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मेघमहादये
कचिच्छोकः कचिन्मोदः पिङ्गले मङ्गलं बहु ||२०|| दुर्भिक्षं जायते लोके सर्वरसमहता |
भूम्यां मूषकपीडा च कालयुक्ते कलिर्महान् ॥ ५१|| तोयपूर्णाः शुभा मेवा बहुसख्या च मेदिनी निष्ठुराः पार्थिवा देशे सिद्धार्थे वत्सरे सति ॥५२ || उपद्रवो रणात् क्षेत्रे मूषकैः शलभः शुकैः । दुर्भिक्ष स्वल्पकं रौद्रे क्रमाद्रौ प्रवर्त्तते ॥५३॥ सुभिक्ष भवति प्रायो व्यवहारो न वर्तते । दुर्मती मध्यमा वृष्टिः पश्चात् सौम्यं सुखं जने ॥ ५४ ॥ सुभिक्षं स्यान्महोत्साहाद. दुन्दुभिर्नन्दति ध्रुवम् । विप्रागाच गवां वृद्धि - दुन्दुम सर्वतः शुभम् ॥५५॥ अल्पवृष्टिर्भवेद दैवात् कृररूपाश्च मानवाः । संग्राम दारुणो भूपै रुधिरोद्वारिवत्सरे ||१६|| मेदिनी पुष्पिता मेघैः सरमा धान्यसम्भवात् ।
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५० ॥ कालवर्ष जगतूने दुष्काल हो सब रसवाले पदार्थ तेज भाव हों, पृथ्वी पर चूहों का उदय हो और बड़ा कलह हो ॥ ५१ ॥ सिद्धार्थन में जल से पूर्ण अच्छी वर्षा हो, पृथ्वी बहुत धान्यवाली हो और देशमें राजा निष्ठुर हो ॥ ५२ ॥ रौद्रवर्षमें देशमें युद्ध से चूसे शलमोंसे और शुकोंसे उपश्र्व हो थोड़ा दुष्काल पड़े बड़ा भयानक हो ॥ ५३ ॥ दुर्मतिवर्ष में प्रायः सुकाल हो, व्यवहार बन्ध रहे, मध्यम वर्षा हो और पीछेसे लोक में मुखशान्ति हो ॥ ५४ ॥ दुन्दुमीवर्ष में सब ओर से शुभ तथा सुकाल हो, बड़े उत्सवसे दुंदुभीका शब्द हो और गो ब्राह्मणोंकी वृद्धि हो ॥ ५५ ॥ रुधिसद्गारिवर्षमें दैवयोगसे थोड़ी वर्षा हो, मनुष्य क्रूर स्वभाव के हों और राजा ओका वोर संग्राम हो ॥ ५६ ॥ रक्ताचिवर्षमें भूकम्प हो, प्रायः लोक रोग से व्याकुल हों और अच्छी वर्षा होनेसे तथा धान्य उत्पन्न होनेसे पृथ्वी
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