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मेघमहोदये
मसंवत्सरे - "कोद्रवाः शालयो मुद्गाः कंगुलाक्षास्तथैव च । परिधानं सुभिक्षं स्यात् सुवृषे च सुलोचने” ! ॥ १ ॥ चरणका मुद्रमाषाश्च यचान्नं विदलं प्रिये ! |
विचित्रा जायते वृष्टि-चित्रभानौ न संशयः ॥ १ ॥ इतिवचनाचित्रभानुसुमान् श्रेष्ठौ, तारणः अशुभः, पार्थिवः शुभः । व्ययसंवत्सरे स्वल्पवृष्टी रोगपीडा धान्यसमता विग्रहः । इति प्रथमा ब्राह्मी विंशतिका || तोयपूर्णा भवेत् क्षोणी बहसस्यसमन्विता । सुभिक्षं सुस्थितं सर्व सर्वजिद्वत्सरे प्रिये ॥ १ ॥ जलैश्च प्रबला भूमि- श्रन्यमौषधपीडनम् । जायते मानुषं कष्टं सर्वधारिणि शोभने ॥२॥ प्रजा च विकृता घोरा पीडिता व्याधितस्करैः । अल्पक्षीरघृता गावा विरोधिवत्सरे प्रिये ! ॥३॥ उपप्लवं जगत्सर्वं तस्करैः शलभैस्तथा ।
शालि अर्थात् चावल मूंग कंगु लाख आदि पैदा हों और सुकाल हो ॥ १ ॥ हे प्रिये ! चित्रभानुवर्ष में चणा मूंग उडद यत्र आदि धान्य पैदा हों और विचित्र वर्षा हो १ ॥ चित्रभानु और सुभानु ये दोनों वर्ष श्रेष्ठ हैं । तारणवर्ष अशुभ है । पार्थिववर्ष शुभ है । व्ययवर्षमें थोड़ी वर्षा, रोग पीडा, धान्य भाव समान रहे और विग्रह हो ॥ १ ॥ इति प्रथमा ब्राह्मीविंशतिका ॥
हे प्रिये ! सर्वजिदवर्ष में पृथ्वी जलसे और बहुत धान्य से पूर्ण हो, सच यथास्थित सुकाल रहै ॥ १ ॥ हे शोभने ! सर्वधारीवर्ष में जल से पृथ्वी प्रबल हो, धान्य और औषधियों का विनाश हो, मनुष्यों को कष्ट हो ॥ २ ॥ प्रिये ! विरोधीवर्ष में व्याधि और चोरों से प्रजा अत्यन्त दु:खी हो और गौएं थोड़ा घी दूध दें ॥ ३ ॥ हे पार्वति ? विकृतिवर्ष में समस्त जगत् चोर और शलभादि जन्तुओं से उपद्रवित हों और विकारजनक
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