Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
विनय बोधि कण
III
HIN
पावन सान्निध्य पू. गुरुदेव तपस्वीराज चंपालालजी म.सा. के शिष्य
पंडितरत्न शिविराचार्य पूज्य गुरुदेव श्री विनयमुनिजी म.सा. "खींचन'
'श्री श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन संघ जैन स्थानक भवन (शांति गुरु गार्डन के पास)
लोअर बाजार, ऊटी (त.ना.)
उदगमंडलम् - 643 001
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
________________
सन् 1979
1980
1981
1982
1983
1984
1985
1986
1987
1988
1989
1990
1991
1992
1993
1994
1995
1996
1997
1998
1999
2000
2001
2002
2003
2004
2005
2006
2007
2008
2009
2010
2011
2012
2013
परम पूज्य स्व. तपस्वीराज श्री चम्पालालजी म.सा. के सुशिष्य पंडित रत्न शिविराचार्य श्री विनयमुनिजी म.सा. "खींचन"
के 35 चातुर्मासों की विगत ।
संवत्
2036
2037
2038
2039
2040
2041
2042
2043
2044
2045
2046
2047
2048
2049
2050
2051
2052
2053
2054
2055
2056
2057
2058
2059
2060
2061
2062
2063
2064
2065
2066
2067
2068
2069
2070
स्थान
रायपुर की हवेली, जैन स्थानक
लुंका गच्छ जैन स्थानक शाहीबाग जैन स्थानक जैन वाड़ी, जैन स्थानक ग्रीन चौक, जैन स्थानक धरमनगर, जैन स्थानक सदर बाजार, जैन स्थानक मुकन भवन, जैन स्थानक जैन स्थानक
मोती भवन, जैन स्थानक महावीर भवन, जैन स्थानक जैन स्थानक
जैन स्थानक कान्फ्रेंस भवन अहिंसा विहार, रोहिनी सै. 9 लक्ष्मीनगर जैन स्थानक मोती मोहल्ला, जैन स्थानक ठाकुरिया निवास, साकेतनगर, मल्हार कोठी (बंगला) स्वाध्याय भवन (समवशरण) संगोई हॉल, तेलघानी नाका महावीर भवन, जैन स्थानक जैन स्थानक
गांव / शहर जोधपुर सीटी
सांचोर जिला जालोर
तुरकीया भवन, जैन स्थानक कटारिया भवन व जैन स्थानक लुणावत भवन समदडिया भवन जैन स्थानक महावीर नगर,
कटारिया भवन व जैन स्थानक, म. की. आराधना भवन
जैन स्थानक (नया स्थानक) जैन स्थानक, गुजराती रोड, माम्बलम् (टी. नगर) जैन स्थानक गणेश बाग, जैन स्थानक एस.वी.एस जैन संघ संन्नीधी स्ट्रीट गणेश बाग (सकारण )
हीराबाग जैन स्थानक
अहमदाबाद सीटी
दामनगर जिला अमरेली धागन्ध्रा जिला सुरेन्द्रनगर साबरमती - अहमदाबाद दिल्ली शहर बालोतरा जिला बाड़मेर बर- जिला पाली
प्रांत
राजस्थान
राजस्थान
राजस्थान
राजस्थान
भीलवाड़ा शहर
राजस्थान
राजस्थान
बिजयनगर जिला अजमेर गुलाबपुरा-जिला भीलवाडा
राजस्थान
नई दिल्ली (राष्ट्रपति भवन के पास) नई-दिल्ली दिल्ली (बाहरी) दिल्ली (बाहरी)
सारंगपुर - जिला राजगढ़ कम्युनिटी हॉल इंदोर (बाहरी) देवास (बाहरी)
इंदोर (पलासिया) (बाहरी) रायपुर (बाहरी) अलसुर, बेंगलोर ईरोड़ (शहरी) गांधीनगर, बेंगलोर
ऊटी, नीलगिरि शांतिनगर, बेंगलोर मैसुर सीटी
ऊटी, नीलगिरि
आर. एस. पुरम, कोयम्बतूर बालकलावा, कून्नूर, नीलगिरि कोचीन (पुरानी सीटी) चेन्नै (मद्रास) (बाहरी) बेंगलोर शहर (शिवाजी नगर ) पांडिचेरी शहर
बेंगलोर शहर (शिवाजी नगर ) बेंगलोर शहर (संप्पिग्स रोड़)
गुजरात
गुजरात
गुजरात
गुजरात
दिल्ली
दिल्ली
दिल्ली
म. प्रदेश
म. प्रदेश
म. प्रदेश
म. प्रदेश
छत्तीसगढ़
कर्नाटक
तमिलनाडु
कर्नाटक
तमिलनाडु
कर्नाटक
कर्नाटक
तमिलनाडु
तमिलनाडु
तमिलनाडु
केरला
तमिलनाडु कर्नाटक
पांडिचेरी
कर्नाटक
कर्नाटक
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
सकल जैन समाज...
श्री पंच परमेष्ठी नमस्कार सूत्र
णमो अरिहंताणं या णमो सिद्धाणं णमो आयरियाणं णमो उवज्झायाणं णमो लोए सव्यसाहूणं एसो पंच-णमुक्कारो सव्व पावप्पणासणो मंगलाणं च सव्वेसिं पढमं हवइ मंगलं
नित उठकर प्रभु का ध्यान करो । फिर मात-पिता को प्रणाम करो । गरु देव मिले कुछ नियम करो ।
पापों से प्राणी दूर रहो ।
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्थविर मुनिराज पंडितरत्न श्री विनय मुनिजी "खींचन''
संक्षिप्त परिचय
_ शिविराचार्य, स्वाध्याय जिज्ञासु, तत्वों के प्रति गहरी रूचि रखने वाले, प्रतिभा से संपन्न, संयमी रत्न, सरल स्वभावी, शास्त्रों के वेत्ता एवं समरथ-चंपक-प्रकाश शिष्य रत्न श्रद्धेय विनयमुनि जी “खींचन" | ३० शास्त्रों, संस्कृत, प्राकृत, टीका, कर्म ग्रंथों एवं दर्शनों का अध्ययन किया, भगवती पन्नवणा आदि, थोकड़ों के गहनरसिक ज्ञाता। पिता का नाम - धर्म प्रेमी सरलात्मा श्री अनराजजी ललवानी। माता का नाम - धर्म रसिका रत्नकुक्षिधारिणी श्रीमती पापा बाई | 0 जन्मनाम
श्री लक्ष्मीचंद जी ललवानी । जन्मस्थान खींचन (जोधपुर) दीक्षित नाम - श्री विनयमुनिजी म.सा. | जन्म संवत् - संवत् २०१२ कार्तिक सुदी चौदस । (२८.११.१९५५) जाति
ओसवाल बीसा | सांसारिक - बाल ब्रह्मचारी हैं, दस भाई-बहन हैं। दीक्षा की प्रेरणा - छोटी बहन श्री धीरज कुंवरजी की दीक्षा का निमित्त । अन्य दीक्षा - सगी छोटी बहिनने दीक्षा ली, ४ साल पहले। दीक्षा तिथि संवत् २०३६, बैशाख सुदी सप्तमी। दीक्षा स्थान गंगाशहर, भीनासर (बीकानेर) जवाहर कोटड़ी । दीक्षा गुरू पूज्य तपस्वीराज चंपालाल जी म.सा. गुरूदेवजी हैं । वैराग्यकाल लगभग ४ वर्ष
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________
मण्डल
कुशलवक्ता - ओजस्वी, प्रेरकवक्ता, कुशल तत्त्व वेत्ता। विहार क्षेत्र
गुजरात, महाराष्ट्र, राजस्थान, हरियाणा, उत्तरप्रदेश, दिल्ली, छत्तीसगढ़, म.प्र., आ.प्र., कर्नाटक, तमिलनाडु, केरल और पाण्डिचेरी
आदि । वैराग्यकाल प्रवृत्ति - चार वर्ष के वैराग्यकाल में शिक्षण के साथ अध्ययन किया एवं प्रवचन देने
जाते थे । कुन्नूर, हुबली, खड़गपुर, मालेगांव पधारे थे । उग्र विहारी ५० हजार से अधिक किलोमीटर का पैदल विहार कर चुके हैं तथा एक
दिन में ३०-४०-५०कि.मी. से अधिक भी विहार कर लेते हैं। निमन्त्रण - अन्य संप्रदायों के निमंत्रण प्रमुख (१) दरियापुरी संप्रदाय (२) आचार्य
सुशीलमुनिजी (३) नानक संप्रदाय (४) श्रमण संघ आदि। सामायिक एवं स्वाध्याय मंडलों की जगह - जगह स्थापना की है, जो
केवल सामायिक एवं स्वाध्यायही करते हैं। सान्निध्य पूज्य गुरूदेव तपस्वीराज की सेवा में दो वर्ष तक, विशेष सान्निध्य पांच वर्ष
का पूज्य महात्माजी जयंतीलालजी म.सा. की सेवा में रहे, वे दिन मुनिराज अपने संयमी जीवन की विशेष उपलब्धि मानते हैं। ज्ञान गच्छीय परम्परा से प्रथम दिल्ली, हरियाणा, उत्तरप्रदेश, आन्ध्रप्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु, केरल व पान्डिचेरी क्षेत्र का स्पर्श कर नये क्षेत्र
खोले हैं। । विशेष गुण - क्रियानिष्ठ एवं सदैव अप्रमत्तता एवं जागरूकता से संयम जीवन का पालन
कर रहे हैं। | प्रकाशित साहित्य - विनय बोधि कण भाग (पृथक) १-२-३-४, विनय बोधि कण (संयुक्त)
भाग १-४, विनय बोधि कण ११-१२, विनय बोधि कण (संयुक्त) भाग ५-६-७-१३, विनय भावना, विनय आराधना, विनय प्रभावना और हस्त लिखित -कुल १,३१,००० पुस्तकें प्रकाशित हुई है , जो सभी बिना मूल्य वितरण की गई और वितरण की जाती है।
समस्त विनय बोधि-कण परिवार दिल्ली, बैंगलोर, इंदौर, रायपुर, ईरोड, मैसूर, कोयम्बतुर, मदुरान्तकम्,
पांडिचेरी, कून्नूर, कोचीन, चेन्नई एवं ऊटी
| नये क्षेत्र
Page #6
--------------------------------------------------------------------------
________________
अभिमत
सेवामें
१२-०३-१३ श्री युत्त सेवाभावी, समाज रत्न श्री इन्दरचंदजी कोठारी, कोयम्बत्तूर सादर जयजिनेन्द्र,
आज अत्यंत हर्ष का अवसर है कि विनय बोधि कण संयुक्त (भाग ५,६,७तथा १३) प्रस्तुत होने जा रहा है। चार चातुर्मासों के दौरान परम पूज्य गुरुदेव शिविराचार्य विनय मुनि जी खींचन महाराज साहब के सानिध्य से उकेरे गए ज्ञान बिंदु कण रूप स्वाध्याय की ज्योति बिखेरते हर पल जीवन को प्रकाशित करते रहते है। "विनय बोधि कण" के प्रथम भाग का प्रकाशन इसी पावन भावना से हुआ था। विनय बोधि कण भाग १,२,३,४,५,६,७,११,१२,१३ कुलदस वि.बो.कण प्रकाशित हुए है।
एक-एक करके कुल दश ज्योतिर्मय विनय ज्ञान प्रकाश मुनिश्री के हर चातुर्मास को अवलोकित कर रहे है। मुनिश्री की ज्ञान-आभा की सिर्फ छाया ही हम इनमें पाते है। उनके ज्ञान को समेटना श्रावको के बस की बात नहीं है। तथापि इनकी ज्ञान आभा से हम सब आलोकित हो रहे है और उज्जवल जीवन की प्रेरणा पा रहे है।
गुरुदेव श्री के निर्मल ज्ञान की निर्मलता हम सभी को निर्मल बनाये, बस यही भावना।
श्रीमती दीपा संगोई
संगोई हॉल, तेलघानी नाका, रायपुर C.G.-492 009
श्री सेवाभावी भाईसा इन्दरचंदजी कोठारी, कोयम्बतुर,
१३-०३-१३ सादर जय जिनेन्द्र,
आप सपरिवार प्रसन्न होगे, यहाँ पर सब कुशल मंगल है । पूज्य गुरुदेव की सेवा में हमारी सविधि वंदना अर्ज कर सुखसाता पूछियेगा । विनय बोधि कण संयुक्त (५,६,७ व १३ भाग) पर संक्षिप्त में अभिमत भेज रही हैं। यहाँ के योग्य सेवा कार्य लिखियेगा।
परम ज्ञान पुञ्ज द्वारा मानव जीवन को सार्थक बनाना उद्देश्य रहा है। इसी उद्देश्य की पूर्ति हेतु अखण्ड ज्योति स्वरूप ज्ञानपुञ्ज विनय बोधि कण का ५,६,७,तथा १३ वां (संयुक्त) भाग प्रकाशित किया जा रहा है । यह जानकार ह्रदय बहुत ही हर्षोल्लसित हो रहा है कि प्रशममूर्ति पूज्य श्री विनय मुनि जी महाराज द्वारा मानस-मन्थित ज्ञानोद्गार से पूरपूरित यह अंक समस्त अनुव्राजकों एवं श्रावकों के लिए कल्याणकारी सिद्ध होगा । मानव जीवन को सही दिशा में ले जाने के लिए जो ज्ञानगुम्फन इस पुस्तक में किया गया है, वह सुगमता से प्राप्य नहीं है । मुनि श्री के मुखारविन्दोद्गार से समृद्ध ज्ञान के गूढ़भण्डार को शब्दों में प्रकट करने का एक लघु प्रयास किया गया है।
अस्तु, सादर भावना से जीवनपथावलोकन की प्रेरणा लेना ही श्रेयस्कर होगा।
डा. कंचन जैन
पी-५,द्वितीय तल, नवीन शाहदरा, दिल्ली - ११००३२
Page #7
--------------------------------------------------------------------------
________________
GOUDS
12688
With best compliments from
D. UTHAMCHAND ANANDKUMAR CHORDIA No.7, Sunder Mudaliar Street,
Ulsoor, Bangalore - 8
Phone: 098451 94439
Page #8
--------------------------------------------------------------------------
________________
पुस्तक का नाम
: "विनय बोधि कण'
प्रथम संस्करण
: जनवरी २०१४
सदुपयोग
मूल्य
INT
प्रथम आवृति
४,०००
प्रिन्टर्स
: रेइन्बो प्रिन्टर्स
141-A, वेस्ट सम्बंधम रोड, आर.एस. पुरम, कोयम्बत्तूर - 641 002 फोन : (0422) 2548673 E-mail : rainbowcbe641002@yahoo.com
प्राप्ति स्थान
VINAY SAREES MAHAVEER SAREES 54,M.T.Cloth Market, Indore-452002 Ph: (0731) 2451515, 2529806
SHRI ASHOK BOTHRA 44, "Vinay Vatsalaya" Balaclava Coonoor-643102 Ph : (0423)-2206894
SHRI S. INDERCHAND KOTHARI SHOBHA SYNDICATE 859, Raja Street Coimbatore-641001 Ph. :(0) 2395141, 4357857 (R)2342919,4359460
SHRI UTTAMCHANDJI CHORDIA 7, Sunder Mudaliar Street, Halsuur, Bangalore-560008 Ph : (080) 25510040
SHRI M. NIRMALKUMARJI NAHAR Nahar Nivas, New No.47, Old No. 13/1, Habibullah Road, T. Nagar, Chennai - 600 017 Cell : 09840810517
SHRI REKHRAJJI MEHTA MEHTA FABRICS Budhwar Pet, PO Madavnagar, Dist. Sangli (MS)-416416 Ph. : 9421906452
SHRI AMRUTRAJ CHANDRAKANT MEHTA SREE MEHTA FABRICS 40, Krishna Talkies Road, Erode - 638 003 Ph. :(0)0424-2211806 Fax:0424-2219670 Mobile : 94433 29051
SHRI VIJAYDEEPA SANGOI Sangoi Hall, Telgani Naka, Raipur (C.G)492009 Ph: 9826324202
SHRI RAJENDRA KUMAR RAHUL LALWANI Clo. Anraj Kasturchand Jain Panditwadi Post Sarangpur Dist. Rajgadh (MP) - 465697 Mobile : 9425428730
SHRI M. NEMICHAND RAJESH KUMAR NAHATA "Samarth Krupa" 280, Bank Line (Opp. Annadani Building) Ooty - 643 001 Dt. Nilgiris (T.N.) Cell : 09159595941,09444489404
SHRI RIKABCHANDJI CHORDIA M. M. Niketan 12/2, Letangs Road, Chennai - 600 007 Ph : (044) 26415299
SHRI JAMBUKUMARJI DESLAHARA 128 Ambalthadiya Madam Street First Floor, Pondichery-605001 Ph. : 9443234128,9894432291
Page #9
--------------------------------------------------------------------------
________________
DO
D
विनय बोधि कण चार भागों का संकलन - संपादन परिचय
विनय बोधि कण भाग - ५
चातुर्मास ऊटी (TN) सन् 2002
संकलन
श्रीमती संगीता धर्मपत्नी
श्री रिखबचंदजी चोरड़िया चैन्नई कुमारी निभा सुपुत्री
श्री निर्मल कुमारजी नाहर चैन्नई
विनय बोधि कण
भाग
U
मैसुर कर्नाटका चातुर्मास सन् 2004
-
संकलन-संपादक
श्रीमती संगीता धर्मपत्नी
श्री रिखबचंदजी चोरड़िया
कुमारी निभा सुपुत्री
श्री निर्मल कुमारजी नाहर चेन्नई
विनय बोधि कण भाग - ६
चातुर्मास - शांतिनगर - बेंगलोर - सन् 2003
संकलन श्रीमती संगीता धर्मपत्नी
श्री रिखबचंदजी चोरड़िया कुमारी निभा सुपुत्री
श्री निर्मल कुमारजी नाहर चैन्नई
ᎠᏛ
विनय बोधि कण भाग - १३ चातुर्मास - गणेशबाग -
शिवाजीनगर - बेंगलोर सन् 2010
संकलन
B.K. चम्पालालजी मकाणा जैन सुपुत्र किशनलालजी मकाणा दौडुबालापुर (कर्नाटक राज्य)
संयोजना
श्री मनोहरलाल डुंगरवाल बेंगलोर
ᎠᏛ
इन चारों भागों के प्रूफ रीडिंग में श्रीमती दीपा विजय कुमार संगोई, रायपुर, श्री भैरुदानजी लूणावत एवं श्रीमती चन्द्रकला मूथा - ऊटी, श्री अभयकुमारजी बांठिया एवं श्री शांतिलालजी - ओस्तवाल, अलसूर बेंगलोर का सहयोग रहा ।
Page #10
--------------------------------------------------------------------------
________________
संवत २०५९
श्री महावीराय नमः
वीर संवत २५२८-२९
S.S जैन संघ, ऊटी ने जैन समाज में तपस्या के नये कीर्तिमानों का इतिहास रचा - ५० घरों में हमारे श्री संघ के असीम पुण
ज्ञान गच्छाधिपति श्रमण श्रेष्ठ १००८ तपस्वीराज श्री चम्पालालजी म.सा के शिष्य शिविराचार्य उग्रविहारी प्रखर व्याख्याता पूज्य श्री विनयमुनिजी म.सा खींचन के सुसान्निध्य में सन् २००२ के
वर्षावास में सुसम्पन्न दीर्घ तपस्याऐं निम्नलिखित तपस्वियों ने सम्पन्न की। श्री एस.एस.जैन संघ, ऊटी चातुर्मास तपस्या की लिस्ट - तारीख २३-७-२००२ से १९-११-२००२
rin og
g
क्र.सं. तपस्या करनेवालों का नाम
तपदिन क्र. सं. तपस्या करनेवालों का नाम तपदिन फलोदी (जोधपुर)
३३ कुमारी आरती हीरालालजी बोथरा १. श्री नेमीचंदजी एम. नाहटा - दूसरी बार
३४. श्री अशोककुमारजी. एल. टाटिया २. श्रीमती चंद्राबाई तिलोकचंदजी लुंकड़
३५. श्री चंद्रप्रकाशजी जे. टाटिया श्रीमती आरती विजयजी नाहटा
३६. श्री हीरालालजी एस. बोथरा श्री आशीषराजजी डी. चोरडिया (कुन्नूर)
३७. श्रीमती जतनबाई ए. कोठारी श्री गौतमचंदजी के. लुणावत ।
३८. श्री कुशालचन्दजी एल. टाटिया श्री मोतीलालजी झाबक (कुन्नूर)
३९. श्रीमती मन्जुला चन्द्रप्रकाशजी टाटिया श्री नेमीचंदजी एम. नाहटा - पहली बार
४०. चि. नितेषजी. एल. भंसाली चि. नितेशजी टी. लुंकड
४१. सौ. प्रेमा डी. टाटिया श्रीमती राजश्री दुर्गाचन्दजी बैद
४२. श्रीमती पुष्पाबाई कुशालचंदजी टाटिया १०. श्रीमती वन्दना लक्ष्मीचंदजी बैद
४३. श्रीमती शकुंतलाबाई. एम. कोचर ११. श्री विनोदकुमारजी के. बाफणा
४४. श्रीमती शांता गौतमजी टाटिया १२. श्रीमती ललीताबाई एन. नाहटा - पहली बार ९ ४५. श्रीमती सुनीता दिलीपजी बोथरा १३. श्री मूलचन्दजी एस. नाहटा
४६. श्री सुरेशकुमार जी. बोथरा १४. श्रीमती ललीताबाई एन. नाहटा - दूसरी बार ४७. श्रीमती चन्द्राबाई जेठमलजी बोथरा १५. श्रीमती संगीता गुरुचन्दजी बैद
४८. श्री अशोककुमारजी पी. राखेचा १६. श्री भैरूदानजी के. लुणावत
४९. श्री मोतीलालजी जे. बोथरा - पहली बार १७. श्रीमती शोभना हुक्मीचंदजी बैद
५०. कुमारी प्रियन्का ए. राखेचा १८. श्री मूलचंदजी एस. नाहटा
५१. श्रीमती लक्ष्मीबाई धनराजजी टाटिया खींचन (जोधपुर)
५२. श्रीमती शर्मिलाबाई संजयजी बोथरा १९. श्रीमती छोटीबाई अशोककुमारजी राखेचा
५३. श्रीमती सरोजबाई अशोकचंदजी टाटिया २०. श्रीमती धनवंती रमेशजी राखेचा
५४. श्री मोतीलालजी जे. बोथरा - दूसरी बार ८ २१. श्रीमती कमलाबाईजी बोथरा (कोतगिरी)
५५. श्री धनराजजी एल. टाटिया - चातुर्मास तपस्या २२. श्रीमती प्रेमलता प्रेमजी बोथरा
मुसालिया (पाली) २३. श्रीमती रुक्मणी मोतीलालजी बोथरा
५६. श्रीमती धुड़ीबाई शांतिलालजी पीपाड़ा ३० २४. श्रीमती मीना बाई संतोषकुमारजी बोथरा
५७. श्री शांतिलालजी डी. पीपाडा (पहली बार) ११ २५. श्री धनराजजी टाटिया
५८. कुमारी पिंकी बोहरा २६. श्रीमती सरस्वती इन्दूजी बोथरा
५९. चि. नवरतनजी एस. पीपाड़ा २७. श्रीमती मंजूला सुरेशजी बोथरा
६०. श्री शांतिलालजी डी. पीपाड़ा (दूसरी बार) २८. श्री रमेशकुमारजी कोठारी
बगड़ी (पाली) २९. श्रीमती स्वीटी. एम. बोथरा
६१. श्रीमती चंद्राबाई नवरतनजी कोठारी ३०. श्रीमती शोभाबाई खेतमलजी टाटिया
६२. कुमारी स्वीटी. एम. कोठारी ३१. श्री गणेशचंदजी जे. झाबक
६३. श्रीमती शांताबाई महावीरजी कोठारी ३२. श्रीमती जयमाला विनोदजी राखेचा
६४. चि. जम्बुकुमारजी आर. मुथा
o saaraa arv
ovu radu
Page #11
--------------------------------------------------------------------------
________________
६५. श्री महावीरचन्दजी वी. कोठारी ६६. कुमारी सम्पूर्णा मोहनलालजी सोलंकी सोजत सिटी (पाली) ६७. श्रीमती शारदाबाई संपतराजजी कटारिया ६८. श्रीमती कविता महावीरजी कटारिया
११ ९. श्रीमती लीलाबाई शांतिलालजी लोढ़ा ७०. श्रीमती जतनबाई गौतमजी कटारिया ७१. श्रीमती कविता महेन्द्रजी कटारिया ७२. श्रीमती शारदाबाई सम्पतराजजी कटारिया ७३. श्री संतोषकुमारजी एन. कटारिया ७४. श्रीमती मंगलाबाई नेमीचंदजी कटारिया ७५. श्री रतनलालजी एन. कटारिया
६. श्रीमती संध्याबाई रतनलालजी कटारिया ७७. कुमारी आरती आर. कटारिया ७८. कुमारी सपना एस. कटारिया ७९. श्रीमती रेखा दिनेशजी कटारिया ८०. श्रीमती पवनबाई गिरिशजी कटारिया ८१. श्रीमती विजयाबाई रमेशजी कटारिया ८२. चि. कमलेशजी पी. कटारिया ८३. श्रीमती मंगलाबाई एन. कटारिया - दूसरी बार ८ ८४. श्रीमती लीलाबाई एस. लोढ़ा - धर्म चक्र (S.M) ८५. श्रीमती सविताबाई एम. कटारिया - ७+सिद्धि तपस्या ८६. श्रीमती मंगलाबाई एन. कटारिया - चातुर्मास तपस्या कुड़की (अजमेर) ८७. श्री चन्द्रप्रकाशजी डी. गेलडा
११ ८८. श्रीमती ताराबाई चन्द्रप्रकाश गेलडा ८९. श्रीमती संजुबाई गौतमजी गेलडा ९०. श्री चन्द्रप्रकाशजी डी. गेलडा - दूसरी बार ९१. चि. नरेन्द्र कुमारजी सी. गेलडा लोहावट (जोधपुर) । ९२. श्रीमती चंचल जयवंतजी कोटडिया ९३. श्री जयवंतजी जी. कोटडिया ९४. श्री प्रकाशजी जी. कोटडिया ९५. श्रीमती उर्मिलाबाई प्रकाशजी कोटडिया ९६. श्रीमती रोशन सर्वजीतजी जी. कोटडिया ९७. श्री सर्वजीतजी जी. कोटडिया ९८. चि. नितेशजी पी. कोटडिया ९९. श्रीमती कमलाबाई राजहंसजी कोटडिया
१००. श्रीमती लाडाबाई एस. कोटडिया -
चातुर्मास तपस्या १०१.श्रीमती लीलाबाई प्रसन्नचंदजी कोटडिया ८ १०२. श्री जयचंदजी कोटडिया -६+८५ एकाशणा लवेरा बावड़ी (जोधपुर) १०३.श्रीमती वनिता एस. देसरला १०४.श्री रमेशजी एस. देसरला १०५. श्रीमती पदमाबाई रमेशजी देसरला १०६.श्रीमती बादामबाई एस. देसरला ब्यावर (अजमेर) १०७.श्री अनिलकुमारजी पी. मुथा १०८.श्री मंजुषा अनिलजी मुथा १०९. श्रीमती पूजा धीरेनजी मुथा ११०.श्रीमती कौशल्याबाई.जी. कोठारी (अलसूर) । १११.श्रीमती मानकंवर पारसमलजी मुथा ११२.श्री पारसमलजी मुथा ११३. श्रीमती चन्द्रकला एल. मुथा - चातुर्मास तपस्या मोहरा (पाली) ११४.श्रीमती चंचलबाई नीलप्रकाशजी बोहरा ११५.श्रीमती हेमलताबाई गौतमजी बोहरा ११६.श्रीमती लीलाबाई भीखमचंदजी बोहरा ११७.कुमारी इन्दुजी. जी बोहरा ११८.श्री नीलप्रकाशजी बोहरा - चातुर्मास तपस्या राजीयावास (अजमेर) ११९.श्रीमती संध्याबाई रामलालजी बोहरा १२०.कुमारी किरण.आर. बोहरा भोपाल गढ़(जोधपुर) १२१.कुमारी मंजू कर्नावट.एम देवरियां (जोधपुर) १२२.श्री चम्पालालजी एच. मेहता हरीयाडाना (जोधपुर) १२३.श्रीमती सरोज उमेशकुमारजी नाहर कच्छ (गुज) १२४. श्री किरण भाई फोफलिया (कच्छी) राजकोट (गुज) १२५.चि. सुमितजी डोसी- जे.एस.एस कुरड़ाया (जोधपुर) १२६.श्रीमती मोहिनीबाई एस. दुगड़
संघ अध्यक्ष
संघ मंत्री सोहनलाल मूथा
एल. धनराज टाटिया नोट - चातुर्मास में प्रतिदिन बड़ी तपस्या होती रही, कुल १२६ तपस्याएँ हुई । ।
Page #12
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥श्री महावीराय नमः ।। गणेशबाग
। सन् २०१२ १०८ प्रकार के जाप का बेंगलोर
| एक बार दैनिक स्मरण अवश्य कीजिए वि. सवत् २०६९ गुण रत्नों की खान,वंदनीय, पूजनीय उत्तम महा पुरुषों को मेरी
तिक्खुत्तो के पाठ से १००८ बार वंदना होइजो । १. सिरि सव्व तित्थयराय नमः
५५. सिरि गोयम सामी - गणहराय नमः २. सिरि कविल केवल णाणीय नमः
५६. सिरि चउद्दस पुव्व धरो अणगाराय नमः ३. सिरि नमिरायरिसी पत्तेय बुद्धाय नमः
५७. सिरि हरिकेसी बल अणगाराय नमः ४. सिरि गोयम सामी नाथाय नमः
५८. सिरि चित्त अणगाराय नमः ५. सिरि हरिकेसी बल अणगाराय नमः
५९. सिरि देवभद्द जसोभद्द अणगाराय नमः ६. सिरि चित्त मुणिवराय नमः
६०. सिरि सिरि सव्वमुणिवराय नमः ७. सिरि उसुयार अणगाराय नमः
६१. सिरि विजयकुंवर -विजयाकुंवरीये नमः ८. सिरि भग्गुपुरोहिय अणगाराय नमः
६२. सिरि सेलक रायरिसी अणगाराय नमः ९. सिरि जसा आरियाय नमः
६३. सिरि संती संतिकरे लोए नाथाय नमः १०. सिरि कमलावई आरियाय नमः
६४. सिरि मियापुत्ते अणगाराय नमः ११. सिरि देवभद्द अणगाराय नमः
६५. सिरि अणाहि अणगाराय नमः १२. सिरि जसो भद्द अणगाराय नमः
६६. सिरि समुद्दपाल अणगाराय नमः १३. सिरि संयत्ती अणगाराय नमः
६७. सिरि अरिट्ठणेमि नाथाय नमः १४. सिरि गद्दभाली आयरिय नमः
६८. णमो ते संसयातीत सव्व सुत्त महोयही १५. सिरि खत्तिय रायरिसी मूणिवराय नमः
६९. पवयणमाया-आराहए मुणिवराय नमः १६. सिरि भरह केवल णाणीय नमः
७०. सिरि जयघोस विजय घोस अणगाराय नमः १७. सिरि सगर अणगाराय नमः
७१. सिरि णिग्गंथा मुणिवराय नमः १८. सिरि मघवा अणगाराय नमः
७२. सिरि थेरे गणहरे गग्गे आयरिय नमः १९. सिरि सणंकुमार अणगाराय नमः
७३. सिरि अकसाय महक्खायं जिणे नमः २०. सिरि सन्ती नाथाय नमः
७४. सिरि चरित्त संपण्णाय साहूणं नमः २१. सिरि कुन्थूनाथाय नमः
७५. सिरि धन्ना अणगाराय नमः २२. सिरि अरनाथाय नमः
७६. सिरि पंथक मुणिवराय नमः २३. सिरि महापउम अणगाराय नमः
७७. सिरि सणंकुमार मुणिवराय नमः २४. सिरि हरिसेण अणगाराय नमः
७८. सिरि तेयलिपुत्ते केवल णाणीय नमः २५. सिरि जय अणगाराय नमः
७९. सिरि गयसुकमाल अणगाराय नमः २६. सिरि दसण्ण भद्द अणगाराय नमः
८०. सिरि सव्व अणगाराय नमः २७. सिरि करकण्ड पत्तेय बुद्धाय नमः
८१. णमो सिद्धाण २८. सिरि दुम्मह पत्तेय बुद्धाय नमः
८२. सिरि इन्दभूई गणहराय नमः २९. सिरि णग्गई पत्तेय बुद्धाय नमः
८३. सिरि अग्गिभूई गणहराय नमः ३०. सिरि उदायण अणगाराय नमः
८४. सिरि वायुभूई गणहराय नमः ३१. सिरि सेओ अणगाराय नमः
५. सिरि वियत्ते गणहराय नमः ३२. सिरि विजय अणगाराय नमः
८६. सिरि सुहम्मे गणहराय नमः ३३. सिरि महब्बल अणगाराय नमः
८७. सिरि मण्डियपुत्ते गणहराय नमः ३४. सिरि मियापुत्ते अणगाराय नमः
८८. सिरि मोरियपुत्ते गणहराय नमः ३५. सिरि अणाहि अणगाराय नमः
८९. सिरि अंकपिए गणहराय नमः ३६. सिरि समुद्द पालिय अणगाराय नमः
९०. सिरि अयलभाया गणहराय नमः ३७. सिरि रहणेमि अणगाराय नमः
९१. सिरि मेयजे गणहराय नमः ३८. सिरि अरिठ्ठणेमि नाथाय नमः
९२. सिरि पहासे गणहराय नमः ३९. सिरि राईमई आरियाय नमः
९३. सिरि जंबू सामी केवलणाणीय नमः ४०. सिरि केसीकुमार समणेय नमः
९४. सिरि पभव चउदसपुव्वधरो आयरिय नमः ४१. सिरि जय घोस अणगाराय नमः 5 ९५. सिरि सिन भव चउदसपुव्वधरो आयरिय नमः ४२. सिरि विजय घोस अणगाराय नमः
९६. सिरि जस भद्द चउदसपुव्वधरो आयरिय नमः ४३. सिरि गग्गायरिय गणहराय नमः
| ९७. सिरि संभूय विजय चउदसपुव्वधरो आयरिय नमः ४४. सिद्धाणं णमो किच्चा संजयाणं च भावओ ।
९८. सिरि भद्दबाहु चउदसपुव्वधरो आयरिय नमः ४५. सिरि समणे भगवं महावीर सामी नाथाय नमः
९९. सिरि थूलभद्द चउदसपुव्वधरो आयरिय नमः ४६. सिरि इन्दभूई अणगाराय नमः
| १००. सिरि अभयकुमार अणगाराय नमः ४७. णमो लोए सव्व साहूणम्
१०१. सिरि दस पुव्वधरो णाणीय नमः ४८. सिरि आदि नाथाय नमः
१०२. सिरि एकारस पुव्वधरो णाणीय नमः ४९. सिरि थावच्चा पुत्ते अणगाराय नमः
१०३. सिरि बारस पुव्वधरो णाणीय नमः ५०. सिरि अनुण मालागार अणगाराय नमः 6 १०४. सिरि तेरस पुव्वधरो णाणीय नमः
12 ५१. सिरि अरहा णाय पुत्ते भगवं नमः
१०५. सिरि चउदस पुव्वधरो णाणीय नमः ५२. सिरि मल्लि नाथाय नमः
१०६. सिरि परमोही णाणीय नमः ५३. सिरि कविल केवलणाणी नाथाय नमः
१०७. सिरि मणपज्जव णाणीय नमः ५४. सिरि णमिरायरिसी पत्तेय बुद्धाय नमः।
| १०८. सिरि अणत केवल णाणीय नमः
1.
Page #13
--------------------------------------------------------------------------
________________
LKG
UKG
1st STD
2nd STD
3rd STD
4th STD
5th STD
6th STD
7th STD
जिनशासन की सच्ची
आत्म कल्याण
सन्त समागम (दर्शन, प्रवचन, मांगलिक)
-
जैनी बनने की भूमिका (सप्त कुव्यसन - त्याग)
सम्यक्त्व रत्न की प्राप्ति
(अभक्ष्य पूर्णतः त्याग)
-
रात्रि भोजन त्याग
( सामायिक करे, रात्रि भोजन छोड़ने का अभ्यास करावें)
जमीकंद त्याग
(सामायिक पाठ सीखे-झूठा नहीं छोड़ना)
तीन थाली प्रत्याख्यान (पाँच अणुव्रत ग्रहण करावे व प्रतिक्रमण सीखे )
बेआसना
(२५ बोल व ६७ बोल सीखे )
एकासना
(सवंर करावे, नव तत्व ज्ञान सीखें)
आयंबिल, नीवी
(गुणव्रत, शिक्षाव्रत लेवे)
प्रभावना कीजिए का क्रमश:मार्ग
8th STD
9th STD
10th STD
11th STD
12th STD
13th STD
14th STD
उपवास
(दशवैकालिक - चार अध्ययन)
तेला तप (पुच्छिसुणं तथा तिविहार आदि तप)
सम्पूर्णतः रात्रि भोजन त्याग ( पक्का जैनी बनना १२ व्रत धारी)
पौषध, दया
( शास्त्र व थोकडों का स्वाध्याय)
बड़े तप : अठ्ठाई आदि तप संवर पौषध सहित (उत्तराध्यन सूत्र का स्वाध्याय) चार खंध का त्याग (साधु - साध्वी की सेवा करना)
बारह व्रतधारी श्रावक बनना ।
निवृत्ति लक्ष्य बनाना,
संयम धारण करना, संलेखना, संथारा की तैयारी करना । प्रवचनांश : प.पू. शिविराचार्य पंडित रत्न श्री विनयमुनिजी म.सा. "खींचन" गणेशबाग, चातुर्मास सन् - २०१२
Page #14
--------------------------------------------------------------------------
________________
DEE
By.
॥ श्री महावीराय नम ॥ जिनशासन की खोई हुई प्रतिष्ठा को पुनः प्राप्त करनी है ।
बड़ी - बड़ी तपस्याओं की आराधना करने से पहले, घर - घर में रात्रि भोजन त्याग'व्रत धारण करावे। यह व्रत जैन धर्म व जिनशासन की 'आन - बान - शान रूप है । रात्रि भोजन त्याग जैनियों की प्रथम पहचान थी,
इस पावन व्रत की सुरक्षा (धारण) में ही
हमारी सामूहिक सुरक्षा छिपी है । आत्म स्वस्थता व शरीर स्वस्थता की प्राप्ति होगी।
हम सभी अपनी खोई प्रतिष्ठा की पुन: प्रतिस्थापना करे ।
अहिंसा धर्म का प्रथम सोपान हैं।
श्रावक को त्रस व स्थावर जीवों पर दया करना ही हमारा परम कर्तव्य हैं,
भाग्यशालियो ! इतिहास गौरव से आप सभी को याद करेगा, तभी हमें इन चातुर्मासो की महान उपलब्धि प्राप्त होगी ।
सोचे - खूब सोचे
विचारे
जीवन सुन्दर बनाये
प्रवचनांश: शिविराचार्य पंडित रत्न पूज्य श्री विनयमुनिजी म.सा. "खींचन"
गणेशबाग, चातुर्मास सन् - २०१२
Page #15
--------------------------------------------------------------------------
________________
रात्रि भोजन पाप का फल
१.९६ भव कसाई = एक भव सरोवर सुखाने का पाप । १०८ भव सरोवर सुखाने के = एक भव जंगल में आग लगाने का पाप । १०० भव जंगल में आग लगाने का पाप = एक भव कुव्यापार
(अनीति से) के पाप का। १४४ भव कुव्यापार के = एक कूड़ा कलंक लगाने का भव ।
१५१ कूड़ा कलंक लगाने के = एक भव परस्त्री सेवन से ९९ भव परस्त्री सेवन पाप के = एक भव रात्रि भोजन के पाप का
(रत्न संचय ग्रन्थ) २. चत्वारि नरक द्वाराः प्रथमं रात्रि भोजनम्
(महाभारत पर्व) ३. शपथ बिना जाने नहीं देती, "रात्रि भोजन पाप"। नहीं आओ तो लगे आपको शपथ गहो यह आप ॥१०६० कन्या-वनमाला, लक्ष्मणजी से पुनः नहीं आने पर
रात्रि भोजन पाप" आपको लगेगा, तब लक्ष्मणजी शपथ लेते हैं । ४. कहे सूर्य मुनि महादोष निशि (रात्रि) भोजन को । सूज्ञ त्याग कर अल्प करत संसार को ॥ दोहा ॥
(जैन रामायण)
:- छह मासिक तप - एक वर्ष तक रात्रि भोजन के त्यागी को
छह मास के तप का लाभ मिलता है (पू. गुरुदेव तपस्वीराज चंपालालजी म.सा.)
Page #16
--------------------------------------------------------------------------
________________
रात्रि
दही बड़ा
चित्रांकन सम्पूर्णा आदि ऊटी
रात्रि - भोजन करना पाप है
..
भोजन
नरक पीड़ा
अनंत काय (जमीकंद) नहीं सेवन करना चाहिए ।
लसून
आलू
मूली
सक्कर कंद
चाट पकौडा
उल्लू
कच्चा दही
अदरख
रस चलित भोजन नहीं करना चाहिए ।
हरी हल्दी
कच्चा दूध
कच्ची छाछ
आद्य संग्रह सृष्टि
श्री सुत्र विनय स्वाध्याय मंडल, दिल्ली संपर्क: ०११-२२५८४५२७
( रात को खाने का फल
कौआ
प्याज
पूर्वजों ने कहा था कि अनजाने फल को नहीं खाना चाहिए । अनजाने फल फूल
जहरी फल
बिल्ली
शिविराचार्य प.पू.श्री विनय मुनिजी म.सा. "खीचन" का चातुर्मास सन् 2006 मणिबेन कीर्तिलाल मेहता आराधना भवन,
गाजर
मुंग दाल
कोयम्बतुर
Page #17
--------------------------------------------------------------------------
________________
रात्रि- भोजन के नुकसान
नोट : प्रत्येक जैनीको रात्रि भोजन त्याग करना चाहिए । जैन धर्म की प्रथम पहचान-रात्रि भोजन त्याग है।
जूं से जलोदर रोग की उत्पति
भंवरी खाने से उल्टी (वमन)
चींटी खाने से बुद्धि मंदता
बिच्छु से तालु-भंग
मकड़ी खाने से कुष्ट रोग
छिपकली से गंभीर स्थिति
मच्छर से ज्वर-डेंगु सर्प विष से मलेरिया
हैजा
मृत्यु
Latrine
बाल खाने से स्वर भंग
तिर्यञ्च गति
जहरीला पदार्थ खाने से उल्टी-दस्त
नरक
गति
चित्रांकन सम्पूर्णा आदि
ऊटी
शिविराचार्य प.पू.श्री विनय मुनिजी म.सा. "खीचन" का चातुर्मास सन् 2006 मणिबेन कीर्तिलाल मेहता आराधना भवन, कोयम्बतुर
आद्य संग्रह सृष्टि: श्री सुत्र विनय स्वाध्याय मंडल, दिल्ली
संपर्क : ०११-२२५८४५२७
Page #18
--------------------------------------------------------------------------
________________
करिये - रात्रि भोजन त्याग जैन धर्म से, जैन तत्व से, यदि होवे अनुराग करिये रात्रि भोजन त्याग (२) ॥टेर॥ रात्रि भोजन त्याग भी तप है, कह गए श्री वीतराग । करिये॥ साधु का कहना नहीं माना, खाने बैठा रात में खाना । पत्नी से बोला यहाँ आना, पूरे आम का अचार लाना । मरे चूहे की, पूँछ देख फिर, देखी उसने टांग । करिये... ॥१॥ एक समय रात्रि में भाई, गिरी छिपकली भिंडी माँही । एक ने बड़े की कढ़ी बनाई, मेंढ़क गिरा न दिया दिखाई । खाने बैठा देख कांप गया, बच गया लगा न दाग । करिये... ॥२॥ जलोदर सुंआ से होवें, मकड़ी से कुष्टि हो रोवे । केश खाये वो सुस्वर खोवे, जन्तु भक्ष से कई दुःख होवे । सड़े कपाल बिच्छु खाने से, जिसके फूटे भाग । करिये ... ॥३॥ चिड़िया-कव्वे पक्षी कहाये, रात्रि में वे कभी न खाये । भूखे हो तो भी उड़ जावे, मानव तू तो श्रेष्ठ कहाये । बुद्धिमान है 'केवलमुनि' तो जाग-जाग रे जाग । करिये... ॥४॥
(तर्ज : देख तेरे संसार की हालत....)
दयालुता ऐसी भाषा है, जिसे बहरा भी सुन सकता है
अन्धा देख सकता है।
Page #19
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
भगवती सूत्र में भगवान महावीर स्वामी ने कहा है कि अठारह पाप के सेवन करने से ही जीव कर्मो से भारी बनता है, अतएव पापों को त्यागे बिना जीव सुखी नही बन सकता है। सामायकि संवर पौषध कीजिए ।
आद्य संग्रह सृष्टि: श्री सुत्र विनय स्वाध्याय मंडल, दिल्ली
संपर्क: ०११-२२५८४५२७
हिंसा
झूठ
२ चोरी
| 외 설에 CAAS.:.
माया
यह
लोभ
राग
१० देष
6 Ec
झूठा कलंक
१३| चुगली
१४/पराई
१५ रति
निंदा
१७
मिथ्या दर्शन शल्य
माया ।
मृणा
१ अठारह पाप स्थान२ नारकी में वेदना -1
कुदेव पूजा का फल
माता पिता को सताना 1
मिदिरा पान का फल ।
चित्रांकन सम्पूर्णा आदि
ऊटी
माता पिता को सताने का फल शिविराचार्य प.पू.श्री विनय मुनिजी म.सा. "खीचन' का चातुर्मास सन् 2006 मणिबेन कीर्तिलाल मेहता आराधना भवन, कोयम्बतुर
Page #20
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन शास्त्रों में श्रावक श्राविकाओं के इक्कीस गुण बताए गए है। पहला गुण (बोले) श्रावकजीनव तत्ववपच्चीसक्रिया का जानकारहोवें।
पच्चीस- क्रिया
তারনর
क्रिया से कर्मों का बन्ध होता है । कर्म बंध के कारण क्रियाएं पच्चीस प्रकार की है। इनका वर्णन स्थानांग सूत्र स्थान २ उद्देशक १ तथा स्थान ५ उद्देशक २ में इस प्रकार है।
Www
११
जीव तत्व जिसमें जानने देखने
काइया और अनुभव करने की
अहिगरणया पाउसिया परितावणिया
पाणाइवाइया शक्ति हो, उपयोग गुण शरीर आदि प्रमत्त योगों के चाकू-छुरी तलवार आदि ईर्षा, द्वेष, मत्सरता आदि किसीको मार पीट कर प्राणों का नाश करने रुप सचेतना लक्षण कर्ता व्यापार से होने वाली हलन शस्त्र से होने वाली क्रिया अशुभ परिणाम रुप । अथवा कठोर वचन कहकर क्रिया ।१ स्वहस्तश्परहस्त भोगता । जीव अरुपी चलन आदि क्रिया । दो भेद संयोजना र निर्वर्तना
जीवर अजीव
क्लेश पहुँचाना । दुःखी। होता है। १ अनुपरत २ दुष्पयुक्त
करना कष्ट देना। अजीव तत्व
.१स्वहस्त २परहस्त चेतना गुण से रहित उपयोग से हीन जड़ता। भाव जिसमें हो । अजीव
आरंभिया परिग्गाहिया मायावत्तिया
अपच्क्वाण वत्तिया मिच्छादसण वनिया रुपी अरुपी दोनों प्रकार
१जीव परिग्रह- कुटुम्ब १ जीव आ.छह काया के होते है।
परिवार दास - दासी गाय छल कपट से तथा कषाय के विरति के अभाव में यह सम्यक्त्व के अभाव में जीबो का आरंभ करने से। भैंसादि चतुष्पद् शुकादि पक्षी सद्भाव में लगने वाली क्रिया होती है । सभी को अथवा तत्व सम्बन्धी पुष्य तत्त्व २ अजीव आ. कपडा, धान्य फल आदि स्थावर जीवों । क्रिया
समान रूप से लगती है। अश्रद्धा या कुश्रद्धा के आत्मा को पवित्र करें। कागज मत कलेवर आदि.कोममत्व भाव से अपनाना।। .२ अजीव परिग्रह - सोना..
कारण लगनेवाली क्रिया।
आत्मभाव वक्रता बान्धना दुर्लभ, अजीव वस्तुओं को नष्ट चांदी, मकान व आभूषण (कुटिलता)
न्यूनाधिक भोगना सरल है। करने से होने वाली क्रिया। शयन आदि अजीव वस्तुओं २ परभाव वक्रता (खोटा
२ तदव्यतिरिक्त परममत्व भाव रखना। पाप तत्व
तोल ठगाई) आत्मा को मलिन करेंपापों को बोझ से भारी करें, उसका फल दुःख दिविया
पुट्ठिया पडुच्चिया सामन्तो वणिवाइया
सहत्थिया
जीव और अजीव वस्तुओं के जीव अधवा अजीव पदार्थ जीव अथवा अजीव के स्पर्श जीव और अजीव रुप बाहामा बराक अपने हाथ में ग्रहण किए आश्रव तत्व को देखने से होने वाली से होनेवाली राग-द्वेष की वस्तु के आश्रय से उत्पन्न
किए हुए संग्रह को देखकर
हुए जीव को मारने से पीटने जिन कारणों से आत्मारागद्वेष परिणाम
लोग प्रशंसा करें और प्रशंसा परिणति । राग-द्वेष और उससे होने को सुनकर हर्षित होना । इसम य
रुप तथा अपने हाथमें परकर्मपुद्गलों का आना
वाली क्रिया। • होता है, जैसे कर्म रुपी
'प्रकार बहुत से लोगों के द्वारा ग्रहन किए हुए जीव से दूसरे
अपनी प्रशंसा सुनकर हर्षित। जीव को मारने पीटने रुप । | पानी आत्मा रुपी तालाब
होने से यह क्रिया लगती हैं।। १.जीव २ अजीव --में आनेकामार्ग।
१जीव २ अजीव संबर तत्व - जिन कारणों से आते। कर्म पुद्गलों को रोका।
नेसत्थिया आणवणिया
बैदारणिया अणाभोगवत्तिया
अणवकंखवत्तिया जावें।
किसी वस्तु को फेंकने से। दूसरे को आज्ञा देकर कराइ विदारण करनेसे होनेवाली अनजानपनेसे उपयोग - हिताहित की उपेक्षा से निर्जरा तत्व होनेवाली क्रिया। जानेवाली क्रिया अथवा ! क्रिया।
'शुन्यता से होनेवाली क्रिया । लगने वाली क्रिया आत्मा के साथ बन्धे१जीव पृष्टिकी २ अजीव दूसरों के द्वारा लगवायी
.9 अनायुक्त आदानता २ १स्व २ पर नैष्टिकी जाने वाली क्रिया।
। अनायुक्त प्रमार्जनता - किया जाना।
१जीव आज्ञापनिका बन्य तत्व
२ अजीव आज्ञापनिका जिन कारणों से कर्म
२१ २२
२३ पुद्गल आत्मा में दुध पेज्ज बत्तिया
देस वत्तिया पओगिया सामुदाणिया
इरियावहिया और पानी की तरह राग से लगनेवाली क्रिया क्रोध २ मान से लगने मन का दुष्प्रयोग करना
बहुत से लोग मिलकर एक साथ
। कषाय रहित जीवों को योग -एकमेक होजाते है।
'एक ही प्रकार की क्रिया करे, अच्छे । माया श्लोभ वाली किया। वचन का अशुभ प्रयोग
बुरे दृश्य देखे या आरंभ जन्ट मात्र से होने वाली क्रिया मोक्ष तत्व
करना ३ काया का बुरा । कार्यों को साथ मिलकर करे, १ उपशान्त मोह वीतराग सम्पूर्ण कर्मो का क्षय हो।
प्रयोगकरना
उसेसामुदानिकी क्रियाकहते हैं। क्षीण मोह वीतराग जाना मोक्ष ।
सान्तर सामुदानिकी
३ सयोगी केवली २ निरंतर सामुदानिकी ३ तदुभव सामुदानिकी
११
२५
चित्रांकन सम्पूर्णा आदि
ऊटी
शिविराचार्य प.पू.श्री विनय मनिजी म.सा. "खीचन"
आद्य संग्रह सृष्टि:
| श्री सुत्र विनय स्वाध्याय मंडल, दिल्ली का चातुर्मास सन् 2006 मणिबेन कीर्तिलाल मेहता आराधना भवन, कोयम्बतुर |
11 आराधना भवन, पावर
संपर्क : ०११-२२५८४५२७
Page #21
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्व और ग्रन्विमेद की प्रक्रिया
मिथ्यात्व की
तीन स्थिति
* अंतरकरण के अंतर्मुहूर्त अंतिम छ आवलिका या जघन्य से एक समय बाकी रहने से किसी मंद परिणामी जीव को अनन्तानुबंधी का उदय होने से सास्वादन गुणस्थान दूसरा प्राप्त करके अन्तर करण के बाद मिध्यात्व पामे ।
अंतर करण काल में अंतर स्थितिगत दलिकों को ऊपर और
नीचे की स्थिति में डालकर संपूर्ण खाली करें
संख्यात
马
भा
ग
चित्रांकन सम्पूर्णा आदि ऊटी
अनिवृत्ति करण का संख्यातवा भाग
विशुद्ध यथा
प्रवृत्ति करण
६ आवालिका
* अंतरकरण क्रिया काल
अध्यवसायको प्रतिसमय अनंत गुण विशुद्धि
अनिवृत्ति करण में प्रवेश
अपूर्व करण मे प्रवेश
भव्य जीव का चरमावर्त में प्रवेश
तीव्र संवेग निर्वेदसे ग्रन्थिभेद
ग्रन्थी
संसार के सुख प्र तीव्र राग
१) समकित मोहनीय
— शुद्ध-पुंज
* नदी घोल पाषाण न्याय से अनंत बार वथा प्रवृत्ति करण के द्वारा आयुष्य बिना सात कर्मों की स्थिति एक कोड़ा कोड़ी सागरोपम में पल्योपम के असंख्यात भाग न्युन करे अर्थात् अतः कोड़ा कोड़ी सागर प्रमाण स्थिति बनाता है।
त
र
उत्किरण
प्रक्रिया
अ
पू.
र्व
निबीड़ रागद्वेष की मूढ-घन-दुर्भेद्य ग्रन्थी
तथा भव परिणति परिपाक ! दोष टले वली दृष्टि :
१) मिश्र मोहनीय - अर्द्ध-शुद्ध
* अंतर क्रिया के बाद
मिथ्यात्व की
प्रथम स्थिति
Q
* गाढ़ मिथ्यात्व के योग से जीव का संसार में परिभ्रमण
* ८४ लाख योनि में, * १४ राज लोक में, * ४ गति में
* अनंत जन्म मरण की परंपरा
शुद्ध पुज ३) मिथ्यात्व मोहनीय
* त्रिपुंजी करण प्रक्रिया प्रारंभ काल * अपूर्व आत्मानंद की अनुभूति
उपशम सम्यक्त्व की प्राप्ति
के साथ कोई जीव को की स्पर्शना होती है
एक साथ प्रवेशक जीवों की समान अध्यवसाय अनिवृत्ति
अपूर्व स्थितिबंध
२. अपूर्व रस बंध
3.
अपूर्व स्थिति बंध
४. अपूर्व गुण श्रेणि
(१) अंतरकरण के बाद जीव को निर्मल परिणाम में शुद्ध पुंज के उदय
से क्षायोपशमिक समकित की प्राप्ति गुणस्थानक चौथा
२) कोई जीव को मध्यस्थ परिणाम होने पर मिश्रमोहनीय के अर्थ शुद्ध पुंज के उदय से मिश्र गुणस्थानकतीसरे की प्राप्ति
अर्थ पुद्गल परावर्तन काल से अधिक संसार भ्रमण नहीं
देश
(३) कोई जाँव के कलुषित परिणाम से अशुद्ध पुंज के उदय से मिध्यात्व की प्राप्ति गुणस्थान दूसरा की प्राप्ति
* देश विरति ५ गुण * सर्व विरति ६ गुण * अप्रमत ७ गुण
भली, प्राप्ति प्रवचन- वाक ।
* यथा प्रवृति करण से भव्य- अभव्य दुर्भव्य जीवों कर्म
की लघुता से अनंतीवार ग्रन्थि देश तक आकर अपूर्व करण की विशुद्धि की अभाव से वापिस लौटते है।
शिविराचार्य प.पू. श्री विनय मुनिजी म.सा. "खीचन" का चातुर्मास सन् 2006 मणिबेन कीर्तिलाल मेहता आराधना भवन, कोयम्बतुर
संसार के दुःख प्रति
उग्रद्वेष
गाड़ मिध्यात्व के उदय में ७० कोड़ा कोड़ी मिथ्यात्व की स्थिति बार-बार बांधे, भविष्य में मात्र दो बार उत्कृष्ट स्थिति बांधे, वह द्विबंधक, एक बार बांधे, वह सुकृत बंधक, उत्कृष्ट स्थिति नबंधे तो अपूर्णबंधक।
आद्य संग्रह सृष्टि श्री सुत्र विनय स्वाध्याय मंडल, दिल्ली संपर्क: ०११-२२५८४५२७
Page #22
--------------------------------------------------------------------------
________________
आद्य संग्रह सृष्टि: श्री सुत्र विनय स्वाध्याय मंडल, दिल्ली
संपर्क : ०११-२२५८४५२७
जंबूद्वीप से नंदीश्वर द्वीप
असंख्य द्वीप समुद्र
रति कर
रति मख
HA अंजन है गिरिव
राधा राधा रखा
इक्षरसका स्ना
रति कर
रति कर पर्वत
संदीश्वर सामुद्र
४०९६ लक्षयोजन
१०२४ लक्षयोजन
जून वर समुद्र
४८१६३६४२२५६११ लायो
albuaa
New
भात" समुद्र पर्यान्ता
दधिमुख
अंजनी गिरि
अंजन तिगिरि
A
HAR
Rधा
डद्वान
Veim
३. पुस्तक
शाशत जिन
करभरद्वाज
चेश्य
वारुणी ार द्वाप
४ अंजन गिरी १६ दथि मुख ३२ रति कर
१.ऋषभानन २. चंद्रा नन ३. वर्धमान ४. वारिषेण
५.क्षीर वर द्वीप
६. घृत वर द्वीप
नंदीश्वर
___७. इथु रस द्वीप
रति कर पर्वत ।
द्वीप-८
रति कर पर्वत
दी
.
ME
दधिक अजन
A
रति कर पर्वत
रति कर पर्वत
दधि मुख
चित्रांकन सम्पूर्णा आदि
ਟੀ
शिविराचार्य प.पू.श्री विनय मुनिजी म.सा. "खीचन" का चातुर्मास सन् 2006 मणिबेन कीर्तिलाल मेहता आराधना भवन, कोयम्बतुर
Page #23
--------------------------------------------------------------------------
________________
चित्रांकन सम्पूर्णा आदि
ऊटी
शिविराचार्य प.प.श्री विनय मुनिजी म.सा. "खीचन" का चातुर्मास सन् 2006 मणिबेन कीर्तिलाल
मेहता आराधना भवन, कोयम्बतुर
पाप कर्मो का फल संयम से जीओ और जीने दो ।
आद्य संग्रह सृष्टि : श्री सुत्र विनय स्वाध्याय मंडल, दिल्ली संपर्क : ०११-२२५८४५२७
मम्मी, मम्मी,
चुप हो जा बेटे । इन __पड़ोसियों ने पटाखों की
पूरी लड़ी छुडायी, मेरे 7 नन्हे की डर के मारे (धिम्धी बँध गयी।
बचाओ.बचाओ
LE
K
PORN
[पटाखे : नाश-नाश भयंकर विनाश)
असंयम से बढ़कर कोई बड़ा शस्त्र नही है ।
हाय ! इन पटाखों के धमाके से तो मेरा गर्भ
ही गिर गया।
पटाखों से निकलने वाले ) विषेले धुएसे फेफडे
-संबंधी तथा (कैंसर जैसे भयंकर रोग
होते है।
इन बच्चों को कौन समझाये, इन पटाखों के धुएँ से खाँस खाँस कर मेरी पसलियाँ
दर्द कर रही है। * पटाखों के द्वारा बड़े-बड़े अग्निकांड हो जाते है, जिससे देश को करोड़ो अरबो रुपयों का
नुकसान उठाना पड़ता है। क्या यही कर्तव्य है हमारा देश के प्रति ??? * पटाखों के कारण कई झोपडियाँजल जाती है तथा गरीब लोग घर से बेघर असहाय होजाते है। *हमारे द्वारा उपयोग की जानेवाली आतिशबाजी के कारण पर्यावरण दुषित होता है
तथा कह लोग बहरे हो जाते है, कई लोग श्वास, दम के रोगी हो जाते है । क्या यही हमारी
संस्कृति है ? *हमारी खुशी की अभिव्यक्ति दूसरे जीवों की जीवनलीला समाप्त कर दे तथा स्वयं की
परिवार, समाज, देशवधर्म की जिसमें हानि हो, क्या उचित है ??? फटाखे बंद करे। *पटाखों केधमाखों से लाखो पक्षियों के गर्भ गिर जाते है। *दीपावली के दिन प्रभु महावीर स्वामी को मोक्ष प्राप्त हुआ था तथा उन्होंने हमें उपदेश दिया
धा संयमसेजीओ और जीने दो। * विचार कीजिये। आज तक हम हजारों-लाखों रुपयों की होली पटाखों के माध्यम से जला
युके हैं। सोचिये वही पैसा हम यदि इस दिपावली के शुभ प्रसंग पर अपने स्वधर्मी, गरीब व बेसहारा भाईयों पर खर्च करें, उन्हें मिठाइयाँ बाँटे, नये कपड़े दिलवाये तो उनकी दुआएँ आपको लाभकारी होगी।
संयम से बढ़कर कोई आत्म कल्याण का साधन नही है ।
बचाओ, बचाओ। पटाखों ने हमारे घर को आग लगादी, हमें बचाओ. हमें बाहर निकालो।)
पटाखे
संयम ही सुख की खान है।
Page #24
--------------------------------------------------------------------------
________________
३६ हजार प्रश्नो का संकलन
३
२००१३
२८ રાણ २६
पंचम अंग सूत्राधिराज
રy.
२४
१०
२३
भगवती सूत्र ११
૨૨
२०
(१९१८१७१६१५
चारमूल सूत्र २४. उत्तराध्ययन २५. दशवैकालिक २६. नन्दी २७. अनुयोगद्धार
इग्यारह अंग १. आचारांग २.सूत्र कृतांग ३. स्थानांग ४. समवायांग ५. भगवती अंग ६. ज्ञाता धर्मकथांग ७. उपासक दशांग ८. अन्त कृत दशांग ९. अनुत्तरोपपातिक दशांग १०. प्रश्न व्याकरणांग ११. विपाकांग
बारह उपांग १२. औपपातिक १३. राजप्रश्नीय १४. जीवाभिगम १५. प्रज्ञापना १६. जंबू दीप प्रज्ञप्ति १७. चन्द्र प्रज्ञप्ति १८. सूर्य प्रज्ञप्ति १९. निरयावलिका २०. कल्पावतंसिका २१. पुष्पिका २२. पुष्पचूलिका २३. वृष्णि दशा
चार छेद २८. दशाश्रुत स्कन्ध २९. बृहत्कल्प ३०. व्यवहार ३१. निशीथ
३२. आवश्यक सूत्र
भगवती सूत्र पर प्रवचन पांच मास तक सन् २०१२ (गणेश बाग) बेंगलोर भगवती सूत्र पर प्रवचन चार मास तक सन् २०१३ (हीरा बाग) बेंगलोर
Page #25
--------------------------------------------------------------------------
________________
COPविनय बोधि कण
भाग 5 चातुर्मास ऊटी (TN) सन 2002
__ संकलन श्रीमती संगीता धर्मपत्नी श्री रिखबचंदजी चोरड़िया चैन्नई कुमारी निभा सुपुत्री श्री निर्मल कुमारजी नाहर चैन्नई
N
Page #26
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाग-5)
अनुक्रमणिका 1. समाधि की डगर 2. अच्छी बातें 3. माँ-बाप 4.रुको एक मिनिट देखो 5. सत्रह तरह के मुर्ख 6. पशुओं से 20 गुण सीखने चाहिए 7. थोड़ा सा स्वीट 8. सफलता के सात सूत्र 9. कुछ हितकारी 10. एक एक सूत्र की कीमत 25000 डालर 11. नीति के अनमोल बोल 12. आगम के अनमोल मोती 13. सद्गुणों की सौरभ 14. विदाई स्तवन
“ऊटी (ऊटकमंड-तमिलनाडु) के वासियों ने जैन समाज में एक नया इतिहास रचा"
नीलगिरि की पहाड़ी क्षेत्रों का ऊटी में राजस्थानी जैन स्थानकवासी के लगभग ५० घर है। सन् २००२ में प.पू गुरुदेव आचार्य श्रीश्री १००८ तपस्वीराज चंपालाल जी म.सा के शिष्य श्री विनयमुनिजी “खींचन" “शिविराचार्य” ने चातुर्मास किया। चातुर्मास के प्रारम्भ दिन से अन्तिम दिन तक अट्ठाइ तप या बड़ी तपस्या चालू रही थी। कुल १२६ बड़े तप हुए (अट्ठाइ व अट्ठाइ से ऊपर के तप)। सम्पूर्ण जैन समाज में एक नया इतिहास ऊटी वासियों ने रचा था। सभी ऊटी वासियों को हम सभी भावभीना वंदन-अभिनंदन करते है।
एक नया रिकार्ड - दीपावली के बाद २३ अट्ठाइयां हुई। ऊटी वालों ने असंभव को संभव कर दिखाया। सभी ऊटी वासी साधुवाद के पात्र है।
एक अद्भुत साहस : __ पू. विनयमुनिजी म.सा “खींचन" ने रायपुर (२३ नवम्बर सन् १९९८) में ही सुदूर दक्षिण भारत के विश्व प्रसिद्ध नगर बेंगलोर के भाग्यशाली क्षेत्र अलसूर हेतु सन् १९९९ का चातुर्मास खोलकर अद्भुत साहसिक घोषणा की। उग्र विहार यात्रा में सुगम-दुर्गम क्षेत्रों में निडरता से विचरण करते हुए, परीषहों को समता से सहते हुए करीब १७०० कि.मी की दूरी तय कर आपने अलसुर, बेंगलोर में अपना पहला यशस्वी चातुर्मास किया था।
... मंत्री दि. २८-११-२००२
एल. धनराज टाटिया
संघ मन्त्री, ऊटी
Page #27
--------------------------------------------------------------------------
________________
एक अनुपम जिन शासन प्रभावना
परम पूज्य गुरुदेव तपस्वीराज श्री चंपालालजी म.सा के शिष्य परम पूज्य पंडित रत्न शिविराचार्य श्री विनयमुनिजी म.सा “खींचन" शास्त्रों के मर्मज्ञ एवं सूत्रों के गुढ़ रहस्यों को जानने वाले तथा सूत्रार्थ को सरल सहज एवं सरस भाषा में श्रद्धालुओं के समक्ष प्रस्तुत करने की अद्भुत क्षमता रखते हैं। परम सौभाग्य से ऊटी वासियों को २००२ में पु. मुनि श्री का चातुर्मास प्राप्त हुआ। ज्ञान की गंगा ने मानो रैगिस्तान को हरा भरा बना दिया । इस चातुर्मास में ऊटी में अपूर्व तपस्या के कीर्तिमान बने। हितकारी पुरानी परंपराओं के संवाहक मीठी मधुर मारवाड़ी भाषा कहावतों एवं मुहावरों से सजी दिल की गहराइयों को छूनेवाली मिश्री जैसी जिनवाणी आगम के उदाहरणों व गाथाओं को अपनी मेघ सदृश प्रवचन शैली से सभी के हृदय को स्पंदित करने में पु. मुनिश्री पूर्णतः सफल रहे। धर्म से विमुखता की ओर बढ़नेवाली युवा पीढ़ी ने काफी उत्साह दिखाते हुए पु. मुनिश्री की शिक्षाओं को हृदय से अंगीकार किया। साथ ही ज्ञान के प्रकाश से स्वयं को आलोकित करने का भी संघ के सभी सदस्यों ने सुंदर प्रयास किया।
कहा जाता है ज्ञान बिना पशु सारिखा, जाणो इम संसार । ज्ञान आराधना थी लहे शिवपद सुख श्री कार ।। ज्ञानी श्वासोश्वास मां करे कर्म नो छेह ।
पूर्व कोड़ी वरसां लगे अज्ञानी करे वेह ।। पू. मुनि श्री ने अथक परिश्रम द्वारा तत्वों की जानकारी प्रश्नोत्तर के रूप में प्रस्तुत की है, जो जन साधारण के लिए सहजता से बोध गम्य है। साथ ही व्यवहारिक जीवन में नैतिकता एवं सदाचरण को भी पू. मुनिश्री अत्यधिक महत्व देते हैं। पु. मुनिश्री मानव एवं समाज के सर्वांगीण धार्मिक उत्थान के लिए सदैव सजग प्रयास करते रहते हैं। इस “विनय बोधि कण” नामक संकलन संग्रह मे सन् २००२ के ऊटी चातुर्मास में मुनिश्री के द्वारा मुखरित जिनवाणी के मोतियों का संग्रह, विनय बोधि कण भाग ५, सन् २००३ के शांतिनगर बेंगलोर के चातुर्मास के संग्रह, विनय बोधि कण ६ (छः), सन् २००४ के मैसूर (कर्नाटक) के चातुर्मास के संग्रह विनय बोधि कण भाग ७ (सात) एवं सन् २०१० गणेश बाग शिवाजी नगर बेंगलोर के चातुर्मास के संग्रह विनय बोधि कण भाग १३ को एक साथ प्रस्तुत किया गया है । ज्ञान पिपासु धर्म रसिकजन इस संकलन से निश्चय ही अपने ज्ञान में अभिवृद्धि कर जिन मार्ग पर द्रुत गति से अग्रसर होने में सक्षम बनेगे, ऐसा मेरा अटूट विश्वास है। पु. मुनिश्री स्व पर के कल्याण की भावना से जिनशासन की महती प्रभावना करते हुए स्वस्थ एवं दीर्घ आयु प्राप्त करें, यही मेरी शुम भावना है। सोने में सुगंध की तरह ऊटी वासियों को सन् २००५ में पुनः पुज्य श्री का चातुर्मास प्राप्त हुआ, जिसमें ज्ञान की विशिष्ट आराधना हुई, जो ऊटी के लिए सदा अविस्मरणीय रहेगी। प्रस्तुत संकलन में “गागर में सागर” को समाने का सफल प्रयास किया गया है, कृपया पाठक इसका अधिक से अधिक लाभ उठायें । ऊटी दि. १९-२-२०१३
क. मेरूदान लुणावत - ऊटी
Page #28
--------------------------------------------------------------------------
________________
ऊटी बन गया तीर्थ
ऊटी बन गया तीर्थ, शुद्ध हुआ सारा परिवेश, पाकर पूज्य विनयजी को, गर्व करे यह सारा देश । जागा ऊटी का सौभाग्य, हर धर्मीजन हर्षित आज, परम भाग्य से ऊटी पधारे, श्री विनयमुनि महाराज । महा तपस्वी पू. श्री चम्पालालजी श्रमण सूर्य तपस्वीराज, उनके सुयोग्य सुशिष्य श्री विनयमुनि महाराज ।
" खींचन " उपनाम है साथ जुडा, अर्थ में गूढ़ तथ्य है, सहज खींच ले धर्मी को, क्रिया में महा सत्य है ।
मंगलकारी हे विनयमुनि, स्वीकार करें विधिवत वंदन, मैं कवि नारायण स्वामी, कविता से करता अभिनंदन ।
श्रम व्रत सेवा त्याग और सत्य न्याय विश्वास, संयम शक्ति भक्ति तप, श्री विनय मुनि के पास ।
श्री विनय मुनि की महिमा भारी, धर्म के दिग्गज संस्थापक, मोक्ष मार्ग दिखलाये मनुज को, आप अध्यापकों के अध्यापक ।
धर्म ध्यान से धन्य हुए, ऊटी में रहने वाले,
जय जैन धर्म, जय महावीर, ऊटी में सभी कहने वाले ।
कोटि कोटि वंदन करूँ, धन्य बने सब आज, आप जगत के आराध्य गुरु है, हे विनयमुनि महाराज ।
रचयिता : वि. नारायण स्वामी
मैनेजर जैन भवन, अग्रहारम, चैन्नै
-
4
-
३ सन् २००२
Page #29
--------------------------------------------------------------------------
________________
समाधि की डगर
1) राग, द्वेष और अज्ञान से रहित ऐसे वीतराग परमात्मा मेरे देव है ।
2) कंचन और कामिनी के त्यागी पंच महाव्रत धारी साधु भगवन्त मेरे गुरू है।
3) सर्वज्ञ परमात्मा द्वारा प्ररुपित अनंत कल्याणकारी जिन-धर्म, यही मेरा धर्म है । 4) अरिहंत परमात्मा का प्रत्येक वचन सौ-टच सोने जैसा है ।
5) मैं आदर पूर्वक सिर झुकाता हूँ ।
अज्ञान और मोह के कारण से मैनें बहुत जीवों का संहार किया, बहुत जीवों को असाता दी। बहुत जीवों का दिल दुखाया, उन सर्व से भीतर की शुद्ध पवित्र भावना से मैं माफी माँगता हूँ ।
6) भव-चक्र में घूमते- भमते झूठ, माया और प्रपंच करके मैंने बहुत जीवों को ठगा है, उन सभी जीवों से मैं क्षमा याचना करता हूँ ।
7) अठारह पापों का सेवन करके, मैने चिकने निकाचित् कर्म बांधे है, उन सबकी मैं निंदा करता हूँ, वे पाप मेरे निष्फल हो ।
8 ) संसार में परिभ्रमण करते करते, आज दिन तक मैने अनंत शरीर धारण किए, प्रत्येक भव में पुद्गलों के ढेर किए, उन सभी पुद्गलों को छोड़ कर मैं यहां आया हूँ। अब मेरा उन सभी पुद्गलों के साथ किसी प्रकार का सम्बंध नहीं है। मैं उन सभी पुद्गलों को वोसिराता हूँ ।
9)
अज्ञान या द्वेष के वश होकर मैनें महान् तारण हार ऐसे देव, गुरु, धर्म की अविनयआशातना की हो तो पश्चातापित हृदय से मिच्छामि दुक्कडं |
10) देव, गुरु के सान्निध्य में जाकर के भी, रात्रि भोजन अशुद्ध अभक्ष्य का सेवन किया हो,
5
अब्रह्मचर्य अनाचार की सेवना की, आसातना की हो तो मिच्छामि दुक्कड़ं ।
11) पर्व तिथि के दिनों में विशेष आराधना करने की बजाय विराधनाएं की, उनका अन्तः करणपूर्वक मिच्छामि दुक्कड़ं ।
12) जगत् के जीवों को दुःख मय संसार से छूटने का मार्ग बताकर अरिहंत परमात्मा ने कितना महान् उपकार किया है, अरिहंत परमात्मा के अनंत गुणों की भाव से अनुमोदना करता हूँ ।
13) सर्व कर्म के क्षय से उत्पन्न हुए, अनंत आत्म गुणों के मालिक बने हुए; सिद्ध भगवन्तों के सिद्ध स्वरूप की भाव से अनुमोदना करता हूँ ।
14) पंचाचार का निर्मल पालन करने वाले और जिन शासन की जय जयकार फैलाने वाले ऐसे आचार्य भगवन्तों की भाव से अनुमोदना करता हूँ ।
15) पंच परमेष्टि में चौथे स्थान पर बिराजमान उपाध्यायजी भगवन्तों के महान गुणों की भाव अनुमोदना करता हूँ ।
16 ) पूज्य साधु-साध्वीजी महाराज, पाँच महाव्रतों का पालन करते है । अष्ट प्रवचन माता की पालना करते हैं। बावीस परीषहों को जीतते है, उनकी यह महान संयम आराधना की भावसे अनुमोदना करता हूँ ।
17 ) अनेक श्रावक और श्राविकाएँ बारह श्रावक व्रतों का निर्मल पालन करते है, श्रावक धर्म का सुन्दर ढंग से आचरण करते है । दान, शील, तप और भाव की सुन्दर आराधना करते है, उन सब की मैं अनुमोदना करता हूँ ।
-
18) गृहस्थ वास में रहकर भी जो नर और नारी, मन, वचन और काया से निर्मल ब्रह्मचर्य का पालन करते है, उन सब की भाव से अनुमोदना करता हूँ ।
Page #30
--------------------------------------------------------------------------
________________
19) चतुर्विध संघ में अनेक उत्तम आत्माएँ आत्मार्थ समय इस जीव को कोई बचाने में समर्थ नहीं
वर्धमान तप की ओली (आयम्बिल) करके हो पाएगा । देव, गुरु और धर्म सिवाय इस रसनेंद्रिय को जीतते है, उन सब (तपस्वियों) । लोक में कोई शरण-भूत पदार्थ नहीं हैं। की भावपूर्वक मैं अनुमोदना करता हूँ।
28) संसार - भावना 20) श्री ऋषभदेव परमात्मा के तप के आलम्बन
यह संसार दुःख मय है । पग - पग पर पाप से भारत भर में प्रत्येक वर्ष हजारों भाग्यशाली
ही करना पड़ रहा है। अनेक विचित्रताओं से वर्षीतप की आराधना करते है, भावपूर्वक मैं
भरे हुए इस संसार में स्वार्थ के सब सगे है, उनकी अनुमोदना करता हूँ।
इसलिए यह संसार असार हैं। 21) बारह प्रकार के तप की आराधना करने वाले
29) एकत्व-भावना भाग्यवान तपस्वी जो कर्म क्षय कर रहे है, उन सबके तप-धर्म की भाव से अनुमोदना
इस दुनिया में, मैं अकेला ही आया हूँ, और
यहां से अकेला ही जाना है । मैं किसी का करता हूँ।
नही हूँ, कोई मेरा नहीं है। 22) मैत्री आदि, शुभ भावनाओं द्वारा जो महानुभाव चित्त को भावित करते है, उन सब की धर्म
30) अन्यत्व-भावना भावना की भावभीनी अनुमोदना करता हूँ। ये शरीर, मकान, पैसा और पद-परिवार, 23) भाग्यवान आत्माओं हजारो..लाखों...करोड़ो,
सब कुछ पराया है । ज्ञान, दर्शन, चारित्र नवकार (मंत्र) सूत्र के जाप करके नमस्कार
व तप ये आत्मा के गुण ही, मेरे है। सूत्र की अद्भुत आराधना करते है, उन | 31) अशुचि-भावना सब की भावपूर्वक अनुमोदना करता हूँ।
ये शरीर खून, माँस, रस्सी, हड्डी, मल, 24) सभी संसारी जीवों पर दया-दान, परोपकार, मूत्र, श्लेष्म और गन्दगी से भरा पात्र है ।
करुणा, अनुकम्पा आदि शुभ कार्यों की बहुत ऐसे अशुचि से भरे हुए शरीर पर मोह करने शुभ भाव से अनुमोदना करता हूँ।
जैसा कुछ भी नहीं है। 25) जिनमें क्षमा, नम्रता, सरलता और कोमलता | 32) आश्रव-भावना
आदि सद्गुण हो, उन सब गुणी जनोंके मन,वचन और काया की पाप-अशुभ प्रवृत्ति
सद्गुणों की भाव से अनुमोदना करता हूँ। से पाप का बंध होता है, इसलिए ये आश्रव 26) अनित्य भावना
हैं। इन सब आश्रवों का मैं कब त्याग करुंगा? जिसका उदय, उसका अस्त है । जो खिलता | 33) संवर-भावना है, वो मुझाता है । जो जन्मता है, वो मृत्यु मन-वचन और काया की शुभ प्रवृत्तियों से को प्राप्त होता है | यह सर्व जगत् विनाशी
अशुभ कर्मो का बंध रुकता है। इसलिए मैं है । सब संयोग क्षणिक है । जिससे किसी
हमेशा शुभ - निर्मल प्रवृत्ति में मग्न रहूँ । भी व्यक्ति या वस्तु में मोह पैदा करने जैसा
ऐसी भावना रखता हूँ। इस लोक में कुछ भी नहीं है।
34) निर्जरा-भावना 27) अशरण - भावना
अनशन-आदि बारह प्रकार के तप की आराधना आधि-व्याधि-उपाधि मौत जब आवेगी, उस । से आत्मा में लगे कर्म का क्षय होता है, तप
Page #31
--------------------------------------------------------------------------
________________
44) ज्ञानाच
में, मैं खूब उद्यम करूँगा।
करते है, तो उनका भी हम तिरस्कार न करें 35) बोधि-दुर्लभ भावना
। प्रभु! -ऐसी सद्बुद्धि मेरी बनी रहे । अनंत अनंत पण्योदय से जिनशासन के पाप्ति | 42) दीक्षा ! मानव जीवन में धारण करने योग्य हुई है, ऐसे दुर्लभ धर्म के प्राप्त होने के बाद
कर्तव्य यही है, हे आत्मन! तू संसार में ही क्षण मात्र का भी प्रमाद नहीं करना चाहिए।
बैठा है, संयम रुपी रत्न की प्राप्ति कब करेगा
? हे आत्मन, भवान्तर में आठ वर्ष की पर्याय 36) धर्म-सौंदर्य भावना
में मुझे चारित्र मिले, लम्बा संयमी जीवन धर्म महासत्ता के अजब-गजब के प्रभाव से | का पालन करूँ ! क्या हो रहा है, मालूम है क्या ? समुद्र मर्यादा
43) यह औदारिक शरीर धर्म साधना का साधन नहीं छोड़ता, सूर्य से अग्नि नही गिरती । विश्व
है, शरीर की ममता में पड़कर तप धर्म की धर्म -सत्ता के सहारे ही टिका हुआ है।
आराधना नही करी, मासखमण आदि बड़ी 37) लोक-स्वरूप भावना
तपश्चर्या - हे प्रभु ! मै कब करूंगा? मेरी आत्मा अजीव-व जीव से बना हुआ यह पूरा लोक या
की, मन,तन, वचन आदि सभी शक्तियाँ विश्व का स्वरूप सर्वज्ञों ने कैसे बताया है?
जिनशासन की सेवा में लगी रहे । प्रभु ! धन्य है, सर्वज्ञ की सर्वज्ञता को ।
ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार 38) मैत्री-भावना
और वीर्याचार, ये पांच प्रकार के आचारों से
मेरा जीवन सदैव भरा रहे प्रभु ! इस लोक के सभी जीवों के प्रति मेरी मैत्रीमित्रता बनी रहे, सबका कल्याण होवे । । 45) मेरे हृदय रूपी सिंहासन पर से मोह रुपी
राजा जल्दी से जल्दी पद च्युत हो । 39) प्रमोद-भावना
| 46) क्रोध, मान, माया और लोभ रुपी ये चार गुणवान आत्माओं के गुणों को देखकर मेरे | +
चोरों के द्वारा मेरे आत्मा के गुण लूटे जा रहे हृदय में प्रसन्नता बढ़े, ऐसा निरन्तर झरना ।
हैं। इन कषायों से मेरा छुटकारा कब होगा? बहता रहे । सद्गुणवानों के प्रति प्रमोद भाव से गुणों का प्रवाह मुझ में भी आता रहे, ऐसी | 47) पाँच इन्द्रियों की विषय वासना अभी तक क्षीण मंगल भावना सदा मेरी बनी रहे।
नहीं हुई है, मेरी भोग सुख की आसक्ति
कब छूटेगी ? प्रभु ! 40) करुणा-भावना
48) आहार.... भय....मैथुन और परिग्रह इन चारों आधि-व्याधि-उपाधि से घिरे हुए प्राणियों,
संज्ञाओं में अनादि काल से लिपटा हुआ हूँ दुःखी जीवों को देखकर मेरा हृदय करुणा
प्रभु ! इन संज्ञाओं की वृत्ति से कब मुक्त से, अनुकंपा से भर जावे, और सब के दुःख
बनूंगा-प्रभु ! जल्दी दूर हो ।
49) पानी के प्रवाह की तरह समय निरन्तर बह 41) माध्यस्थ-भावना
रहा है, हे जीव ! समय मात्र का प्रमाद मत सभी जीव कर्म के वश है । कर्म के आधीन बना जीव उन्मार्ग छोड़कर, सन्मार्ग स्वीकार
| 50) मुझे भव-भव में जिनशासन की प्राप्ति होवे नहीं करता है। ऐसे जीव यदि धर्म की उपेक्षा |
प्रभु !
कर।
Page #32
--------------------------------------------------------------------------
________________
51) जब मृत्यु आवे तब, प्रभु के चरणों में लीन रहूँ है, ये तो कर्म को खपाने का त्यौहार है।
। देव गुरु धर्म में मन लगाऊँ, विषय कषाय से इसलिए तू वेदना भोगने में व्याकुल, कमजोर मन मुक्त बने, सभी जीवों के प्रति मैत्री भाव न बनना । कायर न बनना । तीर्थंकरो की
रहे, मन मे समाधि और प्रसन्नता बढ़ती रहे । आज्ञा है। 52) चार धर्म तीर्थ की स्थापना करने वाले तीर्थंकर | 61) हे जीव ! ___ भगवंतो को, मैं भाव से वंदना करता हूँ।
स्कन्धक मुनिजी के पाँचसौ शिष्य घाणी में 53) वर्तमान काल में महाविदेह क्षेत्र मे विचरते हुए
पील दिए गये थे, परन्तु सभी समता भाव बीस तीर्थंकर भगवंतो को भाव से वंदना करता
को धारण करके केवल ज्ञान प्राप्त कर मोक्ष
पधारे, उनको नजर के सामने रखकर समता 54) पापी को भी पवित्र करने वाले ऐसे चतुर्विध
धारण कर ! तीर्थं को मैं भाव सहित वंदना करता हूँ।
62) हे जीव ! 55) अढ़ाई द्वीप में रहे हुए सभी साधु भगवन्तों
महामुनिराज गजसुकुमाल के सिर पर अग्नि को मैं भाव सहित वंदना करता हूँ।
से भरे धधकते अंगारे रखे थे, परन्तु फिर 56) पाँचो पदो को भाव सहित नमस्कार |
भी वे समता के झूले मे झूलते रहे ना ? 57) अनंत लब्धि के निधान, अनंत गुणों के भण्डार
उनके दुःख के सामने तेरा दुःख, दुःख है श्री गौतम स्वामी को मैं भाव से वंदन
क्या ? तू भी समता को धारण कर । करता हूँ।
63) हे जीव ! 58) महामंगलकारी सिद्ध भगवन्तो को भाव से वंदन सीताजी के ऊपर कितने कष्ट आए थे परन्तु
करता हूँ |12 गुणों से युक्त देव अरिहंत, फिर भी सीताजी ने कैसी अद्भुत समाधि को 8 गुणों से युक्त देव सिद्ध देव,
धारण किया, प्रतिकूलता में समाधि में टिकना
ही तेरी परीक्षा की सफलता है। 36 गुणों से युक्त आचार्य भगवंत 25 गुणों से युक्त उपाध्याय भगवंत
64) हे जीव ! 27 गुणों से युक्त साधु भगवंत
जो भी दुःख आते है वे सभी अपने ही कर्म के
उदय से आते है, इसलिए अपने आमन्त्रित कुल 108 गुणों के धारक पंच परमेष्टी भगवन्तो
मेहमान का स्वागत करना चाहिए ना! मेहमान को भाव से वंदना करता हूँ।
आते हो तब मुँह नहीं बिगाड़ना चाहिए। 59) हे जीव ! नरक में तुमने भयंकर वेदना को
65) हे जीव ! सहन किया था ।
सनतकमार जैसे चक्रवर्ती की कंचनवर्णी काया उसके सामने यह बुढ़ापा और रोग का दुःख सामान्य सा ही दुःख है । इन दुःखो को
भी रोगों से घिर गई थी, तो तेरी काया में तो प्रसन्नता से भोगने से तूं भव तिर जाएगा।
क्या ताकत है ? 60) हे जीव !
रोग आना यह शरीर का स्वभाव है, रोग में
तू अस्वस्थ मत बन ! अभी आधि व व्याधि, वृद्धत्व की जो वेदनाएँ ।
Page #33
--------------------------------------------------------------------------
________________
66) हे जीव !
अरिहा शरणं मुझने हो जो बड़े-बड़े राजा-महाराजा और चक्रवर्त्तियों ने आतम शुद्धि करवा । भी, अपना साम्राज्य छोड़कर संयम स्वीकार
सिद्धा शरणं मुझने हो जो किया था । तू तेरे विषयसुखों में आसक्त न
संयम शूरा - बनवा ।। ||2|| बन। 67) हे जीव !
साहू शरणं मुजने हो जो, धन्ना शालिभद्र की तरह संसार की मोह माया
संयम शूरा - बनवा । छोड़कर संयम के कल्याण पथ पर मैं कब धम्मो शरणं मुजने हो जो, विचरुंगा?
भवोदधि थी तरवा ।। ||3|| 68) हे जीव !
मंगल मय चार नुं शरणुं धन्ना अणगार की तरह, मैं आहार संज्ञा को
सघली आपदा टाले । छोड़कर तप की आराधना में अपनी आत्मा
चिद धन केरी डूबती नैय्या को कब लगाऊँगा?
शाश्वत नगरे वाले ॥ ||4|| 69) हे जीव ! संयम धर्म को स्वीकार करके गुरुदेवों के चरणों |
75) चत्तारि मंगलं अरिहंता मंगलं में बैठकर आगमों का अभ्यास मैं कब
सिद्धा मंगलं साहू मंगलं करूँगा?
केवली पण्णतो धम्मो मंगलं 70) हे जीव !
चत्तारि लोगुत्तमा अरिहंता लोगुत्तमा पैंतीस गुणों से सुशोभित जिनेश्वर देव की
सिद्धा लोगुत्तमा, साहू लोगुत्तमा वाणी (अमृत रस) का पान मैं कब करूँगा ?
केवली पण्णतो धम्मो लोगुत्तमो 71) तीर्थंकर परमात्मा के द्वारा दी गई त्रिपदी के
चत्तारि शरणं पवज्जामि आधार से गणधर भगवन्तो ने रची ऐसी
अरिहंते सरणं पवज्जामि, सिद्धे सरणं द्वाद- शांगीधरों को मेरी भाव पूर्वक वंदना ।
पवज्जामि साहू सरणं पवज्जामि 72) अनंत कल्याण करनेवाली जिनेश्वर देव की
केवली पण्णतं धम्म सरणं पवज्जामि आज्ञा को कोटि-कोटि वंदना ।
76) खामेमि सवे जीवा 73) हे जीव !
सवे जीवा खमंतु मे जीर्ण हुआ ये शरीर, यहां से छोड़ कर जाने मित्ती मे सव्व भूएसु का है। इसलिए उसकी चिन्ता छोड़ दे, धर्म
वेर मज्झं न केणई ||1|| परलोक में साथ में आयेगा, इसीलिए मन को धर्म में जोड़ दे भई.....
77) शिवमस्तु सर्व जगत:
परहित निरता भवन्तु, भूतगणाः । 74) अरिहा शरणं, सिद्धा शरणं, साहू शरणं,
दोषाः प्रयान्तु नाशं केवली पण्णतो धम्मो शरणं पामी विनये,
सर्वत्र सुखीः भवतु लोकः । जिण आज्ञा शिर धरीए ||1||
Page #34
--------------------------------------------------------------------------
________________
अच्छी बातें 1) प्रातः काल ब्रह्म मुहुर्त में उठ जाना । 2) माता-पिता, बड़ो व गुरुजनों का वंदन आदर
करना। 3) क्रोध का प्रसंग उपस्थित होने पर भी शांति
धारण करना । 4) भय व शंका रहित जीवन का नाम ही
आत्म विश्वास हैं। 5) दिल को सुधार लो, दुनिया स्वयं सुधर
जाएगी। 6) उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो, न जाने किस गली में जिन्दगी की शाम हो जाए। मूल्यवान व मूल्यांकन 1) पैसे से पदार्थ अनंत गुणा मूल्यवान है । 2) पदार्थ से शरीर अनंत गुणा मूल्यवान है । 3) शरीर से वाणी अनंत गुणा मूल्यवान है। 4) वाणी से मन अनंत गुणा मूल्यवान है। 5) मन से आत्मा अनंत गुणा मूल्यवान है। चार
इन्द्रिय दमन, कषाय - शमन
विषयों का वमन, गुरुदेव को नमन ! प्रतिज्ञा 1) मैं तीर्थंकर (भगवान) परमात्मा का
अनुयायी हूँ। 2) दया मेरा धर्म है । धर्म ही मेरा प्राण है। 3) मेरी हाड़ व मज्जा में जिनवाणी पर श्रद्धा
है। (अट्ठि मिज्जा पेमाणु...) 4) धर्म के लिए मेरा जीवन न्यौछावर है। 5) मेरा अन्तिम लक्ष्य मोक्ष है । संकल्प मैं जैन हूँ ! मुझे जैन होने पर गर्व है। देवाधिदेव अरिहंत भगवान मेरे देव है।
सुसाधु मेरे गुरु है । जहाँ दया है वहाँ धर्म है । मैं स्वयं को मेरे देव गुरु धर्म के प्रति समर्पित करता हूँ। रात्रि सोने के पहले अवश्य करना ही है । 1) (एक सौ आठ बार) परमेष्टी की एक माला
फेरना 2) पुरे दिवस में की गई अपनी गलतियों का
अवलोकन व क्षमा देना - लेना । 3) सोते समय सागारी संथारा लेना । 4) महापुरुषों व सतियों को नमन करना । पवित्रता मन, वचन व काया को पवित्रता से रखना ही धर्म की नींव हैं।
मन के विचारों को और स्वप्नों को काबू में रखने वालों को धन्य धन्य है।
उनको लाख लाख बार प्रणाम करता हूँ। कर विचार
सना - वास - ना, प्रभु वास - नही, उसे कहते है वासना । विचार - विशेष चिन्तन से रहना !
विवेक - हंस बुद्धि वत् (नीर-क्षीर न्याय) आत्मा के स्वाभाविक गुण
1) सम्यक् दर्शन 2) सम्यक् ज्ञान 3) विरति 4) अप्रमत्तता 5) संज्ञा रहित 6) अकषाय 7) अवेदी 8) अविकारी 9) अनाहारक 10) अभाषक 11) अयोगी 12) अलेशी
13) अशरीरी 14) अपौद्गलिक आत्मा - तीन
बाह्य आत्मा - अज्ञानी आत्मा अन्तर आत्मा - शोधक आत्मा परमात्मा - सिद्ध व अरिहंत
Page #35
--------------------------------------------------------------------------
________________
संसार में क्या करना 1. क्या करना ? What to do? 2. किस कारण करना? Why to do? 3. किस प्रकार करना ? How to do? 4. मै तेरा हूं - यह ज्ञान 5. मै उस का हूँ - यह दर्शन 6. मैं व तूं दोनों एक ही है - चारित्र
स्त्रियों के स्वयं के गाल पर लगाने का सरस व उत्तम रंग कौन सा ? विदुषी ने जवाब दिया - “लज्जा" (“पीथीया" सिकन्दर की पुत्री)
तृप्ति - (परम चिन्तन) 1) कभी भी भोग भोगने से तो तृप्ति मिलती ही
नहीं है, परंतु भोग का त्याग करने से तृप्ति
जरूर मिलती है। 2) सब तर गए तो क्या ? यदि हम नहीं तरे |
सब न तरे तो क्या ? यदि हम तर गए । 3) . “परचिंता" तरल-गरल है बहुत पिया,
अब न पियेगे जागे ! मस्त बने ।
अब हम अपने मन में लीन रहेंगे ! 4) वस्तुओं का, परिवार का, धन का, समाज
का त्याग छुटपुट त्याग है। 5) मन में उठने वाली चपल वृत्तियों का त्याग
'परम त्याग' है। 6) जिस त्याग के बाद भी त्यागने जैसा बाकी
बचे, वह छुटपुट त्याग है। 7) जिस त्याग के बाद त्यागने जैसा बाकी न
बचे, वह 'परम त्याग' है। अनेक त्यागो में परमात्मा का समावेश नहीं होता, परम त्याग में सब त्यागों का समावेश हो जाता है।
9) आत्मा स्वभावतः, परम शांत है।
आधि-व्याधि मुक्त निर्भय निश्चिंत
अभ्रान्त और अक्लान्त है। आश्चर्य फिर भी इस जीवन यह जीवन अनंत काल से परम अशांत है, आधि- व्याधि ग्रस्त,
चिन्ता ग्रस्त, संत्रस्त और भ्रान्त है । मौलिक कारण है
चपल मन में उछलने वाली अनंत चपल वृत्तियाँ, ये वृत्तियाँ अन्तर को सतत् झकझोरती रहती है और शांत नहीं होने देती । जब तक ये वृत्तियाँ उठती रहेंगी, तब तक शांति को साकार नहीं होने देगी। अपेक्षा है, इसके लिए त्याग की, छुटपुट
त्याग की नहीं, परम त्याग की। अनुशासन - स्वयं पर ही
कठिन है, अपनी बेटी पर अनुशासन और नियन्त्रण रखना। उस से ज्यादा कठिन है, अपने बेटे पर अनुशासन और नियन्त्रण रखना। और बहुत ही कठिन है, अपनी पत्नी पर अनुशासन और नियन्त्रण रखना । परन्तु सब से कठिन है अपने स्वयं पर
अनुशासन और नियन्त्रण रखना । तीन माताएँ
1) श्रावक की माता - यतना माता 2) साधु की माता - अष्टप्रवचन माता
3) तीर्थंकर की माता - करुणा माता कल्याण ही करते है चार
1) अनुभवी वैद्य 2) अनुभवी राजा 3) अनुभवी मुखिया 4) अनुभवी गुरु
Page #36
--------------------------------------------------------------------------
________________
मा-बाप 1) जिसे कोई उपमा न दी जा सके, उसका
नाम है "माँ" जिसके प्रेम को कभी पतझड स्पर्श न करे, उसका नाम है "माँ" जिसकी कोई सीमा नही, उसका नाम है "माँ" ऐसी तीन माँ है परमात्मा, महात्मा और माँ हे युवक! प्रभु को पाने की पहली सीढ़ी है माँ जो, तलहटी की अवगणना करे वो शिखर को प्राप्त करे, यह शक्य नहीं । ऐसी माँ की अवगणना करके हजारो माला गिनकर अनेक तीर्थों की यात्रा कर, सन्तों के दर्शन कर - भी हम प्रभु को प्राप्त करे, यह बात बहुत ही दूर हैं।
___ और आँसू आते है। 7) माता-पिता क्रोधी हैं,
पक्षपाती हैं, शंकाशील हैं। ये सारी बाते बाद की है पहली बात तो यह है कि
है तो माँ - बाप ! 8) संसारता की दो करुणता सबसे बड़ी है
माँ बिना का घर
और घर बिना की माँ 9) माँ तूने तीर्थंकरो को जना है,
संसार तेरे ही दम से बना है, तू मेरी पूजा है,मन्नत है मेरी,
तेरे ही कदमों में जन्नत है मेरी, 10) बँटवारे के समय घर की हर चीज के लिए
झगड़ा करने वाले बेटे, दो चीज के लिए उदार बन जाते है, जिसका नाम है - माँ
- बाप ! 11) प्रेम को साकार होने का दिल हुआ और माँ
का सर्जन हुआ। 12) जो मस्ती आँखो में है, मदिरालय में नहीं
शीतलता पाने को कहाँ भटकता है मानव !
जो है माँ की गोद में वो हिमालय में नहीं। 13) डेढ़ किलो दूधी, डेढ़ घन्टे तक
उठाने से तेरे हाथ दुःख जाते है, माँ को सताने से पहले इतना तो सोच.... तुझे नौ-नौ महिने पेट में
कैसे उठाया होगा? 14) बचपन के आठ साल तुझे उंगली पकड़कर
जो माँ - बाप स्कूल ले जाते थे उस माँ-बाप को बुढ़ापे में आठ साल
3) ऊपर जिसका अन्त नही
उसे आसमाँ कहते है। जहाँ में जिस का अन्त नहीं उसे माँ कहते है। तूने जब धरती पर पहला श्वास लिया तब तेरे माता-पिता तेरे पास थे, माता पिता अन्तिम श्वास ले तब तूं उनके पास रहना ! जब छोटा था तब माँ की शैय्या गीली करता था, अब बड़ा हआ तो माँ की आँखे गीली रखता है, रे पुत्र ! तुझे माँ को गीलेपन में
रखने की आदत हो गई है। 6) माँ!
पहले आँसू आते थे और तूं याद आती थी। आज तूं याद आती है,
Page #37
--------------------------------------------------------------------------
________________
सहारा बन कर जैन उपाश्रय ले जाना शायद थोड़ा सा तेरा कर्ज
थोड़ा सा तेरा फर्ज पूरा होगा ।
15) माँ - बाप को सोने से न मढ़ो, चलेगा, हीरे से न जड़ो, तो चलेगा, पर
उनका जिगर जले और अन्तर आँसू बहाए वो कैसे चलेगा ?
16) माँ और क्षमा दोनों एक है, क्योंकि माफ करने में दोनों नेक है ।
17) माँ-बाप की आँखों मे दो बार आँसू आते है लड़की घर छोड़े तब
लड़का मुँह मोड़े तब ।
18) जिस बेटे के जन्म पर माँ बाप ने हँसी-खुशी से मिठाई बाँटी
वही बेटे जवान होकर काना फूसी से माँ-बाप को बाँटे, हाय ! कैसी करुणता ? 19) सुविधा के लिए जुदा होना पड़े . उसमें कोई हर्ज नहीं है ।
किन्तु स्वभाव के कारण जुदा होना वो तो सबसे बड़ी शर्म है ।
20) माँ-बाप की सच्ची विरासत पैसा और प्रासाद नही, प्रामाणिकता और पवित्रता है ।
21) बचपन में जिसने तुझको पाला
बुढ़ापे में उनको तूने नहीं संभाला तो याद रखना
तेरे भाग्य में भड़केगी ज्वाला । 22) चार वर्ष का तेरा लाडला जो तेरे प्रेम की प्यास रखे, तो पचास वर्ष के तेरे माँ-बाप, तेरे प्रेम की आशा क्यों न रखे ? बचपन में गोद देने वाली को
बुढ़ापे में दगा देने वाला मत बनना !
13
23) घर में वृद्ध माँ-बाप से बोले नहीं उनको संभाले नहीं और
वृद्धाश्रम
में दान करे
जीव दया में धन दान करे ।
उसे दयालु कहना...
वो दया का अपमान ही है ?
24) घर की माँ को सताए
...
और मन्दिर की माँ को चुनरी ओढ़ाए, याद रखना माँ तुझ पर खुश तो नही शायद खफा जरूर होगी,
25) जिस मुन्ने को माँ-बाप ने बोलना सिखाया था, वह मुन्ना बड़ा होकर, माँ-बाप को मौन रहना सिखाता है ।
26) जिस दिन तुम्हारे कारण माँ-बाप की आँखों में आँसू आते है, याद रखना, उस दिन तुम्हारा किया सारा धर्म आँसू में बह जाता है !
27) पेट में पाँच बेटे जिसको भारी नहीं लगे थे वो माँ आज पाँच बेटो के पाँच फ्लैटों में भारी लग रही है ? बीते जमाने का,
यह श्रवण का देश कौन मानेगा ?
28) पत्नी पसंद से मिल सकती है, लेकिन माँ तो पुण्य से ही मिलती है । पसंद से मिलने वाली के लिए
पुण्य से मिलने वाली माँ को मत ठुकराना । 29) कबूतर को दाना डालने वाला बेटा अगर माँबापको दबाए तो उसके दानो मे कोई दम नहीं
30) दूध तो गाय का,
फूल तो जाई का,
और प्यार तो माई का ! "माँ" घर का प्राण है
31) जीवन के अंधेरे पथ में सूरज बनकर रोशनी करने वाले माँ-बाप की जिन्दगी में अंधकार मत फैलाना ।
Page #38
--------------------------------------------------------------------------
________________
32) आज तू जो कुछ भी है, वो माँ की बदौलत | 36) ।। माँ | मातृदेवो भव ।। है क्योंकि तुझे जन्म दिया, माँ तो देवी है। ।
1) तेरा स्वर्ग तेरी माता के चरणों मे है । गर्भपात कराके वह राक्षसी नही बनी। इतना
2) सन्मार्ग पर ले जाने वाली, तो सोच !!! 33) विश्व की तमाम भाषाओं में जिसके गीत-काव्य
परमात्मा के मार्ग को बताने वाली, रचे गए है, वह तुम्हारे घर में है,
दिव्य दृष्टि का दान देने वाली, वात्सल्य का करुणा सागर महावीर ने जिन्दगी की पहली
पान कराने वाली “माँ” तुझे लाख लाख प्रणाम प्रतिज्ञा
धर्म करोगे तो स्वर्ग पाओगे, जिसके लिए की थी, (ली,थी) वह तुम्हारे घर "माँ" कहोगे तो ममता पाओगे में है।
4) ईट और पत्थर से मात्र, मकान बनता है, श्री राम जिनके चरणों में झुके जाते थे,
परन्तु घर तो सिर्फ माँ की ममता से बनता वह तुम्हारे घर में है। सागर से अधिक गंभीर
5) वह दीप जलेगा कैसे ? जिसके भीतर तेल हिमालय से अधिक ऊँची
नहीं, वह फूल खिलेगा कैसे ? जिसके मूल व आसमान सी असीम जो है
मे रस न हो, उनका जीवन चलेगा कैसे? वह तुम्हारे घर में है ....
जिनके दिल में माँ के प्रति प्यार नहीं । कौन ??? नहीं आया ध्यान में ? 6) हर दिन नया है, हर रात निराली है दूसरा और कोई नहीं है
माँ का प्यार मिल जाये वह है
तो हर रोज दिवाली हैं। "माँ"
7) माँ मानव की प्राथमिक पाठशाला है, 34) माँ को जानने वाला ही महात्मा को जान |
जो एक पुरुष को महापुरुष बना सकती है। सकता है,
8) जिस माँ ने जन्म का माँ को जानने वाला ही परमात्मा को जान सकता है, रे... महात्मा एवं परमात्मा वही
न समय देखा न मुहूर्त बन सकता है जो
उसका नासमझ पुत्र देख रहा है माँ को पहचान सकता है ।
माँ को वृद्धाश्रम भेजने का मुहूर्त । 35) माँ पूर्ण शब्द है
संतान के सुख में सुखी और महा विद्यालय है,
दुःख मे जो दुःखी हो जाती है वह यह बीज मन्त्र है
सिर्फ और सिर्फ माँ हैं। हर सर्जनता का आधार है माँ
10) माता-पिता आपके जन्मदाता ही नही, मन्त्र, तन्त्र व यन्त्र की
जीवन दाता और संस्कार दाता भी है । सफलता की नींव है
11) तप से तन की, जप से मन की,
और प्रार्थना से आत्मा की शुद्धि होती है ।
Page #39
--------------------------------------------------------------------------
________________
परंतु “माँ” की सेवा से,
ईश्वर की सूरत क्या होगी? जन्म - जन्मांतर की शुद्धि होती है। 22) भगवान की भक्ति करने से 12) तीनों लोक का नाथ ।
शायद हमे माँ न मिले । "माँ" के बिना अनाथ ।।
लेकिन माँ की भक्ति करने पर 13) माँ की गोद
भगवान अवश्य मिलेंगे। दुनिया की सबसे सुरक्षित जगह.. 23) एक माँ सौ शिक्षकों से बढ़कर हैं। 14) संसार की दो करूणाएँ -:
24) माँ-गुरू, माँ कल्पतरू माँ के बिना घर और
माँ-ममता का सागर, घर के बिना माँ।
माँ-अमृत की गागर। 15) जिस घर में माँ रहती है
25) जीवन में आँधी चले, वह घर तीर्थ समान है।
चले तेज तूफान 16) मैं रोया परदेस में
पर्वत अविचल रहे, भीगा माँ का प्यार,
"माँ" की ये पहचान दुःख ने दुःख से बात की
26) माँ बिन बालक, जैसे डोरे बिन पतंग । बिन चिट्ठी बिन तार ।
27) टीले की रेत के कण गिने जा सकते हैं । 17) जो व्यक्ति अपने माँ-बाप की नहीं सुनता। परंतु माता के उपकार गिनना मुमकिन नहीं।
उस नासमझ की पुकार ईश्वर भी नही सुनता ।। | 28) मेरे पास गाड़ी है, बंगला है, 18) सारा जहाँ भी साथ दे तो और बात है,
दौलत है, शौहरत हैं। पर माँ जो आशीर्वाद दे तो और बात है। तुम्हारे पास क्या है? 19) माँ तू ही मंदिर, माँ तू ही पूजा
मेर पास "माँ" हैं। पूजा का वरदान माँ
29) मानव चाँद तक पहुँच चुका है, ये लोक तू है, परलोक तू है |
मंगल तक, पहुँच ही जाएगा तुझमे है दोनों जहाँ।
लेकिन माँ की महानता तक पहुँच पाएगा ? 20) जिसको देखो वो सजा देता है
नहीं, यह असंभव है। दोस्त बनकर के दगा देता है ।
30) चाहे लाख करो तुम पूजा और तीर्थ करो वो तो माँ-बाप का दिल है, वर्ना
हजार। मुफ्त में कौन दुआ देता है।
मगर माँ-बाप को ठुकराया तो सब कुछ है
बेकार ॥ 21) ईश्वर को नहीं देखा हमने, हमें इसकी जरूरत क्या होगी,
31) यदि देखना हो माँ की ममतामयी उड़ान को, ऐ माँ ! तेरी सूरत से अलग,
तो जाओ और ऊँचा करो पूरे आसमान को ।
Page #40
--------------------------------------------------------------------------
________________
( रुको! एक मिनिट देखो
शूल जैसे तो कदापि मत बनना ।
19) जन्म दुःख है। 1) सिर्फ प्रार्थना करने वाले होठों से, वे हाथ अधिक सुन्दर है, जो किसी की सहायता के
20) आप नही परन्तु आप के कार्य को आपके लिए आगे बढ़े हो ।
लिए बोलने दो। 2) संसार असार है।
21) रोग दुःख है। 3) जीवन क्षणिक है।
22) दुनिया में सबसे बड़ी कला है, अपने आप
को संभालना। 4) जीभ को बुरा भोजन अच्छा नहीं लगता तो, बुरा बोलना कैसे प्रिय हो सकता हैं।
23) जरा दुःख है। 5) क्रोध अग्नि हैं।
24) झूठा अहम ही सबसे बड़ी बीमारी है । व्यक्ति के निर्माण की आधार शिला, उसके
25) क्रोध तूफान है। अन्तर मन मे रहे उदात्त विचार ही हैं। 26) कीर्ति एक ऐसी प्यास है, जो कभी छिपती 7) संसार दावानल है।
नहीं । 8) मोह मदिरा है।
27) जगत में दुर्जन नहीं होते तो सज्जनों की
कोई कीमत नही होती। 9) अनुचित आचरण पाप और समुचित आचरण पुण्य कहा जाता है।
28) मान-पहाड़ है। 10) सुयोग शिल्पी के हाथ में आकर पाषाण भी
29) स्वार्थ में दुर्गंध है। पूज्यता को पाता हैं।
30) सुख-दुःख मे जो सदैव साथ रहे, वही सच्चा 11) मारने की इच्छा हो तो अपनी दुर्वासनाओ
मित्र है। को ही मारो।
31) लक्ष्मी का वशीकरण मन्त्र है शुभम् व्यय । 12) लोभ चण्डाल है।
32) संयमी सुखी है। 13) माया नागिन है।
33) सम्पति नशा है । अतिरेकता से बचो। 14) समय, सम्पति और शक्ति तीनों का ध्यान | 34) क्षमा दान उत्तम है, परन्तु उसे भूल जाना रखना।
उत्तमोतम है। 15) मृत्यु सामान्य जनो के लिए दुःखदायक भयंकर | 35) प्रसन्नता ही आरोग्य है और अप्रसन्नता ही
है, ज्ञानियों, ज्ञानीजनो के लिए मृत्यु रोग है। महोत्सव हैं।
36) ममता से संघर्ष बढ़ता है। 16) तुम्हे जितना जीवन प्रिय है, उतना ही अन्य
37) समता से शांति बढ़ती है। जीवों को भी प्रिय है, इसका ध्यान रहे ।
38) दाता की परख उसके दान से नही, उसके 17) परोपकार पुण्य है।
भाव से होती है। 18) किसी के लिए फूल जैसे न बन सके तो, ।
Page #41
--------------------------------------------------------------------------
________________
39) ममता से अनर्थ ।
बहुत ग्रंथो में सत्रह तरह के 40) आध्यात्मिक ज्ञान का दान सबसे बड़ा दान
मूर्ख बताए हैं।
1) दान मे अंतराय डालने वाला 41) ममता से संसार वृद्धि ।
2) धर्म चर्चा के समय व्यर्थ बातें करने वाला । 42) रोग से भय ।
3) भोजन करते समय क्रोध करने वाला | 43) समझ सुख है और नासमझ ही दुःख है। 44) अपने दोष को अपने पहले मरने दो।
4) बिना कारण के लडाई झगड़ा करने वाला | 45) अहिंसा से वैर नाश ।
5) सज्जन पुरूषों का अपमान करने वाला । 46) मंजिल बिना मार्ग नहीं, ध्येय बिना जीवन | 6) दान देकर अहंकार भाव करने वाला | नहीं।
7) दान देकर पश्चाताप करने वाला । 47) माँ की ममता की एक बूंद अमृत के सागर से 8) उपकारी का उपकार नहीं मानने वाला । भी बढ़कर है।
9) अपनी खुद की खूब प्रशंसा करने वाला 48) सत्य से वचन सिद्ध ।
10) शांत हुए क्लेश को वापस करने वाला । 49) धीर और व्यवसायी के लिए कुछ भी दुर्लभ नहीं।
11) मार्ग में दौड़ने वाला । 50) न्याय से निधान ।
12) शक्ति होते हुए भी सेवा नही करने वाला। 51) मनुष्य स्वयं ही अपने भाग्य का विधाता है। 13) बिना कारण हँसने वाला । 52) ब्रह्मचर्य से अनंत शक्ति ।
14) मार्ग में चलते हुए खाने वाला | 53) दयालु दिल, भगवान का मन्दिर है, जहां | 15) बीती हुई बातों को फिर से सोचने वाला । भीड़ लगती है।
16) बिना बतलाए बोलने वाला । 54) सन्तोष से कैवल्य ।
17) दो मनुष्य बात कर रहे हो तो बीच में बोलने 55) जिसने मन को जीता उसने जगत को जीता।
वाला। 56) भय से चंचलता।
भूल 57) उदार हृदय बिना धनवान भी एक भिखारी
1) भूल न करनेवाले अरिहंत देव है । 58) चंचलता से दुःख ।
2) भूल सुधारने वाला साधक हैं । 59) स्थिरता से सुख ।
3) भूल करनेवाला मानव है। 60) प्रभु परमात्मा से नित्य एक ही प्रार्थना करे 4) भूल को छिपाने वाला अज्ञानी है ।
कि “हे प्रभु”! सदबुद्धि दें।
Page #42
--------------------------------------------------------------------------
________________
पशुओं से 20 गुण सीखना चाहिए
सिंहादेकं बकादेकं शिक्षेत चत्वारी कुक्कुतात् । वायसात्पञ्च शिक्षेत्च षट् शुन स्त्रीणि गर्दभात || मनुष्य को शेर और बगुले से एक-एक, गधे से तीन, मुर्गे से चार, कौए से पाँच और कुत्ते से छः, ऐसे कुल बीस गुण पशु-पक्षियों से सीखना चाहिए । शेर : एक गुण स्वालम्बन शेर छोटा या बड़ा कोई भी काम अकेला अपने बलबूते पर ही करता है ।
-
1) स्वावलम्बी |
बगुला : एकाग्रचित और स्थिर होकर धैर्यपूर्वक मछली की राह देखता है ।
धैर्यता व एकाग्रता यह गुण बगुले से।
गधा : काम में सदा तत्पर, गर्मी, सर्दी में समान रूप से काम करता है। सदा मस्त रहता है, ये तीन 1) सदा मस्त 2 ) समान 3 ) सदा तत्पर मुर्गा : प्रातः समय पर उठना, बांग देना ।
शत्रु का डटकर मुकाबला करना,
मिल बाँटकर खाना,
कचरे कूड़े में अपना पेट भर लेना ।
चारों का सार :
1)
समय की पाबंदी |
2) संकट से घबराना नहीं ।
3) मिल-जुलकर खाना ।
4) निर्वाह कर लेना, जैसी भी परिस्थिति हो । कौआ : पाँच गुण
एकान्त मे छिपकर भोग, धैर्यवान होना, सदा सतर्क रहना, किसी का विश्वास न करना, दूर से अपना लक्ष्य पहचान कर
18
झपट पड़ना ।
सार :
1)
2)
3)
4)
5)
निर्लज्ज नहीं बनना ।
धैर्यता ।
सदा जागृत ।
भरोसा न रखें ( हर किसी पर)
लक्ष्य पर केन्द्रित रहना ।
कुत्ता कुत्ता कितना भी भूखा हो, थोड़ा खाकर भी संतुष्ट हो जावेगा यानी सन्तोषी स्वभाव वाला है, गहरी नींद में सोया हो तो भी जरा सा खटका सुनते ही जाग जाता है।
अपने मालिक को बहुत चाहता है, यानि स्वामी भक्त होता है । गन्ध सूंघ कर कभी भूलता नहीं, समय पड़ने पर बहादुरी दिखाता है, बिना झोली के फकीर की तरह भिक्षा मांगने घर घर जाता है ।
कासार :
1) थोड़े से संतुष्ट 2) अल्प निद्रा 3) स्वामी भक्त, 4) समय पड़ने पर वफादारी दिखाता है 5) गंध सूंघ कर भूलता नहीं 6) बिना झोली का फकीर 7 ) मान अपमान में समान
उपरोक्त 20 गुण पशु पक्षियों से सीखने चाहिए ।
चाणक्य नीति - गाथा
चरिष्यति मानव: ।
य एतान विशंति 'गुणाना कार्या ऽ वस्थासु सवासु अजेयः स भविष्यति ।। अर्थात :
-
जो मनुष्य इन 20 (बोलो) गुणों को अपने आचरण और स्वभाव में धारण करेगा, वह सभी कार्यो में और सभी अवस्थाओं में सफल सिद्ध और विजेता रहेगा ।
Page #43
--------------------------------------------------------------------------
________________
थोड़ा सा स्वीट
1) जिस घर में SWEET थाली में नहीं, परन्तु कान में परोसा जाता है वही घर है ।
SWEET HOME
2) जीवन में FUSE न उड़े उस से पहले मानव जीवन का सच्चा USE करलो ।
रे दुनिया
3) सच्चा मनुष्य कड़वा लगता है (खरा) कपटी मनुष्य मीठा लगता है (खोटा )
4) घड़ी में दो काँटे साथ होते ही घडी में बारह बजते है। परन्तु इस जीवन में काँटे जैसे दो मनुष्य जब मिलते है तो तीसरे मनुष्य की बारह बजती है ।
5) किसी के साथ COMPARE नही,
उसकी किसी के साथ COMPLAINT नहीं ।
6) प्रहार करने वाला नहीं, सहारा देने वाला ही, स्वजन कहलाता है ।
7) जहाँ बदलाव नही हो,
वहा फरियाद नही होवे बीते हुए को बिसरना / भूलना
ही चाहिए, जुगाली नहीं करना ।
सम्मान हो या अपमान
मानता है स मान वही है महान
9) समझ के LENS बिना शांति का BALANCE नहीं
10) जिसको मौन रहना आता हो उसको सम्मान मिलता है ।
11) काल का कोई
काल नहीं होता है ।
12) आपके पास क्या है, इसका कोई मूल्य नहीं है। बल्कि आप क्या हैं, इसका अधिक मूल्य है ।
19
13) हर व्यक्ति में आवेग होता है, क्रोध होता है, अहंकार होता है ।
उस समय नहीं सोचना, जब हम क्रोध में हो ।
14 ) प्रेम सबसे करो, विश्वास किसी किसी का (परखकर) करो, बुराई किसी की मत करो । 15) संसार में सबसे बड़ा दिवालिया वह है, जिसने उत्साह खो दिया । 16) अतिथि सत्कार से इन्कार करना ही "दरिद्रता" है ।
1)
2)
3)
जब तक हमारा इन पर नियंत्रण नही होगा, तब तक अनुशासन की बात नहीं सोची जा सकती ।
5)
6)
7)
सुनियोजित जीवन बिताइए
काम अपना रूचि का चुनिए
हर चुनौती भरे काम की मानसिक तैयारी कीजिए ।
4) आदर्शों पर नही, परिणामों पर ध्यान केन्द्रित कीजिए |
जोखिम उठाने को तैयार रहें ।
अपनी सामर्थ्य को कम मत आँकिए ।
दूसरो से नहीं, अपने आप से प्रतियोगिता
कीजिए
सफलता के सात सूत्र
कभी मैं भी इन्सान था
एक दिन मैं सैर को निकला, मन में कुछ
अरमान था,
एक ओर थी झाडियाँ तथा दूसरी ओर श्मशान था,
राह में एक हड्डी पैर से टकराई, उसका यह बयान था,
ओ मुसाफिर देखकर चल, “कभी मैं भी इन्सान था" ।
Page #44
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुछ हितका
महान बनने के दो उपाय :
1. कड़वी बात का मीठा उत्तर 2. क्रोध आने पर चुप रहना । प्रतिष्ठा बढ़ाने के दो उपाय : 1. हाथ की सच्चाई 2. बात की सच्चाई बुद्धिमान बनने के दो उपाय :
1. थोड़ा पढ़ना, अधिक सोचना 2. थोड़ा बोलना, अधिक सुनना अच्छे विद्यार्थी बनने के दो उपाय : बिना पूछे मत बोलना पूछने पर झूठ मत बोलना
दो बाते निश्चित है :
1. जन्म के पीछे मरण
2. संयोग के पीछे वियोग दो बातों को जावो भूल
1. दान कर
2. सेवा कर
दो बातों को छोड़ :
1. कुव्यसन 2. फैशन
लज्जावान में चार गुण
1. असदाचार त्याग
2. सदाचार पालन
3. धर्म पालन में दृढ 4. नम्रता में बढ़ोतरी
लज्जा के अभाव में
निर्लज्ज नर लाजे नहिं, करो कोटि धिक्कार । नाक कपायु तो कहे, अंगे ओछो भार ||
पांच अहित
1. सुख में लीन
2. दुःख में दीन
3. पाप में प्रवीण
4. धर्म में क्षीण 5. बुद्धि में हीन
जिस प्रकार पेट में दाना यदि सड़ने लग जाय तो शरीर के लिए अहितकारी होता है, वैसे ही, ये पांच दाने आत्मा को नुकसान पहुँचाते हैं ।
एक एक सूत्र की कीमत 25000 डॉलर)
जीवन में लम्बे वाक्यों की अपेक्षा संक्षिप्त सूत्र का मूल्य अगणित होता है ।
सूत्र क्या है ?
