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मीने सुभिक्षं कुशलं समर्प
धान्यं धनस्यात्पतयापि वृष्टया ॥११॥ मागसिरे गुरु प्रथमे उगि तेणे पक्खि । ईति पडे उण्हालीइ जो राखे तो रक्खि ॥ १२ ॥ कलह वसेण सुंदरि कत्तियमासम्मि किष्णपक्खमि । गरुडिडिथियो गुरु प्रथमे जाणिज्जइ छत्तभंगो वि ।। १३॥ मार्गशीर्षे गुरोरस्तं भृगुपुत्रस्य चोदयः ।
तदा जगत्स्थितिः सर्वा विपरीता प्रजायते ॥ १४॥ इति ॥
अथ मेघविचार:
मेघा इह द्वादशधा प्रबुद्धा -
दयः किलोक्ता गुरुचारशास्त्रे । नागाः पुनस्ते ह्यभिधानरागा
दुदाहृता रामविनोदनानि ॥ १॥ तथा च तद्ग्रन्थे द्वादशधा नागा:गताब्दा द्वियुताः सूर्य- भक्तास्तत्र विशेषतः । सुबुद्धो नन्दिसारी च कर्कोटकः पृथुश्रवा ॥२॥
स्त हो तो सुभिक्ष तथा कुशल हो और थोड़ी वर्षा होने पर भी धान्य सस्ते हो ॥ ११ ॥ मार्गशीर्ष में गुरुका अस्त हो और उसी ही पक्षमें उदय हो तो ग्रिष्मऋतु में ईति का उपद्रव हो ॥ १२ ॥ कार्त्तिक कृष्णपक्ष में गुरु का अस्त हौ और अगस्ति का उदय हो तो छत्रभंग हो ॥ १३ ॥ मार्गशीर्ष में गुरु का अस्त हो और भृगुसुत (अगस्ति) का उदय हो तो सब जगत् की स्थिति विपरीत हो ॥ १४ ॥ इति ॥
गुरुवार के शास्त्र में प्रबुद्धादि बारह प्रकारके मेघ कहे हैं और रामविनोद नामके शास्त्र में भी मेघका अधिकार कहा है ॥ १ ॥ रामविनोद अंथ में गतवर्ष में दो मिला कर बारहसे भाग देना, जो शेष बचे वह
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