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सर्वत्तराधिकारः
रोगाश्च विविधाश्चैव नराणां वाजिदन्तिनाम् । पृथ्वीपतिविनाशश्च ध्रुवं शुक्ले प्रजायते ||३|| उत्तमं च जगत्सर्वे धनधान्यसमाकुलम् | नित्योत्सवः प्रजावृद्धिः प्रमोदे नात्र संशयः ॥४॥ नीरोगाश्च निराबाधाः सर्वदुःखविवर्जिताः । बहुक्षीरघृता गावः प्रजासुखं प्रजापतौ ॥५॥ हर्षितं जगत्सर्व नरा निर्धनधान्यकाः । प्रजाविवाहमाङ्गल्य-मङ्गिरायां तु निश्चितम् ||६|| सुभिक्षं कुशलं लोके वर्षाकालेऽतिशोभनम् । वृद्धिश्व सर्वसस्यानां श्रीमुखे सति निर्णयात् ||७|| बहुक्षीरघृता गावो धान्यं च प्रचुरं स्मृतम् । समर्घ्यं च भवेत् सर्व भावे भावेषु सुस्थता ||८|| मह जायते धान्यं घृतं तैलं तथैव च । प्रजानां जायते वृद्धियुवा युवतिनन्दनः ॥६॥
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प्रकार के रोग हों और राजा का विनाश हो || ३ || प्रमोदवर्ष में समस्त जगत् उत्तम धन धान्य से पूर्ण हो, सर्वदा शुभोत्सव हो और प्रजा की वृद्धि हो इसमें संशय नहीं ॥ ४ ॥ प्रजापति वर्ष में सब लोग रोग रहित बाधा रहित और सब प्रकार के दुःख रहित हों, गौएं बहुत घी दूध दें और
प्रजा सुखी हो || ५ || अङ्गिरा वर्ष में समस्त जगत् आनन्दित हों, मनुष्य धन धान्य से रहित हों और प्रजामें विवाह मङ्गल वर्ते ॥ ६ ॥ श्रीमुखवर्षमें जगत् में सुकाल और कल्याण हों, वर्षाऋतु में बडी मनोहरता हो और सब प्रकारके धान्यकी वृद्धि हो || ७ || भाववर्ष में गौएं बहुत दुध घी दें, बहुत धान्य पैदा हों और सब वस्तुके भाव सस्ते हों ॥ ८ ॥ युवावर्षमें धान्य तेज हो तथा घी तेल भी तेज हों, प्रजाकी वृद्धि और युवा स्त्री पुरुष प्रसन्न रहें ॥ ६ ॥ धातृसंवत्सर में गेहूँ चावल आदि सब धान्य
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