सूत्र अर्थात समझदार और अनुभवी मनुष्यों के लम्बे अनुभवों का सार रूप, जो निचोड़ रूप, जो विचार बिंदु है। सूत्र अर्थात जीवन के अनुभव का अर्क ।
20
एक से भी अनेक, बार-बार पढ़ने के होते है । इतना ही काफी नहीं, उसके ऊपर मनन करके जीवन में उतारने के होते है। ऐसे सूत्रों की कीमत अमूल्य होती है ।
छोटा सा प्रसंग : बेर्थ लेहाम स्टीलक के अध्यक्ष चार्ल्स खेबे ने मेनेजमेन्ट कन्सल्ट मि. आई. वी. ली के पास एक दिन अपनी समस्या रखते हुए कहा कि मुझे व्यवस्थित काम करने की पद्धति समझाओ, यदि मैं उसमें सफल हुआ तो उसकी कीमत आपको दूंगा । छोटी सी कागज की कतरन पर तीन सूत्र लिखे थे । (1) कल करने के काम की समय सूची आज बनाओ ।
(2) काम के महत्त्व के क्रमानुसार अग्रता क्रम बनावो ।
(3) उसी के अनुसार एक के बाद एक काम करो ।
थोड़ा समय बीता, बाद में चार्ल्स खेबे ने मि. ली को 25000 डॉलर का चेक भेजा ।
Page #45
--------------------------------------------------------------------------
________________
पाटि
( नीति के अनमोल बोल )
देता हो, वह विश्वसनीय नही माना जाएगा।
15) जब सब कुछ गुमा दो तब इतना ध्यान रखना 1) गुस्सा करने में जल्दी न करो, देर करो ।
कि अभी भविष्य तो बचा है ना ? 2) खराब संगत की अपेक्षा अकेले रहना अच्छा | 16) पैसे पैसे के लिए खोटी कंजूसी न करो,
ऐसी बचत से तुम्हारी पूंजी में वृद्धि नहीं 3) छोटी-छोटी सी बात के लिए कोर्ट का आश्रय
होगी। न लो।
17) 'करता होय सो कीजिए, जिस वस्तु में 4) दलीले सामने के व्यक्ति को चुप कर सकती
तुम्हारी चोंच न डूबती हो, उस में दिमाग न हैं, जीत नहीं सकती हैं । ऐसे सूत्रों को
लगावो, समय न खराब करो । त्वरितगति से न पढ़ा जाना चाहिए। 18) किसी काम में ज्यादा हाथ सुहावणा नही खराब करने की अपेक्षा, न करना ज्यादा
"ज्यादा हाथ अलखावणा" अच्छा है।
19) उपयोग में आवे ऐसी ही वस्तु खरीदे । 6) मूर्ख मित्र की अपेक्षा, बुद्धिमान शत्रु अच्छा 20) अपनी पत्नी का जन्म दिन न भूलो ।
21) किसी का हृदय जीतना है तो पहले उसकी 7) स्त्री को खुश करना बहुत ही मुश्किल
भूख मिटाओ । (उसका पेट भरो)
22) किसी को एक महीने बाद का वायदा मत 8) रंग रोगन होने के बाद डब्बे घर में मत रखो, करो। भले आधा बचा हो । बाद में काम नही
23) जन्म से स्त्री प्रेम (ममता) दात्री का ही रूप है। .. आएगा। संग्रह किया सांप भी काम आता हैं यह कहावत
24) महंगी वस्तु न खरीद सको तो कोई बात नहीं,
मत खरीदो । परन्तु सस्ती के चक्कर में पुरानी हो गई। कभी काम आएगा, ऐसा सोचकर छोटी छोटी चीजों का संग्रह न करो,
ज्यादा नुकसान उठा बैठोग। जब जरूरत पड़े तो खरीद लो ।
25) किसी को वचन दो तो निभाओ, ऐसा वचन
मत दो, जो निभा न सको । 10) धीरे बोलो, धीमे बोलो, थोड़ा बोलो। 11) लम्बे प्रवचन बोल कर लोगों को बैचेन बनाने
26) समृद्धि के समय में बहुत लोग मित्र बनने
आते है, विपत्ति के समय उन सब की कसौटी जैसा है | विषय तथा उत्तम - मुद्दा सहित
होती है। सीमित शब्दों का असर अच्छा होता हैं। 12) तुम्हारे जेब में हाथ रखकर तुम सफलता की
27) जब मुसीबत में हो, तब भी सत्य ही बोलना । सीढ़ी कभी नहीं चढ़ सकोगे ।
28) जब सभी के विचार (मत) समान होते है, 13) कोई भी आदत को यदि रोकने में नहीं आई
तब कोई विचार नहीं करता है । तो आगे वह जरुरत बन जाएगी ।
29) सुख ये "बहुत ज्यादा" और "बहुत कम" 14) जो व्यक्ति अपने व्यवसाय पर ध्यान नही
इन दोनों के बीच का बिंदु हैं सोच !
Page #46
--------------------------------------------------------------------------
________________
30) जो मनुष्य सही में यदि जानता है, तो उसको | 46) स्मरण शक्ति पर विश्वास मत रखो, डायरी चिल्लाने की कोई आवश्यकता नहीं।
रखो । उसमें लिखलो । 31) मित्रों की टीका एकान्त में करो, किन्तु प्रशंसा 47) दूसरो की भूलों से सीख लो। जाहिर में करो।
48) सद्कार्य कभी खाली नहीं जाता है । 32) वायदे की कोई कीमत नही होती है, प्रत्येक
49) एक छोटा सा छेद बड़े जहाज को डूबा देता वायदा झूठ बनने के लिए बना हैं । 33) खोटा सिक्का हमेशा वापस आवेगा ।
50) नम्रता से प्रत्येक दरवाजा खुलता है। 34) सभी का मित्र, किसी एक का भी मित्र
51) किसी व्यक्ति को उपकार के नीचे दबाना, नहीं।
अर्थात् उसको दुश्मन बनाना है । 35) जिसकी शुरूआत अच्छी, उसका अन्त भी
52) ज़रुरत, कानून को नहीं पहचानती है। अच्छा ।
53) ऊँचा चढ़ता है, गिरता है (अभिमानी) 36) हँसता हुआ चेहरा नहीं रखनेवाले को व्यापार नहीं करना चाहिए।
54) फटा कपड़ा और दुबले पतले माता पिता
से शरमाना नही। 37) सभी चमकने वाला सोना नहीं होता।
55) मूर्ख स्वयं की भूल से शिक्षा सीख लेता है। 38) वैभव को जरुरत मत बनाओ।
समझदार दूसरो की। 39) निष्फलता को अभ्यास से सफलता में बदला
आटा फाँकना और बोलना ये दोनों साथ नही जा सकता हैं।
होते। 40) जब कुछ भी नही कहने का होता है, तब 57) एक नौकर - तुम्हारा सब काम करेगा । स्मित (मुस्कान) अवश्य करो ।
दो नौकर - तुम्हारा आधा काम करेंगे। 41) अनेक लोगों को बुलावो मदद के लिए, थोड़े
तीन नौकर - स्वयं तुमको काम करना ही आयेंगे।
पड़ेगा। 42) आज, ये आने वाली कल है, जिसकी तुम
58) अपने दुश्मनों की बजाय - मित्रों से सावधानी बीती कल की चिन्ता करते थे ।
रखो। 43) तुम्हारी जीभ लपसने वाली जगह पर है, |
59) जो वृक्ष छाया देता हो, काटो मत | ये लपसे (फिसले) नहीं, इसका ख्याल रखें।
60) दो समय, जुआ कभी भी मत खेलना 44) अच्छी पत्नी की इच्छा रखने वालों को, पहले अच्छा पति बनना चाहिए।
1) जब तुम्हारे पास सम्पत्ति हो । 45) जो बात तुम तुम्हारे दुश्मन को नहीं कह |
2) जब तुम्हारे पास सम्पत्ति न हो। सकते हो, उसको कमी तम्हारे मित्र को भी
(अर्थात् जुआ कभी मत खेलना) नहीं कहना । (आज मित्र है, कदाचित् कल | 61) लम्बे समय तक बेकार रहे हुए आदमी को दुश्मन बन जावे)
नौकरी में मत रखना।
Page #47
--------------------------------------------------------------------------
________________
62) किसी की खुशामदी करोगे - वह तुमको आदर | 77) किसी वस्तु की तीव्र चाहना हो तब, वह वस्तु देगा।
जिसके पास है, उसको देखो। उसकी निंदा-बुराई करो - उसको तुम अच्छे । 78) जब तक पुल पार न करो, तब तक बीच में नहीं लगोगे।
उसकी चिन्ता न करो। उसकी उपेक्षा करो - वह तुमको माफ नहीं - 79) जो काम कभी भी कर सकते हो, वह कभी भी करेगा।
नहीं होता है। उसको उत्तेजना दो - वह तुमको भूलेगा | 80) कार्य शुरु करने से पहले हजार बार सोचो, नही।
कार्य शुरु करने के बाद पूरा करके ही छोड़ो। 63) सुननी सबकी - करनी मन की । 81) अति निकटता (आत्मीयता) घृणा में भी 64) विचार करो तुम, काम मशीन से करो -
परिवर्तित हो सकती है। - खाली बेगार ।
82) सोये हुए सिंह को मत जगाओ । 65) छोटी बात को बड़ी मत बनाओ। 83) किसी काम को करना हो तो Busy व्यक्ति 66) गुणवत्ता को हमेशा प्रधानता देवें ।
को सौंपना । 67) धीरे चलो, परन्तु आगे बढ़ो
84) जो काम खुद कर सकते हो, उसे दुसरो
से मत कराओ। 68) एक कदम से हजारों किलोमीटर कटते है ।
जो काम आज कर सकते हो उसे कल के 69) तुम कितनी भी स्पष्ट बात करो, लोगो में
भरोसे पर मत छोड़ो। थोड़ी गैर समझ तो होगी ही ।
86) भीड़ का अनुकरण मत करो, भीड़ प्रायः 70) तुम्हारी कार्यक्षमता को गुप्त रखना, ये सबसे
गलत निर्णय देती है। बड़ा कौशल है।
87) भागीदारी में समान भाग मत रखो । 71) अनीति व सरलता से प्राप्त किया धन लम्बे काल तक नही टिकेगा।
88) तुम्हारे मित्र को नौकरी पर मत रखो, उसके
पुत्र को रखो । 72) गुलाब का फूल चाहिए तो कांटे तो मिलेंगे
89) जो बनो तो श्रेष्ठ बनो, जो बनाओ तो ही।
श्रेष्ठ बनाओ। 73) मन हो तो, मालवा जाना होता है । "दृढ़ __ संकल्प के सामने कुछ भी अशक्य नहीं" ।
90) याद रखो ! तुम्हारे सिवाय दुनिया में कोई
भी व्यक्ति तुम्हे दीन नही बना सकता है । 74) पीसी हुई औषध (घोटी) और मूंडा हुआ जोगी । इनकी पहचान होनी मुश्किल है।
91) आज हँसो, कल की किसको खबर है,
कदाचित् दुःख आवे । 75) आज विचारो - कल बोलो ।
92) आज का समाज, मोटर कार जैसा नही 76) तुम्हारे दुश्मन का भी बुरा न बोलो । क्योंकि
है, परन्तु टट्टू जैसा है कभी भी तुम्हे लात वह कल तुम्हारा मित्र बन सकता है ।
मार सकता है।
Page #48
--------------------------------------------------------------------------
________________
93) कई बार अच्छी तरह शुरु किया हुआ कार्य खराब रूप में समाप्त होता है, और अव्यवस्थित तरह से शुरु किया हुआ कार्य सुन्दर तरीके से पूरा होता है ।
94) दुःख आता है, तब आत्मा में रहो, परन्तु सुख आता है, तब आनंद को काबू में
रखो।
95)
ज्यादा मानसिक दबाव और ज्यादा परिस्थिति को खराब करता है ।
96) मूर्ख के साथ दलीलें मत दो, लोग तुमको भी वैसा ही मानने लगेंगे ।
97) जितनी आवक ज्यादा, उतनी जरुरत (इच्छाएँ) ज्यादा |
98) मुश्किलों से दूर न भागो, उसका सामना करो, आश्चर्य रूप से अन्त हो जावेगा ।
99 ) स्वप्न में दिखने वाले हजार रुपये से भी, जेब में रखा हुआ रुपया ज्यादा कीमती है । 100) मन की निर्मलता हृदय को शुद्ध करती है और जीवन को भी शुद्ध करती है । 101) आप भले ही भेड़ की तरह रहो, परन्तु विचार घोड़े की तरह रखो ।
102) तुम्हारा मक्कम ( मजबूत) मन, तुम्हारा ध्रुव तारा है ।
103) अज्ञानी को दो बार समझाना पड़ता है, अभिमानी को तीन बार । परन्तु 104) प्रथम प्रयत्न करने वाले को मोती मिलता है, देर से प्रयत्न करने वाले को सीप । 105) सुनकर सीखो, परन्तु समझो मनन करके । 106) पैसा यदि गुमा दिया कुछ नहीं गवायाँ । परन्तु आत्म विश्वास गुमाया तो सब कुछ गँवा दिया ।
24
107 ) निश्चय यह कमजोर मन वाले की दवा है।
108) विजय मिलती हो तब भविष्य की हार की
चिन्ता नहीं करनी चाहिए। कारण कि चिंता अभी के विजय के आनंद को समाप्त कर देगी ।
109) स्वप्न को सत्य करने का उपाय है, स्वप्न से जागना ।
110) जहाज बंदरगाहों में सुरक्षित रहते हों, परन्तु उसका तैरना तो खुले समुद्र में ।
111 ) मनुष्य का मन पैराशूट जैसा है, उसके संपूर्ण खुलने पर ही व्यक्ति के लिए मदद रूप हो सकता I
112) यदि तुम्हे विजय रूप मधु को चखना है तो, मुश्किल रुप मधुमक्खियों के डंक खाने ही पड़ेंगे ।
113) असामान्य सिद्धि प्राप्त करने हेतु, असामान्य संजोगो की राह न देखो। सामान्य संयोगो का उपयोग करो ।
114) योग्य समय का अयोग्य निर्णय और योग्य निर्णय का अयोग्य समय दोनो समान रूप से हानिकर हैं ।
115) सच्चा मनुष्य वही है जो, दूसरो के दोष नहीं परन्तु स्वयं के दोष जरुर देखता है ।
116) दूसरो के बूट में, तुम्हारे पैर रख के देखो ( सामने के मनुष्य की दृष्टि बिन्दु से देखना) 117) शरीर की मशीन को हास्य रूपी ईंधन की जरुरत पड़ती है, जिससे जीवन सरलता से चल सके ।
118) पहले खुद खराब आदत को डालता है, बाद में आदत मनुष्य को नीचे डालती (गिराती) है ।
Page #49
--------------------------------------------------------------------------
________________
119) जिन्दगी में 50% याद रखने का होता है, तथा 50% याद नहीं रखने का होता है । 120) निराशा वाले समय को भूल जाओ, परन्तु उस समय जो तुमने सीखा था, उसको मत भूलना ।
121) "चेस की गेम" (शतरंज) जैसी जिन्दगी है, पहले से विचार किया होता, जीत अवश्य होती है ।
122 ) प्रभु ! जिसके हाथ में फूल हो उसको कदाचित नहीं स्वीकार करेंगे परन्तु - भले ही खाली हाथ हो पवित्र हाथों को जरुर स्वीकारेंगे।
123) सच्चा सुख कार्य (do) से मिलता है, काम की चर्चा करने से नहीं ।
124 ) ज्ञानी मनुष्य का सामान उसका पुस्तकालय है, पुस्तकें उसकी प्रजा है, और ज्ञान उसका राजा है ।
125 ) जीवन में दौड़ (गति) से भी महत्व पूर्ण उसकी दिशा कौन सी है यह महत्व पूर्ण है । 126) मन का दरवाजा खोलने की एक चाबी है - सहानुभूति ।
127) तुम्हारे प्रश्नों के उत्तर यदि मित्र के पास हों तो जरुर प्राप्त करो ।
128) व्यक्तित्व रूपी भव्य महल की नींव है, "आत्म विश्वास" ।
129) वृक्ष की तरह जमीन में कहीं भी जड़ें फैला दो ।
130) जीभ से धीमा व देखने में त्वरित बनो । 131) तुम्हारी स्वयं की भूल कैसे उपयोगी होवे, उस पर विचार करो ?
132) प्रभु बिना का स्वर्ग भी नरक समान है ।
25
133) व्यक्ति की पहचान, जवाब कैसे देता है ? उसके ऊपर नही की जाती है, बल्कि कितनी चातुर्यता से प्रश्न पूछता है, उससे होती है। सुख पैसे में नहीं, हृदय में खोजना चाहिए । घटना को बनाने वाले ज्यादातर हम स्वयं ही होते है ।
134)
135)
136) कितने लोगों को पुस्तकें बसानी आती हैं, परन्तु वाचन करना नहीं आता ।
137) आपके सच्चे साथी चार है। क्या कैसे, क्यों, किस तरह? जैसे प्रश्न ।
138) मनुष्य को उसकी ऊंचाई से नही, उसकी गहराई (गुण) से जानो ।
139) हेतु बिना का जीवन, सढ़ बिना का जहाज है ।
140) मौका एक बार आपके दरवाजे पर खटखटाता है ।
141) धीरज का वृक्ष होता है छोटा, परन्तु फल (होता) देता है मोटा |
142) समस्या रूपी नदी को पार करने का पुल है, बुद्धि पूर्वक आयोजन ।
143) मुझे खबर है कि आनंद क्या है ? क्योंकि मैं दुःख रूपी भट्टी में परिपक्व बन गया हूँ । 144 ) तुम्हारे मन को 100% खाली रखो । 145) सफलता और निष्फलता तुम्हारे मन में ही रही हुई है।
146) पैसा स्वयं नही, बल्कि पैसे का विचार, मनुष्य को बर्बाद कर देता है ।
147) वृक्ष के ऊपर फल नही है, तो उसको हिलाने से क्या अर्थ है ।
148) सत्य प्रश्नों के उत्तर भी सत्य ही होते है ।
Page #50
--------------------------------------------------------------------------
________________
149) प्रत्येक " सुबह " दिन का प्रवेशद्वार है, उसमें पहला कदम संभाल कर रखना ।
150) उधार, आँसू की धार है ।
151) बुरे विचारों के डिब्बे वाली गाड़ी में पटरियाँ नहीं होती हैं ।
152 ) याद रखो, तुम तुम्हारे कुटुम्ब की जाहेरात (विज्ञापन) हो ।
153) मात्र दोष को देखो, दोषी को नही, दोषी के प्रति भी रहम (दया) रखो।
154) जहाँ ज्यादा भय है, वहाँ गुलामी है । 155) तुम्हारे घर में धर्म का प्रवेश करवाओ, फिर धर्म तुम्हारे हृदय में प्रवेश करेगा ।
156) हजार हाथ से अधिक एक मस्तिष्क का महत्व है ।
157) वस्तु को इस तरह रखिए कि योग्य समय, योग्य स्थल और योग्य स्वरुप मे मिल जावे । 158) मात्र एक भूल, पूरा भव बिगाड़ सकती है ।
159 ) प्रेम करो परन्तु फर्ज से ।
-
160) उतावल करो, परन्तु दौड़ा-दौड़ी मत करो । 161) ईर्ष्या को जलने (बढ़ने ) मत दो, नहीं तो जंगल में फैलते दव (आग) की तरह हो जावेगी |
162) स्वस्थ शरीर शुभ कर्मों की भेंट है, परन्तु उसकी सार-संभाल रखनी पड़ती है, तभी वह भेंट आकर्षक लगती है ।
163) स्वर्ग आपके ऊपर नहीं है, आपके आसपास है, जिसको स्वयं बनाना पड़ता है । 164) बुद्धिमान मनुष्य अकस्मात को भी “अर्थ” देता/करता है ।
165) मनुष्य का बड़े से बड़ा शत्रु है डर ।
26
166) ईर्ष्या करने वाले, सबसे पहले अति नजदीकी रिश्तेदार ही होते है ।
167) जिन्दगी में कितने ही प्रसंग सीखने के होते है, और कितने प्रसंग भूलने के होते है । 168) मकान मनुष्य के हाथों से बंधता है, परन्तु घर मनुष्य के हृदय से बनता है ।
169 ) जो कुटुम्ब शाम को भोजन के बाद प्रार्थना करता है, वह कुटुम्ब साथ में रह सकता है ।
170) प्रेम बिना का घर खड़े पर्वत के समान है ।
171) जब जिन्दगी तुमको लात मारती है तब समझना चाहिए कि वह लात तुमको आगे बढ़ाने के लिए ही लगी है ।
172) जिस घर परमेश्वर नही हो तो, वह • जल्दी गिर जाता है ।
173) तुम्हारी जिन्दगी की पुस्तक के प्रथम प्रकरण का नाम होना चाहिए " प्रामाणिकता " || 174) अपना निर्णय स्नेह से न लो, परन्तु तर्क की कसौटी पर कस कर लो ।
175) ऐसा धंधा न करो, जिससे कुटुम्ब की शांति का रक्षण करना पड़े ।
176) कमजोर मनुष्य बहुत नीचे नमकर नमस्कार करते हैं ।
177 ) लोगों में शक्ति का अभाव नही होता है, परन्तु इच्छा शक्ति का अभाव होता है । 178) वृद्धावस्था जीवन का बेलेन्स शीट निकालने
का समय है । तुम ज्यादा फायदा / नफा मिलने के ऊपर ध्यान देना ।
179) सफलता का ख्याल प्रत्येक मनुष्य में अलग अलग होता है, परन्तु उत्तम सफलता मानवता के क्षेत्र में होती है ।
Page #51
--------------------------------------------------------------------------
________________
180) सफलता नहीं मिलती तो बाधा नही, परन्तु | 195) रूप से धन अधिक शक्तिशाली है। सफलता की बात करो । निष्फलता की बात
196) मकान किराये से देने के बदले, उसको या, निष्फलता के विचार कभी न करो।
खाली रहने दो। 181) बहुत बार उतावल के कारण बहुत देर हो
197) खाली बरतन आवाज अधिक करते हैं। जाती है।
198) बिना मेहनत से आया धन त्वरित गति से 182) सुख छिछला होता है, दुःख गहरा होता
चला जाता है।
199) स्वयं की गली में कुत्ता भी शेर होता है । 183) एक बार अन्तरात्मा को बेचने के बाद किसी
भी कीमत पर खरीदी नहीं जा सकती है। 200) सब का काम, किसी का भी काम नहीं ? 184) मीठा बोलने वाला तुम्हारा मित्र नहीं ।
201) महापुरुषों की सन्ताने महापुरुष नहीं हो
सकती है । (सामान्यतः) 185) तुम्हारी “चाहत” मुजब नहि, परन्तु “लायकात” मुजब ही मिलेगा।
202) जवानी और वृद्धावस्था कभी भी सम्मत 186) समुन्दर में तूफान के समय जहाज को
नही होते है । (एक अपेक्षा से)। किसी तरह बंदरगाह पर ले जावो।
203) "स्त्री" ये जरुरी अनिष्ट है । (दृष्टिविकार) 187) कई माता-पिता बालकों को संस्कारित नही 204) छोटी गलती के प्रति आँख, कान बंद करते, मात्र उनको मोटा (बड़ा) ही करते करो।
205) जो तुम्हारे सामने आँख मिलाकर बात नही 188) मनुष्य को पहचानने के लिए या तो पथिक कर सकते है, उन पर विश्वास नही करना ।
. (साथ में मुसाफिरी करने वाला) या पड़ोसी । 206) जरुरत खड़ी हो, उससे पहले मित्र की 189) किसी को तुम आश्चर्य से मुग्ध करो,अर्थात् मित्रता की सच्चाई देख लो। आधा तो उसको जीत लिया ।
207) अतिखुशामद व अति सम्मान से सावधान । 190) शौकीन पत्नी और पीछे का दरवाजा, धनिक 208) जितने ऊँचे चढ़ो, उतना ही गिरने का भय को गरीब बनाते है। (पत्नी खर्चकर - नौकर
ज्यादा। चुराकर)
209) गहरा पानी शांत होता है । 191) लापरवाही से किया गया कार्य दो बार करना
210) धनिक मनुष्य में कोई दोष नही होता पड़ता हैं।
है। (उसका दोष कोई देखता नही) 192) हँसमुख स्वभाव का मनुष्य अच्छा नौकर नही बन सकता है।
211) धन से कभी-कभी ही सुख मिलता है । 193) राह देखने वाले को चाहवाला पदार्थ मिल
212) एक झूठ अनेक झूठों को जन्म देता है। ही जाता है।
213) सिंहों के टोले कभी होते नहीं । 194) समय से पहले, और तकदीर में है, उस | 214) रोग और शत्रु प्रारम्भ से ही रोकना ।
से अधिक मिलेगा नही ।
Page #52
--------------------------------------------------------------------------
________________
215) मुश्किल में लोग सलाह देंगे, परन्तु मदद | 229) दुसरे की गुप्त बात, जो तुमको कहता है, नहीं।
उसको तुम्हारी गुप्त बात न कहो । 216) छोटा रास्ता (सरल) हमेशा लम्बा (मुसीबत) | 230) तुम्हारे पास नही है, उसका उद्वेग न करके, साबित होता है।
जो है, उसमे सन्तोष करो। 217) जिस कार्य के लिए जितना बड़ा अर्थ इकट्ठा 231) अंधेरी रात बीतने के बाद प्रभात होता ही
किया हो, अर्थ कम होगा, परन्तु कार्य पूरा नही होगा।
232) तुम सच्चे हो, यह साबित करने की कोशीश 218) छोटी दिखने वाली समस्याओं के पीछे बड़ी करना नहीं | क्योंकि सत्य को साबित समस्याएँ छिपी रहती है।
करने की आवश्यकता नहीं होती। 219) जरुरत की वस्तु के विषय मे लम्बा विचार | 233) बहुत बार छोटी वस्तु का महत्व बहुत होता
करोगे, तुम्हे जरुरत जरुरी नहीं लगेगी। 220) भूतकाल हमेशा भव्य ही लगता है। 234) जो तुम मीठा न बोल सको, तो मत
बोलना। 221) जो लोग काम कर सकते है: वे काम करते है, जो नही कर सकते है, वे सलाह देते
| 235) जो काम आज हो सकता है, उसे कल के
भरोसे मत छोड़ना। 222) जीवन के दो उद्देश्य होने चाहिए ।
236) बोलने मे उतावली करना नही, धीरे व
मीठा बोलो। 1) जो चाहिए, उसको प्राप्त करना ।
237) आयोजन का अभाव ये निष्फलता का 2) जो प्राप्त हुआ, उसका उपयोग करना ।
आयोजन है। 223) जैसे ही आवक बढ़ेगी, वैसे ही और तेज
238) जो तुम भूल नही करोगे। तो सीखोगे नही । गति से खर्च बढ़ेगा।
239) किसी कागज पर हस्ताक्षर करने से पहले 224) कार्य पूरा करने के लिए मिला हुआ समय
अच्छी तरह सोचो। मुजब काम की व्यस्तता व्यापकता भी बढ़ती
240) यदि दूसरे के धन पर ईर्ष्या नही करोगे तो
धन मिलेगा। 225) सलाह लेनी हो तो वृद्ध के पास जावो । यदि काम करवाना हो तो जवान के पास
241) जो सुना, उसका भरोसा रखना मत । जाओ।
242) मन को हमेशा खुला रखो । 226) बीज को संचय करके रखोगे, वह नाश को 243) दूसरों के झगड़ों में सिर नही खपाना ।
प्राप्त होगा, यदि बोवोगे तो अनेक गुणा 244) दुर्गुण बिना के मनुष्य मिलने कठिन है। बनेगा।
245) मित्रता समान से होती है। 227) मौका उसी को मिलता है जो उसका उपयोग
246) बहुत बार छोटा मित्र बहुत काम आता है । करने को तैयार रहता है।
247) बल से अधिक भलमनसाई ज्यादा 228) प्रगति के लिए परिवर्तन जरुरी है।
असरकारक होती है।
है।
Page #53
--------------------------------------------------------------------------
________________
248) खुशामदी व्यक्ति का विश्वास नही करना । | 268) टीका करने की बजाय प्रशंसा करो, अच्छे
शब्दों की कोई कीमत नहीं। 249) अफवाहों को सत्य नही समझना । 250) अति लोभ, यही पाप का मूल ।
| 269) आदत नौकर की तरह की हो तो अच्छी है,
मालिक की तरह की हो तो खराब है। 251) समय (जानेपर) बहुत समस्याओं का समाधान है।
270) विधेयात्मक को स्वीकार करो, नकारात्मक
को दूर करो। 252) तुम्हारे पास जो भी है, उससे खुश रहो ।
271) दो समकक्ष (शक्तिशाली) व्यक्ति के बीच 253) तुम्हारे भागीदार को पसंद करने में सावधानी
में मैत्री नहीं होती है। रखो।
272) कोई कार्य करने के बाद पश्चाताप होता है , 254) संख्या की नहीं, गुण की कीमत है।
तो पापा 255) गर्व आया नही, कि पतन शुरु । | 273) कोई कार्य करने के बाद आनंद होता है, 256) बाते करनेवाले लोग काम कम करते हैं। तो पुण्य । 257) तुम्हारी सहमति के बिना तुम्हारे को कोई | 274) गत वर्ष की सांसो पर मनुष्य जी नही नही बना सकता है।
सकता, और जी सकता है बीती पीढ़ी के 258) किसी व्यक्ति को खुश करना हो तो उसकी
विचारों के ऊपर । बातें शान्ति से सुनो।
1) रोज रोज कुछ न कुछ सीखो - तो 259) जब टेबल और कुर्सी को अलग करना हो ___ तुमको ज्ञान मिलेगा।
तो, कुर्सी को हटाने में बहुत लोग तैयार 2) रोज-रोज कुछ रचना करो, तो तुमको रहते है।
मूल्य समझ आवेगा । 260) तुम्हारे पड़ोसी को तुम चाहो जरुर, परन्तु 3) प्रत्येक के प्रति आदर भाव रखो - तो
दो घर के बीच की दीवार को मत हटवाओ । __ तुमको सद्भाव मिलेगा। 261) जो मनुष्य सभी को अच्छा बोलता हो तो | 275) दो प्रसंगो में मस्तिष्क को समान धारा में उसका विश्वास नही करना ।
बना कर रखो। 262) तुम्हारी कार्य की क्षमता को गुप्त रखो, वही 1) जब आपने बड़ी सफलता प्राप्त की हो
सबसे बड़ा कौशल है। 263) लेनदार, देनदार का मालिक बन जाता है । 2) जब खराब तरीके से निष्फलता प्राप्त 264) खेल मे हार-जीत का जितना महत्व नही है,
की हो। तुम किस तरह खेले, उसका महत्व है। | 276) 'अनुभव', ये सबसे महंगा शिक्षण है, और 265) प्रत्येक अन्त नही, शुरुआत है।
मूर्ख लोगों के लिए ही है, समझदार मनुष्य
तो दूसरों के अनुभवों से सीखता ही रहता 266) समय पर टांका, नये टांके को बचाता है। 267) उत्साह में बीज है, सफलता का ।
और
Page #54
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम के अनमोल मोती 1) सर्वज्ञ भी अल्पज्ञ का विनय करते है :
छद्मस्थ गुरु का उनका शिष्य केवली बनने के बाद भी उन छद्मस्थ गुरुदेव का विनय करते है । अहा । जिनशासन में उपकारी के उपकारों के महत्व को भूलाया नहीं गया ना ?
दश० अ. 9
2) पंचेन्द्रिय जीव की सुक्ष्मता का वर्णन : एक करोड़ पूर्व वर्ष की उम्रवाला पंचेन्द्रियतिर्यञ्च, अंगुल के असंख्यातवे भाग प्रमाण क्षेत्र में रहता है । सुई के नोक से भी बहुत ही छोटी जगह जो चर्मचक्षुओं से नही देखी जा सकती है । भग. श. 24
नवग्रेवयक में अभवी भी जाता है द्रव्य चारित्र भी निष्फल नही होता है, नवग्रैवेयक के कुल 318 विमानों में अभवी जीवों ने अनंत अनंत बार जन्म लिया है, प्रवृतिरूप साध्वाचार से पुण्य बल प्राप्त होता है ।
3)
4)
5)
भग. श. 13. उ01
नारकी में असंख्यात जीव है । सातवी नरक में असंख्य जीव है, उनसे छुट्टी में असंख्यात गुणा, उससे पांचवी में असं. गुणा होते है। छहनरक के जीवों से भी प्रथम नरक के जीव असंख्यात गुणा अधिक होते है ।
पनवणा पद 3
अनंतकाल अनंत साथ में अनंतो के साथ अनंत काल तक यह जीव साथ में रहा है। अनंत के साथ में ही जन्ममरण, आहार आदि साथ में ही होता था ना ? जब अनंत के साथ एडजस्ट हो चुका है, अब क्यो न ?
भग. श, 24
6) एक सामायिक जितना भी जीवन नही । अनंत काल तक निगोद के जीव पर्याय में आयु इतनी थोड़ी होती है कि 1 मुहुर्त में
30
65536 बार जन्म मरण कर लेता है । भग श. 24
7) पवित्र क्षेत्र 45.00.000 यो. अढ़ाई द्वीप के द्वीप व समुद्र का एक भी स्थान ऐसा शेष नही रहा है, जहां से अनंत जीव मोक्ष न गए हो, प्रत्येक आकाश प्रदेश "निर्वाण धाम है” |
पन्नवणा पद 20
8) एक सैकंड में कितने मरण : सूक्ष्म वनस्पति के जीव : 23 बार एक सैकंड में
प्रत्येक वनस्पति के जीव: 11 बार एक सैकंड में
चार स्थावर के जीव: 4 भव एक सैकंड में बेइन्द्रिय के जीव: 1 भव 6 सैकंड में तेइन्द्रिय के जीव: 1 भव 48 सैकंड में चौरेन्द्रिय के जीव: 1 भव 72 सैकंड में असन्नी पंचेन्द्रिय के जीव: 1 भव 2 मिनट में
(ग्रन्थों के आधार पर सब से अल्प उम्र भव की)
9) लम्बी से लम्बी कितनी उम्र है ? पृथ्वी काय के एक जीव की - 22000 वर्ष अप काय के एक जीव की - 7000 वर्ष ते काय के एक जीव की वायु काय के एक जीव की
- 3 दिन रात
वनस्पति के एक जीव की 10,000 वर्ष बेइन्द्रिय के 1 जीव की उम्र 1 भव में 12 वर्ष
3000 वर्ष उम्र - 1 भव में
-
तेइन्द्रिय के 1 जीव की उम्र 1 भव में 49 दिन चौरेन्द्रिय के 1 जीव की उम्र 1 भव में 6 मास, असन्नी पंचेन्द्रिय 1 जीव की उम्र - 1 भव में करोड़ पूर्व वर्ष ।
सन्नी पंचेन्द्रिय 1 जीव की उम्र 33 सागरोपम जीवाभिगम प्रति. - प्रति. -3
Page #55
--------------------------------------------------------------------------
________________
10) विष व विषय की शक्ति
आशीविष (दाढ़ा में जहर) बिच्छू यदि काटे तो अर्ध भरत प्रमाण शरीर में फैले, मेंढ़क यदि काटे तो भरत में फैले, सर्प यदि काटे तो जबूद्वीप में फैले और मनुष्य यदि काटे तो, 2 1/2 द्वीप में फैले ओट ? यह इतने बड़े शरीर में फैलता है। तीर्थंकरो ने बताया है, परन्तु विषय (शब्द रुप आदि) रुप विष तो पूरे लोक में फैला हुआ ही है ना !
ठाणाग सूत्र 4 ठाणा 11) कषायों की निरन्तरता
चार कषायों की निरन्तरता ही जीव को संसार में रोके रखी हुई है । एक मुहुर्त प्रमाण यदि जीव अकषायी 12 वाँ गुण स्थानी बन जावें तो जीव का मोक्ष हो जाता है।
भग. श.6 उ64 12) जो मांगो वो मिलता है
Departmental Store जैसे बड़े शहरों मे होता है, तीर्थंकरों के समय में भी एक दुकान जिसका नाम कुत्रिकापन (कु-पृथ्वी, त्रिक - तीन, आपन - दुकान) तीन लोक की उपलब्ध वस्तुएँ जहाँ पर मिलती है। यदि 1000 व्यक्ति दीक्षा के लिए तैयार होते हैं, तत्काल पात्र रजोहरण तैयार
मिलती है! 13) आँख की पलकों पर 32 नाटक
भौतिक दिव्य समृद्धि का स्वामी अव्याबाध नामकदेव किसी पुरूष की आँखों के पलकों पर 32 प्रकार के दिव्य नाटक करता है । उस व्यक्ति को किंचित मात्र भी दुःख नही होता है | विशिष्ट शक्ति का स्वामी देव, नाम है अब्याबाध देव ।
14) अशुचि में ही पैदा होगा क्या ?
कितने अशुभ कर्मो का उदय होगा, उन जीवों का जो मनुष्य के 14 प्रकार के अशुचि स्थानो में ही जन्म लेते हैं। क्यों ? कारण कुछ न कुछ होगा | परन्तु शरीर का राग शरीर में पैदा करता है। उम्र भी कम, अपर्याप्त अवस्था में ही मरण प्राप्त होता है, जब कि पंचेन्द्रिय कहलाता है।
पन्नवणा पद 12 15) साता से असाता पन्द्रह गुनी
पन्नवणा में 256 देर (राशि) बनाए गए समस्त जीवों के, उसमें 16 देर, साता वेदनीय भोगते जीवों के है | 240 देर असाता भोगते जीवों के है ! निरन्तर मिलते है। 16 से 240 मे पन्द्रह गुना फर्क है, संसार में साता से पन्द्रह गुना असाता - वेदनीय जीवों द्वारा बाँधा व भोगा जाता है।
पन्नवणा पद 3 16) अनंत शक्ति धारक भी नही कर सकते हैं,
क्या ?
असंभव कार्य है, छह जगत में, 1) जीव को अजीव नहीं कर सकते है, 2) अजीव को जीव नहीं कर सकते है, 3) एक समय में दो भाषा नहीं बोल सकते, 4) कर्म को इच्छानुसार नहीं भोग सकते, 5) परमाणु का छेदन भेदन नहीं कर सकते, 6) लोक के बाहर कोई नहीं जा सकते ।
ठाणांग सूत्र 6ठा ठाणा 17) असंख्य की संख्या एक साथ नरक में
पाप का प्रभाव कितना भयंकर है । एक समय में असंख्य जीव एक साथ मरकर नरक में चले जाते है।
भग. श. 14 उ.8 ||
Page #56
--------------------------------------------------------------------------
________________
कल्पना - जंबूद्वीप को (1 लाख यो.) सरसो या राई के दानों से भरदो, नहीं नहीं लाखो जंबूद्वीप जितने क्षेत्र को राई से भरदो, उससे भी असंख्य गुणाधिक एक समय में जीव मरकर एक साथ नरक मे चले जाते है | कितना साहसिक (पाप)।
भगवती श.20 18) “पावन धरा - महाविदेह"
वर्तमान अवसर्पिणी काल में भरत क्षेत्र में प्रथम ऋषभदेव तथा दुसरे तीर्थंकर अजित नाथ स्वामी हुए । इन दोनों तीर्थंकरों के बीच का काल इतना बड़ा था, कि महाविदेह से, असंख्यात तीर्थंकरो का निर्वाण हो गया । वाह रे धरा-महाविदेह ।
भग.श 12 उ.7 19) छोटी सी काया - वस्त्राभूषण न माया
अनुत्तर विमान वासी देवों की काया एक हाथ ऊंची है । आश्चर्य है - न वस्त्र, न आभूषण, सामग्री, भौतिक, न फ्रिज, न फोन, आहार 33000 वर्ष में एक बार, होते हुए भी भौतिक श्रेष्ठ सुखका स्वामी कौन? अनुत्तरविमानवासी
देव । 20) गर्भावास से सीधा नरकावास
गर्भ से बाहर तो जीव कर्म बांधते दिखते हैं ही, परन्तु गर्भ मे रहा हुआ जीव 7 या 8 मास का अभी माँ का मुंह भी नहीं देखा, कानों से माँ का वचन सुनकर, शत्रु सेना आई, ऐसा सुनकर वैक्रिय लब्धि से सेना की विकुर्वणा करता है, और इन प्रकार भावों में ही यदि काल कर जावे तो प्रथम नरक में जाता है । है ना कैसी विचित्रता ।
भग.श 24 व श 1 उ7 21) गर्भ से ही सीधा देव भव
गर्भ में रहा बालक, माता जैसा विचारती है, उसका बालक पर असर करता है । माता सोती
है, बालक भी सोता है । माता प्रवचन सुनती है, बालक भी सुनता है, संस्कार का असर होता है, परमात्मा ने फरमाया, गर्भगत बालक 7 या 8 मास का यदि तथारुप साधु महात्मा का एक भी आर्यवचन सुनता है, और धर्म अनुरागी भी बनता है, यदि गर्भ में ही आयुष्य पूर्ण हो जाय तो देव लोक में जन्म लेता है।
भग. श. 1 उ.7 22) आसक्ति वहां उत्पत्ति
जहां आसक्ति वही उत्पत्ति होती है, यह उक्ति असंख्य जीवों पर लागू होती है, पल्योपम, सागरोपम की (असंख्य काल) उम्र में पांचो इन्द्रिय के सुखो को भोगने वाले दिव्य देव, काम भोग की अतृप्ति के कारण सदैव सुख के प्यासे ही रहते है, वे ही देव, फूल, पानी व हीरे आदि एकेन्द्रिय मे उत्पन्न हो जाते है । न नाक, न कान, न आँखे, न मुँह, बस शरीर (स्पर्श) से ही बेचारे जीवन जीते हैं । कहाँ गया वैभव उनका ?
पन्नवणा पद 6 23) असंख्य देव - एक साथ एकेन्द्रिय में उत्पन्न
कभी कभी ऐसा भी बनता है, कि वर्तमान मनुष्यों से भी असंख्य गणा अधिक संख्या के देव एक समय में काल करके, एकेन्द्रिय की पर्याय में उत्पन्न हो जाते है, लाखों देव सेवा करते थे, आज निराधार एकेन्द्रिय पर्याय .... कैसी विडम्बना....
पन्नवणा पद 6 24) नागकुमार के सिरपर भी मोह नाग
देवता की एकेन्द्रिय में उत्पत्ति, कैसी करुणा, अनाथता, हमने जान ली। अब वैभव मोहजन्य देखो ! भवनपति नागकुमार यदि सांप (नाग) का रूप बनावे तो? लाख योजन के जंबूद्वीप को पूरा भरदे । उस नाग के फण से ही जंबूद्वीप ढक जावे । विपुल शक्ति मोह जन्य है।
पन्नवणा
Page #57
--------------------------------------------------------------------------
________________
25 ) सामर्थ्य है विभिन्न देवों का
सुवर्ण कुमार अपने शरीर की चमक से जंबूद्वीप को रोशनी से भर दे । विद्युत कुमार अपनी विद्युत शक्ति से एक चमक से सम्पूर्ण जंबूद्वीप को प्रकाशित कर दे । अग्नि कुमार एक चिनगारी से संपूर्ण जंबूद्वीप को जला सकता है । द्वीपकुमार अपनी हथेली में जंबूद्वीप को ररव सकता है । दिशा कुमार एक चरण से जंबूद्वीप को कंपित कर देता है। है ना देवों का सामर्थ्य | परंतु त्याग व्रत नियम नही ले सकते हैं।
पन्नवणा 26) काल चक्र ' जैन दर्शन में समय के माप के लिए अनेक
संज्ञाओं के नाम दिये हैं, एक संज्ञा (नाम) है - पल्योपम ।
4 गाउ लम्बा - चौड़ा गहरा कआँ, जिसमें जुगलिया के बाल (अपने बाल से 4096 गुणा पतले) के अग्र भाग के असंख्य टुकड़े कर के कुआँ भरा गया । 100 - 100 वर्षों से एक बाल निकालते निकालते जब आँखाली हो, जितना काल लगा, उस काल को “एक पल्योपम" कहते है। ऐसे 10 करोड़x10 करोड़ पल्योपम= 1 सागरोपम काल, ऐसे 10 कोड़ाकोड़ी सागरोपम काल=1 उत्सर्पिणी व अवसर्पिणी होती है। एक अव० + एक उत्स. = 1 काल चक्र होता है । काल के अविभाज्य अंश को समय कहते है।
अनुयोगद्धारसूत्र 27) एक पल में असंख्य समय होवे
काल का माप समझना कैसे? सर्वज्ञ फरमाते है कि समय छोटे से छोटा माप है। आँख की पलक झपकाने में असंख्य समय होते है । जिस तरह नागरवेल के पान पर एक पर एक 100 की थप्पी रखी हो, बलवान पुरुष तलवार या सूई से मार या छेद करे, 1 पल मात्र में सबका छेदन भेदन हो जाता है। पहले उपर का पान फिर नीचे का पान, इस तरह क्रमशः
छेदन होता है, पहले से दुसरे पान (पत्ता) तक पहुँचने में असंख्य समय लगते है, ऐसा सूक्ष्म माप है | समय एक सेकंड में असंख्य समय बीत जाते है । एक अवसर्पिणी में असंख्य समय होते है।
अनुयोगद्धार सूत्र 28) प्रति समय अनंत जीवों का मरण
प्रति समय अनंत जीव वनस्पति काय से मरकर वनस्पति में जन्म लेते है | चार स्थावर के जीव प्रति समय पांच स्थावर में असंख्य असंख्य निरन्तर जन्म लेते है | हर समय जन्म व मरण हो रहा है। पांच स्थावर के जीवों का । अल्प आयुष्य उसमें भी अति अल्प आयुष्य जीवों की क्या दशा है । एक घड़ी भर भी जहां जीवन नही मिलता है।
जीवाभिगम सूत्र 29) 14 पूर्वो का ज्ञान कितना ?
बारहवाँ अंग दृष्टिवाद सूत्र है । 14 पूर्वो के ज्ञान का समावेश इस दृष्टिवाद मे ही माना गया है। अम्बाड़ी सहित हाथी जितनी, सुखी स्याही से लिखा गया ज्ञान एक पर्व का ज्ञान होता है । आगे पूर्वो के ज्ञान मे दुगना करना । 1-2-4-8-16 आदि करते करते 14 वें पूर्व तक कुल 16383 हाथी प्रमाण | इतना ज्ञान, लब्धि से एक मुहुर्त में चितारना कर लेते है ।
ग्रन्थों के आधार 30) एक मुहुर्त में कितने मरण?
मनुष्य को 100 वर्ष के जीवन में कितनी कितनी दवा, औषध, भोजन पानी लेना पड़ता है ? परन्तु पाँच स्थावरों के जीवन मरण को देखो, कितना जल्दी जीवन छोड़ देते है, साधारण वनस्पति उत्कृष्ट भव एक मुहुर्त मे 65536 बार करते है। शेष चार पृथ्वी अप, तेउ, व वायु ये चार एक मुहुर्त में 12824 बार करते है।
Page #58
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रत्येक वनस्पति 32000 करते है।
आत्म प्रदेश गले के उपर भाग से - गति - हाय ! कैसी है दयनीय दशा ?
“देव"
सर्व अंग मे से एक साथ निकलने वाला - 31) दुल्लहे खलु माणुसे भवे
“जीव मोक्ष गति मे जाता है" दुर्लभ है मनुष्य का भव ! आगम वाणी मनुष्य के
ठाणांग सूत्र. स्थान 5 मूल्य को समझाती है। मानव भव की एक मिनिट
35) अपार वैभव में नही सार बराबर असंख्य मिनट नारकी, असंख्य देव की व
छह खण्ड, नव निधि 14 रत्नों का स्वामी, अनंत मिनिट तिर्यञ्च की पर्याय में मिलती है।
सोलह हजार देव आधीन, ऐसा नरदेव जिसे एवरेज कुल मिलाकर ऐसा माना है।
चक्रवर्ती कहते हैं, अपार वैभव में भी सार - भग.श.1 संचिट्ठण
नही लगता, तब संयम जीवन धारण कर 32) साढ़े चार मिनट का आयुष्य कम होने से भव पार करते है। चार अनुत्तर विमान वासी देवों मे ऐसे देव है,
"जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति" जिनको लवसप्तम देव के नाम से पुकारा
36) चक्रवर्ती का चक्र रत्न जाता है। क्यों? पूर्व अणगार धर्म की आराधना चक्रवर्ती बनोगे एसा भावी संकेत देने वाला, करते करते अनंत अनंत कर्म वर्गणा का क्षय 14 रत्नों में प्रधान रत्न "चक्र रत्न" - रथ के करते हैं। परन्त सात लव (लगभग 4 1/2 पहिए जैसा होता है । उसकी नाभि में वज्र मिनट) जितना और संयम का समय लम्बा और लोहिताक्ष रत्न के परिधि जाबूनंद रत्न होता तो सिद्ध भगवंत बन जाते । केवल सात की, 1000 देव उसकी सेवा मे रहते है । लव आयुष्य कम था । सात लव कम समय चक्रवर्ती के कुल के सिवाय अन्य किसी पर भी ।। का फल .... एक भवावतारी बन गए।
छोडने पर उसका मस्तक छेदन करके ही
आता है। आकाश में चलने वाला रत्न - छह भग.श.सूत्र. 6
खण्ड साधने का मार्ग बताता है। 33) एक किनारे से दूसरा किनारा
“जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति" जीव व जड़ में कितनी शक्ति है । दोनों 1 | 37) शक्रेन्द्र एक भव में असंख्य तीर्थंकरो का समय में 14 राजु लोक (असंख्य योजन रूप) जन्माभिषेक करता है। को इस किनारे से उस किनारे तक गति करते
तीर्थंकर नाम कर्म के उदय वाली आत्मा का है। परमाणु भी एक समय में असंख्य योजन
64 इन्द्र मेरु पर्वत के पण्डग वन पर (14 राजु लोक) को पार कर लेता है।
जन्माभिषेक करते है। आश्चर्य ! एक शकेन्द्र
भगवती सूत्र महाराज अपने एक भव में असंख्य तीर्थंकरो 34) जीव कहाँ जाता है ? किस तरह ?
का जन्माभिषेक करते है। मृत्यु के समय जीव के निकलने को निर्याण
“जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति" मार्ग (5) माने गये है।
38) एक पिता के कितने पुत्र? एक पुत्र के कितने
पिता? आत्म प्रदेश पैर से निकलते है - गति - "नरक" आत्म प्रदेश कमर से निकलते है - गति -
है ना सवाल ? "तिर्यञ्च"
सर्वज्ञों का ज्ञान एक्सरे से भी अधिक सूक्ष्म आत्म प्रदेश छाती के भाग से - गति - “मनुष्य",
अवगाहक ज्ञान है।
34
Page #59
--------------------------------------------------------------------------
________________
गर्भ में जीव मनुष्याणी के शरीर में जघन्य अन्तर मुहुर्त उत्कृष्ट चौबीस वर्ष रह सकता है ।
तिर्यञ्चाणी के शरीर मे सोलह वर्ष रह सकता है, और आश्चर्य यह है कि, एक बालक के प्रत्येक सौ (200 से 900 पिता हो सकते हैं, और एक पिता के उत्कृष्ट प्रत्येक लाख (2 से 9 लाख) पुत्र हो सकते हैं ।
भग. श. 1
39) आश्चर्य (अच्छेरा)
आश्चर्य का अर्थ जो घटना अनंत काल बाद घटती हो। अतः अनहोनी नही कहना, भूतकाल में अनंत तीर्थंकर मल्लि भगवती की तरह स्त्रीलिंग रूप में सिद्ध हुए है । ठाणांग सूत्र 10 (2) 40) एक पल्योपम में असंख्य वासुदेव :
तीन खण्ड के अधिपति वासुदेव नरक में ही •जाते हैं । अरे ! आश्चर्य यह है प्रत्येक पल्योपम काल में असंख्य-साधु, संयम की कमाई से प्रचण्ड पुण्य इकट्ठे करके भी सजगता के अभाव . में निदान करके नरक गति में चले जाते है, और नरक की वेदना भोगते है ।
ठाणांग सूत्र
41) वज्र की कलम रत्नों के कागज
वर्तमान समय में कागज की किताबों का भण्डार भरा है। मनुष्य लोक में तो किताब है, परन्तु देवलोक में भी पुस्तक रत्न होता है । आश्चर्य, उस पुस्तक रत्न के पुट्टे रिष्ट रत्न के बंधन, सोने के धागे से, और कागज अंक रत्न के होते है, रिष्ट रत्न की स्याही और वज्र की कलम, रिष्ट रत्न के अक्षर और " पुस्तक रत्न" शाश्वत होता है ।
जीवाभिगम सूत्र
42) एक मुहुर्त में चार गति का भ्रमण क्या ? एक मुहुर्त में चारों गतिकी स्पर्शना
35
जीव कर सकता है ? हां कर सकता है, कैसे ? कल्पना से समझे, इस प्रकार 7 वी नारकी भव का 2 मिनट - ( अन्तिम ) यहाँ से काल करके तिर्यञ्च सन्नी के भव में 4.5 मिनट पर मनुष्य का भव 4-5 मिनट फिर तिर्यञ्च योनी में सन्नी का भव में 4-5 मिनट और फिर वहाँ से 8वां देवलोक में इस प्रकार एक मुहुर्त में
(48 मिनट) में 5 भवों में चार गति का स्पर्श हुआ ।
यहाँ (आयु) 48 मिनट के समय के आधार पर चार गति का स्पर्श हुआ, ऐसा बताया गया है । नारकी और देव भव के 2-2 मिनट लिए ऐसा समझना। पूरे भव का घाल नही । भग. सू. 24 43) कितनी आयु वाला नरक देव मे जावें
सन्नी तिर्यञ्च अन्तर्मुहुर्त की उम्रवाला सातवीं नरक में जाता है, परन्तु मनुष्य अन्तरमुहुर्त में नही जाता है, कम से कम प्रत्येक मास, (7-8) मास वाला ही प्रथम नरक में भवनपति देव, वाणव्यंतर में जाता है। एक से ऊपर की नरक व ऊपर के देवों में जाने के लिए प्रत्येक वर्ष की उम्र होना मनुष्य के लिए आवश्यक है, कहाँ अन्तर मुहुर्त कहाँ प्रत्येक वर्ष तिर्यञ्च व मनुष्य में अन्तर ।
भग. श. 24
44) आँख व कान से भी सुना जा सकता है, क्या ?
आत्मा के पास अद्भूत शक्तियां है । कितनी शक्तियें लब्धिओं से उत्पन्न होती है, ऐसी ही एक लब्धि है, संभिन्न श्रोत लब्धि कान से सुनना, ये सभी जानते है, मानते है, परन्तु नाक, आँख, जीभ से सुना जाता हो, ऐसा सुना कभी क्या ? हाँ संमिन्न श्रोत लब्धि धारी साधक किसी भी इन्द्रिय से सुन सकता है ।
उववाई सूत्र
Page #60
--------------------------------------------------------------------------
________________
45 ) " न खाया, न भोगा, फिर भी नरक गया”
मच्छ है, नाम तंदुल मच्छ | चावल के दाने जितना ही शरीर : अतः नाम पड़ा "तंदुल
मच्छ"
व्हेल मछली के भी भोपड़ों पर बैठा सोचता है कि सैकड़ो मछलिएँ मुँह से निकल रही है, आ जा रही है । वह सोचता है कि यदि इस जगह मैं होता, तो एक भी मछली को जिन्दा नहीं छोड़ता । कुल मुहुर्त प्रमाण भी उम्र नही है, उस तंदुल मच्छ की, उस क्रुर परिणाम में मरकर 33 सागरोपन की उम्र वाला सातवीं नरक का नैरियक बनता है । न खाया, न भोगा, फिर भी नरक, यानि अशुभ भावों का चमत्कार |
46) एक वर्षा से दस हजार वर्ष तक सरसता चार मेघ (बादल) के प्रकार होते है । 1. पुष्करावर्त मेघ एक वर्षा से 10,000 वर्ष तक धरती में सरसता बनी रहती है ।
-
:
2. प्रद्युम्न मेघ : एक वर्षा से 1000 वर्ष तक धरती में सरसता बनी रहती है । 3. जीमूत एक वर्षा से 100 वर्ष तक, 4. जिम्ह: ऐसा मेघ जिसके बरसने पर भी फसल हो या ना भी होवे । पुष्करावर्त मेघ के समान तीर्थंकर ज्ञान वर्षा द्वारा सैंकड़ो, हजारो वर्ष तक जीवों का कल्याण करते रहते हैं ।
ठाणांग सूत्र 4था ठाणा
47) एक मिनट के भोग के पीछे, दुःख 87673411 पल्योपम प्रमाण,
एक वैरागी की कथा नाम संभूत, बना मुनि, नियाणा कर बैठा बना ब्रह्मदत्त चक्री, भोगों मे डूबा, कुल सात सौ वर्ष का भौतिक भोग भोगा, मरकर सातवीं नरक में 33 सागर का नैरियक बना, सार 1 मिनट प्रमाण ब्रह्मदत्त चक्री का भोग के बदले में सातवी नरक में
36
89693411 पल्योपम प्रमाण दुःख भोग रहा है । सुख थोड़ा, दुःख घणा । उत्तरा 13 वाँ अ. 48) एक मिनट के संयम के बदले सर्वार्थ सिद्ध - 8387684829 पल्योपम का सुख
एक था अणगार, नाम था धन्ना, संयम का वरण, उग्र तपस्वी महावीर ने “तवे सूरा” अणगारों में प्रधान धन्ना मुनि को माना, कुल नव मास का संयम पर्याय में सर्वार्थ सिद्ध विमान
-
• एक भवावतारी बन गया. 1 मिनट के संयम पर्याय से सर्वार्थ सिद्ध विमान देव का 8387684829 पल्योपम प्रमाण सुख। कुल 33 सागरोपम पा गया । धन्य है, धन्ना अणगार को अणुत्तरोववाई सूत्र
49 ) जीव के माँ का घर कौन सा ?
अव्यवहार राशि में निगोद पर्याय (तिर्यञ्चगति) में अनंता अनंत काल वही रहा था। माता का घर अव्यवहार राशि मे निगोद पर्याय थी ।
50) “सिद्ध बनने का पास पोर्ट समकित "
सम्यक्त्व प्राप्ति के बाद देशोन अर्द्ध पुद्गल परावर्तन काल में जीव नियमा सिद्ध बनता है । एक जीव प्रथम बार समकिती बनने के अन्तः मुहुर्त में भी सिद्ध बन जाता है। इस . में काल व पुरुषार्थ दोनों अपेक्षित है ।
पण्णवणापद 18
-
51) डॉ. का डॉ. हरिणगमैषी देव
शक्रेन्द्र महाराज का दूत जिसे हरिणगमैषी देव भी कहते है । शक्रेन्द्र आज्ञा प्राप्त होते ही ऐसा ऑपरेशन अन्तर मुहुर्त में कर देता है "गर्भ हरण" । अन्य माता का गर्भ का बदलाव करना । बिना पेट के चीर, फाड़, ऐसा ऑपरेशन कि बिना किसी को पीड़ा पहुँचाये, वेदना भी न होने देवे, और आज का आधुनिक डॉ बनने से पहले कितनी पंचेन्द्रिय हत्या कर चुका होता है । भग श 5 3.4
Page #61
--------------------------------------------------------------------------
________________
52) साधन अनंत, बिना समझ, नही अन्त
क्षण मात्र की भूख सहन करने से जितने कर्म मेरु पर्वत जितने औघे पात्र, भण्डोपकरण, क्षय करते हैं, उतनी निर्जरा नारकी के जीव मुहपत्ती आदि धारण कर लिए, अनंत वार
100-वर्ष में भी नहीं करते है । अणगार एक नवग्रैवेयक देव लोक में जा चुका है, द्रव्य
उपवास में जितने कर्म का क्षय करते है, नारकी चारित्र का पालन उच्च कोटि कर चुका है। जीव एक हजार वर्ष में भी नहीं कर सकते है । इन सब का फल क्या मिला? नवग्रैवेयक व साधु एक छट्ट की तप से जितनी निर्जरा करते नीचे के देवों का सुख बस । मोक्ष मार्ग प्रयाण है, उतनी नारकी जीव 1 लाख वर्ष में भी नहीं नहीं | कारण : आत्मिक लक्ष्य के बिना नही कर सकते है । नारकी जीवों के कर्म चिकने होते होता संसार सागर पार ।
है । अणगार भगवंत के कर्म लूखे होते है, पन्नवणा पद 15
नारकी परवश आहार छोड़ता है। मुनि भगवंत 53) ज्वार-भाटा क्यों?
स्वाधीनता से आहार छोड़ते हैं ।
भग.श 16 उ० 4 लवण समुद्र के चारों दिशाओं में चार मोटे पाताल कलश है। गहराई 1,00,000 योजन
56) परमाधामी क्या करते हैं? है। 1 लाख का कलश, नीचे चौडाई दस नारकी में दस प्रकार की क्षेत्र वेदना तो होती हजार, ऊपर का मुँह दस हजार योजन ।
है। साथ 1 से 3 नारकी में असंख्य परमाधामी बीच में चौडाइ 1 लाख योजन | कुल 4 बड़े (असुरकुमार के सदस्य) देव उन असंख्य कलश है। घडे भी करीब करीब हजार योजन नारकी के जीवों को वेदना, उनके पाप याद के है । नीचे वाय, बीच में पानी - हवा तथा
करा करा कर देते है। ऊपर पानी । ऐसे तीन हिस्से है। अमावस्या, परमाधामी देवो से भी नारकी जीव ज्यादा होते पूर्णिमा चौदस, अष्टमी इन विशेष तिथि के है। कभी कभी तो नारकी जीव मिलकर उस दिन वायु काय के जीवों की बढ़ोतरी व वैक्रिय देव को भी परितापना दे देते है। परन्तु अन्त में होने से ज्वार तथा घटने पर भाटा होता है। तो नारकी जीवों की ही दयनीय दशा होती है। ये चारों पाताल कलश शाश्वत है।
परमाधामी से भी पहली नारकी के जीव की ठाणाग सूत्र 4था ठाणा संख्या ज्यादा होती है । 54) भावना से बंधन व मुक्ति
भग. श. 8 उ.6 संसारी आत्मा आठ कर्मों से बंधी है । जिस | 57) भूख - प्यास कितनी है, जीवों की? समय जैसा भाव परिणाम होता है, उसीके जिस प्रकार भस्मक रोगी को जितना भी अनुसार कर्म बंध होता है । प्रतिक्षण सात खिलाया जाय, सब भस्म हो जाता है। उसी कर्म बंधते है। आयष्य कर्म जीवों में एक बार प्रकार नारकी में महा भस्मक, रोग हो मानो, (एक भव में) ही बंधता है। एक समय में बांधे आश्चर्य यह है कि, संसार का सभी पानी कर्म रज को यदि गिनना चाहे तो अनंतानंत
पिलावे व अन्न खिलावे तो भी उसकी प्यास व की संख्या होगी । “परिणामो बंध"
भूख नहीं मिटती है । सदैव भूख व प्यास से उत्तरा. 33
पीड़ित ही रहते है वे । 55) अल्प वेदना - महानिर्जरा, महावेदना -
जीवाभिगम सूत्र अल्पनिर्जरा
58) अग्नि की भूमि में शांति से नींद आजावे नारकी जीव वेदना अधिक भोगते है । परन्तु टाटा व भिलाई के कारखानों की बड़ी बड़ी निर्जरा बहुत कम करते हैं । अणगार भगवंत । लौह गलाने वाली भट्टियां, जहाँ क्षण मात्र में
Page #62
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोहा पिघल जाता हो, आश्चर्य....ऐसी भट्ठी की भीषण गर्मी में यदि उस नैरियक जीव को रख दिया जाये तो, गहरी नींद आजावेगी । परम शीतलता का मानो अनुभव हो रहा हो । टाटा की भट्टी से अनंत गुणी गरमी है वहां
जीवाभिगम 59) परम शांति कहां पर है ?
परमाधामी देवो का मुख्य काम क्या है ? नारकी के जीवों को और अधिक दुःखी करना । क्षेत्र वेदना से तो वे दुःखी है ही। परकृत वेदना से और भयंकर दुःखी होते है। सार..... अन्य को सताना, परितापित करना, खेदित करना, शोक पहुँचाना, भयभीत रखना आदि मिथ्यादृष्टि के लक्षण है। आपको पता होगा या न होगा, परन्तु परमाधामी व किल्विषी (निंदक) देव नियमतः मिथ्यादृष्टि ही होते है। हमारे में भी यदि अन्यों को दुःख देने मे आनंद व निंदा करने में आनंद मानने की शर्त है तो .....गया जन्म हाथ से हार....हार.....हार
चिन्तन 60) शीत वेदना सबसे अधिक भयानक
एक से तीन नारकी में उष्ण वेदना होती है । चार, पांच में उष्ण व शीत दोनों वेदना होती है । छट्ठी व सातवीं में शीत वेदना होती है । हिमालय पर्वत पर भी उस शीत वेदना वाले नैरियक को सुलादे तो शांति से नींद आजावे, यहाँ की ठण्ड से नारकी में अनंत गुणी ठंड है। व्यवहार में भी उष्ण वेदना से शीत वेदना भयंकर कही गई है।
जीवाभिगम
"गर्मी जावे मुट्ठी जीरा से
ठंडी नही जावे मुट्ठी हीरा से" (कहावत) 61) तिर्यञ्चों में भी विनय व्यवहार, परन्तु मानव
क्यों भूला आचार व्यवहारों के अनेक प्रकार में विनय व्यवहार भी एक माना है । सत्कार सन्मान, छोटे बड़े का भेद, बड़े के आने पर खडे होना, अभिवादन , नमन आसन देना, लेने, छोड़ने जाना, ये सभ्य व्यवहार देवताओं, मानवों मे तो होते ही है। अरे आश्चर्य तो है ! सन्नी तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय जीव भी परस्पर विनय व्यवहार करते है - लेने जाना, छोड़ने जाना, दोनों हाथ जोडना, है ना ? तिर्यञ्च का सभ्य व्यवहार परन्तु आज का आदमी इन विनय व्यवहारो को भूलता जा रहा है । क्यों ?
भग. श. 14 उ.3 62) आपको उन्माद है क्या ?
उन्माद - योग्य, अयोग्य का विवेक गुमा देना । मन काबू से बाहर होना । उन्माद के दो प्रकार : 1) यक्षका उन्माद 2) मोह का उन्माद यक्ष भूत - प्रेत आदि का उन्माद तो मनुष्य क्या, पृथ्वी पति आदि पर हो सकता है, और वापिस सुख से निकाला जा सकता है, . परन्तु महा भयंकर उन्माद है मोह का, जिसको निकालने का कार्य साधारण नही, असाधारण है, महा मेहनत व जिनशासन की साधना से ही इससे छुटकारा हो सकता हैं।
भग.श 1. उ7 63) देव, पत्थर में प्रवेश करता है क्या ?
हां, देव पत्थर में प्रवेश कर सकते है | पत्थर चलने लगता है, वनस्पति के रंग बदलने लगते हैं। जैसे टी.वी का रिमोट कंट्रोल आपके हाथ में है, वैसे ही पुद्गल पर देव अपना असर बता सकते हैं।
भग सूत्र.13 उ7
Page #63
--------------------------------------------------------------------------
________________
64) लोक का अन्त है, निगोद जीवों का नहीं
अन्त :
लोक असंख्यात प्रदेशी है । जिसका अन्त है, परन्तु एक निगोद (सुई के नोक जितना हिस्सा भी नहीं) में, इतने जीव है कि एक एक जीव को लोक के एक-एक आकाश पर रखे तो अनंत लोक चाहिए अर्थात् निगोद के जीवो का अन्त नहीं, अतः अनंत है ।
जीवाभिगम सूत्र
66 ) द्वीप व समुद्र कितने है ?
-
प्रथम द्वीप, जंबू द्वीप, उसके आगे चूड़ी के आकार का समुन्दर फिर द्वीप, इस तरह कुल असंख्यात द्वीप व असंख्यात समुन्दर है । प्रथम द्वीप जंबूद्वीप, अन्तिम द्वीप है स्वयं भूरमण द्वीप । प्रथम समुन्दर है लवण समुन्दर, जब कि अन्तिम समुन्दर का नाम है, स्वयं भूरमण समुन्दर ।
जीवाभिगम सूत्र
67) मस्तक का करते हैं चूरा ।
नहीं कर सकते मोह चूरा | जो करते है मोह का चूरा ।
वे ही होते जगत के शूरा || प्रथम सौधर्म देव लोक का इन्द्र - शक्रेन्द्र, अनेक दैविक शक्तियों का धारी होता है। किसी व्यक्ति के मस्तक को काट दे, चूरा चूरा कर दे और पुनः मस्तक बना कर वापिस लगा दे, उस व्यक्ति को किंचित मात्र भी खेद न पहुँचे कि मेरा छेदन भेदन भी हुआ था । ऐसी शक्ति और अनेक शक्तिओं का धारक चारित्र को ग्रहण नहीं कर सकता है। मोह कर्म को क्षय करने की देव में भी क्षमता नहीं है। है तो एक मनुष्य में । उठाले लाभ..... भग श. 14 उ० 8
68) मनुष्यों में क्या, देवों मे भी संघर्ष है ? मनुष्य- मनुष्य, पशु-पशु, नैरयिक-नैरयिक, ये तो आपस में संघर्ष करते है, परन्तु अथाह
39
भौतिकता से संपन्न देव भी परस्पर संघर्ष करते हैं । भवनपति हल्के देव, वैमानिक ऊँचे देव माने गये है । देवों और असुरों में भी संघर्ष होता है, वैमानिक यदि पत्थर के कभी हाथ लगावे मानो शिलागिरि हो, पत्र के भी हाथ स्पर्श मानो तलवार चलाई हो, देवों के स्पर्श से ही वे पुद्गल शस्त्र बन जाते है ।
भग. श. 18 उ. 7
69) साता से असाता के उदय में सिद्ध बने अधिक ?
संसार में (जीव) साता वेदनीय भोगते है । हर समय 16 ढ़ेर जितने तो साता भोगते है, 240 देर जितने असाता अर्थात् साता से असाता 15 गुना अधिक जीव हर समय भोगते है । 14 वें गुणस्थान के अन्तिम समय में असाता का उदय अधिक जीवों को होता है । असाता वाले जीव ही ज्यादा है, प्रति 16 वां जीव (एक ही) साता भोगता है । और पंद्रह जीव असाता वेदते है, सर्वज्ञो का कथन कितना सत्य है, जिधर देखो उधर असाता ही तो ज्यादा नजर आ रही है ।
पनवणा सूत्र पद 3 70) सर्व जीव हमारे रिश्तेदार रह चुके हैं क्या ?
हाँ ! हमारी आत्मा ने सर्व जीवों के साथ एक बार अनेकबार, जितने संसार में रिश्ते नाते हैं, वे सभी बनाये हैं। ऐसा कोई यहाँ जीव नहीं, जो हमारा अपना न हो ।
जब सब से ही रिश्ता है, फिर संसार में कलह क्यों ?
71) गंभीरता से अल्प पुण्य क्षय
भगवती सूत्र
वाणव्यंतर देव जितना पुण्य सौ वर्ष में खर्च करता है, उतना ही पुण्य अनुत्तर विमान वासी देव पाँच लाख वर्ष में खर्च करता है। कुतुहल
Page #64
--------------------------------------------------------------------------
________________
वृति से पुण्य जल्दी क्षय होता है। गंभीरता व उत्तरवैक्रिय न करने से धीरे धीरे खर्च होता है । जहाँ आसक्ति अधिक वहाँ पुण्य क्षय भी अधिक ।
भग. श. 18 उ. 7
72) सीमंधर स्वामी महाविदेह में बोलते है । 14 पूर्वधारी मुनि यहाँ भरत क्षेत्र में बैठे बैठे सुनते हैं ।
14 पूर्व धारी ज्ञानी मुनि को शंका होने पर आहारक शरीर (एक हाथ प्रमाण) एक पुतला बनाकर भेजते हैं, तीर्थंकर के पास। जो सीमंधर स्वामी फरमाते है, पुतला सुनता है, यहाँ मुनि भी, बैठे बैठे सब सुन रहे है, जवाब सुन लेते हैं ।
पनवणा पद - 21
73) एक से बनावे हजार ! कौन?
14 पूर्व धारी लब्धि धारी मुनिराज के पास “उक्करिया भेय” (उत्करी का भेद) लब्धि होती है। जिस के बल से वे मुनिराज 1 घड़े में से 1000 घड़े बना लेते है । 1 वस्त्र से 1000 वस्त्र बना देते है । 1 रथ से 1000 रथ, बना देते है | 1 दंड से हजार दंड बना देते है । 1 क्षण भर पहले जहाँ एक वस्तु दिखती थी, वहाँ पर 1000 वस्तुएं दिखती है। वाहरे जिनशासन जिससे कोई नही पाता पार ।
74) चार शरीरों को अनंत बार पा लिया : औदारिक शरीर, वैक्रिय, तैजस व कार्मण शरीर इन चारों शरीरों को जीव अनंत बार प्राप्त कर चुका है। विविध रूप बनावें, वैक्रिय शरीर सब से कम मिला, आहारक शरीर तो शायद नही मिला होगा। पूरा लोक भर जाए, इतने शरीरों को धारण कर-कर के छोड़े, परन्तु सार नही निकला ना । शरीर माध्यम खलु धर्म साधनम् धर्म करणी का माध्यम शरीर ही है। सदुपयोग होवे शरीर का ...
पनवणा पद 21
40
75) असंख्य का साथ असंख्य बार चार गति में परिभ्रमण करते जीव के हुए साथ अन्य जीव भी साथ जन्म लेते हैं । कभी नहीं भी लेते हैं ।
नारकी में अकेले जाने वाले बहुत थोडे है । जबकि असंख्य साथ जाने वाले असंख्यात गुणा अधिक है ।
76) असंख्य जीवों में एक को मनुष्य जन्म देव भी चाहना रखते है कि मानव भव मुझे मिले ।
एक समय में च्यवन वाले असंख्य देवों में किसी एक देव को मनुष्य भव मिलता है। शेष सभी देव तिर्यञ्च गति में जाते है । असंख्य देवों में एक देव को मानव भव प्राप्त होता है । प्रबल पुण्योदय के बिना मानव जन्म महामुश्किल से मिलता हैं ।
भग. श. 20 उ० 10 77 ) असंख्यात चन्द्र, सूर्य स्थिर है
अढ़ाई द्वीप के बाहर जितने भी चन्द्र, सूर्य है सभी स्थिर है । जहाँ प्रकाश है, वहाँ प्रकाश है । जहाँ अंधकार है, वहाँ अंधकार है । किसी प्रकार का अंधकार, प्रकाश का परिवर्तन नहीं होता है ।
78)
आज जो सूर्य दिखता है, कल नहीं समय क्षेत्र कहो, मनुष्य क्षेत्र कहो, सूर्य घूमता है, चन्द्र घूमता है। आज जो सूर्य दिख रहा है, कल नही, तीसरे दिन पुनः दिखता है । जंबू द्वीप में दो सूर्य, दो चन्द्र है, कुल 21/2 द्वीप में 132 चन्द्र, 132 सूर्य ।
जीवाभिगम सूत्र
79) सूर्य की गति एक मुहुर्त में कितनी ?
मेरु पर्वत के चारों ओर घूमता हुआ सूर्य हमेशा एक ही स्थान पर उदय अस्त नहीं होता है । अलग अलग मार्ग (मांडला) है। कुल मांडला
Page #65
--------------------------------------------------------------------------
________________
184 है । आश्चर्य...सूर्य की गति जानते हो। । जितने सिद्ध होते है, उससे अधिक 1 समय प्रत्येक मुहुर्त में (48 मिनट में) 4 लाख 40
में नरक जाने वाले मिलते हैं। किलोमीटर की लगभग होती है।
पन्नवणा पद - 6 जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति 83) श्वास बिना - अनंत काल 80) मन की शक्ति कितनी अधिक
वनस्पति काय के जीव अपर्याप्त अवस्था में सुई की नोक पर असंख्य मच्छ रह सकते
काल करके वनस्पतिमें ही जन्म-मरण यदि है। इतनी सुक्ष्म (छोटी) अवगाहना का सन्नी
करते रहे तो अनंत काल बिता सकते है ।
चौथी पर्याप्ति पूर्ण हुए बिना ही काल करना, मच्छ अन्तर मुहुर्त की उम्र वाला मरकर सातवीं
ऐसा अनंत काल बीत सकता है | नरक में चला जाता है । 70560 अरब 1000000 वर्ष तक प्रतिदिन हजारों मच्छलियों
भग.श.24 को खाने वाला असन्नी मच्छ केवल पहली
84) विभिन्न प्रकार के पानी समुद्रो में होते है नरक में ही जाता है
समुद्र का पानी खारा ही होता है । ऐसा नहीं सातवीं नरक में जाने वाला मन सहित था,
है, असंख्य समुद्रो में से 1 समुन्दर (लवण वहाँ मन सहित होने से, क्रूर व निकाचित
समुद्र) ही खारा है । क्या अन्य विभिन्न स्वाद कर्म बंध होता है । क्रोड पूर्व वाला असन्नी
के होते है ? हाँ सभी असंख्य समुद्रो में से पंचेः मच्छ मात्रा काया से पाप करता है ।
सात को छोड़कर शेष सभी का पानी ईक्षु रस अल्प कर्म बंधता है । अतः पहली नरक में
जैसा स्वाद वाला है। जाता है।
कालोदधि, पुष्कर, स्वयंभू-रमण ये तीन समुद्र भग श.24
पानी के स्वाद है। 81) पुद्गल द्रव्य : (परिवर्तन)
वारुणी समुद्र - वारुणी के स्वाद वाला है। प्रत्येक वर्गणा का असंख्यात काल में उसका
क्षीर समुद्र - दूध के स्वाद वाला है | वर्ण गंधादि में नियमा परिवर्तन होता ही है।
धृत समुद्र - घी के स्वाद वाला है। सभी पुद्गल, सभी वर्गणा अमुक काल बाद में परिवर्तन होते ही रहते हैं।
लवण समुद्र - खारा स्वाद वाला है। भग.श. 12
जीवाभिगम 82) असंख्य काल में जितने सिद्ध हुए, एक
85) शरीरों की सूक्ष्मता का वर्णन समय में उससे अधिक नरक में जीव जन्में! अनंत जीव हैं वनस्पति काय में, असंख्यात सर्व श्रेष्ठ स्थान सिद्ध क्षेत्र, सर्व अधर्म स्थान
जीव है, चार स्थावर काय में सूक्ष्म जीवों का 7वीं नरक, समानता दोनों में एक है कि छः
शरीर तो सूक्ष्म है ही, परन्तु बादर जीवों का मास में कोई न कोई जीव अवश्य जन्म लेता
शरीर भी कितना सूक्ष्म है .... . है । है दोनों जग। रोज 2 जीव समुच्चय असंख्य निगोद (शरीर) जितना 1 वायु शरीर, नारकी में जन्म लेते है। रोज 2 जीव देवलोक
असंख्य वायु काय जीवों का शरीर =1 तेउ में जाने वाले मिलते ही है। असंख्यात वर्षों में
शरीर
Page #66
--------------------------------------------------------------------------
________________
असंख्य तेउ काय जीवों का शरीर =1 अपकाय आगमकार फरमाते है, कि अंगुल के असंख्यात्वें जीव का शरीर
भाग प्रमाण क्षेत्र में असंख्य प्रदेश है । इस असंख्य अपकाय जीवों का शरीर =1 पृथ्वीकाय
बिन्दु ने असंख्यात आकाश प्रदेशो को अवगाहित के जीव का शरीर ।
किया है । प्रति समय एक-एक आकाश प्रदेश
भी यदि निकाले तो, असंख्य उत्सर्पिणी- असंख्य एक पृथ्वी काय का शरीर कितना बड़ा है ?
अवसर्पिणी काल बीत जाए फिर भी सभी प्रदेश एक सुई की नोक के हिस्से में असंख्य पृथ्वीका- इस बिन्दु के नहीं निकलते हैं। यिक जीव रहते है।
"सुहुमो य होई कालो, तत्तो सुहुम यर हवइ भग.सूत्र 17
खित्तं" उपरोक्त सूक्ष्म विषय को सूक्ष्म ज्ञानी 86) महाशिला कंटक संग्राम
सर्वज्ञ भगवंतो ने ही प्ररूपित किया है। पिता श्रेणिक, माता चेलना के पुत्र आपस में | 89) नव वर्ष की उम्र में चार ज्ञान चौदह पूर्व का सहोदर भाई कोणिक, वेहल्ल । सेचनक हाथी ज्ञान क्या होता है ? व हार, वेहल्ल कुमार के पास थे | पद्मावती
14 पूर्वो का ज्ञान संयमी जीवन में ही होता राणी के निमित्त से कोणिक ने हार, हाथी मांगा
है। संयम धारण करने के बाद उच्च क्षयोपशम ? चेड़ा राजा की शरण में गया वैहल्ल । परिणाम
धारी (नववर्ष) कुछ ही दिनों में 14 पूर्वो का महाशिला कंटक संग्राम, एक दिन में
ज्ञान सीख लेता है । 4 ज्ञान भी हो जाते 98,00,000 की मौत । शस्त्रों के साथ साथ
है।आहारक लब्धि आदि लब्धियों को भी प्राप्त तिनका, पत्र, जो भी शत्रु पर फेंका जाता था,
कर लेता है । धन्य है, जिन शासन जिसमें, ऐसा लगता मानो महाशिला सिर पर गिर रही
नव वर्ष की ऊम्रवाला यदि संयम लेवें तो 4 हो।
ज्ञान तो क्या ?14 पूर्वो का ज्ञान व इन सब 87) रथ मूसल - संग्राम
से भी अधिक अनंत गुणा बड़ा व संपूर्ण ज्ञान चटनी बनाने के लिए मिक्सी में कोथमिरी आदि केवल ज्ञान प्राप्त कर लेता है, और उसी भव की जैसी दशा बनती है चमरेन्द्र ने कोणिक को में सिद्ध बुद्ध व मुक्त हो जाता है। सहयोग देकर रथ मूसल संग्राम में एक दिन में
पन्नवणा पद 3 86 लाख की मृत्यु हुई। रथ मसल संग्राम में
भग. ज्ञान लब्धि घोड़ा व सारथी बिना, परन्तु मूसल सहित
90) लोक में साधु श्रावक की कितनी संख्या : . रथ-शत्रु सेनापर जिधर जाता वहाँ नर संहार करता रहा । माँस व खून के कीचड़ की मानो
दुर्लभ क्या ? सम्यक्त्व सरिता बह रही हो, कोणिक राजा मरकर छट्टी
"सद्धा परम दुल्लहा" नरक में गया, उस समय उसके दस भाई भी अनंत मिथ्यात्वी जीवों के पीछे एक सम्यक्तवी युद्ध में मारे गये, नरक में गए ।
जीव होता है । असंख्य समकिती जीवों के भग.श.7. उ.7 एवं निरयावलिया सूत्र ।
पीछे एक जीव तिर्यंच श्रावक । असंख्य तिर्यञ्च 88) आकाश प्रदेश की सुक्ष्मता
श्रावको के पीछे एक मनुष्य श्रावक । संख्यात
मनुष्य श्रावको के पीछे एक संयमी, हजारो लोक (14 राजू) में अनंत जीव, अनंत अजीव
संयमी के पीछे एक वीतरागी सर्वज्ञ । कितना रहते है। लोक के प्रदेश कितने है ? असंख्य
दुर्लभ है संयम, उससे भी दुर्लभ उसका आकाश प्रदेशों की सूक्ष्मता का वर्णन करते हुए
आचरण व वीतरागता की प्राप्ति ।
Page #67
--------------------------------------------------------------------------
________________
1)
सद्गुणों की सौरभ
कठिन है अपनी बेटी पर अनुशासन और
नियंत्रण रखना, उससे भी ज्यादा कठिन दिन में कोई ऐसा काम न करो, कि रात में
है, अपने बेटे पर अनुशासन और नियंत्रण नींद न आये।
रखना, और बहुत कठिन है, अपनी पत्नी रात में कोई ऐसा काम न करो, जिससे पर अनुशासन और नियन्त्रण रखना, और दिन में मुँह छिपाना पड़े ।।
सबसे महा कठिन है अपनी स्वयं की आत्मा प्रत्येक जैनी को भोजन से पहले पाँच नवकार को अनुशासन और नियन्त्रण में रखना । गिनने चाहिए।
15) मैं ऐसा कोई कार्य नही करुंगा, जिससे 3) सन्त-सतीजी अगर गाँव में विराजते हों, मेरे श्रद्धेय को दुःख पहुँचे । तो प्रतिदिन कम से कम एक बार अवश्य
16) किसी भी प्राणी मात्र का अनिष्ट चिन्तन नहीं दर्शन करें और मांगलिक अवश्य सुने |
करूंगा। धार्मिक कार्य, सामायिक, प्रतिक्रमण और 17) दूसरों का अनिष्ट चिन्तन करना ही स्वयं धर्म-पाठशाला को सांसारिक कार्यों से भी
का अनिष्ट करना है। प्रथम स्थान देवें ॥
अच्छे लोग दूसरों के लिए जीते हैं, जब अगर मुँह से कहता हूँ तो मजा उल्फत कि दुष्ट दूसरों पर जीते हैं। (आपसी सद्भाव) का जाता है और खामोश
19) दीप तो बुझा मगर, अपना प्रकाश देकर । रहता हूँ तो कलेजा मुँह को आता है।
ज्ञान की गुरुवाणी सुनी, मोहमाया छोड़कर | प्रतिदिन घर में बड़ों को प्रणाम करने की
20) मृत्यु को रोक नहीं सकते हैं, परन्तु मृत्यु आदत होनी ही चाहिए ।
को सुधार सकते हैं, मृत्यु को सुधारने के .साधर्मिक व अतिथियों से जयजिनेन्द्र,
लिये जीवन सुधारो। प्रसन्नता से अवश्य करना चाहिए।
आम पकने के लिए इतनी राह मत देखो प्रतिदिन 12 मिनट (1/2 घड़ी) का संवर
कि आम सड़ जाए, धर्म करने की इतनी अवश्य करें । (कम से कम)
राह मत देखो कि आयुष्य पूर्ण हो जाए। माला के मणकों में जितने जाप छिपे है,
22) भूख लगने पर क्या करना ? ये गरीब की उनसे भी ज्यादा (शायद) मन में पाप छिपे
समस्या है, क्या करने से भूख लगती है
ये अमीर की समस्या है? 10) 'अहिंसा प्रधान धर्म' हमारा धर्म है।
23) ये शरीर मकान, पैसा और यह परिवार 11) अरिहन्त व सिद्ध वीतरागी देव को ही अपना सब कुछ पराया है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र आराध्य मानने से कल्याण होगा ।
व तप ये आत्मा के गुण ही मेरे हैं। 12) सु साधु (आचार्य, उपाध्याय, साधु) आदि | 24) मन्दिर, मस्जिद डोला मैं, किसे मिला
तीन पदों को ही अपना गुरु मानना चाहिए । भगवान? करुणा, सेवा, संयम से, स्वयं -13) अन्तर के आईने की जब सफाई हो जाएगी,
बनो भगवान । बादशाही तो क्या खुद खुदाई मिल जाएगी। । 25) "एक झूठ' अनेक झूठों को जन्म देता है।
Page #68
--------------------------------------------------------------------------
________________
26) कितने ही माता-पिता बालकों को बड़ा करते है, पर संस्कारित नहीं करते ।
27) अति खुशामद, अति सम्मान से सावधान हो ।
28) संत मिलते हैं तो, संवाद (अच्छी बात ) करते हैं, संसारी मिलते है तो विवाद करते हैं ।
29) पूरे संसार में एक ही व्यक्ति हमको हार दे सकता है, वह है हम स्वयं ।
30) जीवन की श्रेष्ठ पूंजी है 1) समझ शक्ति और 2) सहन शक्ति ।
31 ) 'मनुष्य का हृदय ही' सभी तीर्थों का स्थान है ।
32) जिन्दगी तो बेवफा है, एक दिन ठुकराएगी, मौत मेहबूबा है, अपने साथ लेकर जाएगी । 33) पुण्य का उदय होने पर अपरिचित को भी
आदर मिलता है, परन्तु पाप का उदय होने पर परिचित को धिक्कार मिलता है । 34) लड़की संस्कार की ज्योत से माँ-बाप का नाम रोशन करती है ।
लड़का धन के सदुपयोग से माँ-बाप का नाम रोशन करता हैं ।
35 ) मांगने पर देना, अच्छी बात है, किन्तु किसी की आवश्यकता समझते हुए बिना मांगे दे देना, इससे भी अच्छी बात है ।
36 ) इतना मत खाओ कि पचा न पाओ । 37)
39)
जो उचित है, उसे करने के लिए हर समय उचित है ।
38) जिन्दगी सिर्फ वर्षों में नही गिनी जाती, कभी कभी घटनाएँ ही सर्व श्रेष्ठ कलाकार होती हैं ।
अपना चेहरा कोई कितना भी छिपाए, लेकिन
44
40)
41)
'वक्त' हर शख्स को आईना दिखा देता है ।
44)
दुनिया में किसी व्यक्ति से अनबनाव, हकीकत में स्वयं के साथ ही अनबनाव हैं ।
शहर व गाँव की सम्पत्ति में क्या अन्तर है ? शहरी का दिल कठोर सीमेन्ट, कॉन्क्रीट के समान होता है ।
गाँव का दिल नरम कच्ची मिट्टी के समान होता है ।
42) समय बीतने पर धन में ब्याज की वृद्धि होती है । परन्तु समय बीतने पर 'जीवन धन' में घटोतरी होती है ।
शहरी उपर से औपचारिकता निभाता है, परंतु ग्रामीण व्यक्ति दिल से सत्कार सम्मान
करता I
43) इस भौतिक संसार में छः ककार वस्तुएँ हैं सार, (संसार की मांग) कुर्सी, कंचन, कामिणी, कामना, कोठी, कार ।
49)
चिन्ता चिता समान है, चिन्ता जिन्दे को जलाती है, और चिता=मुर्दे यानि मरे हुए को जलाती है ।
45) धर्म ध्यान जोर से करो, चिन्ता कभी मत करो ।
46) दवा लागू होने पर उसकी निशानी है, बुखार का उतरना व उपदेश लागू होने पर उसकी निशानी है, आचरण का सुधरना।
धर्म औषध है, मोक्ष आरोग्य
47 ) संसार रोग
है ।
48) मनुष्य के हृदय में यदि क्रोध है, तो फिर किसी दूसरे शत्रु की जरुरत नहीं है ।
तार भी टूटा, मगर अपना सुर बहाकर, आप तो चलते है, हमेशा ज्ञान गंगा बहाकर ।
Page #69
--------------------------------------------------------------------------
________________
50 ) इती चोखी, शिक्षा थाने कठेई नही मिलेला
। सिर्फ थाने एक कोम करनो पड़े ! सीधो साधो काम है, धर्म ध्यान करणों और " गुरुजी रे शरण आवणो सा”, धन्यवाद
सा !
51 ) बैलगाड़ी से पांच हाथ दूर, घोड़े से दस हाथ दूर, हाथी से सौ हाथ दूर, परन्तु दुर्जन से करोड़ों हाथ दूर रहना चाहिए ।।
52)
सम्पदा सैकड़ों मित्र बनाती है । विपदा मित्रों की परख कराती है ।
53) सबको सुधारने की जवाबदारी हमारी है भी नहीं, और हमारे अन्दर यह ताकत भी नहीं है।
54) चाह तन-मन को गुनहगार बना देती है, भूख इन्सान को गद्दार बना देती है ।
55) बँटवारे के समय घर की हर चीज के लिए झगड़ा करने वाले बेटे, दो चीज के लिए उदार बन जाते है, जिसका नाम है माँ-बाप |
56) ं दिल को सुधार लो, दुनिया स्वयं सुधर जाएगी ।
57) उजाला अपनी राहों का हमारे साथ रहने दो, न जाने किस गली में जिन्दगी की शाम हो जाए ।
58) यहाँ शंका रहित जीवन का नाम ही आत्म विश्वास है ।
59)
जय करनारा जिनवरा दुःख हरनारा देव, पाठ पढूं पहेलो प्रभु नमन तणो नितमेव । 60 ) जैन धर्म गुण प्रधान धर्म है। जिन शासन व्यक्ति प्रधान धर्म नही हैं। इसलिए व्यक्ति नहीं, गुण की प्रशंसा आत्मा को तारती है ।
45
61) जवानी में धीरज रखने की आशा रखना
व्यर्थ है, वृद्ध के पास तेज गति की आशा रखना व्यर्थ है ।
62) देखो अपने आपको, समझो अपने आप अपने को समझे बिना मिटे न भव सन्ताप ॥
63) पृथ्वी आकाश पानी में खोज करता है वैज्ञानिक, अंतर (आत्मा में) में खोज करता है ज्ञानी ।
64) दुर्लभ बोधि (निकट भविष्य में धर्म न मिलना)
बनने का कारण है, देव गुरु व धर्म की निंदा करना। ये निंदा हृदय को तुच्छ बनाती हैं ।
65) जिन शासन संपत्ति के दान से नहीं चलता है । परन्तु संतति (सन्तान) के दान से चलता है ।
66 ) दो अक्षर की करामात प्रथम है विश्व और विश्व में जन्म मरण में भटकाने वाले हैं "कर्म " ।
67) संसार के सभी पद कर्म के उदय से मिलते
है, परन्तु एक पद कर्म के क्षय से ही मिलता है, वह सिद्ध पद । अतः वह शाश्वत है ।
68 ) जो करता है, जितनी यहाँ चिकनी चुपड़ी बात । देता वह उतना अधिक, इस मन को सन्ताप ॥
69)
सरलता व अनीतिसे प्राप्त किया धन लम्बे काल तक नहीं टिक सकता है ।
70) तुम्हारे दुश्मन का भी बुरा मत बोलो, क्योंकि वह कल तुम्हारा मित्र बन सकता हैं ।
71) जो काम खुद कर सकते हो, दूसरों से मत करावो |
72) व्यक्ति के प्रभाव की खबर दूर से पड़ती है, और स्वभाव की खबर पास में रहने से होती है ।
Page #70
--------------------------------------------------------------------------
________________
73) धन देवे वह सेठ, धर्म देवे वह अरिहन्त, | 85) बड़ो को अधिकार दुःख देता है, छोटों को परन्तु गुण देवे वह गुरु होता है।
अहंकार दुःख देता है | 74) पेट की भूख आदमी को लाचार बनाती है, 86) नीति वाक्य : धन प्राप्त करो नीति से,
जबकि पैसे की भूख व्यक्ति को क्रूर बनाती धन खर्च करो रीति से धन उपयोग करो है । अतः सावधान रहना चाहिए ।
प्रीति से। 75) तन की आँख खुलती है, तो भगवान दिखाई
| 87) मार्ग आवे, मार्ग जावे, उन्हें कोई नही नहीं देता है, परन्तु जब मन की आँख
सतावे | खुलती है तो भगवान दिखाई देता है।
मानव ! भूतकाल कब याद करता है ? 76) गुरु तुम्हारे चरणों में आतम झोली खाली जब वर्तमान कमजोर होता है।
है, तन मन को दो चावल दे दो, भेट सुदामा सजा मनुष्य के शरीर को स्पर्शती है, जब वाली है।
कि क्षमा - आत्मा को (हृदय) स्पर्शती है । BIRTH IS A MESSAGE OF DEATH
90) देने के बाद भूल गया, उसका नाम है
“दान” | 78) दुनिया में सच्चा मनुष्य कड़वा लगता है,
बर्फ बेचने वाला पानी का पैसा (करता) परन्तु कपटी मनुष्य मीठा लगता है।
बनाता है। बर्फ खरीदने वाला पैसे का पानी 79) काल (मृत्यु) का कोई काल (समय) नहीं
बनाता है। होता।
मात्र अपच से ही पेट नही दुःखता है, 80) आप के पास क्या है ? इसका कोई मूल्य
ज्यादातर पड़ोसी के सुख को देखकर नहीं, आप क्या हैं? इसका अधिक मूल्य
दुःखता है।
93) शान्ति समान तप नहीं, सन्तोष समान सुख 81) धर्म, व्यक्ति का उसके ईश्वर से रिश्ते का नाम
नहीं, तृष्णा समान रोग नही, दया समान है, यह तो व्यक्ति की निजी सम्पत्ति है, इसे
धर्म नहीं। बाँटा नहीं जा सकता । किन्ही भी दो व्यक्तियों
94) सद्गुरुदेव अपने श्रद्धालु को धनवान ही . का धर्म एकसा नहीं हो सकता, समूह में तो
नहीं, धर्मवान प्रथम देखना चाहते है, संभव ही नहीं है, यह भी विचारणीय है कि
सेठ नहीं श्रेष्ठ देखना चाहते है। आत्मा के धरातल पर तो सब एक ही है। अतः
95) जीवन में संतोष सादगी व संयम होगा तो धर्म धरातल पर तो सभी समान है।
ही शान्ति मिलेगी। आलस्य, अज्ञान व अन्ध श्रद्धा, इन तीनों
96) दुनिया में दुःख बढ़ा हो ऐसी बात नहीं है, से बचो।
असली बात तो यह है कि सहन शक्ति 83) धर्म सुनो भले ही मात्र दो घड़ी, परन्तु
घटी है। याद रखो हर घड़ी।
97) सम्पत्ति से प्रसिद्धि व समृद्धि मिल सकती 84) लोग दुनिया में अहम से मरते है, या वहम
है, परन्तु शान्ति तो सद्बुद्धि से ही मिल से मरते है ?
सकती है।
92)
82)
आलस
Page #71
--------------------------------------------------------------------------
________________
98) दूध जलता है पानी जलने के बाद, आदमी ख : खाना (अन्न) रोता है, वक्त निकलने के बाद ।
ग : गुमाना (आयु) 99) नाथ के बिना का बलद (बैल) नियम के | 111) गरमी सूरज से निकलती है, तपना धरती बिना का मर्द, दोनों समान होते है ।
को पड़ता है। कर्म काया से होता है, भुगतना (स्वच्छंद)
आत्मा को पड़ता है ।। 100) जीवन में हवा बदलने से नही, मन बदलने | 112) कल का दिन किसने देखा, आज का दिन से ही, कल्याण होगा।
आँसू आए क्यूं ? जिन घड़ियों में हँस 101) जीवन को दर्पण जैसा बनाओ, दर्पण सबको | सकते हो, उन घड़ियो में रोए क्यूं । स्वीकार करता है, परन्तु संग्रह नहीं करता 113) ऊँचे स्थान में बैठना सभी चाहते हैं, परन्तु
ऊँचा बनने की चाहना, न करने से ही 102) जीवन को बुलडोज़र नहीं, परन्तु पानी
कल्याण होगा। का कुंजा बनाओ । बुलडोज़र नष्ट करने 114) प्रभाव प्रकट करे तो "संसारी", स्वभाव के काम आता है । और पानी का कुंजा प्रकट करे तो “सन्त"। प्यास बुझाने के काम आता है।
थके बिना का विश्राम व पके बिना फल में 103) जीवन में क्षमापना हार्ट से करना, मात्र मिठास, इन दोनों में आनंद नहीं आएगा। कार्ड से नहीं।
116) COMPARISION और COMPETITION छोड़कर 104) बोलने में बहुत मुश्किल से निकलने वाले COMPROMISE करने वाले को समाधि प्राप्त तीन शब्द है “मेरी भूल हुई" |
होती है। . 105) सुखी बनना हो तो जीभ को शुगर फैक्ट्री | 117) भूतकाल से सीखो, सुन्दर भविष्य की कल्पना • बनाओ और मगज को आईस फैक्ट्री करो, परन्तु वर्तमान में जीयो । बनाओ।
118) कर्म के उदय को स्वीकार करो, तत्व पर 106) खोटी प्रशंसा जीव को अच्छी लगती है, विचार करो, गुणों का सत्कार करो । परन्तु सच्ची टीका भी बुरी लगती है।
119) शिक्षण व संस्कार जीवन रथ के दो पहिए 107) नयन से आंसू निकलता है तो दुःख घटता हैं, संस्कार बिना शिक्षण, तेल बिना दीपक
है, परन्तु हृदय से आंसू निकलते है तो, समान है। पाप धुलता है।
120) हमारा वर्तमान काल, हमारे भूतकाल का 108) जैसे डॉक्टर को तन के दोष बताते हैं,
प्रतिबिम्ब है, और हमारे वर्तमान के परिणाम वैसे ही गुरुदेव को मन के दोष बताना ही भविष्य के बीज है। चाहिए।
121) अच्छे दिखने के लिए सम्पत्ति की जरुरत 109) मानव सफलता को अपनी होशियारी मानता है । परन्तु अच्छा बनने के लिए तो संयम
है, और निष्फलता को नसीब मानता है । की ही जरुरत है। - 110) संसार क.ख.ग
122) पुण्य की गारण्टी : जिन्दगी भर आँख में कः कामना (धन)
रोग न होवे, रोशनी तेज बनी रहे।
Page #72
--------------------------------------------------------------------------
________________
123) धर्म की गारण्टी : जिन्दगी भर आँख में | 134) अरे भाई ! राम नहीं रामायण में । विकार ना होने देवे ।
श्री कृष्ण नहीं गीता में । 124) विषय कषाय में लगा हुआ मन संसार बढ़ाता
महावीर नहीं भगवती में। है, भगवान को सौंपा हुआ मन भगवान
ये सभी महापुरुष तो तेरे भीतर में ही है। बनाता है।
135) जीवन में पात्रता हो तो, गुरुदेव का दण्ड 125) सदा याद रखने योग्य : जीवन में आनेवाले भी केवल ज्ञान दे सकता है, और यदि प्रत्येक दुःख, पाप का नाश करता है, शर्त
पात्रता नही हो तो गुरुदेव का वरद हस्त है कि जो समता से भोगे तो।
भी संक्लेश (दुःख) का कारण बनता है | 126) शुभ मार्ग में खर्ची पूंजी ही, तुम्हारी पूंजी | 136) कुटुम्बी जनों के साथ झूठ बोलने वाला
हे , शेष सभी पूंजी के तो तुम सिर्फ चौकीदार मानव भगवान के पास सत्य बोलेगा, (रक्षक) हो।
शक्यता कम है। 127) जीवन जीना और जीवन कैसे जीना? | 137) जो दूसरों को सुखी रुप में नहीं देख सकता
दोनों में बड़ा अन्तर है, जीते है सभी परन्तु, | है, वह दूसरों को कभी सुखी नहीं बना उत्तम जीवन जीते हैं महापुरुष ।
सकता हैं। 128) परिवर्तन संसार का नियम है, जो आज | 138) इतने बड़े न बनो कि छोटो से बात भी
तुम्हारा है, कल किसी दूसरे का था, व | न कर सको। आने वाला कल में किसी और का होगा।
139) किसी को मैं कैसा लगता हूँ? 129) ईर्ष्या की ये विशेषता है कि दूसरे को जलावे किसीको मैं वैसा लगता हूँ?
या न जलावे परन्तु ईर्ष्या स्वयं का हृदय सदा चिन्तन करते रहना !
जलाकर खाक (राख) कर डालती हैं। मैं प्रभु को कैसा लगता हूँ ? 130) सौन्दर्य जितना वस्तु में है, उससे ज्यादा 140) घर से निकलना ये त्याग है, परन्तु आत्मा
मानव की दृष्टिमें हैं, अतः दृष्टि निर्मल में से घर का निकलना, वैराग है । बनावो।
141) संबंध बनाने व टिकाने में वर्षों लग जाते हैं, 131) भूल बताने वाले को फूल के समान समझें,
परन्तु बिगाड़ने में कुछ देर ही लगती है । वही धर्म होता है।
142) सर्जन हमेशा समय मांगता है, परन्तु 132) पत्थर घड़ने पर मूर्ति बनती है,
विसर्जन पल भर में हो सकता है । सोना घड़ने पर आभूषण बनता है, मिट्टी घड़ने पर आकार बनता है,
143) एक का भोग लेवे वह "कैन्सर", अनेक का मानव घड़ने पर भगवान बनता है।
भोग लेवे वह "क्रोध"I (Anger-ऐंगर) 133) उत्तम मानव बनने में पाँच तत्वों का समावेश | 144) इस संसार में भाई धोखा नहीं देता है, होता है, 1) पूर्व संस्कार 2) माता-पिता
परन्तु पाप धोखा देता है, पार्टनर धोखा 3) मित्र 4) संयोग 5) सन्त
नहीं देता है, परन्तु अपना पाप धोखा देता है।
Page #73
--------------------------------------------------------------------------
________________
145) सम्पत्ति देनेवाले बहुत लोग हैं, परन्तु समय | 156) सभी तुझे अच्छा मिला, तू नहीं तेरे पुण्य देने वाले बहुत थोड़े लोग हैं।
का फल है, और पुण्य को बांधता है धर्म | 146) परिस्थिति बदलने की ताकत परमात्मा में 157) धन तो बहुत घरों मे मिलता है, परन्तु
नहीं होती है, परन्तु मनःस्थिति बदलने मोटा-मन बहुत कम घरों (दिलों) मे मिलता
(सुधारने) की ताकत मानव में होती है। 147) अनन्त का भटकाया, सेवा नहीं की भगवान।
158) टुकड़ा न काम आता, टूटी हुई शमशीर सेवा नहीं की सद्गुरु की, छोड़या नहीं
का, देवता भी क्या करे, टूटी हुई (रुठी अभिमान ।।
हुई) तकदीर का । 148) शब्दों का महत्व जितना नहीं है उससे भी
159) जिसके भीतर गुणों का न्यास वही सन्यासी अधिक महत्व है कि शब्दों को कौन बोल
रहा है? 149) समस्या का समाधान पुण्य करता हैं, परन्तु
160) दुःख से मुक्ति के लिए स्वयं पर विजय धर्म तो समस्या को ही पैदा नहीं होने देता
प्राप्त करो।
161) तृष्णा दुःख का द्वार है। 150) पेट और पेटी जब खूब भरते है, तब आलस
162) धर्म की शरण में आना ही श्रेयस्कर है । और शत्रु पैदा होते है।
163) "मर्यादा” जीवन का सुरक्षा कवच है। 151) मिलती है देह मिट्टी में, परन्तु मानव का नाम जीता है । आत्मा (जीव)(शरीर
164) भीतर की गांठो को खोलने का पर्व है - छोड़ना)
“सम्वत्सरी” मृत्यु प्राप्त करता है, परन्तु उसके सत्कर्म 165) ध्यान का अर्थ है अन्तर्मुख होना । जीते है।
166) क्षमा सर्वोच्च धर्म है। 152) जो धन का दान करता है, वह धन का
167) क्षमा की शक्ति असीम है । मालिक है, परन्तु जो धन को केवल इकट्ठा
करता है व रक्षा करता है, वह वाचमैन है। 168) क्षमा में अद्भुत शक्ति है । 153) अपने लोग आपसे टूटने लगे समझो, 169) खिण निकमो रहनो नही, झलके सदा
महाभारत है, टूटे लोग पुनः जुड़ने लगे अधीर । बात पचावे पेट में, सो गहरो गंभीर । समझो रामायण है।
170) छम-छम बाजे धुंघरा, धम धम बाजे पाँव । 154) सन्त के पास गए फिर भी शान्ति नहीं
. सुख लक्ष्मी रा धूंधरा, मूर्ख बजावे पाँव । मिलती तो समझो कि अपने अन्दर ही कोई कमजोरी है।
171) दुनिया का मोटा पाप दो, पहला - आत्म
घात, दूसरा - गर्भपात 155) धर्म स्थानक में गए, परन्तु शुद्धि न कर सके, घर में गए परन्तु शान्ति न मिली,
| 172) आत्मघात में तो मनुष्य मरता है, परन्तु समझना अपनी ही कुछ भूल हैं।
गर्भपात में मनुष्यता (मिनखपणा) मरती
Page #74
--------------------------------------------------------------------------
________________
173) दूसरों पर नहीं तपना, दुनिया का सब से | 185) सासु गरम, बहु नरम | घर में रहेगी बड़ा तप है।
शरम | सासु नरम, बहु गरम । घर में 174) अपनी भूल को स्वीकारना, मोक्ष मार्ग का रहेगा धरम | सासु-बहु नरम | घर में हैं प्रथम पगथिया है।
शुभ धर्म | सासु गरम बहु गरम । उसके 175) रंगीन मकान रहते हुए भी, मन गमगीन
घर के फूटे कर्म ।। (उदास) है, क्यों कि मनुष्य की समझ संगीन 186) दुःख जितना दुःख नहीं देता, उससे भी नहीं है।
भयंकर दुःख आने का भय दुःख ज्यादा दान करने के लिए इन्कम बढ़ाने की जरुरत
देता है। नहीं हैं, अपना खर्च कम करने की जरुरत 187) हँसना मत यदि दुःख में हो पड़ोसी, बारी
आएगी तेरी भी। 177) जैन धर्म की कितनी उन्नति हुई? इसका
188) अंगूर मीठा तो होता है, किन्तु वह नही जो चिन्तन करने की बजाय, आपने जैन धर्म
पडोसी के बाग में लगता है (ईष्या)। का पालन करने में कितनी प्रगति की है, इसका चिन्तन करो।
189) बुद्धिमता बुजुर्ग का आभूषण है, और नम्रता
जवानों का। 178) हवा जब चलती है तो पत्ते टूट जाते हैं,धर्म
ध्यान करते हैं तो कर्म टूट जाते हैं। 190) तुम धर्मी बनो परन्तु सबको खराब समझने 179) हम दूसरों को मूर्ख समझते हैं, दूसरे भी
के लिए नहीं, इस बात को हमेशा याद
रखना। (हमको) समझते हैं वही, जो हम (उनको) समझते हैं।
191) समझौता ! एक अच्छा छाता भले बन 180) उपर से गिरा आदमी उठ सकता है, नजरों सकता है, परन्तु छत नहीं बन सकता हैं।
से गिरा आदमी नहीं उठ सकता हैं। 192) जीवन में सबसे अधिक कमजोर (पस्त) 181) धर्म की सबसे बड़ी प्रभावना क्या है ? करने वाली चीज है, निष्ठावान न होना ।
अपने जीवन को धर्ममय बनाना, जीवन 193) तुम्हारे पास जो चीज (वस्तु) नहीं है,उसे को सुधारना।
भूल जाने का नाम ही सुख है। 182) कमजोर इन्सान कभी सच्चाई का साथ
194) एक न एक दिन तो बिगड़ेगा सारा नही दे सकता, और कायर कभी उसूलों
संतुलन? उम्र तो घटती रही, और को निभा नहीं सकता।
ख्वाहिशें बढ़ती रहीं। 183) अगर हम समाधान का हिस्सा नहीं हैं, तो
195) चौदह आदमी साथ रह सकते है, अगर हम ही समस्या हैं।
प्रेम होवे तो, चार आदमी साथ नहीं रह 184) मौत की गाड़ी बिना सिग्नल के आयेगी।
सकते अगर वहम होवे तो। . 1) किसी का मत बिगाडो 2) किसी से मत बिगड़ो
196) सन्त दुःखो से नहीं डरते है, परन्तु दोषों 3) किसी पर मत बिगड़ो।
से डरते हैं।
Page #75
--------------------------------------------------------------------------
________________
197) सच्चा सुख प्राप्त करने में थोडा दुःख तो | 209) दान, शील, तप और भाव मोक्ष द्वार हैं। भोगना पड़ेगा भाई ?
