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सवंत्सराधिकार
रोगाकुला त्वीतिभीतिः सम्पूर्ण वत्सरे फलम् ॥ ८२॥ शुभकृद्धत्सरे पृथ्वी राजते विविधोत्सवैः ।
आतङ्कचौरा भयदा राजानः समरोत्सुकाः ॥८३॥ शोभने वत्सरे धात्री प्रजानां रोगशोकदा । तथापि सुखिनो लोका बहुसस्यार्घवृष्टयः ।।८४॥ क्रोध्यब्दे त्वखिला लोकाः क्रोधलोभपरायणाः । ईतिदोषेण सततं मध्यसस्थार्घवृष्टयः ॥८॥ अब्दे विश्वावसौ शश्वद् घोररोगाकुला धरा । सस्यार्घवृष्टयो मध्या भूपाला नातिभूतयः ॥८६॥ पराभवाब्दे राज्ञां स्यात् समरः सह शत्रुभिः । आमयक्षुद्रसस्यानि प्रभूतान्यल्पवृष्टयः ॥८७॥ प्लवङ्गाब्दे मध्यवृष्टी रोगचौराकुला धरा । अन्योऽन्यं समरे भूपाः शत्रुभिहतभूमयः॥८॥ . कीलकाब्दे त्वीतिभीतिः प्रजाक्षोभो नृपाहवैः । अनेक उत्सवोंसे सुशोभित हो, भयदायक रोग और चोर हो, राजा युद्ध में उत्सुक हों ॥८३॥ शोभनवर्ष में पृथ्वी प्रजा को रोग शोक देने वाली हो तो भी लोक सुखी हो, बहुत धन धान्य और वर्षा हो ॥८४॥ क्रोधीवर्ष में समस्त लोग क्रोध और लोभ परायण हों, ईति दोष से निरन्तर दुःख हो, मध्यम धान्य और वर्षा हो ।।८५॥ विश्वावसुवर्षमें पृथ्वी निरंतर धोररोग से व्याकुल हो, मध्यम खेती और वर्षा हो और राजा सम्पत्ति वाले न हों ।। ८६ ।। पराभववर्ष में राजाओं का शत्रु के साथ युद्ध हों, गेग और क्षुद्र धान्य अधिक हो, वर्षा थोडी हो ॥ ८७ ॥ प्लवङ्गवर्ष में थोडी वर्षा हो, पृथ्वी रोग तथा चोरोंसे व्याकुल हो, राजा शत्रुके साथ युद्धमें प्रवृत्त हो ॥ ८८ ॥ कीलकवर्ष में ईतिका भय, प्रजामें क्षोभ, राजा में युद्ध हो तो भी लोक धन धान्य से बढे और वर्षा अच्छी हो ॥८ ॥
"Aho Shrutgyanam"