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मेघमहोदये
दक्षिणे ईतिर्विज्ञेया नैर्ऋत्यां कुलदान् वहे ॥१५॥ वारुणे दिव्यधान्यं च वायव्यां तप्तिसम्भवः । उत्तरायां सुभं ज्ञेय-मीशान्यां सर्वसम्पदः ,, ॥१६॥ हेमन्ते दक्षिणो वायुः शिशिरे नैर्मृतः शुभः । वसन्ते वारुणः श्रेष्ठः फलदायी शरत्सु सः ॥१७॥ शरत्काले तु पूर्वस्याः समीरः फलनाशनः । वसन्ते चोत्तरोवायुः फलपुष्पाणि नाशयेत् ॥१८॥ आग्नेय्यो न कदापीष्ट ऐशानः सर्वदा शुभः । नैर्ऋतो विग्रहं रोग दुर्भिक्षं कुरुते भयम् ॥१६॥ झञ्झावातं विना कश्चिद् यदा प्राच्यादिकोऽनिलः। स्पष्टभावेन नो वाति तदा वृष्टिः स्थिरा भवेत् ॥२०॥ ईति कारक है , नैर्ऋत्य कोण का वायु कुलवृद्धि कारक है ॥ १५ ॥ पश्चिम का वायु दिव्य धान्य उत्पन्न करता है, वायव्य कोण का वायु ताप उत्पन्न करता है, उत्तर दिशा का वायु शुभ जानना और ईशान कोण का वायु सब सम्पत्ति करता है ।। १६ ।।
हेमंत ऋतु में दक्षिण दिशा का वायु और शिशिर ऋतु में नैर्ऋत कोण का वायु चले तो शुभ है । वसन्त तथा शरद ऋतु में पश्चिम दिशा का पवन चले तो फलदायक होता है ॥ १७ ॥ शरद ऋतु में पूर्व दिशा का वायु चले तो फल का विनाश करता है । वसंत में उत्तर दिशा का वायु चले तो फल और फूलों का नाश करता है ॥ १८॥
आग्नेय कोण का वायु कभी भी शुभ दायक नहीं होता । ईशान कोण का वायु सर्वदा शुभ रहता है । नैर्ऋत कोण का वायु विग्रह रोग दुर्भिक्ष और भय करता है ॥ १६ ॥
झंझावायु को छोडकर यदि कोई पूर्वादि का वायु स्पष्टतया न चलें तो वर्षा स्थिर होती है ॥ २० ॥ श्रावण में मुख्य करके पूर्व दिशा
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