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वाताधिकार :
कचित्तु पूर्ववाते तोडशुका मत्कुणा मूषकादयः । वारुणे तु युगन्धर्या निष्पत्तिहुला भुवि ॥ १०६ ॥ चैत्रमासे वायुविचारः
चैत्रस्य शुक्लपक्षे चेचतुर्थी पञ्चमीदिने ।
वर्षणं प्राकशुभं किञ्चित् क्रमादुत्तरतोऽनिलः ॥ १०७ ॥ बादलाच्छादितं व्योम एतल्लक्षणदर्शने । गोधूमैः श्रावणे मासे त्रिगुणं लाभमादिशेत् ॥ १०८ ॥ इत्येवं ज्ञापको वातः संक्षेपेण समीरितः । ग्रन्थान्तराद्विशेषोऽपि विज्ञेयः प्राज्ञपुङ्गवैः ॥ १०९ ॥ ज्ञापकोऽपि स्थापकः स्याद, वृष्टेत्पादकोऽपि स । कचिज्जघन्यगर्भेण सद्यो वृष्टिविधानतः ॥ ११० ॥
यदुक्तं श्रीभगवत्यङ्गे २शतके ५ उद्देशके - "उदगग भे णं भंते ! उद्गगब्भेत्ति कालओ केयश्विरं होई ? गोयमा ! है कि पूर्व का वायु में टीडी शुक खटमल और चूहें आदि का उपद्रव हो और पश्चिम दिशा का वायु से युगंधरी (जूआर) की प्राप्ति पृथ्वी पर बहुत हो ॥ १०६ ॥
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चैत शुक्ल चतुर्थी और पंचमी के दिन कुच्छ वर्षा हो और क्रम से उत्तर दिशा का वायु चलें ॥ १०७ ॥ तथा आकाश बादलों से आच्छा दित हो, ऐसे लक्षण देख पड़े तो गेहूँ से श्रावण महीने में त्रिगुणा लाभ हो ॥ १०८ ॥
इस प्रकार ज्ञापक वायु का संक्षेप से वर्णन किया, और विशेष जानना हो तो दूसरे ग्रन्थों से विद्वान् लोग जान सकते हैं ॥ १०६ ॥ ज्ञापक वायु वृष्टि का उत्पादक होने पर भी स्थापक वायु हो जाता है, वह कहीं कहीं जघन्य गर्भ से शीघ्र ही वर्षा का कारण हो जाता है ॥ ११
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भगवती सूत्र शतक दूसरा उद्देशा पांचवां में कहा है कि- हे
"Aho Shrutgyanam"