210) मनुष्य भव को सार्थक बनाएँ। 198) धर्मात्मा को भगवान भी अपने साथ रखना 211) सुगन्ध निकलने के बाद फूल की क्या कीमत, चाहते हैं।
धर्म निकलने के बाद जीवन की क्या 199) धर्म, तप, व जप के फल की प्राप्ति में
कीमत? उतावली मत करो।
212) जीवन में पुण्य कम कमावे तो कोई बात
नहीं, परन्तु जीवन में पाप से दूर ही रहे 200) तारुफ रोग हो जाए तो उसको भूलना बेहतर ।
तो ही अच्छा रहेगा। ताल्लुक बोझ बन जाए तो उसको तोड़ना अच्छा ।
213) न खरचो नूर आँखो का, किसी के दोष
देखने में, मिली है आँख तो करलो दर्शन वो अफ़साना जिसे अंजाम तक लाना ना
संतो के। हो मुमकिन । उसे एक खुबसुरत मोड़ देकर छोडना अच्छा। 214) वहम को दूर करने के लिए कान की जगह,
ज्ञान से देखना सीखो। 201) पाना नहीं जीवन को; बदलना है साधना ।
215) सत्य के पुजारी मुसीबत से डरते नहीं हैं, 202) परमात्मा ने मात्र सुखकारी रास्ता (सर्जन) दिया है, दुःख तो स्वयं मनुष्य की पैदा की
मौत भी आए परन्तु पग पीछे धरते नहीं। गई वस्तु है।
216) जीवन पर्यन्त नया-नया ज्ञान सीखते रहना 203) सामान्य मनुष्यों का जीवन पुरुषार्थ (बुद्धि
चाहिए, ज्ञान ही धर्म कला सिखाता है । भी) की बजाय भाग्य से चलता है ।
217) सुनो प्रभु वचन, खिलेगा सद्गुण चमन
बनेगा जीवन नंदन वन, फिर मिलेगा सिद्ध 204). उदार हृदय के बिना धनवान भी एक
सदन। भिखारी ही है।
218) पत्थर में मात्र प्रतिमा ही छिपी हैं, परन्तु 205) हम वह थे कि जिसके सामने लोहा भी
आत्मा में तो परमात्मा छिपा है । मोम था, कैसे मोह-स्नेह की लौ में पिघल
219) समर्पण है तो शर्त नहीं, शर्त है तो समर्पण गए।
नहीं। 206) दुनिया को तलवार से नहीं, प्रेम से जीतो,
220) पिता के कच्चे मकान में पाँच पुत्र रह सकते विष को विष से नहीं अमृत की धार से
हैं, परन्तु पाँच पुत्रों के पाँच महल में पिता जीतो, आप किसीको जीतना चाहते हो तो,
को नहीं रख सकते हैं। फटकार से नहीं, प्यार से जीतो ।
221) हाय रे... मैं कौन हूँ ? मैं कहाँ से आया 207) नारकी जीव दुःख में दीन है, तिर्यंच पुण्य
हूँ ? मेरा क्या स्वरुप हैं ? मैं इन सम्बन्धों से हीन है । देव सुख में लीन हैं, मनुष्य
को रखू या त्याग करूं? इन सब से भिन्न है।
222) गुस्सा जिगर से जीभ में आता है, जीभ 208) जीवन में ज्योति बनकर जीना सीखो, ज्वाला
से हाथ पैरों मे आता हैं, परन्तु गुस्से की बनकर नहीं।
समाप्ति में पश्चाताप आता है।
Page #76
--------------------------------------------------------------------------
________________
223) "प्रेम से बोल"
2) चुप रहने के समय चुप न रहना । 224) एक छत के नीचे रहने से शांति नही मिलती, 236) धर्म प्राप्त करने के लिए वैर भाव को
एक समता-सौम्यता से रहने पर शांति छोड़ना। मिलती है।
237) सद्भाव को ग्रहण करना अति जरुरी है, 225) होंठ का हृदय में, जीभ का जीवन में, मुख क्योंकि पाप से भी कुसंस्कार भयंकर होते का मन में, आ जावे तो समझो मोक्ष नजदीक
238) प्राप्त करने में पुरुषार्थ, भोगने में संयम 226) निसरणी शरीर को ऊपर चढ़ाती है, सम्पति
और छोड़ने में आत्मिक शक्ति चाहिए । दिमाग को ऊपर चढ़ाती है, परन्तु सद्गुण 239) बेचैन मत होवो, तुम्हारे दोष देखने वाले आत्मा को मोक्ष पहुँचाता है ।
पर ! तुम्हारे दोष को, निकालने में वे मदद 227) तुझ में राम, मुझ में राम, सबमें राम
करते हैं। समाया है । करलो सभी से मैत्री, जगत 240) जीवन में सादगी, संयम होगा तो, शान्ति में कोई नहीं पराया है।
का अनुभव होगा। 228) शब्दों की ताकत परमाणु बम से भी अधिक |
241) बुद्धिमान बनने के दो उपाय :
1) थोड़ा पढ़ना, अधिक सोचना 229) संपति (Lease-समय सीमा)से मिली वस्तु 2) थोड़ा बोलना, अधिक सुनना ।
है। जब कि सद्गुण ओनरशिप (Ownership) 242) प्रतिष्ठा बढ़ाने के दो उपाय : से मिली वस्तु हैं।
1) हाथ की सच्चाई 230) पैसे से सुविधाएँ मिलती है, जब तक पुण्य
2) बात की सफाई का प्रभाव है, परन्तु सदगति तो परमात्मा
243) दो बातें निश्चित हैं : के धर्म से ही मिलती है।
1) जन्म के पीछे मरण 231) शरीर के सम्बन्ध में डॉक्टर की सलाह जरुरी है, आत्मा के सम्बन्ध में गुरु की
2) संयोग के पीछे वियोग सलाह जरुरी हैं।
244) संख्या की नहीं, गुण की कीमत है। 232) मन के पाप चिन्तन से, वचन के पाप जाप 245) भाग (बँटवारा) और भाई, इन दोनों की से, काया के पाप सेवा से क्षय होते हैं।
पसंदगी में भाई को ही पसंद करना, बँटवारा
तो दुश्मन से भी ले सकते हैं, परन्तु भाई 233) समझदारी का देव दूत जहाँ है, वहाँ स्वर्ग
भाग्य से ही मिलता हैं।
246) तुम्हारे नाम के (पहले) आगे स्व (स्वर्गीय) 234) जहाँ नादानी है, वहाँ बारह मास दुःख हैं।
लगे, उससे पहले स्व. (आत्मा) को पहचान 235) दो घटनाएँ मन की निर्मलता बताती है । लो। 1) बोलने के समय चुप रहना,
247) भगवान की सदा (कृपा लपी) अमृत वर्षा
Page #77
--------------------------------------------------------------------------
________________
होती है। 1) माता-पिता की सेवा करने 261) जीवन एक यात्रा हैं, मृत्यु एक पड़ाव । वालों पर, 2) पतिव्रता स्त्री के घर,
262) जीवन एक नाटक, और मृत्यु एक पटाक्षेप | 3) साधर्मी की सेवा करने वाले के घर, 4) सत्यवादी-ईमानदार व्यापारी के घर ।
263) मृत्यु भय और आतंक नहीं है, यह तो
सृष्टि की सुरक्षा, सौन्दर्यता और सरसता 248) दो समय में मस्तिष्क को शांत रखना,
1) कार्य में सफलता मिली हो । 2) असफलता मिली हो ।
264) न्यूनतम लेना, अधिकतम देना, और
श्रेष्ठतम जीना। 249) उत्साह एक बीज है - सफलता के फल लगते हैं।
265) नींद छोटी मृत्यु है, मृत्यु बड़ी नींद है । 250) समय पर टांका (Stitch), नये टांके से बचाता
266) माँ हँसती हैं बच्चों पर, मौत हंसती है हम
पर। 251) आदत नौकर की तरह हो तो ठीक, अगर 267) मृत्यु का स्मरण आते ही धर्म का मूल्य बढ़ आदत मालिक की तरह बन जावे तो अच्छा
जाता है। नहीं।
268) घर से बाहर निकलने से पहले बीमा 252) फैशन व व्यसन से बचो ।
करवाले? क्योंकि बाहर तो मौत मंडरा
रही है। 253) औदारिक शरीर में तीन दोष, (अस्थिर, मलिनता, परवशता)।
269) धर्म ध्यान करना ही जीवन का असली 254) लज्जावान में चार गुण - 1) दुराचार का
बीमा करवाना है। त्याग, 2) सदाचार का पालन, 3) धर्म | 270) किसी की अर्थी देखकर अपनी मृत्यु का पालन में दृढ़ता, 4) नम्रता की बढ़ोतरी
बोध ले लेवें, क्योंकि दूसरे की मृत्यु हमारे 255) निर्लज्जता पर दोहा :
लिए एक चुनौती है। निर्लज्ज नर लाजे नहीं, करो कोटि धिक्कार। |
271) अगर हमारे इरादे पवित्र हो तो मृत्यु सुखदाई
होगी। नाक कटने पर कहे, अंग ओछा भार ।
272) मृत्यु इस भव का अन्त, और दूसरे भव का 256) मृत्यु का पन्ना ही जीवन का मर्म जानता
प्रारम्भ है।
273) शरीर तो रोगों व बीमारियों का घर है । 257) मृत्यु जीवन का सबसे बड़ा शास्त्र है।
274) सच्चा धर्मात्मा वह है जिसका मस्तिष्क बर्फ 258) मृत्यु का स्वाध्याय ही जिन्दगी का असली
सा ठंडा हो, तथा जिसका हृदय मक्खन स्वाध्याय है।
सा कोमल हो। 259) बिना धर्म चिन्तन के व्रत नियमों की महत्ता
275) शुभ कार्य में कभी विलम्ब न करें। कैसे जान पायेंगे ?
276) जिसकी दृष्टि भाव पर, वह संतोषी, वह 260) जिन्दगी में धर्म ध्यान की किरण तो होनी । ही चाहिए।
सुखी ।
Page #78
--------------------------------------------------------------------------
________________
277) जिसकी दृष्टि अभाव पर, वह असंतोषी, | 289) हम कहाँ हैं? उसकी जगह हमारे में कौन वह असुखी।
बैठा है? इसका महत्व अधिक हैं। 278) धरती कहती है कि, अरबों लोगों के पेट के | 290) Main Gate पर ये अवश्य लिखो कि सभी खड्डों को मैं भर सकती हूँ, परन्तु इच्छाओं
के बिना चल सकता है, धर्म के बिना का खड्डा, एक व्यक्ति का भी भरना तो
नहीं। मेरी ताकत के बाहर की बात हैं।
291) मकान छोटा या बड़ा, जैसा भी हो, चल 279) अनन्त ज्ञानियों का सूत्र है : आवश्यकतायें सकता है, परन्तु मन को तो मोटा (बड़ा) जितनी कम होंगी, प्रसन्नता उतनी अधिक
रखना, सुखी बनने का श्रेष्ठ उपाय है। मिलेगी।
292) तुम्हारे से कोई डरे - उस जीवन की बजाय, 280) दूसरों पर दोषारोपण करने वाले जरा, अपने तुम्हारे को कोई नमस्कार करे (प्रणाम) श्रेष्ठ अंतरंग में झांककर तो देख, कि हम कितने
जीवन हैं। दूध के धुले हैं, कितने गहरे पानी में हैं।
293) जो तुम नायक बनना चाहते हो तो पहले 281) अहम्, आलस व अभिमान, करे मानव
लायक बनो। जीवन वीरान ।
294) जो सहन करता है, वो ही वहन कर सकता 282) जिन्दगी एक झूला है, कभी ऊपर, कभी नीचे ।
295) जिससे घटे पाप, जिससे मिटे ताप, जिससे 283) पेट बिगड़े वैसा खाना नहीं, मन बिगड़े
शांत होवे संताप, उसे कहते हैं जाप ।। वैसा सोचना नहीं, जीवन बिगड़े वैसा आचरण करना नहीं, मृत्यु बिगड़े ऐसा पाप करना
| 296) भगवती सूत्र में : तमेव सच्चं निसंकं, जं नहीं।
जिणेहिं पवेइयं, अर्थात जो जिनेन्द्र भगवान
ने फरमाया है, वही सत्य और निःशंक है। 284) याद रखें : आत्मा है, नित्य है, कर्म का
कर्ता है। कर्म का भोक्ता है, मोक्ष प्राप्त 297) आठ वचन व्यवहार : करने का उपाय है।
पहला बोल - थोड़ा बोल |
दूसरा बोल - मीठा बोल | 285) ज्ञानी जितने कर्म एक श्वासोश्वास में खपाता
तीसरा बोल - जरुरत होने पर बोल | (क्षय करता) है, उतने कर्म अज्ञानी करोड़ों
चौथा बोल - चतुराई से बोल | वर्षों में खपाता है।
पाँचवा बोल - घमंड से मत बोल। 286) नमस्कार पद पाँच है, पाप तणा हणनार |
छठाँ बोल - मर्म कारी भाषा मत बोल | सर्वजात के काम में, मंगल के करनार |
सातवाँ बोल - सूत्र के अनुसार बोल । 287) धर्म बाड़ी न निपजे, धर्म हाट न बिकाय, आठवाँ बोल- सभी जीवों के लिए साताकारी
धर्म विवेक निपजे, जे करिये ते थाय ।। बोल | 288) कषाय करो कम, खावो सदा गम। | 298) सभी आशाएँ पूर्ण होती नहीं, जैसे सभी
कषाय पर करे काबू, सदा रहे आबू । । रात्रियाँ पूर्णिमा होती नहीं।
Page #79
--------------------------------------------------------------------------
________________
299) जो मुसीबतों का बोझ उठा सकता हो, | 314) समय : हम समय के बदलने की प्रतीक्षा
वही सफल जीवन का अधिकारी बनता है। करने लगते हैं, तो समय हमें बदल देता 300) तीन को समझना मुश्किल है : 1) दुष्ट 2)
मूढ़ 3) व्युद ग्राहित (भरमाया हुआ) | 315) अन्तर : संभव व असंभव का अन्तर मनुष्य 301) आप आपरी शोभा करे, याही जगत री
के संकल्प पर निर्भर करता है। रीत। ऊँटजी रा व्याव में गधा गावें गीत । | 316) किसान को धरती पर, बालक को माता 302) आप भाई का बेड़ा पार करे, आपका बेड़ा
पर विश्वास होता है । अपने को गुरु पर पार अपने आप हो जायेगा ।
विश्वास होना चाहिए। 303) स्वप्न सुंदरी? सौन्दर्य प्रतियोगिता में
| 317) शुभ संकल्प : मैं जैन हूँ, मैं जिन अनुयायी सबसे पीछे रहने वाली है।
हूँ। देवाधिदेव, अरिहन्त मेरे देव हैं। सुसाधु
मेरे गुरु हैं । जहाँ दया है, वहाँ धर्म है । 304) गलती : एक ही गलती को बार बार दोहराना,
दया-धर्म को स्वीकार करता हूँ। एक ही पत्थर से दो ठोकर खाना हैं ।
318) मन, वचन, काया को पवित्र रखना ही धर्म 305) चूक : छोटी सी चूक कभी-कभी बड़ी गिरावट
की नीव हैं। का कारण बन सकती है।
319) इन्द्रियों को करो - दमन 306) आँख : आँख की हरकत हमारे हृदय की स्थिति को व्यक्त कर देती है।
कषायों को करो - “शमन" 307) भाषा : आँख हृदय की भाषा है, होंठ दिमाग
विषयों को करो . “वमन" की भाषा है।
गुरुदेव को करो - “नमन" 308) आत्मदान : अपने को देकर (अभिमान को | 320) पुण्य से सुख नहीं - सुख के साधन मिलते
देकर) सब कुछ पाया जा सकता है। 309) अहंकार : अहंकार की हर जीत, अंततः । 321) तन्दुरस्ती में दान सोने जैसा, बीमारी में हार में बदल जाती है।
दान चांदी जैसा, मृत्यु में दान सीसे जैसा, 310) आज : आज भविष्य का सूत्रधार है।
इसलिए कहावत है। दिया हाथे, चाले
साथे। 311) भय : भय वह डार्करुम है, जहाँ नेगेटिव
22) चलो ! भगवान के धर्म के वारिस बन विचार आते है।
जावे | उससे पहले शर्त इतनी है कि पहले 312) कारावास : कोई बंद हृदय ही सबसे बड़ा
मनुष्य बन जावें। कारावास है।
323) सुख-दुःख को याद कर, सुन पुराना 313) युग : ऐसा कोई युग नहीं रहा जिसमें अतीत
इतिहास । किसी समय राज मिले, किसी का गुण गान और वर्तमान का विभाजन न
समय वन वास ।। किया गया ।
Page #80
--------------------------------------------------------------------------
________________
( विदाई स्तवन तथा निवेदन )
| घड़ी घड़ी को देखकर, कर घड़ी का उपयोग ।
घड़ी घड़ी नहीं आयेगा, ऐसी घड़ी का योग । विशाल कोटडिया - ईरोड़ सन 2000
समय बढ़ता रहता है और उसे रोकने की मन मे स्वर : बेटा श्रवण आ ...
चाह उत्पन्न होती है, मगर उसे रोकने की किसी में
सामर्थ्य नहीं है। म्हारे जीवन में लाया मोड़, मिथ्या दियो तोड़,
समय चलता जाता है, हमें सुख और दुःख का ज्ञान सिखाया लाख री, चौमासा वापस आ,
अनुभव कराते हुए | सब कुछ कर्म का खेल है, विनय मुनिजी ने ला ....जोऊँ थोरी वाटड़ी
समय का नहीं । क्योंकि समय को किसी से कुछ || टेर ॥
लेना-देना नहीं है। समय अपने व्यवहार और मर्यादा जीवन भर में नही अटक्यो, मिथ्या ने कभी नहीं | से आगे या पीछे हटता नहीं तथा कोई आंच आने झटकयो, आप आया तो मिट्यो अंधेर, जीवन में | नही देता । वह निश्चित चलता रहता है । यह परम आयो फेर
सत्य है। खुलंगई दोनों आँखड़ी ... चौमासा वापस हम अपने हर कार्य के अच्छे या बुरे होने में समय आ.(1)
को दोष देते है। हम कहते हैं, हमारा समय अच्छा सम्यग् दर्शन-ज्ञान सिखलाया, मीठी वाणी सुं नहीं है या किसीका समय अच्छा था इत्यादि । फरमाया
मगर यह तो हमारे अनुभव की अपेक्षा समय पर धर्म से बोध कराया, जैनी-मार्ग समझाया
लगाया गया आरोप है । हमारे सुख और दुःख नही भूलूं थोरो उपकार, वंदू मैं बारम्बार,
का कारण हमारे शुभाशुभ कर्म ही है । यह समय मेहरबानी आपरी ... चौमासा आ ... (2)
तो निर्दोष है। गुरु म्हारी अरज भी सुनजो, यहीं शासन रक्षा
समय तथा काल तो अरूपी शाश्वत है जो, हम पर कीजो थे विचरत विचरत आयजो, फिर सेस काल
उपकार करता है, हमें अनुभव देता है । हमें तो मौकी दीजो, जो आशातना अविनय कीयो, माफ
समय का आभारी होना चाहिए। म्हने कीजो, क्षमा री आसड़ी ... चौमासा वापस समय तो चलता जा रहा है, यह तो हमारा भाग्य .... (3)
था कि हमें ऐसा चौमासा प्राप्त हुआ और आप श्री विहार वेला में दो शब्द
महाराज के पुरुषार्थ के कारण ज्ञान सीख सके ।
आपने जो ज्ञान का दान दिया है उसका आभार आज के दिन का इन्तजार हमें कभी न था । इस
प्रकट करने योग्य शब्द ढूंढने पर भी नहीं मिल रहे दिन को देखने की चाह हमें कभी नही थी । जिस
हैं । उस समय का हम इंतजार करते हैं कि फिर चाह से हमने चौमासा बिताया, वह चाह पूरी हुई।
आप श्री इधर पधारें और सेवा का अनमोल मौका मगर जैसे कहते है कि ज्ञान की खोज करने पर ही
प्रदान करें और हमें अपने ज्ञान के दीपक से रोशनी मालूम होता है कि ज्ञान कितना गहरा विषय है,
प्रदान करें। उसी प्रकार चौमासे के उठने पर मालूम हो रहा है कि सत्संग क्या होता है और सत्संग के मिलने के
पानी की प्यास लगने पर चाहे दूध भी मिले परन्तु बाद जब विदाई होती है। तो प्यास पहले से और
पानी के मिलने पर ही हृदय तृप्त होता है । उसी ज्यादा बढ़ जाती है।
प्रकार आपके सत्संग की प्यास तो दूसरों से नही
परन्तु आप ही के होने पर बुझेगी । कहते है:
प्रस्तुति : विशाल कोटड़िया-जैन स्थानक इरोड़
Page #81
--------------------------------------------------------------------------
________________
विनय बोधि कण
भाग 6 चातुर्मास - शांतिनगर - बेंगलोर - सन् 2003
संकलन श्रीमती संगीता धर्मपत्नी श्री रिखबचंदजी चोरड़िया कुमारी निभा सुपुत्री श्री निर्मल कुमारजी नाहर
चैन्नई conal
Page #82
--------------------------------------------------------------------------
________________
पेज नं
अनुक्रमणिका 1. 2003 शांतिनगर बेंगलोर चातुर्मास 2. प्रवचनांश - बेंगलोर 3. आगमिक प्रश्नोत्तर 4. सिद्ध प्रश्नमाला 5. अरिहन्त प्रश्नमाला 6. पुण्य खरचने का थोकड़ा 7. नियमा या भजना 8. पच्चीस क्रिया 9. गति-आगति की विशेष नोंध 10. तीर्थंकर व सामान्य केवली विवेचना 11. पच्चीस बोल स्वरुप (कविता रुप में) 12. पच्चीस बोल स्वाध्याय हेतु, विशिष्ट चिन्तन 13. सामायिक साधना 14. आठ दिन में धर्मध्यानका मासखमण 15. समस्याएँ और समाधान 16. क्रोध पर बोल 17. अमृत कर्णिकाए 18. अमृत झरना 19. अन्तर के उद्गार
97
106
107. 108 111 118
119
120
विनय बोधि कण भाग प्रथम “विमोचित” स्थान संगोई हॉल, रायपुर (छत्तीसगढ़)
दि. २३-१२-१९९८ स्थानकवासी जैन संत विनय मुनिजी महाराज के सफलतम चातुर्मास में प्रवचनोपरान्त प्रतिदिन प्रश्नोत्तर का क्रम चलता था। जिसे संग्रहित कर विनय बोधि कण पुस्तक को जैन समाज की धर्मनिष्ठ महिला श्रीमती दीपा विजय संगोई ने हाल में मुनिश्री के प्रवचन पश्चात समर्पित कर दिया, जिसका विमोचन जैन समाज के प्रतिष्ठित नागरिक तथा रायपुर विकास प्राधिकरण के पूर्व अध्यक्ष सम्पतराज जैन ने किया। चातुर्मास समिति के सचिव ओमप्रकाश बरलोटा ने बताया कि स्वाध्याय जिज्ञासु एवं औजस्वी वक्ता विनय मुनिजी ने संस्कृत, हिन्दी, प्राकृत , टीका , कर्म ग्रंथो एवं दर्शनों का गहन अध्ययन किया है। हर चातुर्मास में शिविर के माध्यम का अभिनव प्रयोग रहा है। बरलोटा ने बताया विनय बोधि-कण पुस्तिका में १७७७ प्रश्नोत्तर का समावेश है, जिसे निर्माण करने के लिए श्रीमती दीपा संगोई, योगेन्द्र भण्डारी, किशन बैदमूथा, श्रीमती विमला शाह, विजय संगोई एवं श्रीमती चित्रा बैदमूथा का अपूर्व सहयोग रहा।
पत्रिका ओमप्रकाश बरलोटा, रायपुर
Page #83
--------------------------------------------------------------------------
________________
2003 शांतिनगर बेंगलोर )
समर्थ थे । ऊटी में तीन बार विनती करने के बाद
हमने मैसूर व मदुर में भी जाकर विनती की । गुरुदेव ज्ञान गच्छाधिपति, श्रमण श्रेष्ठ तपस्वीराज
स्वास्थ्य संबंधी कारणों से कर्नाटक की ओर आ रहे श्री चम्पालाल म.सा के शिष्य प्रखर व्याख्यानी, | थे और हम सब अपने हटय में गरुवर के चातर्मास शिविराचार्य, जन-जन की आस्था के केन्द्र परम पूज्य
की आस लिए उनके पीछे लगे हुए थे । आखिरकार श्री विनयमुनिजी म.सा. खींचन के श्री चरणों में 8 जुलाई को हमारे सौभाग्य का सूरज उदित हुआ कोटि-कोटि वंदन करते हुए धर्म सभा में उपस्थित
और गरुवर ने अक्कीपेट स्थानक में शांतिनगर बेंगलोर धर्मप्रेमी भाईयों एवं बहनों का तहेदिल से श्री संघ की
में चातुर्मास करने की घोषणा की । 10 जुलाई का ओर से हार्दिक स्वागत
दिन शांतिनगर श्री संघ के लिए एक अविस्मरणीय समय अपनी गति से निरंतर आगे बढ़ता दिन बन गया । गुरुदेव का चातुर्मास शुरु हुआ । रहता है । भविष्य को वर्तमान में और वर्तमान को शांतिनगर के साथ ही समूचा बेंगलोर गुरुदेव के अमृत अतीत में बदलते हुए निरंतर आगे बढ़ रहे समय चक्र वचनों से लाभान्वित होने लगा । गुरुदेव की प्रेरणा से को रोक पाना किसी के लिए संभव नहीं है । समय के
जप-तप, धर्म ध्यान की गंगा बहने लगी और सैंकड़ों समक्ष मनुष्य असमर्थ है, असहाय है । एक समय वह आत्माएँ संवर व निर्जरा द्वारा शांति, मैत्री व मुक्ति था, जब सारा शांतिनगर श्रद्धेय विनयमुनिजी के की राह पर आगे बढ़ने लगीं। आगमन के शुभ समाचार से पुलकित था और पलक चातुर्मास के चार महीनों के दौरान डेढ़ लाख पावड़े बिछाकर उनके स्वागत की तैयारी कर रहा था
से भी अधिक सामायिकें हई, एक ही दिन तीन । एक समय वह था, जब परमात्मा की असीम अनुकम्पा
मासखमण के प्रत्याख्यान लिए गए, जिन्हें मिलाकर और शांतिनगर संघ के प्रबल पुण्योदय से मुनिवर का
कुल 5 मासखमण हए, कार्तिक ज्ञान पंचमी में 141 शांतिनगर में पदार्पण हुआ था । और शांतिनगर की
दया, दीपावली के दिन 36 तेले की तपस्यायें तथा धरा धन्य हो उठी थी । जैसे मरुस्थल में बरसात
45 पौषध, चातुर्मास दौरान 100 से अधिक बड़ी की फुहार पड़े और मरुभूमि की तपन मिट जाए,
तपस्यायें तथा तेले, पाँच, छः, नौ, सोलह, अठारह, जैसे बसंत के आगमन पर लूंठ हो चले वृक्षों में
इक्कीस तथा अन्य कई तरह की तपस्याओं का ठाठ नवजीवन का संचार हो और वे फिर से हरे-भरे हो
लगा रहा । 130 जोड़ी एकासन, बियासन की अट्ठाई, जाएँ । कुछ वैसी ही नवीनता, प्रफुल्लता, प्रसन्नता
दीपावली के दिन भगवान महावीर की अंतिम देशना सर्वत्र दृष्टिगोचर हो रही थी।
उत्तराध्ययन सूत्र के 2000 सूत्रों का पारायण किया ___गुरुदेव शांतिनगर में चातुर्मासार्थ पधारें, यह गया। हमारे संघ अध्यक्ष श्रीमान मोहनलालजी साहब सुनहरा सपना मन मस्तिष्क मे संजोये हुए थे । ऊटी मुथा के निवास पर सभी महिलाओं ने तपस्या की में जब पहली बार 14 मई को विनती लेकर गए तो | तथा उनकी धर्मपत्नी श्रीमती मैनाबाई मुथा ने तो मन में बड़ी उहापोह की स्थिति थी । देशभर के बड़े- चातुर्मास के दौरान दो-दो बार बड़ी तपस्या कर डाली बड़े संघ मुनिवर के चातुर्मास के लिए लालायित थे। ।
तथा शांतिनगर श्री संघ को गुरुदेव श्री के इस चातुर्मास हमें तो अपनी बात कहते हुए भी झिझक थी । नया के दौरान एक ओर उपलब्धि गुटखे के त्याग की हुई नया संघ बना था । वहाँ तो गुरुदेव के चरणों में । हमारे संघ के चार नवयुवकों ने जो कि पिछले 27 विनती रखने के लिए लोग कतार में खड़े थे। वह भी | सालों से गुटखे रुपी जहर का सेवन कर रहे थे. उन एक से बढ़कर एक, बड़े-बड़े संघ, जो सब भांति | सबने जीवन पर्यंत गुटखे का त्याग कर दिया ।
Page #84
--------------------------------------------------------------------------
________________
आडम्बर-रहित जीवन जीने की प्रतिज्ञा ली। उसके बाद समय जैसे पंख लगाकर उड़ने इतने सारे काम हुए, वह भी इतनी सहजता से, कि | लगा । आपके सान्निध्य में, आपकी शीतल, सुखद क्या कहें? सच कहें तो हमें कुछ करना ही नहीं पड़ा | छत्रछाया में चार महीने कब बीत गए कुछ पता ही । हम तो बस गुरु चरणों में अर्पित थे, समर्पित थे। नहीं चला | पता चला तो सिर्फ यह कि चातुर्मास
गमतभी हमारा संजनो सील केसी | सम्पन्न होते ही आप हमें छोड़कर चल देंगे । गुरुदेव कक्षा का संघ है । फिर भी जो उत्साह धर्म के प्रति
हम आपसे कहना चाहते हैं कि "अभी न जाओ छोड़कर यहाँ जगा, आपको हम यह विश्वास दिलाते हैं कि
कि दिल अभी भरा नहीं" | अभी तो हम आपकी आपने यह बीज जो यहाँ पर बोया है, उसे एक दिन अंगुली पकड़कर चलना सीख ही रहे थे कि आप अवश्य ही पेड़ के रुप में खड़ा करेंगे।
अंगुली छुड़ाने की बात करने लगे हो । अभी तो चमन
में कोंपले फूट ही रही हैं और चमन का माली चमन गत वर्ष चातुर्मास के पश्चात शेषकाल में गुरुदेव
छोड़कर जाने लगा है। यह असह्य है । हम तो मिट्टी 4-5 दिन के लिए शांतिनगर पधारे थे । मुनिश्री के होली चातर्मास की अभिलाषा जागी । विनती करने
के लौंदे थे। आपने कुम्हार की भांति कभी चोट करते पर गुरुदेव ने कहा कि क्या दोगे? हमने कहा अहा
हुए. कभी थपथपाते हुए हमें घड़ा। गुरुदेव, हमारे पास देने लायक है ही क्या ? आप
आज इन कच्चे घड़ों को छोड़कर आप जाने जैसे समताभावी, समदर्शी, संपन्न, त्यागी परमज्ञानी की तैयारी कर रहे हो | आप तो सबके हो, लेकिन संत के समक्ष हम तो जानते थे कि आपकी उपस्थिति हमारा आपके सिवा कौन है? मात्र से सारे कार्य होंगे । स्थानकवासी, मंदिरवासी,
गुरुदेव एक ही बात कहनी है । जैसे एक पिता तेरापंथी समस्त साधर्मिक भाईयों के सहयोग से
अपने बच्चों की गलतियों को माफ कर देता है, वैसे सामायिक की संख्या 6500 हो गई। होली चातुर्मास
ही हे प्रखर चिंतक, हे तत्त्वदशी, आप हमें क्षमा के बाद आप हमें छोड़कर चल दिए, लेकिन हम
करना । जाने-अनजाने में हमसे कोई भूल हुई हो, आपको कहाँ छोड़नेवाले थे ? होली चातुर्मास के
आपके आदेश का उल्लंघन, अवज्ञा या अवहेलना दौरान धर्म-ध्यान की जो प्यास आपने जगाई, उसे
हुई हो तो हम क्षमाप्रार्थी हैं। शांतिनगर संघ आपके बुझाने के लिए आपको शांतिनगर तो आना ही था ।
अनंत उपकारों को कभी भूल नहीं पाएगा । साथ ही उस दिन के बाद सुश्रावक शांतिलालजी डूंगरवाल
मेरे स्वयं के द्वारा प्रत्यक्ष या परोक्ष रुप से हुई गलती. प्रत्येक रविवार शांतिनगर पधारते एवं धर्मध्यान की अलख जगाते । यह सब गुरु भगवन्तों का ही प्रसाद
को आप क्षमा देकर मुझे उपकृत करें, यही मेरी था । अक्कीपेट में जैसे ही आपने शांतिनगर में चातुर्मास
अभिलाषा है। करने की घोषणा की, हम तो फले नहीं समाये ।
मुनिवर के इस पच्चीसवें ऐतिहासिक चातुर्मास आपकी कृपा दृष्टि पड़ते ही शांतिनगर का छोटा सा
की सफलता में हमें जिन महानुभावों का प्रत्यक्ष या संघ अचानक बड़ा हो गया, विशिष्ट हो गया । जिस
परोक्ष सहयोग मिला, हम उनके प्रति अपनी कृतज्ञता संघ का अपना भवन तक नही, उस संघ को आपने
ज्ञापित करते हैं। गुरुदेव श्री के संयम जीवन का यह अपना चातुर्मास प्रवास दे दिया । हमारी खुशी का
पच्चीसवां वर्ष चल रहा है । यानि सिल्वर ज्युबली पारावार कैसे रहता गुरुवर? हम तो
वर्ष, और इसे यह एक सुयोग ही कहा जाएगा कि इस पात्र भी नहीं थे, और हमें पूरा समुद्र मिल गया था
पच्चीसवें वर्ष के पर्युषण पर्व को भी लालबाग के सिल्वर । यहाँ तो सौभाग्य का समूचा सूर्य ही हमारे आँगन में
ज्युबली हॉल में मनाया गया । जो कि बेंगलोर के उतर आया था।
Page #85
--------------------------------------------------------------------------
________________
इतिहास में अपने आप में पहला मौका है। कार्यक्रमों श्राविकाओं एवं शांतिनगर के निवासियों से नम्र निवेदन के दौरान दिल्ली से पधारी बहन डॉ. कंचन जैन व है कि कृपया प्रार्थना एवं शिविर कार्यक्रम में अधिक से श्रुति जैन, इन्दौर से कस्तूरचंदजी ललवाणी अधिक संख्या में भाग लेकर लाभान्वित होवें । शान्तिलालजी राजेन्द्रजी ललवानी सपरिवार तथा
श्रीमान शांतिलालजी डुंगरवाल, जिन्होंने दिल्लीसे श्रीमती पूनमजी बाफना, बेंगलोर (बर) से
पूर्व में भी अपनी सेवाएँ हमें दी हैं, वे ही उक्त वरिष्ठ श्रावक शांतिलालजी बोहरा, कुंदनमलजी
कार्यक्रमों का संचालन करेंगे । पधारे महानभावों से भंडारी, प्रकाशचंदजी दक, सपना बुक हाऊस के
निवेदन है कि कपया अपनी जगह पर खडे होकर चेयरमैन सुरेशजी सी. शाह के हम विशेष रुप से
गुरुदेव को वंदन करते हुए यह विश्वास व्यक्त करें कि आभारी हैं। नगर के विभिन्न संघों, संस्थाओं व
चातुर्मास पश्चात भी आपकी दिखाई धर्म की पगडंड़ी व्यक्तियों तथा देशभर से आए श्रद्धालुओं ने हमारा
पर निरन्तर चलते रहेंगे। उत्साहवर्धन किया और चातुर्मास को यशस्वी बनाने में उल्लेखनीय सहयोग दिया । हम उन्हें धन्यवाद
मैं यहाँ आपको स्मरण दिलाना चाहूँगा कि देते हैं। इस चातुर्मास दौरान सव्यवस्थित व्यवस्था गत वर्ष सन् 2002 ऊटी चातुर्मास के दौरान 50 हेतु श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन नवयुवक मंडल,
घरों में 126 बड़ी अट्ठाई या ऊपर की तपस्या की शांतिनगर एवं श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन महिला सांकल चली थी और दीपावली के बाद 23 अट्ठाईयाँ मंडल, शांतिनगर का सहयोग प्रशंसनीय एवं
हुई थी। उसी कड़ी में इस वर्ष शान्तिनगर में भी अनुमोदनीय रहा।
चातुर्मास प्रारम्भ से अब तक अट्ठाई एवं ऊपर की
सांकल अर्थात् चेन चली एवं अभी यहाँ पर तपस्याएं चातुर्मास के दौरान मुनिवर के वचन सुदूर
चालू हैं। दक्षिणांचल के छोटे-छोटे गाँवों में भी पहुँच सके तो इसका श्रेय राजस्थान पत्रिका को जाता है । पत्रिका
इस वर्ष चातुर्मास काल में मुनिश्री ने प्रतिक्रमण के प्रभारी संपादक भाई दिलीपजी चारी और उनके
सूत्र का विवेचन गहराई से किया । साथ में नंदीसूत्र, सहयोगी संतोषजी पांडेय ने चातुर्मास से जुड़ी खबरों
उत्तराध्ययन सूत्र, दशवैकालिक सूत्र, अन्तगढ़ सूत्र, को प्रमुखता से छापा, हम उनके आभारी हैं । इसी
चऊसरण पइण्णा, वैराग्य कुलक, तत्वार्थसूत्र तथा तरह धीर, तीर, दक्षिण ध्वज, धरती और इन्सान, |
थोकड़ों का अध्ययन-वांचन कराया । दिल्ली से पधारी मोक्षद्वार तथा अन्य कई समाचार पत्रों ने भी हमें
सुश्री डॉ कंचनबहन एवं सुश्री श्रुतिबहन ने अन्तगढ़ पर्याप्त सहयोग दिया उनके प्रति भी
सूत्र का वाचन पर्युषण पर्व पर विशेष शुद्धि एवं उच्च आभार।
समुच्चारण द्वारा बेंगलोर के धर्मप्रेमियों को लालबाग
के सिल्वर जुबली हॉल में सुनाया, जो अविस्मरणीय गरुदेव को एक बार पनः विश्वास दिलाते हैं कि आपके दिखाये हए सदमार्ग की ओर निरन्तर अग्रसर रहेंगे, ऐसी हमारी भावना है। नित प्रातः 6
हमारे शांतिनगर के ऐतिहासिक चातुर्मास काल 30 बजे से 7-30 बजे तक प्रार्थना का कार्यक्रम शांतिनगर
के चार महीनों तक मुनिश्री की सेवा में हलसूर के में यथावत रहेगा। साथ ही प्रत्येक रविवार को शिविर | वयोवृद्ध सुश्रावक तत्वज्ञ स्वाध्याय प्रेमी तपस्वी-बर
का आयोजन भी किया जाएगा, जो 6-00 बजे तक | रत्न श्री शांतिलालजीसा बोहरा समदडिया भवन. • प्रार्थना पश्चात चलेगा । शिविर पश्चात अल्पाहार की | शान्तिनगर में ही बिराजे एवं उनकी सेवा में उनके भी व्यवस्था रखी गई है । समस्त पधारे श्रावक, | सुपौत्र श्री आनंद, रोहित, रितु एवं विशाल ने भी
Page #86
--------------------------------------------------------------------------
________________
लाभ लिया । इसी कड़ी में श्री शान्तिलालजी | पूज्य गुरुभगवंत के दक्षिण भारत में पाँच वर्ष ओस्तवाल, धनपतराजजी बोहरा, अभयकुमारजी । के विहार-प्रवास में पूज्य श्रीजी को चालीस से अधिक बांठिया, सम्पतराजजी देवड़ा एवं सम्पूर्ण बेंगलोर | क्षेत्रों से चातुर्मासार्थ पूरजोर विनतियाँ हुई है । गुरुदेव के श्रावक श्राविकाओं का आभार प्रकट करते हैं, जिन्होंने | ने अपने 25 वर्ष की दीक्षा तप साधना में करीब 40 इस चातुर्मास को अविस्मरणीय बनाने में अथक सहयोग | हजार किलोमीटर का विहार कर धर्म की प्रभावना की दिया।
है। यह विहार भारत के करीब 13 राज्यों में हुआ । श्री संघ की ओर से हम आभारी हैं ऊटी श्री शान्तिनगर चातुर्मास के दौरान मुनिश्री को संघ के, विशेष रूप से अध्यक्ष श्री सोहनलालजी | बल्लारी, शिमोगा, हैदराबाद-सिकन्द्राबाद, मुथा मंत्री धनराजजी टाटिया (टाटिया रिसोर्ट वाले) | मेट्टपालयम, त्रिचन्नापल्ली एवं भोपाल आदि क्षेत्रों एवं शांतिलालजी पीपाड़ा एवं मैसूर श्री संघ को | से आगामी चातुर्मास के लिए विनतियाँ हुई है। फिलहाल धन्यवाद संप्रेषित करते हैं जिन्होंने चातुर्मास कराने | गुरुभवन्त के बेंगलोर के उपनगरों में विचरण करने एवं चातुर्मास काल में शांतिनगर श्री संघ को पूर्ण की संभावना है। कहने को तो बहत कछ है लेकिन रुपेण सहयोग प्रदान कर हमें उत्साहित किया । । वैसे ही मैंने आपका समय कुछ अधिक ले लिया है।
पर जो जिम्मेदारी मंत्री के नाते मुझे श्री संघ ने सौंपी श्री संघ शान्तिनगर बहुत-बहुत आभारी है,
है इसको मद्देनजर चातुर्मास की उपलब्धियों को आपके श्रीमान झुमरलालजी समदड़िया परिवार एवं श्रीमान
समक्ष रखना मेरा दायित्व है। उसका निर्वहन मैंने दानमलजी जुगराजजी सिंघवी परिवार का जिन्होंने
किया है। अंत में पुनः एक बार गुरुदेव, आप सभी से मुनि श्री को ठहरने के लिए अपने समदड़िया निवास भवन की आज्ञा दी एवं आवास-निवास हेतु भवन की
एवं शान्तिनगर श्री संघ से लुणावत परिवार की ओर
से कोई भी त्रुटि हुई हो तो क्षमायाचना चाहते हैं। व्यवस्था की। मुनिश्री के दर्शनार्थ हुबली, भद्रावती, श्रीगुप्पा,
छगनलाल लुणावत बाणावार, अरसीकेरे, रायचुर, सिंधनुर, चन्नरायपटना,
श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन मेंगलोर,कालीकट,कन्ननूर,वेलीपुरम, कोयम्बतूर,
श्रावक संघ शांतिनगर, बेंगलोर आरकाट, इरोड़, सेलम, त्रिचनापल्ली, तिरुवन्नामलाई, तिरकोईलुर, विल्लीपुरम, वेलूर,
संघ मंत्री के उद्बोधन के ठीक पश्चात हमारे तिंडीवनम्, चेंगलपेट, मद्रास व अनेक उपनगरों से
संघ के अध्यक्ष श्री मोहनलालजी मूथा द्वारा सभा विरंजीपुरम, मुलबागल, के.जी.एफ.गुडीयात्तम,
को जब यह सूचित किया गया कि हमारे शांतिनगर में कोलार, होसकोटे, चिक्कबालापुर, डोड्बालापुर,
स्थानक भवन के लिए स्थल तय कर दिया गया है, यलहंका, चित्रदुर्गा, मुडबिदरी, इन्दौर, भोपाल, उस समय जन समूह के उत्साह-हर्ष का ठिकाना नहीं हैदराबाद-सिकन्द्राबाद, येवला तथा महाराष्ट्र-गुजरात,
रहा। राजस्थान, दिल्ली, छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल,
पत्र व्यवहार का पता : मध्यप्रदेश सहित भारत के अनेक प्रांतो से हजारों
कावेरी पेपर डिस्ट्रीब्युटर्स श्रद्धालु पधारे एवं दर्शन वन्दन का लाभ लिया ।
34/70 जुम्मा मस्जिद रोड़, उनके भी हम आभारी है।
बेंगलोर - 560002
मंत्री
Page #87
--------------------------------------------------------------------------
________________
16)
प्रवचनांश-बैंगलोर
13) सदैव सत्य पर श्रद्धा रखो । 1) जिस प्रकार अनाज को खला छोड़ देने
14) जीव के अज्ञान का मूल है 'मोहनीय कर्म' | पर उसमें कीड़े लगने का भय रहता है, | 15) ज्ञान को बंध व पाप का कारण मान कर अज्ञान उसी प्रकार जीवन को खुला छोड़ देने पर | को अच्छा मानना अज्ञान मिथ्यात्व है। कुसंस्कारो का भय लगा रहता है।
सांशयिक मिथ्यात्व से बचने का एक मात्र अज्ञानी की मासखमण की तपस्या भी ज्ञानी उपाय जिनेश्वर के वचनों में दृढ़ विश्वास के नवकारसी के तप की बराबरी नहीं कर करना ही है । सकती।
आज कषाय रूपी जहर के कारण हमारा संवर व निर्जरा के बिना जीवन में दुर्भाग्य जीना दुष्कर हो रहा है। का उदय होगा।
18) सावधानी पूर्वक संयम व विवेक से जीवन वह माता पिता शत्रु है जिन्होंने अपने बच्चों जीना चाहिए। को धार्मिक संस्कार नही दिए ।
19) कर्मो को भोगे बिना मुक्ति नहीं मिलती। जीव स्वयं ही कर्मो का कर्ता व भोक्ता है,
20) मिथ्यात्व घार अंधकार है। भगवान न तो कर्म बँधवाते है व न हीं छुड़वाते
21) प्रभु की वाणी त्रिकाल सत्य है, व इसमें हैं, वे तो धर्मोपदेश द्वारा मार्ग दर्शन करते
संशय का कोई स्थान नहीं है। अनर्थ दण्ड से बचना है, तो जीवन की
22) दुःख हमारे ही पूर्वकृत कर्मों के परिणाम हैं,
धैर्य से हम उनका सामना सहजता से गाड़ी को सीमित मर्यादा से चलाओ।
कर सकते हैं। 7) पाश्चात्य संस्कृति के अंधानुकरण से अनर्थ
23) की बढ़ोतरी हो रही है।
मृत्यु अवश्यं भावी है, अपरिहार्य है। अज्ञानी
जीव अपने कुकर्मों के कारण मृत्यु से घबराता जीवन में श्रावक के लिए चार विश्राम होते
है, जबकि ज्ञानी जन अपने जीवन को है - 1) अणुव्रत धारण 2) सामायिक व
सजाकर मृत्यु को महोत्सव बना देते हैं। चौदह नियम पालन 3) दयाधर्म व पौषध
हमारा जीवन ताश के पत्तों के महल से भी 4) क्षमापना + पंडित मरण प्राप्त करना।
अधिक अविश्वसनीय है। स्वाध्याय द्वारा ही हित अहित का ज्ञान
25) ज्ञान इस विश्व में सूरजसम प्रकाशमान व होता है।
उपयोगी है, ज्ञान सीखे बिना हम ज्ञान के चारित्र मोहनीय कर्म के उदय से होने वाले
महत्व और उसके आनंद को समझ नहीं राग व द्वेष रूपी कषाय भाव का नाम ही
सकते। असंयम है।
ज्ञान सीखने के लिए उम्र की कोई सीमा 11) अधर्म का त्याग व धर्म की प्रवृति जीवन को |
नहीं है। धन की सार्थकता इसी में है कि सुखी बनाने के अचूक उपाय हैं।
उसका उपयोग दान में किया जाए। 12) धर्म ध्यान के बदले सांसारिक फल की इच्छा नहीं करनी चाहिए।
| 27) ज्ञानदान महादान है।
8)
24)
-
26)
Page #88
--------------------------------------------------------------------------
________________
28) जबसे महिलाएँ 'छिपने की बजाय
जिस प्रकार आग में कितनी भी लकड़ियाँ 'छपने लगी है, तबसे उनकी सुरक्षा का डालो आग कभी मना नहीं करती, और संकट उत्पन्न हो गया है।
बढ़ती जाती है व लकड़ियाँ राख हो जाती 29) जिनवाणी को जीवन में उतारे बिना कल्याण
है, उसी प्रकार इन्द्रियों की भूख भी कभी संभव नहीं है।
शांत नही होती । इन्द्रियों से अनुभूत सुख
को सर्वोपरि मानकर यदि हम स्वयं को तृष्णा 30) ज्ञान की आँख के बगैर धन का सदुपयोग
व भोग की आग में समर्पित करते रहे तो नहीं हो सकता।
आग में भस्मीभूत होनेवाली लकड़ियों की 31) सामायिक चेतन है परंतु जड़ नहीं ।
भांति हमारी दुर्गति निश्चित है। साधना मे निरंतरता व समयबद्धता हो तो | 43) संसार के सारे सुख चार दिन की चाँदनी साधना का फल अवश्य मिलता है।
की भांति है। समता व संयम ही वास्तविक
सुख है। 33) सामायिक से दुर्गुणों का नाश व सद्गुणों की वृद्धि होती है।
44)
अनंत यात्रा के बाद मिला मुक्ति का एक
स्वर्णिम अवसर है, मानव जीवन ! इस सामायिक आत्मा की सफाई की एक सर्व
अवसर को विषय भोगों मे मत गँवाओ । सुलभ विधि है।
प्रमाद से मुक्त हो, मुक्ति के लिए पुरूषार्थ 35)
सामायिक एक ऐसी औषधि है जिसमें इफैक्ट करो। तो है पर साइड इफैक्ट नहीं है ।सामायिक
45) शुद्ध भावों से की गई एक सामायिक भी रूपी परम औषधि से पुराने रोग दूर होते हैं
संसार चक्र से छुटकारा दिलवा सकती है। व नए रोग का आगमन नहीं होता ।
46) जिस मनुष्य के मन में परिग्रह की अग्नि 36) सद्गुणों में वृद्धि करने के लिए सत् साहित्य
धधकने लगती है वह शांति व सुख से कोसों का अध्ययन करना चाहिए।
दूर चला जाता है । मनुष्य का अंत हो जाता 37) धन से अमीरी पाई जा सकती है, सुख । है मगर परिग्रह का कोई अंत नहीं है। नहीं, सुख प्राप्ति करने का एकमात्र साधन
47) आवश्यकताओं को सीमित रखो । है संतोष ।
48) जो जैसा करेगा वैसा भरेगा, यह ध्रुव सत्य 38) 'त्याग' करने में ही सच्चा सुख है। 39) सुख प्राप्ति के लिए अपरिग्रह की भावना | 49) यह एक विडंबना ही है कि एक ओर गरीबों का हृदय में संचार करना होगा।
को भरपेट भोजन नहीं मिलता, वहीं दूसरी 40) धर्म के अभाव में समृद्धि, पतन की ओर ओर धनवान जरूरत से ज्यादा खाकर ले जाएगी।
बीमारी को न्योता देता है। 41) किसी जीव को त्रास देकर क्षण भर के | 50) मनुष्य लोभ व तृष्णा रुपी बीमारी से ग्रस्त
लिए सुख प्राप्ति का भ्रम भले हो, किन्तु | अन्त में वह दुःख का ही कारण बनेगा। । 51) जिस मनुष्य भव को पाने के लिए देवता भी
Page #89
--------------------------------------------------------------------------
________________
लालायित रहते हैं, उसी भव को पाकर भी | 64) शरीर तो धर्म का साधन है यदि इसे भोगों यदि हम कर्म निर्जरा नहीं करते हैं तो
का माध्यम बनाया तो यह रोगों का घर बन महामूढ़ता है।
जाएगा। 52) यदि जीवन को धर्मानुसार जीने की कला | 65) इससे पहले कि यह शरीर जरा, व्याधि सीख ली जाय तो रोने की जरुरत नहीं
आदि से ग्रस्त हो, धर्म को धारण कर पड़ेगी।
लेना चाहिए। 53) मनुष्य अपने शरीर पर जमे मैल की सफाई | 56) संसार में धर्म के सिवाय, अन्य किसी से
के लिए जितना तत्पर रहता है, यदि उतना स्वयं को जोड़ने पर दुःखों के सिवा और ही तत्पर वह आत्मा पर लगी कर्म रूपी कुछ भी हाथ नहीं आएगा। मैल की सफाई के लिए रहे तो उसका जीवन
धर्म तो अंतःकरण के रूपांतरण की विधि सफल हो जाए।
है। आडंबर का स्थान नहीं। 54) प्रतिक्रमण आत्मशुद्धि की सर्वश्रेष्ठ औषधि
68) धर्म जगत में प्रवेश करना है, तो शांत व
मौन होना ही पड़ेगा। तभी उस परम का 55) आलस्य छोड़ना प्रगति की राह में पहला साक्षात्कार किया जा सकता है, जिसे सत्य कदम है।
कहा जाता है। 56) धनवान, बलवान और रूपवान सर्वत्र | 69) सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य, अचौर्य सम्मान नहीं पाते,लेकिन ज्ञानवान सर्वत्र
आदि प्रमुख सिद्धांतो की राह पर निरंतर सम्मान पाता है।
चल पाना तभी संभव होगा, जब छोटे57) प्रमाद छोड़ना जैनत्व की पहचान है।
छोटे नियमों का पालन भी कठोरता पूर्वक
किया जाए। 58) प्रत्येक जीव को जीने का अधिकार है, लेकिन
70) नशा व भोग मनुष्य के पतन के मूल कारण संयम के बिना जीने का कोई अर्थ नहीं है। बुजुर्गों का अपमान, कल अपने दुर्भाग्य
71) मर्यादा व धर्म एक ही सिक्के के दो पहलू का कारण बनेगा। 60) संयम से जीना ही वास्तविक जीवन है ।
72) जिनमत, बहुमत से अधिक महत्वपूर्ण है। 61) हिंसा व विध्वंस में मनुष्य की उत्सुकता का मूल कारण है, अंतर की पशुता से मुक्त न
73) सेठ नही, श्रेष्ठ बनने का प्रयास करो | होना । काम, क्रोध, मद व लोभ आदि | 74) परिवार एक ऐसा भवन है जिसकी नींव मे पाशों से बंधा मनुष्य पशुवत् है।
धैर्य, त्याग, सेवा और ममतामयी नारी 62) संसार के सारे संबंध स्वप्न की तरह झूठे
तथा शिखर में पुरूष का पराक्रम है । चमचमाता हुआ शिखर भले ही आकाश
को छू रहा.हो मगर वह टिका नींव के पत्थर 63) जब तक शरीर के प्रति आसक्ति नहीं टूटती,
पर ही है। नींव हिली तो शिखर चकनाचूर तब तक आत्म स्वरूप का ज्ञान नहीं होता।
हो जाएगा।
65
Page #90
--------------------------------------------------------------------------
________________
75) भारतीय संस्कृति में नारी को पुरुष से ऊँचा
उसके लिए अन्य कामनाओं पर विजय पाना स्थान दिया गया है। स्त्री कभी भी पुरुष
सहज हो जाता है। की बराबरी नहीं कर सकती व न ही पुरुष
85) कैवल्य ज्ञान प्राप्ति ही मनुष्य जीवन का स्त्री की बराबरी कर सकता है।
अंतिम लक्ष्य होना चाहिए। 76) माँ बाप की सेवा, दुनिया का सबसे बड़ा हम भौतिक-लाभ की दौड़ में आत्मा की तीर्थ है। हमारे जीवन पर सबसे बड़ा उपकार
पुकार नहीं सुन पा रहे। मातापिता का है | माता पिता की उपेक्षा
87) मंजिल पाने के लिए दृढ़ इच्छा शक्ति जरूरी करने वाला कभी सुखी नहीं रह सकता । 77) माता पिता का आशीर्वाद साथ हो तो रास्ते
संसार में कोई भी कार्य दुष्कर या असंभव के काँटे भी फूल बन जाते हैं, और धूप भी
नहीं है, आवश्यकता है दृढ़संकल्प की । छाया सी लगती है तथा मनुष्य सफलता की राह पर आगे बढ़ता जाता है ।
असत्य अर्थात झूठ से मानसिक शांति छिन
जाती है। 78) शारीरिक व मानसिक विकृतियों को जन्म
एक झूठ झूठों की अनंत श्रृंखला को देता है माँसाहार।
जन्म देता है। 79) मनुष्य जन्म आत्मदर्शन के लिए मिला है,
जिस दिन पृथ्वी पर धर्म नहीं होगा उस दिन प्रदर्शन के लिए नहीं।
पृथ्वी पर संयमी जीवन भी नहीं होगा। कोई भी व्यक्ति जो स्वयं को धार्मिक मानता
92) अन्यों को दुःख पहुँचाने वाले को सुख की हो या धार्मिक बनना चाहता हो उसका पहला
प्राप्ति नही हो सकती। कर्तव्य यही है कि वह न तो हिंसा करे व न
सम्पूर्ण सिद्धान्त का सार तो यह है कि ही हिंसा का समर्थन करे।
"बहिमुर्खता छोड़कर अन्तर्मुखता की तरफ 81) 'जल जीवन है' इसका दुरुपयोग न करें। जाना है।" 82) इौँ सीमित हों तो गरीब भी अमीर है, 94) यदि हमारे मन में दूसरों के प्रति मैत्री, दया यदि इच्छाए अधिक हों तो अमीर भी गरीब व करुणा की भावना जागृत नहीं होती तो
हम मनुष्य कहलाने के अधिकारी नहीं है। 83) नदी जब तक तट बंधों की मर्यादा में रहती | 95) जो जन-जन के लिए कल्याणकारी, है वही
है, तब तक वरदान रूपी है। किंतु वही नदी जिनवाणी है। जब किनारों को तोड़ कर बहने लगती
96) 'भव रोग' की दवाई है जिनवाणी । है तो बाढ़ के रूप में विनाशकारी हो जाती है। उसी प्रकार मनुष्य भी जब तक मर्यादित | 97) जो आलसी है, उससे ईश्वर बहुत दूर है आचरण करता है, सुख शांति पाता है, जो पुरूषार्थी है, ईश्वर उसके बहुत पास अमर्यादित आचरण विनाश की ओर ले जाता
98) ईश्वर तक पहुँचना है तो मन को जीतना 84) जो कामेच्छा पर नियंत्रण कर लेता है, । होगा।
0)
6.०
Page #91
--------------------------------------------------------------------------
________________
99) मन यदि वश में हो तो मन से बढ़कर कोई | 112) संकल्प शक्ति को यदि अध्यात्म से जोड़ मित्र नहीं और यदि मन वश में न हो तो
दिया जाए तो व्यक्ति का आत्मकल्याण मन से बड़ा कोई दुश्मन नही है।
निश्चित है। 100) मन की शक्ति अपार है जो इस शक्ति का | 113) सद्कार्यों की अनुमोदना से मन शुभ प्रवृत्तियों
सदुपयोग करने की कला जान लेता है, की ओर बढ़ता है व गुणों का विकास होता
सफलता से दूर नहीं रह सकता । 101) अनुकुल - प्रतिकूल परिस्थितियों के बीच | 114) मेहनत और ईमानदारी से अर्जित किया
समभाव से अपनी अंतर्यात्रा पूरी करने वाला गया धन शांति, समृद्धि व संतोष को जन्म साधक ही 'प्रभुत्व' को पा सकता हैं।
देता है । इसके विपरीत छल व पाप वृत्ति 102) श्रद्धा सम्यकरत्न है, इसके समक्ष सभी
से अर्जित किया गया धन अशांति व कलह
का कारण बनता है। रत्न फीके हैं। 103) 'श्रद्धा' नर से नारायण बना देती है।
115) ज्ञान प्रत्येक जीव का मौलिक गुण है । 104) श्रद्धा तो हृदय की क्यारी से उठने वाली
116) ज्ञान प्रतिकूल परिस्थितियों में भी समभाव सुवास है, इसे बाजार से नहीं खरीदा जा
रखना, शांत रहना सिखाता है । सकता।
117) सत्य जीवन का आधार है। 105) भोजन का आनंद भूख में है, भजन का 118) यह सर्वकालिक सार्वभौमिक सत्य है कि सत्य आनंद भक्ति में है व आराधना का आनंद
सदा विजयी होता है। श्रद्धा में है।
119) सत्य निडर होता है, इसलिए विनम्र व 106) अपने आत्मोत्थान के लिए की जाने वाली सरल होता है। धार्मिक क्रियाओं के लिए किसी अन्य व्यक्ति
120) जैसे प्रातःकाल सूर्य की किरणें जब धरती पर निर्भरता उचित नहीं है।
के कण-कण, तृण-तृण को आलोकित करती 107) चातुर्मास आत्म मंथन व आत्मावलोकन है, तो ओस गायब हो जाती है । वैसे ही का अवसर है।
सत्य की प्रखरता के सामने असत्य का 108) व्रत और नियम जीवन रूपी गाड़ी के पहियों
अस्तित्व समाप्त हो जाता है। के नट बोल्ट है । इन्हें जितना कसा जाए 121) व्यर्थ की बातों में रस लेने के कारण मनुष्य
जीवन यात्रा उतनी ही सुरक्षित होती है। पूर्णज्ञान प्राप्त नहीं कर पाता । 109) भूल पर भूल करना नादानी है और भूल | 122) मनुष्य को चाहिए कि अपनी बौद्धिक क्षमता पर पश्चाताप करने वाला ही सच्चा इन्सान
का उपयोग स्वयं के विकास के लिए करे, न
कि दूसरों को नीचा दिखाने के लिए | 110) संकल्प, सफलता का प्रथम द्वार है। 123) समय का प्रत्येक पल बेहद मूल्यवान है, 111) यदि संकल्प दृढ़ हो तो राह के शूल भी
इसका सदुपयोग करना चाहिए । फूल बन जाते हैं।
| 124) आलस्य दुर्गुर्गों की खान है ।
Page #92
--------------------------------------------------------------------------
________________
125) सच्चा धार्मिक वही है जो दूसरों के प्रति | 137) मनुष्य भव कर्मो के बंधन काटने के लिए दया व मैत्री भावना रखता है।
मिला है, लेकिन इंद्रियों की असीम क्षुधा 126) ज्ञानी सदैव शुभ चिंतन करते हैं।
को तृप्त करने के मूर्खतापूर्ण प्रयास में मनुष्य
इस बंधन को और मजबूत बना रहा है। 127) शरीर प्रतिक्षण मृत्यु की ओर बढ़ रहा है,
रूप की आभा क्षीण हो रही है व धन तो | 138) दुःख से सभी छुटकारा चाहते हैं लेकिन चंचल है, इसलिए इन पर अभिमान करना
दुःख से तब तक छुटकारा नहीं हो सकता महामूढ़ता है।
जब तक सुखों की चाह है। 128) हिंदू वही है जो हिंसा का विरोधी है। 139) पश्चिमी संस्कृति का अंधानुकरण हमें विकास
की ओर नहीं विनाश की ओर ले जाता है। 129) धन के प्रति बढ़ती चाह, पतन का कारण है। 130) चारित्र वह अनमोल हीरा है, जिसकी प्राप्ति
140) संवर और निर्जरा का मार्ग मिलने के बाद मनुष्य भव में ही संभव है । चारित्र के बिना
भी आडंबर को बढ़ावा देना, कुरीतियों को न तो कर्मो का क्षय होता हे और न मोक्ष
प्रोत्साहित करना, जीवन मूल्यों को ताक की प्राप्ति ।
पर रख देना बुद्धि के दिवालिया पन का
प्रमाण हैं। 131) मोक्ष मार्ग कमजोर व्यक्तियों के लिए नहीं है। इस मार्ग पर चलने वाले साधक के धैर्य 141)
महापुरूषों, संतो को अपना आदर्श बना व संकल्पशक्ति का पग-पग पर परीक्षण
लेना ही पर्याप्त नहीं है । आवश्यक है कि होता है । यह तो संसार की विषयवासना की
उनके सिद्धांतो को अपनाया जाए, उन्होनें आंधियों के बीच संयम, विवेक व समभाव
जिन-जीवन मूल्यों का प्रतिपादन किया है वे का दीप जलाने का मार्ग है।
हमारे जीवन के अंग बने । 132) तपस्वियों की अनुमोदना का श्रेष्ठतम तरीका 142) आदर्श अच्छा हो तो दिनचर्या अच्छी होती यही है कि उनसे प्रेरणा लेकर हम भी तप
है, दिन-चर्या अच्छी हो तो जीवन अच्छा करें।
बन जाता है। 133) शुद्ध भाव, निर्मल मन व अपेक्षा रहित 143) दूसरों को धोखा देना सरल है, किंतु स्वयं तपस्या ही कर्म निर्जरा में सहायक होती को धोखा देना मुश्किल ही नही असंभव है।
144) दूसरों को बुरा बताकर, उनकी निंदा करके 134) आध्यात्मिक कार्यो में धन का महत्व 'आत्मिक हम स्वयं अच्छे नहीं हो सकते । विपन्नता' का सूचक है।
145) पर-दोष दर्शन की प्रवृत्ति को त्यागें, स्वदोष 135) जो धर्म को धारण करता है, धर्ममय जीवन
दर्शन शुरू करें। जीता है और प्रतिकूल परिस्थिति में भी
146) भूल हो जाने पर उसे स्वीकार कर पश्चाताप धर्म से विमुख नहीं होता, ऐसे ही मनुष्य का जन्म व जीवन सार्थक होता है।
करना महापुरुषों का लक्षण हैं |
147) तपस्या में भावों की शुद्धि अनिवार्य है । 136) धर्म विकारों व कषायों का नाश करता है
तपस्या का एकमात्र उद्देश्य कर्म निर्जरा और गुणों की वृद्धि करता है । शांति, सहजता
हो। और समता धर्म के फल है।
Page #93
--------------------------------------------------------------------------
________________
148) तपस्या आंतरिक कषायों से मुक्ति का माध्यम | दिखाई देना चाहिए। है । कर्मो का पिघलना ही 'तप' है।
160) सामायिक से चारित्र की शद्धि होती है, 149) भारत जैसे गरीब देशमें, जहाँ लाखों लोग वही संसार की सबसे कीमती पूंजी है। कुपोषण के शिकार है, खाद्य पदार्थो की
161) जिस प्रकार औषधि को जेब में रखलेने से बरबादी सामाजिक अपराध है।
रोग नहीं मिटता, उसी प्रकार यदि सामायिक 150) प्रातः काल व संध्याकाल का समय
आत्मा में न रमे तो भव भ्रमण नहीं मिटता । आत्मविकास के लिए अति उपयोगी है ।
162) सामायिक की साधना से नर नारायण बन चिंतन मनन व धर्म के लिए यह समय सर्वश्रेष्ठ
जाते हैं। है।
163) परिग्रह समस्त बुराइयों की जड़ है। परिग्रह 151) जिस प्रतिक्रमण में पश्चाताप न हो वह सिर्फ
की भूख जब बढ़ जाती है तो बुद्धि और द्रव्य प्रतिक्रमण है।
विवेक सो जाते है। 152) सामायिक और प्रतिक्रमण श्वास से भी
164) संसार के समस्त संबंध खुली आँखों से अधिक महत्वपूर्ण है।
देखे गए सपने के समान है। 153) जिस देश के लाखों लोग गरीबी में जीते
165) सदाचार, तप-नियम संयम व धर्म आराधना है उस देश में घी व तेल के दिये जलाना
को जीवन का अभिन्न हिस्सा बना लेना "एक भयानक पाप है' (महात्मा गांधी)।
चाहिए। 154) मनुष्य की आवश्यकताओं को पूर्ण करने में
166) धर्म का रास्ता भूलों के परिमार्जन और प्रकृति सक्षम है, लेकिन उसकी इच्छाओं
कषायों के उपशमन के लिए ही है । को पूरा करने में नही ।
167) धर्म विमुखता ही मनुष्य के दुःख का मूल 155) आज लोग भगवान महावीर, राम और कृष्ण
कारण है। का नाम तो लेते हैं, लेकिन उनके गुणों को विस्मृत कर देते है।
168) जिसने स्वयं को जाना और पहचान लिया
है, वह दुःखों से मुक्त हो जाता है । 156) नाम-कीर्तन, गुण-कीर्तन व गुणवरण परम कल्याणकारी हैं । किंतु नाम कीर्तन से गुण
169) क्षमायाचना व क्षमादान क्षमापर्व के दो रूप कीर्तन व गुण कीर्तन से गुणवरण श्रेष्ठ है । 157) कोई भी वस्तु यदि सहज उपलब्ध हो तो
170) जिसमें आत्म शक्ति का भंडार होता है, . उसका दुरूपयोग होने लगता है । वस्तु
वही दूसरों को क्षमा कर सकता है। दुर्लभ हो तो मनुष्य उसका उपयोग विवेक 171) ज्ञान के अभाव में विज्ञान, विनाश का से करता है।
कारण बनेगा। 158) मानव भव की हरेक घड़ी अनमोल है क्योंकि 172) कोई भी कार्य करने से पहले यह सोचें कि एक पल भी केवलज्ञान होने में निमित्त बन
क्या इससे हमारा या किसी दूसरे का भला सकता है।
होगा? यदि उत्तर ना में हो तो ऐसा कार्य 159) सामायिक का प्रभाव व्यक्ति के आचरण में
न करें।
69
Page #94
--------------------------------------------------------------------------
________________
173) भाव बिगड़े तो भव बिगड़े । 174) यदि भोगवादी संस्कृति का प्रचार यूं ही
जारी रहा तो आनेवाली पीढ़ियाँ विवेकहीन व संस्कारहीन होंगी व पशुवत जीवन
जिएंगी। 175) विज्ञान की अति आधुनिक खोजों ने मनुष्य
के बाह्य जीवन को तो समृद्ध किया है मगर उसके अंतर्जगत में दरिद्रता ही घनीभूत
हुई है। 176) समुचित परिश्रम के बिना विश्राम का आनंद
नहीं लिया जा सकता। 177) बच्चों में सुसंस्कारों का बीजारोपण करके
उन्हें स्वावलंबी बनाना ही माता पिता का
लक्ष्य होना चाहिए। 178) 'धनवान' बनने से अच्छा है 'धर्मवान'
बनो। 179) जैसे छोटे पौधों को आवारा पशुओं से
बचाने के लिए बाड़ लगाना जरुरी है, उसी तरह बच्चों के कोमल, कोरे मन को बुराइयों से बचाने के लिए उन्हें अनुशासित
रखना जरूरी है। 180) अहंकार मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है। 181) जीवन में यदि सुख और शांति पानी है तो
अहंकार को छोड़ना होगा । 182) कर्मवाद एक अटल व प्रमाणिक सिद्धांत
85) सत्य के प्रति जब तक श्रद्धा नहीं होगी, तब
तक सत्य अंतः करण का हिस्सा नहीं, बनेगा और जब तक अंतःकरण नहीं बदलता
तब तक आचरण नहीं बदल सकता । 186) सत्य के साक्षात्कार में मोह सबसे बड़ी
बाधा है। 187) लाखों लोग भी यदि हमारे प्रति शत्रुता का
भाव रखते हों तो हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकते लकिन यदि हमारे मन में किसी एक व्यक्ति के प्रति भी वैर भाव रहा तो हमारा
कल्याण नहीं हो सकता। 188) शुभ कर्मों का उदय हो तो सत्संग प्रिय
लगता है। 189) मोह माया के वशीभूत भटके हुए मानवों को
अपने घर अर्थात आत्मा की ओर लौटने
का संदेश देता है पर्युषण पर्व । 190) यदि सवेरा होने के बाद भी हम आँख नहीं
खोलते हैं तो गलती हमारी है न कि प्रकाश
की। 191) भोजन, भक्ति और भोग का प्रदर्शन नहीं
होना चाहिए। 192) अनियमित जीवनशैली व असंयमित खान
पान का असर हमारे तन-मन पर ही नहीं,
हमारी आत्मा पर भी पड़ता है। 193) सड़ना, गलना और नष्ट होना पुद्गलों का
स्वभाव है फिर उनसे कैसा मोह ?
शरीर मरण धर्मा है, उसमें आसक्ति क्यों? 194) धन शरीर आदि साधनों का सदुपयोग करके
हमें अपने आत्मोत्थान का मार्ग प्रशस्त
करना चाहिए। 195) नीति विपरीत होने के कारण ही मनुष्य
द्वंद, तनाव आसक्ति आदि बीमारियों से ग्रस्त है।
183) दुनिया की सारी संपत्ति पाकर भी तृष्णा की
आग नहीं बुझती। 184) अध्यात्म मार्ग में उतावले पन से काम नहीं
चलता। इसमें तो श्रद्धा समर्पण और पुरुषार्थ के सहारे ही मंजिल तक पहुँचा जा सकता
Page #95
--------------------------------------------------------------------------
________________
196) ज्ञान आत्मा का सार है।
209) मन की कठोरता बड़ी भयंकर है। यह 197) जिसमें संवर और निर्जरा है, वही
मनुष्य की सहजता, सरलता व जीवंतता आचरणीय धर्म है।
को नष्ट कर देती है। 198) अध्यात्म मार्ग में सफलता पाने के लिए
210) कर्म सिद्धांत न्याय का सिद्धांत है। राजा बच्चों जैसी सरलता और निर्दोषता होनी
हो या रंक इसमें किसी के साथ अन्याय
नहीं होता। चाहिए। 199) कर्म बंधन को तोड़ कर स्वयं को मुक्त
211) मन यदि इन्द्रियों के पीछे भागता है तो करना ही धर्म साधना का लक्ष्य है।
भिखारी बन जाता है, यदि मन पर ज्ञान
का अंकुश लगा दिया जाए तो मन राजा 200) भीतर की शक्ति को न पहचानने के कारण
बन जाता है। मनुष्य कर्मों के सम्मुख दीन हीन बना हुआ है | यदि आत्मिक शक्ति का प्रयोग किया
212) भाषा आदमी के मन के विचारों का जाए तो मुक्ति दूर नहीं है।
दर्पण होती है। 201) सत्संग रूपी नौका में सवार होकर मनुष्य
213) अच्छे संस्कारों से जीवन आदर्श बनता है। भव सागर के पार जा सकता है । 214) ज्ञानी के लिए मृत्यु जीवन की पूर्णता है व 202) वर्तमान का शुभ पुरुषार्थ भविष्य का सौभाग्य अज्ञानी के लिए जीवन का अंत ।
बनता है और अशुभ पुरुषार्थ भविष्य में | 215) लोभवृत्ति मनुष्य को क्षुद्रताओं से ऊपर नहीं दुर्भाग्य बन कर सामने आता है।
उठने देती, इसी कारण यह जीव विराट 203) दृष्टि यदि सम्यक् न हो तो अज्ञान के कारण सत्य का दर्शन नहीं कर पाता |
मोह और तृष्णा का जन्म होता है। 216) संसार की प्रत्येक चीज अपनी मर्यादा से 204) तृष्णा के वशीभूत मनुष्य अपने सुख से
बंधी हुई है । यदि मर्यादा का बंधन न हो सुखी नहीं होता और दूसरों के सुख से
तो कोई भी गिर सकता है | बंधन एक दुःखी होता है।
प्रकार से सुरक्षा है। धर्म का बंधन हमारी
आत्मा की रक्षा करता है। 205) जैसा चिंतन होता है वैसी ही दृष्टि होती
217) जैन धर्म 'कर्म प्रधान' व 'आत्मा प्रधान' है। सकारात्मक चिंतन करने वाला व्यक्ति सदैव सुख का अनुभव करता है, क्योंकि
है । यह साधना का पथ है । इसमें वह अभाव को नहीं देखता | नकारात्मक
थोड़े'चमत्कारों का दावा करके भीड़ इकट्ठी चिंतन करने वाला व्यक्ति सदैव दुःखी रहता
की जा सकती है, लेकिन मोक्ष तक नहीं है क्योंकि वह फूल में भी काँटे देखता है।
पहुँचा जा सकता है | चमत्कार आत्म
प्रवंचना के अतिरिक्त कुछ नहीं। 206) माँ शब्द में अद्भुत शक्ति है। माँ का नाम ही हमारी सहनशक्ति को बढ़ा देता है।
218) ज्ञान आचरण बन जाए यही चारित्र है। 207) जिनवाणी, जगत उपकारी माँ है ।
219) छोड़ने लायक पदार्थों को छोड़ना व धारण
करने योग्य को धारण करना यही चारित्र 208) जीओ, मगर संयम से |
धर्म है, यही मोक्ष मार्ग है।
Page #96
--------------------------------------------------------------------------
________________
220) दुःख में हमारे धैर्य, सहनशीलता व धर्म | रहित होकर श्रद्धा भाव से परमात्मा के निष्ठा की परख होती है।
प्रति संपूर्ण समर्पण करके जो जीवन पथं 221) दुःख की घड़ी आत्म निरीक्षण, आत्ममंथन
पर कदम बढ़ाते हैं, उनका ही जन्म और का समय है।
जीवन सार्थक है। 222) सुख और दुःख की अनुभूति हमारी अपनी
231) आत्म बल ही सर्वश्रेष्ठ बल है। ही मनः स्थिति का प्रक्षेपण है।
232) धर्म को प्रधानता देने व सांसारिक विषयों
को गौण करने से 'आत्मशक्ति' बढ़ती है। 223) पुत्र जन्म पर खुश होना, व पुत्री जन्म पर उदास होना, संपूर्ण नारी जाति का अपमान 233) मनुष्य भव भगवान बनने के लिए, तन तिरने
के लिए व शरीर सर्वत्र बनने के लिए मिला 224) जन्म लेने से पूर्व ही किसी जीव की हत्या
कर देना, जघन्य दुष्कृत्य है । वह जीव 234) जिस घर में बुजुर्गों की सेवा व सम्मान कोर्ट में मुकदमा दायर नहीं कर सकता, नहीं होता उस घर में शांति और सामंजस्य किंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि उस दुष्कृत्य नहीं होता। की सजा नहीं मिलेगी? अपने दुष्कर्मो का
235) जन्म जन्म की तृषा सांसारिक सुख रूपी फल देर-सवेर अवश्य मिलता है।
ओस चाटने से शांत नहीं होगी, उसके 225) इच्छाएँ दुःख का मूल है । अधिकांश लोग लिए तो जिनवाणी रूपी सत्य की शीतल
इच्छाओं की तृप्ति के लिए जीवन भर दौड़ते जल धारा ही आवश्यक है। है व अतृप्त इच्छाओं के साथ ही मर जाते
236) अनासक्ति, वैराग्य, धर्मसाधना और तपस्या है । यदि मृत्यु के पूर्व आसक्ति के बंधन टूट
के मार्ग पर गतिमान रहने के लिए जायें तो व्यक्ति पंडित मरण को प्राप्त होता
आत्मविश्वास अत्यावश्यक है।
237) सेवा और सदाचार भारतीय संस्कृति के 226) 'श्रद्धा' परमात्मा के जगत का प्रवेश पत्र
प्राण हैं।
238) सूर्य का प्रकाश तो दिन भर के लिए पृथ्वी 227) श्रद्धा हो तो परम सत्य का साक्षात्कार
को आलोकित करता है, किंतु जिनवाणी किया जा सकता है।
का आलोक मनुष्य को अनवरत हर पल 228) जिस हृदय में श्रद्धा उमड़ती है उसका उपलब्ध रहता है। जीवन रूपांतरित हो जाता है, उसकी जीवन
239) जैसे भोजन की चर्चा मात्र से पेट नहीं दृष्टि बदल जाती है।
भरत। उसी प्रकार केवल धर्म कथा,संत 229) कषाय आदि क्षुद्रताओं में उलझा मनुष्य प्रवचन सुन लेने से आत्म कल्याण नहीं हो सत्संग में पहुँच कर भी सत्य के संग नहीं
सकता। हो पाता।
240) संघ रूपी नगर की रक्षा के लिए चारित्र 230) समदर्शी, समताभावी, कामना रहित, भय । रूपी प्राकार (पर कोटा) अनिवार्य है ।
Page #97
--------------------------------------------------------------------------
________________
241) जैसे अग्नि में तप कर सोना कुंदन बन | 252) हृदय में उदारता, मन में प्रेम हो तो सारा जाता है वैसे ही तप द्वारा भीतरी कचरे को
संसार अपना है। जला कर मनुष्य शुद्ध बन सकता है।
253) 'मैत्री भाव' धर्म की पहली सीढ़ी है। 242) जिस संघ में चारित्र को प्रधानता नहीं दी
254) अल्प साधनों का उपयोग करते हुए जीने गई हो, वह लंबे समय तक नहीं टिक सकता ।
' वाला ही सच्चा श्रावक है। चारित्र ही वह बुनियाद है जिसके आधार पर किसी संस्था का निर्माण हो सकता है।
255) लोभ ही सारे उपद्रवों की जड़ है। चारित्र को गौण करने के कारण ही लोगों
256) संसार एक रोग है, धर्म इस रोग की औषधि का अहं टकराता है व संस्थाएँ रेत के घर
और मोक्ष परम स्वास्थ्य है । की तरह बिखर जाती है।
257) जैसे मकड़ी अपने ही बनाए जाल में फँस 243) संघ वह धर्मरथ है जो शील रूपी पताका
जाती है व मृत्यु को प्राप्त होती है, वैसे ही व तपनियम रूपी घोडे से सज्जित होता
लोभ के जाल में फँसा मनुष्य नाना योनियों
में भटकता हुआ दुर्गति को प्राप्त होता है । 244) प्रदर्शन हीन भावना का द्योतक है।
258) राग और द्वेष के कीटाणु हमारे मस्तिष्क 245) धर्म के लिए भीड़ का महत्व नहीं है, धर्म
शर्म |
को खोखला बनाते हैं। तो व्यक्तिगत जीवन में गुणात्मक परिवर्तन 259) परोपकार सबसे बड़ा पुण्य और पर पीड़ा को महत्व देता है।
सबसे बड़ा पाप है। 246) धर्म मनोरंजन या बुद्धिरंजन का विषय नहीं 260) जो देना जानता है वही पाने का पात्र बनता
है, यह तो अंतःकरण को बदलने व आचरण में लाने के लिए है।
261) संसार में मनुष्य वही पाता है जो वह दूसरों 247) साधक आत्मपंथी बनेगा, तभी आत्मज्ञान
को देना चाहता है। के द्वार खुलेंगे।
262) भोग नर्क की ओर और भोग का त्याग 248) आग लगाने वालों के बाग नहीं लगते ।
मोक्ष की ओर ले जाता है । 249) जिसने अपनी रसना को नियंत्रण में रखा,
263) संतोष एक ऐसा सुख है जो सामान्य व्यक्ति को वह अपने लिए सुखों का द्वार खोल लेता है। प्राप्त नहीं होता । जिसे धर्म की समझ हो, जो 250) साधक का कार्य किसान की तरह होता है । विवेकशील हो, जिसने सत्संग करके ज्ञान अर्जित
जैसे किसान खेत की पैदावार बढ़ाने के किया हो वही संतोषी हो सकता है। लिए खरपतवार की सफाई करता रहता है,
264) संतोष से स्वभाव रूपी आनंद की प्रप्ति वैसे ही साधक को अपने ज्ञान चारित्र रूपी
होती है। उपज को बढ़ाने के लिए कर्म रूपी खरपतवार की सफाई करते रहना चाहिए।
265) युवावस्था धर्म ध्यान करने का सर्वश्रेष्ठ समय 251) धनवान वही है, जिसका हृदय विशाल है।
Page #98
--------------------------------------------------------------------------
________________
266) परमात्मा महावैद्य हैं क्योंकि उन्होनें हमें | 279) आचरण ज्ञान की सुगंध है। जिनवाणी रूपी वह औषधि दी है जो हमारी
280) ज्ञान ही आत्मा को वास्तविक आनंद दे आत्मा पर लगे जन्म जन्मांतर के रोगों का
सकता है, बशर्ते कि ज्ञान कोरी भाषणबाजी इलाज कर सकती है।
तक सीमित न रहे। 267) पदार्थ में सुख नहीं, सुख का आभास
281) ज्ञान का क्रिया से मेल परमावश्यक है। मात्र है।
282) सांसारिक मोह माया की धूल के कारण हमें 268) गुरू वह है जो हमारे जीवन में व्याप्त मोह
अपने चित्त के दर्पण में सच्चाई के दर्शन लोभ आदि अंधेरों को दूर करते है व हमें
नहीं होते । ज्ञानरूपी उजाले की ओर ले जाते हैं।
283) परमात्मा का ज्ञान ही हमारे अंतर्चक्षुओं 269) हम मृत्यु को रोक नहीं सकते किंतु उसे
को खोल सकता है। सुधार अवश्य सकते है ।
284) जब तक हम गुणानुरागी नहीं बनेंगे, तब 270) छोटे-छोटे नियम भी हमारे जीवन को
तक गुणों को नहीं अपनाएंगे व गुणों को संवारने व सुधारने में अहम भूमिका निभाते
अपनाए बिना आत्मकल्याण असंभव है ।
285) दूसरों के दुर्गुणों को देखने से हमारे अपने 271) यदि संत न होते तो यह संसार जीने
दुर्गुण कम नहीं होंगे। योग्य न होता।
286) पाप ऊमस के समान है । यदि इस पर 272) आज मनुष्य अपने 'कर्मो को जलाने' के जिनवाणी की बरसात हो जाए तो परम बजाय अपने 'गुणों को जलाने' में लगा शांति व्याप्त हो जाती है।
287) भाषा हमारे संस्कारों, हमारी सभ्यता व 273) आज लोग त्यागियों के चरणों मे सिर हमारे व्यक्तित्व की परिचायक होती है । तो झुकाते हैं, किंतु उनके गुणों को नहीं
288) जैन साधु साध्वी 'मोबाइल तीर्थ' हैं। " अपनाते।
289) भाषा संस्कृति की संवाहक है । यदि 274) आचार ही प्रथम धर्म है।
हमने अपनी भाषा, अपनी संस्कृति की 275) देव दुर्लभ मानव तन को पाकर भी राग द्वेष रक्षा नहीं की, तो हमारी पहचान, हमारा के खेल में लगे रहना, महा मूढ़ता है।
अस्तित्व संकट में पड़ सकता है । 276) सामायिक राग द्वेष को मिटाने की वास्तविक 290) अध्यात्म रहित जीवन निरर्थक है । व सरल विधि है।
291) खाओ पीओ और मौज करो की पश्चिमी 277) सामायिक मानव मात्र को सुलभ स्थायी संस्कृति को अपनाकर हम स्वयं अपने विनाश कमाई है।
का पथ निर्मित कर रहे हैं। 278) जिसके पास सामायिक की कमाई व प्रतिक्रमण | 292) स्वधर्मी की उत्थान भावना, हमारी पहचान की पूंजी है, वही वास्तविक सेठ है।
होनी चाहिए।
Page #99
--------------------------------------------------------------------------
________________
293) दुनिया में हर चीज नई अच्छी लगती है | 299) सामान्यतः जो पाँच (वय) में नहीं सुधरता
लेकिन माँ नई कोई नहीं चाहता। | वह पचपन में भी नहीं सुधरेगा । 294) धर्म का तात्कालिक फल - मानसिक | 300) मानव को चाहिए कि वह दूसरों के कल्याण, शांति ।
समाधि व सुख में निमित्त बने, दुःख में 295) स्मृति कान से नहीं, परंतु मन की एकाग्रता
निमित्त न बने। से मिलती है।
301) एक पच्चक्खाण से भी जीव के गुणों में 296) घर में पुस्तकों को देख कर मानव की विचार
अनंत गुणी वृद्धि होती है। धारा एवं उसकी मानसिकता का पता चलता 302) जो समुद्र तैर लेता है उसके लिए नदी
तैरना कठिन नहीं है । वैसे ही जो अब्रह्म 297) जिसका मन ज्ञान में रमण करता है, उसे
का त्याग कर देता है, उसके लिए शेष
व्रत पालन कठिन नहीं है। इन्द्रिय सुख की जरूरत नहीं है। 298) माता-पिता को चाहिए कि बच्चों को अति सुविधाएँ न देकर, सुसंस्कार दें।
श्री श्रमण भगवान महावीर स्वामी
की सदा जय विजय हो !
गहराई में उतरे तो मोती मिलेंगे
१.
२.
३..
४.
जे दुःख ने हरे ते मंगल नहि, पण दुःख ने पैदा न ज थवा दे तेज “खरूं मंगल" | जो सुख ने करे ते मंगल नहि, पण सुख नी चाहना न थवा दे तेज “खरूं मंगल" | जो पाप ने हरे ते मंगल नहि, पण पाप ना अध्यवसाय पैदा थवा न दे ते “खरूं मंगल" | जे रोग ने दूर करे ते मंगल नहि, पण असाता वेदनीय कर्म नो, बंध थवा न दे तेज मंगल | जे मरण ने रोके ते मंगल नहि, पण आयुष्य कर्म नो बंध थवा न दे ते मंगल | जे कष्टों ने कापे ते मंगल नहि, पण भव ना भ्रमण ने हटावे ते मंगल । जे अहित न थवा दे ते मंगल नहि, पण आत्मा ना हित मा जे थापी दे ते मंगल |
६.
७.
Page #100
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगमिक-प्रश्नोत्तर ) धर्म श्रद्धा का दूसरा नाम क्या है ? उ. सम्यक्त्व - सम्यग्दर्शन जैन धर्म में परमार्थ किसे माना गया है? उ.“नव तत्व का ज्ञान". जैन धर्म का नाम आगम में क्या है ? उ. जिण धम्मो (केवली पण्णत्तो धम्मो) तीर्थंकरो के धर्म को क्या कहते है ? उ.जिन धर्म सर्व प्रथम क्या सीखना चाहिए? उ. “नव - तत्व” अरिहंतो महदेवो... में क्या ग्रहण किया जाता
उ. सम्यक्त्व अरिहन्त और सिद्ध का शामिल नाम क्या है? उ. वीतराग देव जिन कार्यों से धर्म में श्रद्धा उत्पन्न हो, और धर्म श्रद्धा सुरक्षित रहे, उसे क्या कहते हैं ? उ श्रद्धान ! ये चार होते हैं । आत्मा के लिए परमार्थ क्या है ? उ. मोक्ष नव तत्व का नाम किस किस शास्त्र में आता है? उ. ठाणांग सूत्र, व उत्तराध्ययन का 28 वाँ अध्ययन । चार श्रद्धान में धारण करने योग्य कितने ? उ. दो - पहला और दूसरा चार श्रद्धान का शास्त्रों में कहां वर्णन है ? उ. आवश्यक सूत्र में (अरिहंतो महदेवो) । चार श्रद्धान में से छोड़ने योग्य कितने ? उ.दो - तीसरा-चौथा वस्तु का वास्तविक स्वरुप क्या है ? उ.तत्व हिंसा आदि पाप से लिप्त को कौनसा तीर्थ कहते है ? उ. कुतीर्थ
16) 67 बोल का अधिकार कहाँ आता है ?
उ.प्रवचन-सारोद्धार ग्रंथ । परमार्थ के जानने वालों की क्या करने से सम्यक्त्व दृढ़ होती है ?
उ."सेवा" 18) जो जैसा है उसे वैसा मानना (दृढ़ता पूर्वक)
को क्या कहते है?
उ. “सम्यक्त्व" 19) बाहरी गुणों से यह सम्यक्त्वी है, ऐसा आभास
होता है, उसे क्या कहते है ?
उ. "लिंग" 20) धर्म सुनने में अनुराग का चिह्न व हर्षित
होना, ये किसके बाहरी चिह्न है ? उ. “सम्यक्त्व के" तीर्थंकरो के धर्म को क्या माना है ? '
उ. विनय मूल धम्मो 22) विनय को क्या माना है ?
उ. आठवाँ तप (आभ्यन्तर) व पुण्य नववां । 23) वीतराग देव कौन-कौन से है ?
उ. “अरिहंत व सिद्ध" आठ कर्मों को नष्ट करने वाले प्रधान गुण को क्या कहा है?
उ. विनय 25) हिन्दू धर्म के अनुसार वेद ईश्वर की वाणी
है, महात्मा बुद्ध की वाणी का संकलन पिटक, उसी तरह तीर्थंकर की वाणी को क्या कहा गया है ?
उ. आगम (सुत्तागमे, अत्थागमे) 26) मूल पाठ को (आगम के) क्या कहते है ?
उ.सुत्तागमे 27) तीर्थंकर भगवान क्या फरमाते है ?
उ.आगम का अर्थ सूत्र आगम के अर्थ को क्या कहते हैं ? उ. अर्थ-आगम
Page #101
--------------------------------------------------------------------------
________________
29) अर्थ आगम को सूत्र आगम रुप में कौन । 40) ज्ञान का फल क्या है ? गूंथते है ?
उ.विज्ञान उ. गणधर भगवान तथा 10 से 14
41) विज्ञान का फल क्या है ? पूर्वधर तक के ज्ञानी ।
उ.प्रत्याख्यान ज्ञान के अतिचार कितने है ?
प्रत्याख्यान का फल क्या है ? . उ. सम्यक ज्ञान के 14 अतिचार है ।
उ."संयम" अच्चक्खरं का अर्थ क्या है ?
संयम का फल क्या है ? उ. अधिक अक्षर लगाना, ये चौथा अतिचार
उ. अनाश्रव
अनाव का फल क्या है ? क्या नमो अरिहंताण के आगे “ॐ” लगाने
उ. तपस्या से दोष नहीं लगता ? उ.दोष लगता है | ज्ञान का अतिचार है,
तपस्या का फल क्या है ? शाश्वत नवकार के आगे-पीछे शब्द जोड़न
उ.निर्जरा उचित नहीं । अनंत-ज्ञानी की आशातना 46) निर्जरा का फल क्या है?
उ. अकिरिया 33) ज्ञान प्राप्ति का क्या उपाय है ?
47) अकिरिया का फल क्या है ? (भगवती सूत्र उ. भगवती सूत्र के अनुसार 'सवणे' (श्रवण)
के दो, उद्देश पांच) से ज्ञान शुरू होता है । सन्त महात्माओं की
उ. मोक्ष सेवा से, सुनना मिलता है । सुनने का फल
प्रतिक्रमण का शास्त्रीय नाम क्या है ? ज्ञान होना बताया है।
उ. आवश्यक सूत्र (आगम) मनन-चिन्तन, स्मृति और इन्द्रियों के निमित्त
49) आवश्यक सूत्र के कितने अध्ययन है ? से होने वाले बोध को क्या कहते हैं ?
उ. कुल छः है 1) सामायिक 2) चउवीसत्थव) उ. “मतिज्ञान या आभिनिबोध ज्ञान"
3) वंदना 4) प्रतिक्रमण 5) काउस्सग 6) 35) सुनना और बोलना कौनसा ज्ञान ?
प्रत्याख्यान । उ. "श्रुत ज्ञान"
50) 24 तीर्थंकरो की स्तुति किस आवश्यक में 36) रूपी पदार्थों (वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, सहित)
के मर्यादित ज्ञान (भूत, भविष्य, और वर्तमान उ. दूसरा-चउवीसत्थव कालिक) को क्या कहते हैं ?
समभाव की साधना का नाम क्या है? उ.अवधि ज्ञान
उ.सामायिक संज्ञी, पंचेन्द्रिय जीवों के मन को जानने
52) सद्गुरुओं को वन्दन नमस्कार किस आवश्यक वाले ज्ञान को क्या कहते हैं ?
में करते हैं ? उ.मन : पर्यव ज्ञान
उ.तीसरा-वन्दना 38) तीनों काल, लोक-अलोक को जानने वाले
53) दोषों की आलोचना किस आवश्यक में है? ज्ञान को क्या कहते हैं ?
उ.प्रतिक्रमण नामक चौथे आवश्यक में है। उ. केवल-ज्ञान
54) प्रायश्चित रुप 'काया के प्रति ममत्व त्याग' 39) सदज्ञान-सुनने का क्या लाभ है ?
कौनसा आवश्यक है ? सम्यक् ज्ञान होता है।
उ. कायोत्सर्ग नाम का पाँचवा आवश्यक है।
34)
51)
27)
Page #102
--------------------------------------------------------------------------
________________
16)
20)
( सिद्ध-प्रश्न माला )
14) सिद्ध को किस तत्व में लिया गया है ?
उ. मोक्ष, जीव 1) सिद्धों की जघन्य अवगाहना से उत्कृष्ट
15) सिद्ध भगवान में कौन से रतन होते है ? अवगाहना कितनी गुणी बड़ी है ?
उ. सम्यक् ज्ञान व सम्यक दर्शन | उ. 1000 गुणी
अनंत गुण किसमें पाए जाते है ? 2) महावीर स्वामी सिद्ध की स्थिति लिखो ?
उ.सिद्धों में , उ. सादि अनंत ।
केवली भगवान मोक्ष जाने से पहले, अपने अनंत सिद्ध की स्थिति लिखो ?
आत्मा को कितना SHORT करते हैं ? (घन) उ.अनादि अनन्त
उ. एक तिहाई (आत्म प्रदेशो का घनीकरण) सिद्ध शिला के अंतिम छोर से सिद्ध
18) क्या जन्म से नपुंसक मनुष्य मोक्ष जा सकता कितने दूर है ?
है? हाँ या ना ? उ.एक योजन में गाउ का छल्ला भाग कम ।
उहाँ 5) सिद्ध शिला किस सोने की बनी हुई है ?
सिद्ध कहां रहते हैं ? उ. अर्जुन सोने की । (सफेद)
उ. लोक के मस्तक भाग में, लोक के अंत में। 6) लोक में सब से छोटी पृथ्वी का नाम बताओ?
सिद्ध भगवान शरीर कहाँ छोड़ते है ?. उ.सिद्ध शिला
उ.तिरछे लोक में। 7) क्या सिद्ध शिला पर, सिद्ध भगवान रहते
21) क्या सिद्ध भगवान जहाँ रहते हैं, वहाँ संसारी है ? (हां या ना)
जीव हैं ? उ. नहीं
उ. पाँच प्रकार के स्थावर जीव । 8) कितने नपुंसक एक समय में मोक्ष जा सकते
22) छः काया में से कितने जीव रहते हैं ? हैं? (जघन्य और उत्कृष्ट) जघन्य एक, उत्कृष्ट दस
उ. पाँच काया के (त्रस काया को छोड़कर) जैन साधु के वेश में अधिक से अधिक
अरिहन्त प्रश्न माला कितने सिद्ध हो सकते हैं ?
सर्वोत्तम उपकारी पद कौन ? उ. 108
उ. अरिहन्त समद्र से अधिक से अधिक कितने सिद्ध हो
पाँच पदों में सबसे कम संख्या किनकी? . सकते है ?
उ.अरिहन्त उ.जघन्य एक, उत्कृष्ट दो ।
3) विहार करे, राग न करे कौन ? 11) अशरीर ये किसका गुण है ?
उ.अरिहन्त उ. सिद्धों का। एक सिद्ध में समान अवगाहना वाले सिद्ध
चार घाती कर्म के क्षय का संकेत किस शब्द कितने रहते है ?
में है? उ. अनन्त
उ. अरिहन्त 13) सिद्ध लोक में (तिरछे लोक से) जाने में | 5) जघन्य 20 व उत्कृष्ट 170 कौन होते है ? कितना समय लगता है ?
उ. तीर्थंकर-अरिहन्त उ. एक समय
Page #103
--------------------------------------------------------------------------
________________
18)
6) आत्मा है, परमात्मा है, परन्तु शरीर धारी | 15) अव्रती, देशव्रती, प्रमत्त संयती, अप्रमत्त हैं, कौन ?
संयती, व सिद्धों में सभी में क्या पावें ? उ. अरिहन्त
उ. क्षायिक समकित 7) पाँच पदो में से वह कौनसा पद है, जहाँ | 16) जिन कितने प्रकार के होते है ? उत्कृष्ट निर्जरा होती है ?
उ. तीनः अवधि जिन, मनःपर्यय जिन, उ.अरिहन्त (14 वे गुणस्थान के अंत में) केवली जिन अरिहन्त भगवान किस ध्यान में बनते हैं? 17) स्नातक आत्मा कब बनती है ? उ. परम शुक्ल ध्यान में।
उ. 13 वें गुणस्थान के प्रारम्भ में, जब केवल ज्ञान मनुष्य को होता है, तब इन्द्र को ।
आत्मा सर्वज्ञ, सर्वदर्शी बन जाती है। कैसे पता लगता है ?
अरिहन्त के दूसरे नाम लिखिए ? उ. केवली परम शुक्ल लेश्या के पुद्गलों को
उ. जिन, वीतरागी, केवली, सर्वज्ञ, छोड़ते है, जिसे इन्द्र अवधिज्ञान में देखते
सर्वदर्शी।
19) चार प्रकार के मनुष्यों में अरिहन्त कौन मनुष्य 10) पाँच पद में परम शुक्ल लेश्या कहाँ पाती
बनता है ?
उ. 15 कर्म भूमिज मनुष्य उ.अरिहन्त में (13 वे, गुणस्थान में)
20)
अरिहन्तकीआयु बताएँ ? . 11) तिन्नाणं -तारयाणं किसे कहा गया है ?
उ. केवली अरिहन्त की ज. 9 वर्ष उत्कृष्ट
(गर्भ काल सहित) एक करोड़ पूर्व वर्ष, उ. अरिहन्त को
तीर्थंकर अरिहन्त ज.72 वर्ष। उ. 84 लाख 12) अरिहन्त के 12 गुणों में से अध्यात्म एवं
पूर्व वर्ष । भौतिक गुणों का बँटवारा करें ?
21) अरिहन्त भगवान की अवगाहना बताएं ? उ.चार अध्यात्म : अनंत ज्ञान, अनंत
उ. तीर्थंकर अरिहन्त ज. 7 हाथ उ. 500 दर्शन, अनंत चारित्र, अनंत बलवीर्य
धनुष तथा केवली की ज. 2 हाथ उ. 500 आठ भौतिक गुणः दिव्य ध्वनि, भामण्डल,
धनुष स्फटिक-सिंहासन, अशोक वृक्ष, कुसुम वृष्टि,
22) अरिहन्त भगवान में गुणस्थान कितने देवदुन्दुभि, छत्र धरावें, चंवर बिंजावे |
पावे ? 13) आठ समय की समुद्घात का नाम क्या
उ. दो. 13 वाँ, 14 वाँ । है ?
वर्तमान में ऋषभादिक 24 अरिहन्त हैं या उ. केवली समुद्घात
नहीं ? कहाँ पर विराजमान है ? 14) 13 वें गुणस्थान में आत्मा वीतरागी बनती नहीं ! सिद्ध लोक में विराजमान हैं। या उससे पहले बनती है ?
24) अरिहन्त की अवगाहना व ज्ञान में परस्पर उ. उससे पहले बनती है।(11वां गुण, 12वां फर्क होता है क्या ? गुण, 13वां गुण एवं 14वें गुण में वीतरागी
उ. अवगाहना में फर्क हो सकता है, ज्ञान रहते हैं)
में नहीं।
Page #104
--------------------------------------------------------------------------
________________
25) चार घाती कर्म के नाम बताइए ?
उ. ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय अंतराय
26) अरिहन्त अघाती कर्म रहित होते हैं या घाती कर्म रहित ?
28)
उ. घाती कर्म रहित होते है । आत्मा के गुणों का, घात करे वो घाती ।
27) अनन्त ज्ञान (केवल ज्ञान) किस कर्म के क्षय होने पर होता है ?
उ. ज्ञानावरणीय (ज्ञान + आवरणीय) के क्षय होने पर ।
अनन्त दर्शन (केवल दर्शन) किस कर्म के क्षय होने पर होता है ?
उ. दर्शनावरणीय (दर्शन+आवरणीय) के क्षय होने पर ।
29) क्षायिक समकिती व वीतरागी कब होते है ? उ. मोहनीय कर्म के क्षय होने पर 30) अनन्त शक्ति (आत्मिक) कब होती है ? उ. अन्तराय कर्म के क्षय होने पर
31) वीतरागी का अर्थ क्या है ?
उ. राग और द्वेष का पूर्णतः क्षय । 32) क्षायिक समकित का अर्थ क्या है ?
उ. ऐसी धर्म श्रद्धा जो भविष्य में कभी भी नही गिरती है । मनुष्य गति में ही उत्पन्न होती है । चारों गति में मिल सकती है । 33) क्षायिक चारित्र का अर्थ बताइए ?
उ. जिस चारित्र (संयम) में, साधु पणा में कषाय का क्षय हो चुका हो ।
34 ) अरिहन्त में कितने रत्न पाते हैं ?
उ. तीन : सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन, सम्यक् चारित्र |
80
35) सम्यक्ज्ञान की परिभाषा बताइए ?
36)
38)
37 ) सम्यक् दर्शन का क्या अर्थ है ?
उ. धर्म श्रद्धा सहित नव-तत्व आदि जो जिन - वाणी का ज्ञान है, वो सम्यक्ज्ञान कहलाता है ।
40)
जिनवाणी किसे कहते हैं ?
उ. जिन (तीर्थंकर) भगवान की फरमायी हुई वाणी को जिन वाणी कहते हैं ।
41)
उ. धर्म श्रद्धा (श्रद्धा-विश्वास) सुदेव, सुगुरु एवं सुधर्म पर श्रद्धा।
धर्म का अर्थ क्या है ?
39 ) वस्तु का अर्थ क्या है ?
उ. वत्थु सहावो धम्मो (वस्तु का स्वभाव ही धर्म है)
उ. जीव, व अजीव सभी पदार्थों को वस्तु कहते है ।
पदार्थ के कितने प्रकार हैं ?
उ. जीव, अजीव, पुण्य आदि नव पदार्थ (तत्व) (पद+अर्थ) ।
भाव के कितने प्रकार?
उ० भाव स्वभाव और विभाव स्वभाव : जीव और अजीव अजीव : धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय पुद्गलास्तिकाय व काल । ये दो केवल सिद्ध में ही है (क्षायिक और परिणामिक भाव) धर्म का अर्थ है, स्वभाव और हमे स्वभाव पर विश्वास करना चाहिए । मोहनीय कर्म के उदय से हम स्वभाव से विभाव मे आते हैं ।
विभाव जीव : क्षायोपशमिक, उपशम, उदयभाव ये सब कर्म जन्य भाव है, कर्म ही उनका जनक है। भाव का अर्थ है, भावार्थ इति भावः जिसमें कुछ होता है ।
Page #105
--------------------------------------------------------------------------
________________
महाअशुभ कर्म मोहनीय होता है। आठ कर्मो का क्षय होता है । 4 घाती कर्म का क्षयोपशम | मोहनीय का उपशम । आठ कर्मों का उदय ।
42) तीर्थंकरों के अतिशय कितने होते है? उ. (34)
43) वचन के गुण अरिहन्त में कितने होते हैं ? उ. (35)
44) जम्बू द्वीप में कितने विजय (क्षेत्र) होते हैं ?
3. महाविदेह में (32) + 2 ( भरत व एरावत) = 34
45 ) जम्बू द्वीप में कितने विजयों में तीर्थंकर हैं ? (वर्तमान काल में)
उ. (4) महाविदेह की 4 विजयों में 46) लोक में कुल कितने विजय हैं?
उ. महाविदेह पांच 32x5 विजय (160) +10 (भरत पांच, ऐरावत पांच) = 170
47 ) अजितनाथ भगवान के समय कितने तीर्थंकर 'हुए थे ?
49)
3.
(170) तीर्थंकरोंकी उत्कृष्ट संख्या (पांच महाविदेह में 160 + पांच भरत में 5 + पांच ऐरवत में 5 )
48 ) अभी वर्तमान में कुल कितने तीर्थंकर है ? बीस । पांच महाविदेह में X 4
उ.
एक अवसर्पिणी कितने सागरोपम की होती है ?
उ. 10 कोड़ा - कोड़ी सागरोपम का 50) अवसर्पिणी काल में कितने आरे होते हैं ? उ. 6 आरे
51) अवसर्पिणी में कितने तीर्थंकर होते है ? उ. एक भरत में चौबीस एक ऐरवत में
81
24, कुल 5 भरत +5 ऐरावत 10 में, 24x10 = 240 तीर्थकर होते है ।
52 ) तीसरे व चौथे आरे में कितने तीर्थंकर होते है ? ( अवसर्पिणी काल में)
उ. तीसरे में एक, और चौथे में तेईस । 53) अभी कौनसी विजयों में तीर्थंकर है ?
उ. 8वीं, 9 वीं, 24 वीं, 25 वीं विजय में (प्रत्येक महाविदेह में) 5x 4 = 20
54) संघ मे सदा जागृत मुखिया कौन है ? उ. आचार्य
55 ) मोक्ष प्राप्ति की विधि नियम को क्या कहते है ?
उ. आचार (चरण करणानुयोग)
56) प्रवर्तन - सिंघाड़ापति (प्रेरकता देनेवाले) आदि के लिए प्रमुखता देने वालों को क्या कहते है ?
उ. धर्म नेता ।
57 ) मर्यादा का संकेत किस शब्द में है ? आचार्य उ. (आ-मर्यादा) “आचार" में
58) अरहोन्तर का अर्थ क्या है ?
59)
उ. अरह- अन्तर, जिससे कोई रहस्य छिपा नही ।
आठ महाप्रतिहार्य किसके होते है ? उ. अर्हन्त के ( अरहन्ताणम्)
60) जिनको आसक्ति नहीं होती, उसे क्या
कहते हैं ? उ. अर्हन्त
61) परिग्रह का दूसरा नाम क्या है ? उ. रथ को परिग्रह रूप माना है ।
62 ) वह कौन है ? जिसने परिग्रह रूपी रथ का अन्त कर दिया है?
उ. अस्थान्त ।
Page #106
--------------------------------------------------------------------------
________________
80)
63) जन्म मरण की सन्तान (बीज) को नष्ट | 76) वह कौन है, जिसमें द्रव्येन्द्रिय भी है, और करने वाला कौन है?
भावेन्द्रिय भी है ? उ. अरुहन्त (रूह-सन्तान) ।
उ. "हम" 64) चार घाती कर्म शत्रु को क्या कहते हैं?
वह कौन है, जिसमें द्रव्येन्द्रिय है, पर उ. अरि शत्रु (आत्मशत्रु)
भावेन्द्रिय नहीं है? 65) जिससे कोई रहस्य छिपा नहीं, वे क्या |
उ. 13 वे गुणस्थान का केवल ज्ञानी । कहलाते हैं?
78) वह कौन है जिसमे भावेन्द्रिय है, पर द्रव्येन्द्रिय उ. अरहोन्तर।
नहीं ? यति धर्म कितने है?
उ. ऐसा जीव नहीं होता है । उ. दस, क्षमा आदि।
79) वह कौन है,जिसमे द्रव्येन्द्रिय भी नहीं और
भावेन्द्रिय भी नही ? 67) अणुव्रत कितने हैं?
उ. सिद्ध भगवान उ. पांच ।
प्रत्याख्यान का अन्य नाम क्या है ? धर्म के प्रकार कितने है? .
उ. गुण धारण । (भविष्य के लिए तप उ. दो : साधु धर्म और श्रावक धर्म ।
नियम ग्रहण करना) 69) मोक्ष के दरवाजे कितने?
आवश्यक किसे कहते है? उ. चार, क्षमा आदि ।
उ. जो समस्त गुणों का निवास है, उसे 70) प्रवचन माता के भेद कितने ?
आवश्यक कहते हैं । (आचार्य मलधारी की उ. आठ, ईर्या आदि। पांच समिति + तीन
टीका में)
किसके द्वारा पदार्थो का बोध होता है ? भय के प्रकार कितने?
उ. आगम (प्रमाण) उ. सात ।
83) जो वचन हो, जो गुरुपरम्परा से आता है, 72) सिद्धों के गुण कितने?
जिस शास्त्र से अभ्युदय एवं कल्याण का
मार्ग अवगत हो, उसे क्या कहते है ? ऊ आठ।
उ. आगम, श्रुत ज्ञान । 73) अनर्थदण्ड के प्रकार कितने?
आगम व शास्त्र का दूसरा नाम क्या है? उ. चार ।
उ. सूत्र 74) पदार्थ के प्रकार कितने?
85) चार मंगल चार स्तम, चार शरण कौन उ. नव (तत्व)।
कौन से है? तथा कहाँ वर्णन है ? 75) समान उम्र के कितने जीव मोक्ष गए?
उ अरिहन्त, सिद्ध, साधु व धर्म ये चार है, उ. पाँच, (पिता-दो पुत्र व दो पुत्री)
आवश्यक सूत्र में वर्णन हैं।
81)
गुप्ति
Page #107
--------------------------------------------------------------------------
________________
(
पुण्य खरचने का थोकड़ा
)
100 वर्ष में वाणव्यन्तर देव
200 वर्ष में नवनिकाय देव
300 वर्ष में असुरकुमार देव
400 वर्ष में ज्योतिषी देव
86) प्रतिक्रमण के पर्यायवाची नाम टीका में कौन
कौन से है? उ. प्रतिक्रमण : अपने स्व (संयम) स्थान में पुनः लौटना। प्रतिचरणा : संयम साधना में अग्रसर रहना प्रतिहना : अशुभ दुर्ध्यान और दुराचार का त्याग करना वारणः विषय कषाय का कारण दूर करना (रोकना) निवृत्ति : प्रमाद से अशुभ योग में गये,
उसको शुभ योगों मे लाना । 87) स्वप्न में क्या विशेषता है? (तीर्थंकर की
माता) उ. देवलोक से आये हुए जीवों की माता को विमान दिखता है, और नरक से आए जीव की माता को भवन दिखता है। तीर्थंकर का जन्मोत्सव कितने इन्द्र करते
500 वर्ष में पहले, दूसरे देवलोक के देव 1000 वर्ष में तीसरे, चौथे देवलोक के देव
2000 वर्ष में पाँचवे, छठे देवलोक के देव 3000 वर्ष में सातवे, आठवे देवलोक के देव 4000 वर्ष में नवे, दसवे देवलोक के देव 5000 वर्ष में ग्यारवे एवं बारहवे देवलोक के देव
1 लाख वर्ष में नवग्रेवेयक की पहली त्रिक के देव
2 लाख वर्ष में नवग्रेवेयक की दूसरी त्रिक के देव
3 लाख वर्ष में नवग्रेवेयक की तीसरी त्रिक के देव
4 लाख वर्ष में चार अनुत्तर विमान के देव
उ. 64 इन्द्र 89) तिरछे लोक से मेरुपर्वत तक तीर्थंकर को
'ले जाने का काम कौन करता है?
