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देवाधिकारः
तनास्तिकमतं त्यक्त्वा प्रतिपद्याऽऽस्तिकागमम् । देवताराधने यत्नः कार्यः सम्यगशाप्यहो ! ॥५॥ रेवतीसूर्यसंयोगे वसन्ते समुदीत्वरे । महोत्सवाजिनस्नानं पुण्यपात्रं भिधीयते ॥६॥ प्रकारैः सप्तदशभिर्वाद्यनिर्घोषपूर्वकैः । गौरीणां गीतनृत्यायै-विधेयं जिनपूजनम् ॥७॥ दशदिक्पालपूजा च तथा नवग्रहार्चनम् । जलयात्रा जनैः कार्या रात्रिजागरणं तथा ॥८॥ यावतोष्णांशुना भोगे पौष्णस्य क्रियते दिवि । तावदिनेषु जैनार्चा स्याद् वृष्टेः पुष्टये भुवि ॥६॥ अवग्रहेऽप्यसौ रीतिः कर्त्तव्या देवतुष्टये। अपने आत्मयोग बल से वर्षाद वर्षा का अपना अजनाभ नाम यथार्थ किया । इस तरह लौकिक लोकात्ता शास्त्र विरुद्ध देव क्या करते हैं ? योगमंत्र आदि के प्रभाव से क्या होता है ? सत्र अपने कर्म से होता है इत्यादि मूढ जनों का बचन प्रामाणिक नहीं मानना चाहिये। इत्यादि विशेष यिस्तार करने से क्या ? ।
ह सम्यग्दृष्टि जनो ! उस नास्तिकमत को छोड़कर और आस्तिक मत को स्वीकार कर देवता के अाराधन में यत्न करना चाहिये ॥ ५ ॥ रेवती नक्षत्र पर सूर्य आने से वसन्तऋतु में बड़े महोत्सव के साथ पुण्य पात्र ऐसा जिनस्नान करना चाहिये ॥ ६ ॥ सत्रह भेदी पूजा गाजे वाजे के साथ और सन्नारियों के गीत नृत्यादि से जिनेश्वर का पूजन करना चाहिये ।। ७ । साथ में दश दिक्पालों की और नन ग्रहों की भी पूजा कानी और जलयात्रा तथा त्रिजागरण भी करना चाहिये ॥८॥ जितने दिन आकाश में रेवती नक्षत्र का भोग सूर्य के साथ हो उतने दिन जिनाचन करना ये जगत में वृष्टि की पुष्टि के लिये है ॥६॥ वृष्टि रुक गई हो तो
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