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मेघमहोदये
रुधिरोद्गारिणि त्वाधिः प्रभूताः स्युस्तथाऽऽमयाः। नृपसंग्रामसम्भूतव्यापदस्त्वखिला जनाः ॥१०४॥ रक्ताक्षवत्सरे भूपा अन्योऽन्यं हन्तुमुद्यताः । ईतिरोगाकुला धात्री स्वल्पसस्याघवृष्टयः ॥१०५॥ क्रोधनाब्दे मध्यवृष्टिः पूर्वसस्यविनाशनम् । सम्पूर्णमपरं सस्य भूपाः क्रोधपराः सदा ॥१०॥ क्षयान्दे सर्वसस्यार्घ-वृष्टयः स्युः क्षयंगताः । तथापि लोका जीवन्ति कथञ्चिद् येन केनचित् ॥१०७॥ एवं प्रायो वत्सराख्यानुसारि, वाच्यं प्राच्यैरुक्तभावं प्रधार्य । तत्राऽप्यने जीवराहर्किकेतु-चारं वारंवारमन्तर्विमृश्य ।।१०८।। ___ अथ रुद्रदेवब्राह्मणेन पार्वतीमुद्दिश्य ईश्वरवाक्येन कृता मेघमाला तस्यां विशेष:
प्रथमा विंशतिर्लामी द्वितीया वैष्णवी स्मृता । पूर्वदेश का विनाश हो ॥ १०३ ॥ रुधिरोद्गारीवर्ष में राजा युद्ध करें, सब लोक दुःखी हों और बहुत आधि व्याधि फैलें ॥ १०४ ॥ रक्ताक्षिवर्ष में राजा परस्पर युद्धके लिये तत्पर हों, ईति और रोगसे पृथ्वी व्या - कुल हो, थोड़ी खेती और वर्षा हो ॥ १०५ ॥ क्रोधनवर्ष में मध्यम वर्षा हो, पहले धान्यका विनाश हो परन्तु पीछे सम्पूर्ण धान्य पैदा हों, राजा क्रोध में तत्पर हो ॥ १०६ । क्षयसंवत्सरमें समस्त धान्य और वर्षा का नाश हो, तो भी किसी तरह से लोक प्राण धारण करें ॥ १०७ । इस तरह प्राचीन विद्वानों के कहे हुए फलादेश का विचार कर और वर्ष में बृहस्पति राहु शनि और केतु के चालन का वारंवार हृदय से विचार कर वर्षों के नामसदृश फल कहना ॥ १०८ ॥
___इति रामविनोदे षष्टिसंवत्सरफलम् । रुद्रदेवब्राह्मण ने अपनी मेघमाला में साठ संवत्सर का फल विशेष रूपसे
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