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केतुचारफलम पौधे शिपिपवेदीशं श्रवणे कैकयेश्वरम् ॥७१॥ वासवे पश्चजन्येशं वारुणे सिंहलेश्वरम् । पूर्वभायामगन्नाथं नैमिषेशमुभागतौ ॥७२॥ रेवत्यामुदितः केतुः किराताधिपघातकः । धूम्राकारः सपुच्छश्च केतुर्विश्वस्य पीडकः ॥७३॥ करत्रयीवैष्णवरोहिणीषु, मृगे तथादित्ययुगाश्विनीषु । कुर्याच्छिशूनां नृपतेश्च चूडामन्दोलितास्ते शिखिनो भवन्ति ।। वाराहसंहितायाम्शतमेकाधिकमेके सहस्रमपरे वदन्ति केतृनाम् । बहुरूपमेकमेव प्राह मुनि रदः केतुम् ॥७॥ केतुग्रहणविचार......
आदित्यनासकाले च दुर्भिक्षं प्रायसः पुनः। - ! कयदेशके राजाको कष्ट हो ॥७१॥ धनिया में पांचालदेशके अधिपति को, शतभिषामें सिंहलदेशके राजाको, पूर्वाभाद्रपद में अंगदेशके राजाको, उत्तराभाद्रपद में नैमिषदेशके अधिपतिको कष्ट हो ॥ ४२ ॥ रेवतीमें केतु का उदय हो तो किरातदेशके राजाको कष्ट हो । यदि केतु धूम्राकार और बड़ी पुच्छवाला हो तो वह जगत्को दुःख देता है ॥७३॥ . . - हस्त, चित्रा, स्वाति, श्रवण, रोहिणी, मृगशीर्ष पुनर्वसु, पुष्य, प्रा
लेषा, मघा और अश्विनी इन नक्षत्रों में बालकोंका तथा राजाओंका चूडा कर्म करना चाहिए, चूडाकर्मसे संस्कार किये हुए वे लोग शिखावाले होते
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- वाराहसंहिता में कहा है कि- कोई पंडित कहते हैं कि केतु की संख्या एकसौ एक हैं, कोई कहते है कि एक हजार हैं। नारदमुनि कहते है कि केतु एकही है मगर यह एकही बहुरूपी है ॥ ७५ :
" केतुका सूर्य के साथ ग्रहण हो तो दुकान हो और उस के तिथि
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