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संवत्सराधिकार
(१०३)
विकृता जलवृष्टिः स्याद् विकृते हिमवत्सुते ! ॥४॥ अल्पोदकाः पयोवाहा वर्षन्ति खण्डमण्डले। निष्पत्तिः स्वल्पधान्यानां खरे संवत्सरे प्रिये ॥५॥ मुभि जायते लोके व्याधिशोकविवर्जितम् । धनधान्येषु सम्पूर्ण नन्दने नन्दति प्रजा ।।६।। क्षत्रियाश्च तथा वैश्याः शूद्रा वा नटनायकाः । पीडयन्ते च वरारोहे ! जये दुर्भिक्षसम्भवः ॥७॥ मानुषाः सर्वदुःखार्ता ज्वररोगसमाकुलाः । दुर्भिक्षं वा कचित्सुस्थं विजये वरवर्णिनि !॥८॥ तुषधान्यक्षयो देवि ! कोद्रवान्नमहर्घता। व्यवहारप्रवृत्त्या तु मन्मथे सुखिनो जनाः ॥६॥ पीड्यन्ते सर्वधान्यानि वर्षणेन यथेप्सितम् । दुर्मुखे चैव दुर्भिक्षं समाख्यातं सुलोचने ! ॥१०॥ तस्कर पार्थिवैर्देवि! अभिभूतमिदं जगत् । सस्यं भवति सामान्यं हेमलम्बे नगाङ्गजे! ॥११॥ जलवर्षा हो ॥ ४ ॥ हे प्रिये ! खरवर्ष में कोई २ जगह ही वर्ष थोड़ी हो और धान्य भी थोड़ा पैदा हो ॥ ५ ॥ नन्दनवर्ष में सुकाल हो , प्रजा व्याधि शोक से रहित हो और धन धान्यसे आनन्दित हो ॥६॥ हे वरानने ! जयवर्ष में दुष्काल का संभव हो, क्षत्रिय वैश्य शूद्र और नट नायक आदि लोक दुःखी हों ॥ ७ ॥ हे पार्वति ! विजयवर्ष में सब लोक ज्वर आदि रोगों से दुःखी हों और दुकाल हो,कचित्ही यथास्थित रहै ॥८॥हे देवि ! मन्मथवर्ष में वास और धान्य का विनाश हो , कोदों आदि धान्य महँगे हों
और लोग व्यवहार में प्रवृत्त हों ॥ ६ ॥ हे मुलोचने ! दुर्मुखवर्ष में इच्छित वर्षा न होनेसे सत्र धान्य का विनाश हो इसलिये दुष्काल हो ॥१०॥ हे पार्वतीदेवि ? हेमलंबिवर्ष में चोर और राजाओंमे जगत् पराभूत हो और
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