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मेघमहोदये कचित्-- वत्मरं द्विगुणीकृत्य विभिन्यून तुकारयेत् । सप्तभिस्तु हरेद्भागं शेषं मंवत्मरे फलम् ॥१५॥
आदिचतुष्के दुर्भिक्ष सुभिक्षं च द्विपञ्चके । निषट्के मध्यमं कालं शून्ये शून्यं विनिर्दिशेत् ॥ १६ ॥
केचिनु एतत्करणेन उष्णकालिकधान्यपरिज्ञानं बदन्ति । पुनरप्यस्यैव पाठान्तरं यथावत्सरं द्विगुणीकृत्य त्रिभिन्यूने कृते ततः । नवभिर्भाज्यते शेष संवत्मरशुभाशुभम् ॥ १७ ॥ शेषे वित्रिचतुष्के च सुभिक्षं वर्षमुच्यते । षडेकशून्यैर्मध्यस्थं हीनं पश्चाष्टमप्तसु ॥ १८ ॥ कचित्-संवत्मराम्ब्रिगुणाः सप्तभक्तोऽवशेषिते ।
कृते पञ्चगुणो भागन्त्रिभिस्तेन फलं मतम् ॥ १० ॥ . एकशेषे सुभिदं स्याद् द्विशेषे मध्यमा ममा ।
शून्ये दुर्भिक्षमादेश्यं वर्षे तत्र शुभाशुभम् ।। २० ॥ कर तीन घटा देना, इसमें मातका भाग देना जो शेष बचे उससे वर्ष फल कहना ॥ १५ ॥ शेष एक या चार हो तो दुष्काल, दो या पांच हो तोसुकाल, तीन या छ हो तो मध्यम समय, और शून्य हो तो शून्यफल कहना ॥१६॥ कितनेक लोग तो इस गति से उज्या ऋतु के धान्य के परिज्ञान को कहते हैं। इस का पाठान्तर --- संवत्सर को द्रिगुणा कर तीन वटा देना, उस में नव से भाग देकर शेष से वर्ष का शुभाशुभ फल कहना ॥ १७ ॥ शेष दो तीन या . चार हो तो सुकाल, छ एक या शून्य हो तो मध्यम, पांच, आट और सात हो तो हीनफल कहना || १८॥ क्वचित् संवत्सर के अंकों को त्रिगुणा कर मात का भाग देना, जो शेष बचे उम को पांच गुणा कर तीन का भाग देना और शेष से फल कहना ।। १६ ।। शेष एक बचै तो मुकाल, दो बचै तो मध्यम और शुन्य बचै तो दःकाल जानना ।। २० ॥ रुद्रदेव ने कहा है कि
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