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संवाभराधिकारः तोयपूर्णा भुवि मेघा वर्षन्ति च निरन्तरम्। साधारणे लोकहर्षः सर्वसस्यं प्रजायते ॥४४॥ माधवो वर्षति जने देशेषु खण्डशः कचित् । छत्रभङ्गः कान्यकुब्जे विरोधी स्याद् विरोधिनि ॥४५॥ सन्तुष्टं च जगत्सर्व क्षेमाणि विविधान्यपि।। मरुतोऽपि वान्ति सौम्याः परिधाविनि वत्सरे ॥४॥ निष्पत्तिः सर्वसस्थानां सर्वरसमहर्घता। तैलं घृतं समं याति आनन्दे नन्दिताः प्रजाः ॥४७॥ कोद्रवा शालयो मुद्गः पीड्यन्ते धान्यरोगतः। विप्रपीडा राजयुद्धं राक्षसे निष्ठुराः प्रजाः ॥४८॥ दुर्भिक्षं जायते किञ्चिद् धान्यौषधविनाशतः । आश्विने मरण वैरं नले तापोल्ललात् क्षयः ॥४॥ सुभिक्षं देशभोगश्च रसवस्त्रमहर्षता । ॥ ४३ ।। साधारणवर्षमें पृथ्वीपर निरन्तर जलसे पूर्ण वर्षा हो, लोक प्रसन्न रहें और सब धान्य पैदा हो ॥ ४४ ॥ विरोधीवर्षमें विरोध हो, दे. शमें या खण्डमें क्वचित् ही वर्षा हो और कान्यकुब्ज छत्रभंग हो ॥४५॥ परिधावीवर्ष में समस्त जगत् प्रसन्न हो, अनेक प्रकारके कल्याण हो, और मुखदायक वायु चलै ॥ ४६ ॥ आनन्दवर्षमें प्रजा आनन्दित रहे, सज तरहके धान्य पैदा हों, सब रसवाले पदार्थ महँगे हों, तथा तैल और घी का समान भाव रहै ॥ ४७ ॥ राक्षसवर्षमें कोद्रव, चावल, मूंग, आदि धान्यका विनाश हों, ब्राह्मणों को दुःख और राजाओं में युद्ध हो तथा प्रजा निष्टर. (कर) हो ॥ ४८ ॥ नलवर्षमें धान्य और औषधियोंका विनाश होनानेसे कुछ दुकाल हो, आश्विनमें मरण तथा द्वेष हो और तापकी ज्वालासे विनाश हो ॥ ४६॥ पिङ्गलवर्षमें बहुत मङ्गल तथा मुकाल हो, रसवाले पदार्थ और वस्त्र महँगे हों और कभी शोक तथा कभी हुर्ष हो ।
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