________________
(१८८)
नीलश्च वरुणो वायुस्तमोमेघः सनातनः । आवर्त भन्दतोयं स्यात् संवर्त्ते वायुपीडनम् ॥१०॥ पुष्करे बहुलं तोयं द्रोणे वृष्टिः सुखं भवेत् । अल्पवृष्टिः कालमेवे नोलः क्षिप्रं प्रवर्षति ॥ ११ ॥ वारुणे स्वर्णवाकारो वायुर्वर्षाविनाशकः । तमोमेवे न वृष्टिः स्यान्मेघानां फलमीदृशम् ||१२|| मतान्तरेपुन:--- त्रिभिर्गतान्दाः सहिताश्चतुर्भिः, शेषं भवेदम्बुपतिः क्रमेण ।
यावर्त्तसंवर्त्तकपुष्कराच,
महोदये
द्रोणश्चतुर्थो मुनिभिः प्रदिष्टः ॥ १३ ॥ आवतेच्छिन्नवृष्टिः स्यात् संवत् जलपूर्णता । पुष्करेमन्दवृष्टिस्तु द्रोणो वर्षति सर्वदा || १४ ||
सारसंग्रहे तु —
योजयित्वा त्रयं शाके चतुर्भिर्भाज्यते ततः ।
जानना-- आवर्त, संवर्त्त, पुष्कर, द्रोण, कालक ॥ ६ ॥ नील, वरुण, वायु और तमः, ये नव प्राचीन मेव हैं। आवर्तमें मंदवर्षा, संवर्त में वायुपीडा, पुष्कर में बहुत जल, द्रोण में वर्षा और सुख, कालमेघ में थोड़ी वर्षा, नीलमेघ शीघ्र ही बरसता है, वारुणमेघ में समुद्र के सदृश वर्षा हो । वायुमेव वर्षाका नाश करता है और तमामेवमें वृष्टि न हो। ये मेवों का फल कहा ॥ १० ॥ ११ ॥ १२ ॥
गत वर्ष में तीन मिलाकर चार से भाग देना जो शेष बच्चे वह क्रम मेघों के नाम जानना -- आवर्त, संवत्ते, पुष्कर और द्रोण ये चार मेव मुनियोंने कहे हैं ॥ १३ ॥ आवत खंडवी हो, संवत्तमें जल पूर्ण हो, पुष्कर में मंत्र वृष्टि हो और द्रोण सर्वदा वर्षता है ॥ १४ ॥
"Aho Shrutgyanam"