उ. पहले देवलोक का इन्द्र - शकेन्द्र
महाराज । 90) साधु के 18000 गुण कैसे बनते है ?
उ, तीन करण, तीन योग, चार संज्ञा, पांच इन्द्रिय, दस आरम्भ (5 स्थावर, 3 विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, अजीव) दस यति धर्म का गुणा करने पर 3x3=9x4=36x5=180x10=1800x10=18,000 ये (शीलांग रथ) गुण होते है, ये आवश्यक सूत्र में आता है।
5 लाख वर्ष में सर्वार्थ सिद्ध विमान के देव
नोट : जितना पुण्य 100 वर्ष में वाणव्यन्तर देव खर्च करते उतना ही पुण्य, 5 लाख वर्ष में सर्वार्थ सिद्ध विमान के देव खर्च करते है । सार यह है कि पुण्य जल्दी जल्दी खर्च होता है तथा नये कर्मो का बंध भी होता है।
चक्रवर्ती छ: खण्ड को छोड़कर संयम लेता है, और एक तू छ: कमरे वाला एक
मकान भी छोड़ नहीं सकता है। कैसी मोह दशा?
Page #108
--------------------------------------------------------------------------
________________
नियमा या भजना
1) मनुष्य गति में केवलज्ञान की : भजना
एकेन्द्रिय मे दो अज्ञान की : नियमा 3) पंचेन्द्रिय में छ: पर्याप्ति की : भजना
स्पर्शन्द्रिय मे श्रोतेन्द्रिय की : भजना श्रावक में सम्यग दृष्टि की : नियमा अनुत्तर विमान के देव में सम्यग दृष्टि
की : नियमा 7) मनुष्य में चारित्र की : भजना
मिथ्यादृष्टि में अज्ञान की : नियमा श्रावक की गति में वैमानिक देव की : नियमा
श्रावक में अवधिज्ञान की : भजना 11) अरिहन्त में साधु की : नियमा 12) साधु पद में आचार्य पद की : भजना 13) सम्यक् दर्शन में सम्यक ज्ञान की : नियमा 14) सम्यक् ज्ञान में सम्यक् चारित्र की : भजना 15) अव्रत में मिथ्यात्वी की : भजना 16) मिथ्यात्वी में अव्रत की : नियमा 17) ज्ञानावरणीय (1-12 गुणस्थान) के उदय
में, वेदनीय (1-14 गुणस्थान) के उदय
की : नियमा 18) वेदनीय के उदय में ज्ञानावरणीय के उदय
की : भजना 19) मोहनीय के बंध में आठ कर्म के उदय
की : नियमा 20) आयुष्य कर्म के बंध में सात कर्म के बंध
की : नियमा 21) नव ग्रैवेयक देव में सम्यक् दृष्टि की : भजना 22) सर्वार्थ सिद्ध मे तीन ज्ञान की : नियमा 23) असन्नी मनुष्य में दो अज्ञान की : नियमा 24) जैन-साधु में पाँच ज्ञान की : भजना 25) सम्यक् चारित्र में सम्यक ज्ञान की : नियमा 26) आत्मा में दो उपयोग की : भजना ।
27) सिद्धों में दो उपयोग की : नियमा
मति-ज्ञान में श्रुतज्ञान की : नियमा 29) श्रुतज्ञान में मति ज्ञान की : नियमा 30) अवधिज्ञान में श्रुतज्ञानकी : नियमा 31) मनःपर्यय ज्ञान में मतिश्रुत ज्ञान की : नियमा
मनःपर्यय ज्ञान में अवधि ज्ञान की : भजना 33) मति ज्ञान में अवधिज्ञान की : भजना 34) सम्यक् दृष्टि में तीन ज्ञान की : भजना 35) तीन ज्ञान में सम्यक दृष्टि की : नियमा 36) पर दया में स्व दया की : भजना 37) स्व दया में पर दया की : नियमा
क्षायिक भाव में क्षयोपशम भाव की : भजना 39) क्षयोपशम भाव में क्षायिक भाव की : भजना 40) उपशम भाव में क्षयोपशम भाव की : भजना 41) क्षयोपशम भाव में उपशम भाव की : भजना
पारिणामिक भाव मे, क्षायिक, उपशम,
क्षयोपशम भाव की : भजना 43) क्षायिक, उपशम व क्षयोपशम भाव में
पारिणामिक भाव की : नियमा दर्शन में ज्ञान की : भजना ज्ञान में दर्शन की : नियमा चारित्र में ज्ञान दर्शन की : नियमा ज्ञान, दर्शन में चारित्र की : भजना जन्मने में मरने की : नियमा मरन में जन्मने की : भजना अघाती कर्म में घाती कर्म की : भजना
घाती कर्म में अघाती कर्म की : नियमा 52) उदय भाव में क्षायिक भाव की : भजना
उदय भाव में परिणामिक भाव की : नियमा
करण पर्याप्त में लब्धि अपर्याप्त की : भजना 55) लब्धि अपर्याप्त में करण पर्याप्त की : नियमा
लब्धि पर्याप्त में करण पर्याप्त की : नियमा 57) करण अपर्याप्त में लब्धि पर्याप्त की : भजना 58) करण अपर्याप्त में लब्धि अपर्याप्त की : भजना
56)
Page #109
--------------------------------------------------------------------------
________________
पच्चीस-क्रिया
) | 13) प्रातीत्यिकी : जीव और अजीव व रुप बाह्य
वस्तु के आश्रय से उत्पन्न राग-द्वेष से लगने क्रिया से कर्मों का बंध होता है। कर्म बन्ध
वाली क्रिया । की कारण क्रियाएँ पच्चीस प्रकार की है । इनका
सामन्तोपनिपातिकी : जीव और अजीव वर्णन स्थानांग सूत्र स्थान 2/3,2 तथा 5/3,2 में
वस्तुओं के संग्रह करने पर, प्रशंसा करने है।
से हर्षित होना और उनकी निन्दा से दुःखी कायिकी: शरीर आदि प्रमत्त योगों के व्यापार
होने से लगने वाली क्रिया । से होने वाली हलन चलनादि क्रिया ।
स्वहस्तिकी : अपने हाथ से मारने पीटने अधिकरणिकी : चाकू छुरी, तलवार, कुदाल आदि से लगने वाली क्रिया । आदि शस्त्रों से होने वाली क्रिया ।
16) नैसृष्टिकी : किसी वस्तु को फेंकने से लगने प्राद्वेषिकी : द्वेष ईर्ष्या, मत्सरता से होनी
वाली क्रिया । वाली या लगने वाली क्रिया ।
17) आज्ञापनिकी : दूसरों को आज्ञा देने से पारितापनिकी : किसी को मार-पीट अथवा
लगने वाली क्रिया । कठोर वचन कहकर दुःख पहुँचाने से होने वाली क्रिया ।
वैदारणिकी : चीरने फाड़ने, खोटे विचार
से लगने वाली क्रिया । प्राणातिपातिकी : प्राणों का नाश करने से लगने वाली क्रिया ।
अनाभोग प्रत्यया क्रिया : अनजाने में लगने आरम्मिकी : छः कायों के जीवों का आरम्भ
वाली क्रिया । करने से लगने वाली क्रिया ।
अनवकांक्षा प्रत्ययाः हिताहित की उपेक्षा से परिग्रहिकी : कुटुम्ब परिवार, दास, दासी
लगने वाली क्रिया । धन धान्य आदि के प्रति ममत्व भाव के
21) प्रेम प्रत्यया : राग से लगने वाली क्रिया अपनाने से लगने वाली क्रिया ।
(माया और लोभ से) माया प्रत्यया क्रिया : छल, कपट से लगने
द्वेष प्रत्यया : क्रोध और मान से लगने वाली क्रिया ।
वाली क्रिया । अप्रत्याख्यान प्रत्यया : पच्छक्खाण नहीं करने से लगने वाली क्रिया ।
प्रयोगिकी: मन वचन काया का दुरुपयोग
करने से लगने वाली क्रिया । 10) मिथ्यादर्शन प्रत्यया : कुदेव, कुगुरू, कुधर्म पर श्रद्धा रखने से लगने वाली क्रिया । |
24) सामुदायिनिकी : बहुत से लोग मिल कर 11) दृष्टिजाः देखने पर राग द्वेष आदि करने से
एक साथ अच्छा बुरा देखने-करने वाली से
लगने वाली क्रिया ।। लगने वाली क्रिया ।
ईर्यापथिकी : कषाय रहित जीवों को योग 12) स्पर्शजा : स्पर्श से राग द्वेष आदि करने से
मात्र से लगने वाली क्रिया । । लगने वाली क्रिया ।
19)
Page #110
--------------------------------------------------------------------------
________________
गति - आगति की विशेष नोंध
कहाँ जाता है, या जा सकता है ? - गति
आ सकता है या कहाँ से जीव आता है? - आगति
1)
असन्नी तिर्यंच पंचेन्द्रिय पहली नरक से आगे नहीं जा सकता है ।
3)
4)
5)
9)
भुजपरिसर्प (भुजाओ से चलने वाले-छिपकली आदि) पहली, दूजी नरक से आगे नहीं जा सकता है ।
खेचर (पक्षी) 1, 2, 3 नरक से आगे नहीं जा सकता है ।
स्थलचर (शेर आदि) 1, 2, 3, 4 नरक से आगे नहीं जा सकते हैं ।
उरपरिसर्प (सांप) 1,2,3,4,5 नरक से आगे नहीं जा सकते हैं ।
जलचर (मच्छली) 1,2,3,4,5,6 नरक से आगे नही जा सकते हैं ।
जलचर, पुरुष और पुरुष नपुंसक (मच्छकच्छ) 1 से 7 नरक मे जा सकते है ।
मनुष्य स्त्री भी 1 से 6 नरक तक ही जा सकती है ।
सातवीं नरक और तेउकाय, वायुकाय के जीव मरकर मनुष्य नहीं बन सकते हैं । सिर्फ तिर्यंच ही बन सकते है ।
10) पहली नरक से निकला हुआ जीव चक्रवर्ती बन सकता है ।
11) पहली और दूजी नरक से निकला हुआ जीव वासुदेव, बलदेव और प्रतिवासुदेव बन सकता है।
12) 1,2,3 नरक से निकला हुआ जीव ज्यादा से ज्यादा तीर्थंकर बन सकता है ।
86
13)
14)
15)
16)
1,2,3,4 वीं नरक से निकला हुआ जीव ज्यादा से ज्यादा केवली बन सकता है ।
1,2,3,4,5 वी नरक से निकला हुआ जीव ज्यादा से ज्यादा साधु बन सकता I
1,2,3,4,5,6 ठी नरक से निकला हुआ जीव ज्यादा से ज्यादा श्रावक बन सकता है ।
1,2,3,4,5,6,7 वीं नरक से निकला हुआ जीव ज्यादा से ज्यादा तिर्यंच सम्यग्दृष्टि बन सकता है ।
17 ) नारकी मरकर नरक और देवता में नही जाते।
18) देवता मरकर देव और नरक गति में नही जाते ।
19) तिर्यंच और मनुष्य मरकर चारों गति में जा सकते है ।
20) नारकी मरकर असन्नी मनुष्य और असन्नी तिर्यंच नहीं बनता ।
24)
21 ) नारकी और देवता मरकर युगलिक में जन्म नहीं लेते है ।
22) देवता सूक्ष्म में जन्म नहीं लेते हैं, सिर्फ बादर
में, अच्छा पानी, पृथ्वी और वनस्पति में ही जन्म लेते हैं । कंदमूल में जन्म नहीं लेते हैं ।
23) असन्नी तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय अगर जायेगा तो नरक में पहली नरक तक और देवता में भवन पति वाणण्यन्तर, देव से आगे नही जा सकता है ।
नरक में जितनी अधिक उम्र, उतना अधिक वह (पापी) भारी कर्म जीव और देवलोक में जितनी अधिक उम्र उतना जीव पुण्यशाली माना जाता है ।
Page #111
--------------------------------------------------------------------------
________________
25) देवों में पुण्यशालियों का क्रम : वैमानिक, ज्योतिषी, वाणव्यन्तर, भवनपतिदेव । (निम्नतर क्रमशः समजना)
26) करोड़ पूर्व से अधिक उम्र वाला मनुष्य तथा तिर्यंच युगलिया मरकर देवगति में ही जाते है । 27 ) अन्तर्मुहूर्त से करोड़ पूर्व तक की उम्र वाला तिर्यंच चारों गति में जा सकता है ।
28) नारकी, देवता और युगलिक में पर्याप्त जीव ही आ सकता है, और वे भी पर्याप्त अवस्था में ही मरते हैं, और ये मरकर जहाँ जाते है, वहाँ भी पर्याप्त अवस्था में ही मरते हैं । 29) युगलिक की उम्र जितनी है, उससे अधिक ( एक समय भी ) प्राप्त नहीं कर सकता है, पर कम प्राप्त कर सकता है । युगलिक मर कर देव ही बनते हैं ।
30) तीर्थंकर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव ये चार पदवी वाले नरक और देवता से ही आते हैं। (मनुष्य से नहीं आते हैं)
31) चक्रवर्ती संयम लेवे तो देव या मोक्ष चक्रवर्ती और वासुदेव मरकर नियमा नरक में ही जाते हैं और वहाँ पर नियमा उत्कृष्ट स्थिति ही पाते हैं (जघन्य और मध्यम नही)
32) नियाणा किया हुआ जीव अनुत्तर विमान में जन्म नहीं लेता । आराधक जीव ही जन्म लेता है । वह भी सिर्फ अप्रमत साधु । श्रावक अनुत्तर विमान मे भी नहीं जाता। यह नियम है ।
33)
5 अनुत्तर विमान को छोड़कर शेष सभी भेदों में अभवी जीव भी जन्म लेता है । 34 ) एक बार जिस जीव ने पहला गुणस्थान छोड़ दिया वह भवी ही होता है, और देशोन अर्द्ध पुद्गल परावर्तन काल में नियमा मोक्ष जाएगा ही, तो इससे सिद्ध होता है कि 5
87
अनुत्तर विमान में जो जीव है वह नियमा भवी है ।
35) देवता जन्म से मृत्यु तक (सदा) युवा दिखते है । (32 वर्ष के नौजवान समान)
36)
9 वे से 12 वे देवलोक, 9 ग्रेवैयक और 5 अनु. विमान के जीव की गति और आगति दोनों 15 कर्म भूमिज मनुष्य ही होते है । 37 ) सर्वार्थ सिद्ध वाले नियमा एक भवावतारी होते हैं, शेष चार अनुत्तर विमान वाले जघन्य 1 भव उत्कृष्ट, 13 वें भव में नियमा मोक्ष जाएँगे ।
38) देव में 15 परमाधामी और 3 किल्विषी नियमा मिथ्या दृष्टि वाले होते हैं । (हल्के देव) । 39) देव में 5 अनुत्तर विमान वाले देव नियमा
सम्यग्दृष्टि ही होते हैं । (उच्च कोटि के पुण्यवान) शेष 76 देवों में तीनों दृष्टि ।
40) चार पदवियों का बन्ध नियमा सम्यक्त्व में ही होता है। (तीर्थंकर, वासुदेव, बलदेव, चक्रवर्ती) (63 महापुरुष नियमा भवी ही होते है ।)
41) (संयम न लेने पर) चक्रवर्ती, वासुदेव, प्रतिवासुदेव की गति नियमा समान होती है । ये एक गति, नारकी में ही जाते है ।
42) बलदेव नियमा साधु बनता है। इसलिए बलदेव का पद अमर है। गति साधु के समान। 43) ग्रेवैयक की ये विशेषता है कि द्रव्य या भाव साधुपना वाला ही ग्रेवैयक में जा सकता है ।
द्रव्य साधुपना : केवल वस्त्रों से पहना हुआ साधु, (बाह्य वेश) परन्तु कषाय मन्द ।
भावसाधुपना : आत्मा के आंतरिक परिणामों में संयम के भाव हो अर्थात छठा गुणस्थान या इसके आगे का गुणस्थान (6 से लेकर
Page #112
--------------------------------------------------------------------------
________________
11 तक और 12, 13,14 वे गुणस्थान | 54) 7 वीं नरक के अपर्याप्त नियमा मिथ्यादृष्टि वाले भी भाव साधु हैं, नियमा उसी भव में
ही होते हैं तथा मरते वक्त पर्याप्त भी। मोक्ष जायेंगे)
55) 1 से 6 नरक के अपर्याप्त में सम्यक और 44) 563 भेदों मे से 192 भेद नहीं मरने वाले मिथ्या दोनों दृष्टि वाले हो सकते हैं । है । (99 देव, 7 नरक, 86 युगलिया, (56
56) 1 से 7 नरक के पर्याप्त में तीनों दृष्टि के हो अन्तरद्वीप, 30 अकर्म भूमि) के अपर्याप्त)।
सकते है। तेउकाय, वायुकाय वाले जीव मरकर सम्यग दृष्टि नहीं बन सकते हैं। अगले भव में बन
57) 56 अन्तरद्वीप मरकर वैमानिक देव नहीं
बन सकते है। सकते हैं। 46) 5 अनुत्तर विमान वाले देव में जाने वाले
58) चर ज्योतिषी अढ़ाई द्वीप में और अचर नियमा भाव साधु होते ही हैं।
अढ़ाई द्वीप के बाहर होते हैं । 47) नपुंसक वेद तीन गति में ही मिलते हैं. देव | 59) नो गर्भज-औदारिक, मन वाले नहीं होते गति को छोड़कर । युगलिया मरकर देव ही
है । गर्भज में मन वाले ही होते हैं (वैक्रिय में बनते है, इसलिए वे नपुंसक में नही जाते
नहीं)
64 देवता के ऊपरवाले जीव मरकर सन्नी 48) स्त्री वेद तीन गति में मिलते है, नरक गति
ही बनते हैं (64 देवता = 25 भवनपति, को छोड़कर।
26 वाणव्यन्तर, 10 ज्योतिषी, प्रथम
किल्विषि, पहला दूजा देवलोक) 49) पुरुष वेद तीन गति में मिलते है । नरक गति को छोड़कर ।
गणधर की आगति :- केवली के समान 108, 50) नोगर्भज : बिना गर्भ से पैदा होने वाले
गति मोक्ष । जीव ।
62) 1 से 4 नारकी से निकले हुए जीव को नोगर्भ में 351 जीव : 198 देव + 14
केवल ज्ञान हो सकता है। नारकी+38 तिर्यंच+101 सम्मूर्छिम मनुष्य | 63) 1 से 5 वी नारकी से निकले हुए जीव को . = 351 भेद
मनःपर्यय ज्ञान हो सकता है । 51) गर्भज = जो गर्भ से पैदा हो ।
64) 1 से 7 वी नारकी से निकले हुए जीव को गर्भज मे 212 जीव =101 गर्भज मनुष्य
अवधिज्ञान हो सकता है। पर्याप्त +5 सन्नी तिर्यंच पंचेन्द्रिय, के पर्याप्त
मन वाला जीव ही ज्यादा पाप कर सकता और अपर्याप्त ।
है। कायायोग से अगर कर्म बंधे तो 1 सागरोपम, 52) श्रावक, युगलिया और 5 वे आरे में जन्मा दो योग से 1000 सागरोपम, और तीन योग
हुआ साधु नियमा देवगति में ही जाते है । से 70 कोड़ा कोड़ी सागरोपम । तीर्थंकर और केवली मरकर नियमा मोक्ष ही | 66) चूहा - दूसरी नारकी तक ही जा सकता है, जाते हैं।
चिड़िया - तीसरी नारकी तक, शेर, गाय
53)
Page #113
--------------------------------------------------------------------------
________________
चौथी तक, सर्प पाँचवी तक, मछली छः | कौनसे ऐसे जीव हैं, जो तिर्यंच - पंचेन्द्रिय तक, मच्छ 7 वीं तक ।
नहीं बन सकते है? 67) देवता मरकर देवता नहीं बन सकता क्योंकि मरनेवाले : 371 जो तिर्यंच बन सकते हैं ।
देव बनने के जो कारण 4 होते हैं, वे वहाँ यानि तिर्यंच पंचे की आगत 267 तो, 371नहीं होते हैं। देवता, श्रावक नहीं बन सकता
2673104, ऐसे जीव हैं जो तिर्यंच पंचेन्द्रिय
नहीं बन सकते हैं। 68) 56 अन्तरद्वीप के मानव युगलिक भवनपति,
104318 प्रकार के देव, (9 वें देवलोक से वाणव्यन्तर से आगे नहीं जा सकते है ।
ऊपर अनु. विमान तक के) और 86 69) देवियाँ सिर्फ दूसरे देवलोक तक ही होती युगलिया। है, उसके आगे सिर्फ देव ।
78) संज्ञी मनुष्य नही बन सकते है । 70) तिर्यंच मरकर ज्यादा से ज्यादा 8 वें देवलोक तक ही जा सकते हैं। उसके आगे मनुष्य ही
मरने वाले : 371, संज्ञी मनुष्य की आगतः
276, तो 371- 276=95 जीव संज्ञी मनुष्य जा सकते है।
नहीं बन सकते हैं 95=86 युगलिया, सूक्ष्म (पृथ्वी पानी, वनस्पति) की आगत
तेउकाय, वायुकाय के सूक्ष्म बादर, पर्याप्त 179 क्योंकि देवता सूक्ष्म में नहीं जाते हैं |
अपर्याप्त 86+8=94 +1 7 वीं नारकी के 72) तेउकाय, वायुकाय में सूक्ष्म बादर दोनों की
जीव = 95 आगत समान है।
79) 23 पदवियाँ - 7 एकेन्द्रिय रत्न, 7 पंचेन्द्रिय 73) उपशम श्रेणी वाले जीव 11 वें गुणस्थान रत्न, 9 मोटी पदवियाँ तक जाकर भी मिथ्यात्व में पड़ सकते हैं।
9 मोटी पदवियाँ : तीर्थंकर, केवली, चक्रवर्ती, वे उस भव में मोक्ष को प्राप्त नहीं कर सकते
बलदेव, वासुदेव, मांडलिक राजा, हैं। इनकी आगत 275 साधु के समान और गतिः 5 अनुत्तर विमान के पर्याप्त और
सम्यकदृष्टि, साधु और श्रावक । अपर्याप्त ।
81) पंचेन्द्रिय रत्न - सेनापति, गाथापति, बढ़ई, 74) असन्नी तिर्यंच पंचेन्द्रिय चारों गति में जा सकता
पुरोहित, श्रीदेवी, घोड़ा, हाथी । इनकी है । ऊपर जावे तो भवनपति वाणव्यन्तर,
गतागतः पहले चारों की अगति 271/14 नीचे जावे तो पहली नारकी, युगलिया में
गति नारकी । 271 - (276 में से 5 अनुत्तर जावे तो 56 अन्तरद्वीप ।
विमान के कम । एक बार जो जीव अनुत्तर
विमान में जावे तो 22 दण्डक के ताले लग 75) असन्नी नपुंसक ही होते हैं, सन्नी तीनों वेद
जाते हैं। पा सकते हैं।
सिर्फ सन्नी मनुष्य व वैमानिक को छोड़कर) 76) किसी भी जीव की आगति भी 371 से ज्यादा नहीं है, क्योंकि इतने ही जीव मरते हैं बाकि
श्रीदेवी = अगति 271/12 गति (7वी नरक 192 जीव अमर हैं।
में नहीं जाती)।
80)
Page #114
--------------------------------------------------------------------------
________________
घोड़े, हाथी : आगति 267, गति 8 की | 89) कौन से जीव जो केवली बनेंगे, तीर्थंकर (चार नरक तक ही।
नहीं ?
न. ति. म. देव. 82) ऐसे महापुरुष की गतागत जो, चक्रवर्ती बनकर
केवली 108 = 4 8 15 81 के तीर्थंकर बने (शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ,
तीर्थंकर 38 = 300 35 अरनाथ) 36/मोक्ष (दूसरी और तीसरी
70 = 1+ +8 +15 +46 = 70 नारकी को छोड़कर)
4थी नारकी, 5 संज्ञी तिर्यंच पर्याप्त वासुदेव का जीव 5 अनुत्तर विमान से नहीं
(पंचेन्द्रिय) + 3 बादर पृथ्वी, पानी, आता है।
वनस्पति, 15 कर्म भूमिज मनुष्य के पर्याप्त, साधु कौन नहीं बन सकता 371-275=96 15 भवनपति, 26 वाणव्यन्तर, 10 (छठी व सातवीं नारकी के जीव, 86 युगलियाँ ज्योतिषि=701 तेउ, वायु के 8)
90) गुणस्थान की गता-गत 85) हममें 23 पदवियों में से 2 पदवियाँ हैं -
पहला गुणस्थान : मिथ्यादृष्टि की सम्यग्दृष्टि और श्रावक)।
371/553 महावीर स्वामी में 4 पदवियों में से 2 पदवियाँ
दूसरा गुणस्थान : सास्वादन 194 गत थी - सम्यग् दृष्टि, साधु । शान्तिनाथजी
तीसरा गुणस्थान : मिश्र 363/अमर में ? तीर्थंकर में जघन्य 4 और उत्कृष्ट - 6
चौथा गुणस्थान : 246 गत 87) मनः पर्यय की गतागत साधु के समान : पाँचवा गुणस्थान : श्रावक के समान 275/70
276/42 88) कौन से जीव ऐसे हैं ? जो दीक्षा लेने पर छठा गुणस्थान : साधु के समान 275/70 मोक्ष नही जाएंगे?
सातवां गुणस्थान : 275/70 दीक्षा लेने वाले 275, मोक्ष जाने वाले 108
आठवां गणस्थान : क्षपक श्रेणी - 108) न. ति. म. देव.
मोक्ष। उपशम श्रेणी 275/10 275 =5 + 40+ 131 +99
हमारी 276/42 108 =4 + 8 +15 +8
अलेशी 108/मोक्ष 167 =1+ 32 +116 +18
कृष्णपक्षी 371-5 अनुत्तर विमान = 366/ 5 वी नरक, 5 असंज्ञी तिर्यंच पंचेन्द्रिय, 3 563 विकलेन्द्रिय के पर्याप्त, अपर्याप्त 16+5 संज्ञी शुक्लपक्षी 371/563 तिर्यं पंचे के अप 21+ 6 पृथ्वी, अप के
भवि की 371/563 सूक्ष्म, प. अप+5 वनस्पति काय के, साधारण
अभवि की 371-5 अनु वि = 366/553 सूक्ष्म के प. अप, प्रत्येक का अप. = 32+101 समु मनुष्य+18 मिथ्यात्वी देव..
91) सर्वार्थ सिद्ध से आया हुआ जीव निश्चय एक
भवावतारी ही होता है।
Page #115
--------------------------------------------------------------------------
________________
18)
| तीर्थंकर व सामान्य केवली विवेचना ) | 12) तीर्थंकर एक दूसरे से नहीं मिलते, जब कि
सामान्य केवली साथ भी रहते हैं । केवली तीर्थंकर भगवान और सामान्य केवली में क्या अन्तर
परिषद भी होती है।
13) तीर्थंकर के अशोक वृक्ष आदि आठ तीर्थंकर भगवान और सामान्य केवली, दोनों ज्ञान महाप्रतिहार्य होते हैं, जब की सामान्य केवली की अपेक्षा समान हैं, किन्तु उनमें बहुत से अन्तर के नहीं। है, वे इस प्रकार है।
14) तीर्थंकर वर्षीदान देते है, सामान्य केवली 1) तीर्थंकर पद नाम कर्म के उदय से मिलता नहीं । है, केवली पद नही।
तीर्थंकर की आगति 38 स्थान से होती है, तीर्थंकर में अतिशय होते हैं, सामान्य केवली
केवली के 108 स्थानों से होती है। के नहीं।
16) तीर्थंकर को जन्म से ही अवधिज्ञान सहित तीर्थंकर के गणधर होते हैं, सामान्य केवली तीन ज्ञान होते है, केवली के भजना । के नहीं।
तीर्थंकर को दीक्षा लेते ही मनः पर्यय ज्ञान तीर्थंकर ज.20 और उ.170 होते हैं, जबकी होता है, सामान्य केवली या गणधर के भजना केवली ज. 2 करोड़ और उ9 करोड़ होते
कहना ।
तीर्थंकर की प्रथम देशना में गणधर बनते तीर्थंकर पद प्रथम अरिहन्त पद में लिया
है, सामान्य केवली की भजना। गया है, जब की सामान्य केवली को प्रथम
19) तीर्थंकर के शरीर की अवगाहना ज.7 हाथ, व पांचवे पद में मानने की परम्परा है।
उ. 500 धनुष, तथा सामान्य केवली की तीर्थंकर की माता को 14 स्वप्न आते हैं। अवगाहना ज.2 हाथ एवं उ. 500 धनुष परन्तु केवली के भजना।
होती है। तीर्थंकर की ज. 72 वर्ष की उम्र व उ. 84 20) एकेन्द्रिय जीव (पृथ्वी, पानी, वनस्पति) लाख पूर्व की होती है | केवली की ज.9
मरकर केवली (मनुष्य) बन सकते हैं, परन्तु वर्ष व उ. एक करोड़ पूर्व की ।
तीर्थंकर नहीं बन सकते है। देवों द्वारा तीर्थंकरों का जन्मोत्सव किया
1,2,3 नरक से निकला हुआ जीव तीर्थंकर जाता है, जब की सामान्य केवली का नहीं ।
और 1,2,3,4, नरक से निकला हुआ जीव
सामान्य केवली बन सकता है । तीर्थंकर तीर्थ की स्थापना करते हैं, सामान्य केवली नही।
22) तीर्थंकर का शरीर समचौरस संस्थान एवं
शुभ श्रेष्ठ पुद्गलों से ही बना होता है, 10) तीर्थंकर की सेवा में प्रायःदेव आते रहते हैं,
जबकि सामान्य केवली में 6 संस्थान पावे | केवली के भजना।
23) तीर्थंकर भगवान केवलज्ञान होने के बाद ही 11) तीर्थंकर, केवली समुद्घात नहीं करते है,
उपदेश देते हैं, जबकि सामान्य केवली जब कि केवली करते भी है, और नहीं भी।
उपदेश देते भी है, और नहीं भी ।
'०
Page #116
--------------------------------------------------------------------------
________________
24)
तीर्थंकर भगवान देव द्वारा निर्मित समवशरण बुद्ध भी होते है। में उपदेश देते हैं, जबकि सामान्य केवली
तीर्थंकर के पाँच कल्याणक होते हैं, केवली के समवशरण ही नहीं होता ।
के नहीं। 25) तीर्थंकर भगवान की सभा में 12 प्रकार की
तीर्थंकर भगवान ज. 30 वर्ष की उम्र में ही परिषद आती है, सामान्य केवली के भजना ।
दीक्षा लेते हैं, जब कि सामान्य केवली 9 6) तीर्थंकर भगवान तीर्थंकर सिद्धा अतीर्थ सिद्धा
वर्ष की उम्र में दीक्षा ले सकते हैं। होते हैं । सामान्य केवली, अतीर्थंकर सिद्धा
37) तीर्थंकर भगवान उ. 1 लाख पूर्व वर्ष तक और तीर्थ सिद्धा और अतीर्थ सिद्धा भी
का संयम पालते हैं, जब कि केवली होते हैं।
उ. देशोन 1 करोड़ पूर्व का पालन कर 27) तीर्थंकर भगवान सामान्यत : पुरुषलिंग ही सकते है। होते है, केवली तीनों लिंग के होते हैं।
तीर्थंकर तीर्थ की स्थापना करने के कारण तीर्थंकर भगवान नियमा बोध देते हैं, सामान्य तीर्थंकर कहलाते हैं, जबकि सामान्य केवली केवली भजना।
'तीर्थ' कहलाते हैं। तीर्थंकर भगवान अवसर्पिणी काल में तीजे | 39) तीर्थंकर भगवान जहाँ गोचरी लेते हैं, वहाँ और चौथे आरे में, और सामान्य केवली
सोनैया (सुवर्ण वृष्टि) की बरसात होती है। तीजे, चौथे और पाँचवे में भी होते हैं
जब कि केवली के भजना । (जम्बूस्वामी 5 वें आरे में मोक्ष गये) ।
तीर्थंकर भगवान की वाणी में वचनातिशय उत्सर्पिणी काल में सामान्य केवली और
(35 गुण) होते हैं । केवली के सभी अतिशय तीर्थंकर भगवान तीजे और चौथे आरे में
नहीं होते ही होते हैं। महाविदेह में शाश्वत मिलते हैं।
तीर्थंकर भगवान के उपदेश को अत्थागमे तीर्थंकर का जन्म क्षत्रिय कल में होता है,
(अर्थ रुप वाणी) कहते है। जब कि केवली का चारों वर्गों में ।
तीर्थंकर भगवान नियमा कल्पातीत कल्प 31) तीर्थंकर भगवान दो गति (देव तथा नरक)
वाले होते है, सामान्य केवली में तीनों के आए हुए और सामान्य केवली चारों गति
कल्प होते है, आते है। से आए हुए जीव हो सकते है।
तीर्थंकर भगवान के अपने भव में तीन चारित्र 32) तीर्थंकर का जीव 2 दण्डक (वैमानिक देवों
(सूक्ष्म; सामायिक; और यथाख्यात) पाते का, नरक का) से आया हुआ जीव हो सकता
ही, जबकि सामान्य केवली में अपने पांचो है | और केवली 19 दण्डक का आया हआ
चारित्र की भजना। हो सकता है। (तेउ,वायुऔर तीन विकलेन्द्रिय को छोड़कर)
तीर्थंकर भगवान को दीक्षा के लिए, 9
लोकान्तिक देव प्रार्थना करते हैं। केवली को तीर्थंकर भगवान का उपदेश चार कोस तक
नहीं। सुनाई देता है, सामान्य केवली का नहीं ।
45) तीर्थंकर भगवान ज.2,उ.4 एक समय मोक्ष 34) तीर्थंकर नियमा स्वयं बुद्ध होते है, जबकि
पधार सकते हैं, केवली नही । केवली स्वयं बुद्ध, बुद्ध बोधित और प्रत्येक
42)
Page #117
--------------------------------------------------------------------------
________________
47)
59)
49)
46) समुद्र व जलाशय से सामान्य केवली मोक्ष होते हैं, गणधर नहीं । (दृष्टिवाद में भजना) पधार सकते है, तथा सामान्य केवली ज.
56) तीर्थंकर भगवान के 1008 लक्षण बताए है, 1. और उ. 108 एक समय में मोक्ष पधार
केवली के भजना। सकते है । तीर्थंकर कर्म भूमि से ही और ज.2 उ.4 एक समय में मोक्ष जाते है। । 57) तीर्थंकर भगवान के दीक्षा लेते समय देव
दुष्य वस्त्र उनके कन्धे पर होता है, सामान्य तीर्थंकर बननेवाला जीव 5 लेश्या का
केवली के नही । (कृष्ण लेश्या को छोड़कर) आया हुआ हो सकता है, सामान्य केवली 6 लेश्या से
तीर्थंकर भगवान पूरे भव में तीन शरीर आया हुआ जीव हो सकता है ।
(औदारिक, तैजस, कार्मण) ही पाते हैं,
सामान्य केवली के भव में पाँच शरीर पा 48) तीर्थंकर भगवान, अपने भव में पांच ज्ञान
सकते है। को स्पर्शते ही हैं, जब कि केवली के भजना ।
तीर्थंकर भगवान 13 और 14 वें गणस्थान तीर्थंकर भगवान में मध्यम अवगाहना ही |
में पाँच योग पाते हैं | सत्यमन, व्यवहार पाई जाती है, जबकि केवली में जघन्य, मध्यम, व उत्कृष्ट तीनों ही अवगाहना पाई
मन, सत्य वचन, व्यवहार वचन, और जर्त हैं।
औदारिक काय योग, केवली मे 5 या 7
योग, औदारिक मिश्र और कार्मण योग, 50) तीर्थंकर भगवान में तीन नियंठे निर्ग्रन्थ,
जब केवली समुद्घात करते हो तो औदारिक कषाय- कुशील व स्नातक ही पाते है, जब
मिश्र काया योग व कार्मण योग होता है। कि केवली अपने पूरे भव में छहो नियंठे पा सकता है, 1) पुलाक, 2) बकुश, 3)
तीर्थंकर भगवान की आगति 38 जगह से प्रतिसेवना, 4) कषाय- कुशील, 5) निर्ग्रन्थ
(देवता, नारकी) और सामान्य केवली की तथा 6) स्नातक ।
आगति 108 जगह से (4 गति से) है | 51) तीर्थंकर भगवान, तीर्थंकर पद व साधुपने
तीर्थंकर भगवान से सामान्य केवली हमेशा में रहते हुए किसी दोष का सेवन नहीं करते संख्यात गुणा अधिक रहते हैं | है, जबकि केवली अपने भव में (भजना) | तीर्थंकर भगवान लोक के असंख्यातवें भाग में छमस्थ अवस्था में दोष लगा सकते हैं। रहते है। केवली, केवली समुद्घात की, अपेक्षा तीर्थंकर सर्वोच्च उपकारी पद माने गये हैं, सम्पूर्ण लोक में विद्यमान हो सकते है। परन्तु सामान्य केवली को नहीं ।
सामान्य केवली, केवल ज्ञान होने के क्षमाशूर तीर्थंकर भगवान को माना गया है,
अन्तरमहुर्त बाद मोक्ष पधार सकते हैं। जब सामान्य केवली या किसी अन्य को नही ।
कि, तीर्थंकर भगवान वर्षों तक विचरते हैं। 54) छदमस्थ तीर्थंकर भगवान शिष्य नहीं बनाते, 64) तीर्थंकर पद मध्यम वय में ही प्राप्त होता
छद्मस्थ साधु (भावी केवली) शिष्य बनाते | है, जबकि सामान्य केवली बालवय, युवावय भी है।
व वृद्धावय मे भी होता है। 55) तीर्थंकर भगवान के गणधर नियमा दृष्टिवादी | 65) तीर्थंकर भगवान एक दिन मे 20 मोक्ष जा
ही (14 पूर्वधारी) होते है, केवली के शिष्य । सकते है, जबकि केवली एक दिन में प्रत्येक
Page #118
--------------------------------------------------------------------------
________________
हजारों ( 2 हजार से 9 हजार तक) मोक्ष जा सकते हैं ।
66 ) तीर्थंकर भगवान जन्म से ही अवधि ज्ञानी होते हैं, जब कि केवली के भजना ।
67) एक तीर्थंकर के शासन में संख्याता केवली पाये जाते हैं, जबकि केवली का शासन ही नहीं होता है ।
68 ) तीर्थंकर भगवान को विपुलमति मन:पर्यय ज्ञान ही होता है, जबकि केवली के भजना |
69 ) तीर्थंकर भगवान तिरछे लोकमें, नीचे लोक में, और सामान्य केवली ऊँचा, नीचा तिरछा लोक, तीन लोक से हो सकते है ।
70) तीर्थंकर भगवान के समवशरण में 23 दण्डक के जीव होते हैं, और सामान्य केवली के भजना ।
71) केवली पहले के भवो में उपशम श्रेणी किया हुआ हो सकता है, तीर्थंकर भगवान नही | 72) तीर्थंकर भगवान नियमा ज. 1, 2, 3, व उ. 20 तीर्थंकर पद प्राप्ति के बोलों की आराधना करते है, जब कि सामान्य केवली के
भजना |
73) तीर्थंकर भगवान के नियमा लोच होता ही है, जब कि सामान्य केवली के भजना | 74) तीर्थंकर भगवान के साथ कम से कम गणधर तो विचरते हैं, खुद सहित । केवल ज्ञान के बाद, केवली के भजना ।
75) तीर्थंकर भगवान के शासन काल में दृष्टिवाद नियमा दो पीढ़ी तक चलता है, केवली के भजना या नही ।
76) तीर्थंकर भगवान नियमा चउविहार तप करते है, केवली दोनो प्रकार के तिविहार और चउविहार या नही भी करते है ।
"
94
77 ) तीर्थंकर भगवान छह खण्डों में से प्रथम खण्ड में उत्पन्न होते हैं। (प्रथम खण्ड के 251/2 देश में (आर्य देश) जन्म लेते हैं, 251/2 (साढे पच्चीस) जब कि केवली छह खण्डों में उत्पन्न हो सकते है) ।
78) तीर्थंकर भगवान के जन्म के समय पूरे लोक में कुछ वक्त के लिए प्रकाश उद्योत होता है, सामान्य केवली के नही ।
79)
64 इन्द्र तीर्थंकर भगवान के समवशरण में नियमा आते ही हैं, सामान्य केवली के नही । 80) तीर्थंकर भगवान के माता-पिता नियमा भवि होते है, और केवली के भजना ।
81) तीर्थंकर के पास दीक्षित केवल भवीजीव ही होते हैं, और सामान्य केवली के भजना | 82) सामान्य केवली की 'आत्मा, , केवली समुदघात की अपेक्षा नरक स्वर्ग में जाते है, जब कि तीर्थंकर भगवान नही ।
83) चौबीसवें तीर्थंकर का निर्वाण अवसर्पिणी
काल के चौथे आरे के 89 पक्ष शेष रहते है, तब होता है, जब कि केवली का नहीं।
84 ) तीर्थ की स्थापना तीर्थंकर ही करते है, केवली नहीं ।
85) अभी हमारे यहाँ तीर्थंकर का शासन चल रहा है, सामान्य केवली का नही ।
86) तीर्थंकर भगवान किसी के शिष्य नहीं होते, पर केवली के भजना ।
87) एक क्षेत्र मे एक ही तीर्थंकर होते हैं, परन्तु एक क्षेत्र में सामान्य केवली अनेक हो सकते हैं ।
88 ) तीर्थंकर भगवान अशोक वृक्ष के नीचे बैठते हैं, सामान्य केवली के भजना ।
89 ) तीर्थंकर भगवान के उपर तीन छत्र होते हैं, सामान्य केवली के नहीं ।
Page #119
--------------------------------------------------------------------------
________________
90) तीर्थंकर भगवान के मखमण्डल के पीछे
भामण्डल रहता है, सामान्य केवली के नहीं। 91) तीर्थंकर भगवान के समवशरण मे अचित
पुष्प (जो वैक्रिय है, कुसुम वृष्टि) की वर्षा
होती हैं, सामान्य केवली के नहीं । 92) तीर्थंकर भगवान के समवशरण में चँवर
बिजाते हैं, सामान्य केवली के नहीं । तीर्थंकर भगवान के आहार विहार किसी अन्य को नहीं दिखता, केवली के दिखते
94) तीर्थंकर भगवान के नाखून व बाल बढ़ते
नहीं है। जबकि केवली के बढ़ते है। तीर्थंकर भगवान का खुन सफेद रंग का
होता है, जबकि केवली के भजना । 96) तीर्थंकर भगवान के श्वास की गन्ध पद्मकमल
की सुगन्ध जैसी होती है, जबकि सामान्य
केवली के भजना। 97) तीर्थंकर भगवान, वस्त्र रहित होने पर भी,
बालक के समान सौम्य, व सुशोभित लगते है, जबकि सामान्य केवली के नहीं । तीर्थंकर को जब केवलज्ञान होता है तब देवदुन्दुभि बजती है, जबकि सामान्य .
केवली के भजना । 99) तीर्थंकर भगवान के बल की उपमा, अनेक
इन्द्रों से की है, सामान्य केवली के नही । 100) तीर्थंकर भगवान के जन्म पर 64 देव (शकेन्द्र - आदि) उनके राज महल में आते हैं, पर
सामान्य केवली के नहीं। 101) तीर्थंकर भगवान के जन्म पर 56 दिशा
कुमारियाँ आती है, जब कि सामान्य केवली
नहीं। 102) तीर्थंकर भगवान के मध्यम अवधिज्ञान होता
है, केवली भगवान को तीनों जघन्य, मध्यम
और उत्कृष्ट अवधिज्ञान हो सकता है । 103) तीर्थंकर भगवान की हर देशना में प्रायः
चतुर्विध संघ उपस्थित होता है, या बनता
ही है, जब कि केवली के भजना । 104) तीर्थंकर भगवान धर्म के सर्वोच्च प्रवर्तक होते
है, सामान्य केवली नहीं । 105) तीर्थंकर भगवान के पास प्रायः दीक्षा होती
रहती है, जबकि सामान्य केवली के भजना। तीर्थंकर भगवान नियमतःस्व पर कल्याणक
होते हैं, केवली के भजना । 107) तीर्थंकर नाम कर्म की स्थिति अन्तो, कोड़ा
कोड़ी सागरोपम की होती है, सामान्य केवली को ये नाम कर्म की, ना तो प्रकृति होती है,
ना स्थिति होती है। 108) तीर्थंकर एक युग में एक स्थान पर होते है,
जब कि केवली अनेक भी । 109) तीर्थंकर भगवान आर्य क्षेत्र से ही सिद्ध होते
हैं, जब कि सामान्य केवली के भजना । 110) तीर्थंकर भगवान गृहस्थावस्था में चक्रवर्ती
राजा या राजकुमार होते हैं, सामान्य केवली
के भजना। 111) तीर्थंकर भगवान के पीछे देव, नाथ या स्वामी
बोलने की परम्परा है, जब कि सामान्य
केवली के भजना। 112) तीर्थंकर भगवान अपने जीवन काल में पाँच
गुणस्थानों को फरसते नहीं, 1,2,3,5 |
सामान्य केवली फरस सकते हैं। 113) तीर्थंकर भगवान जहाँ पारणा करते है, वहाँ
पंच दिव्य पैदा होते हैं, सामान्य केवली के भजना।
114) तीर्थंकर भगवान को अध्यापक के अध्ययन
की आवश्यकता नहीं रहती, जब कि सामान्य केवली को भजना।
Page #120
--------------------------------------------------------------------------
________________
पच्चीस बोल स्वरूप : ( कविता रूप में)
संक्षिप्त परिभाषा : 1) पहला बोल 4 गति 2) दूसरा बोल 5 जाति
3) तीसरा बोल 6 काया
6) छठा बोल 10 प्राण
= त्रस स्थावर को कहते,
काया ।
4) चौथा बोल 5 इन्द्रिय = विषय ग्रहण करता है इन्द्रिय। 5) पाँचवा बोल 6 पर्याप्ति = शक्ति विशेष को कहते, पर्याप्ति जीवन का सहारा, प्राण |
7) सातवाँ बोल 5 शरीर
- जीर्ण-शीर्ण होता, शरीर । 8) आठवाँ बोल 15 योग = मन-वचन काया की प्रवृत्ति को कहते, योग । 9) नवमाँ बोल 12 उपयोग= सामान्य विशेष को जानना, उपयोग ।
10) दसवाँ बोल 8 कर्म
= मर कर जाना कहते गति । समान इन्द्रिय समूह, जाति।
=
13) तेरहवाँ बोल
10 मिथ्यात्व 14) चौदहवाँ बोल 9 तत्व
1. चौदहवाँ जीव तत्व
=
2. चौदहवाँ अजीव तत्व
=
11) ग्यारहवाँ बोल 14 = कर्म विशुद्धि मार्गणा को गुण स्थान कहते गुणस्थान |
12) बारहवाँ बोल 23
विषय
सूक्ष्म रज, आत्मा में लगी, को कहते कर्म ।
240 विकार = विषय पर राग-द्वेष को कहते, विकार । अयथार्थ श्रद्धा को कहते,
मिथ्यात्व |
=
= शब्द रूप-गंध-रसस्पर्श को कहते, विषय ।
=
=
• वस्तु के वास्तविक स्वरूप
=
को कहते, तत्व | • उपयोग गुण, चेतना लक्षण कहते जीव तत्व । जड़ता लक्षण को कहते, अजीव तत्व |
96
3. चौदहवाँ पुण्य तत्व
4. चौदहवाँ पाप तत्व
अशुभ फल देता, पाप
तत्व |
5. चौदहवाँ आश्रव तत्व = आत्मा में कर्मों का आना, आश्रव तत्व आश्रव को रोकना, संवर तत्व |
6. चौदहवाँ संवर तत्व =
8. चौदहवाँ बंध तत्व
7. चौदहवाँ निर्जरा तत्व = अंशतः कर्म क्षय, निर्जरा तत्व ।
9. चौदहवाँ मोक्ष तत्व
=
• शुभ फल देता, पुण्य
तत्व |
=
21) इक्कीसवाँ बोल 2 राशि 22) बाईसवाँ बोल
15) पन्द्रहवाँ बोल 8 आत्मा =
12 व्रत
23) तेइसवाँ बोल
= आत्मा कर्म एकमेक को कहते, बंध तत्व |
• सम्पूर्ण कर्म क्षय, मोक्ष तत्व ।
16) सोलवाँ बोल
24 दण्डक
दण्डक ।
17) सतरवाँ बोल शुभ अशुभ परिणाम को 6 लेश्या कहते, लेश्या । 18) अठारवाँ बोल 3 दृष्टि = अन्तःकरण की रूचि को कहते, दृष्टि |
=
= मन की एकाग्रता को कहते, ध्यान |
5 महाव्रत 24) चौबीसवाँ बोल 49 भंग 25) पच्चीसवाँ बोल 5 चारित्र
19) उन्नीसवाँ बोल
ध्यान ।
20 ) बीसवाँ बोल 6 द्रव्य = गुण-पर्याय रहते कहते
द्रव्य |
ज्ञानादि में रमे, वह आत्मा ।
कर्मों के दण्ड भोगे,
=
=
• समूह ढेर को कहते,
राशि ।
अंशतः पाप त्याग को कहते, व्रत । = पूर्ण पाप त्याग, कहते, महाव्रत ।
को
=
= पच्चक्खान लेने के विकल्प को कहते, भंग ।
• आत्म शुद्धिकरण करता, चारित्र |
=
Page #121
--------------------------------------------------------------------------
________________
[पच्चीस बोल पर स्वाध्याय हेत विशिष्ट | एकेन्द्रिय पर्याय में अनन्त काल तक टिका । कौड़ी
के अनन्तवें भाग में तूं बिका है “एक श्वास में 17.5 आत्म - चिंतन
बार जन्म-मरण कर चुका" अकाम निर्जरा के पच्चीस बोल को परम्परा से कंठस्थ करने द्वारा विकास हुआ । अनन्त पुण्य से एकेन्द्रिय से का लक्ष्य प्रत्येक स्वाध्यायी के लिये जरूरी समझा
बेइन्द्रिय और आगे बढ़ता - बढ़ता सन्नी पंचेन्द्रिय जाता है।
तक अब तू पहुँच गया है । हे आत्मन ! तू उत्तम
साधना कर सकता है, अतः पुरुषार्थ शुरू कर दे, इन पच्चीस बोलों में जैनत्व की शिक्षा
तू जातिवाद से मुक्त हो सकेगा। सारभूत-रूप में समायी हुई है।
3) तीसरा काया छः अनादि संसार में पाँच स्थावर तीनों प्रकार के पदार्थ (द्रव्य) हेय, ज्ञेय
व त्रस इन छ: काया के स्वरूप को न समझने के और उपादेय का समावेश भी इनमें है।
कारण तू प्रत्येक काया को, शरीर को अपना मान . विशेष बात यह है कि पच्चीस बोल जैन मत
कर ममत्व भावों से, कर्मो के रूप से बंधन कर रहा को मानने वाले सभी संप्रदाय-पंथ, मूर्ति-पूजक आदि
| है। 'काया और माया' दोनों में फँसा जीव मृत्यु के समस्त समान रूप से मानते हैं अतः यह उचित ही
समय भयंकर | दुःखी बन रहा है । पशु-पक्षी, है कि समाज में इन तत्वों का व्यवस्थित रूप से
पेड़-पौधे, मनुष्य-देव सभी स-रागी काया - धारी, अलग-अलग भेद-प्रभेद सहित एवं गहराई से चिन्तन
काया की ममता से कर्मों का बंधन कर रहे है । हे के आधार पर निरूपण किया जा रहा है, जो प्रत्येक
मानव ! सर्व - श्रेष्ठ (मानव-त्रस) काया के द्वारा कर्म . साधक के लिए चाहे वह साधु हो या गृहस्थ उपयोगी
करके तू मोक्ष स्थान जिसे “अकाया" कहते हैं, होगा एवं कर्म निर्जरा का कारण बनेगा।
उस शाश्वत पद को प्राप्त कर सकता है ।
4) चौथे बोले इन्द्रिय पाँच : एक विषय ने जीततां 1 गति-चार : हे आत्मा ! इन चार गतियों में
- “जीत्यो सब संसार” इस उक्ति द्वारा पाँच इन्द्रियों परिभ्रमण करते-करते अनंत काल बीत गया, कर्म की परंपरा के वशीभूत बनी आत्मा, कितनी-कितनी
के विषयों को जीतने का बोध दिया गया है। रे जीव निकष्ट स्थिति एवं गति में रह चकी है. “एक
! हिरण संगीत से - पतंगिया आग से - भँवरा
(फूल में) - मछली माँस लोभ से - भैंसा (जल के अन्तरमुहूर्त में चार गति भी स्पर्श कर चुकी है "
शीतल स्पर्श की आसक्ति में) मगर से और हाथी फिर भी इसे शांति का अनुभव नहीं हुआ । अब चार
भोगों से भयंकर मौत (बे मौत) मारे जाते है । चेतन गति में मनुष्य गति साधना करने का श्रेष्ठ/ज्येष्ठ
चेत ! एक-एक इन्द्रिय के वश होकर जीव जीवन अवसर मिला है । हे मनुष्य ! तेरे जीवन का हर
| खो रहे, रो रहे और मर रहे हैं, तो जो प्राणी पाँच पल घटता ही जा रहा है, जो समय जा रहा है
इन्द्रियों का भोग प्रतिदिन भोग रहा हो, उस प्राणी वह वापस नहीं आ सकता, अतः जागृत बन ! एवं
की कितनी भयंकर गति होगी? यह समझ समझ! स्वाध्याय के द्वारा “तप एवम संयम" में जीवन जोड़ दे।
कानों से वीतराग वाणी सुनकर, संत दर्शन, शास्त्र,
पढ़कर चक्षु-इन्द्रिय का सदुपयोग कर ले । संवेग 2) जाति-पाँच : समाज में जातिवाद (ओसवाल,
भाव पैदा कर । पोरवाल, अग्रवाल आदि) के कारण अहम् में वृद्धि होने से आत्मा का पतन हुआ है । परिणामतः
आँख छोटी भले हो पाप बढ़ाने - बंधाने में भयंकर चतुरेन्द्रिय, तेईः, बेईः, एवं अधिक हीन अवस्था ।
दुर्गति देने में सहायक बनी है - सदा ही । अब जाग
Page #122
--------------------------------------------------------------------------
________________
! कामी दोनों इन्द्रियों (कान, आँख) द्वारा कर्म निर्जरा के राह पर बढ़ता जा, जागा जब से सबेरा । सर्व जीवों में पाँच इन्द्रियों की एक साथ प्राप्ति महामुश्किल है । अनंत पुण्य से मिलती है ।
5) पाँचवे बोल पर्याप्ति छः अहो ! कैसा भाग्यशाली जीव है तू ! सभी पर्याप्ति पूर्ण रूपसे तुझे मिली है । लाखों, करोड़ों, अरबों की संपत्ति से भी अधिक एक पर्याप्ति (शक्ति विशेष) कीमती है । भाषा और मन को व्यवहार व अन्तर दोनों ही कल्याणकारी मार्ग के लिये जोड़। ऐसी पर्याप्ति की शक्ति बारबार नहीं मिलती ।
6) छठे बोल प्राण दसः ओ प्राणी ! तेरा नाम प्राणी क्यों? कभी सोचा ! इन प्राणों की शक्ति को, धारण करके, प्राणी बना है तू । सोचो ! अपने सुख के लिए, अपने प्राणों की रक्षा के लिए अन्य अनंत अनंत प्राणों को लूट रहा है । “दूसरों के प्राणों की घात", यही तो हिंसा है । प्राणातिपात से विरमण बनकर पाप से विराम ले ले। अनन्त काल से तुं अनंतानंत प्राण लूट कर "प्राण लुटेरा” बन बैठा । शैतान से इन्सान और इन्सान से भगवान बनने के लिए इन प्राणों का सदुपयोग करके सद्गति प्राप्त कर सकता है । जाग जाग जाग !
-
-
7) सातवें बोल शरीर पाँच : जिस प्रकार किरायेदार मकान खाली करके दूसरे मकान में रहने लगता है, वैसे ही जीवात्मा अनादिकाल से शरीरों को धारण करके - इतने शरीर धारण कर चुका है कि यदि ढेर लगादे तो पूरे लोक में समावें नहीं । इतने शव यह जीवात्मा बना चुका है, अब यह शरीर जो जीर्णशीर्ण हो जाना है । इसे जन्म मरण (रहना - खाली करने के समान) से मुक्त बनाना चाहें तो श्रेष्ठ औदारिक (मानवधारी) शरीर साधना करने को मिल गया है। पुण्य से मिला है यह, परन्तु हर पल नष्ट रहा है, इसका क्षय हो रहा है, अतः उपयोग में लावें । शरीर नाशवान है, नष्ट तो होगा ही। बच्चा जवान बने न बने, जवान वृद्ध बने न बने मगर शरीर-धारी को
98
मरना तो पड़ता है । “काल राक्षस” के चंगुल से क्या कोई बचा है ? जरा सोचो।
चेतन करले विचार, अब आया अवसर इस बार, मौका बार-बार नहीं मिलेगा। इसी शरीर से किसी गिरे को उठाया जा सकता है और किसी खड़े को गिराया जा सकता है ना ? साधना से गुण-सुन्दरता, भावना से भव कटि और मनुष्यता से मुक्ति, हो जा तैयार.....
इसी शरीर का दास बनकर कर्म का बंधन करता ही रहा है, अब शरीर को अपना दास बना । वह तेरे हुक्म में रहे, लेकिन यह सब धर्म की आराधना से ही हो सकता है ।
8) आठवें बोल योग पन्द्रह : योगी, योग में मस्त रहता है, भोगी - भोग में मस्त रहता है ।
मस्त दोनों हैं- फरक, इतना है,
एक अंत में रोता है, दूसरा हँसता है ।
रूप सुन्दर-असुन्दर वैसे ही योग की परिभाषा उत्थान और पतन दोनों क्रियाओं में जुड़ती है । मन, वचन, काया इन तीनों से कर्म का बंधन और मुक्ति दोनों हो सकते हैं । काया से कर्म - 1 सागरोपम, वचन से कर्म 1000 सागरोपम और मन से 70 कोड़ा - कोड़ी सागरोपम का बंध पड़ सकता है। कितनी ताकत है मन की । मन योग-निरोध ( वश) करने का श्रेष्ठ उपाय कवि की भाषा में अति चंचल मन घोड़ा, नित उत्पथ चलता, शिक्षा डोर लगावें वश
हो जाता । (उत्तरा 23 अध्याय) सम्यक् ज्ञान के ही द्वारा मन को सदमार्ग मे जोड़ा जा सकता है, अनन्त उपकारी तीर्थंकर परमात्मा का उद्घोष हमें समझाता रहा है - जागो.... सोओ मत । "मन के जीते जीत है मन के हारे हार" । मन से मत हारो सम्यक मार्ग का निर्णय कर आगे बढ़े चलो, निश्चित ही तुम्हारी जीत होगी ।
अभी तक योगों ने हमे नचाया, मनाया, भटकाया
Page #123
--------------------------------------------------------------------------
________________
है । योग आत्मा के अधीन बने, अब वैसा कर, यही सच्चा पुरूषार्थ है ।
“अलं कुसलस्स पमाएणं” (आचा.)
हे कुशल ज्ञानी पुरुष ! अब प्रमाद से बस कर और वीतराग मार्ग में आगे बढ़ !
नवमा बोल- उपयोग बारह : धर्म की 9) जितनी क्रियाएँ है, उनमें उपयोग की अति आवश्यकता है । उपयोग के अभाव में (शून्यचित्त) वे क्रियाएँ वैसा फल नहीं देती, जैसा मिलना चाहिये । वस्तु का सामान्य / विशेष धर्म “जानना देखना ” उपयोग कहलाता है । हे जीव ! भूतकाल में अज्ञान के उपयोग में अनन्त काल तक रहा है । असन्नी में प्रायः अज्ञान ही रहता है, कोई अपर्याप्त थोड़ी देर के लिये ज्ञानी रह सकता है।
सम्यकज्ञान जो पांच प्रकार के है, इनकी प्राप्ति असन्नी अवस्था में नहीं हो सकती है । प्रबल पुण्य से सन्नी का भव तुम्हें मिला है, फलतः उपयोगी विवेकी बनो ।
धर्म वाड़ी नहीं निपजे, धर्म न हाट बिकाय धर्म उपयोगे (विवेक) निपजे, जे करिए ते थाय ॥
10) दसवाँ बोल कर्म आठः जैन धर्म सिद्धान्त में से यदि आठ कर्मो को निकाल दिया जाए तो कुछ नहीं बचेगा । हमें कर्मवाद का गहन अध्ययन करना ही होगा। ज्यों-ज्यों एक-एक कर्म का स्वरूप बंध, उदय, उदीरणा व सत्ता आदि अनेक कारण (माध्यम) से हमें बोध-समझ आयेगी, तो हमारी धर्म श्रद्धा गहरी होती ही जाएगी। हमें कषाय में आनंद नही आयेगा, वीतराग भावों में आनंद की अनुभूति होगी । कषाय भावना में “जगवासी घूमें सदा मोह नींद के जोर" (भावना अधिकार में)
आठ कर्म का मुखिया मोहनीय कर्म और यही मोह, चार गति, चौबीस, दंडक, चौरासी लाख जीव योनियों में आत्मा को भटकाता है । अब इस मोह राजा से अंत पाना है । अनंतकाल से मोह
99
(शराब मदिरा) के नशे में बेभान आत्मा जो, अनंत शक्ति, अनंत गुणों की धारक है, दबी पड़ी है । अपनी शक्ति पहचान ! पुरुषार्थ कर और जागृत बन ! तो सारे चोर भाग जाएंगे। कर्म का बंधन कैसे ? किन कारणों से होता है ? कर्म बंध का उदय होगा ही । बंध-उदय में फँसा निरंतर खौलते पानी के समान अशांत बना हुआ है । प्रत्येक सरागी जीव प्रायः सात कर्म और असंयति तो सात / आठ कर्म बांधता ही रहता है। आयुष्य कर्म जिंदगी में एक बार बांधता है। अब कर्मवाद को अच्छी तरह समझकर, कर्म से बस कर, अनंतकाल कर्म करतेकर छुटकारा नहीं मिला है। हे जीव ! अकर्मा कब बनेगा !
11) गुण - स्थान 14 : जीव जिस परिणाम या विचारधारा में रहता है, टिकता है, उन विचारों, अध्यवसायों और परिणामों के असंख्य प्रकार के भेद होते हैं । योग व मोह के निमित्त आत्मा के उत्थान - पतन की चौदह श्रेणियाँ या वर्गीकरण, उत्कर्ष - अपकर्ष को गुणस्थान कहते है । अनादिकाल से निगोद में पड़े हमारे इस जीव की करूणा भरी कथा क्या कहें ? मिथ्यात्व में पड़ा रहा, अनन्त काल बीता, अकाम निर्जरा के माध्यम से आज न मालूम कितने विकसित (साधन रूप) रूप में है । अब हमें जीव का गुण - स्थान नीचे न गिरे, उसके लिये और यदि ( मिथ्यात्वी) अनंतानुबंधी (क्रोध, मान, माया, लोभ) कषाय का जब तक क्षय या क्षयोपशम या उपशमन न हो और आत्मा बाह्य रुपी (पुद्गल) उत्तम इन्द्रिय, सद् बुद्धि आदि प्राप्त न कर ले तब तक धर्म श्रद्धा रूप चौथा गुणस्थान (सम्यक दृष्टि प्राप्त होना अत्यंत कठिन है । अतः भोग दृष्टि, साता दृष्टि, सुख दृष्टि को छोड़कर कषाय अनंतानुबंधी को भेद / छेदकर सम्यक दृष्टि बनना है और उत्तरोत्तर विरति भावों को बढ़ाते हुए व धर्म व शुक्ल ध्यान रूपी तप से अष्ट कर्म क्षयकर (14
स्थानों को पार कर ) सिद्ध गति में जाना है, तो शुरु कर दे आज से उत्तम अध्यवसाय, और पैदा कर गहरी तत्त्व रुचि, जगा, फिर देखो आत्मा का उत्थान अवश्य होगा । हमारी मंजिल हमारे सामने
Page #124
--------------------------------------------------------------------------
________________
है - बस, पुरुषार्थ अपेक्षित है।
वर्ण का यदि चश्मा पहना है तो सब वस्तुएं काली 12) इन्द्रिय विषय (23) विकार (240) : जगत्
ही नजर आयेंगी वैसे ही मिथ्यात्व के प्रभाव से . में चराचर प्राणी विषय विकार के चक्र में घूम रहे है।
सबमें मिथ्या - मात्र नजर आता है। अनुकूल विषय में राग पैदा करने में निमित्त माना है अतः तत्व बुद्धि-सम्यक दृष्टि जब तक पैदा न होगी, और प्रतिकूल विषय, द्वेष का कारण बना है। राग- अज्ञान का आवरण भी नहीं द्वेष के कारणों, निमित्तों को हटाया नहीं जा सकता हटेगा । जैसे मोतियाबिन्द होने पर आँख से नहीं है। अज्ञानता से वे विषय विकार पैदा करते हैं । दिखता परन्तु ऑपरेशन के पश्चात मोतिया-बिन्द शास्त्र देखो ! गजसुकुमाल मुनि, भयंकर उष्णस्पर्श | हटते ही पुनः दृष्टि सुधर जाती है, उसी प्रकार से असातावेदनीय के उदय में भी महा निर्जरा, | अज्ञान का आवरण हटते ही सत्य दिखने लगेगा । महापर्यवसान (कर्मों का) करके मोक्ष पद प्राप्त कर अनन्तकाल से आत्मा पर मिथ्यात्व (अज्ञान) का लिया । हम भी घबराएं नहीं । लालबत्ती, हाइवे मोतियाबिन्द आया हुआ है। के चिन्ह, चालक को संकेत देते है। जैसे अच्छा
सत्संग, संतो का संग, निर्ग्रन्थ प्रवचन, हमारी चालक सकुशल गंतव्य स्थान पर पहुँचता है, वैसे
कुश्रद्धा को बदल सकते हैं। हम ही बदलेंगे-ऑपरेशन ही संसार के विभिन्न विषयों में आसक्त न बना
डॉक्टर करता है, वैसा यहाँ नहीं होता। स्वयं रोगीहुआ जीव आत्मा, संसार पार हो जाता है । वही
स्वयं डॉक्टर और स्वयं का पुरुषार्थ ही काम आता ज्ञानी, वही पंडित और वही कुशल पुरुष है । “सुख के रागी को भविष्य में दुःख ही मिलने वाला है । दुःख के द्वेषी को सच्चा सुख स्वप्न में भी
बस ! नजरें बदली तो, नजारे बदल जाते है। नहीं आ सकता है".।
किश्ती को मोड़ो तो, किनारे बदल जाते हैं। तो हम खोजें चोर को, जो हमारे ही भीतर बैठे हुए
14) नव तत्त्व : नव तत्त्व क्या है, कभी सोचा है? हैं । बाहर के चोर जल्दी पकड़े जा सकते हैं। ऐसे
मैं कौन हूँ, विचारा है? एकांत कोने में बैठ, कभी ही आत्मा में छुपे अज्ञान, राग, द्वेष, मोह रूपी
अन्दर की दुनिया में चेतन गया है? चोर बैठे हैं, उन्हें निकालने पर ही सुखी बना जा उत्तर : नहीं ! कारण क्या है ? हमें (तुम्हें) डर सकता है।
लगता है। हमें भय लगता है | अन्दर भयंकर ज्ञानी कहते हैं “जाणई पासई" ज्ञाता दृष्टा बनो,
गहराई निशांत, नीरव अकेलेपन का नाम सुनते ही मोह-बुद्धि से जुड़ो मत । परम भाग्यशाली हैं हम
मन कांपने लगा है, है ना सत्य ? कभी सुनसान कि सच्चा मार्ग मिल गया। तो- अब देर न करें...
जगह में कोई जा रहा हो तो, जोर-जोर से गाता लो चलो उस मार्ग पर ..... जिस मार्ग पर अनन्त
है, चिल्लाता हुआ, गाते देखा है ? सोचा तीर्थंकरों ने...आचार्यों ने, मुनि भगवंतो ने, चरणों
है ? सोचा है कभी? से उसे पवित्र किया और पतित पावन बन गए..... कारण क्या है ? इसका कारण हमें पता है - जानते उठ जाग रे मुसाफिर अब हो चुका सवेरा...... हैं। सुनसान जंगल में गाना, चिल्लाना जैसी क्रियाएँ 13) मिथ्यात्व : जो जैसा है, उससे विपरीत, न्यून
हमारे अपनेअंदर के भय को घटाती हैं । है न सत्य या अधिक मानना व समझना ही मिथ्यात्व है। जीव
| - हकीकत हमारे जीवन की। का स्वभाव ऊपर ही उठना है, परन्तु दृष्टि विपरीत हम कभी भीतर उतरना ही नहीं चाहते हैं, भयभीत होने से सब गलत दिखता है | सत्य को असत्य | रहते हैं। क्या पता क्या हो गया है हमें ? समुद्र से मानता है, असत्य को सत्य मानता है । जैसे-काले । मोती चाहिए, किनारे पर बैठकर मोती नहीं मिला
00
Page #125
--------------------------------------------------------------------------
________________
करते हैं। मरजीवा (गोताखोर) मरने का भय छोड़कर परमगुणी परमात्मा । समुद्र की गहराई से मोती लाते हैं ना ? बस-यही
भूतकाल की पर्यालोचना में देखेंगे तो अनंतकाल रहस्य हमारी आत्मा का है।
से मेरी आत्मा बहिर ही रही । अब इस बुद्धि से आत्मिक गुणों को प्राप्त करने हेतु आत्मा में ही निर्णय कर जड़ता की जकड़न को तोड़/छोड़ अंदर शोध/खोज करनी होगी । भाई ! अनंतकाल अन्तरात्मा बन । आत्मिक सुख का मार्ग खुल गया बीत गया, बाहरी पुद्गलों में सुख ढूंढते-ढूंढते, पर ! समझ । सुख नहीं मिला । तो अब क्या, इस भव में पुद्गल
कषाय आत्मा ही आठों में सबसे भयंकर है । कषायों से मिल सकेगा ? उत्तर नहीं।
की भूतावल/तूफान से आत्मा को कौड़ी की कीमत नव तत्त्वों में जीव की शंका करने वाला ही तू खुद
का भी नहीं रहने देता है । जीव, अब कषायजीव है । शरीर जड़ है । इन दोनों के मिश्रण का
त्याग, विषय-त्याग, विकार-त्याग, समझ लेयह दृश्य है।
बन गया तू महाभाग | तीर्थंकर आचार्य पुत्रवत महा-उपकार मान उन पूज्य तीर्थंकरों का, गणधरों
संसार का पूज्य बन जायेगा। का, पूज्य ज्ञानी गुरु भगवंतो का, कि तुझे अनंत प्रबल पुण्य से यह मार्ग मिल गया । अब आगे बढ़ ?
16) दण्डक-चौबीस : दंडक क्या है ? जहाँ जीव
अपने कर्मों का दण्ड भोगने पैदा होता है, उसे बैठ मत।
दंडक कहा है । सिद्धों को दण्डकातीत माना है । बैठ गया सो बैठ गया, सो गया सो खो
बेड़ी चाहे लोहे की हो या सोने की हो, है तो बेड़ी गया । प्रथम तत्त्व जीव और अन्तिम तत्त्व मोक्ष ।
ही ना। वैसे ही शुभ या अशुभ, है तो कर्मों का प्रथम जीव से नवमें मोक्ष के बीच तत्त्वों में से ही भोग। चोर तत्त्व घटेंगे/भागेंगे । लोहा ही लोहे को काटता
सर्वश्रेष्ठ वही दंडक, जहाँ कर्मों का फल तो भोग है ना । संवर से आश्रव । पुण्य से पाप/है/ना/
रहा हो, परंत नये कर्म नहीं बांध रहा हो। बस उपाय, अनंत ज्ञानी का छोटा (निर्जरा से बंध)
इतनी छोटी सी बात समझ में आ गई तो सब आ उपाय, हमें समझकर प्रथम तत्त्व (जीव) से नौवें तत्त्व मोक्ष में जाना है। बस इसी की विचारणा रुचि
गया समझ में। अन्तःकरण में जब जम जायेगी, विकास के मार्ग में मनुष्य को ही सर्वश्रेष्ठ क्यों माना? राजा है, सेठ पैर उठते देर नहीं लगेगी?
है, डॉक्टर है, वकील है, जज है, नेता है, पता भाग्यशाली - भाग्य का सदुपयोग कर, नर से नारायण
नहीं कौन-कौन से पद हैं, डिग्रियाँ हैं, मगर इन बन । धन्य धन्य हो जायेगा तू ।
सबसे मनुष्य के दण्डक की महिमा नहीं बताई है।
चार विभाग हैं - चौबीस दण्डकों के 15) आत्मा-आठ : आत्मा से मूल्यवान कोई वस्तु नहीं है, यह अमूल्य है । जड़ खरीदा जा सकता 1) नरक है वहाँ दुःख ही दुःख प्रधान । है, चेतन नहीं । ज्ञानादि गुणों में रमण करे वह
2) तिर्यंच है वहाँ - भूख, आहार ही आहार-आहार आत्मा । तीन भेद-बाह्य आत्मा, अंतरात्मा व परमात्मा
प्रधान । | बाह्य में रचा-पचा प्रथम बहिर-आत्मा है । सम्यक दृष्टि बन चुका, आत्मा के स्वरूप को समझ चुका,
3) मनुष्य है वहाँ-जहाँ धर्म प्रधान व विवेक प्रधान । श्रद्धा से भर चुका, अन्तरात्मा और पूर्ण परम पद- | 4) देव है वहाँ-जहाँ भोग प्रधान (लोभ प्रधान)।
Page #126
--------------------------------------------------------------------------
________________
इन चारों में विवेक है जो सिर्फ मनुष्य ही कर सकता है । कर्म काटना चाहे तो - सिद्ध गति प्राप्त कर सकता है । काला सिर का मानवी (मनुष्य) क्या नहीं कर सकता । जो चाहे, जो धारण करे वह सब कर सकता है । (संकल्प कर) बस अनन्त काल से कर्मों का दण्ड भोग रही आत्मा को दण्ड मुक्त करने की साधना आज से शुरू करदो । तत्त्व बुद्धि से, विवेक बुद्धि से निर्णय कर आत्मा के मार्ग में, ज्ञानियों के मार्ग में आगे बढ़ो ।
"कामे कमाहि कमियं खु दुक्खं" (सूत्र- दशवैकालिक) इच्छा (काम) को घटादे, आत्मन ! निश्चय ही दुःख दूर होगा । श्रद्धा कर और हो तैयार, वीतराग मार्ग पर ।
17 ) लेश्या छः आत्मा के परिणाम या कर्मों को चिपकाने में जो सहायक वह है, लेश्या । जहाँ तक
श्या है वहां योग ( 15 ) है । लेश्या छः है । आठवें बोल में बता दिया योग के बारे में। अब लेश्या भाव एवं द्रव्य दो प्रकार की है । द्रव्य याने पुद्गल जड़ परन्तु भाव लेश्या (परिणाम) ही तो द्रव्य को लाती है । तीन लेश्या शुभ और तीन अशुभ है । आयुष्य कर्म का और लेश्या का संबंध ऐसा ही है कि हमें बहुत कुछ अप्रमत्तता की ओर जोड़ सकता है। जिस लेश्या के परिणामों में मनुष्य आयुष्य बांधेगा, मृत्यु से पूर्व भी वही लेश्या आएगी । सव्वओ पमत्तस्स भयं, अपमत्तस नत्थि भयं II (आचा.)
प्रमादी को चारों ओर से भय रहता है- अप्रमादी को नहीं ।
"सातवाँ अप्रमतसंयम गुण-स्थान में शुभ लेश्या ही रहती है ।
प्रमाद छोड़ो, अप्रमत्त बनो, निश्चय ही सद्गति प्राप्त होगी । हर पल लेश्या / परिणामों पर नजर / ध्यान रखें तो हमारे अशुभ में रुकावट होगी। शुभ लेश्या - शुभगति का कारण बनती है और अशुभ 'लेश्या अशुभ गति का। भाग्यशाली मानव से बढ़कर कौन हो सकता है ? साधना करने का स्वर्णिम
102
अवसर, अशुभ का त्याग, शुभ में प्रवेश, अंधकार से प्रकाश में प्रवेश यही सार है जीवन का |
18) दृष्टि तीन : भोग विषयासक्ति दृष्टि से आत्मा को अज्ञान रूपी अंधकार रूचता है, अच्छा लगता है। उसे प्रकाश, ज्ञान, सम्यक्दृष्टि अच्छी नहीं लगती है । “चोर को अंधेरा ही पसंद होता है”, ऐसी कहावत है । वैसे ही जहर काटे व्यक्ति को नीम कड़वा न लगकर मीठा ही लगता है। मिथ्यादृष्टि की दशा भी वैसी ही है। जीवन में जहर घोल रही है । अमृत की बजाय विष पैदा कर रही है । क्रोध में माता का दूध भी पुत्र के लिए जहर का काम कर सकता है, । दूध जहर नहीं, क्रोध जहर है | वैसे ही “अज्ञानता” जहर से भी भयंकर मारक
। अज्ञान में से अ. हटाने से ज्ञान रह जावेगा । जो ज्ञानी होगा उसकी दृष्टि भी सम्यक् ही होगी । अन्तःकरण में दृढ़ श्रद्धा और रुचि तथा वीतरागता की उपासना से हमारा कल्याण अवश्यंभावी है । उठो बढ़ो तैयार हो ! साधन-साधना हेतु आगे बढ़ना, आत्मा में वीर्योल्लास पैदा करना । सम्यकदृष्टि जीव का वर्तमान और भविष्य उज्ज्वल ही होता है ।
19) ध्यान-चार : मन-चित्त की एकाग्रता को ध्यान कहा गया है। शुभ अशुभ दोनों प्रकार से होता है । व्यवहार में “ध्यान रखना भी महत्वपूर्ण, अर्थ रखता है । लक्ष्य रखना, धरना आदि अनेक सार्थक अर्थ निकल सकते हैं । यहाँ ध्यान के दोनों भेदों में आर्त्त-ध्यान और रौद्र-ध्यान को समझना और छोड़ना है। जब प्रकाश घर में हुआ, अंधकार गया, समझो। वैसे धर्म ध्यान किया तो अशुभध्यान गया समझो । राग से आर्त्तध्यान, रोष (द्वेष ) से रौद्र ध्यान इन दोनों से भयंकर संसार की भव परंपरा में आत्मा भटकती है। मनोज्ञ, अमनोज्ञ, रोग व निदान ये चार कारणों से आर्तध्यान एवम् क्रूरता के परिणामों को रौद्र ध्यान कहते हैं । नरक व तिर्यन्च गति देते हैं । इन दोनों से छूटने का उपाय भगवान ने बताया है, धर्म ध्यान करो । आज्ञा क्या है तीर्थंकर की ? इसका गहराई
Page #127
--------------------------------------------------------------------------
________________
से चिंतन मनन करो अशुभ-शुभ (फल) क्या-क्या, | शिक्षाएँ हमें समझाने में सहायक बन रही हैं । छः जीव भोग रहे हैं । जगत की दुःखी अवस्था का द्रव्य कह रहे हैं हम साधना में तैयार होकर अजरचित्रण देखकर आत्म ज्ञान से दुःख से बचने का अमर पद को प्राप्त करने की दिशा में गति करें । उपाय, रूचि, चिंतन मनन सब धर्म-ध्यान ही होता पाप से रूकें! दूसरों के दुर्गुणों को पी जावें | समय है। शुक्ल ध्यान-जो धर्म ध्यान का ही उत्तम विकसित का उपयोग करें। पुद्गल की अनित्यता से वैराग्य रूप है, जो मोक्ष तक पहुँचाने के लिये मार्ग प्रशस्त को पैदा कर | आत्मा में संवेग, धर्म - श्रद्धा रख करता है । ये चारों ध्यान मन वाले प्राणियों में ही और निर्वेद मार्ग में आगे बढ़े। होते है | हम-आप सब सौभाग्यशाली है कि मन
21) राशि - दो : जीव राशि (ढेर) में है तेरा मिल चुका है, अब देर न करें, शुभ ध्यान में आगे
स्थान । सर्वोत्तम साधनों से युक्त इन्द्रिय मन बढ़ने/चढ़ने में । यह बारह तपों में एक महान तप
युक्त । अब इसमें कुछ कर ले, और बढ़ ले आगे
मोक्ष मार्ग में। 20) द्रव्यषद् : गुण और पर्याय जिसमें है, वह
ढेर के ढेर आहार को खा गया, सारे लोक के द्रव्य है। छः द्रव्यों में पाँच द्रव्य अजीव हैं, एक
समुद्र का पानी पी गया, पर अभी प्यासा और द्रव्य जीव है | धर्मास्तिकाय संकेत करता है कि
भूखा है, क्योंकि अनन्त जन्मों में चार संज्ञा में ही जैसे मेरा गुण गति में सहायक - वैसे तू भी आत्मा
तो जन्म खोया । अब यदि तृप्त होना चाहे तो जड़ की संगत से जड़ मत बन; धर्म में धर्म कर
संयम, तप और साधना में आना ही पड़ेगा । जीव (गति कर) निश्चय ही मोक्ष पहुँचेगा और धर्मास्तिकाय
राशि और अजीव राशि से तू शुद्ध वीतरागी परमात्मा सिद्ध स्थान में पहुँचाने में सहायक बनेगा ही ।
होने योग्य जीव है। अधर्मास्तिकाय से हमें बोध लेना है, अधर्म से आत्मा संसार (भोगों) में रूक जाता हैं। वैसे अधर्म
सोच ! जाग! चेतन कर ले विचार, साधना पथ है
तैयार ! भी जीव के लिये दुःख का पहाड़ पैदा करता है। आकाश का संकेत है, सबको जगह देना-वैसे हमारा
22) श्रावक व्रत बारह : वीतराग वाणी निर्ग्रन्थ
प्रवचन सुनने के रसिक, श्रावक कहलाते स्वभाव भी हो कि जगत को बाहर न फेकँ। दूसरों की बुराईयों के गीत न गाऊँ - निंदा में न पडूं।
हैं । मुनियों की (संतो की) उपासना करने वाले केवली सब जगत के गुण-अवगुण जानते देखते
उपासक हैं । सुनना और उसको जीवन में उतारना हैं परन्तु बाहर प्रकट नहीं करते हैं, वैसे ही तू भी
ही उपासना है । भगवान ने दो मार्ग बताए हैं - साधु गंभीर बन | काल का स्वभाव वर्तन-नये को पराना
मार्ग और श्रावक मार्ग । आदि वैसे ही हे जीव ! काल जा रहा है जो करना श्रावक व्रत को धारण करने से जीवन मर्यादित बन है कर ले । कल का क्या पता, आये न आये ? जाता है और आराधक बनने पर तो पंद्रह भव से सोच ! काल (मौत) भी है पास में । पदगल का | ज्यादा भव भी नहीं करता, अर्थात् मोक्ष हो जाता है सड़न - गलन का गुण है । पुद्गल संकेत देता है, | तत्व बुद्धि से श्रद्धा होने पर, छोड़ने योग्य को छोड़ता क्यों घमंड में भूल रहा है, तेरा रूप मेरे से बना है, | रहता है। श्रावक जीवन में सामायिक स्वाध्याय का बहुत तेरा मकान गाड़ी कपड़े सब मेरे से ही बने है, मेरा | महत्व है। सामायिक आज हमारे सा स्वभाव वही सड़न-गलन होगा । कितना भी तेरा | हैं, मगर स्वाध्याय के अभाव में आगे प्रगति नहीं होती शरीर सुन्दर है, परन्तु हूँ तो मैं मालिक ! रे जीव | एवम् तत्वों का रहस्य समझ में नहीं आता है, सामायिक तू तो किरायेदार है, कुछ दिनों का बस । ये | में आनंदानुभूति भी नहीं होती है ।
Page #128
--------------------------------------------------------------------------
________________
कारण क्या है खोजें? व्रत में निर्जरा एवं संवर दोनों है। निर्जरा एवं संवर ये ही मुक्ति का मार्ग है। संवर बीस प्रकार, निर्जरा बारह प्रकार को अच्छी तरह समझे, फिर धारण
अपना बल, शक्ति अन्तरवीर्य का निरीक्षण करके गुणों को, व्रतों को, नियमों को धारण करो । धर्म ही तो धारण किया जाता है । जैसे-पुराने वस्त्र उतारे जाते हैं और नए धारण किये जाते है, वैसे ही अवगुण छोड़े जाते है और गुणों को धारण किया जाता है।
करें।
भगवान का बताया मार्ग जगत के प्राणियों के लिये हितकारी ही है, वैसे बल को, शक्ति को समझकर व्रत धारण करने की आज्ञा है - प्रभु की । जब पूरी शक्ति जग जावे तो महाव्रत धारण किया जाता है, नहीं तो महाव्रतों की पूर्व भूमिका, श्रावक के बारह व्रत शक्ति अनुसार धारण करके आगे की भूमिका तैयार हेतु ही श्रावक वृत्ति हैं।
भविष्य में तो सम्पूर्ण पापों का आश्रवों का त्याग करना ही श्रावक का मनोरथ /भावना/उद्देश्य रहता है, परन्तु वर्तमान में “बलं थामं च पेहाए” सूत्रानुसार पूर्व भूमि के अभ्यास हेतु कुछ न कुछ धारण करना
23) महाव्रत पाँच : अणुव्रत से बड़ा महाव्रत होता है | महाव्रत (चारित्र)। आते कर्म को रोकता है, कर्म प्रवेश से बचाता है | महाव्रत जगत का अभय दाता है। महाव्रत अर्थात् सत्य का धारण । महाव्रत अर्थात् चौर्य कर्म का त्याग (अचौर्यव्रत धारी) महाव्रत अर्थात् (ब्रह्म में लीन) ब्रह्मचर्य धारी, महाव्रत अर्थात इच्छाओं का देश निकाला, महाव्रत अर्थात कषायों को प्रतिपल चुनौती देना ! कहा भी है.... दुर्गुण ने कोई कही आवो, कही आवो, कोई कही आवो। तारे-ताबे (आधीन) थवु नथी, अने दुर्गति में हवे जवु नथी। "दुर्गुणों, दुर्गति, दुष्कर्म आदि का विसर्जन" - महाव्रत-समुद्र को भुजाओं से तैरना, असिधारा पर चलना, लौह के चने चबाना सरल है, परन्तु महाव्रत धारण करना मुश्किल है । विशेष निशाद्र, निशांत और प्रशांत व जीवन में पूर्ण शांति-पूर्ण दाता जगत में यदि, कोई स्थान है वह है संयम । संयम की प्रथम सीढ़ी है “महाव्रत" जो साधक को प्रत्येक पल में कर्मों की अनन्त श्रेणियों को क्षय करती ही रहती है । आत्मा को जगाओ, मोक्ष मार्ग में बढ़ाओ। पापों को त्यागो, यही मार्ग सर्वश्रेष्ठ है। जिसे तीर्थंकरों ने बताया है । पूज्य पुरुषों द्वारा बतलायें एवं सेवित ध्रुव मार्ग पर चलने का पुरुषार्थ करके हे आत्मन ! तू भी परम पद का अधिकारी बन सकेगा। 24) श्रावक के भंग (उनपचास) अहो ! प्रभु का कैसा निर्दोष एवं शुद्ध मार्ग है, जहाँ शांति है, लेश मात्र भी दुःख नहीं । “बलं थामं च पेहाए सद्धा मारु मप्पणो" (दशवैकालिक सूत्र)
श्रावकपना भी साधुपना की तैयारी की रूपरेखा है । वह भी कभी न कभी, जब पूरी शक्ति जगेगी, पूर्ण पाप का त्यागी बनेगा ही। अतः हे आत्मा ! जागो-उठो और तैयारी करके शक्ति को तोलकर श्रावक वृत्ति के नियम अवश्य धारण करलो । उनपचास भंग का स्वरूप तीनतीन बातों को समझाने से ध्यान में बैठ जावेगा । मन, वचन, काया ये तीनों योग, करना नहीं, कराना नहीं और अनुमोदना नहीं । इस प्रकार पापों का | आश्रवों का रोक, करूं नहीं मन से, करूं नही वचन से, करूं नहीं काया से, आदि-इस प्रकार उनपचास तरीकों से पाप को रोक सकते हैं। भाग्यशाली आत्मा ! मौका न छोड़, करले और हो जा ज्ञानी । तत्त्व बुद्धि से आत्मा की शक्ति का निर्णय करके मोक्ष मार्ग में बढ़ते जाना । “वड्ढ़माणो भवाहि य"
Page #129
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री कृष्ण महाराज ने राजीमती जी से उपर्युक्त | "खिप्पं न सक्केइ विवेक मेउं"। (उत्तरा.सूत्र) शब्द कहे थे । वर्धमान होते रहना-ज्ञान में दर्शन में
विवेक बुद्धि की प्राप्ति बहुत अशक्य है, बहुत मुश्किल चारित्र में ।
है । सामायिक चरित्र सभी क्षेत्रों में होता है। 25) चारित्र पाँच : “वमे चत्तारि दोसे उ इच्छन्तो
सामायिक चरित्र, विशेष छेदोपस्थापनीय व परिहार हियमप्पणो" हे आत्मा । यदि आत्मा (आत्मा) का विशुद्ध, भरत, ऐरावत क्षेत्रों में ही । सूक्ष्म संपराय हित चाहता है, तो इन महादोषों को (जो “चार" है)
एवम यथाख्यात् सभी क्षेत्र (पन्द्रह कर्मभूमि/मनुष्य) छोड़ दे | पल-पल सुखी बन जावेगा | “चरित्तेण
में होता है । यथाख्यात संशुद्ध चारित्र है । निगिण्हाइ” (उत्तराध्ययन) सूत्रकार ने चारित्र पापों
तीर्थंकरो व केवल ज्ञानियों में यही चारित्र होता है। को रोकता है और कर्मों को चूर करना समझाया है
हम भी चारित्र मार्ग में आगे बढे और कषायों को । मनुष्य भव, लंबा आयुष्य, इन्द्रिय परिपूर्ण, शरीर
मंद करते रहें। कषाय घटाने से ही संयम पर्यव की निरोग आदि बोल मिलना हो गया । परन्तु संयम
बढ़ोतरी होती है। ज्ञान क्रिया की शुद्ध आराधना (चारित्र) के बिना क्षपक (गुण) श्रेणि के अभाव में
करते रहें। केवली नहीं बन सकता और केवल ज्ञानी बने बिना मोक्ष नहीं प्राप्त होता है।
“संयम धन से धनवान ही सच्चा धनी होता है,
वही मोक्ष का अधिकारी होता है" अतः जब भी मोक्ष तक पहुँचाता है चारित्र,
समय निकले या मिले, पच्चीस, बोल पर चिंतन - ज्ञान दर्शन = जानना व श्रद्धा.....
मनन कर कर्म निर्जरार्थ आगे बढ़े। परन्तु चलना चरण से ही होता है और चारित्र
(दि. 1-1-1995 इन्दौर) चरण-व्रत है । चौबीस दण्डक में मनुष्य का दण्डक
संयोजक : प्रस्तुतिकरण : ही चारित्र धारण कर सकता है। हम भाग्यशाली हैं
श्रुति जैन - मनुष्य भव प्राप्त हो गया । अब बस एक ही काम शुद्ध आराधना /पालना, ये मौका | सूत्र विनय स्वाध्याय मंडल
P. 5, II Floor, नवीन शाहदरा, दिल्ली - 110 032 बार-बार नही आने वाला है ।
किये बिना कोई काम आसान नहीं होता, सहे बिना कोई भी मानव महान नहीं होता। गांठ बांध लो उत्थान का मार्ग साधना ही है, बिना तपे कोई इंसान भगवान नहीं होता है।।
★★★★
अपने मन के दीप जलाओ दीप शिखा की जगमग ज्योति, लेकिन मानव मन में अंधियारा है
जीवन के इस महा समर में, घट गया तेल मन हारा है। बुझी हुई उस मन की लौ को, आशा की लौ से सुलगाओ। माटी के दीपक अब छोड़ो, अपने मन में दीप जलाओ।।
Page #130
--------------------------------------------------------------------------
________________
सामायिक साधना
14) सामायिक से श्रेष्ठ देव और मनुष्य गति का
आयुष्य बंधता है। || श्री वीतरागाय नमः ।।
15) सामायिक से दूसरे विश्राम स्थल का अवसर सामायिक साधना से 48 (मिनटों) लाभों की
प्राप्त होता है। प्राप्ति होती है, सुज्ञजन ध्यान देंगे।
16) सामायिक से सर्व योगों की विशुद्धि होती सामायिक मन वचन काया को निर्मल बनाती
सामायिक से सिद्धों के तल्य अव्याबाध मोक्ष सामायिक से वचन और काया द्वारा पापमय सुख की उपलब्धि होती है। प्रवृत्ति रूक जाती है।
18) सामायिक से हृदय में भक्ति जागृत होती सामायिक से बारह व्रतों में नवमा, प्रथम है, समता वृद्धि और वैराग्य उत्पन्न होता शिक्षाव्रत का पालन होता है । सामायिक से जीव हिंसादि अठारह पापों | 19) सामायिक सर्व अपराध रूप व्याधि की का त्याग हो जाता है।
विनाशक महा औषधि है। सामायिक आराधना से जिनाज्ञा पालन का
सामायिक चंचलता की नाशक, स्थिरता लाभ होता है।
की दायक है साधक । सामायिक से चित्त में अपूर्व शान्ति का एहसास 1) सामायिक में राग-द्वेष, मोहादि विकारों से (अनुभव) होता है।
मुक्ति मिलती है। सामायिक में आसन स्थिरता द्वारा कायाक्लेश 22) सामायिक व्यवहार पक्ष में भी गौरव प्रदान तप का लाभ होता है।
कराने वाली है। सामायिक से आधि, व्याधि और उपाधि से 23) सामायिक में प्रशंसक और निंदक दोनों एक मुक्त होकर समाधि का लाभ होता
जैसे लगते हैं।
24) सामायिक से निन्दा से आकुलता एवं स्तुति सामायिक में आत्मानुभव से देह और आत्मा से अहं भाव नहीं आते हैं। भिन्न भिन्न है, यह भेद विज्ञान हो जाता
सामायिक द्वारा साधक समतामय जीवन है।
को श्रेष्ठ जीवन समझता है । 10) सामायिक में जगत् के तमाम पापकार्य विचारों
26) सामायिक से त्यागी गुरु भगवंतों का सान्निध्य से मुक्ति हो जाती है।
प्राप्त हो जाता है। सामायिक से समता का अनुभव होता है। | 27) सामायिक से मन, वचन और काया के गाढ़ 12) सामायिक से आत्मा का पोषण होता है। दोष न लगे, ऐसी जागृति बन जाती है । 13) सामायिक से अल्प समय के लिए साधुता | 28) सामायिक से रत्नत्रय ज्ञान, दर्शन और की प्राप्ति होती है।
चारित्र गुण बढ़ते हैं।
11)
Page #131
--------------------------------------------------------------------------
________________
29) सामायिक का साधक पूणिया श्रावक, जैसे | 43) सामायिक आराधना से 12 प्रकार का तप साधक की जानकारी से आत्मबल दृढ़ होता
लाभ होता है।
44) सामायिक से तत्वज्ञान उपार्जन हेतू 30) सामायिक से मन का हल्कापन और प्रसन्नता इलायचीकुमार की सामायिक का स्मरण की अनुभूति होती है।
होता है। 31) सामायिक से पापमय जीवन से निवृत्ति की । 45) सामायिक से कम अक्षर, ज्यादा जानना, प्रवृत्ति बन जाती है।
ऐसा समास चिलाति पुत्र की याद दिलाता सामायिक से मैत्री, प्रमोद, कारूण्य और माध्यस्थ ये चार भावनाओं में जीवन की 46) सामायिक से पाप रहित आचरण हेतू धर्मरमणता बढ़ती है।
रूचि अणगार सम जीवन प्रवृत्ति, प्रेरणा 33) सामायिक हर एक को शासन रसिक बनाने
मिलती है। की सरल प्रक्रिया है।
सामायिक से गागर में सागर ऐसा द्वादंशागी सामायिक अर्थात नम्रता, सरलता, पवित्रता
को जानना लौकिकाचार पंडित का स्मरण और संतोष रुपी धन का खजाना है।
होता है। 35) सामायिक से व्यसन - मुक्त जीवन बनता
48) सामायिक से निषेध वस्तु के त्याग के लिए
तेतलीपुत्र की सामायिक का अर्थ समझ में
आता है। 36) सामायिक से परिवार में शांति बढ़कर, घर नन्दनवन सम बन जाता है।
8 दिन मे धर्म-ध्यान का 37) सामायिक से द्रव्य क्षेत्र, काल और भाव की
मासखमण शुद्धि होती है।
पर्युषण पर्व दि. 24-8-03 से 31-08-03 तक 38) सामायिक से वैमनस्य समाप्त होता है, । शिविराचार्य, जन-जन की आस्था के केन्द्र परम और प्रीति प्रकट होती है।
पूज्य श्री विनयमुनिजी म.सा खींचन 39) सामायिक से सौभाग्य की प्राप्ति होती है द्वारा पर्युषण पर्व दौरान स्थल एवं सर्वत्र सम्मान मिलता है।
स्थान : सिल्वर जुबली हॉल, लाल बाग के अन्दर, 40) सामायिक से दमदन्त मुनि की भांति मान
प्रवेश का रास्ता डबल रोड़ से है । अपमान में खेदित नहीं होता है।
इस लोक परलोक को सुखी एवं आनन्दमय बनाने
के लिए जीवन में धर्म क्रिया का महत्व है। सामायिक से मारणांतिक कष्ट आने पर भी शरीर की परवाह बिना जीव दया पालक
इसलिए निम्नलिखित 30 व्रत पच्चक्खाण को मेतार्य मुनि जैसी समभावना आती है।
यथाशक्ति धारण करके अपना जीवन सफल
बनाइये और त्याग की नाव में बैठकर भव सागर 42) सामायिक से सत्य वचन कालकाचार्य की
तिर जाइये :सामायिक का स्मरण होता है।
Page #132
--------------------------------------------------------------------------
________________
1. प्रतिदिन अपने घर पर बड़ों को प्रणाम | 19. भोजन करते समय मौन रखना । करना।
20. रात्रि भोजन, होटल और जमीकंद का त्याग प्रतिदिन गाय या गरीब व्यक्ति को रोटी या
करना। खाने की वस्तु इत्यादि दान करना ।
ब्यूटी पार्लर में नहीं जाना, आरम्भ समारम्भ पान-पराग, गुटका, जर्दा, बीड़ी-सिगरेटका (बड़ा) नहीं करना। सेवन नहीं करना ।
नवकार महामंत्र का जाप अवश्य करना । साधु-साध्वी की निन्दा नहीं करना । 23. मन से सभी के लिए अच्छा सोचना और गाली नहीं देना, यदि कोई गाली देता है तो विचार करना। समभाव रखना।
24. प्रतिदिन सामायिक करना, प्रतिक्रमण जरुर शरीर से जितनी हो सके उतनी सेवा दूसरों
जरुर करना ही। की करना।
प्रतिदिन 14 नियम चित्तारना और 3 मनोरथ बड़ा क्रोध, लोभ, अहंकार नहीं करना ।
का चिन्तन करना। वचन से मीठी वाणी बोलना ।
26. श्रावक के 12 व्रतों को धारण करना । . परिवार के किसी भी सदस्य से झगड़ा नहीं
जते चप्पल जितना हो सके तो उतना त्याग करना।
करना। 10. घर के सभी सदस्यों को स्थानक भेजना । 28. सन्त दर्शन व मांगलिक सुनना । (विशेष
कर बच्चों के लिए) भोजन में झूठा नहीं छोड़ना और ऊपर से नमक नहीं लेना।
29. रात्रि के दस बजे के बाद घर से बाहर
नहीं जाना तथा बाहर गाँव नहीं रहना । 12. दया, सामायिक और पौषध संवर करना ।
30. घर के सदस्यों को शिविर, प्रार्थना, 13. जितना हो सके लिलोती का त्याग करना ।
व्याख्यान में भेजना। 14. कच्चा पानी का त्याग, बड़ी स्नान का त्याग |
( समस्याएँ और समाधान 15. प्रतिदिन माता-पिता के पास 15 मिनिट
जेठानी से परेशान हूँ। बैठना और उनकी सेवा करना ।
2. देवरानी काम नहीं करती है। 16. नवकारसी, पोरसी, एकासना, आयंबिल, शक्ति अनुसार करना ।
3. ग्राहक रकम नहीं चुका रहे है । 17. ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करना, टी.वी नहीं 4. अभी हाथ तंग चल रहा है । देखना।
5. पत्नी से देवरानी सामना करती है। 18. किसी की भी चुगली नहीं करना । । 6. बेटी को ससुराल में परेशान किया जा रहा है।
Page #133
--------------------------------------------------------------------------
________________
7. बच्चे झगड़ते है । सुनते नहीं है । 34. ससुरजी घर में दिन भर बैठे रहते है। 8. जमाई कुव्यसनी बना हुआ है।
35. बहु देर से उठती है। 9. पत्नी कर्कशा है।
36. परिवार में आना जाना नहीं है। 10. किसी ने मेरे ऊपर कर दिया है । 37. पति को गुस्सा बहुत आता है । 11. खराब स्वप्न आते है ।
38. सासू पड़ोसिनों को घर की बातें बोलती है। 12. टी.वी. में दिन भर फिल्में चल रही है। 39. नौकर चोरी करते है व सुनते नहीं है । 13. बहुएं धर्म ध्यान नहीं करती है । 40. बड़ा भाई आदेश की भाषा में बोलता है । 14. बहु "काम कम आराम ज्यादा'' करती है। 41. पति गुटके आदि खाते व पीते है। 15. पिता व माता दोनों पक्षपाती है । 42. बच्चे बराबर पढ़ते नहीं है, टी.वी देखते है । 16. सासु भेदभाव रखती है ।
43. बड़ो के बीच बोलने की आदत पड़ गई है। 17. भाई लाट साहब बना हुआ है।
44. बेटा बहू की सुनता है, मेरी नहीं । 18. पुत्र दुर्व्यसनी है।
45. बाजार में खाने की आदत पड़ गई है। 19. घर में बीमारी पीछा नहीं छोड़ती है।
46. सोफे में दिन भर पड़े रहते है। 20. पड़ोसी नालायक है ।
47. लड़के दिन भर क्रिकेट में लगे रहते है । 21. पड़ोसी से दुःखी हैं ।
48. लड़के घर का काम नहीं करते है। 22. सन्तान सुनती नहीं है ।
49. संकोच और लज्जा घट रही है । 23. घर में खर्चा बढ़ रहा है।
50. लड़के को पाँच मिनट मेरे पास बैठने का
टाइम नहीं है। 24. बच्चे जिद्दी बनते जा रहे है ।
51. कोर्टो के चक्कर लगाने पड़ रहे है। 25. सासूजी टोकती रहती है।
52. इन्कम टैक्स वालों से परेशान है । 26. पति-पत्नी के स्वभाव में मेल नहीं है ।
53. परिवार में धर्म संस्कार नहीं दिये जा रहे है। 27. सासु से चुगली खाते है ।
54. बड़ो में धर्म का प्रभाव (शान्ति) नहीं दिख 28. रात में देर तक जागते है।
रहा है | बाहरी धर्म करते है । 29. बेटे से चुगली खाती है ।
55. गुणवानों की प्रशंसा नहीं हो रही है। 30. घर को होटल (रेस्टारन्ट) बना दिया है।
56. धन व धनवानों के गीत गाए जा रहे है । 31. घर में प्रायः क्लेश होता रहता है।
57. बाल बच्चे बड़ो को आदर युक्त प्रणाम32. आपस में अबोला है ।
सेवा नहीं कर रहे है। 33. लड़के देर रात तक बाहर रहते है। | 58. लड़के व लड़की फोन नहीं छोड़ते है।
Page #134
--------------------------------------------------------------------------
________________
59. अतिथियों का योग्य आदर नहीं हो रहा है। |
( समस्याओं का समाधान ) 60. गुरुओं के पास जाने में संकोच हो रहा है।
1) कम खाना2) गम खाना 3) और नम जाना 61. पिता कहता है, बेटे मेरे पास बैठते नहीं ।
आत्मरक्षा के तीन उपाय :62. हर व्यक्ति कहता है कि मेरी तबीयत ठीक
1. उचित ढंग से विवेकपूर्वक समझना और नहीं रहती।
समझाना। 63. SATISFACTION (सन्तुष्टि) नहीं है । 2 मौन रहना। 64. बेटा बहू खर्चा नहीं देते ।
3. उस स्थान को छोड़ देना । 65. माँ को एक बेटा रखता है, पिता को दूसरा ।
A. अपनी दिनचर्या को नियमित किए बिना समाधान
की बजाय समस्याएं बढ़ती ही जावेगी । 66. बच्चे धर्म स्थान में नहीं जाते है ।
B. मानव भव में "निवृत्ति” की तरफ बढ़ने से समस्याएं 67. पत्नी खर्चीली बहुत है।
कम होती ही जाएगी। 68. पति कंजूस है । चुपचाप रहते है । C. इस दुनिया के सभी प्राणी एक विचार और 69. दूसरों की निन्दा चुगली करती रहती है। | समान रूचि वाले नहीं होते। 70. दूसरों की पंचायती (पूछताछ,Enquiry) करती
D. इस दुनिया के प्राणियों में विचार भेद था, है व रहती है।
रहेगा, 71. ऐसे वचन बोलती रहती है, जो दिल में E. परन्तु धर्म का सच्चा फल या लाभ “मन भेद
नहीं रखना" काँटो की तरह चुभते हैं। 72. बड़े हर समय उपदेश देते रहते हैं।
E भगवान महावीर स्वामी ने सुखी बनने का शाश्वत
उपाय बताया कि “कामे कमाहि कमियंखुदुक्खं" - 73. मित्र से परेशान हूँ।
अर्थात इच्छाओं, कामनाओं को कम करने से, निश्चय 74. ससुराल वाले हरदम मेहमान बनकर आते । में आपका दुःख दूर होगा । रहते है।
( SWEET समाधान
) 75. पत्नि पीहर वालें की प्रशंसा करती है।
| 1. ।
अपेक्षाएं कम होगी उतनी ही उपेक्षाएं कम 76. घर में विनय विवेक घट रहा है।
होगी। 77. बड़ो का कहना नहीं मानते । गुरुओं के | 2. Let Go जाने दो (क्षमा करो)(संतोष व दर्शन नहीं करते है।
सहनशीलता ये दोनों आत्मा के गुण है)। 78. तीर्थयात्रा के नाम पर पिकनिक हो रहा है। | 3. आत्म-लक्षी बनो। 79. धार्मिक किताबें पढ़ने की रुचि घट रही है।
गुरुओं की सत्संग का लाभ उठाओ 80. समाज मे परस्पर एक दूसरे की बुराई करते
एक मौन हजार दोषों से बचाती है । 6. मैत्री सभी जीवों से करो । गुणवानों के गुणों
का अनुसरण करो । गुणी को देख प्रमोद 81. नींद बराबर नहीं आती है।
(प्रसन्नता) भाव लावो ।
Page #135
--------------------------------------------------------------------------
________________
( क्रोध-पर-बोल
28. क्रोध में व्यक्ति को होश नहीं रहता है।
29. क्रोध सदा दुःख देता है। 1. क्रोध विष है।
30. क्रोध में आत्महत्या करता है | 2. क्रोध निपट पागलपन है ।
31. पल भर में क्रोध का असंतुलन जीवन में 3. क्रोध एक मूर्छा है।
अभिशाप बन जाता है। 4. क्रोध अग्नि की भट्टी है।
32. क्रोध के गिरफ्त में आने वाला सुखी कैसे
रह सकता है ? जैसे ... 5. क्रोध एक भाव है। 6. क्रोध एक विक्षिप्तता है ।
बिच्छु के डंक में और आराम ? 7. क्रोध दुःख की अन्तहीन कथा है ।
सर्प के दंश में और अमृत ?
अग्नि के स्पर्श में और शीतलता? 8. क्रोध तात्कालिक पागलपन है । 9. क्रोध क्षय रोग है।
33. क्रोध हत्यारा है । 10. क्रोध असंतुलन है।
34. क्रोध हिंसक है। 11. क्रोध मनोविकार है।
35. क्रोध क्रूर है। 12. क्रोध भयंकर है।
36. क्रोध कठोर है। 13. क्रोध भयास्पद है।
37. क्रोध में करुणा नहीं होती है। 14. क्रोध कुरुप है।
38. क्रोध में दया नहीं होती है। 15. क्रोध अन्धा है।
क्रोध व करुणा में वैर है । 16. क्रोध हिंसक है।
क्रोध में विकास नहीं, विनाश है। 17. क्रोध बहरा है।
41. क्रोध में प्यार नहीं, मार है । 18. क्रोध गूंगा है।
42. क्रोध को मैत्री व प्यार से जीता जा सकता है।
क्रोध पर विजय ही विश्व मैत्री का कारण हो 19. क्रोध विकलांग है।
सकता है। 20. क्रोध नरक का द्वार है।
मनुष्य की शोभा रूप से है। 21. क्रोध दुःख का भंडार है ।
रूप की शोभा ज्ञान से है। 22. क्रोध अनर्थों का घर है।
ज्ञान की शोभा क्षमा से है। 23. क्रोध पीड़ा का पर्याय है ।
44. क्रोध करना बहादुरी नहीं है, क्रोध को 24. क्रोध विवेक का दुश्मन है ।
नियंत्रण में रखना, बहादुरी है। 25. क्रोध मनुष्य को अन्धा बना देता है। | 45. क्षमा, आत्मा की भाषा है । 26. क्रोध जब भी आता है, विवेक को नष्ट | 46. क्षमा की भाषा सर्वोपरि है। करके आता है।
47. क्रोध की शक्ति से दुश्मन को दबा सकते 27. क्रोध होश की हत्या करके आता है।
है, हरा सकते है, जीत नहीं सकते है।
Page #136
--------------------------------------------------------------------------
________________
48. क्रोध से बाह्य परिवर्तन :
66. क्रोध से आत्मा का पतन होता है। क) आँख लाल, ख) चेहरा लाल,
7. क्रोधी व्यक्ति चारों गति में परिभ्रमण करता ग) भौंहे तन जाती है, घ) नाक के नथुने फड़कने लगते है।
क्रोधी हर जगह से अनादर पाता है । ठ) हाथों की मुट्ठियाँ कसने लगती है । क्रोध को शांत करने के लिए मन को शांत
करने का प्रयत्न करें। छ) दाँत बार बार बंद होते है । ज) ऊँची आवाज में बोलता है
क्रोध न करने से तपस्या का पूरा फल
मिलता है। झ) अपशब्द गालियाँ निकालता है ।
क्रोध नहीं करने से मनमुटाव नहीं होता 49. क्रोध से शरीर में अंतरंग परिवर्तन :
है । आत्मा को शांति मिलती है। क) दिल की धड़कन तेज |
72. क्रोध न करने से शत्रु भी मित्र बन जाते है। ख) सांस की गति तेज
73. क्रोध करने से श्वास की बीमारी हो जाती है। ग) शरीर की शक्ति बढ़ जाती है
74. क्रोध करने से चेहरा डरावना हो जाता है। (आपे से बाहर होना) व कभी कभी हार्टफेल
75. क्रोध से रक्तचाप हो जाता है। तक हो जाता है।
76. क्रोध से हृदय गति रूक जाती है । 50. क्रोध में सब विपरीत दिखता है ।
77. क्रोध से मस्तिष्क गरम हो जाता है । 51. क्रोध में सौंदर्य नहीं दिखता ।
78. अधिकांश रोग का कारण ही क्रोध है । 52. क्रोध में रोटी जली दिखेगी ।
79. क्रोध न करने से व्यक्ति शक्तिशाली बनता 53. क्रोध में पत्नि शूर्पनखा दिखेगी । 54. क्रोध में पति रावण दिखेगा ।
80. क्रोध न करने से सबका प्रिय होता है। 55. क्रोध में पुत्र दुश्मन दिखेगा ।
81. क्रोध न करने से विवेक की प्राप्ति होती है। 56. क्रोध में पड़ोसी शत्रु दिखेगा ।
82. क्रोध से प्रीति का नाश होता है । 57. क्रोध में गुरु में दोष दिखेगा ।
83. क्रोधी व्यक्ति के पास कोई नहीं रहना चाहता 58. क्रोध में सब्जी में नमक कम लगेगा । 59. क्रोध में मिठाई फीकी लगेगी ।
84. क्रोध उद्वेग पैदा कर सद्गति का नाश 60. क्रोध में वैद्य यमदूत दिखेगा ।
करता है। 61. क्रोध में हितेच्छु बिच्छू लगेगा ।
85. क्रोध से चाण्डाल प्रवृत्ति पनपती है । 62. क्रोध में बाप सांप लगेगा ।
86. क्रोध से राक्षसी भाव पैदा होता है । 63. क्रोध में पूजा नही, पिटाई करेगा । 87. क्रोध मौत की जड़ है। 64. क्रोध में माँ चुडैल दिखती है । 88. क्रोध से मन चंचल हो जाता है। 65. कैंसर की गांठ से भयंकर बैर की गांठ है। । 89. क्रोध से ज्ञान चक्षु बन्द हो जाते है ।
Page #137
--------------------------------------------------------------------------
________________
90.
क्रोध न करने से वाणी में मिठास व
111. क्रोध करने से शारीरिक व मानसिक शक्तियाँ प्रभाव रहता है।
क्षीण होती हैं। 91. क्रोध न करने से मन स्वच्छ व तनाव रहित | 112. क्रोध से दूसरा तो नहीं, क्रोध करनेवाला रहता है।
स्वयं भस्म हो जाता हैं। 92. क्रोध से निकली वाणी जहर है। 113. क्रोध अग्नि है, यह अग्नि आत्मा के अनमोल 93. क्रोध के शब्दों का घाव नहीं भरता, जबकि गुणों को भस्म कर देती है । शस्त्र का घाव भर जाता है।
114. क्रोध रूपी शत्रु का दमन “क्षमा" रूपी शस्त्र 94. क्रोध से निकली वाणी अहंकार पर चोट से होता है। करती है, जिससे क्रोध उत्पन्न होता है।
115. जब तक क्रोध रहे, तब तक चुप रहे । 95. जर-जोरु जमीन के कारण क्रोध की उत्पत्ति 116. क्रोध त्यागने के लिए मांसाहार त्यागने का होती है।
संकल्प करें। 96. खेत, वस्तु, शरीर और उपधि के कारण 117. मदिरापान भी क्रोध उत्पन्न करने का कारण
क्रोध उत्पन्न होता है। 97. अनुचित व्यवहारों से क्रोध उत्पन्न होता है।
118. क्रोध को विवेक से जीता जा सकता है । 98. स्वार्थ पूर्ति में बाधा पड़ने पर क्रोध उत्पन्न
119. सहिष्णुता-क्षमा भाव से क्रोध शांत हो होता है।
जाता है। 99. भ्रम के कारण क्रोध उत्पन्न होता है।
120. क्रोध की बीमारी का इलाज समता भाव से 100. अधिक परेशान करने से क्रोध उत्पन्न होता हो जाता है।
121. क्रोध नहीं करने से मन स्थिर रहता है । 101. धोखा देने से क्रोध उत्पन्न होता है।
122. क्रोध नहीं करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। 102. झूठ से क्रोध उत्पन्न होता है ।
123. क्रोधं पाप है। 103. गाली, अपशब्द से भी क्रोध उत्पन्न होता
124. क्रोध से अनेक नुकसान हैं।
125. समझदार लोग क्रोध नहीं करते । 104. वैर भाव से क्रोध जन्म लेता है।
126. क्रोध करने से चेहरा विकृत हो जाता है। 105. दुर्वचन सुनते ही क्रोध आता है ।
127. क्रोध करने से हृदय की धड़कन तेज हो 106. क्रोध भयानक दावानल है। जो भी आता है
जाती है। भस्म हो जाता है। 107. जीवन रूपी प्याले में क्रोध जहर है।
128. खून का भ्रमण तेजी से होता है। 108. क्रोध नेत्रशील को भी अंधा कर देता है।
129. शरीर जूझने लगता है। 109. क्रोधी, पापी और कपटी का संग छोड़
130. पाचन क्रिया मंद हो जाती है। देना चाहिये।
131. मानसिक संतुलन गुम हो जाता है। 110. क्रोध करने से रक्त विष बन जाता है। । 132. क्रोध से कुटुम्ब व संघ में क्लेश होता है ।
Page #138
--------------------------------------------------------------------------
________________
133. क्रोध से स्व पर शांति नष्ट | शांत आत्मा भीरु बनती है ।
134. क्रोध करने से भव भ्रमण बढ़ता है । 135. क्रोध का भाव निम्न स्तर है ।
136. अनंतानुबंधी क्रोध नरक गति देता है । 137. अप्रत्याख्यानी क्रोध तिर्यंच गति देता है । 138. प्रत्याख्यानावरणीय क्रोध मनुष्य गति देता है ।
139. संज्वलन क्रोध देव गति देता है । 140. अक्रोध वीतरागता देता है ।
141. अनंतानुबंधी क्रोध समकित की घात करता है ।
142. अप्रत्याख्यानी क्रोध देश विरति की घात देता 1
143. प्रत्याख्याानवरणीय क्रोध सर्व विरती की घात करता है ।
144. संज्वलन क्रोध वीतरागता की घात करता है ।
145. अपेक्षाओं से क्रोध का जन्म होता है । 146. क्रोध में कभी निर्णय न करें । 147. क्रोध की कड़वाहट जीवन का कषाय है । 148. क्रोध की उत्तेजना जंगल की आग सी फैल जाती है ।
149 क्रोध में शालीनता धूमिल होती है । 150. क्रोध से मन प्रदूषित होता है । 151. क्रोध को वश करने से मन में शीतलता आती है ।
152. क्रोध पर नियंत्रण, सहन शक्ति बढ़ाता है । 153. क्रोध को मनोबल और आत्म शक्ति जागृत कर जीता जा सकता है ।
114
154.
