मेवमहोदय
द्रपदे पुरुषा नपुंसकानि, पश्चिमायां महती मेघवर्षा, सर्वधान्यं समर्थम्, उत्तरदक्षिणयोर्मध्ये महामेघः परं लोकपीडा, आश्विने रसकसधातुमहर्घता धान्यसमता कार्तिकादयो मासाश्चत्वारस्तत्र सर्वदेशे अनं महधम् ॥ १० ॥ ईश्वरे राहुः स्वामी, उत्तरस्या दुर्भिक्ष, पूर्वस्या सुभिक्ष, पश्चिमाया परस्पर विरोधः, चैत्रे वैशाखेनमहर्घता, ज्येष्ठापाढयोरल्पवृष्टिः परं सर्वधान्यमहर्घता, कार्तिके रौरवं दुर्भिक्षं, मञ्जिष्ठामरिच लवंगएलादिपूगी पतवस्तु महर्घता, मागशीर्षादिमासचतुष्टयेऽतिदुर्भिक्षं, धान्यं मह, मनुष्याणां रुण्डमुण्डानि भूमिकायां रुलन्ति ॥११॥ यहुधान्ये केतुः स्वामी, पुरुषा निर्वीर्याः, पश्चिमायां सुभिक्षं परं सौख्यं सवैदेशमध्ये, दक्षिणस्यां विग्रहः परं महाभयं, उत्तरापथे स. बदेशेषु पीडा, पूर्वस्यां दुर्भिक्ष, अन्नसंग्रहः कार्य:, चैवैशावर्षा, घी तेल जुआर कपास मँजीट मिरच और सुपारी मगे हो, श्रावणमें सब धान्य तेज, भाद्रपद्रमें पुरुषों में कायरता, पश्चिममें बडी वर्षा, सब धान्य सस्ते; उत्तर दक्षिण के मध्य महा वार्षा परन्तु लोकपीडा,आश्विनमें रसकस और धातु तेज, धान्य समान; कार्तिकादि चार मास सत्र देशमें मन्न महँग हो ॥१०॥ ईश्वरवर्षका स्वामी राहु है, उत्तरमें दुष्काल, पूर्वमें मुकाल, पश्चि में अन्योऽन्य विरोध, चैत्र और वैश.ग्वमें अन्नभान तेज, ज्येष्ट और आषाढमें थोड़ी वर्षा पीछे सब धान्य तेज, कतिकमें बड़ा दुष्काल, जीठ मीरच लौंग इलायची सुवाग ये वस्तु महँगी हों, मार्गशीर्षादि चार मास में बड़ा दुकाल, धान्य भाय तेज, पृथ्वी पर घोर युद्ध हो जिससे मन्प्यों के रुंड पृथ्वी पर लेटें ॥ ११ ॥ बहुधान्पवर्ष का स्वामी केतु है, पुरुष हीमपराक्रमी हों, पश्चिनमें सुकाल और सब देशमें सुख, दक्षिगमें विग्रह पीछे महाभय, उतरके मार्ग और देशने पीडा, पूर्वमें दुष्काल, अन्न संग्रह करना चाहिये,
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