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अथ वाताधिकारः । अथ मरुदभिगम्यः सम्यगाभोगरम्यः कृतभुवन विनोदः प्रौढपाथोदमोदः । प्रमुदितमरुदेवः श्रीप्रभुः पार्श्वदेवः,
सृजति सरसवर्ष भोगिनां दत्तहर्षः ॥ १ ॥ वातस्त्रिलोक्या आधारः सर्वार्थेभ्यो महाबलः । व्याप्तः सर्वत्र लोकेऽपि बादरः शाश्वतः स्वतः ॥ २ ॥ प्राच्योदीच्यादिभेदेन बहुधा वसुधातले । वर्षणेऽवर्षणे हेतुः केतुर्वेक्रियरूपभाक् ॥ ३ ॥
यदागमः - रायगिहे नगरे जाव एवं वयासी, प्रत्थि गं भंते! ईसिंपुरेवाया पच्छावाया मंदावाया महावाया वायंति ? हंता, अस्थि । अस्थि णं भन्ते ! पुरस्थि मे णं ईसिंपुरेवाया
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देवताओं के वंदनीय, अच्छे अच्छे चौतीस अतीशयादि विभूतियों से पूर्ण, जगत् को आनन्द देनेवाले और जिनसे मेवमाली इन्द्र वायुकुमारदेव और नागकुमार देव ये हर्षित हुए हैं, ऐसे श्रीपार्श्वनाथ प्रभु रसवाले वर्षको उत्पन्न करते हैं ॥ १ ॥
वायु तीन लोक का आधार है, सब पदार्थों से महाबली है, सर्वत्र लोकमें व्याप्त है तथा बादर और शाश्वत है || २ || पूर्व पश्चिमादि भेदों से बहुत प्रकार के वायु पृथ्वी पर हैं, ये वृष्टि और अनावृष्टि के कारण भूत हैं और ये वायु वैक्रियशरीर वाले और ध्वजाकार के सदृशरूप वाले हैं ॥ ३ ॥
राजगृहनगर में गौतम स्वामी श्री सर्वज्ञ महावीरप्रभु को इस प्रकार बोले- हे भगवन् ! ईषत्पुरोवायु ( भीना चलने वाला चिकना वायु ) वनस्पति आदि को हितकर पथ्यवायु, मन्द चलने वाला मन्द वायु और
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