________________
संवत्सराधिकार:
व्यवहारविनाशश्च दुर्मुखे न सुखं कचित् ॥३०॥ क्षीयन्ते सर्वसस्यानि देशेषु च न सुस्थता । हेमलम्बे प्रजाहानि दुर्भिक्षं राजपीडनम् ॥ ३१ ॥ तस्करैः पार्थिवैदेव: पराभूतमिदं जगत् । अर्थो भवति सामान्यो विलम्बे तु महद्भयम् ||३२|| दुःखितं च जगत् सर्वे बहुधा स्युरुपद्रवाः । विकारिवत्सरे सर्पाः वर्षा वर्षेऽत्र पश्चिमा ॥ ३३ ॥ पर्वते पर्वते वृष्टि-देशेऽपि खण्डमण्डले । व्यापारस्य विनाशश्च दुर्भिक्षं शर्वरीकृतम् ||३४|| सुभिक्षं जायते लोके मेदिनी तुष्यति ध्रुवम् । प्लाव्यन्ते सर्वतो नीरैः पण्डिता अपि मानवाः ||३५|| शोभनानि च धान्यानि सुखं लोके चराचरे । ब्राह्मणा अपि सन्तुष्टाः शुभकुद्वत्सरे सति ॥ ३६ ॥ सुभिक्षं सुखमोत्माह-महीगोब्राह्मणादयः ।
(222)
सब प्रकार के धान्य तेज, व्यवहार (व्यापार) का विनाश और सुख कचित् ही हो ॥ ३० ॥ हेमलम्ब सब धान्य विनाश हो, देश में शान्ति न रहे, प्रजःका विनाश हो, दुष्काल पड़े और राजाको कष्ट हो ॥ ३१ ॥ विलम्बवर्ष में चोर, राजा और देवों यह जगत् पराभूत हो, धान्य सामान्य और बड़ा भय हो || ३२ || विकारीवर्गमं सब जगत् दुःखी हो, अनेक प्रकार के सार्वादि उपदव हों और पश्चिम में वर्षा हो ॥ ३३ ॥ शर्वरीवर्ष में पर्वत पर्वत पर और देश तथा खंड में वर्षा हो, व्यापार ठीक न चले और दुष्काल हो || ३४ ॥ प्लवर्ष जगत् सुकाल हो पृथ्वी सब तरह जल से पुट हो, बुद्धिमान लोग भी प्रसन्न रहे || ३५ || शुभवर्षमें चराचर जगत् में सुख और अच्छे २ धान्य पैदा हों और ब्राह्मण सन्तुष्ट रहें ॥ ३६ ॥ काल, पृथ्वी सुखमयं गौ ब्राह्मण आदि सुखी, देशमें शान्ति
"Aho Shrutgyanam"