क्रोध एक बुरा व्यसन I 155. क्रोध अविवेक का विक्षिप्त रूप है ।
156. क्रोध कायरता जन्य कमजोरी है । 157. क्रोध माचिस की काड़ी सा स्वयं को जला देता है ।
158. क्रोध को वशीभूत करो, उसके वशीभूत मत बनो होओ।
159. क्रोध मानसिक, शाब्दिक और आचरण हिंसा को भभकाता है ।
160. क्रोध महा चण्डाल, थाली गिणे न कुंडो, जाय नरक में उंडो ।
161.
क्रोध मोहनीय कर्म का ही भेद है । 162. क्रोध से विनय बहुत दूर है। 163.
दानशील तप तपने वाले बहुत मिल जायेंगे परन्तु क्रोध छोड़ने की भावना वाले थोड़े लोग ही मिलेंगे।
165. पूजा
164. सर्प व शेर से बचना जितना सरल है, उससे भी महा कठिन है, क्रोध से बचना। सामायिक व स्वाध्यायरत लोगों की संख्या बहुत हो सकती है, परन्तु ये ही लोग “क्रोध छोड़ना व क्षमा धारण करना” इस सूत्र को जीवन में उतार लेना महा कठिन है।
-
166. क्रोध की शुरुआत तो थोड़ी सी मूर्खता से ही शुरु होती है परन्तु बढ़ते बढ़ते वो बड़ा अपराध भी बन सकता है।
167. क्रोध में पहले चक्षु से अन्ध न बनकर प्रज्ञा से हीन हो जाता है।
168. क्रोध का आसेवन करने वाले करोड़ों मिलेंगे परन्तु क्रोध को कन्ट्रोल करने वाले बहुत थोड़े लोग ही होते है।
Page #139
--------------------------------------------------------------------------
________________
169. क्रोध से विकाश नहीं, विनाश ही होता है। 170. हकीकत क्रोध में जलता हुआ लम्बे काल
तक जी नहीं सकता है और छदमस्थ (अपूर्ण) पुरुष क्रोध के बिना भी नहीं रह सकता है। 171. दानावल, वडवानल तथा वैश्वानल से भयानक क्रोध होता है।
172. गुस्से की एक पल को बचा लेता है, संभाल लेता है वही अफसोस से बच जाता है। 173. क्रोध आत्म धर्म से भ्रष्ट करता है, मन से दरिद्री बन जाता है।
1.74. ज्ञानी की आँख खुली रहती है और मुंह बंद रहता है, परन्तु क्रोधी की ज्ञान की आँख तो बंद तो हो जाती है और मुँह खुल जाता है।
175. क्रोध को चंडाल की उपमा दी गई है, जिसके स्पर्श से अपवित्र बन जाता है।
176. क्रोधी दूसरे को तो दुःखी कर सकता है, परन्तु स्वयं तो सुखी नहीं हो सकता है। 177. . क्रोधावस्था में गुप्त बातें भी बोल देता है, जो अनर्थ करा सकती है।
178. अंगारे फेंकने वाले का हाथ पहले जलता है, वैसे ही क्रोधी स्वयं जलता है।
179. क्रोध का निशाना दूसरों पर होता है, परन्तु घायल तो स्वयं होता ही है।
180. क्रोध 'दुष्ट ज्वर है, वह चैतन्य की स्वस्थता
का नाश करता है।
181. काला सर्प के समान क्रोध कोबरा है। 182. क्रोध में आँखें यज्ञ रुण्ड की लालधूम अग्नि समान हो जाती है।
- 183. दांत चिम्पाजी के जैसे कचकच होने लगते है।
115
184. हथोड़े के समान हाथ कठोर हो जाते है। 185. शरीर में कंपन शुरु हो जाता है।
186.
आँखों की पापण (भापण ) भ्रमरों पर मानो कानखजुरे चिपक गए है।
होंठ धुजने लगते है।
187.
188.
जीवों के प्रति दुर्भाव तथा अप्रियता पैदा होती है।
189. विरोधियों से बार बार लड़ने की इच्छा (जुनुन) होती
190. क्रोध कीर्ति के कलश को गिरा देता है। अपयश फैलाता है।
191. सिंह के क्रोध से भी मानव का क्रोध अति
दुःखदाई है। शेर चौथी नरक तक जा सकता है, जबकि मानव सातवी नरक में जा सकता है।
192. बिच्छु का जहर अर्द्ध भरत प्रमाण, मेंढ़क का जहर भरत क्षेत्र प्रमाण, तथा सर्प का जहर जंबू द्वीप प्रमाण फैल सकता है परन्तु मानव के शरीर में रहा जहर ढ़ाई द्वीप प्रमाण क्षेत्र में फैल सकता है।
193.
क्रोध एक प्रकार का ज्वाला मुखी है। 194. क्रोध के दावानल को क्षमा ही शांत कर सकती है।
195. मेतारज मुनि, गज सुखमाल मुनि, अंति सुकुमार मुनि तथा खंदक मुनि के 500 शिष्यों की "उत्कृष्ट क्षमा” वंदनीय पूजनीय है।
196. परिग्रह पर मूर्च्छा घटाने से क्रोध घटता है।
197. “मित्ति मे सव्व भूएसु” के जाप करने से क्रोध घटता है।
Page #140
--------------------------------------------------------------------------
________________
198. “खामेमि सव्वे जीवा” के जाप करने से क्रोध टुटता है।
199. क्रोध मन के दीपक को बुझा देता है। 200. क्रोधी का दिमाग मानों बारुद का कारखाना है, जरा सी टक्कर लगते ही भड़का होते देर नहीं लगती।
201.
मौत शरीर को मारती है तो क्रोध संयम की मौत है।
202. शब्द की टक्कर लगते ही क्रोध उबल पड़ता है। क्रोध के क्षणों में मनुष्य सोचता हैं, जिसके प्रति क्रोध आ रहा है। उनको अधिक से अधिक पीड़ा पहुँचाई जाये और इसलिए वह मर्मबेधि शब्दों का प्रयोग करता है।
203. क्रोध की उत्पत्ति में बहुत बड़ा कारण है दृष्टिकोण में
204. क्रोध की अवस्था में खाना खिलाना अस्वस्थता को जन्म देता है।
205. जिसके पित्त का प्रकोप है, उसके क्रोध का प्रकोप ज्यादा होता है। उसे दिन भर नोकझोंक करना पसंद है।
206. क्रोध आवे तो उसे जल्दी विदा कर दो। रात भर अपने साथ मत सोने दो।
207. क्रोध करने वाला हार जाता एवं समता रखने वाला विजयी बन जाता है।
208. क्रोध सबसे फुर्तिला मनोविकार है । 209. क्रोध प्रीति का नाश करता है। 210. क्रोध अपनी गलती पर करों, गलती करने वाले पर नहीं।
211. क्रोधी मनुष्य आँखे मूंद लेता है और मुंह खोल देता है। क्रोध के उपशमन के लिए
116
212. जब तक मोह है, तब तक क्रोध आता रहेगा। क्रोध आया लड़ लिये और मिल गये, यह मानव का चित्र है, किन्तु क्रोध आया, बढ़े और क्रोध शांत होने पर एक दूसरे को मिटाने में जुट गए, यह भेड़िये का चित्र है। लड़ाई शत्रुओं की अपेक्षा मित्रों से ज्यादा होती है।
क्षमा के देवता गजसुकुमाल मुनि को याद करना चाहिए।
213. क्रोध का प्रभाव पेट पर बुरा पडता हैं, यह रक्त को पानी के समान पतला कर देता है। 214. जो विवेक का अपहरण करले, वह क्रोध नही पागलपन है।
215. क्रोध पैदा होने का एक कारण है - "काम" कामना की अपूर्ति की पहली प्रतिक्रिया है क्रोध |
216. सज्जनों का क्रोध शीघ्र समाप्त हो जाता है।
217.
218.
219.
-
ज्योति केन्द्र पर ध्यान करने वालों का क्रोध शांत हो जाता है।
धैर्यवान, शक्ति के क्रोध से बचो |
जब तुम्हारा खिन्न मन हो, तब किसी प्रकार का निर्णय न लो।
220. दूसरे को गुस्से में देखकर हमने शान्ति छोड़ दी, तब फिर हमारी शान्ति का कोई मूल्य नहीं है।
221. जीव में पुद्गल के योग से क्रोध, मान आदि अवस्थाएँ घटित होती है।
222. जैसे ही क्रोध मन में जागृत हो, दीर्धश्वा
का प्रयोग शुरु कर दें। श्वास के रेचन के साथ कार्बन निकलता है और साथ-साथ क्रोध की ऊर्जा भी निकल जाती है।
Page #141
--------------------------------------------------------------------------
________________
223. थोडी सी अनुकूलता - प्रतिकूलता पाकर
काम क्रोध आदि का उमड़ आना आंतरिक
कमजोरी का लक्षण है। 224. गुस्से में आदमी अपने मन की बात नहीं
कहता, वह केवल दूसरे का दिल दुःखाना चाहता है। क्रोध अत्यन्त कठोर होता है, वह देखना चाहता है कि मेरा एक-एक वाक्य निशाने पर बैठता है या नहीं। ऐसा कोई घातक शस्त्र नहीं है, जिससे बढ़कर काटनेवाले यंत्र उसकी शस्त्रशाला मे न हो, लेकिन मौन वह मंत्र है जिसके सामने गुस्से की सारी शक्ति विफल हो जाती है,
मौन उसके लिए अजेय है। 225. क्रोध आता है, दुर्बल को, आर्थिक दृष्टि
से कमजोर को, प्यासे को, भूखे को, सम्मान की आकांक्षा वाले को, तपस्वी को, बीमार
को या फिर कर्मो के कारण। 226. क्रोध अग्नि है, वह तन और मन को जलाता
है। समता के अमृत रस से उसे शांत करने
का प्रयास करो। 227. समझाने - बुझाने से जिसका गुस्सा शांत
नहीं होता, जीवन में बहुत सारी ठोकरें खाने के बाद उसका गुस्सा सुगमता से
शांत हो जाता है। 228. क्रोध, बेकाबू गुस्सा आने पर भोजन से
रुचि हट जाती है। 229. चेहरे की सौम्यता चली जाती है और उग्र
चेहरा दिखने लगता है। 230. क्रोध के आवेश में बोलने पर संयम, संयम
नहीं रहता। कहां और क्या बोलना है। यह
भी संयम नहीं रहता है। 231. अपनों से बड़ो का अनादर होता है और
बाद में पश्चाताप करना पड़ता है।
232. समन्दर के पानी से नमकीन स्वाद की तरह
ही क्रोधी मनुष्य के अन्तः करण से मलीनता निकालना असंभव है। क्रोध के वश में मनुष्य
का चित्त अप्रसन्न रहता है। 233. फ्रिज में रखा पानी जिस तरह बर्फ बन
जाता है, उसी प्रकार मानव का मन क्रोध
दुश्मनी में बदल जाता है। 234. क्रोध से शत्रुता से हिंसा और हिंसा से पाप
का निर्माण होता है। गुस्से से हासिल कुछ नही होता हम बहुत कुछ खो जरुर देते है। इसलिए चलिए, गुस्सा थूकिए, खुश हो जाइए। क्रोध को जीतने का सूत्र दबाना नहीं, देखना सीखो । विलम्ब करो। क्षेत्र त्याग । चिन्तन की साधना । मौन हो जाना । नमस्कार मंत्र उल्टा गिनना शुरु कर दें। क्रोध आवे तो मुँह में गरम या धोवन पानी रख ले। क्रोध के समय धर्म मंत्र का जाप करें। संवत्सरी पर्व - साकेत - इन्दौर सुश्री डॉ. कंचन जैन, दिल्ली संयोजक : प्रस्तुतिकरण : सूत्र विनय स्वाध्याय मंडल P-5, II Floor, नवीन शाहदरा दिल्ली - 110 032
Page #142
--------------------------------------------------------------------------
________________
( अमृत कर्णिकाएँ :- )
धैर्य, आपका पिता है।
क्षमा, आपकी माता है। मौत कोई घटना नहीं, प्रक्रिया है ।
अप्रमाद,आपका मित्र है। "इसे स्वीकार करना"- महाधर्म है ।।
मोक्ष, रुचि आपकी मौसी है। श्रवण नयन नासिका सबहीं के एक ठौर ।
ज्ञान, आपका सुपुत्र है। कहबो, सुनबो, समझबो, ज्ञानी को कुछ और ।। करुणा, आपकी बेटी है। सबसे बड़ा कौन ? - आकाश |
सुमति, आपकी पुत्रवधु है । सबसे श्रेष्ठ कौन ? - शील ।
समता, आपकी पत्नी है। सबसे गतिशील कौन ? - विचार |
उद्यम, आपका दास है।
विवेक, आपका भाई है। सबसे कठिन क्या ? आत्मज्ञान (स्वयं को जानना)
विश्व का सार क्या ? धर्म | घंटी बजाने पर घर खुलता है ।
धर्म धर्म का सार ज्ञान. ज्ञान का सार उपदेश बजाने | देने पर दिल खुलता है।
संयम, संयम का सार मोक्ष । . टाइमसर रिटायर्ड होना आ गया तो,
9) टी.वी देखकर मोटे हो जाइए और जल्दी जिन्दगी में कभी - टायर्ड नहीं होगा ।
मौत के मुँह में चले जाइए । (सटीक बाण) सीमित रखने वाला, सीमित खाने वाला और | 10) अनंत को अनंत से जीता जा सकता है । सीमित बोलने वाला कभी परेशान नहीं होता। 11) जगत सु जितियाँ और पेट सु हारियाँ । 1) जब हम सबकी बात नहीं मानते तो फिर 12) ऐसे मित्र से बचो, जो मुँह का मीठा हो दूसरा कोई हमारी बात न मानें तो नाराज
और पीठ पीछे बुराई करता हो । नहीं होना चाहिए।
__13) याद रखो जो धन इकट्ठा कर रहे हो, वह 2) कम खाने से ऊनोदरी तप होता है।
भोग सकोगे या नहीं परन्तु धर्म तो निश्चित 3) गम खाने से क्षमा गुण खिलता है।
ही आपके साथ चलेगा। 4) नम जाने से सबका प्रिय बनता है। मानो न मानो यह हकीकत है, खुशी इन्सान
सुवाक्य की जरुरत है।
कर्म बलवान होते है, यह विचारधारा निम्न 6) अशांति चाहिए तो दुनिया से दोस्ती करो। | (कमजोर) मान्यता है । 7) ओ मुनिराज ! आपका कुटुम्ब महान है, आत्मा बलवान है यह विचारधारा उच्च क्योंकि?
| (दृढ़) मान्यता है, यही जैनों की मान्यता है।
जीवन की सर्वोच्च शैली का सूत्र है - न्यूनतम लेना,अधिकतम देना, श्रेष्ठतम जीना।
Page #143
--------------------------------------------------------------------------
________________
1)
2)
3)
4)
5)
7)
अमृत-झरना
वही धर्म करो, जिससे कर्मो की निर्जरा होती हो तथा शुभ भाव आते हैं ।
विनय को तप व पुण्य भी कहा गया है । जहाँ चारित्र को विनय भाव सहित वंदन है, वहाँ तप है ।
बिना धर्म के जागता हुआ मनुष्य भी सुप्त है। जिस आत्मा ने पापों का त्याग करने का कर्म शुरु कर दिया है, वही जागृत है ।
जब जीव के पुण्य का उदय व श्रेष्ठ पुरुषार्थ प्रकट होता है, तभी वो धर्म की ओर बढ़ता है, उसे धर्म अच्छा लगता है ।
आत्मा ही कर्म करती है और आत्मा ही भोगती है, जिसने जैसे कर्म किए है, उसे वैसा ही फल भुगतना पड़ता है ।
पुण्य और धर्म का सही स्वरुप समझना चाहिए क्योंकि पुण्य से धर्म के साधन मिल सकते है, लेकिन सम्यक् पुरुषार्थ द्वारा धर्म धारण करना पड़ता है ।
जो साधु-साध्वी पैसे का लेन-देन करते हैं, वे खुद भी डूबेंगे और औरों को भी साथ में डूबावेंगे ।
संघ सूरज के समान होता है, जो अंधकार को मिटाता है। रात में जो नक्षत्र चमकते हैं। वे सूर्योदय के साथ ही लुप्त हो जाते हैं, प्रभावहीन हो जाते हैं, वैसे ही अन्य मान्यताओं के लोग वीतराग वाणी को मानने वाले संघ के आगे प्रभावहीन हो जाते हैं । 10) जिस व्यक्ति को ईश्वर के प्रति श्रद्धा होती है, गलत कार्य करने से पूर्व अपने विवेक का प्रयोग करता है ।
119
11) इस सृष्टि में मानव ही पुरुषार्थ कर स्वयं को उबार सकता है। आध्यात्मिक एवं लौकिक दोनों दृष्टि से ऊपर उठने के लिए पुरुषार्थ की ही आवश्यकता होती है ।
12) ईर्ष्या हमारी नकारात्मक विचार धारा का परिणाम है। इसके चलते व्यक्ति के मन में सदैव गलत व तर्कहीन विचार ही आते हैं, एवं वह सदा तनावग्रस्त ही रहता है। उसकी सारी ऊर्जा गलत कार्य में ही नष्ट हो जाती है और वह पतन का शिकार हो जाता है । सच्चा यज्ञ वही होता है जिसमें हम अपने विकार व वासनाओं को तप व त्याग की अग्नि में भस्मीभूत कर देते हैं ।
13)
15)
14) जंगल में रहने से या चर्म पर बैठने मात्र से कोई मुनि या तपस्वी नहीं बन जाता है, बल्कि समता, ब्रह्मचर्य, ज्ञान आराधना व तप साधना से ही कोई सच्चा मुनि बनता है । जिस तरह सूर्य का प्रकाश सभी के लिए समान रूप से कल्याणकारी है, उसी तरह जिनवाणी भी सभी के लिए हितकार है । 16) क्रोध, कपट, लोभ, मोह, माया की परतें आत्मा को परमात्मा बनने से रोकती है । जिस वक्त यह परतें हट जायेंगी तब नर को नारायण बनने में देर नहीं लगेगी ।
17 ) धर्म स्थान पावन, शुद्ध और शांत होते हैं, ऐसे में हम इन धर्म स्थानों मे सांसारिक कार्य, विवाह, मुंडन, बर्थडे व खानपान आदि कार्यक्रम आयोजित कर उनकी पवित्रता भंग कर देते हैं। इससे वहां के परमाणु इतने शुद्ध नहीं रह जाते है, जितने कि शुद्ध धर्म स्थान आराधना के लिए जरुरी होते हैं, यही कारण है कि हमारा मन धर्मस्थान में आकर भी धर्म में लगता नहीं है ।
Page #144
--------------------------------------------------------------------------
________________
अंतर के उद्गार
परमात्मा के चरणों में अनंत वंदनाए, गुरुदेव श्री के चरणों में रत्नत्रयी की सुखसाता पूछते हुए पावन श्री चरणों में वंदनाए, ज्ञान के पिपासुओं को सादर जय जिनेन्द्र !
हम आपके चरण धूलि के दास है, दिल में आपके दर्शन की प्यास है । आपकी कृपा से ये जहाँ आबाद है, कण कण में फैली आपकी सुवास है।
अनुमोदना का मंगल संकल्प आज
राग और द्वेष जिसमें मैं निरन्तर रहती हूँ। “विनय बोधि-कण” पढ़ते पढ़ते अहंकार का मिथ्याभिमान का, मेरु शिखर पलक झपकते न झपकते पश्चाताप के प्रखर ताप से पिघलकर पानी पानी हो गया और धीर-गंभीर का चरण पक्षालन करती रही।
-
मूर्त हो रहा है !
आपश्री की अलौकिक आराधना और गहन ज्ञान-लीनता ने अमरलोक के अजरामरों को भी आकर्षित कर दिया।
आगम दृष्टि से किया गया अनुष्ठान के धारक को मेरी एवं कुन्नूर श्री संघ की ओर से अनंत बधाइयाँ । आप इसी तरह जैनत्व की गरिमा से अभिषिक्त होकर जिनत्वकी महिमा का वरण करे, यही मंगल भाव भावास्तव की अशांत्मक आराधना से सहज मल निःशेष कर चराचर पदार्थों का त्रैकालिक दर्शन कराने वाली प्रीति-भक्ति फलतः आलम्बन, विराग प्रशम की ज्योति फैलाती हैं।
गुण राशि के अपार अमृत, सरसता के प्रतीक, आपका वात्सल्य इतना ही सच्चा है, जितना अनुशासन का आतप, लगता है एक दूसरे में स्पर्धा है।
जैन स्थानक भवन, कूनूर दि. २३-२-२०१३
आपके उपक्रम में सृष्टि का कण कण प्रज्ञावान बन जाता है, यह आपके वीरत्व का वैशिष्ट्य है। आपश्री के कष- च्छेद - ताप की यथार्थता हमें श्रद्धावान बनाती है और अपूर्व आत्म तेज को लहराती है। आप फरमाते है कि साधना की तत्परता किसी द्रव्य-क्षेत्र - काल भाव से अवरुद्ध नही हो सकती ! समय की प्रतीक्षा और प्रमाद का एक छिद्र मुक्ति पुरुषार्थ को शिथिल कर देता है।
अंत में इतना ही कहूंगी - साधना की अनुभव संपदा मार्ग दर्शन के लिए विरासत में मिली। आपकी अन्तर्दृष्टि शिवनेत्र सभी के सम्यक दृष्टि के सौपान को बढ़ाएगी।
ग्रंथराज इसी दिशा में अपने कदम बढ़ाये |
इन्ही मंगल भावों में ... आज हर्षित हूं कि मैं गुरुदेव का अनुग्रह पाकर जिन्होंने मुझे एक चेतना दी। जिसे मूर्त करने का मंगल संकल्प आप सभी ने दिया।
120
विनयावत
श्रीमती शशि मोतीचंद गुलेच्छा
आत्मसाधिका कुनूर
Page #145
--------------------------------------------------------------------------
________________
विनय बोधि कण
भाग 7 मैसुर कर्नाटका चातुर्मास
सन् 2004
आद्य चिन्तक श्रावक व्रतधारी, आजीवन वाहन त्यागी, वीर रत्न, आत्म साधक शास्त्रज्ञ, श्रावक शिरोमणि
श्री अशोक कुमारजी जैन सुपुत्र श्री श्रावक विशम्भरलालजी दुग्गड़ ___ 108. वीर नगर दिल्ली 110007
संकलन-संपादक श्रीमती संगीता धर्मपत्नी श्री रिखबचंदजी चोरड़िया कुमारी निभा सुपुत्री श्री निर्मल कुमारजी नाहर
चेन्नई
Page #146
--------------------------------------------------------------------------
________________
(भाग - 7)
पेज नं
123 124 125 132
135
137 139 140 142
अनुक्रमणिका 1. मैसूर चातुर्मास की एक झलक 2. विनय बोधि कण, कण नहीं, विनय बोधि मण है 3. 25 बोल परिभाषाएँ 4. मैं एक आत्म दीप 5. सामायिक ज्ञान - 1 6. सामायिक ज्ञान - 2 7. सामायिक ज्ञान - 3 8. सामायिक ज्ञान - 4 9. जीव का उद्धार प्रतिदिन : आवश्यक चिन्तन 10. अमृत वृद्धि झरना 11. सूर्यो के सूर्य महावीर 12. विचित्र प्रश्न 13. ऐसा आश्चर्यकारी 14. पशु कौन, मानव कौन 15. गुणस्थान गणित 16. आराधना ज्ञान - आलोचना ज्ञान 17. संथारा - महासाधना न कि आत्महत्या 18. आत्म हत्या 19. संथारा - समाधि मरण 20. संथारा अमृत 21. महासूत्र उत्तराध्ययन - भगवान के महाउपदेश
145 145
148 149 150 152 154 157 158 159 160 161
पंच परमेष्टी स्तुति अविनाशी अविकार परम रस धाम है। समाधान सर्वज्ञ सहज अभिराम है। शुद्ध बुद्ध अविरुद्ध अनादि अनंत है। जगत शिरोमणि सिद्ध सदा जयवंत है।
समता में वर्ते सदा, ममता दूर निवार । साधै मारग मोक्ष नो, वंदु ते अणगार ।।
Page #147
--------------------------------------------------------------------------
________________
सन् २००४ का मैसुर चातुर्मास की एक झलक
प्रमुख : सन् २००४ का पु. श्री विनयमुनिजी खींचन म.सा के चातुर्मास में “श्री युवा उत्कर्ष संस्कार शिविर" मील के पत्थर समान सिद्ध हआ है। जो निरन्तर ९ वर्षो से चातुर्मास काल में प्रतिवर्ष चला रहे हैं । अनेक साधु साध्वीयों ने भी इस प्रयोग को शुरु कर दिया है । युवा पीढ़ी के लिए यह “ज्ञानार्जन शिविर" वरदान रुप बन चुका है। परम पू. गुरुदेव आचार्य श्री श्री १००८ तपस्वीराज श्री चंपालालजी म.सा. के शिष्य श्री विनयमुनिजी म.सा खींचन (जिन्हें शिविराचार्य के विशेषण से जाना जाता है) ने सन् २००४ का चातुर्मास मैसूर के महावीर नगर के जैन स्थानक में सानंद अभूतपूर्व सफलता के साथ संपन्न किया। इस वर्ष चातुर्मास ५ मास का होने के कारण पर्युषण पर्व की आराधना दो बार हुई, दोनों बार की आराधना में संघ के सदस्यों ने अत्यंत सौहार्द पूर्ण वातावरण में पु. मुनिश्री की पावन निश्रा में उत्कृष्ट आराधना का लाभ लिया। पु. मुनिश्री ने इस वर्ष अपनी स्वास्थ्य की प्रतिकूलता होते हुए भी जिनशासन प्रभावना के लक्ष्य से एक नया प्रयोग करते हुए प्रातः ८०० से ९-०० बजे तक के लिए पुरे चातुर्मासकाल के५ मास तक के लिए युवाओं के लिए “युवा उत्कर्ष संस्कार शिविर" चलाया जिससे अनेक अनेक सदस्य लाभान्वित हुए एवं ज्ञानार्जन का अपूर्व लाभ उठाया। पु. मुनिश्री का यह प्रयोग वास्तव में “मील का पत्थर" साबित हुआ। आज भी मैसूर में प्रातः शिविर स्थानीय श्रावकों द्वारा निर्बाध रूप से गतिमान है। पु. मुनिश्री ऐसा शिविरनिराडम्बर अपने प्रत्येक चातुर्मास में संचालित एवं आयोजित करते हैं, जिनसे अनेकों लोग लाभान्वित होकर अपने जीवन पथ को आलोकित करते है। एकासना व बेआसना के ठाठ लगे । शिविर के अलावा प्रतिदिन व्याख्यान एवं दोपहर.की ज्ञान चर्चा सभी के लिए विशेष आकर्षण एवं ज्ञानार्जन के आकर्षक बिन्दू रहे, इसमें उपस्थित श्रद्धालुओं की संख्या अति विशेष रहती थी। पु. मुनिश्री को शारीरिक अस्वस्थता के कारण करीब ७ दिन गणपति सच्चिदानंद चिकित्सा केन्द्र (आश्रम) में रूकना पड़ा जिसमें संघ के सदस्यों ने अपनी विशेष सेवा श्रद्धा के साथ प्रदान की। श्रीमान् सेवाभावी जसवंतजी कोठारी एवं श्री सेवाभावी दिलीपजी गन्ना द्वारा पूरे पाँच ही मास तक अत्यधिक सेवा वैय्यावृत्य का लाभ लिया गया। मुनिश्री दोनों श्रावको को “सेवाभावी" से पुकारते । चातुर्मास के दौरान बैंगलोर के अनेक उपनगरों, कर्नाटक के अनेक स्थानों, इरोड़, ऊटी, कुन्नुर तथा भारत वर्ष के अनेकानेक स्थानों से श्री संघो का आगमन हुआ एवं सभी ने पु. मुनिश्री के प्रवचन दर्शन का लाभ लिया । श्री जैन स्थानक मैसुर महावीर नगर में अभूतपूर्व सफलता के साथ चातुर्मास संपन्न हुआ। इस वर्षावास में संघ अध्यक्ष बी. ओ. कैलाशचंदजी बोहरा तथा संघाध्यक्ष श्री चंपालालजी सांखला ने नेतृत्व प्रदान किया ।
Page #148
--------------------------------------------------------------------------
________________
“विनय बोधि कण” कण नही “विनय बोधि मण" है। एक सामायिक ली और “विनय बोधि कण" पढ़ने लगा, पर ३ सामायिक आ गई, समय का पता ही नहीं लगा । “विनय बोधि कण" है स्वाध्यायियों के लिए यह कण नही, “विनय बोधि मण" है। विषय इतना सरल और सरस है : साधक को, स्वाध्याय में दूसरी किताब देखने की जरुरत ही नहीं, यह एक गागर में सागर है, most practicle book. इसको डिक्सनरी कहे या Directory 'दिशा निर्देशक' यह सब महाराज की कड़ी मेहनत, निष्ठा और लगन का फल है। मुनिश्री ने गुरुदेव पू. १००८ तपस्वीराज गुरुदेव, सेवाभावी जी गुरुदेव तथा श्रुतधर गुरुदेव के सानिध्य में आगम - पाठों का तल स्पर्शी अध्ययन किया है । पू. महात्मा श्री जयन्ती लालजी म.सा. की सेवा में पांच चौमासे भी किये, तभी तो आगम के विषय सरलता से, सहजता तथा सरसता से प्रस्तुत कर सकते है । जो हमारे लिए माननीय है। यह विनय बोधि जीवंत बनने की तथा जयवंत बनने की कला सिखाती है । यह हमारे लिए अनुकरणीय बनेगी व जीवन की पथ प्रदर्शन बनेगी।
आत्म ज्योति जगाने की यात्रा है - विनय बोधि कण इसने हजारों को जगाया है, हजारों की जिज्ञासा शान्त की है और लाखो को करने की इसमें क्षमता है। विनय बोधि कण पे कुछ नये विषय आये है और कुछ विषय बहुत गहराई से लिए है।
“१०८ प्रकार के जाप है, आत्म कल्याण का क्रमशःमार्ग” कुछ नया लगा “रात्रि भोजन त्याग, जैनियों की प्रथम पहचान" इस पर आप ज्यादा जोर देते है। आगम प्रश्नोतरी, संथारा, सामायिक या गंभीर चिन्तन प्रस्तुत किया, थोकड़ों में २५ बोल, गुणस्थान etc का गहराई से समझाकर प्रश्नोतर, अन्तगड वाचना-नव-तत्व, भगवती की वाचणी, सामायिक भाष्य ये सब आप में आगम जानकारी का ज्वलन्त उदाहरण है, तभी तो आप शिविराचार्य के नाम से पहचाने जाते हो । विनय बोधि कण स्थानक की शोमा है, घर की शान्ति है, ज्ञानीयों के लिए must, विनय बोधि कण के एक एक विषय खुलेंगे, खिलेंगे तब उसकी सुगन्ध बिखरेगी तब समाज का नया संचार होगा। महाराज श्री ने व्यवहारिक विषय, जैसे क्रोध के बोल, समस्या का समाधान, अमृत कर्णिकाए से जन जन को जगाया है, ऐसे तो आप “रात्रि भोजन त्याग” “बेआसना" पर जोर ज्यादा देते हैं, इसके कारण कितने ही कुव्यसन से बच गये, होटल छुट गया, गुटका, जर्दा छुट गया। विनय बोधि कण से नवयुवक बहुत आकर्षित हुवे है, यही कारण है कि आपके व्याख्यान में युवक की संख्या ज्यादा रहती
मुझे भी आपका सानिध्य मिला : दिनभर चिन्तन, प्रश्नोतर, धर्म चर्चा पे लगे रहते है। नई सोच के रसिये है। (आगम आधारित) विनय बोधि कण" दक्षिण वालो के लिये वरदान है, पिछले १४ सालो से दक्षिण में विचरण करके जनजन को जगा रहे है। केरला कोचीन में चातुर्मास करने वाले राजस्थानी जैन साधु आप ही है, आपके चौमासे की हरदम Demand ही रहती है, कारण अच्छी समजावट, सरल मारवाड़ी भाषा, नये नये विषय etc. बेंगलुर में तो आपने जो धर्म गंगा बहाई है उसका कोई जवाब नहीं। विनय बोधि कण यह ग्रंथ अगर सभी शिविर में रखा जावे, School में College में रखा जाये तो सोने मे सुगन्ध रहेगी। इस पर Open Book परीक्षा रखे तो और भी ज्ञान की प्रमावना होगी।
अन्तिम निवेदन जीवन के उद्धार के लिये पढ़िये “विनय बोधि कण" धर्म श्रद्धा को बढ़ाने के लिये पढ़िये "विनय बोधि मण" विनय बोधि कण संग्रह करने में, प्रकाशन में, जिन जिन का सहयोग है, वे सभी धन्यवाद के पात्र है। हमें ज्ञान का कण नही, मण चाहिए धन्य हो आपकी साधना, धन्य हो आपका ज्ञान !!!
M. PANNALAL BAFNA श्री इन्दरचंद कोठारी, श्रीमती संगीताजी तथा सुश्री निभाजी की मेहनत ने एक नया
106, Wakkaki Complex,
289, P.H.Road, Chennai - 7 पठनीय-मननीय संकलन का प्रयास किया, जो सभी के लिए मंगल-शुभ कारी बनेगा ही। Phone : 09884701000
Page #149
--------------------------------------------------------------------------
________________
। 25 बोल परिभाषाए ) नाम कर्म" व "त्रस नाम कर्म' के उदय से उत्पन्न
जीव की पर्याय विशेष (त्रसकाय, स्थावर काय) पहला मोती - गति : जीव के जन्म स्थान । जहाँ
तीर्थंकर भगवान ने जिसे “काय' कहा है। जहाँ जीव जन्म पाते है । एक जन्म छोड़कर नया जन्म पाना । एक भव से दूसरे भव में जाना । जीव
चौथा मोती - इन्द्रिय - देह स्थित “ज्ञान के के भिन्न 2 जन्म स्थान समूह । जीव के जन्म
साधन'| आत्मा द्वारा पदार्थों के ज्ञान के, देहस्थान-समूह विभाग | जीव के गमनागमन के योग्य स्थित साधन संसारी जीव की पहचान के पौद्गलिक अथवा लोक-परिभ्रमण अथवा संसार परिभ्रमण के चिन्ह - कान, आँख आदि। ज्ञानावरणीय कर्म के भिन्न 2 स्थान समूह विभाग | गति नाम कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न इन्द्रिय लब्धि के फलस्वरूप उदय से उत्पन्न जीव की “गति-पर्याय' विशेष - प्राप्त देह-अंग, भिन्न-2 पुद्गल समूह आकार, देह नरक गति का जीव, मनुष्य गति का जीव आदि के चिन्ह, ज्ञान के साधन । इन्द्रिय पर्याप्ति पूर्ण कर्मो के फल के अनुसार प्राप्त होने वाली जीव की करते हुए जीव जिनका निर्माण करता है । तीर्थंकर सुख दुःख रूप गति पर्याय, विशेष, तीर्थंकर भगवान भगवान ने जिसे “इन्द्रिय" कहा है । द्रव्य-इन्द्रिय ने जिसे गति कहा है। कर्म रहित नहीं: जीव की से गृहित जो ज्ञान आत्मा ग्रहण करती है, वह कर्म सहित पर्याय को लेकर यह पहला बोल है। | उसकी लब्धि-इन्द्रिय है। दूसरा मोती - जाति - एक, अनेक इन्द्रियों के
पाँचवा मोती - पर्याप्ति - जिस शक्ति से जीव आधार से जीवों के भेद, जीवों के समूह-विभाग ।
आहार योग्य पुदगलों को ग्रहण करता है व उनको एक समान इन्द्रियों वाले जीवों के भिन्न-2 समह । शरीर आदि रूप में परिणमाता है, श्वासोच्छवास जाति नाम कर्म के उदय से जीव जिस पर्याय की
भाषा, मन वर्गणाओं के पुद्गलों को ग्रहण कर क्रमश जिस अवस्था को, जिन लक्षणों को प्राप्त करता है
श्वासोच्छवास भाषा मन रूप में परिणमाता है । । यहाँ प्रतिकूल जाति वाली जाति से अभिप्राय नहीं
अपर्याप्त व पर्याप्त दोनों नाम कर्म के उदय से । जिस नाम कर्म के उदय से जीव एकेन्द्रिय,
उत्पन्न जीव की शक्ति अथवा लब्धि विशेष । तीर्थंकर बेइन्द्रिय आदि कहा जाए वह जाति है | तीर्थंकर भगवान ने जिसे “पर्याप्ति" कहा है। भगवान ने जाति का जो स्वरूप कहा है ।
छठा मोती - बल प्राण -जिस शक्ति से जीव तीसरा मोती-काय - जन्म के समय जीव शरीर शरीर में जीवित रहता है, जिसके वियोग से शरीर धारण करता है वही उसकी “काय” है | काय - एक
को छोड़ देता है, अर्थात मरण पाता है वह “बल समान प्रकृति व स्वभाव वाले शरीरों के भिन्न 2 | प्राण' रहते है |आयु बल प्राण विशेष है क्योंकि समूह अथवा समूह विभाग | अपकाय शीतल, | इसके होने पर ही अन्य इन्द्रियादि बल प्राण रहते तेजसकाय उष्ण, वायुकाय-हल्की, वनस्पतिकाय
है। जिस शक्ति से जीव जीवित रहता है व इन्द्रियोंके अनेक स्वभाव, त्रस काय - दुःख के स्थान से
उपयोग में, मन आदि की प्रवृत्ति में बल लगाता है, चलकर सूख के स्थान में जाने में समर्थ | पहली इस बल विशेष को बल-प्राण कहते है। आयु बल के पाँच त्रस लक्षण रहित “स्थावर' कहलाती है । साथ जीव के इन्द्रिय आदि बल को बल प्राण कहते भिन्न 2 प्रकृति, भिन्न 2 स्वभाव, त्रस लक्षण, स्थावर है। तीर्थंकर भगवान ने जिसे बल प्राण कहा है । लक्षण के आधार से शरीरों के कुल विभाग | "स्थावर | सातवाँ मोती-शरीर- जिसमें जीव जीवित रहता
Page #150
--------------------------------------------------------------------------
________________
है। संसारी जीव द्वारा स्व प्रदेशों पर संचित पुद्गलों | लिए उन्मुख आत्मा की शक्ति विशेष । आत्मा की से निर्मित उसका निवास - गृह । आत्म - प्रदेशों | एकाग्रता शक्ति, चिंतन शक्ति, सत असत के निर्णय पर संचित भिन्न-2 पुद्गल वर्गणाओं के वह-2 समूह में, प्रश्न के समाधान में, अप्रमतत्ता, सावधानी में अथवा पिण्ड । संसारी आत्मा जिन पुद्गल समूहों लगने वाली शक्ति। श्रुत सागर में आत्मा रूपी से बद्ध रहती है, जिन भिन्न-2 पुद्गल पिण्डों की मच्छ द्वारा लगाए जाने वाले गोते की शक्ति विशेष कैद में रहती है | जीव को जो पगल-पिण्ड सबसे | | गुरुदेवों द्वारा दिए जाने वाले उपदेश में, श्रवण अतिप्रिय होता है। आत्म-प्रदेश पर संचित पद्गलों में लगने वाली आत्मा की शक्ति विशेष । तीर्थंकर के पिण्ड जो जीर्ण-शीर्ण, ह्रास-विकास स्वभाव | भगवान ने उपयोग का जो स्वरूप कहा है । शब्द वाले हैं जो ग्रहण किए जाते व त्यागे जाते हैं, हुए, आत्मा ने कभी ग्रहण किए, कभी नही । जिनको जिनके माध्यम से जीव अपने कर्मो का फल पाता ग्रहण किया - यह क्या शब्द था? कैसा शब्द था? है, मुक्ति निर्वाण से पूर्व आत्मा जिनका पूर्ण यह उपयोग गुण है। त्याग करती है। शरीर नाम कर्म के उदय से जीव
दसवाँ मोती-कर्म-कर्म स्वभाव जिसे प्राप्त करता है । तीर्थंकर भगवान ने जिसे
"कर्म" कहते हैं, कार्मण वर्गणा के पुद्गलों को “शरीर” कहा है।
कर्म कहते हैं। संसारी जीव निरंतर जिसकी कैद आठवां मोती - योग - आत्म प्रदेशों का स्पंदन में रहते हैं। जो राग-द्वेष की परिणति के फल कम्पन परि-कंपन से आत्मा मन वचन काय तीनों स्वरूप आत्म-प्रदेशों पर बंध जाते हैं । जो आत्मा की भिन्न-2 प्रवृत्ति करती है | मन वचन काय के को सुख दुःख का अनुभव कराते हैं, साता असाता निमित्त से आत्म-प्रदेशों में होने वाला कंपन । कर्म उत्पन्न कराते हैं । आत्म-प्रदेशों पर संचित पुदगलों के क्षयोपशम से मन वचन काय के निमित्त आत्म में जो सबसे सूक्ष्म वर्गणा होती है। राग-द्वेष ज्ञान प्रदेशों में कंपन | मन वचन काय तीनों को योग "भाव कर्म" है, इनके निमित से होने वाला आत्मकहते हैं। अयोगी केवली जिन परिस्पंदनों को रोक प्रदेशों पर पुदगलों का बंध “द्रव्य कर्म' है । तीर्थंकर कर अयोगी होते हैं । तीर्थंकर भगवान ने योग का ने जिसे “कर्म" कहा है। जो स्वरूप कहा है। मन वचन काय के व्यापार को
ग्यारहवाँ मोती - गुणस्थान - मोक्ष मार्ग पर चलते योग कहते है।
हुए, आगे से आगे बढ़ते हुए, आत्मा के गुणों की शरीर पर्याप्ति से शरीर का निर्माण होता है, यही हीनता उच्चता प्रकट करने वाले अनेक स्तर अथवा काय है । काय की क्रिया के लिए आत्म-प्रदेशों में स्थान | मोक्ष मार्ग पर गतिमान जीव के ज्ञान दर्शन काय के भिन्न-2 भागों में भिन्न-2 कम्पन होना चारित्र के योग्य गुणों के भिन्न-2 स्तर अथवा स्थान काय योग है। उस क्रिया में लगने वाला बल, बल- | कर्म विशुद्धि मार्ग के उत्तरोत्तर विशुद्धि स्थान । प्राण है । मन की प्राप्ति, मन की क्रिया, क्रिया में | संसार से मुक्ति की ओर बढ़ते हुए जीव के क्रमिक बल क्रम, पर्याप्ति, योग बलप्राण है।
गुण - विकास स्थान | मोह की उत्तरोत्तर निवृत्ति व नौवां मोती - उपयोग - आत्मा की पदार्थों को
योगों की उत्तरोत्तर शुद्धि के भिन्न-2 स्थान | मोक्षजानने की शक्ति, सामान्य भी जानना, विशेष भी
मार्ग का गति क्रम | मोक्ष मार्ग पर चलते इस जीव
के विश्राम स्थान | मुक्त श्रेणी के पाए । मुक्तजानना | आत्मा का पदार्थों को सामान्य विशेष रूप से जानने का व्यापार | पदार्थो के ज्ञान के
श्रेणी चढ़ते जीव की स्थिति-स्थान, तीर्थंकर भगवान
Page #151
--------------------------------------------------------------------------
________________
ने गुणस्थान का जो स्वरूप कहा है । आत्म स्वभाव | छमस्थ को, अकेवली को जिन भगवान मानना में स्थिति के उच्च से उच्च स्थान । कर्म विशुद्धि | जिन भगवान छद्मस्थ होते हैं, केवली नहीं, व मार्गणा को गुणस्थान कहते हैं ।
छद्मस्थ को, अकेवली को जिन भगवान ने इसी बारहवाँ मोती - इन्द्रिय विषय व विकार - विषय,
प्रकार फरमाया है, तो मुझे स्वीकार है, ऐसी श्रद्धा इन्द्रियाँ जिनको जानने में प्रवृत होती हैं; जिनको
न करना | सत्य तर्क, शुद्ध तर्क, योग्य तर्क,
ग्रहणकारी तर्क से जिन वचनों को स्वीकार न कर ग्रहण करती हैं, इन्द्रियों के अपने 2 विषय है ।
मिथ्या तर्कों का जाल बुनना, उनमें उलझना व इन्द्रियों द्वारा ग्रहण करने योग्य पदार्थो के गुण व पर्याय । पदार्थों के शब्द, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श ।
स्व-आत्म को विपरीत क्रम में डाले रखना । तीर्थंकर इन्द्रियों के माध्यम से आत्मा द्रव्यों के जिन गुणों व
भगवान ने जिसे मिथ्यात्व कहा है। पर्यायों को जानने में उपयोग लगाती है। तीर्थंकर “तमेव सच्चं निसंकं जं जिणेहिं पवेइयं" - भगवती भगवान ने जिन्हें इन्द्रिय-विषय कहा है।
सूत्र - जिन भगवान ने जो जो बात कही है, वे सब विकार : इन्द्रियों द्वारा ग्रहित शब्द आदि के प्रति
पूर्ण रूप से शंका रहित व सत्य है । ऐसी श्रद्धा शुभ-अशुभ धारणा व राग द्वेष की परिणति इन्द्रियों
सम्यक्त्व है । निर्ग्रन्थ प्रवचन ही सत्य है, यही द्वारा गृहित विषयों मे मोह के उदय से होने वाली
वास्तविक अर्थ सहित है, परमार्थ है, शेष सब आत्मा की परिणति अर्थात् मिथ्या भ्रम | चारित्र
असत्य अथवा असत्य मिश्रित होने से अनर्थों की मोह के उदय से इन्द्रियों के विषयों में होने वाला
खान है । ऐसी श्रद्धा सम्यक्त्व है । यही आत्मा का आत्मा का मिथ्या भ्रम, तीर्थंकर भगवान ने जिसे
अनमोल, सर्व श्रेष्ठ रत्न भाव रत्न है। जिन प्रवचन विकार कहा है।
के अनुसार विचार, वचन, आचार की श्रद्धा, सम्यक्त्व
है। जिनेश्वर भगवान के मुखारविन्द से उत्पन्न सर्व तेरहवाँ मोती - मिथ्यात्व - जिन भगवान की,
वचनों की सर्व श्रद्धा होने पर परन्तु, सर्व वचनों का उनके वचनों की, उनके मुखारविन्द से उत्पन्न तत्व ज्ञान न होने पर अश्रद्धा मति की मंदता से या भूल की श्रद्धा न करना । सत्य को, तत्व को स्वीकार न
हो जाने से कोई मिथ्या धारणा बनी हो तो वह कर असत्य को, अतत्व को मानना । सत्य में असत्य
मिथ्यात्व ही नहीं, वह अज्ञान है । मिथ्यात्व भी का व असत्य में सत्य की श्रद्धा । सदेव-सगरू
अज्ञान ही है, परन्तु जब तक केवल ज्ञान नहीं हो सधर्म को कदेव-कगरु-कधर्म-मानना व कदेव आदि
जाता तब तक सम्यक्त्व के साथ छद्मस्थ भाव के तीनों को सुदेव आदि मानना । दर्शन-मोह कर्म के कारण ज्ञानावरणीय कर्म के कारण अल्पाधिक अज्ञान उदय से पदार्थों के प्रति होने वाला आत्मा का
अवश्य रहता ही है । पूर्ण ज्ञान तो सिर्फ केवल ज्ञान मिथ्या भ्रम । पदार्थों के सत्य स्वरूप के प्रति, होने पर ही होता है | संसार परिभ्रमण का प्रथम आत्मा का मिथ्या श्रद्धान | जिणवाणी मिथ्या है,
कारण मिथ्यात्व है व संसार परिभ्रमण के अंत का अथवा केवली भगवान का यह एक वचन मिथ्या है,
प्रथम कारण सम्यक्त्व है। ऐसी श्रद्धा रखना । जिन भगवान ने यह एक वचन
चौदहवां मोती - तत्व - जो जो वस्तु, क्रिया व गलत कहा, उनको इसका ज्ञान नहीं ।
भाव अर्थ सहित है, सत्य अर्थ सहित है। जिनका उनके सर्व वचनों की सर्व रूप से श्रद्धा न करना । । सद्भाव है, जिनका वास्तविक अर्थ होता है, जिनका जिन भगवान छमस्थ होते हैं, केवली नहीं व | अस्तित्व व स्वरूप होता है वह तत्व है । जीव
Page #152
--------------------------------------------------------------------------
________________
अजीव और उन दोनों के संयोग से उत्पन्न अर्थ | है । जीव का शुभ भाव, शुभ प्रवृत्ति । यह गुण सहित क्रिया भाव को तत्व कहते हैं। तीर्थंकर भगवान | अच्छा है, ऐसा जानकर उसका आदर करना, उस ने जिसे तत्व कहा है, आश्रव तत्व के भेदों में एक गुण का आचरण करना । दूसरों का दुःख जानकर भेद मिथ्यात्व है । मिथ्या भाव का कोई अस्तित्व अनुकंपा करना, दान-सेवा आदि प्रवृत्ति करना, नहीं होता, इसलिए उसका अर्थ भी नहीं होता वह गुणी का विनय व गुणगान करना । जिसे करना तत्व नहीं है। लेकिन मिथ्या भाव की श्रद्धा मिथ्यात्व कठिन है, जिससे आत्मा सुख उत्पादक कर्मो का है, मिथ्यात्व कर्म बंध का कारण है; मिथ्यात्व में बंध करती है, जिसका फळ सुख रूप है । जो ज्ञान का अस्तित्व रहित, अर्थ रहित । इनसे मिथ्यात्व आत्मा को पतन से बचाता है, धर्म में सहायी का व मिथ्यात्व को मिथ्या मानने से सम्यक्त्व का होता है, जिसके फल रूप में धर्म साधन, सुमित्र, ज्ञान होता है।
निरोगता सुगति प्राप्त होती है । तीर्थंकर भगवान नवतत्व - जीव - जो जीता है वह जीव है ।
ने जिसे पुण्य कहा है । नदियों को जल से भरने
वाली वर्षा के समान । जिसमे चेतना शक्ति होती है, जो सोचता है, चेतना जिसका लक्षण है, ज्ञान जिसका गुण है । जो जड़ पाप - जीव का अशुभ भाव, अशुभ प्रवृत्ति । अवगुण नहीं होता, चेतना व ज्ञान संज्ञा रहित नहीं होता । को, हिंसा आदि को अच्छा समझ उसका आदर जो पुण्य पाप का कर्ता है, पर्याप्ति व बल प्राण करना, अवगुण, हिंसा आदि का आचरण करना । धारण करता है, सुख दुःख का वेदन करता है, गुणीजनों के गुणों से द्वेष करना, किसी को दुःख जो संसार परिभ्रमण करता है व सिद्ध होता है। देना, दुःखी पर अनुकम्पा का विरोध भाव रखना। जिसमें मोह उत्पन्न होता है, पुरुषार्थ करता है, जिसे करना आसान है, जिससे आत्मा दुःख जिसमें सूझ-बूझ होती है । जो कर्म बांधता है, उत्पादक कर्मो का बंध करती है, जिसका फल कर्मो का फल भी पाता है, नारकी तिर्यंच मनुष्य देव दुःख रूप है । जो पुण्य से उल्टा है, आत्मा को व सिद्ध कहलाता है । जो देह का निर्माण करता है __ भारी करता है, मलिन करता है, पतन करता है, व उसका त्याग भी करता है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र धर्म से दूर कराता है। जिससे धर्म मित्र की हानि के गुण धारण करता है, कर्म क्षय करता है, मुक्त होती है, रोग उत्पन्न होते हैं, साधन नष्ट होते हैं, होता है, तीर्थंकर भगवान ने जिसे जीव कहा है। दुर्गति प्राप्त होती है | तीर्थंकर भगवान ने जिसे अजीव - जो जड़ होता है, जिसमे चेतना नहीं
पाप कहा है । विनाश लाने वाले भूकम्प व तूफान
के समान । होती, ज्ञान संज्ञा नहीं होती, मोह उत्पन्न नहीं होता, पुण्य पाप नहीं करता, सुख दुःख का वेदन आश्रव - आत्मा में कर्मो का आना, जिस प्रवृत्ति से नहीं करता, जो न संसारी होता है न सिद्ध । आत्मा में कर्म आते है | मन वचन काय की वह जिसकी न इन्द्रियाँ होती हैं, जो बल प्राण धारण प्रवृत्ति जिससे आत्मा में कर्म रूपी धूल आती है | नहीं करता, जिसका इस लोक, पर लोक, भाव कषाय और योग में आत्मा की प्रवृत्ति । मिथ्यात्व, नहीं होता । तीर्थंकर भगवान ने जिसे “अजीव" राग, द्वेष आदि में आत्मा की प्रवृत्ति । धुले हुऐ वस्त्र कहा है । जीव से भिन्न को अजीव कहते हैं। रूपी आत्मा में सब छिद्रों से कर्म रूपी जल का
आना । तालाब में भिन्न-भिन्न द्वारों से नालों से जल पुण्य - जो पवित्र है, आत्मा को पवित्र करता है,
का आना । आत्मा रूपी कमरे में मिथ्यात्व आदि की उन्नत करता है, ऊँचा उठाता है, जो पाप से उल्टा
Page #153
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवृत्ति रूप अनेक खुले द्वारों से कर्म रूपी धूल का | कमरे में झाडु लगाकर कूड़ा बाहर करना व आत्मा आना । जो पुण्य, पाप दोनों रूप है । परन्तु | रूपी सिंह के समीप आए हुए कर्म रूपी गीदड़ों को आश्रव के 20 भेद अशुभ प्रवृत्ति की अपेक्षा से कह समता व तप की दहाड़ से दूर भगा देने के समान गए हैं । 18 पाप ही यहाँ भिन्न अपेक्षा से 20 जानना। भेदरूप कहे गए है। तीर्थंकर भगवान ने जिसे “आश्रव"
बंध - कर्मों का आत्मा में आश्रव होने पर आत्मा के कहा है।
प्रदेशों पर जम जाना, चिपक जाना, बंध जाना संवर - आश्रव का त्याग, आश्रव के कारणों का “बंध" तत्व का स्वरूप है । आत्म प्रदेशों के साथ त्याग करना संवर है। जिस क्रिया प्रवृत्ति से आत्मा कर्म पुद्गलों का दूध पानी समान लोह पिंड में में कर्मो का आगमन रूकता है, संवर द्वारा छिद्र | अग्नि समान, बूंदी के लड्डू में चीनी समान एकमेक दरवाजे बन्द होते हैं, कर्म आश्रव रूकता है । रूप हो जाना। आत्मा रूपी दीवार पर गीली मिट्टी कषाय, राग-द्वेष को मंद करना, योगों को वश में के गोले के समान कर्म पिण्डों का कर्म स्कन्धों का करना । आत्मा में आती हुई कर्म-धूल को, कर्म । चिपक जाना व पाप रूपी तेल से लिप्त रूपी वस्त्र चोरों को रोकना । तीर्थंकर भगवान ने संवर का जो को रेत में लोटाने से कर्म रूपी रेत का चिपक जाना स्वरूप कहा है । आत्मा रूपी तालाब मे भिन्न भिन्न । वास्तव में आत्मा और कर्मो का सम्बंध पहले तीन आश्रव द्वार रूपी नाली को बंद कर देने से कर्म दृष्टांतो के समान एकमेक रूप है, न कि सांप के रूपी जल का आना रूक जाता है | इसी प्रकार ऊपर उसकी केंचुली समान । आत्म प्रदेशों पर कर्म पूर्वोक्त सभी दृष्टांत जानना । .
पदगलों की जिस क्रिया से उन कर्मों में प्रकति निर्जरा - आत्मा के साथ बंधे हुए कर्मो को आत्मा
स्थिति, अनुभाग उत्पन्न होते है उसे “बंध” कहते से अलग करना, दूर छिटकना । जो क्रिया या
है । तीर्थंकर भगवान ने जो स्वरूप बंध तत्व का
कहा है । जिससे आत्मा बंध जाती है, कैद हो प्रवृत्ति आत्मा में बंधे हुए कर्मों को छिन्न-भिन्न करती है, जर्जरित जीर्ण करती है, उनकी शक्ति को
जाती है, पराधीन हो जाती है वह आत्मा के साथ
कर्मो का बंध है। क्षीण करके गिरा देती है। कर्मों को अलग करतीकरती सर्व कर्मों से नाता तोड़ लेती है । जीव मोक्ष : सम्पूर्ण कर्मों का नाश होना ही मोक्ष है । सर्व रूपी मलिन वस्त्र को ज्ञान दर्शन रूपी जल से व कर्म पुद्गलों का आत्मा से सर्वथा अलग, दूर हो संयम तप रूपी क्षार से धोकर शुद्ध करना । तीर्थंकर जाना, सम्बन्ध विच्छेद हो जाना । आत्मा की भगवान ने निर्जरा का जो स्वरूप कहा है | पुण्य से सर्वथा शुद्ध अवस्था पूर्ण स्वतंत्र अवस्था । आत्मा पतित आत्मा ऊँची उठती है, संवर से शुद्धि के की स्व प्रदेशों पर कर्म बंध की सर्व शक्ति का पूर्ण मार्ग पर आती है व निर्जरा से ही विशेष वि-शुद्ध रूप से क्षय हो जाना । आत्मा का कर्मो की कैद होती है । कर्मो का फल भोगते हुए जो कर्म क्षय से, अनादि कालीन कैद से सर्वथा मुक्त हो जाना। होते हैं, यहां उनसे प्रयोजन नहीं, समता व तप से आत्मा की सिद्धि । कर्म जल का सर्वथा सूख जाना, जो प्रयत्न पूर्वक कर्म जीर्ण किए जाते है उससे कर्म रज का सर्वथा भस्म हो जाना । आत्मा रूपी प्रयोजन है । यही प्रशस्त निर्जरा, सकाम निर्जरा चन्दन के वृक्ष का शुक्ल ध्यान के चौथे पाए रूपी है, पहली अप्रशस्त अकाम निर्जरा है | नाव का मयूर के आने से सर्व कर्म रूपी सर्यों से मुक्त हो पानी बाहर निकालना, तालाब का पानी सूखाना, | जाना । आत्मा की सर्वकालीन पूर्ण मुक्ति । सभी
Page #154
--------------------------------------------------------------------------
________________
तीर्थंकर भगवान व केवल ज्ञानी, आत्मा की जिस | होने के विस्तृत विभाग अथवा पर्याय । उस 2 परम शुद्ध अवस्था को प्राप्त करते है, आत्मा की स्थान पर जन्म पाकर दण्ड भोगने के 24 स्थान सर्व दुख रहित अनंत सुख पर्याय, सर्व कर्म मल | समूह विभाग | चार गतियों के केवल विस्तृत भेद । रहित आत्मा की शुद्ध नीर समान अवस्था । तीर्थंकर | जन्म पर्याय व स्थान की अपेक्षा से संसारी जीवों के भगवान ने मोक्ष का जो स्वरूप कहा है | जले हुए । विभाग । जैसे कैद खाने में कोई- कोई तल गृहों बीज में अंकुर उत्पन्न नहीं होते हैं , इसी प्रकार | में, कोई ऊपर के कैदखानों में रखा जाता है, कर्म रहित आत्मा में फिर से कर्म नहीं आते । ईधन | कोई खुले में डाल दिया जाता है, किसी को पीड़ा रहित अग्नि नहीं जलती, इसी प्रकार कर्म रहित दी जाती है किसी को मंद, किसीको पीड़ा न देकर आत्मा भी वापस संसार में परिभ्रमण नहीं करती। केवल कैद में रख सुविधाएँ दी जाती है, किसी आत्मा की देहातीत, दुखातीत, परिभ्रमणातीत को एक ही स्थान पर बार बार दण्ड दिया जाता अवस्था को मोक्ष कहा हैं |
है, किसी को घुमा घुमा कर अनेक स्थानों पर गाड़
दिया जाता है। इसी प्रकार जीव भी इस सम्पूर्ण पंद्रहवाँ मोती - आत्मा - जो स्व-गुणों में रमण
लोक में जन्म व स्थान की अपेक्षा से अनेक विभागों करे वह आत्मा है | भिन्न भिन्न गुण की अपेक्षा
में दण्डित होता है। वे 24 विभाग सुख दुःख रूप आत्मा की वह 2 पर्याय । जीव का स्वात्म-भाव,
24 दण्डक कहे जाते है | तीर्थंकर भगवान ने जीव की स्व-गुण पर्याय | जो ज्ञानादि पर्यायों में निरंतर गमन करे वह आत्मा है । आत्मा के पर्याय
जिसे “दण्डक” कहा है। भेद, स्व-गुणों से उत्पन्न गुण पर्याय । जिनके आधार | विशेष - आगम में विस्तृत वर्णन को आसान शैली से स्व-योग्य क्रियाओं में जीव प्रवृत्त होता है । जिस मे लाने के लिए उसके अनेक छोटे छोटे विभाग प्रकार पक्षी के स्वाभाविक गुण उड़ान भरना, वृक्ष करके तत्व को समझाया गया है, इन विभागों को पर बैठना, चहचहाना आदि होते हैं, सिखाए जाने दण्डक कहा गया है । जो जीवों के तथा अजीवों के पर और भी अन्य गुण उत्पन्न होते हैं, इसी प्रकार भिन्न वर्णनों में प्रयुक्त हुआ है । जीवों के 24 विभाग आत्मा के स्वाभाविक गुणों व उत्पन्न होने योग्य | करके फिर उन पर बहुत सारा ज्ञान कहा गया है। विशेष गुणों को लक्ष्य करके आत्मा की भिन्न भिन्न लेश्या,योग वेद, कषाय, वेदना, कर्म आदि-2 पर्याय तीर्थंकर भगवान ने जिसे “आत्मा" कहा है भगवती सूत्र में शतक आठ में भी पुद्गल का । जीव की स्वाभाविक व विकास योग्य, गुण लक्ष्यी स्वरूप 1 दण्डक (विभाग) बनाकर कहा गया है। पर्याय विशेष
एवं अन्य भी । दण्डक के समान ही गम व आलापक
शब्दों का प्रयोग भी अनेक स्थानों पर है। इसलिए सोलहवाँ मोती - दण्डक जहाँ जीव अपने शुभ
दण्डक का अर्थ विभाग ही विशेष प्रतीत होता है। अशुभ कर्मो का सुख-दुःख रूप फल पाते हैं ।
बहुत सारा ज्ञान विभाग रूप में कहने के लिए ही पहले बोल में कही गई चार गतियों के विस्तार से
जीवों के विशेष 24 विभागों को 24 दण्डक कहा अनेक भेद । गमनागमन की अपेक्षा से कही गई
गया प्रतीत होता है । इस प्रकार जन्म, स्थान, चार गतियों में दण्ड (कर्म फल) की अपेक्षा से 24
जन्म व स्थान दोनों दण्ड, विभाग की अपेक्षा से विस्तृत भेद अथवा विभाग । जन्म की अपेक्षा से
यह सोलहवाँ बोल माना जा सकता है । जैसे आगम भिन्न भिन्न पर्यायों के विस्तृत वर्णन को आसान
व 25 बोल का स्तोक भिन्न भिन्न भावों का संग्रह है, शैली में लाने के लिए उसके अनेक रूपों में दण्डित
Page #155
--------------------------------------------------------------------------
________________
24 दण्डक को भी ऐसे ही मिश्र संग्रह मान सकते | चित्त की शुभ अथवा अशुभ भाव में एकाग्रता | उस
2 पदार्थ, क्रिया, भाव से चित्त को, मन को हटाकर सतरहवाँ मोती - लेश्या - जीव के शुभ अशुभ
केवल उस 2 पदार्थ क्रिया भाव में उपयोग पूर्वक
चित्त को लगाकर स्थिर करना, मर्यादा से बाहर न परिणाम जो द्रव्य लेश्या से सम्बंध कराते हैं । जो
जाने देना अथवा स्वतः उस 2 निमित्त में स्थिर हो द्रव्य आत्मा के साथ कर्म का बंध कराने में लेस, लेश्य द्रव्य, गोंद के रूप में कार्य करते है। पुद्गल
जाना । तीर्थंकर भगवान ने जिसे 'ध्यान' कहा है। द्रव्य लेश्या व परिणाम भाव लेश्या कहे जाते हैं। बीसवाँ मोती - द्रव्य - जिस पदार्थ की सत्ता है, जीव के उच्च-नीच, मंद-तीव्र, शुभ-अशुभ परिणामों अस्तित्व है, अपना स्वतन्त्र स्वरूप है, अपने विशेष के अनुरूप जिन पुद्गलों का वर्ण-गंध-रस-स्पर्श भी लक्षण, गुण व पर्याय जिसकी नास्ति नहीं होती, शुभ-अशुभ परिणाम होता है । जैसे काले द्रव्यों के जो सदा काल-सर्व काल रहता है। वह द्रव्य है । कारण क्रूर परिणाम तीव्र क्रोध मान आदि उत्पन्न जिसमें अपने गुण व पर्याय होते हैं, गुण व पर्याय होते है व इन क्रूर परिणामों के कारण आत्मा नये जिसके आश्रय से रहते हैं। जिसमें पुरानी पर्याय काले द्रव्य ग्रहण करती है, ग्रहण किए हुए द्रव्यों नष्ट होती है, नयी नयी पर्याय उत्पन्न होती है, के शुक्ल आदि शुभ वर्ण को भी काला करती है । जो सदा रहता है, कभी भी विनष्ट नहीं होता । शुभ भावों से काले नीले कापोती वर्ण के द्रव्यों के उत्पन्न होना, व्यय होना, सदा काल स्थिर रहना, शुक्ल आदि शुभ वर्ण को भी काला करती है । शुभ जिसका स्वभाव है। तीर्थंकर भगवान ने जिसे 'द्रव्य' भावों से काले नीले कापोती हो जाते है । इसी कहा है । नव तत्व में द्रव्य दो ही हैं, जीव, अजीव प्रकार गंध रस स्पर्श भी जानना । जिन द्रव्यों के शेष सातों उनकी भिन्न भिन्न पर्याय है । इन 25 परिणमन से मन वचन काय योग शुभ अशुभ होते | बोलों मे 20वां 21वां छोड़कर शेष सभी 23 बोल है व शुभ अशुभ योगों से जो द्रव्य शुभाशुभ परिणमते जीव अजीव की भिन्न भिन्न पर्यायों का ही विशेष हैं। तीर्थंकर भगवान ने लेश्या का जो स्वरूप कहा संग्रह है।
इक्कीसवाँ मोती - राशि - वस्तु का समूह, वस्तु अठारहवाँ मोती - दृष्टि - पदार्थ स्वरूप के प्रति का पुंज । एक समान गुण लक्षणों की अपेक्षा से जीव का अभिप्राय विशेष । जिणवाणी के प्रति, पदार्थों का संग्रह, पुंज, समूह । तीर्थंकर भगवान अन्य मतों धर्मों सिद्धान्तों, दर्शनों प्रवृत्तियों के प्रति ने जिसे राशि कहा है। सत्य, असत्य या मिश्र धारणा, विचार, अभिप्राय,
बाईसवाँ मोती - व्रत - जो आत्मा को विरति में संकल्प, श्रद्धा | तीर्थंकर भगवान की, उनके
स्थिर व दृढ़ करे | पापों का आंशिक त्याग, मर्यादा मुखारविंद से उत्पन्न वचनों की श्रद्धा, मान्यता,
की प्रतिज्ञा | पाप कार्यों की सीमा, असम्पूर्ण त्याग, उपेक्षा, लापरवाही, कुछ श्रद्धा, कुछ अश्रद्धा । जीव
अल्प या अधिक 'देश' त्याग की प्रतिज्ञा। जो महाव्रत का दर्शन मोह कर्म का क्षय, उपशम, क्षयोपशम,
से अल्प व तीर्थंकर भगवान द्वारा जैसा कथित है। उदय । तीर्थंकर भगवान ने जिसे दृष्टि कहा है।
तेईसवाँ मोती - महाव्रत - पापों के सम्पूर्ण, सर्व उन्नीसवाँ मोती - ध्यान मन का शुभ अशुभ चितन
उत्कृष्ट त्याग की प्रतिज्ञा । सर्व स्थूल व सूक्ष्म, | चित्त की एकाग्रता । इन्द्रियों व मन के निग्रह
पापों का उत्कृष्ट त्याग विकल्प 3 करण 3 योग से सहित (वश में करने का प्रयत्न विशेष) अथवा रहित
Page #156
--------------------------------------------------------------------------
________________
त्याग । जो व्रत की अपेक्षा 'महा' है । तीर्थंकर | उत्तम विकास करें। आगमों में केवली भगवान का भगवान ने जिसे 'महाव्रत कहा है।
दिया हुआ अनमोल ज्ञान है | वे भगवान सूर्य
समान, सागर समान थे जबकि अपनी आत्मा एक चौबीसवाँ मोती - भांगे - विभाग रूप रचना ।
किरण के, एक बूंद के एक अंश समान भी नहीं । वस्तु क्रिया, भाव की व्याख्या व कोई भी कार्य सम्पन्न
सर्व उपकारियों के उपकार के साथ, भूल का करने की अनेक विध प्रक्रिया, भिन्न भिन्न विकल्प |
आत्म दर्पण तत्व - दर्शन 25 बोल का स्तोक - मार्ग व्रत प्रतिज्ञा, प्रत्याख्यान, नियम धारण करने के
सीधा मोक्ष । भिन्न भिन्न अनेक विकल्प, करण व योग निश्चित करना । अपनी अपनी पसंद व क्षमतानुसार अनेक ( मैं एक आत्म-दीप वस्तुएं खरीदने के समान, नियम धारण के अनेक
आत्मा क्या है ? विकल्प । तीर्थंकर भगवानने जिसे 'भांगे' कहा है।
जो स्वयं को मैं कहती है, जो जानती है जो पच्चीसवाँ मोती - चारित्र - पापों के सर्व त्याग
सोचती है, जो सुख का दुःख का अनुभव करती रूप, सर्व अविरति के त्याग रूप, सर्व विरति रूप
है, वह आत्मा है । जो जड़ नही हैं, जड़ संज्ञा जो पर्याय धारण की जाती है, वह चारित्र है।
नहीं है, जो चेतन है, चेतन संज्ञा से युक्त है, जिससे सर्व कर्मो का आगमन रूकता, संचित कर्म
चेतना जिसका गुण है। लक्षण है, जानना, सोचना, राशि नष्ट होती है, आत्मा पूर्ण रूप से शुद्ध होती
समझना, निर्णय करना, जिसके गुण है, वह आत्मा है | महाव्रत, समिति गुप्ति रूप जो संयमानुष्ठान
है । ज्ञान गुण 'काल' का नहीं है, पुद्गल का नहीं है, जिससे आत्मा स्व-स्वरूप में स्थित होती है,
है, आकाश का नहीं है, वस्त्र पात्र दीवार वाहन जिसके विधि युक्त सम्यग् पालन से आत्मा देवों के
कैंची हथौड़ी सुई आदि पदार्थों, कागज, शीशी सुखों से भी अधिक सुख का अनुभव मानव भव में
जता, प्लास्टिक, चौकी, ताला, चाबी आदि पदार्थों ही करती है । चारित्र मोह के क्षय, उपशम,
का भी नहीं है । ये सर्व पदार्थ जड़ लक्षणों वाले, क्षयोपशम के परिणाम स्वरूप उत्पन्न सर्व विरति
चेतन संज्ञा से रहित, स्वयं सुख दुःख से रहित परिणाम, संयम परिणाम, सर्व सावद्य क्रियाओं के
जड़ है, आत्मा से भिन्न हैं । जो ऐसा समझती है, त्याग रूप, सर्व निरवद्य आचरण | जिसे धारण
वह आत्मा है । जे आया से विण्णाया... । जो करके (आत्मा) साधु, भिक्षु, मुनि, निर्ग्रन्थ कहलाते
आत्मा है वही विज्ञाता है । जो दिखता नहीं, ज्ञान हैं । सर्व विरति रूप, सर्व संयम रूप, सर्व यतना
से ही जाना जाता है वही आत्मा है । आचारांग रूप, सर्व निरवद्य आचरण रूप, महाव्रत समिति
सूत्र । गप्ति भिक्षाचरी, स्वाध्याय, ध्यान, तप, विहार रूप जो पर्याय धारण की जाती है । जिसे तीर्थंकर जैसे मुझे दुःख होता है, वैसे ही दूसरों को भी भगवान ने 'चारित्र' कहा है।
होता है, पीड़ा आने पर चंचलता मुझको आती है
वैसी ही चंचलता दूसरे में भी देखी जाती है, सार
जैसे मैं दुःख नहीं चाहता, वैसे ही दूसरे भी दुःख वस्तु तत्व आसानी से ग्रहण हो सके, इसलिए | नहीं चाहते, जैसे मैं दुःख से बचने का, दुःख दूर यह विस्तार लिखा । सर्व श्रेष्ठ परिभाषा का चुनाव | करने का उपाय करता हूँ, वैसे ही दूसरे भी दुःख व निर्माण करके विनय के साथ अपनी प्रज्ञा का | से बचने का, दुःख दूर करने का उपाय करते हैं ।
Page #157
--------------------------------------------------------------------------
________________
जिसको इस बात का ज्ञान होता है, वह आत्मा है । ऐसा ज्ञान करके जो दूसरे को पीड़ा नहीं देता, पर के हित का विचार करता है, पर के प्रति स्वसमान का भाव करता है, पर का हित करता है, वही आत्मा है । 'जे एगं जाणई से सव्वं जाणई' । जो एक आत्मा को जानता है, वह सभी आत्माओं को जानता है ।
आचारांग सूत्र |
कितना काल हुआ है ? कितना काल बीत गया है ? कितना काल शेष है ? मैं यह कार्य करूं, यह कार्य न करूँ, इसमे मेरा लाभ है, इसमें मेरी हानि है; मैं वहाँ जाऊं या न जाऊं; इतना याद है, इतना प्रमाद से भूला दिया है; मैं कितना कर सकता हूँ ? कितना कर रहा हूँ ? कितना करना चाहिए ? जिसे इन सब भावों का ज्ञान होता है, जो इन सब भावों का सत्य ज्ञान करती है, वह आत्मा है 1 क्या खोया है ? क्या पाया है? ऐसा जानने वाली ही आत्मा है ।
यह क्या शब्द है ? किसका शब्द है ? कौन सी दिशा से आया है? कितनी दूरी से आया है? इसका क्या अर्थ है? क्या यह पहली बार सुना है ? अथवा पहले भी सुना है? इसी जन्म में सुना है ? अथवा पहले भी कभी सुना है? जैसे जाना, सीखा था क्या वैसा ही करना चाहिए? अथवा और अच्छा भी कोई उपाय है ? यह क्या वर्ण है? क्या आकार है ? क्या वस्तु है? कैसी गंध है? कैसा स्वाद है? कैसा स्पर्श है? क्या खड़े होना चाहिए? अथवा बैठना चाहिए? चलना चाहिए? अथवा रुकना चाहिए? यह सोने का समय नहीं है, जागने का समय है; जागूं ? करूं ? पूरा करूं ? सफल बनूं ? ऐसा जानने समझने वाली ही आत्मा है ।
जो अमुक-अमुक अवसर पर विचार के साथ किसी कार्य में स्वयं को प्रवृत्त करती है, सिर में बल
133
लगाती है, कानों में, आँखों में, नाक में, मुख में, गले में, पेट में, हाथों में, पैरो में, बाजुओं में, टांगो में, हड्डी में, माँस में, नसों में वामन में, खांसी में, सांस में, मैल निवारण में बल लगाती है, इस देह से भिन्न, देह का संचालन करने वाली ही आत्मा है। जो अपने-अपने शरीर प्रमाण विस्तार वाली है वही आत्मा है ।
जो इस बात को भी जानती है, समझती है, निर्णय करती है कि, ये केवली भगवान हैं, ये वीतराग हैं, यह सुधर्म है, यह अधर्म है, यह कुधर्म है, यह मोक्ष मार्ग है, यह संसार मार्ग है; यह सत्य है, यह पाप है, यह अपाप है; केवली भगवान ने इसे पाप माना है, इसे पुण्य माना है; इसे आश्रव माना है, इसे संवर माना है, इसे बंध माना है, इसे मोक्ष माना है, इसे सिद्ध माना है, इसे संसारी माना है; इसे दुःख का कारण माना है, इसे सुख का कारण माना है, इसे जीव माना है, इसे अजीव माना है, इसे अनादि भाव माना है, इसे अनंत भाव माना है; इसे सम्यग् ज्ञान माना है, इसे मिथ्या माना है, जो इस प्रकार विचार करती है, स्व को ज्ञान दीप
प्रकाशित करती है, ज्ञान में स्थिर व दृढ़ बनती है, चारित्र से सजती है, तप से तेज लाती है वही आत्मा है । हे आत्मा दीप ! अज्ञान कालिमा दूर करो और ज्ञान दीप बनो ।
जो कर्म का ज्ञान करती है, कर्म बंध के कारणों को समझती है, दुःख को समझती है, दुःख के कारणों को समझती है, झूठे सुख व सच्चे सुख में अंतर को समझती है, सच्चे सुख के उपायों को समझती है; जिसमें सागर के समान विशाल क्षमा उत्पन्न होती है; झुकी हुई बेल के समान विनय व मृदु फल के समान शक्कर मिश्री के समान मधुरता उत्पन्न होती है; सूर्य किरण के समान सीधे मार्ग के समान सरलता उत्पन्न होती है, पाषाण के समान, बंद पात्र के समान संतोष उत्पन्न होता है; जिसमें
Page #158
--------------------------------------------------------------------------
________________
क्रोध उत्पन्न नहीं होता, होता है तो उसे नष्ट कर अनेक प्रकार की क्रियाएँ करने में समर्थ है, जो देती है; जिसमें मान माया लोभ उत्पन्न नहीं होते, | निर्गुण नहीं है। ज्ञान क्षमा आदि अनेक गुणों का होते हैं तो नष्ट कर देती है; जो अहिंसा, सत्य स्वयं में अनंत विकास करने में समर्थ है, जो स्वयं अचौर्य शील अपरिग्रह को समझती है, इन पाँचों कर्म की कर्ता है, स्वयं फल की भोक्ता है, जो जन्म को भगवान मानती है, पाँचो की आराधना करती मरण करती है, जो पहले भी थी, इस जन्म में भी है; जिसमें राग द्वेष मोह उत्पन्न नहीं होते, होते है, अगले जन्मों में भी होगी, जो संसार भ्रमण का हैं तो नष्ट कर देती है; जो श्रावक धर्म का ज्ञान अंत करके सिद्ध भगवान बनने में समर्थ है, वही करती है, साधु धर्म का ज्ञान करती है, एक को मैं एक अज्ञानी गुण विकास की इच्छुक वर्तमान में शक्ति के अनुसार धारण करती है वह प्रिय आत्मा गुणों की प्राप्ति में प्रयत्नशील संसारी विकारी है जो देव बनती है, मनुष्य बनती है, सिद्ध होती असिद्ध आत्मा चेतन है। . है, अनादि अनंत ।
प्रतिज्ञा पत्र केवली वचन पर विश्वास करके जो सूर्य समान ज्ञान
(दीपावली निर्वाण कल्याणक प्रसंग पर) से प्रकाशित होकर सर्व पदार्थों को जानती है, दर्शन
मै आज यह प्रतिज्ञा करता हूँ कि मैं इस वर्ष
दीपावली महोत्सव पर पटाखें नहीं छोडूंगा, क्योंकि से सर्व पदार्थों को देखती है, उनके सत्य वास्तविक
यह एक महा अपराध है। प्रतिज्ञा, मैं अपनी स्वेच्छा स्वरूप पर श्रद्धा विश्वास करती है; चारित्र से कर्म बंध के कारणों को नष्ट करती है, व्यक्ति को सच्चा
से सहर्ष स्वीकार करता हूँ | यह प्रतिज्ञा मैं गुरुदेव दोषी न मानकर अपने ही कर्मों को सच्चा दोषी
श्री के समक्ष करता हूँ। इसका पच्चक्खाण करके,
आज मैं बाल मजदूर प्रथा बंद करने में सहयोगी मानती है, तप से पूर्वकाल के बांधे कर्मों को नष्ट
बनता हूँ । अतः आप सभी इस प्रेरणा को सहज करके दुर्गति का अंत करती है, सुगति को प्राप्त
स्वीकार करें। भगवान महावीर का संदेश करती है, वही सुन्दर गुणचन्द्र आत्मा है।
(संयम से जीओ और जीने दो) जिसका न तो कोई निर्माता ही है, न ही जिसका विनाश सम्भव है, जो सर्व व्यापक नहीं है, सर्व
प्रतिज्ञा धारणकर्ता : शक्तिमान भी नहीं है, जो निष्क्रिय नहीं है, उपरोक्त
नोटः सैंकड़ो लोगों ने पटाखें नहीं फोड़ने के नियम लिए।
लक्ष्य को पानेवाला राही प्रतिपल चलेगा ही,
बोया है बीज तो निश्चित रूप से फलेगा ही खरगोश की दौड़ प्रतियोगिता कछुआ नहीं हारा, करते रहो पुरुषार्थ तो समझो फल मिलेगा ही ।।
★★★★
तुम ऊतने ही ऊपर उठ सकोगे, जितने ऊँचे तुम्हारे विचार है।
Page #159
--------------------------------------------------------------------------
________________
( सामायिक ज्ञान - 1
5) सामायिक का क्या लाभ है ? दिन रात भर
की जाने वाली हिंसा क्रोध आदि सावध क्रियाओं का 1) सामायिक क्या है ? सामायिक धर्म की बहुत । एक मुहुर्त काल के लिए त्याग होता है, किसी भी सुन्दर साधना, क्रिया है | सामायिक मीठी खीर के जीव की हिंसा न करने से सब जीवों को अपनी समान स्वादु है, घर का बाग बनाने के समान तरफ से दया व अभयदान है, नये कर्मो का बन्ध सुन्दर व सुखदायी है, आम के वृक्ष के समान फल
नहीं होता, पहले के बांधे कर्मो की निर्जरा होती दायी है।
है, 18 पापों के त्याग व स्वाध्याय में मन लगने से 2) सामायिक कौन करते हैं ? धर्म की रूचि
सुख दुख की इच्छा अनिच्छा में समभाव लाने से
सच्ची आत्म शान्ति प्राप्त होती है, आत्मा की रखने वाले, सामायिक की रूचि रखने वाले, सामायिक के लिए प्रेरणा करने वालों के वचन मानने
सामायिक लब्धि का अनुभव होता है, सामायिक
में संचित धर्म भावों के प्रभाव से सारे दिन की वाले बाल, युवा, वृद्ध सभी करते हैं, स्त्रियां भी, पुरूष भी करते है । मुख्य रूप से जैन धर्म को
अशान्ति व हिंसा भावों आदि पापों की मंदता बनी अच्छा समझने, मानने वाले लोग प्रसन्नता हर्ष
रहती है, सामायिक में आयु का बंध हो तो एक देव
गति का ही बंध होता है, नरकादि दुर्गतियों का अनुराग श्रद्धा उत्साह के साथ सामायिक करते है।
नाश होता है, आत्मा की केवल ज्ञान प्राप्ति का 3) सामायिक कैसे की जाती है ? जीव पूंजने के
मार्ग साफ व समीप होता है, तीर्थंकर गोत्र का लिए पूंजनी, बैठने के लिए आसन, मुख पर लगाने
बंध हो सकता है, तीर्थंकर भगवान के अनमोल के लिए धागे सहित मुखवस्त्रिका, माला, धार्मिक
धर्म की आराधना का महा लाभ प्राप्त होता है, पुस्तकों सहित पुरूषों द्वारा धोती दुपट्टा (दोनों सफेद)
दूसरों को भी प्रेरणा होती है, अपने जन्म-जन्म के पहनकर व स्त्रियों द्वारा सामान्य गृहवेश में ही शील
दुखों का नाश होता है आदि । प्रकटकारी पहनाव व्यवहार युक्त नवकार नमस्कार युक्त शान्ति के साथ की जाती है।
6) सामायिक कब की जाती है ? सामायिक
आवश्यक दैनिक क्रियाएं प्रारम्भ करने से पहले ही 4) सामायिक कहाँ की जाती है ? एकान्त शान्त
प्रातः काल, दोपहर को, सायंकाल, रात्रि को की स्थान में जहां न तो गृह आदि आरम्भ कार्य होते हो न ही लोग अपने अपने कार्यों से आते जाते हो
जाती है, गृह व्यापार के कार्यों से निवृत्त होकर जब
नये कार्यों की शीघ्रता चिंता न हो, चित्त धर्म में । इन्द्रियों के आकर्षण शोभा रहित स्थान में,
आसानी से लग सके इस तरह अवकाश निकाल सामायिक की भावनाओं के अनुकूल स्थान में
कर किसी भी समय की जा सकती है, प्रातः काल अकेले अथवा सामायिक करते हुओं के साथ होकर
सबसे अच्छा रहता है। सामायिक में संसारी बातें की जाती है । बिजली, पंखा, पानी न चलते
नही की जाती। हों, घर में, धर्म स्थान में, गुरुदेवों के समीप अथवा व्यवहार को समझकर अन्य कोई एकान्त 7) सामायिक कितने काल की होती है ? दिन स्थान बाग आदि में भी की जा सकती है । पूर्ण रात की संसार की व्यस्त चर्या में से कम से कम अनुकूल स्थान प्राप्त न हो तो अधिक से अधिक | एक मुहुर्त अर्थात 48 मिनट का समय निकालकर अनुकूलता देखकर भगवान महावीर के धर्म में चारित्र इतने काल के लिए एक स्थान पर बैठकर स्थिरता की निस्वार्थ भावों व क्रियाओं की उच्चता रखते हुए
के साथ सामायिक अवश्य करनी चाहिए, ज्ञानियों सामायिक करनी चाहिए।
ने सामायिक का एक मुहुर्त काल निश्चित किया है,
3.
Page #160
--------------------------------------------------------------------------
________________
और भी अधिक करें, तो उत्तम, अच्छा श्रेष्ठ है। आहार, ईनाम, दर्शन-यात्रा के लिए बस - कार आदि बातें नहीं की जाती।
8) सामायिक की विधि क्या ? सामायिक के पाठों वाली पुस्तकों में लिखी हुई है। वेश पहनकर आसनादि लेकर उत्तरपूर्व दिशा की ओर मुख करके, स्वाध्याय आदि आत्मगुण विकासी निस्वार्थ भावों से सामायिक की आराधना की जाती है; एक मुहुर्त (48 मिनट) पूरा होने पर, सामायिक पारने की इच्छा हो तो पारने के पाठ बोलकर सामायिक पार ली जाती है । जब तक पाठ विधि से सामायिक लेनी न आए तब तक पंच परमेष्टी को नमस्कार कहकर सामायिक शुरु करके, पाठ याद करें फिर एक मुहुर्त पश्चात इसी तरह पार सकते है ।
9) सामायिक के लिए अवसर प्राप्ति किस प्रकार ? व्यस्त चर्या या चर्या में से के समय न निकल सके सो अच्छा नहीं। संसार नहीं, धर्म ही आत्मा का रक्षक है, जो जीवों के सब दुखों का अंत कराता है, सुगति दिलाता है, जैसे स्नान, आहार, सोना, खरीदना आदि कार्यों के लिए, मित्रों के लिए समय निकाला जाता है, ऐसे सामायिक को भी आवश्यक समझकर समय निकालना चाहिए, यह सामायिक ही आत्मा की वास्तविक वीर, धन, रत्न सुख है। अनावश्यक कार्य छोड़कर व अल्प आवश्यक कार्यों को आगे के लिए रखकर, किसी किसी दिन स्नान, आहार, निद्रा छोड़कर सामायिक के लिए समय अवश्य उपलब्ध करना चाहिए, सामायिक का फल परलोक में भी साथ चलता है । अधिक सोने, घूमने, खानेपीने भोजन करने, मित्र रखने, जिम्मेदारियों, आवश्यकताओं, फालतूखर्ची, सुख की इच्छाओं, चिंताओं, दुखों वाले लोग, इन सबको सीमित रखें, एक घंटा तो, सामायिक के लिए समय निकालना आसान रहता है, अपने कार्य व्यवस्थित रखने व यथा समय निबटा लेने पर भी इतना जान लेने पर भी
136
जो सामायिक के लिए समय नहीं निकालते उनके विषय में और क्या हित कहा जा सकता है ?
10) सामायिक : सामायिक की रूचि से रहित होकर सामायिक करना केवल द्रव्य मात्र है, भाव सामायिक नहीं । वेश से ही व्यवहार सामायिक होती है। घर की पहचान पहले बाहर से ही होती है, छिलके मे
फल सुरक्षित रहता है, वेश से ही भाव सामायिक स्थिर व सुरक्षित रहती है, भाव ही निर्जरा का कारण होते है। एक-एक पाप गिनकर सभी 18 पापों के त्याग में उपयोग सावधानी रखकर 32 दोष टालकर करने से निर्दोष सामायिक होती है । सदोष की अपेक्षा निर्दोष सामायिक ही जीव की विशेष उच्चता व सुगति का कारण है, परन्तु इसकी प्राप्ति अभ्यास से ही होती है व दोषों को न बढ़ाकर सदा अल्प व मंद रखना चाहिए एवं मिच्छामि दुक्कड़ करना चाहिए। पंखा, वायु, मच्छर, चिड़िया आदि की व बिजली अग्नि के गर्म होने से और भी हिंसा का कारण है। रात्रि में देखने में सहायी होने से, बिजली दया का भी साधन है परन्तु सर्व हिंसा का त्याग होने से व पूंजनी काम में लेने से, पाठ शुरू करने से लेकर सामायिक पारने तक बिजली को जलाकर सामायिक करना, पहले पाप प्राणातिपात का सेवन है, ऐसा न करना चाहिए। गृह कार्य से बिजली जलती हो, तो थोड़ा दूर बैठना चाहिए व सामायिक में बार-बार उसके अवलम्बन की इच्छा नहीं करनी चाहिए ।
11) सामायिक किसने कही ? सामायिक से केवल ज्ञान पाकर फिर तीर्थंकर भगवानने अपने शिष्य गणधरों व जन परिषद को सामायिक करने की बात कही। फिर गुरू शिष्य परम्परा माता पिता पुत्र पुत्री परम्परा से हम तक पहुँची, बहुत साधु साध्वी श्रावक श्राविकाओं ने की, अब करते है, आगे करेंगे, सुफल पाया, पाते है, आगे पाएंगे ।
तत्व केवली गम्य
Page #161
--------------------------------------------------------------------------
________________
( सामायिक ज्ञान - 2
उसका महाफल केवल ज्ञान प्राप्त किया । तब से
लेकर 2,500 से भी अधिक वर्ष बीत जाने पर अब 1) सामायिक कहाँ से शुरू हुई ?
तक लाखों साध साध्वियों व करोड़ो श्रावक वर्तमान काल की सामायिक 24 वें तीर्थंकर श्राविकाओं ने की। भगवान महावीर से शुरू हुई। उन्होंने स्वयं सामायिक
4) सामायिक कौन करते है ? की, केवल ज्ञान प्राप्त किया, परिषद में सामायिक सुनाई।
निरंतर ज्यादा दःख वाले व निरंतर ज्यादा
सुख वाले प्राणी सामायिक नहीं करते; सुख दुःख 2) सामायिक कब से लेकर कब तक है?
वाले प्राणी ही सामायिक करते है। नरक के नारकी. . श्रमण भगवान महावीर द्वारा दीक्षा लेने पर | देवलोक के देवता सामायिक नहीं कर सकते, केवल मृगसिर कृष्ण दशमी के दिन कुण्डल पुर से सामायिक | तीर्थंकर भगवान के धर्म पर रूचि व श्रद्धा रखने शुरू हुई, 12 वर्ष के पश्चात 13 वें वर्ष में वैशाख । वाले मनुष्य करते है व कोई-कोई पशु पक्षी (हाथी शुक्ल दशमी के दिन ऋजु बालुका नदी के तट पर | मेंढ़क) आदि भी करते हैं । तीर्थंकर भगवान से तो भगवान की सामायिक का महाफल केवल ज्ञान | शेर बकरी सर्प नेवला आदि भी धर्म सनते थे । प्राप्त हुआ, व एकादशी के दिन (केवल प्राप्ति के जिन्हें अपनी आत्मा के हित की इच्छा होती है, जो अगले दिन) अपापा नगरी में देवों द्वारा रचित | अपना यह जन्म उत्तम गुणों वाला अच्छा बनाना दिव्य, चमकदार, बहुत सुंदर समवसरण में भगवान | चाहते है; परलोक में भी सुगति, सुख चाहते हैं, द्वारा सामायिक का पहला उपदेश किया गया । । देव बनना चाहते है, सच्ची शान्ति पाना चाहते हैं, तब से लेकर आज तक सामायिक चली आ रही है । केवल ज्ञान पाना चाहते हैं, सब दुःखों का नाश व इस पंचम आरे के 21,000 वर्ष पूरे होने तक, - करना चाहते हैं, धर्म का विनय करते हैं, वे खुशीअन्तिम दिन तक सामायिक आगे से आगे बढ़ती खुशी सामायिक करते हैं। रहेगी।
5) सामायिक में किन गुणों की प्राप्ति होती है ? 3) सामायिक कितने प्रकार की होती है ?
संसार के सब कार्यों, चिंताओं को छोड़कर सामायिक दो प्रकार की होती है - 1) साधु
शान्ति से सामायिक में मन लगाने से, सभी 18 सामायिक अर्थात अणगार सामायिक 2) श्रावक पापों का त्याग करने से समकित शुद्ध व दृढ़ होती सामायिक अर्थात अगार सामायिक | साधु सामायिक है, एक भी जीव की हिंसा न करने से सब जीवों की अखण्ड रूप से जीवन भर के लिए धारण की | महादया होती है, राग और द्वेष नष्ट करने से जाती है व श्रावक सामायिक प्रतिदिन कम से कम समभाव की अच्छी साधना होती है, आदर, सत्य, एक मुहुर्त के लिए धारण की जाती है | साधु संतोष, धैर्य, एकाग्रता, गुण दर्शन की प्राप्ति होती सामायिक पांच महाव्रत रूप अखण्ड मोती के है, एक मुहुर्त के लिए साधु समान संयम की समान है व श्रावक सामायिक 12 व्रतों में 9वाँ | प्राप्ति होती है । इससे आत्मा नये अशुभ कर्म नहीं व्रत, स्वर्ण समान है । साधु सामायिक सर्व प्रथम | बांधती, पुराने कर्म क्षय करती है व नये शुभ कर्मो इन्द्र भूति गौतम स्वामी जी ने भगवान के मुखारविंद | का बंध करती है । जिससे दुःख नष्ट होते हैं, से सुनकर ग्रहण की व भगवान का निर्वाण होने पर | सुख-सच्ची शान्ति व मोक्ष प्राप्त होते है।
Page #162
--------------------------------------------------------------------------
________________
6) क्या सामायिक अनादि से है ?
एक कदम आगे-आगे बढ़ते, ये सब प्राप्त होना, सामायिक अनादि काल से चली आ रही है,
बहुत-बहुत दुर्लभ है, अनंत अंतराय टूटने व .
महापुण्योदय होने पर ही किसी किसी महा अनंत काल तक चलती रहेगी, सभी तीर्थंकर भगवान अपने-अपने ज्ञान से अपनी-अपनी इच्छा से
भाग्यशाली को वास्तविक महादुर्लभ सामायिक की सामायिक धारण करते हैं, केवल ज्ञान पाकर फिर
प्राप्ति होती है। भटकने के लिए चार गति संसार परिषद में सामायिक का उपदेश देते हैं। इस तरह
बहुत दूर-दूर तक बहुत विशाल है और मनुष्य क्षेत्र
वह भी सामायिक के योग्य बहुत अल्प है । धूल व्यक्ति की अपेक्षा से सभी तीर्थंकर भगवान, सामायिक प्रारंभ करते हैं व प्रवाह की अपेक्षा से चंकि तीर्थंकर
कंकर कंटक प्राप्त होने आसान है परन्तु कोहिनूर भगवान अनादि काल से होते आए हैं अनंत काल
का रत्न प्राप्त होना कठिन है, धरती में मिट्टी के तक होते रहेंगे इसलिए सामायिक भी अनादि काल
कण गिनने आसान है परन्तु सामायिक की प्राप्ति
अति कठिन है। से है, अनंत काल तक होती रहेगी । सामायिक से अनंत जीवों ने केवल ज्ञान पाया व अनंत जीव
9) सामायिक कौन नहीं करते? केवल ज्ञान पाते रहेंगे, भरत, ऐरावत, महाविदेह सभी 15 कर्म भूमि के सामायिक धारी मनुष्य ।
बुद्धि हीन, सुखों में लीन, घूमने, फिरने,
नाचने, गाने, खाने, पीने, सोने, फालतू खर्चों 7) सामायिक में चार प्रकार की शुद्धि क्या है?
की अधिक रूचि वाले, मंद, भाग्यहीन व आलसी सामायिक की क्रिया, चारित्र व सामायिक की
जन सामायिक नहीं करते । पर्यटन, क्लबों, भावनाओं के अनुकुल, सामायिक में सहायी, सामायिक सोसायटी मीटिंगो, राजनीति में रुचि वाले विकथा के पूरक 1)द्रव्य, 2)क्षेत्र, 3)काल, 4)भाव को
तथा दर्शन यात्राओ के रसिक लोग प्रायः सामायिक अपनाकर सामायिक करना, यही चार प्रकार की | से दूर ही रहते हैं। वर्तमान में इन्द्रिय विषयों की शुद्धि है । आसन पूंजनी माला धोती दुपट्टा आदि दौड़, टी.वी, कम्प्यूटर, मोबाइल आदि के अति व्यवहारानुकूल सामान्य रखना, न कि विशेष कीमती भोग ने, स्त्रियों द्वारा पुरुषोचित पहनावा, व्यवहार व शोभाजनक चक्षु को आकर्षक एवं आभूषणों का
आदि ने तो सामायिक से लोगों को बहुत दूर कर त्याग, यह द्रव्य है; सादा व शोर रहित, जीव दिया है । सत्संग छुटता जा रहा है। रहित एकांत स्थान, यह क्षेत्र शुद्धि है, संसारी
10)सामायिक किन्होंने की? कार्यो चिंताओं से रहित काल, यह काल शुद्धि है; 18 पाप के त्याग व सुदेव सुगुरू सुधर्म में भक्ति, पूर्णिया श्रावकजी, शंख, आनंद, कुंडकौलिक आराधना भरी भावनाएं, यह भाव शुद्धि है। आदि बहुत श्रावको ने की, सुभद्रा आदि बहुत 8) सामायिक कितनी सुलभ है?
श्राविकाओं ने की, गौतम स्वामीजी आदि बहुत
श्रमणों ने, चंदनबालाजी आदि बहत श्रमणियों ने सामायिक सुलभ नहीं अति दुर्लभ है, आर्य की। क्षेत्र, सत्य धर्म, अल्प सख दःख, धर्म रूचि, अल्प मोह, धर्म श्रद्धा, सामायिक का ज्ञान,
11)क्या फल पाया? सामायिक में श्रद्धा, रूचि फिर समय निकालना,
कोई उसी जन्म में तिर गए, सिद्ध हो गए, धर्म करना, सामायिक को जीवनमें उतारना, एक
कोई अगले जन्म में तिरेंगे, सिद्ध होंगे, कोई और
Page #163
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुछ जन्मों में तिरेंगे, सिद्ध होंगे सब दुखों का अंत | को प्राप्त करना, समझना व आत्म लाभ उठाना, करेंगे । नमो सिद्धाणं । सामायिक की जय हो यही सामायिक में किया जाता है, स्वाध्याय (आत्मा विजय हो।
का अध्ययन) करना, स्वयं को ऊँचा उठाना । तत्व केवली गम्य
माला, आनुपूर्वी धुन, जाप स्तुति, धर्म कथाएँ,
ज्ञान की पुस्तकें पढ़ना, ध्यान करना, पाप त्याग सामायिक ज्ञान - 3
व आत्म विकास का चिंतन करना, तत्व ज्ञान, 1) सामायिक इच्छा पूर्ति के लिए या आत्म
थोकड़े सीखना, शास्त्र सुनना, सीखना, सुनाना
आदि । शुद्धि के लिए ? सामायिक का अर्थ ही है सम आय-समाय, समभाव, समता की आय, 3) दान पुण्य श्रेष्ठ है या सामायिक? आत्मा में प्राप्ति, उत्पत्ति, स्थिरता और वह तभी सम्भव है अनुकंपा का गुण होने से दुःखी का दुःख दूर जब सामायिक में सर्व 18 पापों व सर्व इच्छाओं करने की रूचि उत्पन्न होती है, इससे आत्मा ऊँची का एक मुहुर्त के लिए त्याग किया जाता है । अवश्य उठती है परन्तु एक दो पाए ही, पूरी जन्म-जन्म से मैली आत्मा, इसी से शुद्ध होती है, | सीढ़ी तो सामायिक और तप से ही चढ़ी जाती इसी से कर्म हल्के पड़ते हैं व आत्म विकास होता है है, इसके बिना नहीं । धन भोजन आदि का दान । गेहूँ खरीदा जाए तो जौ अपने आप ही प्राप्त हो । अहिंसा के लिए ही किया जाता है, ऐसा विवेक जाती है, इसी तरह निर्जरा के लिए की गई रखते हुए भी यह दान दूसरे अनेक त्रस स्थावर सामायिक में महापुण्य का बंध अपने आप होता जीवों की हिंसा के बिना संभव नहीं होता, इसलिए है, अशुभ कर्म हल्के पड़ने से, पहले के किए पुण्य पूर्ण शुद्ध भी नहीं होता । सामायिक में छोटे से छोटे भी उदय में आते है | सामायिक का वास्तविक जीव की जरा भी हिंसा नहीं की जाती, सब जीवों लक्ष्य सुख दुःख में न राग रखना न ही द्वेष, राग | को एक समान रूप से अभयदान (दया दान) दिया और द्वेष से रहित आत्म शान्ति की प्राप्ति करना जाता है (दाणाण सेतुं अभयप्पयाणं सूत्र कृतांग ही है। फिर भी कोई संसारी इच्छा से ही सामायिक | सूत्र), दोनों में अभयदान सर्व श्रेष्ठ है । इसलिए करते हैं तो, एक और सामायिक सर्व इच्छाओं से सामायिक में दिया जाने वाला अभयदान पूर्ण रूप रहित केवल आत्मा के लिए भी अवश्य करनी चाहिए से शुद्ध, सर्वश्रेष्ठ, महानिर्जरा व महापुण्य कारी | वही वास्तविक सामायिक व मनुष्य जन्म का वास्तविक होता है, फिर आत्म ज्ञान की प्राप्ति भी सामायिक लाभ है।
में ही संभव हो पाती है, इसी से आत्मविकास 2) सामायिक में क्या करना चाहिए? मोहोदय
विधि का ज्ञान व रोशनी प्राप्त होते है । अनुकंपा
दान की तीर्थंकर देव ने मनाई नहीं की है। से उत्पन्न होने वाली संसार की भागदौड़ व आर्तध्यान को छोड़कर आत्म शान्ति, धर्म ध्यान की प्राप्ति ही 4) सामायिक की रूचि किस प्रकार होनी चाहिए? सामायिक का मुख्य लक्ष्य है । आत्मा के ज्ञान से | तरूण को जैसे नाच गाने में, कुछ दिन के भूखे को ही इसकी प्राप्ति होती है, और आत्म ज्ञान के | बादाम आदि युक्त मीठी खीर प्राप्त होने पर, खोया एक मात्र आलम्बन तीर्थंकर भगवान ही होते है। हुआ बालक प्राप्त हो जाने पर जैसे माँ को, खोया इसलिए भगवान का स्मरण करना, वंदना, उनकी . हुआ कीमती रत्न वापस प्राप्त होने पर जैसे वणिक आज्ञा का पालन करना, उनके द्वारा प्रदत्त ज्ञान | को रूचि, हर्ष, प्रसन्नता उत्पन्न होते है, सामायिक
Page #164
--------------------------------------------------------------------------
________________
भी ऐसी ही रूचि, हर्ष व प्रसन्नता के साथ करनी | प्राणी को अंश मात्र भी दुख न देकर सर्व सहन कर चाहिए। यह सामायिक तीर्थंकर भगवान द्वारा दी लेता है, उस शांत आत्मा को सामायिक होती है,. गई है, सब जीवों के हित के लिए दी गई है, किसी ऐसा केवली भगवान का कथन है। जिसका न कोई किसी भाग्यशाली को ही प्राप्त होती है, मेरे इस शत् है, न ही सराग जनित मित्र है, जो सर्व शत्र जन्म के लिए तो सुखकारी है ही, मेरे परलोक के मित्र में एकसमान भाव रखता है, सब जीव मुझे लिए भी बहुत सुखकारी व महालाभ का कारण है। क्षमा करें, मैं भी सबको क्षमा करता हूँ, सब जीव यह सामायिक करूंगा, आत्मा में नई पूंजी संचित मेरे मित्र है, किसी से मेरा वैर भाव नहीं, ऐसा करूंगा।
मानता है, उस आत्मा को सामायिक होती है ऐसा 5) चार प्रकार की सामायिक कौन सी है ? सर्व
केवली भगवान का कथन है। द्रव्य क्षेत्र काल भाव में सम हो जाना, सामायिक श्रावक सामायिक - श्रावकजी अपने धन परिवार करते हुए इन 4 की अपेक्षा से ही सामायिक चार को अपना न समझते हुए भी (जीव तो अकेला प्रकार की कही गई है। सर्वधन मकान वाहन जेवर आता है, अकेला जाता है) उनमें ममत्व बंधन को उपकरण वस्त्र शरीर आदि किसी भी पदार्थ को तोड़ नही पाते, इसलिए उनकी सामायिक दो करण अपना न समझना, इनके वास्तविक स्वरूप का तीन योग से सावद्य-त्याग की होती है, अनुमोदना विचार करके हीरे कंकर में एक समान राग द्वेष | का त्याग नहीं होता, अनुमोदना करते नहीं, परन्तु रहित समभाव लाना । सर्व द्रव्यों की अपेक्षा से यह | लगती है | पहना हुआ जेवर उतार कर रख देते द्रव्य-सामायिक है । स्व के, पर के, जल थल, | हैं, ममता रह जाती है, सामायि आकाश के, समीप के दूर के, सुन्दर असुन्दर सब | से पहन लेते हैं। दृष्टांत : किराए के वाहन से सेठ क्षेत्रों की आसक्ति न रख एक अपने शुद्ध आत्म | जी लौटे, जेवर की पेटी भूल गए, सामायिक करने स्वरूप में स्थित होना क्षेत्र-सामायिक है । महर्त लग गए, अचानक ध्यान आया, चिंता हुई कि समता दिन, रात, मास, ऋत, वर्ष आदि की सर्व इच्छा रखी, केवली भगवान ने जैसा-जैसा देखा है, सब अनिच्छा को छोड़ना, बहुत देर हो गई, रात खत्म वैसा वैसा हो रहा है, फिर क्या चिंता ? 2) हार नहीं हर्ड, अभी तक वर्षा ऋत शरू नही हर्ड. शीत उतार आगे रख सामायिक करने लगे । कोई हार काल लम्बा चल रहा है आदि हो, ना हो ऐसी उठा ले गया । कोई चिंता नहीं, जो जाता हे सो. आसक्ति छोड़ना 'काल विषयक', 'काल सामायिक' अपना नहीं, जो अपना है सो जाता नहीं । है। भूख, प्यास, शीत, उष्ण, प्रिय, अप्रिय,वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, शब्द में राग द्वेष छोड़कर समता
सामायिक ज्ञान - 4 में स्थित होना, क्रोध मान माया लोभ का त्याग कर 1 सामायिक में कर्म क्षय कितना होता है ? उदय में न आने देना, सर्व प्रिय अप्रिय भावों को युं तो प्रत्येक वस्तु अपने अपने गुणों, स्वभाव मन में स्थान न देना, 'भाव-सामायिक' है । वाली होती है जैसे आम का फल तो आम ही होता सामायिक करने वाला साधक पदार्थ जैसे होते है है परन्तु उनमें मिठास भिन्न भिन्न होती है, दूध तो उनका ज्ञान तो रखता है, परन्तु राग द्वेष से रहित | दध ही होता है परन्त कोई पानी वाला. कोई बिना रहता है । इस प्रकार उत्कृष्ट सामायिक होती है। पानी वाला, कोई कच्चा कोई उबला हुआ, कोई जैसे, मैं दुःख नहीं चाहता, वैसे दूसरा भी दुःख | मीठा कोई फीका, कोई घी वाला, कोई बादाम नहीं चाहता, वैसा विचार कर जो किसी भी स्थावर | वाला आदि, इसी प्रकार सामायिक भी सभी को
Page #165
--------------------------------------------------------------------------
________________
अपने अपने गुणों की विशेषता- मंदता के कारण | साधर्मी विनय के लिये सामायिक करते हुओं के भिन्न भिन्न लाभ वाली होती है। सामायिक का बार
सामायिक लेकर ही चरण स्पर्श करें, कोई खुले बार अभ्यास करने से जिन्होनें सामायिक में अपना भाई आते हो, तो शिष्टाचार के लिए खड़े होकर या चित्त स्थिर कर लिया हो, सामायिक के सत्य अर्थ
बैठे ही हाथ जोड़कर जयजिनेन्द्र कर सकते है । को समझकर करने का प्रयत्न किया हो, तो ऐसे परन्तु आगे और संसारी बात न करें, चाचा मामा सामायिक धारी श्रावक जी एक सामायिक मात्र में आदि सम्बंध कहकर किसी को भी पुकारे नहीं । इतने कर्म खपा लेते हैं, जितने हजारों लाखों सामायिक में शील व्यवहार रखते हुए धर्म चर्चा वर्षों में नरक का नारकी दुःख महादुःख भोगते करनी चाहिए, पूछना भी चाहिए । उत्तर भी देना हुए खपाता है । इसका क्या कारण है ? - नरक के चाहिए, यह साधर्मी विनय व ज्ञान वृद्धि है । सामायिक नारकियों के कर्म लोहे की तरह दृढ़ होते हैं, बहुत में यं ही किसी की निंदा आलोचना, व्याख्यान आदि दुःख पाकर भी बहुत कम कर्म नष्ट करते हैं, की तैयारी बस आत्मा के प्रयोजन, आहार, इनाम सामायिकधारी ने अपने कर्म आसानी से कटने आदि सावध कार्य बातों मे समय पूरा न कर योग्य लकड़ी की तरह ढ़ीले किए होते है, अल्प सामायिक का जो मुख्य प्रयोजन आत्म ज्ञान की परिश्रम से भी बहुत कर्म नष्ट करते प्राप्ति, चिंतन, ध्यान है, उसी में लीन रहें ।
पुस्तकें आदि में भी समय न गवाएं, परन्तु स्वयं भगवती सूत्र के आधार से, स्व चिंतन से ऐसा खुले हों, और पौषध धारी की सेवा करनी हो तो लिखा है । पूर्णिया श्रावक जी की सामायिक को
सामायिक लेकर करनी चाहिए। जानना चाहिए।
श्रावक कुण्डकौलिकजी की सामायिक को समझना 2) सामायिक में व्यवहार : सामायिक में 18 पापों चाहिए । तत्त्व केवली गम्य । का दो करण तीन योग से त्याग रहता है । खुले व्यक्ति को आना जाना आदि कार्य करने से हिंसा
3) सामायिक की स्थिरता : सामायिक सदा अनुकूल आदि पाप उत्पन्न होने की संभावना होती है, इसलिए
क्षेत्र में, आसन पर ही की जाती है, बिना आसन खुले व्यक्ति के साथ ऐसा व्यवहार न करना चाहिए,
के नहीं, उससे चित्त की स्थिरता रहती है, स्वाध्याय कोई धार्मिक पुस्तक, माला देनी पड़े तो अलग,
में मन आसानी से लग जाता है वरना चंचल होकर एक वस्त्र पर रख देनी चाहिए, हाथ से हाथ में न
बार बार स्थान बदलते रहने के भाव बन सकते दे, इसी प्रकार वापस भी ले सकते हैं | स्वयं को
है; मुख वस्त्रिका न लगाई तो, एक तो जीव हिंसा कोई वस्तु चाहिए तो पूछ कर लेनी चाहिए, बिना
होती है, दूसरे सामायिक की स्मृति न रहे तो स्मृति पूछे नहीं । सामायिक में सामायिक करते हुओं के |
| आ जाती है और व्यक्ति बिना पारे यूं ही उठकर साथ ही व्यवहार होता है, अन्य के साथ नहीं, फिर
नहीं जाता व देखने वालों को भी पहचान रहती है भी यत्नवान अयत्नवान देखकर आवश्यकता पडे
कि ये सामायिक कर रहें है । इस तरह सामायिक तो व्यवहार कर सकते है । यत्नवान विवेकवान से
में आसन (स्थान) बदला नहीं जाता, पहले ही व्यवहार करना अच्छा है, सामायिक नहीं करते के |
साधर्मी विनय व्यवहार अनुकूल होकर बैठना चाहिए साथ व्यवहार करे तो दोष है परन्तु जैसे मुनिराज
| फिर भी किन्हीं आवश्यक कारणों से एक दो बार यतना करवाते हुए आहार लेते है, इसी तरह यतना
स्थान बदलना भी पड़ जाता है । गुरुदेवों के पास करते व कराते हुए करें तो दोष नही रहता । |
जाकर पूछने के लिए साधर्मियों के पास जाकर धर्म
Page #166
--------------------------------------------------------------------------
________________
चर्चा करनी हो, आसपास के शोर आदि बढ़ जाने | जेवर जैसी ममता ही होती है और न ही अपने पर, अचानक अनेक प्राणी जन्तु आ जाने पर, वर्षा लिए रखा है, केवल दान के लिए है वह भी के छींटे आने पर, मलमूत्र की बाधा आ जाने पर, सामान्य याचक को नहीं; निर्दोष आहार लेनेवाले मरते प्राणी को बचाने के लिए एवं और ऐसे विशेष सुपात्र को है, शेष पूरा सत्य ज्ञानी जानते है । कारण है | मल मूत्र की बाधा अनुभव हो तो आहार देते दोष लगे तो वह सामायिक का दोष है, सामायिक बाद में शुरू करनी चाहिए, बीच में मिच्छामि .दुक्कडं करना चाहिए । अचानक बन जाए तो निरवद्य स्थान पर परठनी
6) सामायिक कैसे करे ? यथा चाहिए, वोसिरे करके यदि 15-20 मिनट शेष रहते
1) भगवान की आज्ञा मानते 2) राग द्वेष हो तो इच्छाकारेणं, लोगस्स की पाटी करनी चाहिए
छोड़ते 3) मन वचन काय वश करके 4) विकथाएँ । यदि शरीर ऐसा कि अचानक ही बाधा बनती हो,
छोड़कर 5) इन्द्रिय वशकर 6) काय की यतना रोक न पाते हो तो इसका पहले ही आगार रख
करते 7) सप्ताह में सातो दिन 8) कर्म नाश के लेना चाहिए, नमो अरिहंताणं कहकर उठकर निवृत्ति
लिए 9) लेने पारने के 9-9 पाठ सहित सामायिक कर, जितना काल सामायिक छूटे वह और कुछ
करनी । पंच परमेष्टि, वंदन, सम्यक्त्व, गुरुगुण, प्रायश्चित रूप में इतनी सामायिक आगे बढ़ा लेनी
इच्छाकारेणं, तस्सउत्तरी, लोगस्स, करेमि भंते, चाहिए । यह सामान्य नहीं है, किन्हीं की विशेष
नमोत्थुणं आवश्यकता के कारण है। राजा चंद्रवतंसक के समान सामायिक में दृढ़ रहना चाहिए।
( नमो अरिहंताणं | जीव का उद्धार - 4) सामायिक का प्रायश्चित - सामायिक में गृह,
प्रतिदिन प्रातःकाल का संसारी कार्यों की ओर मन नही किया जाता | सुख
आवश्यक चिंतन दुःख के विशेष समाचार आने पर भी हर्ष शोक रहित समता रखी जाती है। बिना मुखवस्त्रिका
चतारि परमंगाणि, दुल्लहाणीह जंतुणो । के सामायिक करें तो ग्यारह सामायिक, जानते
माणुसत्तं सुइ सद्धा, संजमम्मि य वीरियं 4/1 || हए पहले पारे तो पांच सामायिक का प्रायश्चित
सूत्र उत्तराध्ययन । आता है । भूल से पारलें तो शेष समय का दुगना
अनादि अनंत चार गति संसार में परिभ्रमण कर स्वाध्याय करे या एक मुहुर्त आदि का पच्चक्खाण
रहे जीवों को चार परम् अंगो की प्राप्ति अति दुर्लभ करें। सामायिक में किसी जीव की हिंसा हो जाए, तो जितना इन्द्रियों वाला जीव हो उतनी सामायिक
है - मनुष्य का जन्म, जिणवाणी का श्रवण, जिणवाणी
पर श्रद्धा व जिणवाणी के अनुसार सुसंयम | और करनी अथवा अपने अपने क्षेत्र में जैसी परिपाटी चल रही हो उसके अनुसार करना।।
धन जन कंचन राज सुख, सबहि सुलभ कर 5) आहार दान - सामायिक करते समय मुनिजी
जान । दुर्लभ है संसार में, एक यथार्थ ज्ञान ||दुहा।। पधारें तो किसी की आज्ञा लेकर आहार दे सकते लब्भति विउला भोए, लब्भति सुर संपया । है, वरना नहीं । सुपात्र दान की भावना करते पहले
लब्भति पुत्त मित्तं च, एगो धम्मो ण लब्भइ ।।1।। ही इसका विशेष आगार व दान योग्य आहार की मर्यादा करके रखलें तो भी मेरे चिंतन से विशेष विपुल भोग । देव संपदा, पुत्र की प्राप्ति आसान है, कोई दोष नहीं होना चाहिए । आहार में न तो धन | परन्तु एक सत्य धर्म की प्राप्ति दुर्लभ है ।
Page #167
--------------------------------------------------------------------------
________________
दुल्लहे खलु माणुसे भवे, चिरकालेण वि चक्र व्यतीत कर सकता है । व एक ही मुहुर्त में वहाँ सब पाणिणं।
उत्कृष्ट 65,536 (पैसठ हजार पांच सौ छत्तीस) गाढ़ा य विवाग कम्मुणो, समयं गोयम मा
बार जन्म मरण कर सकता है । पमायए।। .
