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मेघमहोदये
तथापि वर्द्धते लोकः समधान्यार्घवृष्टिभिः ॥८९॥ सौम्याग्दे निखिला लोका बहुसस्यार्घवृष्टिभिः । विवैरिणो धराधीशा विप्राश्चाध्वरतत्पराः ॥१०॥ साधारणाब्दे वृष्टयर्थ भयं साधारणं स्मृतम् । विवैरिणो धराधीशाः प्रजाः स्युः स्वच्छचेतसः ॥११॥ विरोधकृछत्सरे तु परस्परविरोधिनः । सर्वे जना नृपाश्चैव मध्यसस्यार्घवृष्टयः ॥१२॥ भूपाहवो महारोगो मध्यसस्यार्घवृष्टयः । दु:खिनो जन्तवः सर्वे वत्सरे परिधाविनि ॥१३॥ प्रमाथिवत्सरे सत्र मध्यसस्यार्घवृष्टयः । प्रजाः कथश्चिज्जीवन्ति समात्सर्याः क्षितीश्वराः ॥१४॥ आनन्दाब्देऽखिला लोकाः सर्वदानन्दचेतसः। राजानः सुखिनः सर्वे बहुसस्याघकृष्टयः ॥६५॥ स्वस्वकार्ये रताः सर्वे मध्यसस्याघवृष्टयः । राक्षसाब्देऽखिला लोका राक्षसा इव निष्क्रियाः ॥१६॥ सौम्यवर्ष में समस्त लोक बहु धन धान्य से सुखी हों, राजा वैर रहित हों और ब्राह्मण यज्ञकर्म में प्रवृत्त हों । ६० ।। साधारणवर्ष में वर्षा के लिये साधारण भय कहना, राजा वैररहित हों और प्रजा प्रसन्न मनवाली हो ।। ६१ ॥ विरोधीवर्ष में सब राजा और प्रजा परस्पर विरोधी हों और मध्यम वर्षा हो ।। ६२ ।। परिधावीवर्ष में राजाओ में युद्ध, बड़ा रोग, मध्यम वर्षा और धान्य हो, तथा सब प्राणी दुःखी हों ||६३11 प्रमाथीवर्षमें मध्यम वर्षा, प्रजा को दुःख और राजाओं में परस्पर ईर्षा हो ॥ १४ ॥ आनन्दवर्ष में सब लोक प्रसन्न चित रहें, राजा सुखी हों और बहुत धान्य हो, वर्षा अच्छी हो ॥ ६५ ॥ राक्षसवर्ष में सब अपने २ कार्यों में लवलीन हों, मध्यम वर्षा हो और सब लोक राक्षसकी जैसे क्रिया रहित हों
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