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मेघमहोदये
विषमस्थं जगत्सर्व विविधोपद्रवान्वितम् । मूषकैश्च शुकैर्देवि! विलम्बे पीडयते जनः ॥ १२ ॥ स्वल्पोदका जने मेघा धान्यमौषधपीडनम् । दुर्भिक्षं जायते सस्यं विकारिवत्सरे प्रिये ! ॥१३॥ पृथिव्यां जलस्य शोषो धने धान्ये च पीडनम् । मेघो न वर्षति प्रायः पीडा स्यान्मानुषी भुवि ॥१४॥ कचिच्च धान्यनिष्पत्ति-मण्डलं निरुपद्रवम् । मेघाश्च प्रबला लोके प्लवे संवत्सरे प्रिये ! ||१५|| सुभिक्षं सर्वदेशेषु तृप्ता गौर्ब्राह्मणास्तथा । नन्दति च प्रजा सौख्ये शुभकुद्वत्सरे प्रिये ! ॥ १६ ॥ सुभिक्षं क्षेममारोग्यं विग्रहश्च महद्भयम् । क्रूरैर्वक्रगतैर्देवि ! शोभने वत्सरे प्रिये ! ॥॥१७॥ विषमस्थं जगत्सर्व व्याधिरोगसमाकुलम् ।
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धान्य सामान्य हो ॥ ११ ॥ हे देवि ! विलम्बवर्ष में सब जगत् अनेक प्रकार के उपद्रवोंसे अव्यवस्थित हो और चूहा टिड्डी आदि से लोक दुःखी हों ॥ १२ ॥ हे प्रिये ! विकारीवर्ष में दुष्काल हो, वर्षा थोडी हो, धान्य और औषधि का नाश हो, और घास पैदा हो ॥ १३ ॥ शार्वरी वर्ष में पृथ्वी में जल सूख जावे । धन धान्य का विनाश हो, प्रायः मेघ न बरसे और जगत् में मनुष्यकृत दुःख हो ॥ १४ ॥ हे प्रिये ! प्लववर्ष में कचित् धान्य पैदा हो, देश उपद्रव रहित हो और पृथ्वी पर प्रबल वर्षा वरसे ॥ १५ ॥ हे प्रिये ! शुभकृत् वर्ष में समस्त देश में सुकाल हो, गौ ब्राह्मण तृप्त हों और सुख में प्रजा आनन्द करे || १६ || हे देवि! शोभनवर्ष में सुकाल हो, कल्याण हो आरोग्य हो; यदि क्रूर ग्रह वक्रगतिवाले हों तो विग्रह और बड़ा भय हो ॥ १७ ॥ क्रोधिवर्ष में समस्त जगत् आधि व्याधि से व्याकुल हो कर अव्यवस्थ रहे और थोड़ी वर्षा हो ॥ १८ ॥ विश्वावसु वर्ष में सवत्र कल्याण हो, सब धा
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