________________
गुरुचारफलम्
(१८९) मेघा आवत्तसवत्तं-पुष्कर द्रोणकाः क्रमात् ॥१५॥ अल्पवृष्टिः खण्डवृष्टि-महावृष्टिश्च वायवः । एषां चतुर्णी क्रमतः फलमेवं सतां मतम् ॥१६॥ पुनः-मेघश्चतुर्विधा प्रोक्ता द्रोणाख्यः प्रथमो मतः ।
आवतः पुष्करावर्त्त-स्तुर्यः संवर्तकाभिधः ॥१७॥ बहुवृष्टिः खण्डवृष्टि-मध्यवृष्टिश्च वायवः ।। एषां चतुर्णा क्रमतः फलानि चतुरा जगुः ॥१८॥ सिद्धान्तेऽपि स्थानाङ्गे--::
. चत्तारि मेहा पण्णत्ता तंजहा-पुक्खलसंवदृते पज्जुन्ने जीमूते जिम्हे । पुक्खलसंवट्टएणं महामेहेणं एगेणं वासेणं दसवाससहस्साई भावेद । पज्जुन्नेणं महामेहेणं एमेणं वासेणं दसवाससयाई भावेइजीमृतेगां महामेहेणं एगेणं दसवासाई भावेइ । जिम्हेण महामेहे यहूहिं वासेहिं एग वासं भावेइ
शक संवत्सरमें तीन मिलाकर चार का देना, शेष बचे वह क्रमसे मेघके नाम--आवर्त संवर्त पुष्कर और द्रोण हैं ॥१५॥ इन चारों का अनु. क्रपसे अल्पवर्षा, खण्डवर्घा, महावर्षा और वायु का चलन, ऐसा फल महपियोंने कहा है ॥१६!! पुनः-मेव चार प्रकार के हैं --द्रोण, आवर्त्त, पुकर और चौथा संवर्तक नाम का है ॥ १७ ।। इन चारों का अनुक्रसे वर्षा बहुत, खंडवर्षा, मध्यवर्षा और वायु का चलन, इस प्रकार के फल विद्वानों ने कहा है ॥१८॥ - स्थानांगसूत्र में चार प्रकारके मेत्र कहे हैं -- पुष्करसंवर्तक १, प्रद्युम्न २, जीभूत ३, और जिम्ह ४ । पुष्करसंवर्तक नामका महामेध एक वार बरसे तो दश हजार वर्ष तक पृथ्वी को रसकाली करता है । प्रद्युम्न नामका महामेव एक बार बरसे तो एक हजार वर्ष तक पथ्वीको रसवाली करता है जीमूत नामका महामेव एकबार वरसे तो दश वर्ष तक पृथ्वी को रसवाली करता
"Aho Shrutgyanam"