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( ११४)
मेघमहोदये
जायते च नृणां कष्टं विरोधो वा विरोधिनि ||२३|| सर्वत्र जनपीडा स्वाद ज्वराद्धान्यमहर्घता । शिरोर्त्तिश्चक्षुरोगादि- विकृतिर्वैकृते भवेत् ||२४|| उपप्लुतं जगत् सर्वे तस्करैः शलभैः शुकैः । प्रपीडिताः प्रजा भूपाः खरेऽनिखरता भुवि ||२५|| स्वस्थता जायते देशे व्याधिः सर्वोऽपि शाम्यति । धनधान्यवती भूमि- नन्दने नन्दति प्रजा ||२६|| अल्पतोयधरा मेघा वर्षन्ति खण्डमण्डले । नश्यन्ति सर्वसस्यानि विजये विजयो रखे ||२७|| क्षत्रियाश्च तथा वैश्याः शूद्रा ये नटनायकाः । पीडयन्ते तोडसंक्षोभो जये न्यायपरिक्षयः ||२८|| सरोगं जायते विश्वं दाघज्वरादिरोगतः । . पीडयन्ते च जगत् सर्वं मन्मथे मन्मथक्रिया ||२९|| तुपधान्यक्षयादेव सर्वधान्यमता ।
और मनुष्यों में दुःख तथा विरोध हो || २३ || विकृतिवर्ष में सब जगह मनुष्योंको दुःख ज्वररोगसे हो, धान्य महँगे हों, माथेमें तथा आँख में रोग का विकार हो ॥ २४ ॥ खरवर्षमें समस्त जगत् चोर, शलभ और शुकोंसे उपद्रवित हों, राजा तथा प्रजा दुःखी हो और भूमि रसकस रहित हो || २५ || नन्दनवर्षमें देश प्रसन्न हो, सब प्रकार के रोगों की शान्ति हो, प्रध्वीधन धान्यसे पूर्ण हो और प्रजा ग्रानन्दित रहे ॥ २६ ॥ विजयवर्ष मैं देशमण्डल में वर्षा थोडी बरसे, सब धान्यका विनाश हो और युद्धमें वि जय हो || २७ ॥ जगवर्षमें क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और नट नायक आदिको दुःख हो, टीड्डीका प्रकोप और न्याय नीतिका विनाश हो ॥ २८ ॥ मन्मथवर्ष में जगत् रोग रहित हो, दाह ज्वरादिसे सब जगत् दुःखी हो तथा काम क्रीडा में व्यय रहै ॥ २६ ॥ दुर्मुखवर्षमें वास तथा धान्यका विनाश,
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