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देवाधिकारः
श्यामाभ्यो नमः' इति, तदुपरि मायाबीज प्राकारत्रयवेष्टितम् । प्रान्ते क्रोंकारयुक्तं लेख्यम् । इदं यंत्र कुंकुमाघष्टगन्धेन लिखित्वा आतपे धार्यम् । तदने-" तुह समरणजलवरिससित्त माणवमइमेइणि, अवरावरसुहुमत्थबोहकंदलदलरेहणि । जायइ फलभरभरिय हरिय दुहदाहअणोवम , इय मइमेइणिवारिवाह दिस पास मई मम" ॥१॥ गाथेयम् 'अम्भोनिधौ क्षुभितभीषणनचक-' इत्यादिकं श्रीभक्तामरस्तोत्रकाव्यं वा गणनीयम् । तेनाचाम्लादितपसा सूर्याभिमुखाष्टोत्तरशतजापेन मेघाकर्षणम् । . एवं पुंसां कलामध्ये या मेघाकृष्टिरहता। ऋषभेण समाज्ञायि सा बोध्यागमशास्त्रतः ॥२॥ अथ प्रसंगान्मेघस्थैर्य न पि----
ॐ ह्रीं वायुकुमार आगच्छ २ स्वाहा । स्थापना यथाएतज्जापविधानेन मेघस्तम्भो विधीयते । यन्त्रं तथेष्टिकायुग्मे लिखित्वा न्यस्यते भुवि ॥ २७॥ मेघाकर्षणवर्षणादिकरणी विद्यानवद्याशया,
देया मेघमहोदये रतिभृते छात्राय पात्राय सा ।
इस तरह पुरुषों की कलाओं में जो मेघाकृष्टि कला है वह ऋषभदेव ने बतलाई, ऐसा आगम शास्त्र से जानना ।। २६ ।।
इस का जाप करने से या यंत्र को दो ईट पर लिग्बकर भूमि पर स्थापन करने से वृष्टि स्तंभित हो जाती है ॥ २७ १!
__ मेघ के आकर्षण तथा बर्षण आदि करने वाली यह विद्या मेघमहोदय में प्रीति र ग्वने वाले योग्य विद्यार्थी को देनी चाहिये। देवों की श्रद्धापूर्वक जपादि शक्ति से उत्पन्न हुआ यही तीसरा हेतु सिद्धिरूप है और शास्त्रविष
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