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मेघमहोदये
मह लवणं लोके मरौ धान्यं महर्घकम् ॥ १२८ ॥ चैत्र वैशाखयो : सिन्धु-देशे कटकचालकः । वस्त्रकस्थल हिंगनां महर्घत्वं प्रजायते ॥ १२६ ॥ कार्त्तिके वाश्विने रोगा- छत्रभङ्गो महद्भयम् । रसकर्पास्त्राणां सर्वत्र स्यान्महता ॥ १३० ॥ आषाढे मणगोधूमाञ्चतुर्भिः स्कन्दकैर्मताः । अष्टादशभिराज्यं च तैलं तैर्मनुसंमितैः ॥ १३१ ॥ श्रावणे वा भाद्रपदे धान्यं संगृह्यते तदा । पौधे स्याद् द्विगुणो लाभो युगन्धर्याश्च विक्रयात ॥१३२॥ मीनराशिस्थगुरुफलम् -
मीने गुरौ फाल्गुने स्याद् वत्सरः संभवो घनः । खण्डवृष्टिर्महर्षाणि सर्वधान्यानि भूतले ॥ १३३ ॥ वायुरोगस्य पीडा च देशान्तरे ब्रजेज्जनः । मासानां पञ्चकं यावद् भयं राजविरोधतः ॥ १३४ ॥
लूण (नमक) तेज तथा मारवाड में धान्य भाव तेज हो ॥ १२८ ॥ चैत्र वैशाखमें सिन्धु देशमें कटक चाले, वस्त्र कंवल हिंग ये तेज हो ॥ १२६॥ कार्तिक आश्विनमें रोग तथा छत्रभंग आदिका बड़ा भय हो, रस कपास और वस्त्र तेज हो || १३ || आषाढमें चार स्कंदोंसे मण भरे गेहूँ, अठारह स्कंदोसे मणभर थी और चौदह स्कंदोंसे तेल बिकें ॥ १३१ ॥ श्रावण भादों में धान्यका संग्रह करे तो पौध में उसको और जुआारको बेचनेसे दूना लाभ हो ॥ १३२ ॥ इति कुंभराशिस्थगुरुका फल ||
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जब मीनराशिका बृहस्पति हो तब फाल्गुनसंवत्सर कहा जाता है । इसमें संभव नाम का मेघ बरसता है. पृथ्वी पर खंडवृष्टि और सब धान्य तेज हो ॥ १३३ ॥ वायुरोग की पीडा और लोग देशान्तर में जावें, पांच मास तक राजविरोध होनेसे भय हो ॥ १३४ ॥ पीछे सुख और सुभिक्ष
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