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मेघमहोदये
मन्मथाब्दे जनाः सर्वे तस्करा अतिलोलुपाः । शालीक्षुयवगोधूमै-नयनाभिनवा धरा ॥७६॥ दुर्मुखाब्दे मध्यवृष्टि-रीतिचौराकुला धरा । महावैरा महीनाथा वीरवारणघाटकैः ॥७७॥ हेमलम्बे त्वीतिभीति-मध्यसस्यार्घवृष्टयः । भाति भूर्भूपतिक्षोभः खगविद्युल्लतादिभिः ॥७८॥ विलम्बिवत्सरे भूपाः परस्परविरोधिनः । प्रजापीडा वनर्थत्वं तथापि सुखिनो जनाः ॥७९॥ विकार्यब्देऽखिला लोकाः सरोगा वृष्टिपीडिताः। पूर्वसस्यफलं स्वल्पं बहुलं चापरं फलम् ॥८॥ शर्वरीवत्सरे पूर्णा धरा सस्यार्घवृष्टिभिः । जनाश्च सुखिनः सर्वे राजानः स्युर्विवैरिणः ।। ८१॥ प्लवाब्दे निखिला धात्री वृष्टिभिः प्लवसन्निभा। इच्छा वाले हों ॥७५।। मन्मथवर्षमें सब लोक बहुत लोभी और चोर हों, धान्य, ईख, जव, गेंहू आदिसे नेत्रोंको आनंद देने वाली पृथ्वी हो ॥ ७६ ॥ दुर्मुखवर्ष में मध्यम वर्षा हो, ईति और चोरोंसे पृथ्वी आकुल हो, राजा वीर (सुभट) हाथी घोडों से महावैर करें ॥ ७७ ।। हेमल म्बिवर्षमें ईतिका भय हो, मध्यम वर्षा और थोड़ा धान्य हो, पृथ्वी शोभित हो, और राजा तलवाररूपी लता आदिसे क्षुभित हों || ७८ ॥ विलम्बीवर्षमें राजा परस्पर विरोध करें, प्रजा में पीडा और अनर्थ हो तो भी लोग सुखी हों ||७६ ॥ विकारीवर्ष में समस्त लोग रोग और वर्षासे दुःखी हों, पहले धान्य फल फूल थोड़े हों और पीछे बहुत हों ॥ ८० ॥ शर्वरीवर्ष में पृथ्वी धन धान्य से पूर्ण हो, सब मनुष्य सुखी हों और राजा वैररहित हों ॥८१ ॥ प्लववर्ष में समस्त पृथ्वी वर्षा से प्लव (सुगंधिततृणविशेष) सदृश हो, सम्पूर्ण वर्षमें ईतिभय और रोग रहे || ८२ 11 शुभकवर्ष में पृथ्वी
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