बेइन्दियकायमइगओ...। कालं संखिज्जसन्नियं... सूत्र उत्तराध्ययन ।
हे गौतम ! बेइन्द्रियकाय में गया हुआ जीव बहुत बहुत लम्बे काल में भी मानव भव का प्राप्त | बेडन्द्रिय के ही भिन्न भिन्न भेटों में भयंकर द:ख होना दुर्लभ है, क्योंकि प्राणियों के कर्मों के बंध | उठाता हआ संख्यात हजारों वर्षों तक जन्म मरण अति कठोर व उनके फल भी अति कठोर व दीर्घ |
करता रह सकता है । इसी प्रकार तेइन्द्रिय व हैं, इसलिए हे गौतम! इस मनुष्य भव में अब समय चउरिन्द्रिय के भेदों में भी क्रमशः इतना इतना मात्र का भी प्रमाद न करो । इस प्रकार भगवान काल व्यतीत कर सकता है। पंचेन्द्रिय काय (जलचर महावीर ने बहुत सुन्दर शिक्षा दी है कि जन्म मरण | मच्छ आदि), स्थलचर (गाय आदि), खेचर रूप संसार सागर से तारक व अनंत सर्व दुःख |
(चमगादड़ आदि), उरपरिसर्प (सर्प आदि), निवारक सत्य धर्म को प्राप्त करके, मनुष्यों को धर्म | भुजपरिसर्प (छिपकली आदि) में आ जाने पर वहां की आराधना में एक भी क्षण का प्रमाद नहीं करना निरंतर सात आठ जन्म कर सकता है एवं देव या चाहिए क्योंकि कर्मों के कठोर पर कठोर बंध करना | नरक में नारक बन जाने पर वहाँ एक एक जन्म कर तो अति आसान है, परन्तु इनको तोड़ना इतना ही | सकता है, इसके पश्चात फिर से तिर्यंच के भिन्न कठिन है । लोहे के बंधन तोड़ना आसान है परन्तु | भिन्न भेदों में ही वापस चला जाता है। आगे ज्ञानी कर्मों के बंधन तोड़ना कठिन है । अब जीव के
महात्मा जीव का उद्धार समझाते हैं - द्वारा कर्माधीन होकर किए जाने वाले अति लम्बे जन्म-मरण का स्वरूप कहते हैं ।
अपने ही अशुभ कर्मो के कारण जब यह जीव
त्रस पर्याय (बेइन्द्रिय....आदि) को छोड़कर स्थावर पुढ़वीकायमइगओ, उक्कोसं जीवो उ संवसे ।
पर्याय (पृथ्वीकाय आदि) वह भी वनस्पति काय में कालं संखाइयं, समयं गोयम मा पमायए ।।
चला गया तो शीत, धूप, प्रहार, शस्त्र, अग्नि, सूत्र उत्तराध्ययन ।
कुचलन, छेदन-भेदन, आदि के दुःख भोगता हुआ
अणंताणंत काल तक जन्म मरण की महापीडाएँ हे गौतम ! पृथ्वीकाय (पत्थर-मिट्टी) के रूप
प्राप्त करता रहा । इस प्रकार जन्म मरण करते में जन्म पा लेने पर यह जीव पृथ्वीकाय के ही भिन्न
हुए वनस्पति के अणंताणंत जीवों में से किसी भिन्न भेदों (प्रकारों) में जन्म मरण पर जन्म मरण
एक जीव ने किसी समय अल्पकाल में अधिक करता हुआ, असंख्यात् उत्सर्पिणी असंख्यात
दुःख भोगने पर हुई अकामनिर्जरा के साथ महापुण्य अवसर्पिणी काल अर्थात अंसख्य काल-चक्र तक
का संचय किया, तब वनस्पति में से निकलकर व्यतीत कर सकता है । इसी प्रकार अपकाय के
पृथ्वीकाय आदि चार स्थावरों में से किसी में जन्म समान ही तेउकाय (अग्नि), वायुकाय (हवा) के रूप
पाया तब एक दो उत्कृष्ट असंख्य जन्म मरण में भी जन्म मरण के भयंकर दुःख उठाता हुआ
करके वापस अणंताणंत काल के लिए वनस्पतिकाय असंख्य काल चक्र व्यतीत कर सकता है। और यदि
में ही लौट गया । फिर बहत लम्बे काल के बाद वनस्पतिकाय में एक बार चला जाए तो संख्यात
उद्धार के योग्य पुण्य का संचय होने पर स्थावर के नहीं, असंख्यात नहीं, अनंत नहीं, अणंताणंत काल
Page #168
--------------------------------------------------------------------------
________________
अन्य भेदों में आया, परन्तु और ऊँचा उठने में समर्थ न होने पर फिर से वापस वनस्पतिकाय में ही जा पड़ा, जहां से उसका उद्धार पहले के समान ही दुष्कर हो गया । इस प्रकार पांचो स्थावरों में यह जीव अणंताणंत बार जन्म मरण करता रहा जिसकी गणना भी अत्यंत दुष्कर है। किसी जीव
पृथ्वीका आदि में आने पर महापुण्य का संचय करके बेइन्द्रिय के भेदों में जन्म पाया, तो वहाँ भी एक दो उत्कृष्ट संख्यात हजार भव करके आगे तेइन्द्रिय तक आने में समर्थ न होने पर वापस वनस्पतिकाय में ही जा पड़ा। वहाँ अणंताणंत दुःख भोगकर फिर किसी समय उद्धार क्रम को प्राप्त कर तेइन्द्रिय अथवा चउरिन्द्रिय तक आकर फिर वापस लौट गया। फिर से नये उद्धार क्रम को प्राप्त होकर असन्नी पंचेन्द्रिय, और आगे बढ़ सका तो सन्नी पंचेन्द्रिय तिर्यन्च जलचर आदि भेदों में एक दो उत्कृष्ट सात-आठ जन्म करके वापस वनस्पति में ही जा पड़ा अथवा अशुभ क्रूर कर्म करने लगा, तब शीत, उष्ण, भूख, प्यास, रोग, भय, शस्त्र, अग्नि आदि के भयंकर दुःखों को भोगकर नरक में ही जा गिरा । वहाँ से निकलकर फिर से पंचेन्द्रिय तिर्यंच होकर इस प्रकार बार बार नरक की आग में ही पडता रहा, अणंताणंत दुःख प्राप्त करता रहा । कदाचित् आत्मिक परिणाम धारा देवगति के योग्य बनी तब असंक्लिष्ट परिणामों में काल करके भवनवासी, व्यंतर छोटी जाति का देव ही बनता रहा, इस प्रकार नरक और देव के भी अनंत जन्म पा लिए परन्तु मनुष्य भव के योग्य भद्रता, विनीतता, अनुकंपा, ईर्ष्या रहितता की परिणाम धारा नहीं बनने से वापस वनस्पति में ही जा पड़ा । पूर्व अनुसार फिर कभी उद्धार क्रम को प्राप्त हुआ, मनुष्य भव पाया तो वह भी अनार्य क्षेत्रों में, जहां दया रहित मांस भक्षण, हिंसा प्रधान कर्म करके अभागा जीव वापस उसी लम्बे जन्म मरण के महाजातिपथ प्राप्त हो गया । अति कठिनता से प्रबल पुण्योदय
144
से आर्यक्षेत्र में जन्म पाया तो भी कसाई आदि अनार्य कर्मी ही रहा। यदि दया वाले में जन्म कुल पाया तो भी अनंत जन्म मरण से उद्धार कराकर सुगति, केवलज्ञान, सिद्धि दिलाने वाली अनंत उपकारी जिणवाणी, सत्य धर्म से अछूता रहकर मिथ्याधर्मो की ही रूचि रखकर, मिथ्या मान्यताओं पर विश्वास करके, अनेक प्रकार के हिंसक कुकृत्य करके वापस वनस्पति में ही जा गिरा । अनंतानंत पुण्य के उदय से यदि जैन कुल में भी जन्म पाया तो भी धर्म से विमुख रहकर आर्तध्यान में ही काल कर गया, कभी जिणवाणी सुनने की रूचि बनी तो मार्ग से ही वापस लौट आया अथवा सुनते हुए मन नहीं लगाया, अथवा सो गया, सुना भी तो तत्वज्ञान न कर पाया। सत्य असत्य का निर्णय न कर सकने से श्रद्धा के योग्य परिणाम धारा न बन सकी, केवली भगवान के चिन्तामणि रत्न रूप धर्म को प्राप्त करके भी और आगे बढ़ने में समर्थ न होने से अनमोल मोती मानव के लिए कितना कितना दुष्कर है कि यहाँ तक यह जीव अणंत बार आकर वापस लौट गया। अब मुझे इस अनमोल मानव भवमें ऐसी श्रद्धा हुई - निर्ग्रन्थ प्रवचन ही सत्य है, यही अर्थ है, परमार्थ है, शेष सर्व अनर्थ है; जिण भगवान ने जो कहा है वह पूर्ण रूप से निशंक सत्य है, यह जिण प्रवचन (निर्ग्रन्थ प्रवचन ) सर्वोच्च, अद्वितीय, प्रतिपूर्ण, सत्य न्याय, पूर्ण विशुद्ध, आत्मा के कंटको का नाशक, सिद्धि व मुक्ति का संसार सागर तिरने का निर्वाण प्राप्ति का मार्ग है, जैसा वास्तव में होता है, वैसा ही प्रकट करता है, सर्व दुखों के अन्त का मार्ग है। मैं इसी धर्म की श्रद्धा प्रतीति रूचि स्पर्शना पालना करता हूँ। इस प्रकार सुदेव सुगुरू सुधर्म का बोध हुआ, अणंताणं पुण्य व परिणामों की विशुद्धि हुई, अणंताणंत सागरों तूफानों पर्वतों को पार कर अब श्रावक पर्याय बनी है। मेरे अमुक अमुक नियम व धर्म कार्य है और वृद्धि विशुद्धि कैसे करूँ ? इस सर्व का मूल्य समझ
Page #169
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्वधर्म की सम्हाल करूँ । धन्य होगा वह दिन जब
| ई) यदि केवल जोड़ने में ही लगे रहेंगे और छोड़ने आलोचना आराधना पूर्वक पूर्ण समाधि प्राप्त होगी,
की भावना नहीं है, तो जीवन का कल्याण सुगति प्राप्त होगी, केवल ज्ञान पाकर मेरी आत्मा
नहीं होने वाला है। अणंताणंत विस्तृत भव सागर को पार करेगी, जन्म यदि हम इस भव और पर भव में शांति की मरण के सब दुःखों का अंत कर भगवान महावीर,
कामना करते हैं तो जरुरी है कि हमारा जीवन भगवान ऋषभदेव व अनंत केवल ज्ञानियों के समान मर्यादित हो । सिद्धि के अनंत सुख में लीन होगी । पाप अरे ऊ) संसार में काम-मोह, माया, तृष्णा तथा क्रोध क्यों कर रहा, करता क्यों नहीं मौन ? नरक
के भँवर जाल में उलझकर, मानव प्रभु भक्त निगोद में चला गया तो धर्म सुनावे कौन ?
व साधना के मार्ग से भटक जाता है । जो परमाधामी मारेंगे, एक नहीं लख बार | कौन बचावन
इनके आकर्षण में डूब जाता है, उसके लिए आवेगा, होगा तब कर्म सवार । जिणवयणे अणुरत्ता
भव सागर से पार निकल पाना मुश्किल हो सूत्र उतरा - जिन वचनों मे लीन, भव सागर
जाता है। क्षीण।
ए) ईर्ष्या के कारण आदमी अपने स्वयं के गुणों
को भूल दूसरों के दुर्गुण देखने की वृत्ति बना - अवश्य ही इस आत्मा ने पूर्व काल में अणंत लेता है, इससे दूसरों को लाभ हानि हो न हो बार सेठ मंत्री राजा होकर बहुत धन जेवर रत्न पर स्वयं तो अपना बुरा अवश्य कर लेता है । वाहन बड़े बड़े महल प्राप्त किए बहुत बहुत मित्र ऐ) सत्संग का सही आनन्द एकाग्रता में है। चंचल परिवार यहाँ तक के देवलोक के भी विमान, रत्न चित्त से सत्संग का सही आनंद नहीं मिलता सुन्दर देह सुख भी अनंत बार प्राप्त किए परन्तु प्रत्येक बार दुःखी होकर मरण समय सब छोड़ ओ) प्रभु से प्रार्थना में सुख दो, संपत्ति दो, लाभ दिए, अवश्य ही सर्व संसार व मोह असार है। दो ऐसी याचनाओं से भक्ति की सुगंध नहीं सूत्र उतराध्ययन में कहा है - जिन भगवान की | बल्कि लोभ व स्वार्थ की बदबू आती है। शिक्षाओं, वचनों को आगम से जानकर उनके विचारों की विषमता को मिल बैठकर सुलझाया अनुसार स्वाध्याय व पालन में लीन रहने से आत्माएँ जा सकता है, परन्तु इसके लिए त्याग की संक्लेशों से रहित शुद्ध परिणामी होकर अपना मंशा व समन्वयवादी विचार होना जरुरी है। संसार परित (सीमित) कर लेती है व एक दिन ज्ञान की जानकारी के बिना हमारे सारे कार्य पूरा भव सागर पार कर जाती है।
अर्थहीन होते हैं, क्योंकि ज्ञान से ही भाव
उठते हैं, एवं मन के भावों से ही उत्थान व __ अमृत वृद्धि झरना
पतन होता है। अ) बच्चों में बचपन से ही सुसंस्कार डालने की ( सूर्यों के सूर्य - भगवान महावीर ।
अत्यंत आवश्यकता है। आ) तभी वे धर्म और कर्म को अच्छे से पहचान
ज्ञान दिवाकर । लोक प्रभाकर । भवजल सकेंगे।
तारक । सबदुःख निवारक | भगवान महावीर इ) जगत के सभी जीवों को अपनी आत्मा के | उग्गओ विमलो भाणू, सव्वलोय पभंकरो । समान ही देखना, सम्यक दर्शन है।
सो करिस्सई उज्जोयं, सब लोयम्मि पाणिणं ।।
Page #170
--------------------------------------------------------------------------
________________
उग्गओ खीण संसारो, सव्वण्णू जिण भक्खरो । सो करिस्सइ उज्जोयं, सव्व लोयम्मि पाणिणं ।। उत्तराध्ययन सूत्र |
जिन्होनें अपनेसंसार परिभ्रमण का सर्वथा अंत कर दिया है, राग द्वेष के विजेता, सर्वलोक में अपनी ज्ञान दर्शन चारित्र तप की प्रभा को फैलाने वाले वीतराग तीर्थंकर भगवान रूपी सूर्य का उदय हो गया है; हे श्रमण भगवान महावीर सर्व द्रव्यों, सर्व क्षेत्रों, सर्व काल, सर्व भावों के ज्ञाता, सर्वज्ञ, सर्व मल से रहित पूर्ण विशुद्ध प्रकाश से सर्व लोक के प्राणियों के लिए सत्य धर्म का, सत्य मार्ग का उद्योत करेंगे । ऐसे सुन्दर भाव उत्तराध्ययन सूत्र के 23 वें अध्ययन में केशीकुमार जी आदि श्रमणों को गौतम स्वामीजी द्वारा कहे गए है।
चैत्र शुक्ला त्रयोदशी के शुभ दिन भरतक्षेत्र के कुण्डलपुर में राजा सिद्धार्थ के में माता कुल त्रिशला को लोकमाता कहलाने का अलंकार दिलाते हुए, लोक कल्याणकारी तीर्थंकर नाम कर्म रूपी महापूंजी के साथ श्रमण भगवान महावीर रूपी महासूर्य का जन्म हुआ । सब जीव अपनी अपनी, साता सुख के इच्छुक हैं, सब अपनी अपनी दया चाहते हैं; बड़े होने पर लोक में दया का महा उपदेश करेंगे, ऐसी भावना के साथ तीनों लोकों के सभी 64 इन्द्र व बहुत देव देवियों ने खिले हुए विकसित अत्यंत प्रसन्न हृदय से भगवान को मेरू पर्वत के शिखर पर ले जाकर उनका जन्म महोत्सव मनाया । जब से भगवान राजा सिद्धार्थ के कुल में आए तब से सब प्रकार से धन सुख साता की सब प्रकार से वृद्धि हुई, जिसके कारण माता पिता ने उनका गुणानुसार नाम रखा वर्धमान । वर्धमान वास्तव में ही वर्धमान थे, जन्म से ही मति श्रुत व अवध तीन ज्ञान के धारी थे। चंद्र की बढ़ती कलाओं के समान वर्धमान की देह व आत्मिक गुण निरंतर
वृद्धि को प्राप्त होते होते वे एक दिन पूर्णमासी के पूर्ण चंद्र हो गए । बचपन से ही वे विशिष्ट गुणों वाले थे, विद्यालय के अध्यापक बालक वर्धमान की ज्ञान व गुण प्रतिभाओं को देखकर स्वयं को अति अल्प अनुभव करते थे । वर्धमान किसी भी देव दानव मानव से भयभीत नहीं होते थे, एक बार बालकों के साथ खेलते हुए सर्प का रूप बनाकर आए हुए एक देव को चतुराई से हाथ से ही उठाकर एक ओर डाल दिया, बालक का रूप बनाकर देव ने वर्धमान को पीठ पर बिठाकर अपना बहुत बड़ा रूप कर लिया, तब वर्धमान ने उसके सिर पर मुष्टि का प्रहार करके देव को अपनी करतूत छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया । बढ़ते बढ़ते वर्धमान जब 28 वर्ष के हुए तो माता पिता आलोचना प्रतिक्रमण सहित संथारा करके 12 वें देवलोक में देव बने ( अगले जन्म में महाविदेह क्षेत्र में जन्म पाकर फिर से धर्माचरण करके सिद्ध हो जाएंगे ) अब वर्धमान दीक्षा लेना चाहते थे कि भाई के कहने से और 2 वर्ष तक घर में ही रहे । तब वैराग्य की उच्च भावनाओं से युक्त हुए वर्धमान ने जल के अपकायिक जीवों को अपने ही समान पीड़ा का अनुभव करने वाले जानकर घर में 2 वर्ष के लिए सचित्त जल का सेवन नहीं किया । वर्षी दान देकर, लोकान्तिक देवों द्वारा जगत के सब जीवों के हित के लिए, तीर्थ प्रवर्तन की परम्परा रूप सुप्रेरणा किए जाने पर, देवों द्वारा मनाए जाते हुए महोत्सव सहित, पंचमुष्टि लोच करके भगवान ने दीक्षा धारण कर जीवन श्रेणी के अगले पाए पर आरोहण किया । संयम में भगवान प्रायः कायोत्सर्ग की साधना में ही लीन रहते थे । मैं निद्रा हूँ, ऐसी भावना से रहित, अति उच्च साधना करते हुए डाँस मच्छर, शीत, उष्ण, भूख प्यास, सर्प चंडकौशिक, शूलपाणि यक्ष, ग्वाला, अनार्य लोगों द्वारा अनेक परीषह उपसर्गों को समता की उच्चता के साथ सहन
146
Page #171
--------------------------------------------------------------------------
________________
करते हुए साढ़े बारह वर्ष की साधना से एक दिन | सुगति व मोक्ष प्राप्ति के मार्ग पर अग्रसर होकर भगवान ने चिरवांछित केवल ज्ञान केवल दर्शन | सत्य अर्थ में सुरक्षित हुए । भगवान का संघ जीव प्राप्त कर लिया, उनकी आत्मा ज्ञान प्रकाश से दया व ज्ञान दर्शन चारित्र तप में अग्रणी 50,000 सूर्य समान चमक उठी; तब भगवान लोक अलोक | साधु - साध्वियों 4,77,000 श्रावक श्राविकाओं से के सर्व पदार्थों व भावों के पूर्ण ज्ञाता हो गए। | सुन्दर सुशोभित एवं विशाल था । सत्य है, धर्म तीर्थंकर नाम कर्म का उदय होने से भगवान 34 | है, उपदेश व प्रचार विहार में महापराक्रमी सिंहो के अतिशय 35 वाणी के गुणों से सम्पन्न हुए । देवों सिंह थे तो भगवान महावीर, सर्व लोक में सत्य द्वारा रची गई अनुपम समोसरण में भगवान ने देव ज्ञान का प्रकाश करने वाले व सैंकड़ो नए केवल मानव तिर्यंचों की परिषद में सत्य धर्म का महा ज्ञानी रूपी सूर्यों का निर्माण करनेवाले सूर्यों के भी उपदेश किया । भगवान की तत्व ज्ञान प्रकट करने सूर्य थे, तो भगवान महावीर, शील, क्षमा, संतोष, की उपदेश कला सर्व लोक में अद्वितीय थी । “सव्व गंभीरता आदि सच्चे गुण रत्नों से भरपूर सागरों में जगजीव रक्खणदयट्टयाए पावयणं भगवया
महासागर समान थे। उनके जीवन से प्रेरणा पाकर सुकहियं.."|| प्रश्न व्याकरण सूत्र | “जगत के सब आज हम भी सब जीवदया में, अग्रणी बनें । जीवों की रक्षा दया के लिए भगवान ने प्रवचन माँस, अण्डे शराब जैसे गंदे पदार्थों के दढ त्यागी कहा; सब जीव कीड़ी हो या हाथी, वनस्पति हो
बनें, माँस आदि मिलावट वाले पदार्थ काम में न या मानव, देव हो या दानव एक समान रूप से
लें, जुए, शिकार, चोरी पर स्त्री गमन जैसे कुव्यसनों जीवन के अभिलाषी है, सब जीव जीना चाहते
से कोसों दूर रहें, त्रस जीवों की संकल्पी हिंसा व है, कोई मरना नहीं चाहता, इसलिए किसी भी
अनर्थ दण्ड के दृढ़ त्यागी बने, 14 नियम, जीव को न मारना चाहिए, न ही दुख देना चाहिए,
सामायिक, संवर, पौषध, रात्रि भोजन व सचित सबको अपने अपने आयु प्राण जीवन प्रिय है" |
जल वनस्पति व अब्रह्मचर्य के त्याग सहित अनेक भगवानं ने पांच महाव्रत रूप अखण्ड मोती साधु
तपस्याएँ व ज्ञान आराधनाएँ करें, मांसाहार परोसे धर्म का व अपनी अपनी शक्ति अनुसार अल्प
हुए बर्तनों का भी जीवन भर त्याग करें और अनेक अधिक ग्रहण करने योग्य स्वर्ण समान 12 व्रत रूप
नियम धारण कर श्रावक धर्म, साधु धर्म को उच्च “श्रावक धर्म" का उपदेश किया । भगवान के समीप
स्थान पर स्थापित करें। भगवान महावीर के उपदेश सिंह, बकरी, सर्प, नेवला, बाज, कबूतर भी सर्व
सुनकर राजा श्रेणिक ने राजगृही में सर्व पशु पक्षी वैर भय से रहित होकर धर्म श्रवण करते थे व
वध पर रोक लगा दी थी । इस युगमें आज भी अनेक व्रत नियम पालते थे। इस प्रकार जीव दया
सारे कसाई खाने बंद हो, देश परदेश में सर्व पशु के महा उपदेश से जीवों की महादया हुई व जीव
पक्षी वध पर पूर्ण अमारि लागू हो, छोटे प्राणियों दया का पालन करने वाले अपने अपने कर्म क्षय
की भी दया हो । करते हुए सच्चे सुख शान्ति समाधि के मार्ग पर ।
किसी की निंदा नहीं करना, किसी की चुगली नहीं करना। किसी को गाली नहीं देना, किसी से झगड़ा नही करना।
शांति सुख को पाना हो तो धर्म ध्यान करना।। स्थाई।।
Page #172
--------------------------------------------------------------------------
________________
( विचित्र प्रश्न
कारण सुबाहु कुमार को ऐसी रिद्धि प्राप्त हुई है । हे
भगवान ! क्या सुबाहु कुमार आप देवानुप्रिय के तए णं से भगवं गोयमे... समणं भगवं चरणों में दीक्षा धारण करेगा? हाँ गौतम! सुबाहु महावीरे... वंदइ नमसइ... विणएणं... एवं वयासी कुमार गृहवास का त्याग करके दीक्षा धारण करेगा इह भविए भंते । णाणे परभविए णाणे तदुभय | बहुत वर्षों तक श्रमण पर्याय का पालन करके भविए णाणे? गोयमा! इहमविए विणाणे परमविए सुबाहु कुमार अंत में काल धर्म को प्राप्त हुए । तब वि णाणे तदुभय भविए विणाणे | इन्द्रभूति गौतम गौतम स्वामीने भगवान महावीर को वंदना की और भगवान ने श्रमण भगवान महावीर को वंदना नमस्कार पूछा - हे भगवान ! सुबाहु कुमार मुनि काल करके किया और विनय पूर्वक हाथ जोड़कर इस प्रकार कहाँ उत्पन्न हुए? हे गौतम! सुबाहु कुमार आलोचना पूछा - हे भगवान ! ज्ञान क्या इस जन्म में होता है प्रतिक्रमण सहित संथारा करके काल धर्म को प्राप्त - हे गौतम ! ज्ञान इस भव में होता है, अगले भव होकर पहले देवलोक सौधर्म कल्प में उत्पन्न हुआ में भी होता है, और भी अनेक भवों में होता है। ... है । वहाँ सुखपूर्वक अपनी आयु पूरी करके फिर भगवती सूत्र । इस जन्म में प्राप्त हुआ ज्ञान अगले मनुष्य बनेगा । फिर से धर्म की आराधना करके जन्म में व आगे और भी जन्मों में उदय में आता सनत्तकुमार नामक तीसरे देवलोक में उत्पन्न होगा, है, जिससे जीव का मार्ग दर्शन बना रहता है इस प्रकार अनेक बार मनुष्य देव के भव करते हुए 5 और वह ज्ञानी आत्मा संसार में भटकता नहीं । वे, 7वे, 9वे, 11वे, 26वे देवलोक में उत्पन्न होगा, श्रमण भगवान महावीर के चरणों में सुबाहु कुमार इस प्रकार अनेक बार मनुष्य जन्म पाकर धर्म के द्वारा श्रावक धर्म ग्रहण करके जाने के बाद गौतम आराधना करके केवल ज्ञान प्राप्त करके सिद्ध हो स्वामी जी ने भगवान को वंदना करके पूछा - हे जाएगा। विपाक सूत्र | सातवें देवलोक से दो देव भगवान! सुबाहु कुमार इष्ट प्रिय रूप वाला है, चित्त भगवान के पास आए, मन से ही वंदना की, मन से को आनंद देने वाला है, साधुजनों के चित्त को भी ही प्रश्न किया । भगवान ने मन से ही उत्तर दिया प्रसन्न करने वाला है, इसने ऐसी रिद्धि कैसे प्राप्त । यह सब देखकर गौतम स्वामीजीने भगवान से की ? पूर्व जन्म में यह कौन था ? इसने कौनसा देवों की जिज्ञासा जाननी चाही तो भगवान ने कहा उत्तम कार्य किया था ? श्रमण निर्ग्रन्थो से क्या एक | - वे देव स्वयं ही तुम्हारे पास आकर कहेंगे । तब भी आर्य वचन सुनकर मन में धारण किया था ? दोनों देव गौतम स्वामीजी के पास आए, वंदना जो यह ऐसी उत्तम सिद्धि से सम्पन्न हुआ है? तब करके कहा - "हमने भगवान से इस प्रकार पूछा, भगवान महावीरने कहा - हे गौतम ! सुबाहु कुमार आपके कितने शिष्य केवल ज्ञान प्राप्त करेंगे ?" पूर्व जन्म में सुमुख नाम का गाथापति समृद्ध तब भगवान ने फरमाया - “मेरे सात सौ शिष्य गृहस्थ था । इसने मास खमण के पारने के लिए केवल ज्ञान प्राप्त कर केवली होंगे' | भगवती सूत्र पधारे सुदत्त नाम के अणगार को प्रिय भाव से मन | । गौतम स्वामीजी के भ्राता दसरे गौतम अग्निभति वचन काय की शुद्ध प्रवर्तना करते हुए हर्ष के साथ अणगार ने श्रमण भगवान महावीर को वंदना नमस्कार निर्दोष आहार का प्रतिलाभ दिया था, तब इसने | किया और पूछा - हे भगवान ! भवनवासी देवों में
अपने अनादि संसार परिभ्रमण को सीमित कर | असरकमारों का इन्द्र असुरराज चमरेन्द्र कितने लिया और अगले जन्म के लिए मनुष्य आयु का | नए नए रूप बना सकता है ? “हे गौतम! चमरेन्द्र बंध किया, देवों ने भी तब पंचवृष्टि की । इस । असुरराज असंख्य योजनों का क्षेत्र, असंख्य रूप
Page #173
--------------------------------------------------------------------------
________________
बनाकर एक ही बार में भर सकता है, इतनी उसकी ऐसा आश्चर्यकारी विचित्र होता है, शक्ति है, परन्तु उसने इतना कभी नहीं किया वह
। केवली भगवान का केवल ज्ञान एक लाख योजन का गोल क्षेत्र एक दूसरे के साथ जुड़े हुए, बहुत रूपों से भरता है" | भगवती सूत्र । ऐसा कोई भी रहस्य नही, गुप्त भाव नहीं, हे भगवान ! ज्ञान कितने प्रकार का होता है? हे जो केवली भगवान के ज्ञान में प्रकट न हो । सब गौतम! ज्ञान पांच प्रकार का होता है 1) अभिनिबोधक
जीवों के उत्पति स्थानों, आयु, जीवन, मन के ज्ञान (मतिज्ञान) 2) श्रुत ज्ञान 3) अवधि ज्ञान 4)
सब भावों को जानने वाले, लोक के भीतर व लोक मनःपर्यव ज्ञान 5) केवल ज्ञान । भगवती सूत्र । हे
| के आर पार के भी सब पदार्थो को सर्व जानने भगवान ! वनस्पति कितने जीवों वाली होती है? - वाले, सर्व भूतकाल, वर्तमान काल, सर्व भविष्य "हे गौतम! वनस्पति तीन प्रकार की होती है - 1) काल जानने वाले, पूर्व जन्म, भविष्य के जन्म, संख्यात् जीवों वाली 2) असंख्यात जीवो वाली 3)
सबके सब कर्मो के भिन्न भिन्न फल बताने में अनंत जीवों वाली । “हे भगवान! वायुकाय के जीव
समर्थ होते है, केवली भगवान ! जिनके सर्व वचनों बड़े होते है या पृथ्वीकाय के"? “हे गौतम! पृथ्वीकाय
में अंश मात्र भी भूल की सम्भावना नहीं होती, सर्व के जीव वायुकाय के जीवों से असंख्य गुणा बड़े
वचन पूर्णतया व्याकरण से शुद्ध, आश्चर्यकारी शैली होते है" | "हे भगवान! एक अंगुल मात्र मिट्टी में
में प्रश्नकर्ता व श्रोताओं की समझ में आसानी से पृथ्वीकाय के असंख्य जीव होते है" | "हे भगवान, आ सकने वाले होते है, ऐसे मधुरभाषी, हितभाषी, खोदने-पीसने पर वे कैसी पीड़ा का अनुभव करते कल्याणभाषी होते है, केवली भगवान जो प्रश्नकर्ता है? हे गौतम! कोई बलवान पुरूष जीर्ण शरीर वाले
के पूछने से पहले ही उसका प्रश्न व उत्तर कहने में वृद्ध पुरुष के मस्तक पर मुक्के से तीव्र प्रहार करे, समर्थ होते है। ऐसे विचित्र प्रश्नों, उत्तरों, ज्ञान तो जैसी पीड़ा उस वृद्ध पुरूष को होती है, ऐसी ही
का विचित्र संग्रह है आगम, जिनकी गणधर भगवंतो पीड़ा पृथ्वीकाय आदि जीवों को होती है । भगवती
ने विशिष्ट लब्धियों से युक्त होकर भगवान महावीर सूत्र ।
के वचनों का, वचन-रत्नों का संग्रह करके रचना
की । उन्हीं श्रमण भगवान महावीर ने दर्शाया, सूर्याभ देव ने भगवान महावीर के चरणों में आकर
सृष्टि का रचयिता कोई नहीं है । सभी पदार्थ वंदना की और पूछा - "हे भगवान! मैं सौधर्म देवलोक
अपने अपने स्वभाव के अनुसार उत्पन्न होते है, का सूर्याभ देव भव्य हूँ या अभव्य? सम्यग दृष्टि हूँ
व्यय होते है, सदा काल रहते हैं। इस प्रकार सभी या मिथ्यादृष्टि? एकाभवतारी हूँ अथवा अनेक
पदार्थ अनादि अनंत है । केवली का ज्ञान अनंत भवतारी अथवा अणंत संसारी?" - "हे सूर्याभ |
,लोक के पार है, महा मति भंडार है, सागर तुम भव्य हो, सम्यग् दृष्टि हो, एक ही जन्म मनुष्य
अपार है, रत्न भंडार है, शुद्ध अपार है, सार ही का पाकर सिद्ध हो जाओगे? राजप्रश्नीय सूत्र । “हे
सार है, सत्य अपार है, सर्व संवार है । सत्य है भगवान! अशुभ भावनाओं वाले पक्षी कौन सी नरक
भगवान | आप जैसे महाज्ञानी, महासरल, तक और शुभ भावनाओं वाले पक्षी कौन कौन से
महासत्यधारक, महाकुशल, महालब्धिधर, देवलोक तक जा सकते हैं"? “हे गौतम! अशुभ
महाहितकारी, महाकल्याणकारी की समानता करने भावों वाले पक्षी मरकर तीसरी नरक तक उत्पन्न
वाला, इस लोक में कोई दूसरा कहाँ ? आपके हो सकते है और शुभ भावों वाले उच्च आठवाँ
विश्वासी का तो अवश्य ही भव सागर पार है। देवलोक तक जा सकते है प्रज्ञापना सूत्र । ।
भूल मि. दु तत्व केवलीगम्य
Page #174
--------------------------------------------------------------------------
________________
पशु कौन? मानव कौन? | समाधि की इच्छा तक न की, अनुकंपा दया, विनय
सेवा, क्षमा, सरलता, संतोष, सत्य, सत्यधर्म, दुल्लहे खलु माणुसे भवे - बहुत दीर्घ, बहुत
केवली वाणी, नियम व्रत तपस्या, ज्ञान आराधना, विस्तृत बहुत दूर, बहुत लम्बे रेगिस्तान में, वन
दर्शन व चारित्र आराधना की, आत्म विकास की, में, सागर में अनादि काल से इस जीव ने कभी भी
इच्छा, रूचि,प्राप्ति, बुद्धि सोच तक न की, जन्म सुखकारी विश्राम नहीं पाया, ज्ञान रहित, गुण
जन्म में इन सर्व गुणरत्नों से रहित पशु समान रहित,मोह अंधकार में ही भटकते हुए, अनंत जन्म
मोह, लोभ, नाच, गाने, स्वाद, सुगंध, सैर यात्रा पाए, अनंत बार मरण पाए, रोग भूख प्यास प्रहार
प्राप्त होते ही उधर ही उधर बिना पैंदे के लोटे अग्नि शीत ताप संताप आदि दुखों की ही आग में |
समान लुढ़कता रहा । अंश भी भूख, प्यास, रोग, जलता रहा; अनंत काल में भी अनंत जन्म मरण
पीड़ा,कटुवचन, अपमान को सहन न कर शीघ्रता, करके भी मनुष्य का जन्म पाना कठिन है, उसे भी
उतावलेपन, छीना झपटी, हिंसा, निंदा, वैर, कलह, पाकर कभी भी दुःखो का अनुभव करते हुए दुःखों
युद्ध भाव से युक्त होकर मानव की देह पाकर भी के कारणों की ओर बुद्धि का विचार न हुआ, पहले | मानवीय गणों से रहित हआ गली गली में पर्वतो समान सी सुखदायी लगने वाले, परन्तु महादुखदायी
वनों सागरों में घूमने भटकने वाले सर्वथा शरण मोह के प्रवाह में नदी के जल में काष्ठ के टुकड़े के रहित पशपक्षियों सर्पो, जल के मच्छ, 'आदि समान, बहते हुए दुर्लभ मोती समान, सर्व मनुष्य
प्राणियों के समान, वही वही अशुभ घृणित प्रवृत्तियाँ जन्म व्यर्थ गवाँ दिए । ग्रीष्म ऋतु में धूप काल में
करता रहा, जिनका कि अंत आना अतीव अतीव प्यासे मगों को जल का भ्रम कराने वाली मुग
कठिन दुष्कर है । लज्जा आदि सुगुणों से रहित मरीचिका के समान यह जीव महाभ्रमकारी मोह
धर्म के उत्तम गुणों से रहित हुआ, पाप पर पाप, सागर से कभी बाहर निकलकर वास्तविक जल
कर्म पर कर्म का संचय करता हुआ, पाप कर्मों के युक्त तालाब रूप सच्चे सुखकारी ज्ञान को, गुणों
भारी-अतिभारी, लोहे, सीसे से भी अनंतगुणा भारी, को न जान पाया । न देख पाया, न ही अनुभव कर
गठरी को सिर पर उठाकर, महाभार के नीचे पिचका पाया । कितना गहरा है, यह मोह अंधकार मोह
हुआ, दबा हुआ, मसला रगड़ा जाता हुआ, मानव सागर? इसने जीव को सदा ही अंधकार के गर्त में
के अनमोल मोती समान, स्वर्ण, हीरे, रतन समान, फैका है, एक भी रोशनी की किरण तक नहीं दिखने
इनसे भी अनंत गुणा अधिक कीमती जन्म को खोकर, दी । “चढ़ उत्तंग जहां से पतन, शिखर नहीं वो
पशु पक्षी, कीड़ा मकोड़ा, मच्छ कच्छ, पृथ्वी पानी कूप | जिस सुख अन्दर दुःख बसे वो सुख भी
वनस्पति आदि के जन्म पर जन्म पाता रहा । दुःख रूप" || “मोह अज्ञान मिथ्यात्व को भरयो
अग्नि महाग्नि, तलवार आदि शस्त्र, प्रहार, रोग अथाग । वैद्य राज गुरू शरण से, औषध
मांसउतारना, कैद, भूख प्यास शीत लू आदि के वे ज्ञान वैराग' || आत्मिक रूप से दृष्टि रहित अंधता,
दःख बार बार अणंतबार पाता रहा | “जावन्त अंधकार, अपंग अवस्था, कैद, भुलभुलैया, भ्रम,
अविज्जा पुरिसा, सब्बे ते दुःख संभवा...||" भटकाव, मृग मरीचिका, लक्ष्य रहितता को प्राप्त
“जे केई सरीरे सत्ता..सब्वे ते दुक्ख संभवा" || हुए इस जीव ने कभी भी शील की सुगन्ध, स्वच्छता,
अज्ञानी जीव, देह के कार्यो, वर्ण आदि में आसक्त शील की सुन्दरता पवित्रता, शील की शान्ति सुख
जीव इस संसार में सब प्रकार के दुःखों, अति तीव्र
Page #175
--------------------------------------------------------------------------
________________
दुःखों को प्राप्त होते रहते है । ।।सूत्र उत्तराध्ययन | अगले जन्म में केवल ज्ञान पाकर सिद्ध हो जाएंगे। ।। तीर्थंकर भगवान महावीर के सर्व दुखान्त कारी, | नंदन मणियार सेठ ने भगवान महावीर से धर्म सर्व सुखकारी धर्म को प्राप्त करके भी मोह रूचि | सुनकर श्रावक के व्रत ग्रहण किए, परन्तु भगवान, वाले होकर, प्राप्त होते गुणों का आदर न कर, | साधु, नियम, धर्म सब भुला दिए | काल करके उत्पन्न हुए गुणों का भी त्याग कर, दूसरों को भी | अपनी ही बावड़ी में मेंढक बने, पूर्व जन्म याद ऐसी ही प्रेरणा कर, लज्जा शील विनय अनुकंपा आया, तीव्र पश्चाताप हुआ फिर से शील दया संतोष दया को छोड़, पशु भाव की वृद्धि करते हुए, क्षमा सम्बन्धी उनके व्रत धारण कर बेले बेले की बिना सोच लक्ष्य के लुढ़कते हुए, उत्तम कुलों में, तपस्या शुरू कर दी । घोड़े के पांव से घायल हो तीर्थंकर भगवान के अनुयायी अति दुर्लभ कुलों में जाने पर, वहीं से भगवान को वंदना कर संथारा जन्म पाकर भी, उनकी कीमत न समझ आज कर लिया, काल करके पहले देवलोक में देव बने, बहुत सारे बाल युवा वृद्ध अपने हीरा जन्म को अगले जन्म में मानव भव पाकर, केवल ज्ञान की व्यर्थ गंवाते हुए स्पष्ट दिखाई देते है। देवता भी - ज्योत जलाकर, सिद्ध हो जाएंगे | मेघ कुमार के देवलोक में इच्छा करते है - श्रावक कुल में जन्म | जीव ने हाथी के भव में बहुत प्राणियों की आग से को पाऊँ, जिणवर का शुद्ध सत्य धर्म । केवल । रक्षा की, एक खरगोश की रक्षा करते हुए अपने ज्योत जलाऊंगा निज में, तोड़ के जन्म जन्म के प्राण त्याग दिए, राजा श्रेणिक के पुत्र बने, सब कर्म ।। कहाँ आज के मानव जो पशुता की ओर सुख पाए, भगवान महावीर के पास दीक्षा ली, पूर्व बढ़ते हुए, शीघ्रता से शील की लाज आदि उत्तम जन्म का भी स्मरण हुआ, संथारा करके 22 वे गुणों का आदर न करते हुए अपना जीवन व्यर्थ देवलोक में देव बने, अगले जन्म में मनुष्य बन गंवा रहे है ? और कहाँ वे पशु, सर्प, मेंढक, हाथी केवल ज्ञान प्राप्त कर लेगे । भगवान पार्श्वनाथ का आदि के जन्म पाए हुए, मानवीय गुणों में भी विशिष्टता जीव मरूभूति के भव में श्रावक थे, भाई के हाथों को प्राप्त हुए चण्डकौशिक, नंदन मणियार, मेघ मृत्यु हुई, आर्त ध्यान के कारण वन में हाथी बनना कुमार, भगवान पार्श्वनाथ का जीव मरूभूति से पड़ा। हाथी ने अवधि ज्ञानी मुनिजी से धर्म सुना, अगले हाथी भव में धर्म की उत्तम आराधनाएं कर | पूर्व जन्म याद आया, शील, दया, संतोष, क्षमा दुर्गतियों के मार्ग बंद कर सुगतियों को प्राप्त हुए | संबंधी अनेक व्रत नियम धारण किए, काल करके जीव? पूर्वजन्म में साधु होकर क्रोध में काल करने | आराधक होकर आठवें देवलोक में देव बने । और से गति बिगड़ गई, वन में दृष्टि विष सांप का जन्म | भी बहुत सारे पशु पक्षी भगवान महावीर से धर्म पाया, भगवान महावीर का सम्पर्क पाकर सुन सुनकर मानवों से भी विशेष गुणों वाले हुए | महाक्षमावान हो गए, मेरी आंखो से किसी को | धन्य है, ये सब जिन्होंने मोह, पाप, दुःख रूपी जहर न चढ़ जाए? बिल में ही मुख डाल लिया, | कीचड़ दलदल से भरे विस्तृत संसार सागर को चींटीयाँ शरीर खाती रही, हिले तक नहीं, कहीं | पार किया और कितना लज्जा जनक है आज कोई चींटी न मर जाए ? 15 दिन तक पीड़ा सहन | उत्तम कुलों में जन्मे मानवों का, उसी दलदल से की, मृत्यु हो गई, पांचवे देवलोक में उत्पन्न हुए, | भरे संसार सागर में डूबते जाना ?
प्रीति कोई लेन देन की चीज नहीं है, वह तो अनुभूति का आस्वाद है।
Page #176
--------------------------------------------------------------------------
________________
गुणस्थान-गणित
(11,12), 4) मिथ्यादर्शन वत्तिया क्रिया में
(1,3), 5) विकलेन्द्रिय व असन्नी पंचेन्द्रिय यह सर्व लोक संख्यात नहीं, असंख्यात नहीं, __ में (1,2)। अणंताणंत प्राणियों का विशाल अति विशाल भण्डार
तीन - वाट वहता जीव में (1,2,4) 2) समदृष्टि है जो कि समुद्र में जल के समान व धरती में मिट्टी
तिर्यंच में (2,4,5), 3) क्षीण कषायों में के समान, जीवों से ठसाठस भरा हुआ है । सर्व
(12,13,14)4) सयोगी यथाख्यात् चारित्री लोक का एक भी प्रदेश, सई की नोक के असंख्यात्वाँ
में (11,12,13) 5) अमर गुणस्थान (जिनमें भाग जितना सूक्ष्म स्थान भी जीव से रहित नहीं है
जीव काल नहीं करता) (3,12,13), 6) | अवश्य तीर्थंकर भगवान ने अपने सूर्य समान
उपशम व क्षपक दोनों सकषायी श्रेणियों के केवल ज्ञान में जिसका दर्शन किया है, वह जीव
(8,9,10), 7) अप्रमत सवेदि में (7,8,9), समूह, जीव-लोक छदमस्थ व्यक्ति के लिए एक
8) अपर्याप्त में (1,2,4) 9) एकांत महा आश्चर्य है । सम्पूर्ण लोक में जितने भी जीव हैं
अप्रतिपाति में (12,13,14) एवं । उनमें कोई सम्यग् दृष्टि है तो कोई मिथ्यादृष्टि, कोई साधु है तो कोई श्रावक, कोई अविरत है तो
चार - अविरत (अप्रत्याख्यानी) में (1,2,3,4, 2)
अकषायी में एवं यथाख्यात चारित्री में (11कोई असाधु, कोई प्रमादी है तो कोई अप्रमादी, कोई सकषायी, समोही है तो कोई अकषायी अमोही,
14), 3) उपशम श्रेणी में (8-11), 4) क्षपक कोई सवेदी है तो कोई अवेदी, कोई छद्मस्थ है तो
श्रेणी में (8,9,10,12), 5) देव व नारकी कोई केवली । सर्व जीव समूह तो उनके उपरोक्त
में (1-4), 6) सामायिक चारित्री में (6-9) गुणों के आधार से समझने के लिए तीर्थंकर भगवान
7) क्षयोपशम समकित में (4-7), एवं । महावीर ने “चौदह जीव-स्थान' कथन किए । इन्हीं | पाँच - साधु चारित्र के आराधक में (1-5), 2) चौदह जीव-स्थानों को चौदह गुणस्थान भी कहा
श्रेणी में (8-12), 3) शाश्वत गुणस्थान जाता है । अनेक पुस्तकों में इनका विस्तार पूर्वक
(1,4,5,6,13), 4) तिर्यंच में (1-5), 5) वर्णन है। पूर्व आचार्यों उपाध्यायों द्वारा व्यवस्थित,
अनाहारक में (1,2,4,13,14) 6) एकान्त इस गुणस्थान स्तोक, का अध्ययन जिन रूचिवान, अवेदी में (10-14), 7) आठ कर्म वाले ज्ञानवान, पुण्यवान आत्माओं ने कर लिया है, उनके अप्रमत में (7-11), एवं । आगामी अभ्यास व ज्ञान की वृद्धि के लिए आगे एक छह - प्रमादी में (1-6), 2) छहलेश्योमें 6 (1से6) "गणस्थान गणित' विधि कही जाती है
3) अप्रमत छदमस्थमें 6 (7से 12) एक - एक गुणस्थान कहाँ पाए? अथवा किसमें | सात - तेजो लेश्या में (1-7), 2) छदमस्थ साधु में पाए? मिथ्यादृष्टि में (पहला) एवं गुण. के
(6-12), 3) शक्ल ध्यानी में (8-14),4) अपने अपने गुण प्रधान नामों में - जैसे - सयोगी अप्रमत में (7-13), 5) तीर्थंकर प्रमत संयत्त में (छटा), सयोगी केवली में
भगवान द्वारा छद्मस्थ काल में स्पृश्य (4.6(तेरहवाँ) आदि ।
10,12) एवं । दो - दो गुण स्थान किसमें पाए? अणंतानुबंधी | आठ - अप्रमत के (7-14), 2) उपशम समकित में
कषाय में (1,2), 2) केवली मे (13,14), (4-11), 3) हास्य आदि छः प्रकृतियों में 3) यथाख्यात चारित्री छमस्थ में (1-8), 4) प्रत्याख्यानी छद्मस्थ के (5
Page #177
--------------------------------------------------------------------------
________________
12), 5) अन्तिम भव में अर्थात् चरम शरीर | में समदृष्टि शब्द लगाना जैसे समदृष्टि अविरत द्वारा कम से कम स्पृश्य गुण (4,7-10, (2,4), समदृष्टि के कुल (2,4-14)। 12-14) एवं ।
2) प्रत्याख्यानी : तिर्यंच (5), प्रमत (5,6), सवेदी नव - सवेदी में (1-9), 2) साधु में (6-14), 3) | (5-9), सकषायी (5-10), कम से कम स्पृश्य बादर कषाय में (1-9), अन्तमहर्त की स्थिति
(7-10, 12-14)। वाले गुण. (2,3,7-12,14), 5) तीर्थंकर
| 3) प्रमतः (1-6), समदृष्टि (2,4-6), अप्रतिपाति भगवान द्वारा स्पृश्य (4,6-10,12-14), 6)
समदृष्टि (4-6), अप्रतिपाति द्वारा स्पृश्य भव्य द्वारा कम से कम स्पृश्य (1,4,7-10,
(1,3,4-6)। 12-14)।
4) अप्रमत : (7-14), सवेदी (7-9), सकषायी दस - लोभ कषाय में (1-10), 2) प्रत्याख्यानी
(7-10), श्रेणी में (8-12), सयोगी (7-13), में (5-14), 3) समदृष्टि छद्मस्थ में
अन्तर्मुहुर्त स्थिति (7-12,14) मरण (2,4,5 से12), एवं ।।
(7-11,14), अनाहारक (13,14), शाश्वत इग्यारह- आठ कर्म वाले में (1-11). प्रतिपाति के
(13)। (11-1), मोह कर्म में (1-11), 4) क्षायिक | 5) सवेदी : (1-9), समदृष्टि (2,4-9), प्रत्याख्यानी सम्यक्त्व में (4-14), 5) मरण के (1,2,4- | (5-9), साधु (6-9) श्रेणी (8,9), शाश्वत 11,14) इनमें जीव काल करता है, 6) |
(1-4,6), मरण (1,2,3,4-9) अप्रतिपाति समदृष्टि में (4-14) एवं ।
6) सकषायी : (1-10), श्रेणी (8-10), अप्रमत - बारह - छदमस्थ के (1-12), 2) समदृष्टि के ।
(7-10), साधु (6-10), प्रत्याख्यानी (5-10), (2,4-14), 3) अप्रतिपाति द्वारा स्पृश्य
सम्यक्त्वी (2,4-10)। (1,3-10, 12-14), 4) एकांत पंचेन्द्रिय
7) चारित्री : सामायिक (6-9), छेदो (6-9), सूक्ष्म जीवों में (3-14)
सं. (10), यथाख्यात छदमस्थ (11,12), तेरह - सयोगी में (1-13) 2) एकान्त भव्य एवं
यथाख्यात (11-14)। एकान्त शुक्ल पक्षी में एवं एकान्त त्रस
और भी इस प्रकार अनेक बोल बनाए जा जीव में (2-14)
सकते है। इस अभ्यास में उपयोग गहरा एकाग्र चौदह -समुच्चय संसारी जीव में एवं मनुष्य में (1- |
हो जाता है, कर्म निर्जरा विशेष होती है, कषाय, 14), 2) भव्य एवं शुक्ल पक्षी में (1-14)
इन्द्रिय विषय शान्त रहते है; संसार की ओर त्रस में (1 से 14)
ध्यान नहीं जाता, उत्तम धर्म ध्यान बनता है, और भी इसी प्रकार |
तीर्थंकर गोत्र बंध के ज्ञान सम्बंधी बोलों की
आराधना होती है, 18 पाप के त्याग सहित उत्तम 1) समदृष्टि : 1. एकान्त प्रतिपाति (दूसरा), अविरत
सामायिक होती है । तत्व केवली गम्य । (2,4), चारित्र के अधारक (2,4,5), प्रमत
पूर्व कृत महापुण्य के उदयमान होने पर ही अप्रतिपाति (4,5,6), प्रमत्त-सवेदी (2,4,5,6), बादर कषायी (2,4-10), उपशम (4-11),
जीवों को उत्तम धर्म की उत्तम सामग्री प्राप्त होती है। छदमस्थ (2,4-12), सयोगी (2,4-13), प्रत्येक
नमो अरिहंताणं, श्रद्धा वचन - जिण प्रवचनों की आराधक आत्माओं के चरणों में वंदना।
Page #178
--------------------------------------------------------------------------
________________
आराधना ज्ञान आलोचना ज्ञान |
अंतिम ज्ञान आलोचना ज्ञान | सर्वोच्च ज्ञान - आलोचना ज्ञान ।
-
-
चत्तारि परमंगाणि, दुल्लहाणीह जंतुणो । सूत्र उत्तराध्ययन संसार में परिभ्रमण करते हुए, माणुसतं सुई सद्धा, संजमम्मि य वीरियं ॥ जीवों को चार परम अंग प्राप्त होने कठिन हैं, दुर्लभ हैं - मनुष्य जन्म, जिणवाणी का श्रवण, श्रद्धा, संयम में पराक्रम करना।
हे परम पूज्य भगवान । अनादि काल से भयानक संसार अटवी (वन) में भटकते हुए जन्ममरण पर जन्म-मरण करते हुए, अब इस अनमोल मोती रूप मनुष्य जन्म को मैंनें प्राप्त किया, मनुष्य जन्म को प्राप्त करके सब दुखों, सब कर्मों, सर्व जन्म-मरण का, सर्व अंत कराने वाले, आपके सुन्दर सत्य धर्म को भी प्राप्त किया, अनेक बार चार तीर्थ के परम उपकार से धर्म श्रवण के दुर्लभ, महादुर्लभ अवसरों का लाभ उठाया, अनेक व्रत नियम प्रत्याख्यान धारण किए, अपनी आत्मा के कल्याण के लिए तप भी किए। अच्छा होता यदि आपके धर्म की परम उच्चता को गौतम स्वामीजी आदि महान साधकों की तरह धारण करता, परन्तु मैं ऐसा कुछ भी न कर पाया । वास्तव में मेरी ऐसी योग्यता ही नहीं; जल की एक बूंद भला सागर कैसे बन सकती है? आपके धर्म की पूर्णता को धारण करने में जो भी कोई मेरे से कमी रही, करने योग्य में उद्यम नहीं किया, प्रमाद किया, वह सब मैनें अच्छा नहीं किया । मैनें अपने सर्व कर्मा श्रव द्वारों को बंद नहीं किया, पूर्ण संवर की आराधना नहीं की, अपने मानव जीवन के अनेक अनमोल क्षण व्यर्थ गंवाए, धर्म रहित भावों में, कार्यों मे व्यर्थ गंवाए, वह सब मैनें अच्छा नहीं किया । उस सब का बार बार मिच्छामि दुक्कड़ । इस प्रकार सिवाय अपनी आलोचना निंदा के अब और मेरे पास कुछ नहीं ।
154
आलोयणाए णं भंते ? जीवे किम् जणयई?
आलोयणाए णं माया नियाण मिच्छादंसण सल्लाणं मोक्खमग्ग विग्घाणं अणंतसंसार वद्वणाणं उद्धरणं करेइ | उज्जुभावं च जणयइ । सूत्र उतराध्ययन
हे भगवान! आलोचना से जीव मोक्षमार्ग की घात करने वाले अनंत संसार की वृद्धि करने वाले, माया- निदान - मिथ्या दर्शन तीन कांटो को बाहर निकालता है, नष्ट करता है । सरलता को प्राप्त करता है । एवं और भी स्त्री वेद, नपुंसक वेद का बंध नहीं करता है... पूर्व काल के दुष्कृत के प्रति पश्चाताप उत्पन्न करता है, मोह कर्म नष्ट करता है, विनम्रता को प्राप्त होता है, प्रशस्त योगों वाला होता है, अणंत ज्ञान व सुख के घातक कर्म नष्ट करता है ।
तिहिं ठाणेहिं मायी मायं कट्टि णो आलोएज्जा....।
तिहिं ठाणेहिं मायी मायं कट्टु आलोएज्जा.... स्थानांग सूत्र ।
आलोचना प्रायश्चित आराधना किये बिना जिसके संसार के द्वार नहीं रुकते है। नहीं प्रतिक्रमण बिना, नहीं प्रायश्चित बिना, भ्रमण बंद नहीं होते ।
तीन कारण से मायावी जीव माया करके, पाप करके आलोचना नहीं करता मैनें माया, पाप किए थे, करता हूँ, आगे भी करूंगा (निवृत्त. नहीं हूँ); मेरी अकीर्ति, अवर्णवाद व अविनय होंगे; मेरे यश कीर्ति पूजा सत्कार कम हो जाएंगे। अपने जन्म मरण को मानने वाला तीन कारण से आलोचना करता है - आलोचना नहीं करने से मेरे वर्तमान व आने वाले जन्म निंदित, मंद, अल्प, निष्फल हो जाएंगे; आलोचना करने से प्रशस्त, उत्तम, सफल हो जाएंगे; मेरे वर्तमान ज्ञान दर्शन चारित्र सुरक्षित रहेंगे व आगे भी प्राप्त होंगे। आलोचना नहीं करने वाला समाधि को प्राप्त नहीं करता, परलोक में उत्तम देव नहीं बनता, बोलता है तो दूसरे देव चुप करा देते है, मत बोलो। मत बोलो । आलोचना
-
Page #179
--------------------------------------------------------------------------
________________
करने वाला समाधि को प्राप्त करता है, परलोक में | यथायोग्य प्रायश्चित दे सकें, गंभीर (आलोचना सुनकर उत्तम देव बनता है, दूसरे देव उसका बहुत आदर | न स्वयं क्रोधित होने वाले न औरों के आगे प्रकट करते हैं - आप और बोलिए । और बोलिए । करने वाले, पूर्ण रूप से पचा सकें) खण्ड खण्ड अगले मनुष्य भव में भी बहुत आदर पाता है। । करके प्रायश्चित का निर्वाह करा सकें; इसलोक दसविहा पडिसेवणा पण्णत्ता || स्थानांग
परलोक का भय बताकर आलोचना में भली प्रकार सूत्र । दस प्रकार से दोष का सेवन होता है - विशेष
स्थापित कर सकें, प्रिय धर्मी, संकट में भी दृढ़ मोह उदय में आने पर, प्रमाद में जाने पर, विस्मृति,
धर्मी । ऐसे बहुत आगमों के ज्ञाता, गुण ग्राही, असह्य भूख प्यास, संकट आपत्ति, शंकित वस्तु
समाधि उत्पादक आलोचना सुनने के योग्य होते लेने से, अकस्मात दोष लगना, भय आने पर,
है | सर्व गुण युक्त प्राप्त न हों तो अधिक से विशेष राग अथवा द्वेष के कारण, पदार्थों एवं योग्यता
अधिक गुणों वाले देखना । मुनि जी हो या श्रावक की परीक्षा के लिए | (दोष सेवन अच्छा नहीं)।
जो गंभीरता गुण से संपन्न हों, केवल उन्हीं के
आगे आलोचना करना, शेष गुण होने पर भी गंभीरता दस आलोयणा दोसा पण्णत्ता - आलोचना
अल्प हो तो आलोचना नहीं करनी चाहिए, वरना करते हुए भी दस प्रकार से दोष लगता है - प्रायश्चित
स्वयं को भयंकर असमाधि का वातावरण बन सकता के भय से कांपना, भली प्रकार विचार न कर
है । जन्म-मरण मिटाने के प्रयत्न, उल्टा अविवेक अनुमान मात्र से दोष कहना, दूसरों के द्वारा देखे
या अतिरेक के कारण जन्म-मरण की वृद्धि का कारण गए, केवल बड़े बड़े (छोटे दोषों की क्या आवश्यकता
न बन जाए, पहले ही सावधान रहना । स्व गुरू है?), केवल छोटे छोटे दोष कहना, अस्पष्ट कहना,
प्राप्त न हो तो उनकी श्रद्धा के अन्य आचार्यजी, जानबूझकर जोर जोर से, बार बार अनेकों के
या अन्य गंभीर मुनिजी, वे भी न हो तो आगमो के आगे, अयोग्य के आगे, समान दोष सेवी के आगे
ज्ञाता श्रावक, वे भी न हो तो कोई जिणवाणी के कहना । आलोचना के दोष दूर करते हुए केवल
श्रद्धालु गंभीर, अरिहंत भगवान, सिद्ध भगवान विशेष विश्वसनीय के आगे ही करनी चाहिए।
केवल ज्ञानियों की व्यवहार सत्र की आज्ञा है। जो ___ दस गुण युक्त आत्मा में आलोचना की जो भाव कहा जा सके वह वह विशेष आत्मा को योग्यता आती है - जाति, कुल, विनय, सम्पन्न, कहकर शेष भगवान के आगे मौन भाव से मन में ज्ञान दर्शन - चारित्र सम्पन्न । क्षमावान, इन्द्रिय कह देना या जंगल के एकान्त मे जोर जोर से विजेता व वैराग्यवान, सरल आलोचना करके पश्चाताप बोल बोल कर सभी पापों को कहना । यथा योग्य नहीं करने वाला अथवा आलोचना रहित को पश्चाताप प्रायश्चित स्वतः ले लेना । अपनी आत्मा छुपाने होता है - विचारने वाला | एक बार पूर्ण आराधना वाली, माया वाली, प्रायश्चित में भय मानने वाली होने पर आत्मा 7 मानव जन्मों में अवश्य सिद्ध हो | होगी तभी अपना दोष है वरना नहीं, शेष केवल जाती है । (भगवती शतक 8)
परिस्थितियाँ मात्र है | आलोचना सनने वाले . दस गुण धारी आलोचना सुनने के योग्य
| प्राप्त हो, फिर भी भगवान को आगे करें तो यह होते हैं - ज्ञानादि पांच आचार के पालक (धर्म के
छुपाव है, दोष है। प्रायश्चित देने की योग्यता वाले उत्तम आचरण में स्थित) आलोचना सुनकर सब | होने पर भी स्वय ले, तो दोष है । सभी भाव कहे बातों को स्मृति में धारण कर सकें, प्रायश्चित सम्बंधी |
नही जा सकते, जो कहने योग्य होते हैं, वे ही पांचो व्यवहारों के ज्ञाता, आलोचक का संकोच कहे जा सकते है । पूर्वोक्त भावों को जानकर जिस हटाकर साहस पैदा करा सकें, उसको भली प्रकार |
विधि से (स्व क्षमता देखकर) अधिक से अधिक
Page #180
--------------------------------------------------------------------------
________________
दोष नष्ट हो सके वह विधि करना, कहीं एक दोष | पापों का पूरा त्याग नहीं किया, जितना किया उसमें की निवृत्ति करने में दूसरे अनेकों दोष न बढ़ जाए। भी किसी दोष का सेवन किया, एक भी पाप का जो पूरा नहीं कर सकते, उनको थोड़े में ही संतोष अंश भी सेवा तो मिच्छामि दुक्कडं । 6 काय के कर लेना चाहिए, जिन्होंने थोड़े में, संतोष मान | सब जीव मेरे ही समान पीड़ा का अनुभव करते हैं, लिया हो, उन्हें पूरा करने की क्षमता को प्राप्त उनमें किसी भी जीव की लेश मात्र भी हिंसा की करना चाहिए।
अथवा, दुःख दिया तो मिच्छामि दक्कड़ | जो
कोई क्रोध का, मान का, लोभ का अंश मात्र भी __ अपने सर्व जीवन काल के सर्व वर्षों, सर्व महीनों, सर्व दिनों, सर्व महतॊ. सर्व समयों में मैनें
सेवन किया, जीव-अजीव पदार्थों पर राग किया, सुदेव सुगुरु सुधर्म की आराधना में जो कोई प्रमाद
द्वेष किया, अल्प भी राग द्वेष किया, इनके छेदन के किया, बड़े दोषों का सेवन किया, छोटे दोषों का,
योग्य, अनेक प्रकार की उत्तम वैराग्य व वीतराग अंश मात्र भी दोष का सेवन किया तो मिच्छामि
भाव उत्पादक भावनाओं के चिंतन मे प्रमाद किया, दुक्कड़ | जो कोई मिथ्यात्व को , कुदेव गुरू
तो मिच्छामि दुक्कड़। धर्म को अंश भी माना तो मिच्छामि दुक्कई । 25 चत्तारि ए कसिणा कसाया, सिंचंति मूलाइ मिथ्यात्व, सम्यक्त्व के पांच अतिचार सेवे हो, अनुमोदे पुण्ण भवस्स || सूत्र दशवैकालिक - ये चारों क्रोध हों, व्यवहार समकित के 67 बोलों, सम्यक्त्व के आदि कषाय पूर्ण रूप से पुनर्जन्म रूपी वृक्ष का मूल आठ आचारों की आराधना न की हो तो मिच्छामि से सिंचन करते है । राग और द्वेष ही कर्म बंध के दुक्कड़
बीज है। देव गुरु धर्म सूत्र में, नव तत्वादिक जोय ।
हे भगवान! जो कोई मैंने अपने जीवन काल अधिका ओछा जे किया, मिच्छामि दुक्कडं मोय ।।। में क्षमा धर्म की उत्तम आराधना करके, अपनी व
पर की आत्मा को शान्त नहीं किया; विनय धर्म धारण किए हुए, 12 व्रतों में एक एक व्रत
की, मृदुता की उत्तम आराधना नहीं की, सरलता कहकर, 14 नियमों में, सामायिक, संवर,पौषध,
धर्म की व संतोष धर्म की उत्तम आराधना नहीं की, प्रतिक्रमण की आराधना में, नवकारसी, पोरिसी,
अंश मात्र भी कमी रखी तो मिच्छामि दुक्कड़। स्वएकाशन, आयम्बिल, उपवास, बेला, तेला,
दोष नहीं देखे तो मिच्छामि दुक्कड़ । जो कोई अठाई आदि तप आराधना में, रात्रि चौविहार
जीवन में अर्थ दण्ड, अनर्थ किया, तेजो पदम प्रत्याख्यान की आराधना में, चार स्कंध में, और
शुक्ल लेश्या में नहीं वर्ता, कृष्ण नील कापोत लेश्या भी अनेक प्रकार की साधना में, स्वयं करने,
में वर्ता; आर्त ध्यान, रौद्र ध्यान किया, धर्म ध्यान दूसरों से कराने व अनुमोदना में जो कोई दोष का
में नहीं वर्ता; विकथा रूप प्रमाद किया, पांच प्रमाद सेवन किया, पूर्ण शुद्धि व विनय को धारण नहीं
किए, तीन शल्यों का अंत नहीं किया तो मिच्छामि किया, उस सबका बार बार मिच्छामि दुक्कड़ ।
दुक्कड़। असार संसार को सार जाना, एकत्व भाव भिक्खाए वा गिहत्थे वा सुब्बए कम्मई दिलं | - का चिंतन न कर, मोह किया तो मिच्छामि सूत्र उत्तराध्ययन ।
दुक्कड़। भिक्षु हो या गृहस्थ सुव्रती सुन्दर-दिव्य गति सम्पूर्ण 33 बोलों में (चरण-विधि के) एक एक को पाते है । जो कोई मैंनें हिंसा से लेकर विस्तार बोल कहकर छोड़ने योग्य को छोड़ा नही; ग्रहण पूर्वक एक एक पाप गिनते हुए, मिथ्यात्व तक सब करने योग्य को ग्रहण नहीं किया; धर्म के सैंकड़ो
Page #181
--------------------------------------------------------------------------
________________
गुणों की शुद्धि व वृद्धि के उपाय नहीं किए तो | दुःख दिए नहीं, मैंने ही दुःख दिए, सब मेरे मिच्छामि दुक्कडं । जो कोई श्रावक धर्म की आराधना | उपकारी व मित्र है, किसी से मेरा अंश भी वैर में उच्च आराधना में प्रमाद किया, शक्ति होते | भाव नही; सर्व मित्रता को धारण करता हूँ । चार हुए भी अल्प किया, त्यागी जीवन को अपनाया | तीर्थ सदा ही मेरे मार्ग दर्शक हो; उपकारी हो, नहीं, संयम धारण नहीं किया, महाव्रत धारण नहीं | जो मैंने अविनय आशातना की, तो मिच्छामि किए, भिक्षाचरी, विहार, गुरूसेवा का लाभ नहीं | दुक्कडं । चार तीर्थ का सदा ही हित हो, कल्याण उठाया, परीषह उपसर्गो से भय माना, धैर्य साहस हो, मोक्ष हो - जीवन भर के एक एक करके सब स्थिरता को धारण नहीं किया, कर्मो के शीघ्र क्षय, पाप दोषों का चिंतन करते हुए मैनें उस उस अवसर प्रायश्चित में प्रमाद किया तो मिच्छामि दुक्कडं । पर यह यह सब अच्छा नहीं किया, पश्चाताप करता दुक्कराइं करित्ताणं, दुस्सहाइं सहितु य ।।
हूँ, लज्जा धारण करता हूँ। आप अणंत ज्ञानी है
| आप से कुछ भी छिपा नहीं हैं। केइऽत्य देवलोएसु, केइ सिझंति णीरया ।।
. संथारा : महासाधना : न कि सूत्र दशवैकालिक ||
आत्महत्या । णिग्गंथं पावयणं सच्चं दुष्कर करनी करके, दुष्कर को सहन करके, कोई
संथारा मंगल, संथारा महामंगल, देवलोक को जाते है व कोई कर्म रहित हो सिद्ध हो संथारा सच्चा सुख, मोक्ष मार्ग में जाते है।
__महाक्रान्ति । हे भगवान! मैंने सर्व जीवन काल में, सम्यग
तीर्थंकर भगवान के महा उपदेश को प्राप्त करके ज्ञान, सम्यग् दर्शन, सम्यग चारित्र सम्यग् तप की
संयम की साधना व संथारे की महासाधना से तीर्थंकर सर्व आराधना में किसी भी अतिचार का सेवन
गोत्र का बंध करने वाली आत्माएं देव का भव और किया, पांच आचार के सर्व भेदों की आराधना में
फिर मनुष्य का जन्म पाकर फिर से धर्म की आराधना दोष, प्रमाद, किया, कमी रखी तो मिच्छामि दुक्कड़
करती है व केवल ज्ञान रूपी सूर्य के महाप्रकाश से | धर्म के शुद्ध व्यवहार की साधर्मी व्यवहार की विराधना की, सम्यक्त्व की दृढ़ता, नियमों की दृढ़ता,
महाप्रकाशित होकर लोक में सर्वोच्च पद तीर्थंकर पद उत्कृष्ट दृढ़ता को धारण नहीं किया तो मिच्छामि
को प्राप्त करती हैं। वे तीर्थंकर भगवान तब अपने ही दुक्कडं । मैंने जो आपकी आज्ञा को जाना नहीं,
केवल ज्ञान से जानकर जिस संयम व संथारे की समझा व माना नहीं, बहुत बहुत तत्व को जानने में
पूर्व जन्म में साधना की थी, फिर से उसी का लोक निर्णय करने में प्रमाद किया, आपके अनंत सुखदायक
में महाप्रकाश करती है व अपने ही समान नये लाखों वचनों की आराधना में कमी रखी, आपके सम्पूर्ण
भाव-सूर्यों का निर्माण करती हैं। इस प्रकार संथारे धर्म की पूर्ण आराधना नहीं की, अल्प बहुत कमी
की महासाधना का उद्योत पूर्व के अनंत काल में अनंत रखी, अंश भी कमी रखी, जिन प्रवचन रूपी सागर तीर्थंकर भगवान कर चुके है व भविष्य में अनंत तीर्थंकर के अथाह गहरे जल में सर्वकाल स्वयं को लीन नहीं भगवान करते रहेंगे । पांचो पांडव संयम की साधना रखा, तो मिच्छामि दुक्कड़ । अब चारों तीर्थों के | के साथ एक दो मास की कठिन तपस्या करते हुए
साथ, सब सम्बंधियों, मित्रों, पड़ोसियों, चार | भगवान अरिष्टनेमि के दर्शनों के लिए विहार क्रम में :: गति के, 6 काय के सब जीवों के साथ, सिद्ध लीन थे कि भगवान अरिष्टनेमि के निर्वाण का समाचार
भगवान के साथ खमाता हूँ। किसी ने कभी कोई । पाकर पारने के लिए आहार पानी का भी त्याग
Page #182
--------------------------------------------------------------------------
________________
करके पांचो ने शीघ्र संथारा ग्रहण कर लिया और उसी साधना में भावों की विशेष शुद्धि को प्राप्त करके सर्व प्रकार की ऋद्धि से भरपूर मानव कुलों में जन्म पाकर फिर से साधना में लीन होकर केवल ज्ञान के आलोक से आलोकित हो जाते है अथवा अपनी नरक व तिर्यंच गतियों का अंत करके सुबाहु कुमार जैसे साधकों के समान एक भव देव का एक मानव का करते हुए सातवें मानव जन्म में अवश्य सिद्ध हो जाती है। इस प्रकार 'संथारा' आत्मा को से मनुष्य देव और भगवान बनाने की महासाधना है। सिर्फ मुनि ही नहीं आनंद जी जैसे श्रावक बहुत लाखों श्रावक भी इस साधना की महत्ता को समझकर, इसके महात्म्य से लाभान्वित होते हैं ।
परंतु अति दुःख है कि कितने ही लोग 'संथारे' जैसी महासाधना को 'आत्महत्या' समझ बैठते हैं । वास्तव में यह उनकी मति की महामन्दता व आत्मा में रहे हुए घोर अज्ञान अंधकार का ही विष परिणाम है । संथारा करने वाली आत्मा अपने अनादि काल से चले आ रहे जन्म पर जन्म में पाए जाने वाले घोर अति घोर दुःखों, अग्नि में बार बार जलना, बार बार तीखे शस्त्रों से छेद भेद जाना, भूख, प्यास, शीत, उष्ण, अपमान, भय, शोक, चिंता, क्लेश, भयंकर रोग आदि सर्व का अंत करके आत्मा के सच्चे व अनंत सिद्धि सुख को प्राप्त करती है जबकि आत्महत्या इन्हीं दुःखों से भरे जन्म मरण के अनंत गोतों वाले अनंत विस्तार वाले महा संसार सागर में अनंत काल के लिए डूबो देती है। दोनों की तुलना करते हुए आगे विशेष अंतर इस प्रकार कहे जाते हैं।
1)
2)
आत्महत्या
मृत्यु की तीव्र इच्छा है ।
तत्काल विष अग्नि फांसी आदि से प्राप्त की जाती है
158
3)
5)
साधना का अंश भी नहीं। बार बार मृत्यु के वश होने की दुःख वृद्धि की क्रिया है ।
6) मृत्यु से हार व जीवन की निष्फलता है । अपनी व दूसरों की महाहिंसा है ।
किसी भी पाप के त्याग रहित है ।
आहार के त्याग रहित परवशता है ।
जीवों के साथ वैर का बंध है ।
सर्व दोषों व पापों की आलोचना व प्रतिक्रमण रहित तीव्र आर्त्त व रौद्र ध्यान है ।
दुखों से दुःखी होकर की जाती है ।
संसार सागर में डूबोने वाली जन्म मरण के महा भय व दुखों को बढ़ाने वाली है ।
घोर अज्ञान अंधकार है।
यह लोक और परलोक बिगाडती है ।
महादुःख रूप फल जीव के संग चलता है । सर्व लोक में निन्दित, अति निंदा को प्राप्त है।
8)
9)
10)
11)
12)
13)
14 )
15)
16)
17)
तीव्र क्रोध, मान, लोभ, तृष्णा, राग, द्वेष, मोह के वश होकर की जाती है। आवेश में भी होती है ।
इच्छा पूर्ण न होने पर तीव्र इच्छा के वश होकर आग के समान जलते हुए चित्त के साथ की जाती है। आवेश में भी होती है।
20)
21)
18 ) अज्ञानी के लिए नरक के दुःख समान है । 19) अनंत बार नरक व तिर्यंच के दुःख दिलाती है ।
सर्वथा अनिच्छित अकाम मरण है ।
मरण को अनंत बार प्राप्त होता है ।
Page #183
--------------------------------------------------------------------------
________________
संथारा-समाधि-मरण
19) आत्मा को देव और भगवान बनाता है।
20) देवों द्वारा भी इच्छित सकाम मरण है। 1) जहाँ जीवन की इच्छा नहीं, वहाँ मरण की
21) आठ बार से अधिक नहीं होता । आठवीं बार भी नहीं।
या पहले ही केवल ज्ञान हो जाता है । 2) समभाव सहित मृत्यु का इन्तजार किया जाता
इस प्रकार संथारा अमृत है जबकि आत्म
हत्या जहर व जहर से भी भयंकर फलदाई है। 3) इन सब दोषों को नष्ट करते हुए केवल आत्म संथारा सर्व पापों को गलाने वाला होने से सिर्फ
कल्याण के भाव से किया जाता है। मंगल ही नहीं महामंगल है। कर्म के उदय से होने सर्व संसारी इच्छाओं से रहित होकर जल वाले दुखों से रहित, कर्म के क्षयोपशम, क्षय, उपशम के समान शान्त शीतल चित्त के साथ हर्ष का परिणाम, मोह रहित, सच्चा आत्मिक सुखदायी सहित की जाती है।
होने से सच्चा सुख व सच्ची शान्ति है, सर्व कलह एक दिन अवश्य आने वाली मृत्यु को अपने
क्लेश शोक संताप रहित है। जीवन की सर्व साधना वश करने की सुन्दर साधना है।
का फल व स्वयं भी महासाधना, अति विशेष साधना 6) मृत्यु पर विजय मानव भव की सफलता
है, आत्मा की महापरीक्षा, सगति का कारण है,
मोक्ष प्राप्ति में तीव्रता अति तीव्रता लाने वाला, सर्व 7) अपनी व दूसरों की पूर्ण दया है।
जन्म मरण का अति शीघ्र अंत कराने वाला होने
से, आत्मा के लिए मोक्षमार्ग में महाक्रान्ति है। 8) सर्व 18 पापों के त्याग, महात्याग सहित
आलोचना प्रतिक्रमण सहित सफल होने वाले संथारे
की, आराधना, परम आराधना से आत्मा सूर्य समान 9) सर्व आहार त्याग व अनासक्ति सहित है।
प्रकाशमान, चन्द्र समान शीतल, सागर समान 10) . सर्व वैर रहित, सर्व क्षमा भाव सहित है। गम्भीर व अनंत गुण रत्नों की खान बन जाती है 11) सर्व दोषों व पापों की आलोचना प्रतिक्रमण । इसलिए परम सुखकारी जिणवाणी की श्रद्धा सहित
सहित उत्तम शान्त धर्म व शुक्ल ध्यान है। आराधना करनी चाहिए, अनेक प्रकार के व्रत, नियम, 12) रोगों के दुःखों में भी शान्ति है।
प्रत्याख्यान, तप, सामायिक, संवर, पौषध की 13) जन्म मरण के सर्व दुःखों का अंत करा कर,
आराधना करनी चाहिए । आगमों का ज्ञान प्राप्त सिद्धि का अनंत सुख दिलाने वाला है।
करके तत्व ज्ञान में कुशल होकर बहुत शिक्षाओं के
अनुसार स्वयं को अच्छा ढालना चाहिए। कितने ही 14) ज्ञान सहित व केवल ज्ञान, महाप्रकाश का कारण है।
जीव नंद मणियार के समान, पंचेन्द्रिय पशु पक्षी
भी इस उत्तम संथारे की आराधना करके देव बन 15) आत्मा के दोनों लोको को सुधारती है ।
जाते है, फिर मानव की तो बात ही क्या? धन्य वे 16) महासुख रूप फल जीव के संग चलता है।
आत्माएँ जिन्होनें जिणवाणी की शिक्षाएँ धार कर अरिहंत भगवान गणधर भगवान, सच्चे साधु 'संथारा भगवान' की आराधना की है, करती है व श्रावक वर्ग, समदृष्टि देवों द्वारा तीनों लोकों भविष्य में करेंगी। मे प्रशंसा व प्रसिद्धि प्राप्त है।
देव गुरू धर्म सूत्र के मान उपकार हजार | 18) ज्ञानी का मृत्यु - महोत्सव है।
| मनुष्य जन्म मुझको मिले बार बार |
Page #184
--------------------------------------------------------------------------
________________
संथारा अमृत अमन
अनादि काल से चले आ रहे जन्म पर जन्म, मरण
पर मरण के अनंतानंत सर्व दुःखों का अंत कराने संथारा साधना : संथारा आराधना : संथारा सिद्धि
वाले ‘संथारे' की महत्ता को समझ कर कौन महाआत्माऋद्धि : संथारा त्रिलोक प्रसिद्धि
बुद्धिमान आत्मा इसकी चाह न करेगी? __पूर्व काल में हो चुके अनंतानंत सभी तीर्थंकर
कितने ही लोग विचार करते है कि 'संथारा' भगवंतो ने अपने अपने केवल ज्ञान से जानकर
आत्म हत्या है । नहीं!नहीं! ऐसा विचार करना एकसमान रूप से 'संथारे को आत्मा की अति
महा अज्ञानता व मति की महामंदता ही है, 'संथारा' उच्च साधना व आराधना फरमाया है । वर्तमान में
तो मनुष्य को देव व भगवान बना देने वाली एक 'संथारे का श्रेष्ठ ज्ञान जिणाणं जावयाणं तिण्णाणं तारयाणं' तीर्थंकर भगवान महावीर द्वारा कथित
अति श्रेष्ठ साधना है, जिससे आत्मा चन्द्र के समान
शीतल, सूर्य के समान प्रकाशमान, सागर के समान गणधर भगवंतों द्वारा गुंथित 'आचारांग सूत्र भगवान' से लेकर विपाक सूत्र भगवान तक ग्यारह अंग
गंभीर, गुण रत्नों की खान बन जाती है । जिस शास्त्रों में उपलब्ध है । पश्चात में हुए अनेक आचार्यों
सुख की कोई उपमा नहीं, उस अव्याबाध सुख, व ज्ञानी महात्माओं ने भी इस पर बहुत कुछ वर्णन
परम आत्मिक सच्चे सुख, को प्राप्त कर लेती है । किया है। आलोचना प्रतिक्रमण रहित नहीं, आलोचना
जबकि 'आत्म हत्या' मनुष्य को नरक व तिर्यंच प्रतिक्रमण सहित 'संथारा' सफल करने वाली
गति में फैंकने वाली है, एक भी सुख वाला जन्म आत्माएं, जन्म जन्म में प्राप्त होने वाले अग्नि में
प्राप्त करना तो दूर, दुखों से भरे जन्म मरण के जलना, शस्त्रों से छेदे भेदे जाना, भूख प्यास,
अति गहरे घोर भयंकर महासागर में डूबा देने भयंकर रोगों आदि के अनंतानंत सर्व घोर अति
वाली है, घोर अंधकार में फैंकने वाली है। आत्म घोर दुखों का शीघ्र ही अंत कर देती हैं | राजर्षि
हत्या में सर्व प्रथम मृत्यु की तीव्र इच्छा होती है व
तत्काल विष, अग्नि, फांसी आदि के प्रयोग से मृत्य उदायन आदि मुनियों के समान केवल ज्ञान प्राप्त कर सूर्य के समान प्रकाशित होकर सिद्ध भगवान
को प्राप्त किया जाता है जबकि संथारे में न जीवन बन जाती हैं, अथवा अपनी नरक व तिर्यंच गति का
की इच्छा की जाती है और न ही मरण की, समभाव अंत करके स्वयं अपनी इच्छा से अनेक प्रकार से
की साधना के साथ केवल मृत्यु का इंतजार किया सुन्दर अति सुन्दर रूप बनाने में समर्थ वैक्रिय जाता है। आत्महत्या क्रोध, मान, लोभ, तृष्णा, शरीर धारी देव बन जाती हैं व देव आयु पूर्ण होने
इच्छा, राग, द्वेष, मोह के वश होकर अत्यंत परिताप पर बहुत स्वर्ण रत्नों, जायदाद, विस्तृत परिवार,
भरे चित्त के साथ अपनी व दूसरों की हिंसा सहित मित्रों से युक्त, दृढ़ शरीर व बलवान तथा विनय
की जाती है जबकि संथारा इन सब दोषों से आदि अनेक उत्तम गुणों से युक्त मानव जन्म
रहित 'ज्ञान' के चिंतन सर्व पापों के त्याग, स्व प्राप्त करती हैं और इस पर भी फिर से तीर्थंकर
इच्छा से आहार के त्याग, देह की ममता के त्याग, भगवान का धर्म प्राप्त करके केवल ज्ञान प्राप्त कर
सर्व राग द्वेष इच्छा भय से रहित अति शांत चित्त के सिद्ध भगवान बन जाती है । अथवा, सुबाहु कुमार
साथ आत्मलीनता पूर्वक अपनी व दूसरों की दया के समान एक देव एक मानव का भव करते हुए से युक्त होकर, एक दिन अवश्य आने वाली मृत्यु सातवें मानव जन्म में अवश्य सिद्ध हो जाती हैं। । को समय आने पर, अपने अधीन की जाने वाली इस प्रकार 'संथारे' से बढ़कर न तो कोई साधना है | एक सुन्दर साधना व मृत्यु की कला है, जो कि और न ही इसके समान सर्वोच्च कोई फल ही है। | तीर्थकर भगवान, गणधर भगवान, साधु साध्वी
Page #185
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रावक श्राविका व समदृष्टि देवों द्वारा तीनों लोकों में प्रशंसा व प्रसिद्धि को प्राप्त है जबकि आत्महत्या तीनों लोको में निंदा को प्राप्त है ।
संथारा कौन कर सकता है?
इस आत्मानंद दायी साधना को न तो देव कर सकते है, न ही नरकों के नारकी ही कर सकते है । यह तो केवल विशेष मानव व नंदन मणियार से मेढ़क बने जैसे तिर्यंच प्राणी ही कर सकते हैं, जिन्होनें भव सागर पार कराने वाली जिनवाणी को उपलब्ध करके, श्रद्धा सहित जिणदेव की शिक्षाओं के अनुसार स्वयं को व्रतों, महाव्रतों, नियमों, पच्चक्खाणों, सामायिक, संवर, पौषध, तप, 12 भावनाओं आदि में ढाला है, बार बार ढालने के निरंतर प्रयत्न किए हैं । साधु साध्वी श्रावक श्राविका चारों ही कर सकते है। इस प्रकार जो आत्माएँ 'संथारे' को ज्ञानियों के वचनों से समझकर, अनेक जिज्ञासाओं के समाधान प्राप्त कर बार बार वैसी ही भावनाएँ व आचरण करती हैं उनकों 'संथारा अमृत' प्राप्ति की सम्भावना होती है ।
संथारा कब करना चाहिए?
आग लगने पर कुआँ खोदना व्यर्थ है । इसलिए जैसे ही मृत्यु समीप दिखाई दे, जीवन को आगे बढ़ाने में देह असमर्थ दिखाई दे तो पहले ही जीवन की साधना का फल व अन्तिम पड़ाव मृत्यु को स्व के आधीन करके देह सुख से विरक्त होकर अत्यंत प्रसन्नता पूर्वक आत्मिक सुख पूर्वक व भविष्य के भी आत्मिक सुख को देखते हुए ज्ञान पूर्वक 'ज्ञानी का मृत्यु महोत्सव' मनाना चाहिए । संथारा कितने प्रकार का होता है ?
संथारा दो प्रकार का होता है - 1) सागारी संथारा व 2 ) अणगारी संथारा । सेठ सुदर्शन व अर्हन्नक श्रावक के समान मृत्यु का संकट दिखाई दे 'तो 'सागारी संथारा' करना चाहिए और यदि मृत्यु अवश्यं भावी दिखाई दे जीवन की अंश भी आशा
161
न रहे तो आगार रहित 'अणगारी संथारा' करना चाहिए । अस्पताल जाना पड़े तो 'सागारी संथारा' की भावनाएँ रखनी चाहिए । संथारा किस प्रकार करना चाहिए?
ज्ञानियों से इसको समझना चाहिए। श्रावक प्रतिक्रमण में इसका विस्तृत पाठ है । उसको अर्थ सहित अच्छी प्रकार समझना चाहिए । प्रतिदिन प्रतिक्रमण करना चाहिए । अनेक पुस्तकों में संथारे की भावनाएँ है, उनको जानना चाहिए । आगम से साधकों साधु श्रावकों के संथारे का वर्णन सुनना जानना चाहिए व प्रत्यक्ष में संथारा प्राप्त या तो अन्य पूर्व काल में संथारा प्राप्त आत्माओं का संथारा समझना चाहिए । आलोचना प्रतिक्रमण के बिना संथारा सफल नहीं होता |
संथारा किसको ? चार दुर्लभ अंगो के साथ संथारा तो और दुर्लभ है। कोई भाग्यवान पुरूषार्थी
प्राप्त करते है। मनुष्य जन्म मुझको मिले, इस विधि से मरण को पाऊँ । देव भी भाते भावना, जब च्यव कर यहाँ से जाऊँ । ॥ तत्व केवली गम्य ||
महासूत्र उत्तराध्ययन- भगवान के महा-उपदेश 1) अप्पा चेव दमेयव्वो, अप्पा हु खलु दुद्दमो । अप्पा दंतो सुही होई, अस्सिं लोए परत्थय।
अपनी आत्मा को वश में करो । निश्चय ही यह कार्य दुष्कर है। आत्मवश कर्ता ही दोनों लोकों में सुखी होते है ।
2) तम्हाभिक्खु ण संजले । मुनि क्रोध करने वाले पर भी क्रोध नहीं करते हैं। तं तित्तिक्खे परीसह । मुनि परीसहों (कष्टो) को सहन करते हैं । 'चरेज्जङत गवेसए मुणि' अपनी आत्मा में आत्म भाव की गवेषणा करते है । उवसंते मुणी चरे। मुनि उपशांतधर्म से शांत रहते हैं ।
Page #186
--------------------------------------------------------------------------
________________
3) चत्तारि परमं गाणि, दुल्लहाणीह जंतुणो। | को जानो, अपनी आत्मा के समान सबको अपने माणुसत्तं सुई सद्धा, संजमम्मि य वीरियं ।। अपने प्राण प्रिय है । मत्ति भूएसु कप्पए । सब
प्राणियों के प्रति मैत्री भाव धारण करो । अंश भी संसार परिभ्रमण करते हुए जीवों को चार परम अंग
दुःख न दो। दुर्लभ है - जिणवाणी के योग्य मानव जन्म, श्रवण, श्रद्धा, सुसंयम में पुरुषार्थ ।
7) इह कामाणियट्टस्स,अत्तढे अवरज्झइ । जो
विषय भोगो से निवृत्त नहीं होते उनका 'आत्मार्थ' 4) जे संखया तुच्छ परप्पवाई, ते पिज्जदोसाणुगया
नष्ट हो जाता है। परज्झा । एए अहम्मे त्ति दुगुंछमाणो, कंखे गुणे जाव सरीर
जेसिं तु विउला सिक्खा.... सीलवंता भेए ||3||
सविसेसा....|| शील की शिक्षा रहित आत्माएं
दुर्गति को जाती है; शिक्षित आत्माएँ सुगति पाती जो ये सांख्य आदि परमती हैं, इनका धर्म राग
है, विशेष शिक्षा प्राप्त और भी उच्च गति को पाती और द्वेषका छेदन नहीं करता । इस अधर्म से विमुख
हैं । कम्मसच्चा हु पाणिणो ।। प्राणियों के कर्म सत्य होते हुए जीवन भर जिणवाणी के गुणों की ही इच्छा
फल वाले है । जैसे शुभ अशुभ कर्म हैं वैसा ही फल करनी चाहिए।
है। 5) संति एगेहिं भिक्खूहि, गारत्था संजमुत्तरा ।
8) जहा लाहो तहा लोहो, लाहा लोहो पवठ्ठई दो गारत्येहि य सब्वेहिं, साहवो संजमुत्तरा ।। मास कयं कज्जं, कोडिए वि ण णिट्ठियं ।। कोई कोई गृहस्थ भी भिक्षुओं से संयम में उत्तम जहाँ लाभ होता है वहाँ लोभ होता है, ज्यों ज्यों होते है।
लाभ बढ़ता है, त्यों त्यों लोभ बढ़ता संयमी साधु सब गृहस्थों से संयम में उत्तम होते है ।
है। दो मासे सोने से सम्पन्न होने वाला कपिल का
कार्य करोड़ मोहरों से भी सम्पन्न न हो सका । बालाणं तु अकामं तु, मरणं असई भवे ।
9) चइऊण देवलोगाओ, उववणो माणुसम्मि पंडियाणं सकामं तु, उक्कोसेण सइं भवे ॥
लोगम्मि। अज्ञानी जीवों का चारों गतियों में अकाम मरण
उवसंत मोहणिज्जो, सरई पोराणियं जाई ।। होता है।
नमिराजऋषि का जीव देवलोक से आयु पूरी करके पंडितो (ज्ञानियों) का मनुष्य जन्म में सकाम मरण
मनुष्य लोक में उत्पन्न हआ | मोह शांत होने पर होता है । अकाम मरण बार बार व सकाम मरण
नमिराज को पूर्व जन्म का ज्ञान उत्कृष्ट एक ही बार होता है। सकाम मरण अनेक
हुआ।... दीक्षा के लिए उद्यत हुए नमिराज को इन्द्र बार हो तो अधिक नहीं होता है ।
ने ब्राह्मण के वेश में आकर दस प्रश्न पूछे। उनमें से 6) जावतंऽविज्जा पुरिसा, सब्वे ते दुक्ख संभवा...
एक "पासाए कारइत्ताणं वद्धमाण गिहाणि य । वालग्ग अज्ञानियों के लिए ही है। पास जाई पहे बहु....
पोइयाओ य, तओ गच्छसि खत्तिया ।। हे नमिराज
सुन्दर सुन्दर महल, जलमहल, वर्द्धमानगृह, वल्लभी सारे दुख संसार में बहुत लम्बे जन्म मरण के मार्ग घर आदि बनवाओ, फिर दीक्षा लेना । तब नमिराज को देखो । दिस्स पाणे पियआयए... सब प्राणियों । ने कहा - संसय खलु सो कुणई, जो मग्गे कुणई
Page #187
--------------------------------------------------------------------------
________________
घरं । जत्थेव गंतुमिच्छेजा तत्थ कुव्वेज्ज सासयं ।। | डाला जाने वाला घी है, कर्म है ईंधन है, संयम मार्ग में बनाए हुए घर, सदा शंका युक्त अस्थिर होते योग शान्ति पाठ है, ऋषियों को यही होम करना है, एक दिन अवश्य छोड़ दिए जाते है । जहाँ जाकर चाहिए, मैं यही होम करता हूँ। स्थिर निवास करना हो (सिद्ध गति) वहीं के लिए
13) सव्वं सुचिण्णं सफलं णराणं, कडाण कम्माणं सदाकाल स्थिर शाश्वत गृह बनाना
ण मोक्खअत्थि। चाहिए।
सर्व शुभ कर्म सफल होते है, कर्मो का भुगतान 10) तिण्णो हु सि अण्णवं महं, किं पुण चिट्ठसि
किए बिना आत्मा को मोक्ष नहीं होता। ण तस्स तीरमागओ
दुक्खं विभयंति णाइओ। अमितुर पारं गमितए, समयं गोयम! मा पमायए ।।
मृत्यु के मुख में गए हुए जीवों की उसके सम्बंधी हे गौतम! मनुष्य जन्म, जिणवाणी श्रवण, श्रद्धा व
रक्षा नहीं करते, परलोक में जीव कर्म साथी के संग संयम प्राप्त करकें तुमने बहुत सारा संसार सागर
अकेला ही दुःख पाता है । पार कर लिया है। अब किनारे पर आकर क्यों रूके हो? पार जाने की शीघ्रता करो, इसमें समय मात्र
14) वेया अहीया न हवंति ताणं । पढ़े हुए वेद भी प्रमाद न करो।
भोजन कराए ब्राह्मण, जन्मे हुए पुत्र, आत्मा की
रक्षा नहीं करते । खण मित्त, सुक्खा बहुकाल 11) समुद्दगंभीर समा दुरासया, अचक्किया केणइ
दुक्खा,... || विषय भोग क्षण मात्र सुख देते है, दुप्पहंसया ।
बहुत काल दुख देते है, मोक्ष से विपरीत है, अनर्थो सुयस्स पुण्णा विउलस्स ताइणो, खवित्तु कम्म की खान है । जाजा वच्चई रयणी... ।। बीती हुई गइ मुत्तमं गया।।
रात्रियाँ लौटकर नहीं आती । धर्म करनेवालों की श्रुत ज्ञान से पूर्ण आत्माएँ, समुद्र के समान गंभीर
रात्रियाँ सफल जाती है, अधर्म करने वालों की होकर, जिन्हें कोई भी देव मानव धर्म श्रद्धा से
रात्रियाँ निष्फल जाती है । तप में तपना चाहिए। विचलित न कर सके, सभी 6 काय जीवों की यतना 15) असिप्पजीवी अगिहे अमित्ते, जिइंदिए सब्बाओ पालकर अपने सर्व कर्म क्षय करके उत्तम गति (सिद्ध
विप्पमुक्के । गति) को गए । इसलिए सूत्र का स्वाध्याय करके उत्तम आत्मार्थ की गवेषणा करनी चाहिए, जिससे
अणुक्कसाई लहु अप्प भक्खी, चिच्चा गिह एगचरे स्व पर की सिद्धि हो ।
स भिक्खु । 12) तवो जोई जीवो जोइठाणे, जोगा सुया सरीरं
जो गृह त्याग कर फिर गृह मित्रों में आसक्त नहीं कारिसंगं ।
होता, शिल्प आदि सर्व संसारी कलाओं से रहित
रहता है दूसरों को भी नहीं सिखाता है, सभी कम्मेहा संजम जोग संती, होमं हुणामि इसिणं
आत्म कैद योग्य से मुक्त रहता है, इन्द्रिय विजेता, पसत्य।।
कषाय विजेता, सादा अल्प व रूक्ष आहारी होकर ब्राह्मणो के द्वारा पूछे जाने पर हरिकेशी मुनि जी ने | एकत्व भाव में लीन रहता है वह भिक्खु होता है । कहा तपज्योति है, जीव ज्योति स्थान है; मन
16) देव दाणव गंधवा, जक्खरक्खस किण्णरा । वचन काय योग कड़छी है, शरीर तप की अग्नि में
म | बंभयारि णमंसंति, दुक्कर जे करंति तं ।।
Page #188
--------------------------------------------------------------------------
________________
धर्म रूपी उद्यान में निरंतर लीन रहने से ब्रह्मचर्य | जीव स्वयं ही अपने सुख और दुःख का कर्ता है, की समाधि होती है । जो दुष्कर है, उस ब्रह्मचर्य | अन्य और कोई नहीं। सन्मार्ग में स्थित अपनी आत्मा समाधि को प्राप्त मुनियों को देव दानव गंधर्व यक्ष | ही अपनी मित्र है, उन्मार्ग में स्थित आत्मा ही राक्षस किन्नर भी नमस्कार करते है ।
अपनी शत्रु हैं। 17) जे केइ उ पब्बइए नियंठे, धम्मं सुणिता विण 21) अकुक्कुओ तत्थ अहियासएज्जा, रयाई ओववण्णे।
खेवेज्ज पुरेकडाई ॥ सुदुल्लहं लहिउं बोहिलामं, विहरेज्ज पच्छा य परीसहों को शान्त भाव से सहन करके पूर्व कृत जहासुहं तु ॥
कर्मो को क्षय करके समुद्र पाल मुनि सूर्य समान विनय उत्पन्न करने वाले निपँथ धर्म को सुनकर,
प्रकाशमान हो गए। दुर्लभ बोधिलाभ को प्राप्त कर, दीक्षित होने वाले
22) उग्गं तवं चरित्ताणं, जाया दोण्णि वि मुनि, पश्चात् में आगम भगवान से विमुख होकर
केवली । सवं कम्मं खवित्ताणं, सिद्धिं पत्ता अणुत्तरं ।। अपनी सुख साता के लिए ही अपनी इच्छानुसार
उग्र तप का आचरण करके राजीमती और रथनेमि कार्य करने लग जाते है, वे पाप श्रमण कहलाते हैं
दोनों केवली हो गए व सर्व कर्म खपाकर अणुत्तर । सूव्रती मुनियों में सूव्रती होकर पूजनीय होने की
सिद्धि गति को प्राप्त हुए। अपेक्षा विष के समान निम्न व निन्दित होते है व अपना संसार घटाने की अपेक्षा और बढ़ा लेते है।
23) मणो साहसिओ भीमो, दुट्ठसो परिधावई ।
तं सम्मं तु णिगिण्हामि, धम्मं सिक्खाइ कंथगं ।। 18) अमओ पत्थिवा तुब्मं, अभयदाया भवाहि य ।
गौतम स्वामीजी ने केशी जी से कहा - मन दुष्टता अणिच्चे जीवलोगमि, किं हिंसाए पसज्जसी ॥
पूर्वक इधर उधर भागने वाला साहसी भीम अश्व है निर्दोष हिरणों की हिंसा करके, मुझको भय मानते
| श्रुत शील तप आदि धर्म की उत्तम शिक्षाओं की हुए राजन! तुमको अभयदान है, तुम भी सबको
लगाम से मैं इसे वश में रखता हूँ। अभय दो । सर्व राज्य, जीवन और रूप छोड़कर तुमको एकदिन अवश्य ही परलोक जाना है, फिर
24) एयाओ अह समिईओं, समासेण वियाहिया। तुम इस अनित्य, परिवर्तनशील विनाशशील राज्य दुवालसंगं जिणक्खायं, मायं जत्थ उ पवयणं ।। व हिंसा में क्यों आसक्त हो रहे हो ?
द्वादशांग रूप सर्व समिति गुप्ति (मन गुप्ति आदि) 19) जम्मं दुक्खं जरा दुक्खं, रोगा य मरणाणि यं । इन ओट में समाया हुआ है। अहो! दुक्खो हु संसारो, जत्थ कीसति जंतुणो।।
25) ण वि मुंडिएण समणो, ण ओंकारेण बंभणो । जन्म का दुःख, बुढ़ापे का दुःख, रोगों व मरण के ण मुनि रण्णवासेणं, कुसचीरेण ण तावसो ||
मुंडित होने से कोई श्रमण नहीं होता, ओंकार जपने आश्चर्य है! दुःखकारी संसार में जीव कितना क्लेश
से कोई ब्राह्मण नहीं होता, जंगल में रहने से कोई पाते है।
मुनि नहीं होता, वृक्षों की छाल पहन लेने से कोई 20) अप्पा कता विकता य, दुहाण य सुहाण य ।
तापस नहीं होता। अप्पा मित्तममित्तं च, दुपट्ठिय सुपट्टिओ ।।
समयाए समणो होई, बंभचेरेण बंभणो।
दुःख
Page #189
--------------------------------------------------------------------------
________________
णाणेण य मुणि होई, तवेण होइ तावसो || | 30) एवं तु संजयस्सावि, पावकम्म निरासवे । समभाव से श्रमण होता है, ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण, | भव कोड़ी संचियं कम्म, तवसा निज्जरिज्जइ ।। ज्ञान से मुनि व सत्य तप से ही तापस होता है। बहुत बड़ा तालाब सुखाने के समान पापकर्म व आश्रवों 26) सामायारिं पवक्खामि, सब दुक्ख विमोक्खणिं।
को रोक देने वाले मुनि तप से करोड़ो जन्मों के संचित जे चरित्ताण निग्गंथा, तिण्णा संसार सागरं ।।
कर्म नष्ट कर देते है। आगम में कथित दस प्रकार की समाचारी सब दुःखों
31) सिद्धाइ गुण जोगेसु, तेतीस आसायणासु । से मुक्त कराने वाली है, इसका आचरण करके
जे भिक्खू जयई निच्चं, से ण अच्छइ मंडले ॥ अनेक निर्ग्रन्थ संसार सागर को तैर गए । सज्झाए चरणविधि के प्रथम बोल व 33 आशातना तक के वा निउत्तेण, सव्वदुक्ख विमोक्खणे || काउसग्गं बोलों मे जो भिक्खु सदा यतना करते हैं, वे संसार तओ कुज्जा, सव्व दुक्ख विमोक्खणं ।। (सागर मंडल) में परिभ्रमण नहीं करते। स्वाध्याय (आगम ज्ञान) व कायोत्सर्ग (निश्चल ध्यान) 32) भावे विरतो मणुओ विसोगो, एएण दुक्खोह सब दुःखों से मुक्त कराने वाले है।
परंपरेण । 27) मिउमद्दवसंपण्णो, गंभीरो सुसमाहिओ, विहरइ ण लिप्पई भव मज्झे वि संतो, जलेण वा पोक्खरिणी महिं महप्पा, सीलभूएण अप्पणा ।।
पलासं।।
राग व द्वेष उत्पन्न करने वाले भावों से विरक्त मनुष्य मृदु मार्दवता से सम्पन्न, गंभीर, सुसमाधि वाले मुनि श्री गर्गाचार्य शिष्यों की महा अविनीतता के
शोक से रहित होता है व जिस प्रकार जल में उत्पन्न कारण उनसे अलग होकर दृढ़ता पूर्वक तप को
होते हुए भी कमल का पत्ता जल से अलिप्त होता है, धारण करके श्रेष्ठ शील युक्त आचार का पालन
इसी प्रकार वह मनुष्य भी राग द्वेष से उत्पन्न दुक्ख करते हुए धरती पर विचरण करने लगे।
परम्परा से लिप्त नहीं होता है। 28) णाणं च दंसणं चेव, चरितं च तवो तहा एवं
33)अट्ठ कम्माइं वोच्छामि, आणुपुव्विं जह मग्गमणुप्पत्ता, जीवा गच्छंति सोग्गइं॥
क्कम।
जेहिं बद्धो अयं जीवो संसारे परिवट्टई ।। सम्यग् ज्ञान दर्शन चारित्रतप रूपी मोक्ष मार्ग पर
जिन कर्मों से बंधा हुआ यह जीव संसार में परिभ्रमण चलने वाले जीव सुगति को जाते है ।
करता है वे कर्म अनुक्रम से आठ है। 29) जाव सजोगी भवइ ताव इरियावहियं कम्म
34) पंचासवप्पमत्तो... किण्हलेसं तु परिणमे ।।... णिबंधई सुहफरिसं दुसमय ठिइयं...
सुक्कलेसं तु परिणमे ।। मोक्ष मार्ग पर दृढ़ता पूर्वक चलकर केवल ज्ञान पाने
निर्दयता क्रूरता; ईर्ष्या व विषय, साता स्वाद वाले केवली भगवान को जब तक उनकी सयोगी
लोलुपता; माया छल दूसरों को नीचा दिखाना अवस्था होती है, तब तक केवल ईर्यावहिया किरिया
क्रमशः कृष्ण, नील व कापोत लेश्या के लक्षण है। लगती है जो सुख रूप होती है व केवल दो समय
विनय, तप, धर्म, प्रियता, धर्म दृढ़ता; पतले क्रोध की स्थिति वाली होती है पहले समय में सातावेदनीय
मान माया लोभ शांत चित्त; धर्म व शक्ल ध्यान .. का बंध, दूसरे में वेदन व तीसरे समय उसकी
समिति गुप्ति उपशम इन्द्रिय विजय क्रमशः तेजो, 'निर्जरा हो जाती है |
पदम् व शुक्ल लेश्या वाले जीव के लक्षण है।
165
Page #190
--------------------------------------------------------------------------
________________
35) मग्गं बुद्धेहिं देसियं...| मोक्ष मार्ग तीर्थंकर | कंदर्प, अभियोगी, किल्विषी, मोह व आसुरी भावना भगवान द्वारा कहा गया है।
वाले साधुदुर्गति को जाते है। शील नाशक कुचेष्टाएं, . मणोहरं चित्तघरं ... मणसा विण पत्थए ।
हास्य, साता रस ऋद्धि की इच्छा से मंत्र योग,
भूतिकर्म, केवली भगवान के ज्ञान धर्म के सम्यग सजे हुए स्थानों की मुनि मन से भी इच्छा न करे ।
पालकों की निंदा, निरंतर रोष निमित्त कथन, मोहवश ण सयं गिहाई कुविजा...
आत्महत्या, अनाचार, उत्पादक, उपकरण रखनेवाले जीवों की हिंसा के कारण मुनि घर न बनाएँ न मुनि, विराधक होकर दुगर्ति को जाते है । बनवाएं । णत्थि जोइसमे सत्थे.. ॥
जिण वयणे अणुस्ता, जिण वयणं जे करेंति भावेणं । अग्नि से बढ़कर शस्त्र नहीं, इसलिए मुनि अग्नि
अमला असंकिलिट्ठा ते होति पस्ति संसारी ।। वाला कोई कार्य न करें न करवाएं । 'इत्थीहिं अणभिददुए' स्त्रिओं के उपद्रव व बार-बार आवागमन
|| इति ।। से रहित स्थान में मुनि रहने का संकल्प करे? | जिन वचनों में अनुरक्त, जिन वचनानुसार भाव णिमम्मे निरहंकारे...संपतो केवलं णाणं... ।। |
सहित प्रवृति करने वाले अमल, असंक्लिष्ट बनकर ममत्व रहित अहंकार रहित मुनि केवल ज्ञान प्राप्त परित संसारी होते हैं। करके सदा के लिए मुवन्त हो जाते
नोट : जिनाज्ञा के विपरीत अंश मात्र भी प्ररुपणा
की गई हो तो मिच्छामि दुक्कडम् । (तत्व केवली 36) कंदप्पमामिओगं च, किनिसियं मोह मासु रतं । | गम्य) एयाउ दुग्गईओ, मरणंमि विराहिया होति ।।
तीन मनोरथ वह दिन महान कल्याणकारी होगा, जिस दिन मैं अल्प या अधिक परिग्रह का त्याग करूँगा।
वह शुभ समय कब आयेगा, जिस दिन मैं गृहस्थावास को छोड़कर पंचमहाव्रत
धारण करके साधुजीवन को स्वीकार करूंगा।
वह दिन धन्य होगा, जब मैं अंत समय में संथारा संल्लेखना स्वीकार करके पंडितमरण को प्राप्त करूँगा।
* * * * आहार शरीर उपधि, पच्चक्नु पाप अठार मरण पाऊँ तो वोसिरे, जीऊँ तो आगार।।
Page #191
--------------------------------------------------------------------------
________________
विनय बोधि कण
भाग - 13 चातुर्मास - गणेशबाग - शिवाजीनगर - बेंगलोर
सन् 2010
| संकलन B.K. चम्पालालजी मकाणा जैन सुपुत्र किशनलालजी
दौड्डबालापुर (कर्नाटक राज्य) (मरुधर में हाजीवास)
संयोजना श्री मनोहरलाल डुंगरवाल, बेंगलोर श्रीमती संगीता धर्मपत्नी श्री रिखबचन्दजी चोरड़िया, चैन्नई कुमारी निभा सुपुत्री श्री निर्मल कुमारजी नाहर, चैन्नई
क्रमांक
169
173
181
187
193
__ अनुक्रमणिका 1. णमो 2. गागर में सागर 3. आत्मा 4. धर्म का दुश्मन द्वेष 5. पर्याय दृष्टि 6. हॉस्पिटल से बचो 7. अन्तगड़ सूत्र वाचना 8. वर्ष 2010 के टिप्स 9. नाम से अनाम की ओर 10. नव तत्त्व विवेचना 11. सामायिक भाष्य सार
195
205
217
222
224 243
Page #192
--------------------------------------------------------------------------
________________
सन् २०१० का चातुर्मास, गणेशबाग, बैंगलोर
परम प. गुरूदेव श्री १००८ तपस्वीराज श्री चंपालाल जी म.सा के शिष्य पंडितरत्न शिविराचार्य श्री विनयमुनिजी म.सा खींचन का सन् २०१० का यशस्वी चातुर्मास बैंगलोर के गणेशबाग स्थानक में सफलता की ऊंचाइयों को छूता हुआ सानंद संपन्न हुआ। यह चातुर्मास एक अदभूत एवं अविस्मरणीय चातुर्मास के रूप में सदैव लोगों के हृदय में अंकित रहेगा, कारण कि पु. मुनिश्री का इस स्थान में आगमन २२ जुलाई २०१० को हुआ एवं संघ के सदस्यों द्वारा सर्वसम्मति से एक मत विनती पु. मुनिश्री के चातुर्मास के लिए की गयी एवं पु. मुनि श्री महत्ती कृपा करते हुए दिनांक २३ जुलाई २०१० को चातुर्मास की स्वीकृति प्रदान की, जिससे श्री संघ में अपूर्व हर्ष की लहर व्याप्त हो गयी। श्रीमान उत्तमचंदजी बोहरा चातुर्मास समिति सन् २०१० के संयोजक बनाये गये।
पु. मुनिश्री वाणी के जादूगर, सूत्रो के विशिष्ट ज्ञाता एवं एक प्रखर प्रवचनकार हैं अतः प्रातः ८-०० से ९-०० बजे तक युवाओं के लिए विशेष शिविर में करीब ४०० से अधिक संख्या उपस्थित रहती प्रवचन में श्रद्धालुओं की संख्या पर्युषण पर्व आराधना तक करीब ८००-१२०० तक एवं उससे अधिक तथा पर्युषण में तो हजारों की संख्या में श्रद्दालु उपस्थित होकर ज्ञान गंगा में स्नान का लाभ लेते। पु. मुनिश्री ने इस चातुर्मास में शिविर में एक कदम अपनी ओर शीर्षक से ज्ञान की गंगोत्री बहायी, जिसे श्रीमान चम्पालालजी मकाणा द्वारा संग्रहित कर हस्तलिखित रुप में प्रस्तुत किया । अनेक धर्म श्रद्धालुओं के सौजन्य से इन हस्तलिखित पुस्तकों की ३९००० पुस्तकें करीब प्रकाशित हुई, जिसने एक नया आयाम प्रस्तुत किया, इस रुप को लोगों द्वारा खूब सराहा गया, लोगों के हृदय में इस आयाम ने अपना अमिट स्थान बनाया।
इन संग्रहों को पुस्तकाकार रुप प्रदान करने में श्री चंपालाल जी मकाणा, श्री मनोहरलालजी डुंगरवाल तथा श्रीमान शांतीलालजी लुणावत ने अत्यंत मेहनत की है। हस्तलिखित इन संग्रहो की इन ७ पुस्तकों को “विनय बोधि कण भाग १३” के रूप में प्रस्तुत किया गया है। इस चातुर्मास में पु. मुनिश्री के प्रवचन एवं दर्शन का लाभ लेने के लिए इरोड, ऊटी, कुन्नुर, चेन्नई व बैंगलोर के अनेक उपनगरों से श्री संघ उपस्थित हुए। पु. मुनिश्री का यह चातुर्मास अनेक अर्थों मे एक अविस्मरणीययशस्वी चातुर्मास के रूप में सदैव याद किया जायेगा। पर्युषण पर्व पर दिल्ली से पधारी डा. कंचन जैन (प्रिन्सिपल और आल ईण्डिया डिबेटर) तथा मातुश्री कान्ताबेन और इन्दौर से श्री कस्तूरचंदजी ललवानी सपरिजन सहित उपस्थित थे। अन्तगड सूत्र की वाचना, जो विशिष्ट शैली से दी गई, हजारों के कानों तक सुनी गई तथा अमिट छाप छोड़ गई हैं। नोट : बेंगलोर वासीओ ने ५-५ चातुर्मासों में डा. कंचन जैन की आगम पठनपाठन की विनम्रता सहित दी गई वाचना को सुना, सुनने से जन मानस बहुत ही प्रभावित हुआ है ।
Page #193
--------------------------------------------------------------------------
________________
1.
