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मेघमहोदये
निरीतिः सकलो देशः सस्यनिष्पत्तिरुन्नतः । सुस्थिता भूभुजाः सर्वे प्रभवे सुखिनो जनाः ॥ ४८ ॥ दण्डनीतिपरा भूपा यहुसस्यार्घवृष्टयः । विभवाद्वेऽखिला लोकाः सुखिनः स्युर्विवैरिणः ॥ ४९ ॥ शुक्लाब्दे निखिला लोकाः सुखिनः स्वजनैः सह । राजानो युद्धनिरताः परस्परजयैषिणः ॥५०॥ प्रमोदान्दे प्रमोदन्ते राजानो निखिला जनाः । वीतरोगा वीतभया इतिवैरिविनाकृताः ॥५१॥ न चलन्त्यखिला लोकाः स्वस्वमार्गात् कथञ्चन । अब्दे प्रजापतौ नूनं बहुसस्यार्घवृष्टयः ॥५२॥ अन्नाद्यं भुज्यते शश्वज्जनैरतिथिभिः सह । अङ्गिशब्देऽखिला लोका भूपाश्च कलहोत्सुकाः ||५३|| श्रीमुखाब्देऽखिला भात्री बहुसस्यार्घसंयुता ।
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शेष बचे वह प्रभव आदि वर्ष जानना | उनका फल --
प्रभवसंवत्सर में समस्त देश ईति रहित हो, खेती (धान्य) की उत्पत्ति अच्छी हो, राजा प्रसन्न रहें और प्रजा सुखी हो ॥ ४८ ॥ विभव संवत्सर में राजा दण्डनीति में तत्पर हों, बहुत धान्य हों, वर्षा अच्छी बरसे, सब लोग सुखी और वैर रहित हों ॥ ४६ ॥ शुकसंवत् में स्वजनों के साथ सब लोग सुखी हों, राजा परस्पर जीतने की इच्छा से युद्ध करें || ५० ॥ प्रभोदसंवत् में सब राजा और प्रजा प्रसन्न हों, रोग रहित और भय रहित हों, ईति और शत्रु का नाश हो || ५१ ॥ प्रजापतिवर्ष में मनुष्य अपनी कुलमर्यादा को रेखामात्र भी न त्यागें, खेती और वो अच्छी हो !! ५२ ॥ अंगिरा वर्ष में मनुष्य निरन्तर अतिथियों के साथ अन्न आदि का उपभोग करें, सब लोक और राजा कलह में उत्सुक हों ॥ ५३ ॥ श्रीमुखवर्ष में समस्त भूमि धन धान्य से पूर्ण हो,
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