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मेघमहोदये नैवेद्यपूजा भूतानां बलिः कार्योऽन्त्यवामरे॥१०॥ जिनेन्द्रे पूजिते सर्वे देवाः स्युर्भुवि पूजिताः । यस्माद् भागवती शक्तिः सर्वदेवेष्ववस्थिता ॥११॥ विवेचनधिया केचिद् वैष्णवः शारोऽथवा । न करोति जिनार्चा चेत् तेन पूज्याः स्वदेवताः ॥१२॥ वैष्णवो जल गय्यायां मूर्ति पूजयते हरेः। शाङ्करो गङ्गया युक्तां हरमूर्ति घटान्विताम् ॥१३॥ यवनोऽपि महीशीतिं पराऽपि स्वस्वदेवताम् । पश्चिमायां जलस्थाने पूजयेद् वृष्टिपुष्टये ॥१४॥ सम्पूज्य भोगं निर्माय जपः सूर्यस्य सन्मुखैः । विधेयश्चातपे स्थित्वा जनैः स्वस्वगुरूदितः ॥१५॥ क्षुद्रैः कृता जीवहिंसा क्षुद्रदेवस्य तुष्टये । भी नैवेद्य पूजा आदि यही रीति देवों को संतुष्ट करने के लिये करना और अन्तिम दिन भूतों को बाकुल देना ॥ १०॥ एक जिनेन्द्रदेव को पूजने से समस्त देव जगत् में पूजित हो जाते हैं, क्यों कि भागवती शक्ति सब देवों में रही हुई है ॥११॥ पक्षपातबुद्धि से कोई विष्णुमत वाले या शिवमत वाले जिन पूजा न करे तो उन्हें अपने २ देवों को पूजना चाहिये ॥ १२ ॥ वैष्णव जलशय्या वाली विष्णु की मूर्ति को पूजे और शिवमत वाले गंगा युक्त पानी के घडा वाली शिवमूर्ति को पूजें ॥१३॥ यवन लोग मसजिद को पूजे, और दूसरे लोग अपने २ देवताओं को पश्चिमदिशा में जल स्थान पर दृष्टि के लिये पूजें ॥१४॥ अच्छी तरह भक्ति से पूजन कर, नैवेद्य चढा कर, सूर्य के संमुख वाम में रह कर अपने २ गुरु से कही हुई विधिपूर्वक जाप जपे ॥१५।। क्षुद्र जन सुद्र देवता की तुष्टि के लिये जीवहिंसा करते हैं उस से कचित् दैवानुकूलता से ही वृष्टि होती है ।
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