2.
3.
4.
5.
6.
7.
8.
9.
10.
11.
एक कदम अपनी ओर
प्रथम सत्र : विषय : णमो (नमस्कार )
धर्म (चारित्र) की शुरुआत नमस्कार से ही होती है।
मानव की सबसे बड़ी समस्या (Ego) अहंकार है।
Problems में सबसे बड़ी प्रोबलम है (Ego) अहंकार |
जिनशासन में इस (Ego) रुपी बीमारी की दवा है - णमो (नमस्कार)
नमस्कार से बाह्य रुप में भले ही अपना महत्व घट सकता है परन्तु भीतरी दृष्टि से तो हमारी आत्मा बलवान बनती है, गुणवान बनती है।
नमस्कार में ही गुणवान का अस्तित्व छिपा होता है।
नमस्कार उत्तम चारित्रवान आत्माओं को . एवं उपकारियों को किया जाता है। मानवीय दृष्टि से किसी भी जीव का तिरस्कार करना भी ego (अहंकार) में ही आता है।
नमस्कार का मौन भाषा में उपदेश - I am nothing But you are everything. मैं कुछ भी नहीं, परन्तु आप सब कुछ है।
नमस्कार रहित मानव का व्यवहार एवं सोच दोनों प्रधान रुप से नकारात्मक होते हैं। “ण”= नहीं
म = मै अर्थात मै नहीं
12. जिस प्रकार मिट्टी में बोया बीज अपने अस्तित्व को समाप्त करने पर ही लाखों करोड़ो नये फल / बीज देने वाला वृक्ष बनता है, उसी
169
13. अर्हम एवं अहम् दोनों की दिशाएं विपरीत होती है अहम् से अर्हम् दूर रहता है जबकि अर्हम् में अहम् नही होता है।
14. जिस संघ एवम् परिवार के व्यक्ति में 'नमो' का गुण नहीं होता, वह व्यक्ति शायद मनुष्य गति की योग्यता से बाहर है।
15.
16.
17.
18.
प्रकार अहम् अर्थात ego के नष्ट होने से ही आत्मा में अनन्त गुणों का प्रकटीकरण होता है।
19.
नमस्कार आत्मा को अंतर आत्मा बनाता है, और अन्तर आत्मा ही परमात्मा बनती है।
22.
नमस्कार से दूर रहने वाला व्यक्ति मूलतः विपत्तियों से ही घिरा रहता है।
नमस्कार सुखों का द्वार है।
नमस्कार मानवीय विवादों को दूर करने की 'अचूक दवा है।
नमस्कार जीवों को जोड़ने का काम करता है।
20.
नमस्कार से पुण्य बंध व निर्जरा होती है। 21. शून्यता से 'पूर्णता' की प्राप्ति नमस्कार से होती है।
महाभारत (संघर्ष) से बचने की सर्वश्रेष्ठ क्रिया है “नमस्कार”
23.
24.
पात्रता की प्राप्ति नमस्कार से होती है। नमस्कार से ही मिलता है पुरस्कार। (ईनाम) 25. गुरु-शिष्य को नमस्कार ही जोड़े रखता है।
Page #194
--------------------------------------------------------------------------
________________
26.
27.
30.
28.
नमस्कार मानवीय जीवन का एक सेतु है। 29. जीवन को दुःखी नहीं बनाना तो नमस्कार करो।
31.
32.
नमस्कार नहीं करने से (बड़ो को) आसातना नामक दोष लगता है।
आसातना का पाप आत्मा को दुर्लभ बोधि तक बना सकता है।
34.
मन की कठोरता को तोड़ने में नमस्कार उत्तम साधन है।
तीर्थंकर पद प्राप्ति के 20 बोलों में एक बोल "विनय” बताया है बिना नमस्कार से विनय को प्राप्त नहीं किया जा सकता 'गुण है।
नमस्कार करने से सामने वाले व्यक्ति के हृदय में हमारी योग्य छबि बढ़ती है।
33. विनयवान को देवलोक में भी उत्तम पदवी मिलती है।
गुणों को प्राप्त करने की पात्रता बनती है - नमस्कार से।
35. छोटे बड़े का भेद नमस्कार से ही पता लगता है।
36. “ णमो” शब्द महत्वपूर्ण होने से ही ये ( नमस्कार सूत्र में ) “पाँच" बार आया है। 37. विनयवान से सभी प्रेरणा लेते है। 38. विनयवान के पास सभी बैठना व सुनना पसन्द करते है।
39. विनय के सात (7) भेद शास्त्र में बताये है
1) ज्ञान 2 ) दर्शन 3 ) चारित्र 4 ) मन 5) वचन 6) काया और 7 वाँ लोकोपचार विनय । 40. जैन धर्म विनय मूल धर्म माना गया है। ज्ञाता धर्म कथा सूत्र के अनुसार “जितना
41.
170
42.
जितना पाप का त्याग जीव करता है, वह सभी विनय में ही आता है।”
43. उपरोक्त समाधि व श्रुत दोनों ही निर्जरा प्रधान है।
शास्त्र दसवैकालिक में "विनय समाधि” नामक अध्ययन है, उत्तराध्ययन शास्त्र के प्रथम अध्ययन का नाम भी विनयश्रुत बताया है।
44. वृक्ष के मूल जड़ के समान मोक्ष का मूल विनय है।
45. शुभ कार्यों के करने से पहले बड़ों का विनय करना ही चाहिये, ताकि विघ्नों से बचाव होता रहे।
47.
46. बड़ो को नमस्कार (विनय) करने से शाता पँहुचती है तथा स्वयं को भी सुख की अनुभूति होती है।
48.
49.
50.
51.
नमस्कार करने से अभिमान के भाव घटते हैं व विनय के पज्जवों (पर्यायों) में वृद्धि होती है।
विनम्रता मानव की प्रथम 'पहचान' है। गुणवान बनने का प्रथम गुण “नमस्कार” है। शिक्षा का विरोधी 'अभिमान' है।
शिक्षा को प्राप्त करने में 5 दोषों में प्रथम दोष- दुर्गुण घमण्ड (मद) को ही माना है। 52. नमे सो आम्बा आमली, नमे सो दाड़म दाख।
एरण्ड बेचारा क्या नमे, जिसकी ओछी साख।
54.
53. जिस घरमें प्रणाम, वहाँ सदा रहेगा नाम। . जो नहीं करता प्रणाम उसका कैसे रहेगा नाम ?
Page #195
--------------------------------------------------------------------------
________________
नमस्कार से क्लेश- संघर्ष की जल्दी समाप्ति हो जाती है।
56. नमस्कार से सबको अपना बनाया जा सकता है।
55.
57.
58.
59.
60.
61.
नमस्कार से संघ (धर्म) की गरिमा बढ़ती है।
62. जीवों को परस्पर जोड़े रखता है नमस्कार । अनबनाव को रोकता है नमस्कार ।
63.
64.
नमस्कार करने से जीवों की कठोरता कम होती है।
65.
66.
नमस्कार से जीवन में 'सरलता' आती है। नमस्कार को आदि मंगल माना गया है । नमस्कार घर, परिवार व धर्म संघ की मर्यादा है।
नमस्कार करने से क्रोध व अभिमान छूटते है।
69.
67. झुकना सेवाभावी की आदत (पहचान ) है, लेकिन अकड़न मुर्दों की पहचान है। 68. शिक्षाशील व्यक्ति नम्रता से भरपूर होता है सच्चा पढ़ा लिखा ( एज्युकेटेड़) होता है। नमस्कार की प्रवृत्ति सन्मार्ग - मोक्षमार्ग से आती है।
70.
नमस्कार से क्षमा व मृदुता में वृद्धि होती है। नरक तिर्यञ्च गतियों में गमन को नमस्कार रोकता है।
नमस्कार विनय से शैलक राजर्षि को पंथकजी ने बदल डाला था।
71. जिन शासन में चमत्कार को नमस्कार नहीं होता, परन्तु जिनशासन में चारित्र को नमस्कार होता है। नमस्कार से चमत्कार होते हैं।
171
72. जिसमें ज्यादा विनय, उसका अधिकार ज्यादा।
73.
अगर तुम किसी गुणवान के चरणों में शीष झुकाओ तो एक दिन तुम्हारे चरण भी किसी के झुकाने योग्य हो जायेंगें।
74. विनयी (विनयवानों) की संगति करते रहें, परन्तु ईर्ष्या (ईर्ष्यालु) से बचते रहें।
75.
विनय एक ऐसा चुम्बक है, जो कि बड़े बड़े महापुरुषों को अपनी ओर खींच लेता है।
76. जिसमें नम्रता, सरलता और सौम्यता होती है, वही व्यक्ति आगे बढ़ता है।
77. विनयवान को पता रहता है कि:
बचपन तो खोया नादानी में
यौवन की अवस्था न्यारी है
श्रीमान बुढ़ापा आया तो फिर चलने की तैयारी है।
78. बड़ों को बताकर बाहर जाना भी नमस्कार में आता है।
79. पुनः वापस आने पर बड़ों को बताना भी नमस्कार में आता है।
80. अपने कार्य हेतु बड़ों की अनुज्ञा लेना भी नमस्कार में आता है।
81. दूसरों के कार्य हेतु बड़ों की अनुज्ञा लेना भी नमस्कार में आता है।
82. अपनी लाई वस्तु अन्यो को लेने को लिए आग्रह करना भी नमस्कार में आता है। 83. अपनी किसी भी इच्छा को बड़ों के सामने प्रकट करना भी नमस्कार में आता है। 84. अपनी गलती को स्वीकार करना भी नमस्कार में आता है।
Page #196
--------------------------------------------------------------------------
________________
85. बड़ों की बात को स्वीकार करना भी | 99. जिसके पास नमस्कार है, उसका जंगल नमस्कार में आता है।
में भी मंगल हो जाता है। 86. बड़ों के आगमन पर खड़े होना भी नमस्कार
बड़ हाना मा नमस्कार | 100. बिना नमस्कार से मानव की पहचान में आता है।
'घमण्डी' के रूप में होती है। 87. विनय से ज्ञान वृद्धि होती है और ज्ञानी के
101. बिना नमस्कार (विनय) से साधक को सड़े विनीत बनने पर ज्ञान की शोभा महिमा
कान वाली कुत्तिया की उपमा दी गई है, बढ़ती है।
जो जहाँ जहाँ जाती है, तिरस्कृत ही 88. विनयवान कटु वचनों से अन्यों को दुःखी
होती है। नहीं करता है।
102. जैसे चावलों को छोड़कर विष्टा का सेवन 89. तीर्थंकर परमात्मा भी दीक्षा लेते समय सिद्ध
करता है सूअर- वैसे ही अविनीत गुणों भगवन्तों को नमस्कार करते है | “सिद्धाणं
को छोड़कर अवगुणों को ग्रहण करता है। नमो किच्चा" | 90. नमस्कार से ही इन्सान भगवान बनने की
103. विनय से कठोर प्रकृति के गुरु को मृदु सीढ़ी चढ़ता है।
बनाया जा सकता है, और अविनय से
मृदु को भी कठोर बनाया जा सकता है। (बन 91. घमण्डी बनने से बचाता है - नमस्कार।
सकता है)। 92. सम्यगज्ञान के प्रति श्रद्धा बहुमान भक्ति व आत्मकल्याण में हेतु मानना ज्ञान विनय है।
104. मानव का प्रथम संस्कार नमस्कार है। 93. मोक्ष मार्ग व सम्यक दर्शन को चारित्र की 105. श्रद्धा - चारित्र व उपकारी की दृष्टि से
नींव के समान श्रद्धापूर्वक मानना ही दर्शन, नमस्कार करना ही चाहिये, जबकि अविनय विनय है।
तो जीव मात्र का नहीं करना चाहिए। 94. शक्ति अनुसार पापों का त्याग करना, व्रत | 106. विनय से (नमस्कार से) जीवों में जुड़ाव
धारण करना ही चारित्र विनय है (देश रहता है, परस्पर सहयोग - वात्सल्य के चारित्र)
भाव बढ़ते रहते हैं। 95. नमस्कार भाव तीनों जगत् में स्वामित्व का
107. बिना नमस्कार के आपका जीवन निःसार बीज है।
है - असार है। 96. साधक को सदा नमस्कार-विनय गुण का
108. परस्पर जीवों में वैर की परम्परा को तोड़ता आचरण करना ही चाहिए।
है, सभी जीवों के प्रति आत्म दृष्टि से देखता 97. बिना नमस्कार से किसी को कुछ नहीं
हैं। सार यह है कि 'नमस्कार करना' मानव मिलता।
को जिनेन्द्र देव द्वारा मिला शुभ उपहार 98. नमस्कार एक मीठा प्याला है, जो सबको है इसे संभाले, इसे दैनिक प्रयोग करते मीठा लगता है।
रहे।
शाला
Page #197
--------------------------------------------------------------------------
________________
गागर में सागर (अपनी गली)
1. जो निरन्तर सत्य के साथ जीते है, वे ही | 14. मकान मनुष्य के हाथों से बँधता है परन्तु सद्गुरु है।
हृदय से बंधता है। 2. हमारी गलतिएँ, हमें दिखने लग गई, समझो - 15. विशेष चक्रवर्ती छः खण्ड को छोड़कर संयम तुम समझदार बन गए हो ।
लेता है, और एक तू छः कमरे वाला एक अहंकार भयानक असाध्य (क्रोनिक) रोग
मकान' भी नहीं छोड़ सकता है। कैसी मोह
दशा?
16. प्रीति कोई लेन देन की चीज नहीं है, वह "रोके जीव स्वच्छन्द तो पामे अवश्य मोक्ष"
तो अनुभूति का आस्वाद है। “निजदोष दर्शन" करने के बाद जगत
17. किसके रोने से कौन रुका है कभी यहाँ, निर्दोष दिखता है।
जाने को ही सब आये हैं, सब जायेंगे, 5. कटुता - कठोरता से भारी व्यवहार हो जाता चलने की ही तो तैयारी बस जीवन है, कुछ
है और मृदुता-ऋजुता से जीवन में हल्कापन सुबह गये कुछ डेरा शाम को उठायेंगे। (तनाव रहित) आ जाता है।
18. मतभेद से नये नये ग्रुप (संगठन) बनते 6. बहुत बार छोटा मित्र काम आता है।
हैं परन्तु मन-भेद रखने से तो धर्म मार्ग 7. बिना आडम्बर का एक उपवास आडम्बर
(सुधर्म) से ही भटक जाते हैं । की अठाई से ज्यादा फायदेमन्द है।
| 19. आगामी जन्म में वैर की गांठ का दुःख
उठाना पडेगा। यह संसार विचित्रता, 8. He that does good to another does good विविधता और विषमता से भरा हुआ है। to himself. जो दुसरों का भला करता है,
20. नम्रता से प्रत्येक दरवाजा खुलता है। वह स्वयं का भला करता है।
21. वैभव को (Luxury) को जरुरत मत बनाओ। 9. बल से अधिक भलमनसाहत ज्यादा
22. किसी को भी हमारे कारण दुःख न हो, असरकारक होती है।
यही भाव (सोच) सुखी होने का मार्ग है। 10. किसी व्यक्ति से जुड़ना हो तो उसकी बात
23. रुपया गँवाने से भी अगर वैर निर्मूल हो ध्यान से सुनो।
जाता है, तो वैर मुक्त हो जाइए। 11. पल भर का क्रोध आपका पूरा भविष्य बिगाड़ | 24. किसीके साथ टकराव हुआ, यह हमारी सकता है।
अज्ञानता (कमजोरी Weakness) की 12. जीवन की सर्वोच्च शैली का सूत्र है - न्यूनतम निशानी है।
लेना, अधिकतम देना, श्रेष्ठतम जीना। | 25. टकराव में सामने वाले व्यक्ति तो निमित्त 13. हजार हाथ से एक मस्तिष्क का अधिक मात्र हैं, अतः वे (सोमिल के समान) निर्दोष __ महत्व है।
Page #198
--------------------------------------------------------------------------
________________
26. “किसी के साथ टकराव या संघर्ष में कभी न उतरें” यह Master key है ।
27. जो व्यवहार में माँ-बाप के सम्बन्धों की उपेक्षा करे, उसे धर्मात्मा कैसे कहना ?
महान वह होता है, जो द्वेषी को भी क्षमा प्रदान करता है। माफ करने वाला महान होता है बनिस्पत माफी मांगने वाले से। 29. सद्भाव रखना मानव जाति का सबसे अच्छा महा विद्यालय है।
28.
30. क्षमा से कमालो, गँवाए हुए को । क्षमा से हंसालो, रुलाए हुए को।
31.
32. अहंकार, हमें क्षमा मांगने से रोकता है और तिरस्कार, क्षमा देने में बाधक बनता है।
33. तुम्हारी चाहत मुजब नहीं, परन्तु तुम्हारी 'लायकात' मुजब ही मिलेगा।
34.
क्षमा से सभी ग्रंथिया सुलझ सकती है, सभी जख्म भर सकते है और सभी व्यक्तियों मधुर सम्बन्ध बन सकते है।
35. दूसरे के झगड़ों में ज्यादा सिर नहीं खपाना। 36. दिल को सुधार लो, दुनिया स्वयं सुधर जाएगी।
37.
धन से कभी-कभी ही सुख मिलता है। (क्षणिक)
आज के मे सबसे बड़ी कमी यह है मनुष्य कि उसके पास निर्णय की क्षमता नहीं है। 38. जो तुम मीठा न बोल सको, तो कुछ भी मत बोलो।
39.
सलाह लेनी हो तो वृद्ध के पास जाओ, यदि काम करवाना हो तो जवान के पास जाओ।
174
40.
41. सोच: सम्बंधी जन मित्रगण तेरा साथ छोडेंगे ही, समझदारी यही है कि उससे पहले तूही सम्बंधी जन आदि को छोड़ दे।
महक उठेगी दुनिया सारी. यदि क्षमा के फूल खिलालो, वैर - विरोध मन के मिटाकर,भीतर स्नेहका दीप जलालो ।
42. क्या सन्तान - बहु- नौकर के दिल भी काँच की तरह तो नहीं होते है ? Care करिए ।
43. किसी की कमियों को देखना, स्वयं की कमी है, किसी की विशेषताओं को देखना स्वयं की विशेषता है।
44.
45.
47.
48.
चित्त की शुद्धि ही वास्तविक सौन्दर्य है। वही सच्चा हिम्मती है जो कभी निराश नहीं होता।
46. जो नहीं पकड़ता अर्थ को, वह पकड़ता व्यर्थ को।
'अर्थ' को पकड़ो, 'व्यर्थ' को छोड़ो।
उससे सचेत रहो, जो शिशु को हास्य से घृणा करता है।
49. जो सम्बन्ध बाद में भी सामने वाले तोडेंगे? उन संबंधों कों पहले ही छोड़ देना 'अच्छा' है?
50. अच्छी-अच्छी घटनाओं को याद रखिए ।
बुरी-बुरी घटनाओं को भूल जाइए।
जो 'खुद 'के साथ ठीक-ठाक रहता है, वही दूसरों के साथ भी ठीक ठाक रह सकता है। 51. नौ-नौ मंजिल के महल बांधने वालों की मृत्यु के समय, ये महल भी जैसे मजाक उड़ाते हैं कि “आप तो चल दिए लेकिन हम तो यहीं खड़े है" ।
Page #199
--------------------------------------------------------------------------
________________
52. जितनी शक्ति माँ के मौन आशीर्वाद में | 63. हम ही सही नहीं होते है, दूसरे भी सही
होती है, उतनी ही शक्ति माँ के निःश्वास होते हैं। (आह) में भी होती है।
64. बातचीत में महत्वपुर्ण है 'रिश्तों का आदर' 53. मौन आर्शीवाद इन्सान को महान बनाते
करना। है और निः श्वास (आह) उसे कभी सुखी | 65. तकरार से नहीं जीतें, मित्रता खोए बगैर होने नहीं देते।।
तर्क से जीतें। 54. बोलना एक कला है, चुप रहना सर्वश्रेष्ठ | 66. अपनी खूबियों को पहचाने, खामियों को कला है।
समझे। 55. व्यक्ति जितना बोलकर कष्ट पाता है, उतना | 67. जो भी करो दिल से करो। मौन रहकर नहीं।
68. फैसला करने के पहले, फासले मिटा लो। 56. कम बोलने का गुण आ जाये तो व्यक्ति तब ही आराधक बनोगे ना?? बहुत बड़ा साधक बन जाता है।
69. जरुरी कुछ नहीं होता, जरुरत होती है। 57. दयालुता ऐसी भाषा है, जिसे बहरा भी 70. भाग्य मत जानिये, भाग्य बनाने में जुट
सुन सकता है, अन्धा भी देख सकता है। जाइये। 58. मौन रहने के 10 गुण - जीवन की श्रेष्ठ 71. जब बहस करना बेकार लगे, तो चुप रहना
शक्ति है 1. क्रोध नहीं आए। 2. लड़ाई बेहतर है। जब बहस करना अच्छा न लगे नही हो। 3) झूठ का पाप नहीं लगे 4) तो चुप रहना बेहतर है। अभिमान नहीं आए। 5. समय खर्च नहीं
72. बुद्धिमान व्यक्ति कम बोलते हैं, उनकी हो। 6. शक्ति नहीं घटे। 7. बुद्धि भ्रष्ट नहीं
आवाज अधिक सुनी जाती है। मौन सर्वोत्तम हो। 8. कर्मो का बंध नहीं हो। 9. नीच गति
नीति है। में नहीं जावे। 10. वचन लब्धि प्रगट हो।
73. मन के मौन में सभी प्रश्नों के उत्तर होते है। 59. मौन रहो या वो बात कहो जो मौन से श्रेष्ठ
74. घर के अभिभावक ही जब गलत राहों पर हो।
चलते हैं, तब छोटे चलेंगे ही। 60. उपवास शारीरिक भार से बचाता है, तो
75. भीड़ अनुकरण करती है, सत्य का मौन मानसिक भार से।
अवलोकन नहीं। 61. जब आपका काम बोल रहा है तो आप न | 76. अपनी खुशियाँ गिनो, दुःख नहीं - अपने बोलें।
दोस्त गिनो दुश्मन नहीं। ‘अभाव' को स्वभाव 62. मौन रहकर आपको एक बात का अफसोस न बनाये।
हो सकता है और बोलकर कई बातों का, | 77. भीतर का भीतर में जीना ही अध्यात्म - परन्तु एक चुप सौ विवादों को टालता है। । सुख है।
Page #200
--------------------------------------------------------------------------
________________
78. भाई-भाई का आपस में लड़ना, खून का | 94. लाख रुपये भी (रोजाना) घरमें आये तो अपने ही खून से टकराना है।
भी घर को महफिल न बनने दें। 79. अनर्गल बोलने वाला किसी भी अर्थ में | 95. सूर्योदय के पश्चात सोनेवाला स्वास्थ्य व विद्वान नहीं कहला सकता।
साधन खोता है। 80. मेइन प्रोडक्ट आत्म धर्म है तो पुण्य रुपी | 96. मरना कोई चाहता नहीं और चाहते हुए भी बाय प्रोडक्ट (घास) तो मुफ्त में ही मिलती मौत टलती नहीं।
97. रिश्तों को निभाना सीखें। 81. जिन्दगी में बहादुरी की जरुरत कभी कमी पड़ती | | 98. जो दूसरों का दुःख दूर करने के लिए
है, समझदारी की जरुरत हर समय होती है। अपने सखों का त्याग करता है. वही मानवता 82. भगवान को सब मानते है; भगवान की | के मंदिर का अखण्ड दीप है। कोई नहीं मानता।
99. स्वार्थी व्यक्ति पहले भाई की तरह व्यवहार 83. परिस्थिति से अधिक मनःस्थिति दोषी है। । करता है, फिर मित्र की तरह और बाद में 84. शान्ति, जीवन का सबसे बड़ा वैभव है।
शत्रु की तरह।
100. कोई कितना भी सम्पन्न क्यों न हो, उसे 85. सफर करे। सफर (Suffer) नहीं।
हराम की रोटी नहीं खानी चाहिए। 86. पीछे वालों पर हँसो मत, आगे वालो से
101. पापीने तूं प्यार करी ले, पापीनो उद्धार जलो मत।
थशे। 87. फूल में महक होती है... व्यक्तित्व में चमक
तारा नामे, धर्म तणो दुनियामां जय जयकार होती है।
थशे।। 88. कैसे भी, किसी भी रास्ते से वैर को
102. किसी का मत बिगाड़ो, किसी से मत बिगाड़ो, मिटाइए।
किसी पर मत बिगड़ो। 89. जो मन की माने वह संसारी और जो मन
103. चिंतन करें क्या करना?What to do? किस को मना लेता है वो संत।
कारण करना? Why to do? किस प्रकार 90. भीड़ भाड़ में क्या चलना, भीड़ चले पीछे करना? How to do? तो क्या कहना।
104. मनुष्य परस्पर मनुष्य के सत्य पर विश्वास 91. दिल जीत लेने वाली मुस्कुराहटों का नाम
करता है। जिन्दगी है।
105. जो गलती नहीं कर सकता वो कुछ नहीं 92. जहाँ नम्रता से काम निकल जाए, वहाँ कर सकता । (छदमस्थ) उग्रता नहीं दिखानी चाहिए।
106. खामोशी को सुनना, खामोशी से सुनना। 93. मुस्कान बड़ी-बड़ी मुश्किलों को आसान
107. शिक्षक की शिक्षा से शिष्य में शिष्टता आती बना देती है।
Page #201
--------------------------------------------------------------------------
________________
108. 'अहा' के साथ 'आह' का भी ध्यान रखें। | अतः सब जमाने को खराब कहते हैं। 109. आग लगाने वालों के बाग नहीं लगते। 121. नवग्रहों से भारी ग्रह - परिग्रह खुब सोचें।
122. कठिन है अपनी बेटी पर अनुशासन करना, 110. रहे ज्यां भलाई, प्रभु त्यां रहे छे, बुराई
उससे भी ज्यादा कठिन है अपने बेटे पर नथी ज्यां, प्रभु त्यां रहे छ।
अनुशासन करना, और बहुत कठिन है अपनी 111. आतम जागो ने हवे, शांति नहीं रे मले। पत्नी पर अनुशासन करना परन्तु सबसे 112. करमने लीधे हूँ दुःखी थाउं छु, छता पण
कठिन है अपने स्वयं पर अनुशासन और
नियंत्रण रखना। बुरा कर्मो कर्ये जाऊं छं. 113. मरतां समे मुखेथी भगवन जो भुलाशे,
| 123. विश्वास : विश्वास ही मानव-जीवन में सबसे जीवड़ो क्यां जाशे?
बड़ी शक्ति है। विश्वास का बल ही मनुष्य
को संकटो से पार करता है, उसे लक्ष्य पर 114. भक्ति करतां छुटे मारा प्राण - प्रभुजी एवं
पहुँचाता है। दृढ़ विश्वास कभी हारता नहीं, मांगु छु।
विश्वास अपने आप में अमर औषध है। विश्वास 115. 'कुसंग' एक जहर है। कुसंग से सदैव दूर जीवन है और अविश्वास मृत्यु। रहे ।
124. धर्म = धर्मगुरुओं द्वारा बताया गया वह रास्ता 116. SIX MISTAKES OF MAN
है जिस पर हमें चलना है। The illusion that personal gain is made up of crushing others.
125. प्रार्थना = ईश्वर से बात करना प्रार्थना है। The tendency to worry about things that प्रार्थना में हम ईश्वर से यही तो कहते है कि cannot be changed or tolerated.
अपने जैसा बनालो। Insisting that a thing is impossible because we cannot accomplish it.
126. साधना = ईश्वर के द्वारा दी गई शिक्षा को Refusing to set aside trivial differences.
सुनते हैं मानते हैं, चारित्र में उतारते हैं, Neglecting development and refinement of
तो ये साधना है। the mind and not acquiring the habit of reading and study.
127. मंदिर मन - मन के मैल को विकारो को Attempting to compel others to believe and live as we do.
विसर्जित करने का स्थान है, जहाँ अपनी 117. महंगी से महंगी यदि कोई चीज है तो
कमियों गलतियों आदि पर चिन्तन-मनन वह 'मुफ्त है अतः मुफ्त का कुछ न लें।
किया जाता है। 118. केवल गति न बढ़ायें, गुणवत्ता भी बढ़ायें।
128. प्रतिक्रमण - दिन भर में की गई गलतियों
पर विचार कर उनके लिए 119. जीतना सीखे, पर हारने पर संभलना भी
माफी मांगना। सीखे।
129. साधु - साधु का काम मानव मन 120. सुनलो भाई: खुद को खराब कहने की
के मैल की सफाई करना - हिम्मत नहीं।
Page #202
--------------------------------------------------------------------------
________________
130. सामायिक
है, उसे शुद्ध करना है और सद्मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करना है।
प्रतिदिन किये गये अच्छे या बुरे कार्यो पर चिन्तनमनन करना। दिन भर में की गई गलतियों को पुनः न दोहराने का संकल्प करना।
131. पैसा और मित्रता में बैर है।
132. I have my Money and my Friend. I lent my money to my Friend.
I asked my money to my friend. I lost my money and my Friend. 133. W. Watch your Worse अपनी बुराईयों की जाँच करे, इन पर निगरानी रखे 134. A. Watch your Action अपने किये हुए कार्यों की जाँच इन पर निगरानी रखें।
135. T. Watch your Thoughts अपने विचारों की जाँच करे, इन पर निगरानी रखें।
136. C. Watch your Character अपने चारित्र की जाँच करे, इन पर निगरानी रखें ।
137. H. Watch your Heart अपने हृदय ( मन ) की जाँच करे, इन पर निगरानी रखे
138. मियाँ- बीवी का झगड़ा बकरे बकरी की लड़ाई है।
139. झिड़कियों को सहन करना मृत्यु के समान है।
140. अपना शीष उसके आगे झुकाएँ, जिसने हमें उपर उठाया।
178
141. झूठ सदा अधीर और भयातुर रहता है। 142. नये जूते भी पैर को काटे, तो किस काम के?
सब कुछ होते हुए भी - बेबस - बेचैन है, तो साधन किस काम के ?
143. फरियादें कर कर के फरयादी बन गए
फर्ज को भूल गए और फर्जी बन गए । 144. सुखी जीवन जीने की मास्टर की Key (चाबी) “टकराव टालिये” ।
145. लालच में फँसे तो पिंजरे में कैद हो गए । लालच एक अदृश्य पिंजरा ही है ।
146. चिन्ता से चतुराई घटे । “हाथी को मण और चींटी को कण"
147. Dont see Laws, please settle जिरह,
दलील, तर्क-वितर्क करके तरह-तरह के जजमेन्ट देने की बजाय विश्वास व समर्पण भाव से जीवन जीना सीखे।
148. झूठ के पास दस अक्षौहिणी सेना है, पर सत्य के पास एक अकेले कृष्ण।
149. उससे बड़ा झूठा और कौन होगा? जो. झूठी प्रतिज्ञाएँ करता है । मृत्यु भी अच्छी है यदि प्रतिज्ञा पाली (पलती) हो।
150. परिवार का टूटना प्रेम और आत्मीयता का अंगच्छेद है।
151. देखने की दृष्टि हो तो धरती पर हर ठौर ( जगह) प्रभुके मन्दिर है।
152. बात तथ्यपूर्ण होने से स्वीकार की जाती है जोर से बोलने से नहीं। सत्य तथ्य व कल्याणकारी भाषा हो ।
Page #203
--------------------------------------------------------------------------
________________
153. तेजी कुछ समय के लिए बर्दाश्त की जा सकती है, हमेशा के लिए नहीं । नम्रतासरलता स्वर्ग का द्वार है।
154. बालक का जीवन वह टकसाल है, जिसमें चाहे जैसे सिक्के ढ़ाले जा सकते है।
155. जब मरना ही है तो प्यासे मरने की बजाय तृप्त होकर मरना अच्छा है।
156. जिसमें दया नहीं वह स्वयं दयनीय है। 157. साधु नमें एता टले, काल जाल जम चोट । 158. शीश नमाया झड़ पड़े, लाख पापन की पोट || दोहा॥
159. रुपगर्विता तितली जैसी लाखों ललनाएँ मिलती है।
160. महल छोड़कर वल्कल पहने, वनवासी वह 'सिया' कहाँ है।।
161. अप्पणा सच्च मे सेज्जा सत्य को आत्मा से खोजना ।
-
162. His Life was his message. 163. जंजीरों से न बंध पाने वाले दिल से बंध जाते है।
164. दुःख को भूल जाना ही दुःख की दवा है। 165. इतना नेक आदमी मिलना मुश्किल है जो यह कहे 'मैं बुरा हूँ' ।
166. मान-रहित पत्नी और क्रोध-रहित साधु दोनों ही दुर्लभ है।
167. मित्र दूर रहकर भी करीब होता है। 168. यह जगत तो पूर्णतः न्याय स्वरूप है। 169. कारण बिना कार्य नही होता तथा जहाँ कार्य होता है वहाँ कारण अवश्य होना चाहिए ।
179
170. “मन हारा है”
दीपशिखा की जगमग ज्योति, लेकिन मानव मनमें अंधियारा है
जीवन के इस महा समर में, घट गया तेल "मन हारा है”।
बुझी हुई उस मन की लौ को, आशा की लौ से सुलगाओ।
. माटी के दीपक अब छोड़ो। अपने मन के दीप जलाओ ।
171. निराशा छोड़ दो व्यापार को बदलदो
विद्युत न पहुचाएं पुराने तार को बदल दो है तमन्ना अगर ओरों को बदलने की अरे ! पहले स्वयं के व्यवहार को बदल दो।
172. Speech is Silver but silent is Gold. 173. Everyman is Volume. If you know how to read him.
174. मच्छरदानी के बाहर हजारों मच्छर हो
तो कोई बात नहीं, परन्तु मच्छरदानी के भीतर एक भी मच्छर है तो शांति नहीं रहने देगा।
175. सौभाग्य ( सर्वप्रिय) हर ज्ञानी का साथी है। 176. जो पास में नहीं है, उसे प्राप्त करना है।
जो पास में है, उससे संतोष नहीं, जो अच्छा लगता है, वह मिलता नहीं। प्रायः जो मिलता है, वह अच्छा नहीं लगता। 177. Pleasure is Flower that Fades.
Remembrance is the lasting perfume. 178. सन् 2009 के विहार में अध्यक्ष माम्बलम
Page #204
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री रिद्धकरणजी बेताला के उद्गार- 188. ज्ञानी की नजर 'गया' पर नही, बैलेंस (90 वर्षीय दि. 9 नवम्बर 2009)
पर रहती है।
189. कारण - कार्य (cause and effect) के दो कठिन घड़ी गुजरी इस जीवन में,
सिद्धान्त पर हमेशा दृष्टि रखते है, वे ज्ञानी एक आपके आने से पहले,
कहलाते है। एक आपके जाने के बाद।
190. दृश्य को आँख से देखा जाता है, अदृश्य 179. संतो के गुण लेना दोष नहीं।
को आत्मा से। 180. फीलींग Feeling बिना की सारी फील्डिंग
191. देकर सुख मानों, संजोकर नहीं। Fielding व्य र्थ है।
192. आलसी से दोस्ती करना, दूल्हे को गधे
पर बिठाना है। 181. परस्पर सहयोग, मानव जीवन का अनिवार्य
193. दौलत के घमण्ड ने अब तक किसे अंधा अंग है।
नहीं बनाया। 182 संवेदन-हीन मत बनो?
194. बनाने की सोचिए बिगाड़ने की नहीं। 183. सुख तो हमारा स्वभाव है। सुख तो हमारे
बसाने की सोचिए उजाड़ने की नहीं। भीतर लबालब भरा पड़ा है। मुझमें, आपमें, हम सभी के अन्दर सुख का भण्डार भरा
नया नक्शा बनाना है दुनियाँ का अगर. पड़ा है। जरुरत है केवल भण्डार खोलने जोड़ने की सोचिए तोड़ने की नहीं।
195. Right Decision at the right moment 184. जिन गुरु के यहाँ स्त्री तथा लक्ष्मी (पैसा) | 196. सीधेपन में सार है, टेढ़ेपन में हार है, सम्बंधी व्यवहार न हो, वहाँ हमारा कल्याण
सीधे रस्ते चलने वाला, शीघ्र पहुंचता पार हो सकता है। 185. स्वच्छंदता तो सबसे बड़ा “असाध्य” रोग 197. जिसने हमको ठुकराया हमतो उसके भी
आभारी है 186. पुस्तक में ज्ञान नहीं होता, ज्ञान तो ज्ञानी जिसने हमको गले लगाया, वो प्राणों का के पास होता है।
अधिकारी है। 187. Every action and reaction are equal | 198. किसी को दुःख देना, स्वयं के लिए दुःखो ___and opposite.
को निमंत्रण देने समान है।
की।
है।
जीना है तो पूरा जीना, मरना है पूरा मरना। इस जगत की यही विडम्बना, आधा जीना आधा मरना।
180
Page #205
--------------------------------------------------------------------------
________________
1.
2.
3.
4.
5.
6.
7.
8.
9.
10.
11.
एक कदम अपनी ओर द्वितीय सत्र : विषय : आत्मा
असंख्य प्रदेशी चैतन्य प्रदेशों का समूह आत्मा है।
आत्मा में उपयोग गुण होता ही है।
केवलज्ञान - केवल दर्शन ये दो उपयोग परम शुद्ध होते है।
आत्मा अरुपी होने से चर्म चक्षुओं से नहीं देखी जा सकती है।
आत्मा अजर (बुढ़ापा रहित) अमर है। आत्मा के 2 प्रकार :- 1) कर्म सहित आत्मा । 2) कर्म रहित आत्मा ।
आत्मा अविनश्वर ही होती है, शरीर विनश्वर
कर्मो का उदय आत्मा में होने से शुभा शुभ . सुख दुःख (कर्म जन्य) का वेदन करती है।
आत्मा के बिना न संसार, न आत्मा के बिना भवपार |
आत्मा का मौलिक गुण मात्र जानना देखना है परन्तु राग, द्वेष करना, आत्मा में आए विभाव (परिणाम) भावों के कारण से होता
आत्मा का गुण उपयोग है, पर्यायें प्रतिक्षण बदलती रहती है।
12. जीव या आत्मा एक “द्रव्य” है जिसमें गुण पर्यायें रहती है।
13. चेतना “आत्मा” का लक्षण है।
181
14. मुक्त आत्माएँ अनंतानंत है। मुक्त आत्माओं से भी संसारी या अमुक्त आत्माएं अनन्त गुणी होती हैं।
15.
16. संसार में भ्रमण भी आत्मा करती है और मुक्ति भी आत्मा प्राप्त करती है।
17. इस लोका-लोक में से यदि 'आत्मा' नामक तत्व को निकाल दे तो पीछे कुछ भी नहीं बचेगा।
18. सुख - दुःख, वेदना, ज्ञान, अज्ञान सभी आत्मा में ही होते है।
19.
20.
आत्मा के सामान्यत मोटे रुप में तीन प्रकार कर सकते है 1) बाह्य आत्मा 2) आभ्यन्तर आत्मा 3) परमात्मा।
21.
22.
23.
24.
नव तत्वों में प्रधान तत्व जीव (आत्मा) ही है।
आत्मा को कोई लोक से बाहर निकाल नहीं सकता है।
कर्म जन्य विकार से आत्मा कभी दुर्जन, कभी सज्जन, कभी पंचेन्द्रिय कभी एकेन्द्रिय आदि पर्यायों में जन्म लेती हैं।
आत्मा अखण्ड व शक्ति पिण्डरुप है। द्रव्य आत्मा - असंख्य प्रदेशी चैतन्य पिण्ड को द्रव्य आत्मा कहते है।
कषाय आत्मा- कषाय भावों में वर्त रही आत्मा।
25. योग आत्मा
प्रवृत्ति ।
-
-
मन वचन और काया की
Page #206
--------------------------------------------------------------------------
________________
है।
26. उपयोग आत्मा - सामान्य - विशेष जानना। | 32. “वियाणिया अप्पगं अप्पएणं" - आत्मा को 27. ज्ञान आत्मा - सम्यग ज्ञान युक्त (5 ज्ञान
आत्मा से ही जाना जा सकता है। शरीर में से) आत्मा ।
सुख के मार्ग को खोजना 'प्रेय' है, परन्तु
आत्म सुख के मार्ग को खोजना 'श्रेय' है। 28. दर्शन आत्मा - चार दर्शनो में से कोई भी दर्शन युक्त आत्मा।
33. सब संसार को जाना, परन्तु एक स्वयं
की आत्मा को नहीं जाना, तो सब व्यर्थ 29. चारित्र आत्मा - पाँचों चारित्र में से कोई भी चारित्र युक्त आत्मा।
34. सर्व आत्माओं को अपनी आत्मा समान 30. वीर्य आत्मा - आत्म शक्ति, जो सभी संसारी
समझना चाहिये, जैसी. मेरी आत्मा सुख जीवो में तो होती है परन्तु सिद्धों में भी
चाहती है, वैसे ही संसार में रही सभी भाव प्राण रुप पाती है।
आत्माएं भी सुख ही चाहती होगी ना??? 31. आत्मा के स्वाभाविक गुण 14 होते है।
35. अन्य आत्मा का तिरस्कार करना, मानो 1) सम्यक दर्शन - क्षायिक समकिती है। स्वयं की आत्मा का तिरस्कार करना ही 2) सम्यक ज्ञान - कैवल्य ज्ञानी है। 3) विरति - पाप नहीं करते है। | 36. पुद्गलों से प्रीति करने के बजाय सभी 4) अप्रमत्तता - प्रमाद नहीं करते है।
आत्माओं के साथ मैत्री (प्रीति) करनी/रखनी
चाहिए। 5) संज्ञा रहित - 4 संज्ञा रहित । 6) अकषाय - कषाय नहीं है।
37. “सव्वभूयाइं पास ओ" सभी आत्माओं
(जीवोंको) की समता/सम्यक से देखो - 7) अवेदी - विषय सेवन नहीं है।
समझो। 8) अविकारी - विकार नहीं करते है।
38. “खामेमि सब्वे जीवा” में सभी जीवों 9) अनाहारक - आहार नहीं करते है।
(आत्माओं) से खमाता हूँ। क्षमा मांगता 10) अभाषक - बोलते नहीं है।
हूँ। उदात्त एवम् उच्चत्तम अवस्था में भावों 11) अयोगी - योग रहित होते है।
का दर्शन इस सूत्र में दिखता है ना? तब 12) अलेश्या - लेश्या रहित होते है।
हम क्यों नहीं सभी जीवों से क्षमा मांगकर
अपनी आत्मा में “आल्हाद भाव" प्रहलाद 13) अशरीरी - पाँच शरीर में से एक भी
भाव पैदा करें, भार हल्का करलें। नहीं होता है। 14) अपौद्गलिक - पुदगल अंश मात्र भी
39. आत्मा पर (मन पर) 'बिना भार का भार'।
क्षमा देना व क्षमा मांगने से हल्का हो जाता आत्मा में नहीं रहता।
है। बिना भार का भार तनाव या टेन्सन उपरोक्त 14 गुण शुद्ध आत्मा-सिद्ध भगवान
होता है। में सदैव रहते है।
Page #207
--------------------------------------------------------------------------
________________
40. मेरी जीवों से (आत्माओं) मैत्री (हितकारी | 54. आठ आत्माओं मे से कषाय-आत्मा ही
रुप) है। ऐसा श्रेष्ठ सूत्र मिलने के बाद भी संसार परिभ्रमण का मूल कारण माना है। हमारी आज की दशा भी हमारी ही आत्मा कषाय को सूत्रो में ‘अग्नि के समान माना के विभाव ने बिगाड़ रखी है।
है। श्रुतज्ञान, शील सदाचार व तप रुपी
पानी से ही अग्नि को शांत किया जा सकता 41. दस लाख मनुष्यों को संग्राम में अकेले जीता जा सकता है, (अकेले से) परन्तु
है, न अपनी आत्मा पर कषाय करें न अन्यो स्वयं की आत्मा को जीतना (कषायों को)
पर कषाय करें। ही परम जय है।
55. आत्मा का ‘पाप - त्याग' तरफ झुकाव 42. आत्मा का दमन (पाप से पीछे हटना)
अर्थात जड़ता की पकड़ से बाहर आना। करना चाहिए।
56. आत्मा का पाप तरफ झुकाव अर्थात जड़ता
में रुचि होगी। 43. आत्म दमन करना महा मुश्किल है। 44. आत्म-दमन से जीव इस लोक - परलोक
57. आत्मा के विकास क्रम की भूमिका गुणस्थानों
से जानी जा सकती है। में आत्मा सुखी बनता है। 45. अन्यों के द्वारा दमन (पीड़ा बंधन दबाव)
58. आत्मा की उच्चतम अवस्था सिद्ध व अरिहंत
पर्याय में ही होती है। झेलने की अपेक्षा तप संयम के द्वारा आत्मा का दमन करना श्रेष्ठ होता है।
59. आत्मा का उत्थान व पतन 'मोहनीय' कर्म 46. आत्मा ही आत्मा का मित्र है।
के आधार पर ही होता है। 47. दुष्प्रवृति में लगी आत्मा शत्रु मानी गई है।
| 60. आत्मा अरुपी होते हुए भी ‘रुपी' शरीर में
बंधी है या रहती है। शरीर से आत्मा बंधन 48. मोक्ष मार्ग में लगी आत्मा मित्र मानी गई
व मुक्ति दोनों में सहयोग ले सकती है।
61. उत्तम, पवित्र निर्मल व अनावी आत्मा को 49. आठ कर्मो का बंध व क्षय का कर्ता आत्मा
'आत्म गुप्त' कहा है। को माना गया है।
62. भावना और योग से आत्मा शुद्ध होती है। 50. दुःख व सुख का कर्ता व भोक्ता आत्मा को ही माना गया है।
63. सदैव आत्मा तो आत्मा ही रहेगी परन्तु
इस आत्मा को पुनः मानव जन्म मिलना 51. आत्मा को वैतरणी नदी व कूट शाल्मली
महा दुर्लभ है, अत एव इस मानव जन्म वृक्ष के समान माना है।
को पाप त्याग (संवर संयम) में अधिक से 52. आत्मा को कामधेनु (देवलोक की गाय) माना अधिक जोड़ना चाहिए।
64.
आत्मा का एक उत्तम गुण है संवेदना, बिना -53. आत्मा को ही नंदनवन (आनन्ददेने वाला) | “संवेदना" का व्यवहार लूखा हो जाता है।
माना है।
है।
Page #208
--------------------------------------------------------------------------
________________
65. सम्यक्त्वी आत्मा के पाँच लक्षणों में से एक ज्ञाता दृष्टा हूँ। राग द्वेष करना मेरा स्वभाव
अनुकम्पा गुण दुःखी जीवों के प्रति संवेदन नहीं है समस्त पर-भावों से अलग हो जाना भाव है।
ही मोक्ष है, संवर - निर्जरा से आत्मा कर्मो 66. आत्मा के क्रुरता-कठोरता आदि दोषों को
से रहित होती है, ये अन्तर आत्मा के अनुकंपा - दया भाव ही दूर (क्षय) कर
भाव होते है। सकती है।
70. मुक्त आत्मा - सभी बंधनो, कर्मों, राग67. आत्माओं का वर्गीकरण गुण और दोष के
द्वेष रहित तथा परमाणु मात्र दोष भी जिनमें आधार पर -
नहीं होता है। ज्ञाता-दृष्टा, (सर्वज्ञ) सर्वदर्शी
वीतरागी अशरीरी होते है। A) मिथ्या दृष्टि आत्माएँ अनन्तानंत होती
71. सम्यक दर्शनी आत्मा - "तत्वार्थ श्रद्धानं B) अविरति सम्यक दृष्टि आत्माएं असंख्यात
समयक् दर्शन" तत्वों के यथार्थ भावों पर होती है।
श्रद्धा होना ही सम्यक दर्शन है। C) श्रावक श्राविकाएँ भी असंख्यात होती
72. वह ज्ञान सम्यक ज्ञान नहीं, जिसमें सम्यक्
दर्शन न हो। अर्थात सम्यक् दर्शन में ही
ज्ञान आत्मा रहती है। बिना सम्यक ज्ञान D) प्रमत्त संयत्ती व अप्रमत्त संयत्ती आत्माए जघन्य दो हजार करोड़ उत्कृष्ट नव हजार
से चारित्र गुण की प्राप्ति नहीं होती है। ये
तीन रत्न हैकरोड़ होती है। E) सयोगी केवलज्ञानी आत्माएँ जघन्य दो
सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन, सम्यक चारित्र। करोड़ उत्कृष्ट नव करोड़ होती है।
3. नास्तिक आत्मा व आस्तिक आत्मा ये दो F) सिद्ध भगवान अनंतानंत होते है।
प्रकार आत्मा के होते है। G) सिद्ध भगवान से निगोद के जीव | 74. आत्मा मोहनीय कर्म को क्षय करने के बाद अनंतगुणा अधिक होते है।
पुनः संसार में उत्पन्न नहीं होती है। ' H) मनुष्य की आत्मा ही सर्वगुण सम्पन्न | 75. जिस प्रकार अग्नि में जला बीज पुनः बनती है।
अंकुरित नहीं होता है उसी प्रकार कर्म रुप 68. मिथ्यात्व ग्रस्त आत्मा : भोग भोगने के
(मोहनीय) बीज के जल जाने से आत्मा लिए ही मिले है - “ओ भव मीठो परभव पुनः जन्म नहीं लेती है। कुण दीठो।" हाथ में आए को छोड़ना 76. आत्मा की उच्चतम पराकाष्ठा ‘मुक्ति' है। मूर्खता है, पर लोक व पुण्य - पाप स्वर्ग जो आत्मा एक बार मुक्त हो जाती है वो नरक को नहीं मानता है उपरोक्त विचार पुनः अवतार नहीं लेती है। मिथ्यात्वी आत्मा के है।
77. जैन दर्शन 'अवतारवाद' को नहीं मानता 69. मुमुक्षु आत्मा - मैं चेतन स्वरुप हूँ, मैं | है। उत्तारवाद को मानता है।
Page #209
--------------------------------------------------------------------------
________________
81.
78. शरीरधारी आत्मा को इन्द्रिये प्राप्त होती है | 87. आत्मा के परिभ्रमण का कारण कर्म है जो
उन इन्द्रियों से शब्द-रुप आदि का बोध 'आत्मा' में विश्वास करते हैं, वे आत्मवादी होता है। शब्दादि सब पुद्गल होते हैं।
कहलाते है। 79. आत्मा की निकृष्ट पर्याय निगोद' में रहती | 88. प्रत्येक प्राणी का सुख व दुःख ‘अपना
है। आत्मा निगोद में अनंतकाल रही है। अपना' है यह जानकर आत्म दृष्टा बनें। 80. हे आत्मा! तू अनन्तों के साथ अनंत काल | 89. सभी बलो में सबसे बड़ा बल है 'आत्मबल'। रहा था, आज मानव योनि श्रेष्ठ भव को
90. 'धुणेकम्मसरीरगं' हमें आत्म कल्याण हेतु प्राप्त कर के भी परिवार समाज घर में 5
कार्मण शरीर (कर्मो के भण्डार को धुनना या 7 के साथ रहना भी कितना मुश्किल
चाहिए। राग-द्वेष से ही कर्म का बंध होता होता जा रहा है। हे जीव! तू सोच। अनंत
है।) राग-द्वेष जितना-जितना घटेगा, जीवों के साथ अनंतकाल कैसे बिताया होगा?
उतना-उतना आत्मा का कल्याण होगा। आत्मा को नुकसान पहुँचाने वाले पाँच दाने,
91. प्रभु महावीर ने आत्म कल्याण हेतु धर्म के
दो-प्रकार बताए है-1) अणगार 2) आगार। जिस तरह अनाज का एक दाना या बीज जो पेट में गया हुआ यदि सड़ने लगता है 92. अणगार धर्म - जीवन पर्यन्त गृह को त्याग तो बीमारी को ही देगा ना? उसी प्रकार कर 18 पापों का त्याग कर, 5 समिति, 3 आत्मा में ये 5 दाने दुःख ही देते है यथा गुप्ति व 5 महाव्रतों को धारण करते हुए 1) सुख में लीन 2) दुःख में दीन 3) पाप जीना। ये प्रथम श्रेष्ठ मार्ग है। में प्रवीण 4) धर्म में क्षीण 5) बुद्धि में
93. आगार धर्म = घर में रहते हुए शक्ति का हीन।
गोपन न करते हुए 12 व्रतों का पालन 82. पर्युषण पर्व में संवत्सरी आत्मिक पर्व है। करते रहना तथा संयमियों के माता पिता
"टूटे हुए दिलों व मनों को जोड़ने" का के बिरुद को निभाना, तीन मनोरथों का दिन है, अध्यात्म व आत्मा दोनों जुड़े चिंतन करना व अन्त में संलेखना सहित होते हैं।
पंडित मरण प्राप्त करना। 83. आचारांग सूत्र में कहा है कि आत्मा का | 94. चार गति में जाने के 16 कारणो में से दश छेदन-भेदन दहन व हनन नहीं होता है।
का वर्जन करना तथा छह का सेवन करना। 84. मुक्त आत्मा वर्णादि 20 बोल रहित होती (यथा 1) सरलता 2) नम्रता 3) दया भाव
4) घमण्ड व ईर्ष्या नहीं करना 5) संयम 85. मुक्त आत्मा को तर्को से नहीं समझा जा
धारण करना 6) देश संयम धारण करना।) सकता है, न बुद्धि ग्रहण कर सकती है। | 95. हे आत्मन! तू समाज - परिवार में ईर्ष्या86. मुक्त आत्मा न शरीर धारी है, न पुनर्जन्मा
द्वेष मत रख। नहीं तो बैर की परम्परा बढ़
जाएगी। - है, न स्त्री न पुरुष व नपुंसक है।
Page #210
--------------------------------------------------------------------------
________________
96. हे आत्मा ! तुझे आत्म कल्याण के सहयोगी
साधन मिले है जैसे 1) मनुष्य गति 2) त्रस काया 3) पंचेन्द्रिय जाति 4) पाँच इन्द्रियें परिपूर्ण 5 ) 6 पर्याप्ति 6 ) दस प्राण 7) तीन शरीर 8) नवयोग तथा 9 ) चार उपयोग, इनको संवर - निर्जरा मे लगाना सीख गया तो समझ लें तेरी गति सुधर जायेगी । आत्मा भटकेगी नहीं।
97. हे आत्मन! ये पारिवारिकजनों का साथ भी अस्थाई है, तू मरण भी प्राप्त करेगा ना ? सोच ! मृत्यु के समय धन साथ जायेगा क्या ? नहीं! धर्म साथ जायेगा क्या? हाँ। 98. हे आत्मन। तेरा रूप-यौवन, उम्र सभी बुल बुले - इन्द्रधनुष व बिजली की चमक के समान है। क्षणिक सुखों में मत डूब।
99. आरंभ से ही दुःख का जन्म होता है (आत्मा दुःखी बनती है)
100. हे आत्मा! “अय सन्धीति अदक्खु" हे बुद्धिमान ! आज कर्म निर्जरा करने का सुन्दर अवसर है।
101. जो पाप से मौन (त्याग) होते है, वे ही मुनि आत्मा कहलाते है।
102. जिस आत्मा में जिनवाणी में कोई शंका आदि हो तो सोचे कि "तमेव सच्चं णीसंकं जं जिणेहि पवेइयं” तीर्थंकर परमात्मा ने जो कहा वही सत्य है - निशंक है।
103. एक बार अन्तरात्मा को बेचने के बाद किसी भी किंमत पर खरीदी नहीं जा सकती
है।
104. मनुष्य जीवन में प्रथम पाठ सीखना। “प्रामाणिकता”, नहीं तो सब व्यर्थ है।
186
105. धीरे बोलो, धीमे बोलो, व थोड़ा बोलो आत्म शांति बढ़ेगी।
106. जिस आत्मा को क्रोध बार बार आता है, उसको, फिर कोई दूसरे शत्रु की जरुरत नहीं है।
107. आत्मा के कल्याण हेतु इन चार को करो
-
1) इन्द्रिय दमन 2) कषाय शमन 3) विषयों का वमन 4) गुरुदेव को नमन ।
108. मन वचन व काया को पवित्र रखना ही धर्म की नींव है। मन के विचारों को और स्वप्नों को काबू रखने वालों को धन्य-धन्य है। उनको लाख-लाख प्रणाम करता हूं। अंत में तीन शिक्षाप्रद तीन अमूल्य बोलः 1. प्रातः काल ब्रह्ममुहुर्त में सोना नहीं। 2. माता-पिता व बड़ों को प्रतिदिन प्रणाम
करना।
3. क्रोध का प्रसंग आने पर शांति धारण करना।
मित्र-आत्मा की कभी पीछे से बुराई नहीं करता है, जीवन भर मित्रता निभाना जानता है।
अच्छी अच्छी घटनाओं को याद रखिए । बुरी-बुरी घटनाओं को भूल जाइए । ।
एक आत्मा के साथ अनंत आत्मा रह सकती है, जैसे सिद्ध। फिर क्यों हम 'जड़' के पीछे भाग रहे है। ?? जड़ की तृष्णा से आत्मा दिग्भ्रमित हो जायेगी, उससे पहले “चैतन्य - राज” को हम संभाल लेवे।
Page #211
--------------------------------------------------------------------------
________________
卐 एक कदम अपनी ओर 卐 तृतीय सत्र : विषय : धर्म का दुश्मन द्वेष
1. द्वेष आत्मा की अप्रीति कारक परिणिती | 12. द्वेष के भावों में क्रोध व मान दोनों कषाय
आत्मा पर हावी रहते है । 2. द्वेष ‘आत्मा का रहा मात्सर्य' भाव है।
| 13. द्वेष के परिणामों में हमारी शांति भंग हो 3. द्वेष के दो भेद बताए है - 1) क्रोध 2) मान जाती है और ऐसे नकारात्मक भावों में 4. द्वेष के अनेक अर्थ दिए गये है - यथा 1)
आत्म हत्या तक कर बैठते है। विकृति 2) दूषण 3) मलिनता से भरे 14. शब्दों की कठोरता से दोनों पक्षो में द्वेष परिणाम 4) द्वेष भरा अध्यवसाय 5) की बढ़ोतरी होती है। अप्रीतिभाव 6) स्व - पर आत्मा में बाधारुप 15. मानवीय रिश्तों के टुटने में प्रधानता द्वेष 7) दुष्टता से भरे अध्यवसाय 8) क्रोध व
की ही होती है। अत एवं द्वेष भाव घटाएं। मान से मिश्रित भाव द्वेष बन जाता है 9)
16. द्वेष को तुच्छ, निन्दनीय व निम्न स्तरीय द्वेष दुःख जनक भाव है।
तथा कर्म बंध का कारण माना गया है। 5. द्वेष से ही 'महाभारत' की शुरुआत होती
17. वैर की परम्परा को द्वेष ही बढ़ाती है। 6. द्वेष आत्मा का दूषण है, कारण आत्मा दूषित
18. द्वेष और दुर्गुण में दोस्ती होती है, जिस • होती है।
पर हम द्वेष करते है, उसमें रहे दोषों -
दुर्गुणों को ही हम हर समय देखते है 7. प्रकृति व संस्कृति दोनों को द्वेष रुपी विकृति'
और प्रकट करते रहते हैं। नष्ट करती है।
19. द्वेष और हिंसा की जोड़ी है, द्वेष का परिणाम 8. द्वेष से मन मलिन (कीचड़) हो जाता है,
द्रव्य और भाव हिंसा है। दुर्गन्ध व अशुभ लेश्या से भर जाता है।
20. द्वेष की शुरुआत क्रोध से होती है। 9. शुभ - अध्यवसायों की हानि होती है, दृष्टि
21. क्रोध और धीरज की आपसमें दोस्ती नहीं में क्रोध-मान भर जाता है।
होती है। 10. जिस व्यक्ति पर द्वेष होता है, उस पर से
सामान्यत्तः पर-निंदा करके हम हमारे भीतर प्रीति टूट जाती है।
का द्वेष ही निकालते है। 11. द्वेष करने वाला तथा जिससे द्वेष रखा जाता है, इन दोनों में दुष्टता के भाव बढ़ते
23. जिस व्यक्ति पर हमारा द्वेष भाव है, उसकी है। दया-करुणा-मैत्री टूटती है।
बुराईयों का अधिक से अधिक प्रचार करके
Page #212
--------------------------------------------------------------------------
________________
हम मन में खुश होते है, वो जलता है। | 37. द्वेष की घटोतरी' ही 'धर्म की बढ़ोतरी' 24. उग्र-द्वेष में सामनेवाले पक्ष को हम जीवित
करवायेगी। भी नहीं देखना चाहते है।
38. विनय व प्रीति क्रोध द्वेष को मिटाने की 25. द्वेष हमारी सदबुद्धि को नष्ट करता है,
अचूक दवा है, राम बाण दवा है। जहरीली दृष्टि हो जाती है।
राग : आत्मा को वीतरागी नही बनने 26. हमारी बात को कोई नहीं माने, तो हमें
देता है परन्तु द्वेष तो मानव को ‘इन्सान' उसके ऊपर द्वेष आना शुरु हो जायेगा।
ही नहीं बनने देता है। द्वेष से 'शैतान'
बनता है। 27. द्वेष की गांठ कैन्सर की गाँठ से भी भयानक
39. “सव भूयप्प - अप्प भूयस्स" सभी जीवों
को अपनी आत्मा “समान - समझना" 28. द्वेषी दूसरों पर झूठा कलंक लगाने से भी
इसका गहरा चिन्तन द्वेष को तोड़ देगा। नहीं डरता है।
40. उपशम भाव से द्वेष को “देश निकाला" 29. द्वेषी व्यक्ति प्रायः कलह (कंकाश) में उलझा
दिया जा सकता है। रहता है।
41. तिरस्कार और निम्नभाव दूसरों के प्रति 30. द्वेषी व्यक्ति दूसरों के दोषों की चुगली खाता
द्वेष दिखाता है।
42. द्वेष की गति (अधो) नीची होती है। 31. जीव जिनसे द्वेष रखता है, उनकी निंदा करता रहता है।
43. द्वेष की बहुलता ‘नरक' गति में बताई गई 32. द्वेषी का अन्य नाम 'निरंक' भी हो जाता
44. द्वेष (क्रोध-मान) की भयानकता से 'नरक'
में रहे जीव किसी भी प्रकार की मैत्री (प्रीति) 33. कोमल परिणामों में राग जन्मता है परन्तु
या गुफ्तगू नहीं कर सकते है। कठोरता' में द्वेष का जन्म होता है।
45. नरक में क्रोध (द्वेष का एक रुप) शाश्वत 34. द्वेषी पंचेन्द्रिय हत्या करने से भी डरता
माना गया है। नहीं है।
46. द्वेषी के पास कोई सज्जन व्यक्ति बैठना 35. द्वेष एक चिनगारी होती है, यदि बढ़ती गई
भी नहीं चाहता है। तो सब कुछ भस्म कर सकती है । जैसेः दुर्योधन।
47. द्वेष बढ़ना नहीं रोका तो वैराणुबन्धी बन
जायेगा। 36. युधिष्ठिर (धर्म राज) द्वेष के परिणाम अपने भीतर नहीं आने देते थे। अतएव वे गृहस्थ
उग्र-द्वेष-धर्म का तो दुश्मन है ही, पर्याय में भी 'धर्मराज' कहलाये।
मानवीयता का भी विरोधी है।
है।
Page #213
--------------------------------------------------------------------------
________________
48. मानवीय सम्बन्धो-रिश्तों आदि को तोड़ने में द्वेष वृति प्रधान कारण माना गया है। 49. संघ संगठन में क्रोध-द्वेष प्रवेश हो गया है तो समझना चाहिये कि अब एकता असंभव है।
50. द्वेष एक आग है, जिस घर में द्वेष की आग है वहाँ पर चूल्हा गैस की जरुरत पड़ेगी क्या ?
51. कौरवों का द्वेष ही “महाभारत” युद्ध का कारण बना।
52. जिस प्रकार जंगल में लगी आग को नहीं
बुझाई, तो सम्पूर्ण जंगल को जला सकती है, उसी प्रकार संघ, समाज व परिवार में यदि द्वेष की आग बढ़ गयी तो उसका दुःखद परिणाम क्या होगा? सोच भी नहीं सकते
53. द्वेष का विष बहुत जल्दी ही दोनों पक्षो में फैलता है।
54. द्वेष में बोली गई भाषा को भी 'सूत्रकार' असत्य भाषा कहते है।
55. द्वेष के परिणामों को नेगेटिव (नकारात्मक) होने से शरीर में अनेकानेक रोगों को जन्म देता है।
56. द्वेषी के परिणाम में हिंसा- झूठ-चौर्य कर्म रहता है।
57. द्वेष के वातावरण में कोई भी किसी के पास बैठने की इच्छा नहीं रखता है।
58.
“उत्तम - पुरुष" द्वेष भाव नहीं रखते है। आप भी हो सकते है।
59. बिगड़ा हुआ द्वेष और उग्र-विद्वेष बन जाता
है।
189
60. द्वेष के परिणामों में सौत द्वारा सौत के पुत्र
पर बाटिया गर्म-गर्म सिर पर बांधने से ‘बालक’ की मृत्यु हुई (सौत - गजसुखमाल का जीव था)।
द्वेष हत्यारा है। द्वेष मारक है।
द्वेष में आकर सीता के जीव (पूर्व भव में) मुनि पर कलंक लगाया था।
61.
62.
63. खंदक जी के 500 शिष्यों को द्वेष वश में घाणी में पिलवाया गया था।
64. द्वेष की उग्र परिणिति में परिवारिक जन आपस में बोलना- छोड़ देते है, रिश्ते नाते तोड़ देते है।
65.
औरतों में "द्वेष" जल्दी फैलता है 'बहु'सास', 'देवरानी-जेठानी' आदि में द्वेष तेजी से पसरता है।
66. जिन-जिन परिवार में “अबोला ” चल रहा है, उन्हे सामायिक में क्या आनन्द आता होगा !!!
67. द्वेषी, जिन से द्वेष रखता है, उनका मुँह क्या देखे? उनका नाम भी सुनना पसंद नहीं करता है।
68. द्वेष भाव वाले जीव में पुण्य का बंध नहीं या मंद ही होता है। जलन का एक रुप द्वेष है।
69. द्वेषी का चेहरा फुला, उतरा या सुजा हुआ ही मिलेगा, वो कभी सुख की रोटी न खा ( सकता), न किसी को खिला ( सकता है)।
70. हमारी मन चाही नहीं होने पर भी 'द्वेष' पैदा होता है।
Page #214
--------------------------------------------------------------------------
________________
85. द्वषस
71. पच्चीस क्रिया में एक “पाउसिया" क्रिया है | 82. द्वेष मिटाये बिना पाँच व्यक्तियों का लम्बे
जो प्रद्वेष रुप होती है। जीव-अजीव पर काल तक (साथ साथ रहना) असंभव है। द्वेष करता है।
83. क्रोध बिगड़ता-बढ़ता उग्र रुप में द्वेष भाव 72. “द्देसवत्तिया” में क्रोध व मान को लिया गया
बन जाता है। तथा अहंकार भी द्वेष वृत्ति है, द्वेष का निर्माण क्रोध व मान से होता है। बढ़ाता है।
84. किसी की बुराई में उत्साह से भाग लेना 73. अनन्तानुबंधी द्वेष जो अनन्त जन्म मरण
तथा किसी के सद्गुणों को अनमने मन से को बढ़ा सकता है। नरक गति का बंध
सुनना, ये दोनों प्रवृतियां द्वेष भाव से भरी करता है। स्थिति यावज्जीवन की होती है।
होती है। 74. अप्रत्याख्यानी द्वेष जो बारह मास
द्वेष से अन्यों की द्रव्य और भाव से हिंसा स्थितिवाला, तिर्यंच गति देता है। किसी होती है। प्रकार के प्रत्याख्यान की भावना नहीं होने
86. उग्र राग में स्वयं दुःख उठायेगा, परन्तु देता है।
जिस पर राग है उसे तो सुख देने की 75. प्रत्याख्यानावरणीय द्वेष, श्रावक वृत्ति नहीं अभिलाषा रहेगी, जब कि उग्र द्वेष में सामने आने देता है। चार मास की स्थिति वाला
वाले को जिन्दा ही नहीं रखना चाहता द्वेष मनुष्य गति में ले जाता है।
है। हे प्रभु! क्या होती है, राग द्वेष की
लीला। 76. सन्ज्वलन का द्वेष, वीतरागी नहीं बनने देता है। संज्वलन द्वेष वाला मोक्ष में नहीं
87. 'राग' तो दूर होने नहीं देता परन्तु द्वेष'
तो दूर ही रखना चाहता है, देखना ही जाता, देव गति में जाता है।
नहीं चाहता है। 77. जिससे हम द्वेष रखते है, उसके मित्र
88. द्वेष मानो 'बंजर भूमि के समान है, जो पारिवारिक जनों के प्रति भी द्वेष भाव आ
अपनी आत्मा में उत्तम गुण रुपी फूल नहीं जाते है।
खिलने देता। 78. द्वेष भावों से सुसंस्कारों का वपन नहीं । 89. द्वेष भाव एक “अनादर" व "तिरस्कार"
किया जा सकता है। कुसंस्कारों से द्वेष की रुप भाव है, जो कि सज्जनता से दूर मित्रता है।
कराता है। 79. द्वेषी जीव उच्च कोटि का चिंतन नहीं कर | 90. सद्गुणों के सौरभ की खुशबु द्वेष में नहीं सकता है। द्वेष से इन्सानियत गिरती है।
रहती। 80. अपशब्द, गालियाँ तथा मारपीट व झगड़े
91. द्वेष के कारण एक भाई दूसरे भाई के
साथ रहना नहीं चाहता। के रुप में द्वेष का परिणाम देखा जाता है।
द्वेष से रात में नींद' नही, दिन में 'चैन' 81. द्वेष में अहितकारी दुःखकारी व नकारात्मक
नहीं। शब्द ही निकलते है।
Page #215
--------------------------------------------------------------------------
________________
92. द्वेष की परिणिति में बुराई व दोषारोपण की | 99. बड़ों से छीनकर, धमकाकर, दबाव प्रवृति दिनों-दिन बढ़ती ही रहती है।
डालकर और बिना निरपेक्षता से गुटबंदी
में पड़कर स्वयं अपना व संघ का विनाश 93. द्वेष व द्वेषियों का समुह घर में हो, समाज
ही करेगा। (मुखिया) में हो संघ में हो या गच्छ/समुदाय में हो परस्पर वैर वैमनस्य की अपूर्व वृद्धि | 100. “सव्व भूयप्प-अप्प भूयस्स” द्वेष भाव को करवायेगा। फिर संघटन के टुकड़े मिटाना घटाना है तो सभी जीवों को अपनी करवायेगा तथा अंत में महाभारत आत्मा के समान देखना चाहिये। इसे करवाकर बे मौत (सद्गुणों की)
सीखीये। मरवायेगा।
101. “परपरस्पर - द्वेष वृति” बहरा बना देती 94. द्वेष के मूल में एक कारण यह भी है कि जब
है। द्वेषी सामने वाले की बात को सत्य किसी एक व्यक्ति पर अंधा राग' हो जाता
__होने पर भी सुनता नहीं है। है तो उसके सारे विरोधियों पर भी भयानक
102. द्वेषी व्यक्ति प्रतिपक्षी की अधिक से द्वेष' पैदा हो जाता है । दोनों तरफ द्वेष
अधिक बुराईयों का प्रचार करेगा, बे की प्रवृति से संगठन अंदर ही अंदर घुन
पेन्दे की बाते करेगा। लग, गलता जाता है। पतन तरफ बढ़ता जाता है।
103. बढ़ता हुआ द्वेष 'झूठा कलंक' भी 95. किसी की उन्नति को देखकर भी द्वेषी को
लगाता है। अच्छी नहीं लगती, वह सदैव ईर्ष्या ग्रस्त 104. 'राग' में एक दूसरे की बातें सुनना तो रहता है।
होता है, हितकारी शिक्षा भी दी जाती है
परन्तु द्वेष मे तो हितकारी शिक्षा सुनने को 96. द्वेषी, ईर्ष्यालु - झूठ - कपट के प्रपंच में
भी तैयार नहीं होता है। पड़कर अन्य जीवों को पुरस्कृत करने पुरस्कार की बजाय तिरस्कृत करता रहता 105. द्वेष की प्रवृति आगामी जन्मो में वैर की
गाठे बनकर उभरती है। 97. द्वेषी कभी 'निरपेक्ष दृष्टि' धारण नहीं कर 106. द्वेष की प्रवृति को शास्त्रकारों ने आसुरी सकता है।
प्रवृति मानी है। 98. संघ या गच्छ का मुखिया, जो द्वेष | 107. मनुष्य जाति का स्वभाव 'आसुरी' नही
वृति रखता हो तो महामोहनीय कर्म है। मन से किसी का बुरा सोचना द्वेष' भाव का बंध होता है वह 'दुर्लभ बोधि' ही है। बनेगा। निरपेक्षता के अभाव में ही ऐसा
108. विद्यमान सद्गुणों का विनाश द्वेष भावों होता है।
से होता है।
Page #216
--------------------------------------------------------------------------
________________
109. नरक में द्वेष शाश्वत है। आसूरी भावना
(द्वेष) हकीकत हमारे जीवन को 'नरक' बना
देती है। 110. द्वेषी व्यक्ति 'क्षुद्र व तुच्छ' माना गया है। 111. द्वेष वृति' से मानव भीतर का भीतर टूटता
जाता है। भीतर से टूट जाता है!! 112. द्वेष से क्षमा व मृदुता गुण' टूटता जाता
प्रति ‘शुभ सोचना' 'खामेमि करना’ ‘प्रीति भीतर लानी', कुछ दिनों में उसका (प्रतिपक्षी). द्वेष टूट सकता है। बहुत लोगों ने “भावणा
जोग सुद्धप्पा” से द्वेष को तोड़ा है। अन्तिम प्रतिवेदनः
जैन धर्म आत्म-धर्म है, जिन्हें 'आत्मा' को आराधना में जोड़ना है तो हे "देवाणु प्पिया"
113. द्वेषी व्यक्ति में प्रायः अशुभ लेश्याए व आर्त्त
रौद्र ध्यान रहते हैं। 114. मैत्री - प्रीति' बढ़ाओगे तो द्वेष का जहर
खुद ब खुद घटता ही जाएगा। यही दवा सत्य है। प्रीति जोड़ो - द्वेष छोड़ो (संकेत)
One word is enough for a wise man. 115. हजारो लोग भी हमारे प्रति द्वेष भाव
रखकर हमे दुर्गति में नहीं भेज सकते है। परन्तु हमने 'एक' 'ONE' भी व्यक्ति के प्रति द्वेष - वैर भाव रखा तो हमारी सद्गति अवश्य रुक
जायेगी।?? 116. द्वेष आने में चार कारण प्रधान माने हैं
जमीन, मकान, शरीर, उपाधि। (ठाणांग) 117. “टेली पेथी" मानसिक शुभ भावों (लेश्या)
में रात्रि में सोने से पहले उस व्यक्ति के
द्वेष छोड़कर प्रीति व विनय” की आसेवना करनी ही होगी । उसके बिना जीव “धर्म को धारण करना तो दूर" धर्मात्मा से भी दूर ही दूर रहेगा। सभी का कल्याण होवें । कुछ अतिरेक आ
गया हो तो क्षमा करावें इसी शुभ भावना के साथ :
सन 2010 गणेश-बाग बेंगलोर में चातुर्मासार्थ विराजमान स्व. आचार्य तपस्वीराज चंपालालजी म.सा के शिष्य परम पूज्य विनय मुनि जी म.सा खींचन' द्वारा लगाया गया युवा शिविर “एक कदम अपनी ओर" के तृतीय सत्र' में नव दिवसीय दि. 14 अगस्त से 22 अगस्त 2010 तक के काल में “धर्म का दुश्मन द्वेष” विषय पर विशेष अध्ययन करवाया गया।
शांति के लिए त्याग करें। शक्ति के लिए जाप करें।
सुरक्षा के दिए दान करें। सिद्धि (सफलता) के लिए ध्यान करें।।
बिना आडम्बर का एक उपवास, आडम्बर की अठाई से ज्यादा फायदेमन्द है।
Page #217
--------------------------------------------------------------------------
________________
शिवमस्तुः सर्व जगतः पर्याय दृष्टि एवम् द्रव्य दृष्टि
1. प्रतिक्षण परिवर्तन होती रहे, उसे पर्याय | 11. द्रव्य में गुण और पर्याय रहती है। कहते है - (जल की तरंगे)
12. पर्याय दृष्टि वाला इन्सान, एक उलझन में 2. पर्याय दृष्टि से पदार्थ में आसक्ति पैदा पड़ा जीव होता है। होती है।
13. द्रव्य दृष्टि से सभी समस्याओं का समाधान पर्याय दृष्टि में उलझा जीव सदैव दुःखी हो जाता है। ही रहता है।
14. पर्याय जो अस्थिर है, अनित्य है उसमें पर्यायें प्रतिक्षण बदलती है, ये मान्यता द्रव्य आकर्षित होना ही पर्याय दृष्टि है। दष्टि वालों के सदैव नजर में रहती है।
15. द्रव्य दृष्टि से छः द्रव्यो का स्वतंत्र स्वरुप क्षणिक सुख, दुःख रुप शब्द आदि में है, ऐसी मान्यता होती है। उलझना ही पर्याय दृष्टि है।
16. घटनाएं, उम्र, पुद्गलों की रचना मकान व पर्याय दृष्टि में जीव संसार में भटकता रहता
शरीर आदि में प्रतिक्षण पर्यायें बदलती ही
रहती है। राग-द्वेष की तीव्रता में पर्याय दृष्टि ही 17. पर्याय को पर्याय-परिवर्तनशील ही मानना। प्रधान रुप से कारण बनती है, द्रव्य दृष्टि
18. द्रव्य दृष्टि रखने वाला जीव स्व में स्थिर से जीव क्या? इसे समझे?
रहता है और पर्याय दृष्टि वाला जीव पर्यायों इन्द्र-धनुष का रुप पुद्गल की एक पर्याय में पड़ा रहता है, अस्थिर चलायमान रहता है, रोग या पीड़ा ये आसातावेदनीय की है, सुखों से दूर रहता है। पर्याय है इन दोनों पर्यायों में राग व द्वेष
19. पर्यायों की मांगणी, आत्मा को भिखारी करना ही पर्याय दृष्टि है।
बना देती है। 9. जीव व अजीव दोनों की पर्यायें होती है।
20. पर्यटन स्थानों में ज्यादा घूमना-फिरना ये 10. द्रव्य में गुण और पर्याय होती है। गुण तो ‘पर्यायदृष्टि' के ही कारण है। द्रव्य से कभी अलग नहीं होता है परन्तु
21. पर्याय में सुख मानने वाला क्षणिक सुख के पर्याय बदलती ही रहती है। जिस प्रकार
पीछे ही भागता है। जीव द्रव्य का गुण उपयोग है, जीव में सदा उपयोग तो रहेगा ही। उसी प्रकार पुद्गल
22. पर्यायों में आकर्षित जीव को क्षणिक सुख द्रव्य में भी गुण वर्ण, गंध, रस आदि पुद्गल
(भौतिक सुख) की प्राप्ति होती है। की वर्णादि पर्यायें बदलती ही रहती हैं। | 23. पर्याय दृष्टि वाले जीवों में सदैव नई-नई
8.
Page #218
--------------------------------------------------------------------------
________________
भौतिक इच्छाएं जागती ही रहती हैं। 8. द्रव्य को नहीं समझता है। 24. पर्याय दृष्टि की पर्यालोचना से अनित्य भावना भूतकाल की पर्यायों मे राग द्वेष न करे, में जाना ही कर्म निर्जरा है।
वर्तमान कालीन पर्यायों को क्षणिक समझकर 25. पर्याय दृष्टि वाले को यह पता नहीं रहता है
स्व द्रव्य में रहने की कोशिश करावे। कि जीवन का ध्येय क्या? धन प्राप्ति या 1. भ्रमणा सत्य - रेलगाड़ी में बैठे हुए धर्म प्राप्ति? ज्यादातर लोग बिना ध्येय
का पेड़ पौधों को दौड़ते हुए देखना, से ही जीवन जी रहे है।
यह सत्य नहीं होते हुए भी आँखो की द्रव्य दृष्टि व पर्याय दृष्टि में क्या अन्तर है?
दृष्टि से भ्रमणा हो जाती है।
2. व्यवहार सत्य - माता पिता द्रव्य दृष्टि
रिश्तेदार आदि व्यवहार से सत्य 1. आत्मा के लिये हितकारी है
है, बचपन-युवानी आदि। 2. स्वयं के स्वरुप मे स्थिर रहता है
3. परम सत्य - मात्र “आत्म द्रव्य" ही 3. मैं ज्ञान दर्शन पिण्ड़ रुप हूँ।
परम सत्य है, द्रव्य दृष्टि से स्व 4. उपयोग धर्मी हूँ।
आत्मा में रहना, पर द्रव्य मात्र
सभी मेरे से भिन्न है। मात्र आत्मा 5. पर द्रव्य मैं नहीं हूँ।
में रहना ही परम सत्य है। 6. द्रव्य दृष्टि से विषय विकार शान्त होते है। । एक मिनिट रुकिए : 7. द्रव्य से सभी को अपने समान मानता है। प्र 1. जीवों को भय किसका? 8. पर्यायें आती है, चली जाती है परन्तु मैं तो उ. दुःख का भय है। चेतन द्रव्य सदैव रहने वाला हूँ।
प्र 2. दुःख कैसे आता है? पर्यायदृष्टि
उ. स्वयं जीव के प्रमाद से। 1. अहितकारी है।
प्र 3. दुःख मुक्ति का उपाय क्या? 2. स्वयं में अस्थिर रहता है।
उ. प्रमाद का त्याग । 3. पर्यायों में अटकता है।
प्र 4. धर्म किसके पास है? 4. उपयोग में मोह भाव रहते है।
उ. जो सहन करता है, धर्म ‘उसी' के पास 5. पर्यायों में ही रहता है। 6. पर्यायों के पीछे जीवन भर दौड़ता ही रहता | प्र 5. मानव को जीभ एक तथा 2 कान मिले
है ना? 7. भेद रुप मानता है।
सुनो ज्यादा, बोलो कम।
Page #219
--------------------------------------------------------------------------
________________
है।
卐 एक कदम अपनी ओर विषय : हॉस्पीटल से बचो (पैसा कमाया-शरीर गंवाया) 1. आत्मा संसार में बिना शरीर के लम्बे काल | 13. भगवान महावीर परम “वैज्ञानिक” थे । क्या तक नहीं रहता है।
हमें भगवान के वचनों पर श्रद्धा है??? 2. जीव को शरीर का मिलना 'पुण्योदय' माना
यदि हां तो सोचें कि भगवान ऐसा मार्ग
क्यों बतायेंगे जिससे उनके श्रद्धालुओं का गया है।
स्वास्थ्य बिगड़ता हो। 3. “शरीर माध्यम” “खलु धर्म साधनम्"
| 14. उत्तराध्ययन सूत्र में पुण्यवान जीव में रोगों 4. जैन शास्त्रों में “आरोग्य एवम् दीर्घायु" ये का आना नहीं होता क्योंकि वो पूर्व भव में दो प्रथम सुख माने है।
अच्छा व्रत नियम पालन करके आया हुआ लोगस्स के पाठ में भी “आरोग्य बोधि लामा श्रेष्ठ समाधि देवे।
15. एक एक रोम में करीब पोने दो रोग छिपे है 6. हम जितना बाहर से शरीर को देखते है,
तो साढ़े तीन करोड़ रोगों में साढ़े पांच क्या कमी शरीर के भीतर क्या है? इसे
करोड़ से भी अधिक रोग, हमारे शरीर में देखने एवं समझने की कोशिश की है?
दबे हुए है पर हमारे पुण्य प्रभाव से छुपे हैं। भौतिक शरीर के बारे में भौतिक विज्ञान | 16. भगवान महावीर ने नौ स्थानो (कारणों) खोज पर खोज करता जा रहा है।
से रोगों की उत्पति बताई है, यथा 1.
अधिक खाना 2. अहितकारी खाना 3. मारवाड़ी में भी कहावत है - “पहला सुख
अधिक जागना 4. अधिक सोना 5. अधिक निरोगी काया" (बताया है)।
बैठना 6. अधिक चलना 7. मूत्र रोकना 9. Home to Hotel 31k Hotel to Hospital
8. मल अवरोध करना 9. इन्द्रिय विकारः
उपरोक्त नौ में से कितने बोलों की सेवना 10. रोगों के आने का प्रधान कारण
आज प्रतिदिन हो रही है। असातावेदनीय कर्म है।
17. सामान्यतः शरीर स्वयं ही विजातिय तत्वों 11. मन पर, वचन पर एवम् काया पर निगरानी
को अलग अलग रुपों से बाहर निकालता करना सीखे।
ही है। 12. वर्तमान काल में जीवन पद्धति इतनी तनाव
18. जैन धर्म में “अशुचि भावना" का चिंतनकर ग्रस्त एवम् भागम-भाग की हो गई है कि
शरीर की मुर्छा तोड़ने/घटाने की बात जिसमें रोगों को आने का मौका मिल जाता
कही है)
Page #220
--------------------------------------------------------------------------
________________
में
अ
19. शरीर का पानी करके रात दिन एक करके, | 30. होटल व हॉस्पीटल दोनों का आपस में
खून पसीना बहाकर पैसा कमाते हैं, गाढ़ा संबंध है। युवावस्था में तथा पिछली उम्र में (रोग
31. मांसाहार और शराब ने हॉस्पीटल बढ़ाने आने पर) शरीर को स्वस्थ रखने के लिए
में अच्छी मदद की है। पानी की तरह पैसा बहाते है। क्यों है ना हमारी समझदारी????
32. बाहरी पर्यटन-भ्रमण में खान-पान के 20. भोजन, भजन व भोग ये तीनो प्रगट में
प्रभाव व हवा पानी के बदलाव से भी करने योग्य नहीं होते है।
हॉस्पीटल को बहुत लाभ पहुंचा है। 21. भोग के खुले प्रदर्शन से आज निर्लज्जता
| 33. डॉक्टर पेशा 'सेवा' का है, उसे आज बेशर्मी दिनों-दिन बढ़ रही है।
व्यवसाय बनाकर मानव जाति के साथ
बहुत बड़ा विश्वासघात किया जा रहा है। 22. भजन भी दिखावटी (धर्म) (फंक्शन आडम्बर रुप) होने से धर्म करने के बाद
| 34. विचित्र अनियमित जीवन-शैली के कुछ भी मन में शांति नहीं मिल रही है।
बिन्दु-सुख भोग मे रुचि व सेवा से दूरी 23. भोजन (इन तीनों का मुख्य) की गड़बड़ी
(A) देर से उठना (B) देर से सोना (c)
देर रात्रि तक खाना (D) बड़ों से भय से तीनों में परिवर्तन हो रहा है।
खत्म होना (E) मर्यादाओं (वर्जनाएं) का 24. भोजन की शुद्धता, नियत समय व भोजन
टूटना (F) टी.वी मनोरंजन देखते भोजन की मात्रा का आज विचित्र बदलाव हो करना (G) खाना बनाते समय भी टी.वी गया है इसी कारण Hospitals की मांग देखना (H) समय मर्यादाओं का टूटना बढ़ती जा रही है।
(1) होटलो के भोजन में रुचि बढ़ना (J) 25. रात्रि भोजन व भोजों के आयोजन से
अभद्र वस्त्रो का प्रदर्शन बढना (K) जठन शरीर का स्वास्थ्य नष्ट हो रहा है।
की बेहिसाब बढ़ोतरी (L) नाली गट्टरों में 26. त्रसकाय के जीवों का विराधना (हिंसा)
जीव-जन्तु की उत्पत्ति (M) पानी का इन भोजों में त्वरित गति से बढ़ती जा
बेहिसाब अनुपयोग (N) विद्युत का बेहिसाब
प्रयोग () नित नई पोशाक एवं फैशन में रही है।
रुचि (P) असंख्य इच्छाओं की पूर्ति हेतु 27. रात्रि में विकलेन्द्रिय जीवों की उत्पति प्रायः
पैसों की जुगाड़ में अनीति का प्रयोग (Q) रोगों की बढ़ोतरी के कारण में आता है। शारीरिक परिश्रम का अभाव (R) नौकरों 28. आज का मानव जीने के लिए नहीं खाता की फौज रखना (s) विजातिय सम्पर्क में
है, प्रायः स्वाद के लिए भक्षण कर रहा है। बढ़ोतरी (T) मातृ-भाषा की उपेक्षा (U) 29. होटलों में भोजन करना या होटलों से भोजन
धर्म संस्कृति में लगाव घटना (v) पर्सनल मंगवाना, ये दोनों भी रोगोत्पति के कारण
लाईफ का चलना (w) छोटे से बड़ो को ego problem (x) देर रात मित्रों के साथ
Page #221
--------------------------------------------------------------------------
________________
बाहर घूमना (Y) अनिद्रा रोग में वृद्धि, | 45. वर्तमान एलोपेथी पद्धति से भी नेगेटिव निद्रा का घटना (2) सुख भोग में रुचि व | विचारों में तथा रोगों में तेजी से वृद्धि होती सेवा में कमी।
है। 35. कृत्रिम सर्दी व गर्मी (A/C आदि) से भी | 46. “जीवन शैली” के कारण आज Fast Food बीमारियों में वृद्धि हुई है।
एवं Junk Food का चलन तेजी से बढ़ रहा
है जिसमें कि जहरीले रसायन पदार्थ मिले 36. शरीर का वजन बढ़ने से समस्याएं बढ़ी
होते है।
47. फर्टीलाईजर खाद से अन्नपानी दूषित हो 37. समय-असमय, भोजन-निद्रा-जागरण हो
गया है। रहा है।
48. फल सब्जियों की ऋतु व काल मर्यादा टूटने 38. द्वेष के भावों से रोगों में बेतहाशा वृद्धि हुई
से भी रोगों में वृद्धि हुई है। है।
49. प्रदूषित हवा ने ऑक्सीजन प्राण वायु को 39. फिजीकल फिटनेस आज का मानव चाहता
जहरीला बना दिया है। तो है, परन्तु स्वाद-पर्यटन दोस्ती से हार जाता है।
50. वाहनों के एक्सीडेंटों के कारण हॉस्पीटलों
के व्यापार में वृद्धि हुई है। 40. भावात्मक भावों में ईर्ष्या-द्वेष-गाढ़ा राग तथा क्षणिक क्रोध का आवेश शरीर की
51. मति व गति दोनों तेजी से बढ़ने से युवा भीतरी प्रक्रिया को रोग ग्रस्त कर देता है।
वर्ग जोश में होश खो बैठा है। 41. प्रतिक्रमण व वंदन में फिजिकल व
52. जिस प्रकार शरीर पर मर्यादा से अधिक
भार पड़ने पर शरीर टूटने लगता है, उसी इमोशनल सोच में बहुत-बहुत फायदे होते
प्रकार राग व द्वेष के उग्र दबाव से मन के
ऊपर विचारों का भार पड़ने से व्यक्ति 42. तिरस्कार से (भावनात्मक रुप से) बीमारी मानसिक रोगों से ग्रस्त बनता जा रहा है। बढ़ती है।
भगवान महावीर ने शरीर को उपमा दी है 43. हिंसा झूठ व संत सज्जन का तिरस्कार "विजय चोर" की, इसे मर्यादित भोजन
उनसे अप्रीति एवं उन्हें अमनोज्ञ आहारादि ही दिया जा सकता है। देने से अशुभ तथा अल्प आयुष्य का बन्ध
शरीर पर अति लाड़-दुलार शरीर में रोगों होता है।
को आमंत्रण देने समान है। 44. भावानात्मक रुप से सहनशक्ति कमजोर |
55. भागम-भाग की इस जिंदगी में मानसिक होने से आज युवा पीढ़ी आत्म हत्या तक
रोगियों की संख्या दिनों दिन बढ़ती जा रही कर बैठती है।
Page #222
--------------------------------------------------------------------------
________________
56. चित्त की चंचलता में बहुत बड़ी वृद्धि हुई | 65. जैन धर्म की पहिचान “रात्रि भोजन त्याग”
उस सिद्धान्त को छोड़कर आप लोगों ने. 57. हाई-ब्रीड़ के समान ही आज के बच्चों की
“पैसा पाया परन्तु शरीर गंवाया" यानि दिमागी (तेज गति) सोच बहुत बढ़ गई है,
रोगों को आमंत्रित ही किया। और सहन शक्ति घट गई है।
66. खाने-पीने की अमर्यादा से युवावस्था में 58. प्रदूषित हवा पानी से शरीर में एक बार ही शरीर बढ़ने की वजह से तोंद रुप'
बीमारी प्रवेश होने के बाद निकलने में धारण कर लेते है। दूरदर्शन भी एक कारण
कठिनाई होती है। 59. “सौ दवा एक हवा" इस कहावत में शुद्ध | 67. आज जितना अपमान अन्न का हो रहा हवा की ताकत बताई गई है।
है, शायद हजारों वर्षों में भी पहले नहीं 60. औषधियों का शुद्धिकरण लोभ के कारण | हुआ। घटता जा रहा है।
| 68. शारीरिक रोगों के उत्पन्न होने में जितने विजय चोर = शरीर, धन्नासेठ = आत्मा, ‘बाह्य' कारण है उससे ज्यादा मूल कारण शेठपुत्र रत्न = सद्गुण । ज्ञाता धर्म कथा कषाय सेवन है। में प्रभु महावीर ने साधु साध्वियों को उपदेश
69. “सुख दियां सुख होते है दुःख दियां दुःख देते हुए कहा था कि हत्यारा विजय चोर ने श्रेष्ठी पुत्र की हत्या की थी, फिर भी
होय” यही दुःख आने का प्रधान ब्रह्म वाक्य "आवश्यक क्रियाओं” के कारण धन्ना श्रेष्ठी को (विजय चोर को) भोजन देना पड़ा था। | 70. मशीन व मनुष्य में बहुत अंतर है। मशीन अतः शरीर को भोजन इसलिए देना पड़ता जड़ है परन्तु शरीर तो आत्मा को पुण्योदय है कि संयम पालने में बाधा न पड़े तथा से मिला साधन है। शरीर का मर्यादा से शरीर साधना में सहयोगी बन सके।
अधिक उपयोग भी बीमारी आने का कारण 62. वर्तमान काल में भोजन जो आरोग्य का
है। मशीन तो जड़ है, अतः उसे दुःख आवश्यक अंग है वो आज प्रदर्शन-अशुद्ध
सुख का वेदन नहीं होता है। एवं मर्यादाहीन होता जा रहा है।
71. सहनशक्ति बढ़ाने से बढ़ती है व घटाने से 63. पहले शरीर से पसीने के रुप में जहर घटती है। बाहर निकल जाता था, पर आज
72. प्रभु महावीर ने कहा है कि “यतना" से खड़े लक्जीरीयस जीवन (रईसी) जीने के कारण
हो, चलो, बैठो, सोओ भजन करो एवं पसीना बाहर निकलने ही नहीं देते है।
भाषण करो तो, हे संयती। तेरे पाप कर्म का 64. “खाना माँ के हाथ से चाहे जहर ही क्यों बंध नहीं होगा सारे दुःख और रोग पाप से
न हो" यह कहावत आज तोड़ने से भोजन ही तो आते है । अतएव पाप से बचने के में भाव खत्म हो रहे है।
लिए यतना (विवेक धर्म) का सेवन करो।
Page #223
--------------------------------------------------------------------------
________________
73. रोग और शरीर (दोनों) परस्पर जुड़े हुए है।
74. जैन शास्त्रों में पांच शरीर होते है - यथा
A) औदारिक शरीर सड़न गलन तथा बाहरी शरीर कहलाता है ।
भिण्डी की तरह होता है। ये शरीर तिर्यञ्च व मनुष्य गति में पाया जाता है।
B) वैक्रिय शरीर विविध रूपों का ( दृष्यअदृष्य आदि रुप) आकृतियों को बनाता है। वैक्रिय-वैक्रिय पुद्गलों से बनता है। नारकी - देवता में जन्म से ही होता है। मनुष्य तिर्यञ्च को लब्धि से हो सकते है।
-
C) आहारक शरीर - चौदह पूर्व धारी मुनिराज एक हाथ का पुतला बनाकर शंका आदि निवारणार्थ तीर्थंकर के पास भेजते है, उसे “आहारक शरीर” कहते है।
D) तैजस शरीर उष्णं पुद्गल, चमक तथा भोजन पाचन में सहयोगी तथा तेजोलेश्या शीतल लेश्या लब्धि में उपयोग होता है।
-
E) कार्मण शरीर आठ कर्म की तिजोरी समान, जो आठ कर्मो के खजाने ( कार्मण शरीर रुपी) को कहते है।
-
-
75. शरीर अंगोपांग आदि 'नाम' कर्म के उदय से मिलते है।
76. “धुणो कम्म सरीरगम्” सूत्र के न्याय से प्रभु ने कहा है कि हे भव्यो ! कर्म रूपी शरीर को धुनों (धोओ) अर्थात् आठ कर्मों में मोहनीय
199
कर्म को क्षय करने धुनने का संकेत दिया है।
77. शरीर में जब तक जीव है, तब तक ही उससे सम्बन्ध रहते है । जीव निकलने के बाद पुद्गलों की ढ़ेरी है। सड़न गलन व दुर्गन्ध-रागादि न फैले अतएव “जलाना” आदि क्रियाएँ करते है।
78. रुप-यौवन क्षणिक है। शरीर धारी के पीछे तीन दुश्मन मानो लगे ही रहते है। 1) रोग 2) बुढ़ापा 3) मौत।
79. शरीर का क्षय होवें, उससे पहले हे मानव!
तू अपने मोहनीय कर्म को क्षय करने का निर्णय कर! मोहजीत बने बिना किसी को मोक्ष नहीं होता है।
80. शरीर भी कर्म जन्य एक मशीन है। जिस प्रकार मानव निर्मित यन्त्र ( मशीन) की भी सार सम्भाल व्यवस्थित रखनी पड़ती है, तभी वह मशीन अच्छी सेवा देती है ना? उसी प्रकार कर्म-जन्य निर्मित मानव शरीर की भी सार संभाल ऐसी होवे कि वह हमे “साधना” में निरन्तर सहयोग देती रहे। हम बराबर सार संभाल करे नहीं, जो जो बीमारी आने के कारण है, उन्हें बार बार सेवना करते रहे और हम समझे कि हम जो कुछ कर रहे है ( रात में जागरणअधिक भोजन व अधिक बैठना आदि) हम ठीक कर रहे हैं, तो यह हमारी झुठी भ्रमणा है।
81. प्रभु महावीर ने आत्मा के साथ साथ शरीर
को भी रोग मुक्त कैसे रखा जाय। फिजीकल व इमोशनल दोनों दृष्टि से समझाया है। 82. राजसिक व तामसिक भावों मे रोगों की उत्पति शीघ्र होती है।
Page #224
--------------------------------------------------------------------------
________________
83. मेरा ही कहना मानना होगा “ये ego की
बिमारी से ग्रस्त सारा विश्व हो चुका है। राजसिक भावों में तामसिक जीवन जल्दी बनता है। तामस में स्वस्थता घटती जाती है।
84. सात्विक भावों मे सभी जीवों को "अप्प भूयस्स” की दृष्टि से कल्याण व हितकारक मार्ग ही दिखाई देता है। स्व-पर का द्रव्य व भाव दोनों स्वास्थ्य अच्छा रहे।
85.
86.
सामान्यतः सात्विक भावों वाले जीवो के रोग - असाता आदि का उदय ही कम होता है। वैसे शुभ भावों व शुभ अनुप्रेक्षा से साता वेदनीय का तो वर्तमान में बंध करते है तथा पूर्वबांधी गई असाता वेदनीय की निर्जरा करते है।
असातावेदनीय कर्म जीव आठ प्रकार से भोगता है । यथा
1) अमनोज्ञ शब्द - दुःख देने वाले (अप्रिय) शब्दों को सुनता है।
2) अमनोज्ञ रुप दुःख देने वाले रूपों को देखता है।
-
3) अमनोज्ञ गंध - दुःख देने वाले गंधों सूंघता है
4) अमनोज्ञ रस दुःख देने वाले रसों का सेवन करता है
-
5) अमनोज्ञ स्पर्श - दुःख देने वाले स्पर्श (उष्णशीत आदि) का सेवन करते है। 6 ) मन का दुःख मन अशांत उद्विग्न व दुःखी रहता है।
7) वचन का दुःख - स्वयं के वचनों से स्वयं दुःखी होता है।
200
8) काया का दुःख काया में रोगों का उत्पन्न होना, शरीर के ही अंगोपांग शरीर को ही दुःख देते है। दर्द, पीड़ा व वेदना शरीर के माध्यम से जीव भोगता रहता है।
-
87. दुःखों से बचने की दवा है, छः कायो के जीवों की हिंसा घटाओ / छोड़ो तभी जीव असाता से बच सकेगा।
88. शरीर में अधिक आलस्य की वृद्धि भी अस्वस्थ शरीर की पहचान है।
89. आयु के दशकों को समझकर धर्म में जुड़ने
की रुचि जगावें।
90. एक्सीडेन्टो की वृद्धि से महीनों महीनों एक जगह बैठा रहना एवं सोना पड़ता है, उससे भी शरीर की फीजीकल Fitness टूट जाती है।
91. सावधानी हटी, दुर्घटना घटी। ये सूत्र सड़कों पर देखकर भी आप अनदेखा कर बैठते हैं। अपने वाहनो की स्पीड़ (गति) Out of control नहीं होनी चाहिए। फिर क्या होता है ? पता है ना???
94.
92. मनुष्य जन्म बारबार नहीं मिलता है, जागृत प्रमाद छोड़ो । सन्त - सत्संग (समागम) में बैठो, अच्छे विचारो को धारण करना सीखो, आप बीमारियों से मुक्त होते जावोगे । 93. रोग अवस्था में भी “धर्माचरण” हो सकता है। बेहोशी में कुछ भी नहीं कर सकते है।
स्वच्छ वायु, स्वच्छ जल, शुद्ध भोजन
तथा स्वच्छ स्थान में ही क्या आप रहना पसंद करते है ?
उत्तर : हाँ बावजी, तो भाई जीवन
Page #225
--------------------------------------------------------------------------
________________
अस्वस्थता से भरा क्यों जी रहे है। प्रमाद आलस्य दूर कीजिए। भजन - प्रार्थना, स्वाध्याय रोजाना कीजिये। भोग की अमर्यादा छोडिये। अशुद्ध - असमय भोजन करना
छोड़िए। 95. भय में रोगों का आक्रमण बहुत जल्दी होता
96. सोमिल ब्राह्मण का श्री कृष्ण महाराज को
देखते ही भय से हार्ट-फैल हो गया था। 97. पश्चिम देशों में मद्य मांस की प्रवृति अधिक ... होने से क्रुरता जल्दी प्रकट होती है, इसके
विपरीत भारतीय संस्कृति 'दया सेवा' से
भरी है। 98. प्रामाणिकता कमजोर होगी तो वह कर्तव्य
निष्ठ नहीं बन सकेगा, भयग्रस्त ही रहेगा। . 99. अधिक जागरण व देर रात सोने की प्रवृति
ने हमारे जीवन में कहाँ कहाँ चोट की,यथाः A)जागरण से पाचन क्रिया ठीक नहीं रहती B) घर के सदस्य भी परेशान रहते है C) एक का जागरण, अन्यों को भी जागरण करना पड़ता है, आज ज्यादातर घर मिनी थियेटर बन गये है, एक घर में चार-चार, पाँच-पाँच टी.वी चल रहे है। D)प्रातः काल ब्रह्म मूहूर्त का आस्वाद लेना भूल गये है E) भोजन घर में आधी रात तक भोजन बनाना ठीक है क्या? F) रात्रि में विकलेन्द्रिय जीवों की उत्पति बहुत होती है G) त्रस काय के कलेवर शरीर में भोजन के साथ चले जाते है। H) प्रातः काल सामायिक, प्रवचन, प्रार्थना रुक गये है। I) बड़ों की सेवा, सुश्रुषा, विनय, वंदन छूट गये है। ) बाल बच्चों को प्रातः पिता के वरद-हस्त |
से वंचित रहना पड़ रहा है। K) स्त्री वर्ग का स्वास्थ्य गड़बड़ा गया है। L) जोड़ी का भोजन-भजन का ताल मेल टूटता जा रहा है। M) देर रात जागने से निद्रा चक्र अव्यवस्थित हो जाता है। N) स्वयमेव निद्रा से उठना बंद होता जा रहा है, एक व्यक्ति निद्रा से जगाने वाला चाहिए, मानो हम राजा-महाराजा के सुपुत्र हो। 0) दुःख से सोये, दुःख से जागे ऐसी निद्रा दुःख कारी होती है। P) प्रातः प्रथम प्रहर धर्मध्यान सेवा व श्रम से हटकर निद्रा में जा रहा है। Q) सूर्योदय की बजाय सूर्यास्त ज्यादा देखते हैं R) प्रातः काल जल्दी अतिथि, भाई बंधु, साधार्मिक भक्ति के लाभ से वंचित होते जा रहे है। S) संतसती को प्रातः काल प्रासुक पानी कठिनाई से मिल रहा है। T) देर से उठना, उनकी मानसिक चंचलता गड़बड़ा जाती है, जिससे उतावले पन के कारण कुछ न कुछ गलत हो ही जाता है। U)देर से उठना वृति से पशु-पक्षियों को भी अंतराय पड़ रही है V) 'अति जागरण' से नींद की गोलियों का व्यापार बहुत बहुत बढ़ गया है। w) सभी धर्मों में प्रातः काल प्रभुप्रार्थना का समय माना गया है। x) निद्रा चक्र (देर रात जागरण से बिगड़ने से रिश्तेदारों के यहां रुकने की बजाय होटल में रुकना ज्यादा पसंद करने लगे है। होटलों में क्या क्या होता है? आपसे छिपा नहीं है। Y) अति जागरण से रिश्तों की अवज्ञा हो रही है। आत्मा का अहित हो रहा है, देव
गुरु धर्म की आसातनाएं बढ़ रही है। 100. अधिक बैठना, अर्थात पैदल चलने की
क्रिया छुट कर दिनों दिन बैठने की आदत
Page #226
--------------------------------------------------------------------------
________________
बढ़ती जा रही है। पैदल चलना घटने से जीवन में भयानक परिवर्तन आया है। उससे तरह तरह के रोग तथा समस्यायें बढ़ी है...
