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वातचक्रं सामान्यतः
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वात व सामान्यत:-- पूर्वस्या अथवोदीच्याः पवनः शीघ्रवृष्टये । दक्षिणस्या वृष्टिनाशी पश्चिमाया विलम्बकः ॥१० आग्नेय्या विग्रहं वहे-भयं वृष्टिविबाधनम् । नैर्मृतः पवनो यावत् तावत् कुर्यान्महातपम् ॥११॥ वायव्यवायुः कुरुते वृष्टिं पवनसंयुताम् । ततः पीडा मत्कृणाद्या ईतयो जीववर्षणम् ॥१२॥ ऐशानः पवनो विश्व-हिताय जलवृष्टये।
आनन्दं नन्दयेल्लोके वायुचक्रमिदं मतम् ॥१३॥ मद्रोऽपि स्वकृतमेघमालायामाह"वायुधारणमेवेदं शृणु तत्त्वेन सुन्दरि!। सुभिक्षं पूर्ववातेन जायते नात्र संशयः ॥१४॥ आग्नेय्यां खण्डवृष्टिश्च जायते गिरिजात्मजे ।
पूर्व और उत्तर दिशा के बायु से शीघ्र वर्षा होती है, दक्षिण का वायु वृष्टि विनाशक है, पश्चिम का वायु विलम्ब से वृष्टि करता है ॥ १० ॥
आग्नेयी दिशा का वायु अग्नि का भयकारक और वर्षा का बाधक है, नैर्ऋत दिशा का पवन जबतक चले तबतक महा ताप-अधिक गरमी पड़े॥११॥ वायव्यदिशा का वायु पवन के साथ वृष्टि करता है, खटमल आदि छोटे छोटे जीवों की उत्पत्ति और ईति--- ( शलभ मूसा टिड्डी आदि ) की अधिकता होती है ।। १२ ।। ईशान का वायु से जगत का कल्याण होता है, जल की वृष्टि होती है और लोक में आनन्द होता है । यह वायुचक्र
रुद्रदेव ने स्वकृत मेघमाला में कहा है कि- हे सुन्दरि ! वायु का धारण तत्व विचार से श्रवा कर---पूर्व के वायु से निश्चय से सुकाल होता है ॥ १४ ॥ आग्नेय कोण का वायु खण्डवृष्टि करता है, दक्षिण का वायु
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