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मेघमहोदये
वृषभाब्देऽखिलाः दमेशा युद्धयन्ते वृषभा इव । मत्ताः प्रसक्ता विप्रेन्द्राः सततं यजतां सुरान् ॥ ६२ ॥ चित्रार्थवृष्टिसस्याद्यैर्विचित्रा निखिला धरा । निराकुलाखिला लोका-चित्रभानोश्च वत्सरे ॥६३॥ सुभानुवत्सरे भूमौ भूमिपानां च विग्रहः । भाति भूर्भूरिसस्याढ्या भुजङ्गमभयङ्करी ॥ ६४ ॥ कथञ्चिन्निखिला लोका-स्तरन्ति प्रतिपत्तनम् । नृपाहवे क्षताद् रोगाद् भैषज्यं तारणेऽब्दके ॥ ६५ ॥ पार्थिवान्दे च राजानः सुखिनः स्युर्भृशं जनाः । बहुभिः फलपुष्पाद्यैर्विविधैश्च पयोधरैः ॥ ६६ ॥ व्ययाब्दे निखिला लोका बहुव्ययपरा भृशम् । वीरमते भतुरग - रथैर्भीतिश्च सर्वदा ॥ ६७ ॥ सर्वजिह्रत्सरे सर्वे जनास्त्रिदशसन्निभाः । राजानो विलयं यान्ति भीमसंग्रामभूमिषु ॥ ६८ ॥
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से भूमिको जीतने वाले हों और सब जगह सर्वदा बहुत वर्षा वरसे ॥ ६१ ॥ वृषभवर्षमें सब राजा मत्त वृषभकी समान युद्ध करें और ब्राह्मण निरन्तर श्रद्धा युक्त होकर देव पूजन करें ॥ ६२ ॥ चित्रभानुवर्ष में अनेक प्रकारकी वृष्टि और धान्यसे समस्त पृथ्वी विचित्रवर्ण वाली हो और सत्र लोग प्रसन्न हों ॥ ६३ ॥ सुभानुवर्ष में पृथ्वी पर राजाओं में विग्रह हों, भूमि बहुत धान्यसे पूर्ण हो तो मी काले नागकी जैसी भयंकर लगे ॥ ६४ ॥ तारण संवत्सर में सब लोक राजाओं के युद्धमें घायल हुए रोगसे मुक्त होकर शहर तरफ जावें ॥ ६५ ॥ पार्थिववर्ष में राजा और प्रजा बहुत फल फूल आदि और वर्षा से बहुत सुखी हों || ६६ ॥ व्ययसंवत्सर में सब लोक बहुत खर्च करें और सर्वदा सुभट मदोन्मत हाथी घोडे और स्थों से पृथ्वी पर भय हो ॥ ६७ ॥ सर्वजित्संवसर में देवों के समान मनुष्य हों, और राजालोग भयंकर संग्राम भूमिमें प्राण
" Aho Shrutgyanam"