K) वजन बढ़ा “बैठक" से, जब वजन
बढ़ गया तो पैदल चलना महा मुश्किल हो जाता है, फिर Gift रूप में रोग मिलने शुरु हो जाते है जैसे साँस (अस्थमा), गैस, हार्ट, अल्सर आदि। शरीर का वजन अधिक बढ़ने से अनेक रोग व शारीरिक समस्याएँ बढ़ गई
Z
M) विहार यात्रा में नहीं जा सकता है। N) गोचरी आदि में सेवा नहीं कर सकता
है। 0) शरीर की बाह्य सुन्दरता बिगड़ जाती
A) शरीर की लम्बाई के अनुपात में वजन
बेहिसाब (युवा व बाल वर्ग) में बढ़ता जा रहा है। टी.वी, कम्प्युटर ने सबका
चलना घटा दिया है। B) छोटे बड़ो में आंखो की रोशनी घट
रही है। C) घुटनो में दर्द अधिक वजन के कारण
बढ़ रहा है। D) टी.वी अधिक देखने से विचारों का
पतन हो रहा है। E) कोलेस्ट्राल बढ़ रहा है! हार्ट अटैक
की संभावना बढ़ जाती है। F) बैठक बढ़ने से गैस की बीमारी बढ़
गई है, स्वयं का शरीर ही स्वयं को
संभालना मुश्किल हो रहा है। G) आज का आदमी आलसी बनता जा
रहा है। H) “उबासियाँ खाने” की बीमारी बढ़ रही
है।(उबसियों से पेट भरने वालों के लिए) शायद भोजन खाने की जरुरत
न रहे? 1) पैदल चलना प्रायः घटता ही जा रहा
P) भावी पीढ़ी कोभी “मोटापा” Gin में
मिल जाता है। Q) भारत में अरबों-अरबों रुपयों का
व्यापार मात्र वजन घटाने के लिए
हो रहा है। R) पहले शरीर को हम भारी बनाकर,
पीछे वजन घटाने के चक्कर में पड़ते
s) आग लगने पर कुआँ खोदने वाली
कहावत हो गई है। T) अधिक व अहितकारी भोजन से भी
वजन बढ़ता है। U) उठने, बैठने भोजनादि की समस्याएं
बढ़ती है। v) भारी वजन वालों की सगाई-सगपण
में भी बाधाएँ खड़ी हो रही है।
“जयं चरे" यतना से पैदल चलने वाला ही चल सकता है, गाड़ियों में चलने वालों के लिए चलने में यतना असंभव होती है, त्रस जीवों की भी विराधना होती है।
Page #227
--------------------------------------------------------------------------
________________
W) वजन कम करने की Super दवा जैन धर्म में बताई गई है कि नियमित लगातार बेआसना एकासना कीजिए Toilet (संड़ास) पाचन पद्धति ठीक नहीं है। पेट साफ तो रोग माफ।
X)
Y) भारी शरीर वालों को अन्यों की सेवा बार-बार लेनी पड़ती है ।
Z) होटलों में भोजन की शुद्धता की बजाय 'स्वाद' पर ध्यान दिया जाता है, और लोग 'स्वाद' का ज्यादा मात्रा में उपयोग करके शरीर को नुकसान पहुँचाते है।
101. नई कार भी गैरेज में खड़ी खड़ी खराब हो जाती है, वैसे ही शरीर को भी जितना ज्यादा आराम दोगे, तो ये शरीर उतना भीतर से कमजोर होता जायेगा।
102. आखिर में तो शरीर धोखा देगा ही, क्या पता कब साँस टूट जायेगी? अतएव हमें धर्म आराधना में शरीर का ज्यादा से ज्यादा सदुपयोग कर ही लेना चाहिए। जैन धर्म आत्म कल्याण प्रधान होते हुए भी साधना का साधन तो शरीर ही है, समझे।
103. हॉस्पीटल से बचने के उपाय (धर्म दृष्टि से) कुछ बताए जा रहे है यथा
A) रात्रि जागरण बन्द करो।
B) रात्रि भोजन बन्द करो।
c) रात्रि में यात्राएं बन्द करो (घटाइए) D) नियमित दिनचर्या के बिना रोगों से बचना अशक्य है।
E) एकासना या बेआसना जीवन तो बदल देगा | All in One
203
F) अंग्रेजी गोलियाँ दुष्प्रभाव ( रिएक्सन) भी करती है।
G) एलोपेथी की दवा निर्माण में हिंसा भी होता है।
Hotel में जाना बंद कीजिए ।
Hotel और Hospital ये दोनों ही असाधारण स्थान है।
H)
1)
J)
सकाय की हिंसा से श्रावक को बचना चाहिए
K) बड़े बड़े समारम्भों के (आडम्बरो) अधिक संख्या के आइटम भी रोगों के आने के कारण बनते है।
L) वाहनो की तेजी भी हिंसा व एक्सीडेन्टो के कारण बनती है।
M) द्वेष परिणिती में मानसिक रोगों का फैलाव जल्दी होता है।
N) मानसिक रूप से मन को संतुष्ट (संतोषी) रखिये।
O) ज्यादा भागम-भाग भरी जिन्दगी भी अशान्ति का कारण है
P) देर से सोने की आदत को बदलने
के लिये सर्व प्रथम बेआसना की दवा (या रात्रि भोजन त्याग) लीजिए। आप समय पर उठेंगे ही।
Q) डॉक्टरों से बचने का अचूक नुस्खा आसना कीजिए।
R) टी.वी देखना छोडिए (कम से कम अमर्यादा तो छोड़े)।
s) प्रसन्नचित्त व्यवहार भी रोगों से बचने का एक उपाय है।
Page #228
--------------------------------------------------------------------------
________________
T) गट्टर पद्धति से बाहरी स्वच्छता तो | 105. असाता वेदनीय बंध के 12 कारण निम्न
दिखती है परन्तु लेट्रिन से बीमारी प्रकार है। के जन्तु उत्पन्न होते है। हिंसक पद्धति
1) a) प्राण, b) भूत c) जीव d) सत्व, इन है, व पानी का अपव्यय अधिक होता
चारों को दुःख देना 2) शोक कराना 3)
रुलाना 4) झुराना 5) पीटना 6) परितापना U) बडों को प्रणाम नित्य कीजिए।
तथा 7) से 12 तक बहुत दुःख देना (शोक, v) सेवा करने वालों के शरीर में स्फूर्ति
रुलाना, झुराना, पीटना, परितापनासभी रहती है, आलसी को रोग जल्दी के आगे बहुत लगाना) आते हैं।
106. शरीर के अंगोपांग का अव्यवस्थित दुःख W) प्रातः काल सामायिक साधना अवश्य
जनक निर्माण होने में चार कारण भगवान करावें।
ने बताये है, 1) मन की वक्रता 2) वचन की
वक्रता 3) काया की वक्रता 4) वितण्डावाद x) प्रातः प्रार्थना परमेष्ठि का स्मरण नमन
करने से अशुभ नाम कर्म का बंध होता है। (माला) कीर्तन करिए Y) शुभ चिन्तन मनन से आधि, व्याधि
107. दुःख विपाक सूत्र में 10 जीवों के घोर व उपाधि मिटती (घटती) है तथा
दुःखों (रोगों) का वर्णन आया है, उन दुःखो आत्मा को समाधि प्राप्त होती है।
के मूल में पंचेन्द्रिय जीवों आदि को उन्होने
दुःख दिया, बदले में ही दुःख मिला। 2) सत्य में आस्था अटल होनी चाहिए।
108. तन रोगों की खान है, तन को तपाये बिना, 104. जैन शास्त्रों में बड़े बड़े सोलह रोग बताए ।
सहनशक्ति नहीं बढ़ सकती है। गये है।
कम खाना, गम खाना और नम जाना। विपाक सूत्र में विशेष वर्णन आया हुआ है। |
मान्य श्री इन्दरचंद कोठारी महोदय, नमो,
यन्त्राधीनं जगत् सर्वम् सञ्जातं पर हस्तगम् सुलेखेन तु स्वायत्तं कृतं सर्वं स्व हस्तगम् ||४||
हस्तलिखितानि पत्राणि मया लब्धानि यानि वै । मम सञ्जायते चित्ते तानि दृष्ट्वा महत्सुखम् ।।१।।
ममा प्यत्र मति र्जाता हस्त लेखेन देखनं शक्यं नेतु प्रकाशाय यन्त्रा यत्तं न तद्भवेत् ।।५।।
नापि सड्गणकं युक्तं नापि प्रुफस्या शुद्धयः वर्जयित्वा महारम्भं स्वल्पारम्भः कृतश्शुभंः ।।२।।
विना शीलं यथा नारी भूषणै नैव शोभते सार तत्त्वं विना लेखो मुद्रणेन न शोभते ।।३।। ।
दयानंदो भार्गवः ३.२.२०११ (जयपुर)
Page #229
--------------------------------------------------------------------------
________________
म एक कदम अपनी ओर है विषय : अन्तगड़ सूत्र वाचना एवं विवेचना
1. आत्मा के समीप आने का नाम “पज्जुसण” | 16. टूटे मनों व दिलों को जोड़ने वाले का
___solution का नाम है, पज्जुसण। 2. चारित्र धर्म की आराधना का पर्व है, | 17. आधि-व्याधि-उपाधि को दूर करके समाधि “पज्जुसण"।
में ले जाने का काम करता है, पज्जुसण। 3. आत्मा के विकास का नाम है, पज्जुसण। 18. विराधना से आराधना में ले जाने काम 4. कषायों का (उपशम) करता है, पज्जुसण।
करता है, पज्जुसण।
19. क्रोध-द्वेष के कारण बाहर भटक रही आत्मा 5. सौहार्द व सामूहिक क्षमा का पर्व है,
को शांति, सुख, क्षमा आदि गुणों को पज्जुसण।
देने वाला पर्व है, पज्जुसण। 6. क्षमा से आत्मशक्ति व सहन शक्ति बढ़ाने
20. जिस प्रकार गन्ने के बीच में गांठे (पोर) का नाम है, पज्जुसण।
होती है, परन्तु दो पोर के बीच में मीठा रस 7. अतिक्रमण से प्रतिक्रमण में जाने का मार्ग भी होता है उसी प्रकार दो आत्माओं के है, पज्जुसण।
बीच (क्रोध रुपी गांठ के बीच) क्षमा रुपी 8. गांठे खोलने का पर्व है, पज्जुसण।
अमृत भी रहा होता है, यदि गांठे छोड़कर
गंडेरी (बीच का टूकड़ा) को कोई चूसता है 9. मैत्री व प्रीति बढ़ाने का पर्व है, पज्जुसण।
तो उसे मीठे रस का आस्वाद मिलता है 10. आत्मा को संवारने का पर्व है, पज्जुसण।
ना? (क्षमा रुपी रस)। 11. तीर्थंकर सहित सकल संघो का आराधना
21. सभी पर्वो का राजा पज्जुसण है, संवत्सरी पर्व है, पज्जुसण।
की तैयारी हेतु सात दिन पूर्व के निर्धारित
किये गये है, कुल आठ दिन का है यह 12. इन्द्रिय दमन व विषय वमन का नाम है,
पज्जुसण। (अष्टाह्निका पर्व)। पज्जुसण।
22. जिस प्रकार कपड़ो के मैल को पानी व 13. सेवा-सहयोग, विनय-वंदन का नाम है,
साबुन से धोकर साफ किया जाता है, उसी पज्जुसण।
प्रकार आत्मा पर लगे मैल को तप संयम से 14. विभाव से स्वभाव में आने का नाम है, | दूर किया जाता है। पज्जुसण।
23. पज्जुसण पर्व समस्त मानव जाति के 15. अहम् ego, जो सबसे बड़ा दुश्मन है उसे लिए उपहार है, जो दुःख-दारिद्र, रोक. तोड़ने-हटाने का पर्व है, पज्जुसण।।
शोक तथा समस्त विराधनाओं का अन्त
Page #230
--------------------------------------------------------------------------
________________
करता है। शान्ति तथा आराधनाओं को | आडम्बर प्रधान है, जबकि स्थानकवासी देने वाला पर्व है।
परम्परा संवर तथा निर्जरा प्रधान होने से 24. भौतिक मनोरंजन, योग, पर्यटन, व्यापार,
अंतगड़सूत्र में वर्णित त्याग प्रधान वाणिज्य ये सभी से निवृति देने वाला है,
आत्माओं का वर्णन है। स्थानकवासी पज्जुसण।
परम्परा त्याग प्रधान होने से अंतगड़सूत्र
का वांचन किया जाता है। 25. आत्मा की सर्वोच्च दशा मुक्ति या मोक्षपुरी में मानी गई है। मोक्ष का प्रथम दरवाजा
अंतगड दशासत्र में आठो कर्मो का क्षय कर क्षमा ही है।
मोक्ष में जाने वाली आत्माओं का वर्णन है
तथा आंठवा अंग सूत्र है एवम् आठ वर्ग 26. प्रत्येक साधक का ध्येय ‘मुक्ति' प्राप्त करना
है। अतः आठ दिनों में पढ़ा जाता है। ही होता है।
33. अंतगड़ सूत्र में अरिष्टनेमि प्रभु के शासनवर्ती 27. अन्तगड़ दशा सूत्र में मोक्षगामी 90 जीवों
51 साधकों तथा महावीर स्वामी के का वर्णन है तथा स्त्री पुरुष सभी वय के
शासनवर्ती 39 साधकों का वर्णन है। जीवों की साधना का अधिकार आया हुवा होने से भी मुक्ति' की भूख जगे (मोक्ष)
| 34. 90 जीवों में से गज-सुकुमाल मुनि की अतः इन्ही भावनाओ से सैंकड़ो वर्ष पूर्व उत्कृष्ट क्षमा का वर्णन है यह हमें प्रेरणा हमारे आचार्य भगवंतो ने 'अंतगड़ सूत्र'
देता है कि उत्कृष्ट क्षमा धारण नहीं कर वाचना की परम्परा शुरु की।
सके तो मध्यम तथा जघन्य क्षमा को तो
धारण करना ही चाहिए। 28. आडम्बर परिग्रह प्रधान होता है, जबकि
चारित्र धारक सभी प्रकार के परिग्रह का | 35. एवंताकुमार के कथानक से पूर्व कर्मो के त्यागी होता है। श्रावक-श्राविकाओं के दूसरे
प्रभाव तो देखा जा सकता है। हलुकर्मी का मनोरथ (मैं संयमी बनू) की सफलता हेतु
प्रत्यक्ष प्रमाण है। 'संयम' तथा तप प्रधान अंतगड़ सूत्र के | 36. अर्जुन माली की हिंसक प्रवृति, होते हुए पात्रों का रोचक त्याग वैराग्य भरा अधिकार भी भावों में श्रावक सुदर्शन की प्रीति सुनाया जाता है।
अनुकंपा देखी जा सकती है। 29. अंतगड़ सूत्र का काल मान भी आठ दिनों 37. श्रेणिक राजा की रानियों की तपस्याओं
मे पढ़ने/सुनने का विधान बताया है। का वर्णन दिखाया गया है, जो सुकुमाल 30. अंत कर दिया अष्ट कर्मो का जिन्होनें, ऐसे
तथा मानवीय भोगों में रहने वाली आठ 90 जीवों का वर्णन दिया है।
कर्मो को काटकर मोक्ष गई। 31. “कल्प सूत्र" पढ़ने की परम्परा इतिहासकार
38. गजसुकुमाल की मातृ-पितृ भक्ति देखने बताते है, इसमें महावीर स्वामी के जीवन
को मिलती है, कि माता-पिता को पूछकर चारित्र तथा 14 सपनों का वर्णन बोलियों
दीक्षा लूंगा। लोकोपचार विनय का उत्कृष्ट के माध्यम से जन्म वाचन की परम्परा |
उदाहरण मिलता है।
Page #231
--------------------------------------------------------------------------
________________
39.
40. गौतमकुमार आदि 18 भाईयों ने युवावस्था में चारित्र धारण किया।
41. अंतगड़सूत्रमें 57 पुरुष तथा 33 स्त्रियों का अधिकार आया है।
42.
श्री कृष्ण महाराज की माता के प्रति विनम्रता व सेवा का दिग्दर्शन मिलता है।
43.
45.
66 साधक आत्माओं का अध्ययन 11 अंग सूत्र 12 साधकों ने 12 अंगो (सूत्रो) का अध्ययन किया था। गजसुकुमाल व अर्जुन इन दोनों ने अष्ट प्रवचन माता का अध्ययन किया।
22 वें तीर्थंकर के शासन में 40 पुरुष साधक शत्रुंजय पर्वत से मोक्ष गये, 24 वें तीर्थंकर के शासन के 16 पुरुष साधक विपुल गिरी पर्वत से मोक्ष गये तथा 33 साध्वियाँ उपाश्रय से व गजसुखमाल मुनि महाकाल श्मशान से मोक्ष गये।
44. संलेखना संथारा काल अर्जुन अणगार का 15 दिन व गजसुखमाल मुनि जिस दिन संयम धारण किया रात्रि के प्रथम प्रहर में मोक्ष गए शेष सभी 88 आत्माओ का संलेखना काल एक-एक मास का था। अन्तगढ़सूत्र का एक अर्थ ऐसा भी करते है कि सभी 90 साधक मोक्ष जाने से अन्तर मूहुर्त पूर्व ही केवलज्ञानी बने थे, और सभी अन्तर मूहुर्त पूर्व ही केवलीज्ञानी की पर्याय में रहकर मोक्ष पधार गये।
46. मृत्यु का उपसर्ग सामने होते हुए भी श्रावक सुदर्शन निर्भय ही रहे । उनकी दृढ़ धार्मिकता का दिग्दर्शन कराता है।वे प्रिय व दृढ़धर्मी थे।
207
47. काली आदि दस रानियों का चारित्र तप प्रधान रहा था।
48.
49.
57 पुरुष साधको मे से 55 साधकों ने गुण संवत्सर तप, पड़िमा व अन्य (अर्जुन अणगार व गजसुख मुनि छोड़कर) तप प्रकीर्णक रूप के किए थे।
बाल क्रीड़ा की “झंखना” का वर्णन देवकी महारानी के चारित्र से होता है।
50. दीर्घ दीक्षा पर्याय एवंता मुनि की थी. अल्प संयम पर्याय गजसुकुमार की थी।
51. एक परिवार से (यादव वंशी) सबसे ज्यादा दीक्षा हुई दूसरे नम्बर पर श्रेणिक राजा की रानियों ने दीक्षा ली।
52. ललित गोष्ठी की स्वच्छंदता से कितने
लोगों की अकाल मौत हुई, स्वतंत्रता खराब नहीं परन्तु स्वच्छंदता दुःखदाई
53. वर्तमान काल के 32 आगमों मे से अंतगड़सूत्र ही ऐसा एक मात्र शास्त्र है कि जिसमें वर्णित 90 साधक आत्माएँ सभी मोक्ष पधारी । 54. ये शास्त्र “कर्म निर्जरा” प्रधान है। संवर सहित निर्जरा है
55. कृष्ण महाराज की “विचक्षणता” का वर्णन मिलता है।
56. पर्युषण पर्व लोकोत्तर पर्व है। “टेन्सन मुक्ति” नामक पर्व है।
57. जीवों के प्रति 'द्वेष वृति छोड़ना' ही सच्ची संवत्सरी है।
58. पर्युषण पर्व आत्म अनुशोधन पर्व है। कर्म मैल हटाने का पर्व है।
Page #232
--------------------------------------------------------------------------
________________
59. गृहस्थी के जीवन में 'ममता' न हो तो | 70. लौकिक पर्वो में कर्म बंध होता है, परन्तु
संस्कारो का रोपण नहीं किया जा सकता ये पज्जुषण पर्व (लोकोत्तर) आत्मा में लगे । और 'समता' नही रही तो निकट भविष्य कर्मो की निर्जरा कराता है, कर्म कर्दम की में जल्दी ही महाभारत हो जायेगा।
विशुद्धि कराता है। 60. पूर्व भवों के संस्कार (अनेक जन्मों के) | 71. द्वेष भावना दूर करने से दृष्टि “अमृतमय"
अच्छे बुरे सब जीव के साथ ही आते है, होती है। भारी कर्मी-जीव को उपदेश जल्दी नहीं
| 72. एक क्षमा गुण हजारो गुणों को खींच लाता लगता है। 61. 18 युवा कुमारों को एक उपदेश से सुसंस्कार | 73. क्रोध से तिरस्कार और मान से अहंकार जगे थे।
उत्पन्न होता है। 62. “वसुधैव कुटुम्बकं” सारी पृथ्वी के जीवों 74. जड़ की मुर्छा धर्म में सबसे बड़ी बाधा
को एक कुटुम्ब रुप समझने वालों की कितनी उदात भावना है।
75. संज्ञा से ऊपर उठे बिना उत्कृष्ट आराधना 63. पांचो पदों की प्राप्ति 18 पापों के त्याग से नहीं हो सकती। ही पैदा होती है।
76. धर्म के प्रति श्रद्धा अटल होनी चाहिए। 64. मंत्रवाद की तरफ जाना अर्थात पुरुषार्थ | 77. विश्वास के बिना गृहस्थावास भी नहीं चलता। कमजोर है।
78. जब तक द्वेष नहीं जायेगा, तब तक धर्म क्रोध, मान, द्वेष को दूर करना ही पर्युषण
आत्मा में नहीं आयेगा। बदले का फल का प्रथम संदेश है।
स्वयं की दुर्गति होती है। 66. अंतगढ़ सूत्र के रचनाकर (गूंथन कर्ता) आर्य
79. माँ का भार हल्का करे, वही सपूत, जो. सुधर्मास्वामी थे। अंग सूत्रों को गणधर भगवंत
भार बढ़ाए वो कपूत । गूंथते है।
80. दुःख जितना दुःखी नहीं करता, उतना 67. द्वेष के परिणामों में अनन्त उपकारी गुरुदेव
उसका चिंतन ही दुःखी कर देता है। शास्त्र भी दोषी दिखेंगे। द्वेष रुपी चश्में में नम्बर
में “दुःख का भय” माना है। गलत होते है।
81. जीव मात्र का तिरस्कार नहीं करना चाहिए। 68. पज्जुषण पर्व जोड़ने का काम करता है।
82. जैन दर्शन भाव प्रधान है न कि भव प्रधान। कभी भी तोड़ो मत।
83. जैन धर्म गुण प्रधान है, संख्या प्रधान नहीं। 69. मोह व अज्ञानता से हुई भूलों द्वेष भावों को मिटाना ही सच्चा पर्व मनाना है। जीव मात्र
84. तिरस्कार, पुरस्कार से वांचित करता है। क्षमा का अधिकारी है।
85. ऐसा मत सोचो कि चित्त चिंताओं से भरे।
208
Page #233
--------------------------------------------------------------------------
________________
ऐसा मत बोलो कि अपनो को अपनो से | 97. जिनशासन, सिद्धान्तो की नींव पर टिका अलग करें। ऐसा मत खाओ कि हम अपनो पर भार | 98. उल्टे को सुल्टा (सीधा)लेना चारित्र धर्म बन जाएं।
की विशेषता है। 86. तीन पद्धतियों में तेजी से परिवर्तन हुआ है । 99. मजा जीभ लेती है, कष्ट शरीर उठाता है। - भोजन भजन, भोग। रात्रि में नींद नहीं, |
100. विपुल गिरि से 16 साधु, शत्रुन्जय से 40 दिन में चैन नहीं।
साधु, उपाश्रय से 33 साध्वियाँ, गजसुकुमाल 86. साधन पर टिका सुख क्षणिक होता है, श्मशान से मोक्ष गए। अर्जुन मोक्ष गए।
समझ पर टिका सुख स्थायी होता है। 101. वैराग्य भावना की लहरों को त्याग से टिकाया 87. द्वेष की पहिचान का प्रथम सूत्र तिरस्कार जाता है (संयम से) काली आदि 10 रानियों
को पुत्र-मृत्यु के समाचारो से वैराग्य आया 88. व्यवहार धर्म निभाना, गृहस्थी के लिए
था। आवश्यक है।
102. अल्प संयम पर्याय, अल्प श्रुतज्ञान, परन्तु 89. क्रोध से प्रीति का एवम् द्वेष से गुणों का महावेदना में चारित्र धर्म नहीं छोड़ा - नाश होता है।
गजसुकुमार मुनि। 90. कर्म सदा 'कर्ता' का पीछा करता है। 103. अल्प संयम पर्याय, अल्प श्रुतज्ञान, परन्तु
वेदना में चारित्र धर्म छोड़ा - मेघ मुनि । 91. प्रीति और मैत्री एक ही सिक्के के दो पहलु
बदला चुकाना अच्छा। बदला लेना बरा।
104. जिसके प्रति द्वेष उसे हम दुःख देना चाहते 92. मारणांतिक परिसह मे समभाव रखने के
है, जिसके प्रति राग, उसे सुख देना चाहते उत्कृष्ट उदाहरण है - गजसुकुमार मुनि। 93. वचन के दुरुपयोग से मित्र शत्रु बनता है
105. दुर्जन की संगत से, सज्जन प्रायः दुर्जन तथा वचन के सदुपयोग से शत्रु मित्र बन
बन जाता है तथा सज्जन की संगत से जाता है।
दुर्जन भी सज्जन बन सकता है। 94. द्रव्य, क्षेत्र, काल की सीमा रेखा शाश्वत
106. यादव कुल में से 33 साधु, 10 साध्वियाँ वादियो पर लागू नहीं होती। 95. तप मात्र निर्जरा के लिए होता है, न
107. श्रेणिक राजा की 23 रानियों ने दीक्षा ली। पद, न प्रशंसा और न मान सम्मान के
108. अशांति और शान्ति का उपादान (भीतरी
कारण) स्वयं ही है। . 96. वर्तमान में जीवन मूल्यों में नकारात्मक परिवर्तन आने से धन का महत्व अधिक
109. साधा हुआ मन, दूसरों को अवश्य प्रभावित बढ़ा है।
करता है।
हुई।
लिए।
Page #234
--------------------------------------------------------------------------
________________
110. धरती पर धर्म स्थान के निर्माण की अपेक्षा | 123. पृथ्वी के समान सहनशीलता का गुण रखती आत्मा रुपी क्षेत्र पर मनमंदिर का निर्माण
है - माँ। करे।
124. माता-पिता को दुःख देकर कोई इन्सान 111. धर्म के लिए समय का इंतजार न करें। सुखी नहीं हो सकता। शास्त्र में माता पिता नाग सुलसा के 6 पुत्रों ने संयम लिया।
का उपकार माना है। 112. वृद्ध व्यक्तियों के प्रति आदर और सम्मान 125. संघर्ष-सदैव “मुझे मिले" इस भावना के कारण की आवश्यकता है।
होता है। 113. द्वेष की परम्परा बैर में परिवर्तित हो जाती 126. स्वयं दुःखी है, इसलिए दूसरो को दुःखी
करते हैं। 114. एवंता, राजा अक्षयक, अर्जुनमाली तथा 127. दृष्टि में लोभ - हृदय में शैतान का वास। 13 गाथापतियों ने दीक्षा ली।
लोभ को 'पाप' का बाप माना है। 115. अर्जुन व गज. ने 5 समिति 3 गुप्ति का
128. चिता (आग) तो सिर्फ एक बार जलाती है, ज्ञान सीखा। 66 जीवों मे 11 अंगो का
पर चिंता अनेक बार जलाती है। . अध्ययन किया, शेष 12 (14 पूर्व) व 10 ने 12 अंगो का अध्ययन किया।
129. एक अग्नि का दूसरी अग्नि से सम्बन्ध
होता है। 116. संतोष की उत्पति त्याग' से होती है। त्याग से सन्तोष बढ़ता है।
130. माँ तीन है '1) जन्म देने वाली माँ 2)
जिनवाणी माँ 3) धरती माँ । चौथी गौ 117. सदैव त्याग (छोड़ने) की इच्छा रखें।
माता मां मानी गई है। 118. मुनि अपने 'मन' का मालिक होता है।
131. बुद्धिमान पुरुष वर्तमान की घटनाओं से (मर्यादा सहित)
भविष्य का अनुमान लगा लेता है। 119. जो स्वयं पर शासन करले, वो दुनियाँ पर शासन कर सकता है। जिन भक्ति के आगे
132. बाल अवस्था - अन्जान पन, भोलापन मौत का भी भय नहीं।
चंचलता एवं 'वैर भाव रहित' अवस्था है।
सरलता में ही सार है। 120. धर्म दलाली प्रशंसनीय एवं अनुकरणीय है। श्री कृष्ण ने धर्म दलाली से ही तीर्थंकर
| 133. णमो का भाव द्वेष समाप्त करने में सहायक गोत्र बांधा। 121. शरीर जलता है, गुण नहीं (पूज्य
134. लोभ को छोड़े बिना मुक्ति नहीं। लोभ का
थोब करो। गजसुकुमाल महामुनि) 122. मरण भय सबसे बड़ा भय है तथा वैर को | 135. जो तिरता एवं दूसरों को तिराता है, वह महा भय माना है। मोहनीय कर्म का एक
तीर्थ कहलाता है। श्री कृष्णा. भविष्य का भेद भय' है।
अच्छा अनुमान लगा लेते थे।
Page #235
--------------------------------------------------------------------------
________________
136. जड़ पर ममत्व रखना, संसार बढ़ाना है। 137. सत्य पर आस्था अटल होनी चाहिए। 138. प्रत्येक आत्मा के परमात्मा बनने में सत्य
की बहुत बड़ी भूमिका है। “सच्च 'खु "भगवं" सत्य को भगवान माना है। अपने झूठ को स्वीकार कर लेने से नुकसान चाहे जो हो जाये पर मन का बोझ जरुर हल्का हो जायेगा।
139. जाने अनजाने में अक्सर, सभी से होती रहती भूल भूलजा, उन भूलों को, वर्ना ! भूल चुभेगी बन के शूल
140. धर्म के लिए चित्त में संशय लेश-मात्र भी नहीं होना चाहिए।
141. सत्य (विश्वास) की 'घात' मत करो। विश्वासघात को महापाप माना है।
142. जहां सत्य है, वहां जीत है। सत्य की ही कसौटी होती है।
143. जीव को प्रधानता दे, जड़ को नहीं। अजीव के पीछे भागें नहीं।
144. चारित्र धर्म में वह शक्ति है, जो व्यंतर देवों में भी नहीं।
145. ज्ञानी की दृष्टि में न हार है, न अंधेर । 146. सत्य परेशान हो सकता है पराजित नहीं। 147. जीवन क्षण-भंगुर है, समय व्यर्थ न करें। 148. जड़ की मुर्च्छा के पीछे चेतन के गुणों को भूल रहे हैं।
149. द्वेष में सत्य भी असत्य नजर आता है। 150. मैत्री और विनय के माध्यम से सत्य की प्राप्ति होती है।
211
151. जिन वाणी को सदा एकाग्र चित्त से सुनें। 152. जिनवाणी को सुनना तभी सार्थक होगा,
जब उसका अपने आप पर नियंत्रण होगा। 153. परम सत्य है, वीतरागता की प्राप्ति । 154. सामाजिक जीवन में खुली छूट का कोई स्थान नहीं है। ज्यादा छुट दुःखदाई बन जाती है।
155. मानव का जीवन तभी सार्थक होगा, जब उसका अपने मन पर नियंत्रण होगा। 156. मनुष्य को प्रतिदिन आत्म अवलोकन करना चाहिए।
157. विनय के अभाव से विवाद खड़े होते हैं। 158. भावों की सही अभिव्यक्ति के लिए उचित
शब्दों का प्रयोग आवश्यक है। उचित शब्द बोलनेवाला सबसे आदर पाता है।
159. सत्य के मार्ग से ही ईश्वर की प्राप्ति संभव है।
160. देवो में प्रमुख देव अरिहंत है। सिद्ध भी परम आराध्य देव है।
161. चित्त की संवेदना का जागरुक होना आवश्यक है।
162. नास्तिकवादी पाँचो इन्द्रियों के सुख में डूबा रहता है।
163. मनुष्य की शारीरिक संरचना शाकाहार के अनुरूप है।
164. असातावेदनीय कर्म के कारण ही रोग आते है।
165. असाता वेदनीय के मूल में मोहनीय कर्म है।
Page #236
--------------------------------------------------------------------------
________________
है।
166. जैन दर्शन, 'कर्म प्रधान' दर्शन है। कर्म का | 179. विनय से, विवादों की बढ़ोतरी खत्म होती
मर्म समझें। 167. साधु एवं श्रावक का प्रधान सम्बन्ध भोजन 180. जीवन में धर्म को स्थान अवश्य दें। का नहीं, भजन का है।
181. धर्म के लिए समय का इंतजार न करें। 168. वास्तविक सुख सत्संगत से है। सत्संग
182. सुनिए अधिक, बोलिए कम। सेवा कीजिए महातीर्थ है।
ज्यादा। 169. पानी एवं वाणी का सदैव आदर करें। दोनों
183. नियन्त्रित स्वतंत्रता, स्वतंत्रता है, का दुरुपयोग न हो।
अनियन्त्रित स्वतंत्रता अराजकता है। 170. पाप शरीर के लिए करते है पर भोगना कठोरता से ही दूरियाँ बढ़ती है। आत्मा को पड़ता है। समझदारी का साथ
184. क्षमा करना हमारी 'शाश्वत' परम्परा है। सदैव रहना चाहिए।
185. अभवी जीव के सदा केवल ज्ञानावरण रहता 171. सेवा का भाव तभी जागृत होगा जब मनुष्य
सुख के त्याग के लिए तैयार होगा। सेवा से तीर्थंकर पद प्राप्त होता है।
186. एक ही आदमी कई रिश्तों से पहिचाना
जाता है। 172. वर्तमान में व्यक्ति की व्यवस्तता के कारण धार्मिक भावनाओं की कमी है। आज व्यवस्तता
187. नवतत्व का ज्ञान प्राप्त करें। नवतत्व का नहीं मशीनरी जीवन है।
ज्ञान कुबेर का खजाना है। 173. पुद्गल जड़ के स्थान पर संस्कारो पर
188. काया के तप के साथ मन की क्षमा भी ध्यान देने की जरुरत है। जैसे 18 कुमारों
जुड़नी चाहिए। ने युवावस्था में चारित्र लिया।
189. जो सोवत है सो खोवत है, जो जागत है 174. युवावस्था में अत्यन्त सावधानी की
सो पावत है। आवश्यकता होती है।
190. उत्तम पुरुषों की वाणी का कुछ भी अंश 175. जो असातावेदनीय का बंध न होने दे,
जीवन में उतरने से जीवन सफल हो जाता वही धर्म है। 176. माया, मित्रता तथा प्रीति का नाश करती
191. क्रोध रुपी जहर अत्यन्त खतरनाक है, है।
रिश्तों को खत्म करता है तथा शारीरिक
मानसिक एवं आत्मिक क्लेश उत्पन्न करता 177. जीवन में कभी भी, किसी के साथ विश्वासघात न करें।
192. मूर्ख अपनी भूल नहीं मानता और 178. मायावी, मिथ्यादृष्टि जीव होता है। विराधक
समझदार अपनी भूल को स्वीकार करने बनता है।
में संकोच नहीं करता।
Page #237
--------------------------------------------------------------------------
________________
193. मूर्ख दूसरो के अवगुण देखता है, वह उस | 206. जिस कुटुम्ब में सेवा भावना है, वहां कभी
मक्खी के समान है जो मिष्ठान छोड़कर अशांति नहीं हो सकती। सेवा से जीतना गन्दगी पर बैठता है।
सीखो। 194. भोग में बंधन है, वियोग में क्रन्दन है, 207. निरंतरता, नियमितता और नियंत्रण के आत्मा में झाँको तो आनन्द का नन्दन वन
आधार पर जीवन जिएँ। मर्यादा जीवन का
आधार है। 195. भाव धारा की बढ़ोतरी मुक्ति की तरफ ले | 208. एक दोष सैकड़ो दोषो को जन्म देता है। जाती है।
पहले दोष से बचे। 196. जो बिगड़ी बनाए और सबको अपना बनाए 209. जीवन का आधार ‘अन्न' है। (शरीरधारी)
वो बनिया कहलाता है। अर्जुन माली एक व्यर्थ अपव्यय से बचे। श्रमणोपासक की सहायता से इन्सान बन
210. जिसे आप अपना घर कहते है वास्तव में गया। भगवान भी बन गए।
वह रैन बसेरा है। यहाँ वास अनित्य वास 197. क्षमा के गुण - 1) सहन करना 2) क्रोध न करना।
211. दिल की दूरियों को मत बढ़ने देवें। 198. क्षमा से भाव 'धर्म' की उत्पत्ति होती है।
212. मेरा-मेरा कहने वाला अंत में पछताता है। 199. जो खमता है और खमाता है वो आराधक बन जाता है।
213. जूठन छोड़ने का अर्थ (यानि) आपका अच्छा
समय समाप्त हो रहा है। 200. जिनसे न बोलना' (झगड़ा) है, उनसे बोलें (झगड़ा खत्म करें)- वही संवत्सरी
214. जूठन छोड़नेवाला, कल अन्न को तरसेगा। को वास्तव में मनायेंगे। परम सुखी बनेंगे। 215. भोजन यतना से करें, जूठा न छोड़े। 201. साधु के 22 परिषह में 20 प्रतिकूल एवं 2 | 216. जिस स्थान पर विकलेन्द्रियों की उत्पति अनुकूल।
अधिक होती है, वो यह दर्शाता है कि अविवेक 202. शिविर-शिक्षण की प्रक्रिया से प्राप्त विद्या में तथा दुःसमय आ रहा है। रमण करना। विनय भावों का सम्मिश्रण होना
217. शास्त्रों पर सदैव श्रद्धा रखें। पहले स्वयं को ही चाहिए।
स्वीकार करे। 203. जो अहिंसक पद्धति से जीता है उसे आर्य - 218 विराधक के पग पग पर दःख एवं आराधक कहते है।
को पग पग पर सुख। दोष छोड़े, क्षमा दे दे 204. साधारण नींद से जगाना और मोह नींद से क्षमा ले ले। .. जगाने में बहुत अंतर है। प्रमाद दोनों है। | 219. दिल से खमत खामणा कर यह जीव 205. जिसका प्रारम्भ है, उसका अंत भी होगा। | आनन्द की अनुभूति करता है।
Page #238
--------------------------------------------------------------------------
________________
220. जीवनमें सदैव दूसरों से शान्ति से बात | 231. सच्ची प्रीति आत्मोत्थान में बाधक नहीं करें।
बनती है। 221. सदैव क्षमा भाव धारण करे। साधु का प्रथम 232. समभाव व क्षमा से कर्म क्षय होते है। गुण क्षमा है।
233. जगत के सभी पदार्थ विनश्वर है, नश्वर है। 222. क्षमा का अर्थ क्रोध का उपशम है। (दबाना)
234. निदान' का फल अशुभ होता है। शांतता।
235. वैभव का नशा और नशे का नशा अनर्थ 223. संवत्सरी पर्व तीर्थंकरो द्वारा भी मनाया जाता
करता है।
224. अपनी भूल को 'शूल' माने और दूसरो की
भूल को ‘भूल' जायें। फिर दोनो पक्ष
आत्मानन्द पाए। 225. 'गुण' आत्मा को मोक्ष ले जाते है। दोष
नरक निगोद में ले जाते है।
226. जैन दर्शन विश्व का सबसे उत्तम दर्शन, है
जिसमें सभी जीवों से प्रेम करने की बात
कही गई है। 227. क्षमा वीरों का आभूषण है। क्षमा गुण से ही
महावीर बनते है।
236. धर्म आराधना के सहयोगी बनो। 237. सरागी देव की पूजा का अनर्थ रुप फल
(मुद्गर पाणी यक्ष) हो सकता है। देव सहायता
से अर्जुन हैवान बन गया। 238. दिखावटी जन सेवा की विकृति से उत्पन्न
होती है - भोग वृति। 239. उत्तम कार्य में भी माता-पिता की आज्ञा
प्राप्त करके करना - यह आर्य संस्कृति की
विलक्षणता है। 240. सर्वज्ञ वय को नहीं, आत्मा की योग्यता
को देखते है। एवंता कुमार पूर्व भवों के
संस्कार साथ लाए थे। 241. अपराधी भी आराधक हो सकता है। माफ '
करनेवाला महान् - मानव होता है। 242. सुकुमारता में भी अनंत शक्ति प्रगट होती
228. क्षमादान और क्षमा याचना क्षमापना' का
अंग है।
229. संवत्सरी आत्म साधना का पर्व है, विश्व
मैत्री का ये महापर्व है, हमें ही नहीं आज पूरे विश्व को महावीर के सिद्धान्तो पर बड़ा गर्व है। क्षमा को अपना ही लीजिए।
है।
230. भला हुआ हो। चाहे बुरा, उसे भूला दीजिये,
भीतर के जीवन-पुष्प को खिला लीजिए, प्यार से पड़ी हो चाहे खार से पड़ी हो. जो गांठे पड़ी हो, उसे खोल लीजिए।
243. कम बोलना, कम खाना, कम सोना.
कम चिंता करना. कम मिलना-जुलना,
(व्यर्थ बातें)कम सुनना। ये अच्छे गुण है। 244. बढिया खाने-पहनने से यथा संभव परहेज
रखना। सादा खान-पान सादा पहनावा रखना। सादगी ही सच्चा श्रृंगार है।
Page #239
--------------------------------------------------------------------------
________________
ग्रहण
245. हम कमाते ... और तो सब खाने वाले है | 257. आत्म लक्ष्य से लोकोत्तर आराधना के
यह न कभी कहना, न मानना ही। बड़े भेद - बड़प्पन नहीं छोड़ते है।
1. सर्व विरती - 90 जीवों द्वारा चारित्र 246. विकार पैदा करने वाला अश्लील साहित्य
न पढ़ना, चित्र न देखना तथा अश्लील 2. देश विरती - सुदर्शन श्रेष्ठी की बातचीत न करना।
व्रतनिष्ठा 247. आज का काम कल पर और अभी का पीछे 3. अनुमोदना - श्री कृष्ण वासुदेव की पर न छोड़ना। सामाजिक व्यवस्था में खुली
धर्म दलाली ने अरिष्टनेमि प्रभु के छुट नहीं देनी चाहिए।
शासन को चमकाया। 248. किसी के दुःख के समय सहानुभूति पूर्ण
4. तप - अणगारों व साध्वियों के तपश्चरण वाणी से बोलना, हँसना नहीं। प्रभु महावीर
का वर्णन आया है। . की सहायता से 'अर्जुन' भगवान बन गया। 258. दैवी शक्ति भी चारित्र आराधना से हारती 249. किसी को कभी चिढ़ाना नहीं।
259. साध्वी श्री दिव्य प्रभाश्रीजी के अनुसार 250. दूसरों की सेवा करने का अवसर मिलने पर
अंतगड़ दशा सूत्र की शिक्षाए - सौभाग्य मानना और विनम्रता से निर्दोष सेवा करना।
A) धैर्य व विश्वास गज सुकुमार की तरह
होना चाहिए। 251. देव भी भाग्य नहीं बदल सकता है।
B) सहन शक्ति अर्जुनमाली की तरह 252. मातृभक्ति एवं बड़ो के बड़प्पन का वर्णन
होनी चाहिए।
c) श्रावक लोगों को सुदर्शन श्रमणोपासक 253. बाह्य तप आराधना की कसौटी है।
का अनुसरण करना चाहिए। 254. अन्तगड़ सूत्र की वाचना आर्य सुधर्मा और
D) धर्म विश्वास- कृष्ण वासुदेव की भांति आर्य जम्बूस्वामी इन गुरु शिष्य का वर्णन
होनी चाहिए आर्य प्रभव स्वामी के द्वारा : प्रस्तुत किया गया ऐसा अनुमान है।
E) प्रश्नोत्तर की शैली-अतिमुक्त कुमार
के समान होना चाहिए। 255. श्रद्धा की छाया में रहा तर्क अर्थ की संगति बिठाता है।
F) त्यागवृति-कृष्ण वासुदेव की आठ अग्र
महिषियों की भांति होनी चाहिए। 256. अन्तगड़दसा का मुख्य प्रतिपाद्य है मोक्ष और मोक्ष के साधनो की उपादेयता, संसार
G) तपश्चर्या - महाराज श्रेणिक की दस और संसार के कारणो की हेयता।
महारानियों की भांति होनी चाहिए।
Page #240
--------------------------------------------------------------------------
________________
260. अन्तगड़ सूत्र की रचना प्रणाली विनय धर्म | 268. हार्दिकता : हृदय से भरे लोगों से ही करुणा के आचरण से भरी है।
का पोषण होता है। 261. अन्तगड़ का संदेश परिग्रह का त्याग और | 269. स्वार्थ-त्याग : जो दूसरों का दुःख दूर
भोगवृत्ति की हेयता। भौतिक सुखों को तुच्छ करने के लिए अपने सुखों का त्याग करता माना है।
है वही मानवता के मन्दिर का अखण्ड दीप 262. ईर्ष्या और द्वेष से ऐसे विष का संचय होता है कि जिसे खिला दिया जाए वह
270. हृदय : हृदय वह मान सरोवर है, जिसमें भी जीते जी ही मर जाएगा।
करुणा और प्रेम रूपी हंस विहार करते है। 263. परमात्म-विरोध - परमात्मा का विरोध
271. हृदय वाचनः पुस्तक पढ़ने वाले लोग करनेवाला चाहे कितना ही बढ़-चढ़ कर बोल
अपना हृदय भी पढ़ने का प्रयास करें, जाए अन्ततः उसे नष्ट होना ही पड़ता है।
जिसमें पुस्तक से भी ज्यादा रस है। 264. पठन-मनन - पढ़ने के बाद मनन उतना
272. हृदय-सौन्दर्य : चमड़ी का रंग काला होने ही जरुरी है जितना भोजन के बाद पाचन।
से क्या हुआ यदि हृदय सुन्दर है। ' 265. मधुर वचन - जीवन का असली रत्न तो मधुर वचन ही है, शेष सब कंकर-पत्थर।
273. हार्दिकता : मुस्कुराहट में दिये गये आँसुओं
को पहचानना ही हार्दिकता है। 266. संकल्प : अच्छे कामों को आज करने का 'संकल्प' करने वाले बुरे काम नहीं कर पाएँगे।
274. हिम्मत : जीत उसी की होती है जो जीतने 267. संकट विजय : संकटो पर विजय पाना
की हिम्मत रखता है। मनुष्य का धर्म है पर जान-बुझकर संकटो 275. होना : होना तो उसका है, जो अपनी को मोल लेना नासमझी है।
मौन-सेवाएँ देते हैं।
किसके रोने से कौन रुका है कभी यहाँ,
जाने को ही सब आये हैं, सब जायेंगे, चलने की ही तो तैयारी बस जीवन है, कुछ सुबह गये कुछ डेरा शाम को उठायेंगे।।
___★★★★★ बनाने की सोचिए बिगाड़ने की नहीं। बसाने की साचिए उजाड़ने की नहीं। नया नक्शा बनाना है दुनियाँ का अगर। जोड़ने की सोचिए तोड़ने की नही।
Page #241
--------------------------------------------------------------------------
________________
1.
2.
3.
4.
5.
6.
7.
8.
9.
10.
एक कदम अपनी ओर
6
विषय : वर्ष 2010 के टिप्स
मानव जन्म को “सन्धि" समझो।
प्रणाम बिना कोई घर नहीं रहे।
प्रतिदिन नवकार मंत्र का स्मरण हो ।
सेवा को प्रथम धर्म मानो।
सूर्योदय के पश्चात सोना अच्छा नहीं है।
परस्पर अभिवादन में प्रसन्नता की झलक हो।
गृहस्थी में मात्र स्वयं के बारे में ही चिन्तन करना उचित नहीं है।
छोटे बड़ों के बीच मर्यादा का होना अति आवश्यक है।
घर को मनोरंजन स्थान मत मानो । (मत बनावो)
अपने घर को तीर्थंकर महावीर स्वामी के श्रावक का घर समझो।
11. जिस घर से प्रणाम गया, समझो सब कुछ
गया।
12. देवाधिदेव, गुरुदेव व अहिंसा धर्म पर गहरी श्रद्धा रखना चाहिए।
13. रात्रि भोजन से बचो। रात्रि का भोजन श्रावकाचार में दोष है।
14. देर रात्रि तक का जागरण अहितकारी है । (ठाणांग सूत्र )
217
15. टी. वी. ने जीवन को जहर बना दिया है। 16. पारिवारिक रिश्तो को कषाय भावों से तोड़ने का प्रयास मत करो। एक बार जिसे अपना बना चुके हो तो उससे रिश्ता तोड़ो मत।
17.
18. तिथियों के महत्व को समझना चाहिए। (चन्द्र संवत्सर)
19.
कम से कम पक्खी के अवसर पर तो प्रतिक्रमण अति आवश्यक है। पाक्षिक आलोचना से जागृति बनी रहती है।
20. प्रतिदिन जिनवाणी (प्रवचन) सुनने का प्रयास करो।
21. प्रभु ने अनुकम्पा दान की मनाई नहीं की है। श्रावक को आरंभ परिग्रह घटाने पर अधिक ध्यान देना चाहिए। प्रथम मनोरथ साधु का है, ज्ञान बढ़ाना।
22.
24.
स्मरण रहे कि मनुष्य भव में ही चारित्र की प्राप्ति हो सकती है। ज्यादा से ज्यादा समय व्रत में ही रहें।
23. ज्ञान ध्यान बढ़े और आरंभ परिग्रह की रुचि घटे यही श्रावक जीवन की सार्थकता है।
25.
26.
घर में जोर-जोर से 'चिल्लाना' उचित नहीं है।
यह श्रावक का घर है, सिनेमाघर नहीं, इस बातका स्मरण रहे।
प्रातः 7 बजे से रात्रि के 11 बजे तक रसोई एवम् टी.वी चलता रहे तो यह जानना
Page #242
--------------------------------------------------------------------------
________________
39. सूर्योदय एवम सूर्यास्त दोनों समय सोने
के लिए उचित नहीं है। सोने की अमर्यादा.
अनेक दोषों की जनक है। 40. गुरु कृपा को भरपुर पाने का प्रयास करना
चाहिए।
चाहिए कि यह श्रावक का घर नहीं है। 27. अतिथि देव तुल्य माना गया है। साधर्मिक
सेवा भी सेवा है। 28. घर के मुख्य स्थान को मनोरंजन (टी.वी)
घर मत बनाओ। घर के केन्द्र से टी.वी
निकाल दीजिए। 29. घर में बड़ो के प्रवेश पर उठकर आदर
सत्कार देना चाहिए। लोकोपचार विनय
का भेद है। 30. घर से बाहर जाने की सूचना बड़ो को
देनी चाहिए। 31. पुनः घर में प्रवेश करने की जानकारी
बड़ो को देनी चाहिए। बड़ो को विनय किया है मानो।
41. प्रतिदिन चौवीस तीर्थंकरों का स्मरण अवश्य
करना चाहिए। विहरमान, गणधर व सतीयों का स्मरण भी करावें।
42. नित्य 'नया ज्ञानाभ्यास करना चाहिए। पढ़मं
णाणं तओ दया।
32.
स्वयं का अथवा अन्यो के कार्य को करने की जानकारी बड़ो को देनी चाहिए। अनुज्ञा विनय है।
33. अपने लिए लाई हुई वस्तु को लेने हेतु
पारिवारिक जनों को आग्रह करना चाहिए। 34. अपनी भूल को तुरन्त स्वीकार कर लेना
चाहिए। 35. बड़ो की बातों का आदर सत्कार सम्मान
करना चाहिए। 36. बच्चों के समीप दिन में थोड़ी देर अवश्य
बैठना चाहिए। 37. घर के बुढ़े बुजुर्गों के पास थोड़ी देर
बैठना चाहिए। 38. 'स्वार्थी' बनना अपने जीवन को निम्न
स्तर का बनाने के समान है। मुझे अब इन्टरेस्ट नहीं है, तुच्छ वचन है।
43. अधिक सोना, अधिक खाना, अधिक
जागना- ये सब श्रावक के आचार नहीं है।
रोगों को जन्म देते है। 44. सूर्यास्त के पश्चात आहार का त्याग जीवन
को संयमित बना देता है। सहन शक्ति
गुण की वृद्धि होती है। 45. एकासना, बेआसना का प्रारंभ जीवन को
अति उत्तम बना देता है। मर्यादा जीवन
बन जाता है। 46. व्यापार में झूठ एवम् अनीति से बचना
श्रावक का मुख्य कर्तव्य है। मार्गानुसारी जीवन जीने के उत्तम बोल है। जानबूझ-कर त्रस जीवों की हिंसा से श्रावक को दूर रहना चाहिए। वर्तमान में त्रस काया
की हिंसा बढ़ी है। 48. परिग्रह की (इच्छाओं की) मर्यादा करें। 49. टी.वी, वी.सी.आर, कम्प्युटर, इन्टरनेट
आदि ने युवा पीढ़ी में अनर्थ पापों की भरमार करदी है, ध्यान रहे कि बिना संस्कारो से यह आशियाना यानि श्रावक का घर पापों का घर न बन जाये।
Page #243
--------------------------------------------------------------------------
________________
50. प्रदर्शन-दिखावों से दूर रहे, अनुमोदना | 61. धीरे-धीरे एवं कम बोलने से घर में
से बचना है तो ऐसे स्थानों पर जाना महाभारत नहीं होते है। (केरला प्रदेश में छोड़ दे।
समान्यतः धीरे ही बोलते हैं।) 51. 'झूठा डालना' भी महापाप है, अन्न का 62. घर में एक दूसरे के हित का ध्यान रखें। अपमान है।
63. नम्रता से सबको अपनाया जा सकता है। 52. वाहनों की गति पर संयम रखें। वाहनो से 64. इस घर (शरीर रूपी घर)को छोड़ना भी हिंसा बढ़ी है।
है - इस पर चिन्तन करें। 53. आमदनी और खरच दोनो का तालमेल | 65. नियमितता मानव की अनिवार्य चर्या होनी नहीं टूटना चाहिए।
चाहिए। 54. अभद्र वेश-भूषा से घर को बचावें। 66. पाँच पाण्डव एवं राम आदि चार भाई,
इन नौ जनों के नामों का स्मरण घर में 55. “आव नहीं, आदर नही, नहीं नयनों में
सदैव होना चाहिए। नेह।
67. जीवन में निराशा' मत आने दो। • 'तुलसी' वहाँ न जाइये, चाहे कंचन बरसे मेह"||
68. विश्वासघात' महा अपराध है। 56. पुण्य की होली ज्यादा मत खेलो,
69. दौलत और मित्रता में सदैव वैर होता है।
70. परस्पर वैर की गाँठे मन बांधे। नहीं तो ज्ञान की दिवाली नहीं होगी
71. प्रति दिन ‘खमत खामणा' के भाव रखो। .तो फिर “अक्षय तृतीया” कैसे मनाओगे।
72. विनय जितना अधिक होगा घर में, शांति 57. “सव्व भूयप्प अप्प भूयस्स" (दशवैकालिक)
सुख उतना ही ज्यादा होगा उस घर में। “खामेमि सव्वे जीवा” (प्रतिक्रमण)
| 73. मन की चंचलता का ध्यान रखते हुए, “मित्ति मे सव्व भूएसु” (प्रतिक्रमण)
उसकी हर बात को मत मानो। इन तीनों पर गहराई से चिन्तन करें। | 74. बीती रात, गई बात। Let go आराधन मार्ग है।
75. नर जाणे दिन जात है, दिन जाणे नर
जाता। 58. पर निन्दा हमारा अनमोल समय बरबाद करती है।
76. मोक्ष मार्ग कभी न छोडूं। 59. कषायों से ही हमारा जन्म-मरण का निर्माण | 77. विवाह शादी में आडम्बरो व प्रदर्शनों व होता है।
अभद्र वेशभूषा से बचें।
-60. सत्संग (सन्त संग) दुनिया का सबसे बड़ा | 78. सामूहिक भोज में अधिकाधिक व्यंजन न तीर्थ है।
बनावें।
Page #244
--------------------------------------------------------------------------
________________
79. बारात में सड़को पर नाचना-नचाना बन्द | 95. बच्चो को संस्कारित बनाना है तो स्वयं हो।
संस्कारवान बनो। 'चेरिटी बिगिन फ्रॉम 80. पर निन्दा करते समय अपनी आत्मा को
होम’ | टटोलो।
96. किसी भी परिस्थिति में “आत्म हत्या" का
चिन्तन मत करो। 81. जीवन के उतार-चढ़ाव में शान्त रहने का प्रयास करें।
97. पाँच सितारा (Five star) होटलो में अन्न,
जल मत ग्रहण करो। 82. कम बोलो, अधिक सुनो। दुःखी नहीं बनोगे।
98. चमड़े की वस्तुओं का उपयोग मत करो।
भयंकर पाप के भागी होते हैं। 83. कम बोलो, अधिक करो। टेन्सन फ्री रहोगे।
99. रात्रि के समय सोने से पूर्व दिन भर की 84. करुणा विहीन जीवन पत्थर के समान है।
चर्या का चिन्तन करो। 85. क्रोध से प्रीति का, मान से विनय का, माया | 100. परोपकार का कार्य कल पर मत टालों। से विश्वास का और लोभ से सर्वस्व का
101. अधिक बोलनेवालों पर विश्वास मत करो। नाश होता है।
102. एक पीढ़ी संस्कारित होती है, तो तीन 86. मौन से आत्म चिन्तन को बल की प्राप्ति
पीढ़ीयों को साता पहुँचती है। होती है।
103. उम्र बढ़ने के साथ पर्यटन की रुचि घटाओ। 87. मित्र की परीक्षा, संकट के आने पर होती
104. बच्चों व युवा पीढ़ी को दुःखी जीवों से
परिचय करादो , जैसे अन्धाश्रम, 88. निन्दा करने से गुण प्राप्त करना कठिन
अनाथालय, हड्डी का अस्पताल आदि। होता है।
105. मौज, शौक ही मानव जीवन का लक्ष्य है 89. कार्य प्रारंभ करने के पूर्व, उसके परिणाम क्या? कुछ आत्म कल्याण व कुछ पर का चिन्तन करो।
कल्याण के लिए भी समय निकालो। 90. अपने मुँह मियां मिनु मत बनो।
106. अधिक संख्या व अधिक मात्रा में भोजन
मत करो। 91. कष्टो का सामना करने वालों के लिये सफलता प्राप्ति सुनिश्चित है।
107. भगवान ने अधिक बैठना, अधिक जागना
को रोग उत्पन्न के कारण में लिया है। 92. विनयवान को ही ज्ञान की प्राप्ति होती है।
108. दोष ढ़के नहीं जा सकते, सद्गुणों के विकास 93. नीची निगाहो से दान दो और देकर भूल
द्वारा उन्हे फीका किया जा सकता है। जाओ।
109. प्रतिकूल प्रतिभाव के कारण, कहने वाले 94. कथनी करनी मे समानता रखो।
की जीवन शक्ति भी क्षीण होती है।
Page #245
--------------------------------------------------------------------------
________________
110. रज्जब रोष न कीजिए कोई कहे क्यों ही। | 115. दूसरे को नीचा दिखाने का काम कोई न
करना, न सोचना और न किसी को अपमानित हँसकर उत्तर दीजिये हाँ बाबाजी! यों ही।।
होते देखकर जरा भी प्रसन्न होना। सदैव 111. मन में सदा प्रसन्न रहना, चेहरे को प्रसन्न
सभी को सम्मान देना। तथा ऊँचे उठते रखना,
देखकर प्रसन्न होना। रोनी सूरत न रखना तथा रोनी जबान न
116. बुरा कर्म करने वाले के प्रति उपेक्षा करना, बोलना।
उसका संग न करना और उसका बुरा न 112. आपस में कलह बढ़े, ऐसा काम शरीर चाहना | बुरे काम से घृणा करना, बुरा मन-वचन से न करना।
करने वाले से नहीं, उसको दया का पात्र 113. दूसरों की चीज पर कभी मन न चलाना,
समझना। शौकीनी की चीजों से जहाँ तक हो सके 117. गरीब तथा अभावग्रस्त को चुपचाप अपने दूर ही रहना।
से जितना भी हो सके हर संभव उतनी सदा उत्साह पूर्ण, सर्व हितकर, सुखपूर्ण, सहायता करना, परन्तु न उसपर कभी शांतिमय पवित्र विचार करना, निराशा उद्धेग एहसान जताना, न बदला चाहना न उस अहितकर विषाद युक्त और गंदे विचार सहायता को प्रगट करना। कभी न करना।
तेरे वादे पे जिए हम तो, ये जान झूठ जाना। कि खुशी से मर जाते, गर एतबार होता।
★★★★
मैं सही हूँ - No Problem मैं ही सही हूँ - Problem ही Problem
★★★★
क्लेश वासित मन, दुःख भरा संसार। क्लेश रहित मन, ते उतरे भव पार।।
मच्छरदानी के बाहर हजारों मच्छर हो तो कोई बात नहीं, परन्तु मच्छरदानी के भीतर एक भी मच्छर है तो शांति नहीं रहने देगा।
Page #246
--------------------------------------------------------------------------
________________
एक कदम अपनी ओर ॥ विषय : नाम से “अनाम की ओर"
'विश्लेषक एवं प्रवचनकार गुरुदेव श्री विनयमुनिजी म. ‘खींचन' 1. जीव का 'नाम' आत्मा या चेतना रुप है, | 13. आज दान में 'नाम' का महत्वपूर्ण योगदान उसमें नाम होता नहीं, पीछे से रखा जाता
14. 'नामवाद' व राग-द्वेष में दोस्ती है। पहिचान या संज्ञा रुप जीवों के नाम भिन्न
15. अनामवाद व धर्मात्मा की दोस्ती है। भिन्न होते है।
16. 'नाम' की रुचि में भरतचक्री ने ऋषभकुट 3. नव तत्वों के गुण आधारित पहचान रुप
पर अपना नाम लिखा था, परन्तु अन्य का 'नाम' है।
नाम मिटाकर 4. निगोद में रहे अनंत जीवों का 'नाम' होता
17. 'अनाम' बनना ही पड़ेगा चाहे आप मोक्ष है क्या?
जावो या 84 में जावो। 5. अनंत सिद्ध प्रभु के कोई 'नाम' बता सकता
18. पेट की भूख से ज्यादा भयानक 'नाम' है क्या ?
की भूख होती है। अनाम से जीव की यात्रा चालू होती है
19. कहते है कि “धरती अखंड कुंवारी है" और बीच में नामों में भटक गया है। ।
क्योंकि इसका कोई मालिक नहीं बन सका। व्यवहार रुप 'नाम' छदमस्थों की पहचान में सहयोगी होता है तथा गुणगान करने में
20. 'नाम' कर्म जो अघाती माना है वो पुण्य, भी सहयोगी होता है।
पाप दोनों रुपों में होता है। 8. पांच पदो में कोई 'नाम' का संकेत नहीं
| 21. वस्तुओं या पदार्थों के नाम अर्थ व गुणवाची मिलता है।
होते है जबकि मानवों के 'नामा सामान्यतः 9. 'नाम' से 'अनाम' तक ले जाने वाली |
राशि चक्र से रखे जाते है। साधना जैन धर्म है।
भरतचक्री ने 'नाम' लिखकर भी वैराग्य 'नाम' के पीछे कितने महाभारत हो रहे है।
चक्र पाया जबकि कोणिक नाम लिखाने के भावों को समझने वाला ही अनामी बनता
कारण मरकर छठ्ठी नरक मेन गया।
23. छदमस्थ जीवों विशेषकर मानव जाति 11. संज्ञा व पहिचान तक तो 'नाम' ठीक है। | में 'नाम' को प्रसिद्ध करने की दौड़ सी
लगी रहती है। 12. अनंत चौबीसी शब्द अनंत 'नामों का विलिनीकरण है।
| 24. 'मान' कषाय वश हमें नाम प्रसिद्ध करने
Page #247
--------------------------------------------------------------------------
________________
की धुन लगी रहती है।
35. 'संतोषवृत्ति' ही 'नाम' की भूख मिटा सकती 25. 'नाम' से अधिक महत्वपूर्ण काम (कार्य)
36. आडंबरो, प्रदर्शनों में 'नाम' ही मुख्य ध्येय
होता है। 26. 'नाम' के आधार पर हमारी गति का निर्माण
नहीं होता जबकि कर्म (कार्य) के आधार 37. हमारा 'नाम' सामान्यतः तीन पीढ़ी से पर गति का निर्माण होता है।
ज्यादा कोई याद नहीं रखता। 27. 'नाम' की भूख आज मानो सबसे बड़ी 38. मनुष्य का न तो जीवन अमर है, न 'नाम'। भूख बन चुकी है।
39. बचपन से पचपन तक 'नाम' के पीछे ही 28. पेट की भूख तो थोड़े से भोजन से शांत दौड़ता दौड़ता ही प्राण छोड़ देता है
हो जाती है परन्तु 'नाम' की भूख ज्ञान के (सामान्यतः) समझ से ही शांत हो सकती है।
40. वीतराग मार्ग ही एक ऐसा मार्ग जहाँ 'नाम' 29. 'नाम' के लिए जीते है हम, ज्ञानी पुरुषों की बजाय आत्मा को महत्व दिया गया, ने कर्म (कार्य) को महत्व दिया है।
गुणों को महत्व दिया है। 30. 'नाम' के पीछे समाज में “परस्पर विग्रह" 41. आत्मा की दुर्गति भले हो जाय परन्तु बने हुए है।
'नाम' प्रसिद्धि की दौड़ में दौड़ रहे मानव 31. नीगोद में जीवों का कोई 'नाम' नहीं होता
का किस समय, किस स्थान पर अंत हो मात्र एकेन्द्रिय कहलाता है।
जाएगा? फिर क्या नाम साथ आयेगा? 32. · संकीर्णता, संकुचितता, आदि अनेक दोष
42. मीडिया ने 'नाम' की भूख को बढ़ाई है। 'नाम' के पीछे पैदा होते है।
43. 'नाम' के क्लेश में कत्ल तक हो जाता है। 33. जैसे पाँच पदो को गुणवाचक नामों से ही | 44. अनन्तकाल से हम अनाम थे, आज हम
पुकारा जाता है “णमो सिद्धाणं" कहने से 'नाम' के पीछे भटक रहे है।
समस्त सिद्धो को नमस्कार हो जाता है। 45. दुविधा में दोनों गये, राम मिला न 'नाम' 34. 'नाम' की भूख भी ego में ही आती है। । मिला।
ईश्वर पर सदा भरोसा रखिए,
वह निन्यानवे द्वार बंद कर देता है, पर भाग्य का एक द्वार फिर भी खुला रखता है।
जिसने हमको ठुकराया, हम तो उसके भी आभारी है, जिसने हमको गले लगाया, वो प्राणों का अधिकारी हैं।
Page #248
--------------------------------------------------------------------------
________________
1.
2.
3.
4.
5.
6.
7.
8.
9.
जिण पण्णतं तत्तं - जिन प्रज्ञप्त को तत्व कहते है।
तत्व अर्थात् सार-सार (निचोड़ रुप)
जीवादि नव को पदार्थ कहते है।
12.
“णव सब्भाव पयत्था पण्णता” =
आदि।
एक कदन अपनी ओर 8 विषय : नव तत्व विवेचना - सार
-
सद्भाव पदार्थ नव माने गए है।
सद्भाव अर्थात् इन नव पदार्थो का अंतर
के भावों (श्रद्धा) से मानना ।
नव पदार्थ - जो जैसा है, उसे उसी रूप में मानना ही सम्यक्त्व है।
जीव
भावेण सद्दहन्तस्स सम्मत्तं तं विहाहियं भीतरी भावों से नव तत्वों पर यथार्थ श्रद्धा करना ही समकित है।
संसार में सत् (सच्च) भाव पदार्थ नौ माने है।
10. नव तत्वों (पदार्थों) के सभी के स्वभाव अलग अलग है, उसे उसी दृष्टि (यथा) रुप श्रद्धा करते हुए हेय और उपादेय करना चाहिए। ज्ञेय तो नव तत्व है ही ।
11. बिना नव तत्वों के ज्ञान के कारण आत्मा चतुर्गति में परिभ्रमण करती है।
नव तत्वों पर दृष्टांत घटाइए:
1. जीव नाविक समान 2. अजीव उत्तराध्ययन में आए है)
-
-
नाव समान (ये दोनों
224
3. पुण्य अनुकुल हवा |
4.
पाप - प्रतिकुल हवा |
5. आश्रव नाव में छेद होना और पानी आना।
6. संवर - नाव में हुए छेद को बंद करना। 7. निर्जरा - छेद से आए पानी उलीचना । 8. बंध- नाव नाविक व पानी मानो एकमेक हो।
9. मोक्ष - नावछोड़कर - किनारे पहुँचना
13. जीव, संवर निर्जरा और मोक्ष ये चार जीव
-
अजीव, बंध, आश्रव, पुण्य, पाप ये पाँच अजीव है।
14. यथाभूत इन भावों का सत्यार्थ कथन है। जिनपर अन्तर्मन से श्रद्धा करना, सम्यक्त्व मार्ग है शिव पद का।
16.
15. बिना नव तत्व का ज्ञान सीखे, चाहे धन से धनवान हो सकता है परन्तु मोक्ष मार्ग में वह दयनीय दशा में ही गिना जाएगा।
श्रावक के 21 गुणों में प्रथम गुण है - पहले बोलें श्रावकजी “नव तत्व” 25 क्रिया का जानकार होवे।
17. वस्तु का वास्तविक (सही) स्वरुप ही 'तत्व' है।
18. यहाँ पर सीखा ज्ञान आगामी जन्मों में भी साथ जाता है।
Page #249
--------------------------------------------------------------------------
________________
था।
19. जिस प्रकार अर्थ उपार्जन का तरीका या | 32. मोक्ष में कर्म रहित होने से, जीव होते हुए
जानकारी सीख कर ही धनवान बनता है भी उसे मोक्ष कहा है। उसी प्रकार नवतत्वों का ज्ञान सीख कर ही
33. अनादिकाल से जीव कर्म सहित ही रहा आत्मा धर्म करके धर्मवान बनती है। 20. जीव - जिसके पास जीवन हो, जो जीता
34. कर्म बांधने में राग-द्वेष मूल कारण है।
जीव पुनः पुनः उदय और पुनः पुनः बंध 21. चेतन - जीवन का लक्षण “चेतना" माना है। तथा बंध व उदय के रास्ते चलता है और 22. आत्मा - ज्ञानादि गुणों में रमण करे वो
मुक्ति से दूर होता जाता है। 'आत्मा' ।
35. जीवों के विभाजन एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय 23. भगवती सूत्र में जीव के 23 पर्यायवाची
जाति आधारित हुए है। मास्टर Key के नाम बताए है।
समान है नव तत्वों का ज्ञान। 24. जीव का लक्षण ‘उपयोग' बताया है।
| 36. इन्द्रियों के दुरुपयोग करने से पुनः वे इन्द्रियें
हमें नहीं मिलती है। 25. है दर्शन, ज्ञान चारित्र तपस्या और शक्ति उपयोग जहाँ, चैतन्य गुणों का वास देव
37. बांधे हुवे कर्मों का निर्माण स्वयं जीव ही लक्षण से मानो जीव यहाँ।
करता है। 26. जीव के दो भेद - संसारी, सिद्ध परमात्मा।
38. नव तत्वों का ज्ञान ही अंत में मोक्ष पहुँचाता 2. संसारी जीवों के विभिन्न भेद होते है,
39. चार गति आधारित विभाजन में, मनुष्य 1. त्रस : स्थावर छह काया आधारित। पर्याय महा पुण्योदय से मिलती है। इसी 2. पाँच जाति आधारित।
अवस्था में वह कर्म बंध की बजाय कर्म 3. 14 भेद व 563 भेट भी होते है।
निर्जरा प्रधान जीवन बना सकता है। 28. हमें अपने जीवन को कैसे जीना है? ये | 40. धर्म की अयोग्यता के कारण बिना मन का नव तत्वों के ज्ञान को सीखे बिना प्रायः
जीवन (असन्नी का) मिलता है। जीव के 14
भेदों में से 12 भेद असन्नी है। असंभव है। 29. जीव के 14 भेदो में से एक भेद (सन्नी
41. जीव के 14 भेद का वर्णन इस प्रकार हैपंचेन्द्रिय का पर्याप्त) ही आत्म कल्याण
अपर्याप्ता - पर्याप्ता करने की योग्यता रखता है। सर्व प्रथम नव A) सूक्ष्म एकेन्द्रिय का .... 1. तत्वों का ज्ञान सीखना चाहिए।
B) बादर एकेन्द्रिय का.... 3. 30. नव तत्वों का ज्ञान धर्म का प्रवेश द्वार है। C) बेइन्द्रिय का .... 5. 31. 'जीव' शब्द में कर्म सहित होने की प्रधानता D) तेइन्द्रिय का .... 7.
E) चउरिन्द्रिय का ....
जैसे
Page #250
--------------------------------------------------------------------------
________________
F) असन्नी पंचेन्द्रिय का .... 11.
53. पुद्गलों से बना शरीर, मकान, रुप सब G) सन्नी पंचेन्द्रिय का.... 13. 14. कुछ नष्ट (पर्याय बदलाव) हो जायेगा, परन्तु 42. जीव की अपनी नासमझी (मोह व अज्ञानता)
जीव के जीवत्व (आत्मा) को दुनियाँ की
कोई ताकत नष्ट नहीं कर सकती। ही जीव को 84 लाख जीवयोनि में भ्रमण करवा रही है।
54. भूतकाल में जीव था, वर्तमान में है और
भविष्य में भी जीव (चैतन्य) ही रहेगा। 43. हे मानव! जन्म से लगाकर जिनवाणी श्रवण तक की सारी भूमिकाएं तूं बना चुका है।
55. कर्मों के अनुसार शुभाशुभ गति जाति में अब खोटी पकड़ छोड़! क्योंकि ये सब जो
जन्म होगा। परन्तु जीव का विनाश कभी दिख रहा है, वह अनित्य है।
नहीं होगा, ऐसा विश्वास करें। 44. शरीर रुप युवानी, धन, सम्पति सब | 56. वर्तमान में मेरे जीव को पुण्योदय से शरीर, अनित्य है, यह साथ नहीं देने वाली है।
इन्द्रियें मन, वचन आदि परिपूर्ण मिले है,
अतः मुझे इनको पापों में नहीं डूबोना है। 45. तू भारी कर्मा मत बन! सत्संग ही तीर्थों का महातीर्थ है, तू रोज जिनवाणी सुन!
57. पाप से हटना, संवर निर्जरा का सेवन
करना ही इस जिन्दगी का ध्येय होना 46. मिथ्यात्व कैसे दूर होवे इसका उपाय सोच!
चाहिए। असन्नी जीव चिंतन मनन रहित होता है।
58. जड़ता लक्षण अजीव में होता है। 47. नरक तिर्यंच में जाने के चार-चार कारण है, उन्हे छोड़े बिना जीव हलुकर्मी नहीं बन
59. सुख-दुःख, पुण्य-पाप नहीं होते है। (ऐसे सकता।
मिथ्यात्वी के विचार होते है) 48. उपयोग में मोह-मिथ्यात्व आने से उपयोग
60. अजीव में जीव रहता है, उसे सचित्त कहते दुरुपयोग बनकर अज्ञानी की पर्याय में संसार के इन्द्रिय सुखों में ही सच्चा सुख मान | 61. अजीव कभी जीव नहीं बन सकता। बैठता है।
62. अजीव के पाँच प्रकार होते है - चार अरुपी 49. मिथ्यात्व से अज्ञानता का विस्तार होता है तथा एक रुपी। और अज्ञान पुनः मिथ्यात्व को बांधता है।
63. धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, 50. मिथ्यात्व ही संसार (कर्म) की जड़ है। आकाशास्तिकाय के 3-3 भेद कुल 9 भेद 51. कर्म जन्य सुख-दुःख अस्थाई है। मिथ्यात्व
हए तथा दसवां काल होता है ये 10 भेद की इतनी सी समझ से ही जीव मोक्ष मार्ग
अरुपी अजीव, में होते है। वर्ण, गंध, रस पर चल सकता है।
व स्पर्श रहित होते है वे अरुपी कहलाते है। 52. सन्नी-पंचेन्द्रिय का पर्याप्त और यदि साथ
| 64. रुपी पुदगल के चार भेद यथा स्कन्ध, में मनुष्य जन्म मिल जाय तो जो चाहे बन
। स्कन्ध देश, स्कन्ध प्रदेश व परमाणु। सकता है।
| 65. अनंता अनंत प्रदेशी स्कन्ध जो पुदगल होते
Page #251
--------------------------------------------------------------------------
________________
के।
है, उसी का उपयोग (ग्रहण) जीव कर सकता तथा काल सभी जीवों पर वर्त रहा है।
79. मानव जन्म आदि कर्म (पुद्गल) जन्य 66. योग-सहित जीव ही पुदगलों को ग्रहण साधना के साधन, जो अजीव है, वे जीव करता है। अयोगी नहीं।
को आत्मा कल्याण में सहयोगी बन सकते 67. जीव अजीव दोनो में कुछ समानता होते
है, निर्भर (निर्णय) सिर्फ स्वयं जीव पर हुए भी दोनों के गुण विपरीत ही होते है।
करता है। 68. अजीव में सुख-दुःख होता ही नहीं है। । 80. आठ कर्म अजीव पुद्गल है। 69. जीव द्वारा ग्रहण किए अजीव पदगलों से | 81. पुद्गलों से बनी कोई भी चीज लम्बे काल
तक उसी पर्याय में नहीं रह सकती। सड़न, इस जीव को शुभाशुभ (साता-असाता) आदि फल (अनुभव) मिलते है।
गलन, विध्वंसन आदि ये स्वभाव है, पुद्गल 70. शरीर अजीव होते हुए भी पुण्य कर्म के उदय से जीव को प्राप्त होता है, शरीर को
82. “सम्यक दर्शन, ज्ञान, चारित्राणि मोक्ष माध्यम बनाकर जीव 'आत्म कल्याण' की
मार्ग", यह तत्वार्थ सूत्र का प्रथम सूत्र है, साधना करता है।
इसमें मोक्ष मार्ग क्या है? समझाया है। 71. अजीव (रुचि) दृष्टि वाला जीव मिथ्यात्वी'
83. हम अरिहंत देव के उपासक या श्रमणोपासक होता है।
होकर भी यदि वाण व्यंतर आदि देवों की
पूजा अर्चना (अर्जुन माली के समान) करते 72. जीव दृष्टि वाला जीव सम्यक्त्वी होता है।
है, तो क्या हमें दोष लगता है? हाँ। 73. जीव, अजीवों (पुदगलादि) पर मूर्छा कर
84. अव्रती देव-देवी भी मोक्ष मार्ग की आराधना सकता है। अजीव मूर्छा नहीं करता है।
करने वाले साधु-साध्वी को नमस्कार करते जड़ होता है। 74. अजीव तो जीव पर किसी प्रकार की राग
85. श्रावक को अव्रती देवों की आसातना करना द्वेषात्मक परिणिति नहीं कर सकता है,
नहीं कल्पता परन्तु उनकी आराधना करना सरागी जीवों में राग-द्वेष होता है।
भी तो मोक्ष मार्ग की राह वाले को कैसे 75. अरुपी - अजीव भी हमें जीवों को अपने
कल्पता है।???? गुणों के आधार पर सहयोग करता है, जीव
86. अव्रती देव जो सम्यक् दृष्टि होते है, वे भी जैसे भाव अजीव में नहीं होते है।
मनुष्य बनने व चारित्र धारण करने के इच्छुक 76. मोक्ष पहुँचाने की गति (कहीं भी) में सहायक
होते है। चारित्र को नमस्कार वे भी करते धर्मास्तिकाय है। 77. अनंता जीव ठहरे हुए है, मोक्ष में, इसमें | 87. जगत में चारित्र सहित ज्ञानी वंदनीय, . सहायक अधर्मास्तिकाय है।
पूजनीय माना गया है, मिथ्यात्वी व अव्रती 78. अनंतानंत जीव आकाश (जगह) में रहे है । पूजनीय, वन्दनीय नहीं होता है।
है।
Page #252
--------------------------------------------------------------------------
________________
88. मोक्ष मार्ग की आराधना को छोड़ने का | 96. सरागी देवों के भक्तों से दूर रहे, जब
प्रमुख कारण है: मिथ्यात्व का उदय। जो तक सरागी देव व वीतरागी देवों के गुणों को झूठमें विश्वास कराता है, इन्द्रिय सुखों को न समझलें तथा अपनी समकित मजबूत न ही सच्चा सुख मानता है, पुण्य पाप नहीं करले, तब तक अवश्य बचें। मानता।
97. जीव मात्र का तिरस्कार करना नहीं कल्पता 89. सरागी देवों (अव्रती) की सेवा पूजा तथा है, इसका आशय यह तो नहीं कि अव्रती
निरंतर उनके नाम की माला-जाप आदि देवों की भक्ति सेवा में लग जाये।
करना, ये श्रावकाचार में नही माना है। | 98. यह विड्रंबना ही है कि वीतरागी अरिहंतो 90. अव्रती देवों की तरफ झुकाव होने पर, की जिनवाणी मिलने के बाद भी हम अव्रतियों
हमारा अरिहंत देवों की तरफ ध्यान छूट की भक्ति आदि में रस लेते है। जाता है, संवर निर्जरा तप आदि मोक्ष | 99. पुद्गल जड़ होते हुए भी, चेतन को, अपने मार्ग की प्रवृतियाँ बंद हो जाती है या रुक प्रभाव से ज्ञानादि गुणों को विकार ग्रस्त जाती है।
कर देता है। 91. अरिहंत देव की बजाय हमारा चित्त उनकी | 100. कर्म विकार का सबसे भयानक रुप मिथ्यात्व
तरफ जाते रहने से, हमारी मोक्ष मार्ग से है, जो आत्मा को संसार में ही भटकाता गति हट जाती है, हम मात्र चमत्कार जैसी है मोक्ष की ओर नहीं जाने देता। छोटी-छोटी घटनाओं में उलझ जाते है, | 101. “स्वयं जीव की अस्वीकृति" ही मिथ्यात्व हम जितने बुरे नहीं बनते है, उससे भी
की शुरुआत होती है। ज्यादा हमें विधर्मी लोगों की संगत, सही
102. जीव, धर्म, साधु, मोक्ष मार्ग व मुक्त मोक्ष मार्ग से दूर करवा देती है।
जीव ये पांचो एक दूसरे से जुड़े हुवे है। 92. अरिहंतो महदेवो ... के पाठ की मान्यता एक के भी नहीं मानने पर पांचो मिथ्यात्व या अंतरंग श्रद्धा ही सम्यक्तवी की पहिचान का सेवन करते है, अतः मिथ्यात्व तोडने
का उपाय करें। पांचो को स्वीकार करने से 93. आरम्भ-समारम्भ की प्रवृतियां संवर में नहीं मिथ्यात्व जायेगा। आती है।
103. अनंतानुबंधी कषाय से 'मिथ्यात्व' का गाढ़ा 94. पुदगल और जीव का संबंध अनादिकाल संबंध होता है। से चला आ रहा है।
104. अनंतानुबंधी कषाय के हटने से ही “मिथ्यात्व 95. सृष्टि के समस्त जीवों की रक्षा का संकल्प
की समाप्ति” संभव होती है। अहिंसा आदि महाव्रतों के कारण ही अर्जुन | 105. अनंतानुबंधी कषाय मिथ्यात्व को और मजबूत अणगार को मोक्ष पहुँचाया था, मुदगर पाणी करता है, परिभ्रमण में साथ रहता है। के सहयोग से तो वो इन्सान से हैवान | 106. मिथ्यात्व पर ही सारे के सारे आठ कर्म (हत्यारा) बन गया था।
टिके है।
Page #253
--------------------------------------------------------------------------
________________
है।
107. मिथ्यात्व महा पाप है, महा अधर्म है। | 123. शुभ फल रुप पुण्य कहलाता है, जिसे 108. मिथ्यात्व की निश्राय में ही 18 पापों का
कठिनाई से बांधा जाता है, पुण्य रुप भोग संरक्षण होता है।
शुभ फल देता है। 109. मिथ्यात्व नशे के समान ‘महा-व्यसन' है।
124. पुण्य बंध 9 प्रकार से होता है तथा 42 110. बिना मिथ्यात्व के संसार परिभ्रमण यह
प्रकार से भोगा जाता है। जीव नहीं कर सकता है
125. यथा 9 प्रकार - 1. अन्न 2. पाण 3. लयन
4 शयन (पाट-पाटले) 5. वस्त्र 6. शुभ मन 111. मिथ्यात्व एक प्रकार की 'महाभ्रमणा' है।
7. शुभवचन 8. शुभकाया (सेवादि) 9. 112. मिथ्यात्व एक 'महारोग' है।
नमस्कार पुण्य। 113. मिथ्यात्व एवं झूठ इन दोनों में मजबूत | 126. संयमी आत्मा को ये 9 पुण्य दान करने से मेल होता है।
महान लाभ मिलता है। जीव अपना संसार 114. मिथ्यात्व खोटे दिशा सूचक-यन्त्र के समान परित करता है।
127. अनुकंपा दान देने की तीर्थंकर भगवान की 115. अज्ञान व मोह में मिथ्यात्व की अभिवृद्धि मनाई नहीं है। जबरदस्त रूप से होती है।
128. हाथी ने खरगोश की रक्षा अनुकंपा भाव से 116. मिथ्यात्वी स्वयं तो संसार में परिभ्रमण करता करके सम्यक्त्व प्राप्त किया तथा बाद में
ही है, औरों को भी मिथ्यात्वी बना सकता है। मनुष्य बनकर संयम प्राप्त किया। 117. मिथ्यात्व के प्रमुख रुप से 5 भेद, 10 भेद | 129. अनुकंपा भाव सम्यक दृष्टि का लक्षण है। व 25 भेद बताए गए है।
130. शरीर धारी (औदारिक) का जीवन अन्न 118. कर्मों की भारी सजा के कारण ही नरक से पानी के बिना लम्बे काल तक नहीं रह भी भारी भयानक "मिथ्यात्वी” बनता है।
सकता। अवदशा मिथ्यात्व ही है।
131. यदि एकांत रुप से संयमी को आहार पानी 119. मिथ्यात्वी का क्षेत्र सम्पूर्ण 14 रज्जू लोक बहराने में लाभ-धर्म है, तो फिर (उपकारी) में फैला है।
माता पिता, बड़े बुजुर्गो एवं अनुकंपा भाव 120. मिथ्यात्व स्वयं है तो अजीव, परन्तु प्रभाव
से मानव या पशु योनि के उन जीवों जिनका रहता जीव में है।
दूध हम पीते है क्या? उपकारियों आदि की
सेवा आदि से साता पहुँचाने पर पाप बंधेगा? 121. पुद्गलों में सबसे निकृष्ट पुद्गल मिथ्यात्व
(चिन्तनीय विषय है)......। (मोहनीय) कर्म के होते है।
132. जीवन चाहे संयमी का हो या श्रावक का या 122. सत्संग (जिनवाणी) का प्रथम प्रहार
अव्रती का, क्या सेवा से पुण्य नहीं बंधता मिथ्यात्व को तोड़ने के लिए होता है तथा
होगा? सम्यक्त्त्वी प्रकाश प्रदान करना होता है।
Page #254
--------------------------------------------------------------------------
________________
133. संयमी साधको के पास सीमित मात्रा में ही | 146. ऊँच गोत्र (पुण्य रुप) का बंध आठ प्रकार
अन्न पाणी आदि होता है सिर्फ जीवन के से होता है। निवारणार्थ साधन होने से वे साधक संवर,
147. पुण्योदय व पुरुषार्थ दोनों का अर्थ अलगनिर्जरा प्रधान जीवन जीते है, पुण्य के
अलग होते है। बजाय उनका लक्ष्य निर्जरा रहता है।
148. पुण्य फल (शुभ) जब जीव के उदय में 134. भोगों का त्याग ही साधना है, पाप भाव के
आता है, उसे 'पुण्योदय' कहते है। साथ पुण्य-भोग से पाप का ही बंध होता है।
149. पुण्योदय के समय 'आत्मा' अगर पाप 135. जैसे पाँच इन्द्रिय परिपूर्णता का होना, संज्ञी
भाव में है, तो भविष्य अंधकारमय होगा। जीवन साथ में होना, ये पुण्योदय ही है
150. गजसुकुमाल मुनि के सिर पर अंगारे जल परन्तु भोगों में इन्द्रियों एवम् मन को लगा लिया तो नरक-निगोद तैयार है।
रहे थे, ये “पापोदय" था परन्तु “पापोदय"
में भी धर्म भाव (कषाय त्याग भाव) में थे, 136. पुण्यवान जीव, यदि साधु-संतो के सत्संग
“पाप भाव” में नहीं थे। में आना शुरु हो जाता है, तो ज्ञान से
151. पुण्योदय हो या अघाती कर्मो के अशुभोदय अपने जीवन को उच्चतम शिखर तक पहुँचा
हो परन्तु पाप भाव में नहीं आना समझना सकता है।
कि आत्मा की जीत हो रही है, तथा कर्मो 137. बिना पुण्योदय से जैन धर्म के मोक्ष मार्ग
की हार हो रही है। की सम्पूर्ण आराधना नहीं हो सकती।
152. इन्द्रिय परिपूर्ण मिलना, शरीर निरोग रहना 138. पुण्य में धर्म चारित्र व्रत आना, मानो सोने
आदि ये सब पुण्योदय है परन्तु शरीर और में सुगंध आने के समान है।
इन्द्रियों से मात्र काम भोग टी.वी मनोरंजन 139. पुण्य के भोग के बजाय पुण्य का सदुपयोग पर्यटन इन्द्रिय सुखों के | भोग में डूब करना चाहिये।
जाना ये पाप भाव है; ये पाप भाव आत्मा 140. पुण्योदय का ही दूसरा नाम 'भाग्योदय' है।
को डुबोने वाले है, पर तारने वाले नहीं। 141. पुण्योदय का उत्कृष्ट रुप जिन नाम' का |
153. पुण्य का नाश हास्य कौतहल' से जल्दी उदय है।
होता है। 142. शुभ कार्यों से पुण्य का बंध होता है।
154. धर्म भाव (पाप भावों का त्याग) होने पर
पुराने पाप का क्षय होता है तथा नये पुण्य 143. साता वेदनीय (पुण्य रुप) 10 प्रकार से
का बंध होता है। बांधा जाता है।
155. संगम ग्वाले ने मुनि को खीर बहोराई, अखूट 144. देवायु व मनुष्यायु चार-चार प्रकार से बांधा
पुण्य तो बंध हुआ तथा संयमी को साता जाता है।
पहुँचाने से जल्दी से जल्दी संयम भावना 145. नाम कर्म की पुण्य रुप 38 प्रकृतियों का । आई।
चार प्रकार से बंध होता है।
Page #255
--------------------------------------------------------------------------
________________
156. मेरु-प्रभ हाथी ने खरगोश के प्राणों की रक्षा | 169. पाप अर्थात चारित्र प्रतिबंधक मोहनीय
में अनुकंपा भावों से अखूट पुण्य का बंध कर्म । बांधा तथा अगले ही भव में (मेघ
170. ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय व अन्तराय के कुमार)संयमी बना।
उदय में (ही) पाप कर्म का सेवन होता है। 157. जीवों को आवश्यकता है धर्म की (श्रद्धा व
171. पाप अर्थात संसारावर्णव परिभ्रमण है। चारित्र)। उस धर्म को करने के लिए संज्ञी (मन) सहित इन्द्रियें मिलना बहुत जरुरी
172. अष्टादशविधं पापम् । पाप के 18 प्रकार है, उसके बिना (पुण्योदय) धर्म की आराधना होते है। ही नहीं की जा सकती।
173. “प्राणातिपात मृषावादादतो ऽऽ दान मैथुन 158. पुण्य में अटके नहीं (भटके नहीं), बाद में परिग्रह क्रोध मान माया लोभ प्रेम द्वेष ' भी छोड़ना है, तो धर्म करने के लिए पुण्य कलहाभ्याख्यान पैशुन्य परपरिवाद रत्यारति का सदुपयोग करें।
माया मृषा मिथ्यादर्शनशल्याऽऽऽख्यमिति। 159. पाप अर्थात ‘पांसयति मलिन यति जीव 174. पाप आयतन के 9 भेद बताए है। प्रथम मिति' पापम्।
एक से नव तक आयतन कहा है। 160. पाप अर्थात पातयति, (गिराता है) नरकादि 175. पापों को छोड़ने को प्रवर्ध्या (संयम) याहे को देवे वो पापः।
प्रवर्जन पापेभ्यः प्रकर्षण। 161. पाप अर्थात आनंद रसं शोषयति इति पापः।। 176. प्राणातिपात - प्राणी प्राण वियोजने इति 162: पाप अर्थात असदनुष्ठाना पादिते कर्मणि
प्राणातिपात जीव वधे। जीव के प्राणों को इति पापः।
प्राणी से अलग करने को प्राणातिपात कहते
है। हिंसा से निवृत होने को प्राणातिपात 163. पाप अर्थात सावद्य योग। सावर्ण्य अर्थात्
विरत कहते है, प्राणातिपात को हिंसा आदि छोड़ने योग्य होते है।
अनेक नामों से पुकारा जाता है। 164. पाप अर्थात हिंसा मृषा आदि कर्म (अशुभे
177. दशा विद्याः प्राणा विद्यते येषा ते प्राणिनः कर्माणि)
(प्राणी) 165. पाप के छः प्रकार यथा 1. नाम 2. स्थापना
178. जैसे मेरे प्राण मुझे प्रिय है, वैसे ही सभी 3. द्रव्य 4. क्षेत्र 5. काल 6. भाव ।
प्राणियों को अपने प्राण प्रिय है, ऐसे कर्मो 166. आगम निषिद्ध कर्म को पाप कहते है।
से तो जीव को बचना ही चाहिए, जिनसे 167. हिंसा आदि पांच कर्म को पाप कहा है। प्राणों की हिंसा होती है। 168. पावं कऊण सयं, अप्पाणं सुमेव वव हरई | 179. सब्वे जीवा सुहसाया दुक्ख पडिकुला। सभी
दुगुणं करेई पावं, बीयं बालस्स मंदतं ।। संसारी जीवों को अपने प्राणों से सुखसाता (सूयगडांग सूत्र से)
लगती है तथा दुःख प्रतिकूल लगता है।
Page #256
--------------------------------------------------------------------------
________________
180. भगवतीसूत्र में जयन्ति बाई श्राविका के
प्रश्नों के उत्तर में प्रभु महावीर ने कहा था कि “18 पापों के सेवन करने से जीव भारी बनता है; कर्मो की स्थिति को बढ़ाता है, संसार सागर में डूबता है, तथा चार
गति रुप संसार में परिभ्रमण करता है। 181. हिंसा = हिंसक हिंसा, प्राणा वियोजी करणं
हिंसा। 182. हिंसा नामक पाप के स्वरुप समझाते हुए
शास्त्र कहते है कि हिंसा हिंसा ही नहीं अपितु पाप है, चंड़ है, रुद्र है क्षुद्र है, साहसिक है, अनार्य है, पाप से घृणा
नहीं है, नृशंस है। 183. महा भय है, प्रति भय है, अति भय है।
(हिंसा) 184. भय उत्पन्न करने वाली है, त्रासक है,
अन्याय है। (हिंसा) 185. उद्वेगजनक है, निरपेक्ष है, निद्धर्म है,
निनिष्पाप है। (हिंसा) 186. निष्करुणा है, नरकगमन कारण है, मोह
__ महाभय प्रवर्तक है। (हिंसा) 187. हिंसा को मरण वैमनस्य भी कहा है। 188. “मरण समं नत्थि भयमिति" - मरण से
बढ़कर कोई भय नही है। 189. हिंसा के 30 पर्याय वाची नाम आगम में
दिए गये है: 1. प्राण वध। 2. उन्मूलन (शरीर से आत्मा अलग करना)। 3. अविश्वास। 4. हिंस्य-वि हिंसा। (हिंसा में प्राणों का हनन। 5. अकृत्य। 6. घात। 7. मार। 8. वध। 9. उपद्रव। 10. त्रिपातना (देह, आयु व इन्द्रिय का
पतन करना)। 11. आरम्भ समारम्भ। 12.आयुनाशक। 13. मृत्यु। 14. असंयम। 15. कटक मर्दन। 16. वोरमण (जीव रहित करना) 17. परभव संक्रमकारक। 18. दर्गति प्रपात। 19. पाप कोप। 20. पाप लोभ। 21. छविच्छेद। 22. जीवियंत करण। 23. भयंकर। 24. ऋणकर 25. वज्रवर्त्य। 26. परितापन आश्रव। 27. विनाश। 28. निर्यापना (प्राणो की समाप्ति का कारण) 29. लुंपना
(लोप) 30. गुणानां विराधना। 190. मृषावाद - मिथ्यावदनंवादः! अलीक भाषणे।
अनृतामिधाने, अषद्भतार्थ भाषणे गर्दा आदि
अर्थ दिये गये है। 191. असत्य के 30 नाम दिए गये है:- .
1. अलीक (झूठ) 2. शठ (धूर्त) 3. अनार्य 4. मायामृषा 5. असत्य (असत)6. कूटकपट (अवस्तुक) 7. निरर्थक 8. विद्वेष (गर्हणीय) 9. अनृजुक 10. कल्कना 11. वञ्चना 12. मिथ्या पश्चात कर्म 13. साति (अविश्वास) 14. अपच्छन्न 16. आर्त 17. अभ्याख्यान 18. किल्विष 19. वलय 20. गहन 21. मन्मन 22. नूम (सच्चाई को ढकनेवाला) 23. निकृति (मायाचार से छिपाने वाला वचन) 24. अप्रत्यय (अविश्वास) 25. असमय (सिद्धान्त रहित) 26. असत्य संघता (झठी प्रतिज्ञाओं का धारक) 27. विपक्ष 28. अपधीक (निन्दित मति से उत्पन्न) 29. उपधि - अशुद्ध 30. अवलोप (वास्तविक
स्वरुप का लोपक) 192. झूठ असत्य बोलने के चार कारण - 1.
क्रोध 2. लोभ 3. भय तथा 4. हास्य। 193. नास्तिक मतवादी सभी असत्य भाषी में ही
आते है।
Page #257
--------------------------------------------------------------------------
________________
194. असत्य को महापाप और सत्य को भगवान माना है।
195. ईर्ष्या व द्वेष वश लोग झूठ बोलते है। 196. तिर्यञ्च गति में जाने का प्रधान कारण झूठ है।
197. 'थोड़ा असत्य' भी बहुत काल तक दुःख देता है।
198. भगवान महावीर ने झूठ नामक पाप का बहुत बुरा फल बताया अलीक वचन को अमान्यवचन भी कहते है।
199. अदत्तादान (चौर्य कर्म) के नाम 30 बताए हैं।
गुण निष्पन्न
1. चोरिक्क (चौर्य कर्म) 2. परहड़ (पर हरण) 3. अदत्त (स्वामी के द्वारा दिए बिना) 4. कूरिकंड़ (क्रूर कर्म) 5. परलाभ 6. असंजम 7. परधणंमिगेही 8. लोलिक्क (लौलुपता) 9 तक्कस्तण (तस्करीकाय) 10. अवहार ( अपहार) 11. हत्थलहुतण (हाथ की सफाई) 12. पावकम्मकरण 13. तेणिक्क (स्तेनिका) 14. हरण विप्पणास (हरण वि प्रणास) 15. आदियणा (परधन लेना) 16. धणाणं लुंपना (धन लुम्पना) 17. अप्पच्चअ ( अविश्वास) 18. ओवील (अप्पीड़ ) 19. अक्खेल (अपक्ष) 20. खेव (क्षेप - छिनना) 21. विक्खेव (विक्षेप) 22. कूडा (बेईमानीकूटे) 23. कुलमसी (कुलमलिन करने वाला) 24. कंरवा (कांक्षा) 25. लालप्पण पत्थणा (लालपन-प्रार्थना-निन्दित लाभ) 26. वसण (व्यसन) 27. इच्छा-मुत्छा (इच्छा-मूर्च्छा) 28. तण्हा-गेही (तृष्णागिद्धि) 29. नियडिकम्म (निकृति कर्म) 30. अपरच्छति (अपरोक्ष-नजर बचाकर काम करना) ।
233
200. अब्रह्मचर्य के गुण निष्पन्न तीस पर्यायवाची नाम बताए है।
1. अब्रह्म 2. मैथुन 3 चरंत 4. संसर्गि 5. सेवनाधिकार 6. संकल्पी (मानसिकता) बाधना पदानाम (सर्व साधारण को पीडित करता है) 8. दर्प 9. मूढ़ता- अज्ञानता - अविवेक 10. मनः संक्षोभ 11. अनिग्रह 12. विग्रह 13. विद्यात 14 विभंग 15 विभ्रम 16. अधर्म 17. अशीलता 18. रति 19. ग्राम धर्म तप्ति 20. राग चिन्ता 21. कामभोगमार 22. वैर 23. रहस्यम् 24. गुह्य 25. बहुमान 26. ब्रह्मचर्य विघ्न 27. व्याप्ति (स्वाभाविक गुणों का नाश ) 28. विराधना 29. प्रसंग (आसक्ति का कारण ) 30. काम गुण (वासना का कार्य)
201. परिग्रह नामक अधर्म के गुण निष्पन्न नाम तीस बताए है।
1. परिग्रह (ममत्व भाव) 2. संचय (अधिक मात्रा में संचय) 3. चय (एकत्र करना) 4. उपचय (बढ़ाते जाना) 5. निधान (भूमि आदि में गाड़ना) 6. सम्भार (पेटियों में भरना आदि) 7. संकर (मिलावट) 8. आदर (पर-पदार्थो में आदर बुद्धि) 9. पिण्ड (एकत्रित करना) 10. द्रव्यसार (धन ही सार है) 11. महेच्छा (असीम इच्छा) 12. प्रतिबन्ध (पदार्थ से बंध जाना) 13. लोभात्मा (लोभ रुप मनोवृति) 14. महट्टिका (महती आकांक्षा) 15. उपकरण 16. संरक्षण 17. भार 18. संपातोत्पादक (संकल्प विकल्प उत्पादक) 19. कलिकरण्ड (कलह का पिटारा) 20. प्रविस्तर (विस्तार) 21. अनर्थ 22. संस्तव (अर्थ परिचय ) 23 अगुप्ति या अकीर्ति 24. आयास (खेदया पर्याप्त)
Page #258
--------------------------------------------------------------------------
________________
25. अवियोग (बिछुड़ने नहीं देना) 26. अमुक्ति (भाव परिग्रह) 27. तृष्णा (अभिलाषा) 28. अनर्थक (आत्मिक कल्याण में बाधा) 29. आसक्ति 30. असन्तोष। 202. अदत्तादान - बिना दान दी हुई वस्तु लेना अदत्तादान है।
203. रावण द्वारा सीता को ले जाना, ये चोरी था।
204. पद्मोत्तर राजा द्वारा द्रोपदी को उठाकर मंगवाना चोरी था।
205. बिना अधिकार की वस्तु या व्यक्ति को बिना मालिक को पूछे अपने अधिकार में कर लेना, ये निंदनीय व तुच्छ कर्म है।
206. चौर्यकर्म की सजा - हाथों को काटने रुप दी जाती है तथा आगामी जन्मों में नरक आदि दुर्गति में जाता है।
207. चौर्य कर्म रौद्र ध्यान में आता है। 208. चौर्य कर्म को छोड़ने पर ही आत्मा को शांति मिलेगी।
209. मैथुन या अब्रह्म ये “चौथा पाप है", ये संसार का मूल है।
210. स्त्री-पुरुष की वेदोदय वृति (काम भोग) को मैथुन कहते है।
211. आत्मा या ब्रह्म से दूर करवाये, उसे अब्रह्म कहते है।
212. चौर्य व अब्रह्मचर्य के तीस-तीस नाम पर्यायवाची बताए है।
213. परिग्रह के दो रूप बाह्य परिग्रह 9 प्रकार तथा आभ्यन्तर परिग्रह 14 प्रकार का होता है।
234
214. मन वचन व काया की मूर्च्छा रुप एकाग्रता के परिणामों को परिग्रह कहते है।
परि चारो तरफ से, ग्रह-ग्रहण करना।
215. बड़े-बड़े युद्ध परिग्रह के लिए होते है। 216. परिग्रह के 30 पर्याय वाची नाम बताए है। 217. क्रोध = तिरस्कार युक्त कठोर परिणामों को क्रोध कहते है।
218. मान = अभिमान, स्व प्रशंसा रुप परिणामों को मान कहते है।
219. माया = वक्र-कपटरुप वृति के परिणामों को माया कहते है।
220. लोभ = चाहना रुप लालच वृति के परिणामों को लोभ कहते है।
221. राग = माया-लोभ रुप मिश्रित भावों को राग कहते है।
222. द्वेष = क्रोध - मान मिश्रित कठोर परिणामों को द्वेष कहते है।
223. कलह = झगड़ा या महाभारत जिसमें दोनों पक्ष मरने मारने पर उतारु हो जाते है। (लड़ाई)
224. पैशून्य = दूसरे की बुराईयों को परोसना। 225. परपरिवाद अन्य के दोषों की मिलकर ( रस लेकर) बातें करना ।
226. रति अरति मन पसंद राग को रति, अपसंद पर द्वेष जन्य परिणामों को अरति कहते है।
=
=
227. माया - मृषावाद कपट व झूठ दोनों के सम्मिलित भावों को माया-मृषावाद कहते है।
228. मिथ्या दर्शनशल्य = झूठी श्रद्धा रुपी शल्य को मिथ्या दर्शन शल्य (कांटा) कहते है।
Page #259
--------------------------------------------------------------------------
________________
229. अठारहवां पाप मिथ्यादर्शनशल्य मां- बाप के समान है। तथा शेष 17 पाप इनकी संतान रुप है।
230. इन 18 पापों के त्याग बिना आत्मा सुखी नहीं बन सकती, सामायिक व चारित्र धर्म में इन्हीं 18 पापों का त्याग किया जाता है, मनुष्य जीवन की मुख्य वैरायटी है, 18 पापों का त्याग। हमें इन 18 पापों से बचना ही चाहिए, यही धर्म का सार है। 231, कर्मों के आने के मार्गो को आश्रव कहते है। 232. कर्मो का उत्पादन कर्म उपार्जन, परिग्रह सहित तथा विषय कषायों को आश्रव कहते है।
233. कर्म बंध! हेतु इति भाव आश्रव । 234. आत्मा रूपी तालाब में कर्म रुपी पानी आने के मार्गो को आश्रव कहते है।
235. प्रमुख रुप से 5 आश्रव यथा 1. मिथ्यात्व 2. अव्रत 3. प्रमाद 4. कषाय 5. योग 236. आश्रव के 5,20,25 व 57 भेद भी माने गये है।
237. हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील व परिग्रह ये दूसरे प्रकार से 5 भेद होते है।
238. पाँच इन्द्रियों व तीन योगों को वश में नहीं रखना ये 8 भेद हुए।
239. भण्डोपकरण अयत्तना से लेवे रखें, ये दो
भेद हुए कुल 5+5+8+2=20 सुई कुशाग्रमात्र अयतना से लेवे-रखे। कुल आश्रव के 20 भेद हुए।
240. पुण्य, पाप ये दोनों भेद तत्वार्थ सूत्र में आश्रव में ही लिए गये है।
235
241 पुण्य व पाप दोनों से कर्मों का आना होता
ही है। अतएव सात तत्व मानने की परम्परा वा पुण्य व पाप दोनों का आश्रव तत्व में समावेश कर लेते हैं।
242. उत्तराध्ययन सूत्र में 9 (नवतत्व) तत्वों के नाम तथा संवर निर्जरा तत्व की विस्तार से चर्चा की गई है।
243. मन, वचन, काया (सयोगी) की प्रवृति तक
श्रव तत्व रहता है परन्तु मुख्य रुपसे 1 से 10 तक ही गुणस्थानों तक आश्रव को गिना जाता है।
244. वीतरागी में (11, 12 व 13वें गुणस्थानों में) कषाय न होने से आश्रव साता वेदनीय का आना व बंध होना मात्र दो समय का माना गया है।
245. आश्रवों को रोकने का काम संवर करता है, जो आश्रव के 20 भेदों को विपरीत रुप करने से वे ही 20 भेद संवर बन जाते है। 246. कषायों की उदयावस्था में आश्रव से आए
कर्मो की स्थिति व रस तेज होता है, कषायों का मन्दीकरण ही धर्म का प्रारम्भी करण है।
247. मनुष्य अवस्था में आश्रवों का त्याग या
पाप का त्याग रूप संवर तत्व का रसायन सेवन होता है और किसी भी गति में नहीं हो सकता है।
248. सभी जीवों को अपनी आत्मा के समान समझे। अजीवों में उलझो मत. जीवादि पदार्थों में ज्ञाता दृष्टाभाव से वीतरागी देखते है ना? वैसा प्रयोग करें।
249. संवर = आश्रवों के निरोध को संवर कहते हैं।
Page #260
--------------------------------------------------------------------------
________________
250. सम् = समभाव रुप। वर = श्रेष्ठ (संवर)
3. प्रमाद = 10000 श्रेष्ठ भाव से समभाव की प्राप्ति होती है।
3. अप्रमाद = 10000 251. जो जो आश्रव है (20 भेद) उनके विपरीत
4. कषाय = 100 भावों को संवर कहते है।
4. अकषाय = 100
5. योग 252. ऐसे सभी अनुष्ठान जो कर्मो को आने को
5. अयोग = 1 रोकते हैं, वे सभी संवर कहलाते हैं।
कुलदोष = 101010101 253. संवर के 5,20, व 57 भेद भी होते है।
कुलगुण = 10,10,10,101 254. सम्यक्त्व, व्रत, अप्रमाद, अकषाय व (अयोग) | 261. संवर सहित आत्मा की निर्जरा भी उत्तम
(शुभ योग) ये पाँच भेद प्रथम 5 प्रकार हुए। कोटी की होती है। 255. अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य व अपरिग्रह | 262. बिना संवर (पाप त्याग) का तप में उत्कृष्ट
ये पाँच इन्द्रियों के व 3 योग, ये आठों को निर्जरा नहीं हो सकती है। वश करे तो संवर। कुल 5+5+8=18 भेद 263. अंशतः कर्म क्षय को निर्जरा कहते है। संवर के हुए।
264. सकाम व अकाम दो प्रकार की निर्जरा होती 256. भण्डोपकरण यतना से लेवें व रखें। सुई कुशाग्र यतना से लेवें व रखें। 18+2 = 20
265. देवगति में जाने के चार कारणों में एक भेद हुए।
कारण है अकाम निर्जरा। 257. जैन धर्म की शुरुआत सम्यक्त्व संवर से
266. कर्म उदय का अगला समय निर्जरा कहलाता ही होती है। 258. सम्यक्त्व = सुदेव, सुगुरु, व सुधर्म पर
267. निर्जरा यानि झरना-खिरना, आत्मा में से श्रद्धा रखने से ही होती है।
कर्मों का अलग होना। 259. तमेव सच्चं निसंकं जं जिणेहि पवेइयं
268. आत्मा को कर्मो का फल (रस) देने के बाद इसको ब्रह्म वाक्य मानना, जहाँ हमारी बुद्धि - अलग हो जाना निर्जरा है। काम न करे - वहां इस सूत्र को याद रखना,
269. निर्जरा का दूसरा नाम शास्त्रों में तपोमार्ग इसका अर्थ है :- जिनेश्वरों ने जो प्ररुपणा
बताया है। करी वही सत्य है, निशंक है।
270. नये कर्मो के बंध को रोके वह है संवर तथा 260. असत् कल्पना से एक तरीका फार्मूला
पुराने आत्मा में पड़े हुए कर्मों को क्षय करे समझे :
वो है निर्जरा। 1. मिथ्यात्व = 100000000
271. अच्छी आत्मा, भली आत्मा बनने के साधनों 1. सम्यक्त्तव = 100000000
में प्रधान तत्व संवर सहित निर्जरा। 2. अव्रत = 1000000 2. व्रत = 1000000
| 272. अकाम निर्जरा मानो भारी बोरी ढोने वाले
ह
Page #261
--------------------------------------------------------------------------
________________
मजदूर (हमाल) की तरह काया से पुरुषार्थ तो बहुत करता है परन्तु मजदूरी रुप निर्जरा (नफा) बहुत थोड़ा होता है।
273. सकाम निर्जरा में भावों की प्रधानता के साथ साथ अल्प समय में भी प्रचण्ड पुरुषार्थ की शक्ति से कर्मों की निर्जरा (सकाम) कर डालता है, जैसे भरत चक्रवर्ती।
-
274. पापों को त्यागे बिना (जैसे हाथी के पैरों में सांकल होने से गति में तेजी नहीं हो सकती) निर्जरा में तेजी नहीं आ सकती है।
275. सकाम निर्जरा की भूमिका संवर में ही तैयार हो जाती है।
276. पहले संवर का सेवन कीजिए। भविष्य में आपके उच्चतर सकाम निर्जरा होगी ही । 277. संवर में निर्जरा की नियमा होती ही है। 278. बाह्य तप निर्जरा के छः भेद होते है तथा आभ्यन्तर तप के भी छह भेद होते है। 279. बाह्य-तप में शरीर आधारित (शक्ति) तथा आभ्यन्तर तप (निर्जरा) में भावों की भरती (वर्द्धमान) होती है।
280. अकाम निर्जरा दुःख भोगते हुए वर्तमान में भी दुःखी तथा निर्जरा भी अकाम होती है।
=
281. सकाम निर्जरा हलुकर्मी तो आभ्यन्तर तप से ही मोहनीय कर्म की निर्जरा कर डालता है, जबकि गजसुकुमाल मुनि जैसे जीव उत्कृष्ट • मारणान्तिक परिषह व महावेदना होते हुए भी बाह्य व आभ्यन्तर दोनों निर्जरा की उच्चतम श्रेणियों में महा निर्जरा कर देते है, ये भी सकाम निर्जरा का उदाहरण है।
237
282. वही ज्ञान सम्यक् ज्ञान होता है, जिसमें सम्यक दर्शन होवे, बिना समकित के सारा ज्ञान अज्ञान ही होता है।
283. नव तत्वों पर यथार्थ श्रद्धा करना जैसे "पाप छोड़ने लायक है” ऐसी अंतरंग श्रद्धा हो, वैसे ही नवतत्वों के यथा यथा गुण दोष को मानना। श्रद्धा करना।
284. निर्जरा का दूसरा नाम तप मार्ग गति भी है।
285. तापयति कर्म दहतीति तप: कर्मों का दहन हो, उसे तप कहते है।
286. निर्जरणं निर्जरा कर्म पुद्गल शाटने कर्मणा अकर्मता-भवते। देशतः कर्म क्षयो निर्जराः । सभी कर्मो का क्षय मोक्ष है।
287. निर्जरा कितनी कितनी होती है ? उत्तरोत्तर उसकी विधि:
अविरति सम्यक्तवी की निर्जरा से देश विरति श्रावक की निर्जरा असंख्यात गुणी होती है।
288. श्रावक से साधु की असंख्यात गुणी निर्जरा होती है।
289. साधु से भी अनन्तानुबंधी की विसंयोजना ( सहित) वाले जीवों की निर्जरा असंख्यात अधिक होती है।
290. उससे (अ.वि.स.) भी दर्शन सप्तक क्षय करने वालों की निर्जरा असंख्यात गुणी होती है।
291. उससे (द.स. क्षयी) भी मोह का उपशम करने वालों की असंख्यात गुणी निर्जरा होती है।
Page #262
--------------------------------------------------------------------------
________________
292. उससे भी मोह का उपशमी गुण स्थानी | 305. बाह्य तप अन्तरंग तप में वृद्धि करता है,
जीवों की निर्जरा असंख्यात गुणी अधिक आभ्यन्तर तप के बिना अकेला बाह्य-तप होती है।
पूर्ण कर्म निर्जरा करने में असमर्थ है। 293. उससे भी क्षीण मोहनीय 12वाँ गुण स्थानी 306. अनशन = रागादि त्याग सहित चारों आहार जीवों की निर्जरा असंख्यात गुणी होती का त्याग अनशन कहलाता है।
307. ऊनोदरी = भूख से कम खाना तथा कषायों 294. उससे भी सयोगी केवली जीवों की निर्जरा को घटाना ऊनोदरी तप है। असंख्यात गुणी होती है।
308. वृति संक्षेप = इच्छाओं को घटाना। भिक्षाचारी 295. उससे भी अयोगी केवली जीवों की निर्जरा से जीना भिक्षाचार्य है। असंख्यात गुणी होती है।
309. रसपरित्याग = रस (स्वाद) विजय हो तथा 296. 14वें गुण स्थान के अन्त में सम्पूर्ण कर्म संतोष वृति बढ़ाती हो। क्षय होते ही मोक्ष होता है।
310. काया क्लेश = कठोर आसनादि आतापना 300. तप से निर्जरा होती है, पूर्व कर्मो का क्षय, सेवन। आत्म शुद्धि योग, निशेष, अक्रियता तथा
311. प्रति संलीनता = चित्त की व्याकुलता को सिद्धि-मुक्ति होती है।
दूर करता है, विविक्त शैय्या सेवन तथा 301. छह बाह्य तपों से शरीर शक्ति, स्वाद इन्द्रियों को वश करना। लोलुप कष्ट सहिष्णुता की लालसा आदि
312. प्रायश्चित : आत्मा का शुद्धि करण होता है। छूट जाते है।
भूलों की स्वीकृति तथा तपश्चरण करने 302. बाह्य तप में बाह्य द्रव्यों की अपेक्षा रहती है। रुप। सर्व जन मानस में बाहर से पता लग जाता
313. विनय : अहंकार दूर होता है तथा लोकोपचार है, इसका प्रभाव सीधा शरीर पर पड़ता
विनय सहित आत्मा नम्र बन जाती है। .
314. वैय्या वच्च : सम्यगदर्शन शुद्धि, प्रभावना 303. बाह्य तप वह है - जिससे जीव पाप की
जिन नाम की प्राप्ति, समाधि बढ़ती है। तरफ प्रवृत नहीं होता है, जो आभ्यन्तर
315. स्वाध्याय : ज्ञानावरणीय कर्म की निर्जरा तप की तरफ रुचि बढ़ावे तथा स्वाध्याय
तथा समझदार बन जाता है। आदि में बाधा न डाले।
316. ध्यान : धर्म ध्यान, शुक्ल ध्यान में जीना 304. आभ्यन्तर तप के भी 6 भेद होते है,
तथा मन की एकाग्रता बढ़ती है। आभ्यन्तर तप में बाह्य द्रव्यों की अपेक्षा न रहे, इस तप में अन्तरंग परिणामों की | 317. व्युत्सर्ग : ममत्व मात्र का त्याग। अकिंचन मुख्यता रहती है। स्व सम्बन्ध मन का नियमन
भाव । तथा जो मुक्ति का अंतरंग कारण हो, वे | 318. योग और कषाय से कर्मों का बंध होता आभ्यन्तर तप कहलाते है।
Page #263
--------------------------------------------------------------------------
________________
सहा
319. कर्म और आत्मा (दुध पानी की तरह) एक | 333. एक समय में बंध होने वाले कर्म की मात्रा मेक होने को बंध तत्व कहते है।
अनंतानंत परमाणुओं के बने स्कंध रुप होती 320. पाप, पुण्य और आश्रव, ये सभी तत्व
है। धर्मात्मा बनने का अभिप्राय है, कषायों निश्चय दृष्टि से बंध में ही आते है।
का मंदीकरण, विफलीकरण तथा वीतरागता
को प्राप्त करना, ये ही जैन साधना का 321. उदय भी उसी कर्म का होता है, जिसका
सार है। पहले बंध हुआ है।
334. साधक का प्रधान कार्य ये है कि वह बंध322. जीवात्मा उदय भावों में नये मोहनीय कर्म
सिद्धान्तों को गहराई से समझे, जागृत का बंध कर लेता है, यही जीव की सबसे
आत्मा के कर्मबंध मंद होते हैं, या कर्मबन्ध बड़ी भूल है।
नहीं होते हैं। 323. सूक्ष्म कार्मण वर्गणा (समुह) का आत्मा से
335. ज्ञानावरणीय कर्म 6 प्रकार से बंधता है जुड़ना ही बंध' है।
1. ज्ञान का विरोध 2. ज्ञानी का नाम छिपाना 324. बांधो या मत बांधो, तुम हो स्वाधीन।
3. अन्तराय 4. द्वेष 5. आसातना 6. कर्म बांधकर (बंध) आत्मा, बनती कर्माधीन।।
वितण्डावाद से बंधता है। 325. जीवस्य कर्म पुद्गल संक्लेष जीवको कर्म
336. ज्ञानावरणीय के समान दर्शना वरणीय कर्म पुदगल से संक्लेषः प्राप्त होता है, सकषाय भी 6 प्रकार से बंधता है। अवस्था में आश्रव निमित्त से कार्मण वर्गणा
337. वेदनीय कर्म 22 (10+12) से बंधता है। का आत्मा प्रदेशों के साथ सबन्ध होता है, जुड़ता है, उसे बंध कहते है।
338. “सच्चा ज्ञान" नव तत्वों का ज्ञान ही है। 326. बंध के 4 प्रकार = 1. प्रकृति, 2. स्थिति,
339. मोहनीय कर्म 6 प्रकार से बंधता है : 1. 3. अनुभाग और 4. प्रदेश बंध।
तीव्र क्रोध 2. तीव्र मान 3. तीव्र माया 4.
तीव्र लोभ 5. तीव्र दर्शन मोह 6. तीव्र चारित्र 327. प्रकृति = 8 कर्मो के भिन्न भिन्न स्वभाव |
मोहा 328. स्थिति = 8 कर्मो की भिन्न - भिन्न काल
340. आयुष्य कर्म 16 प्रकार से बंधता है। मर्यादा।
341. शुभ नाम कमन, वचन, काया के सरलता 329. अनुभाग = कर्मो के भिन्न - भिन्न रस ।।
व वितण्डावाद नहीं करने से बंधता है, 330. प्रदेश = कर्मो के तादाद (मात्रा) को प्रदेश
अशुभ नाम कर्म के लिए ये 4 उल्टे बोल कहते है।
कहना। 331. प्रकृति और प्रदेश - ये दोनों योग से होते |
342. नीच गोत्र का बंध 8 प्रकार से बंधता है
1. जाति मद करने से, 2. कुल मद करने - 332. स्थिति और अनुभाग - ये दोनों कषाय से
से, 3. बल मद करने से, 4. रुप मद होते है।
करने से, 5. तप मद करने से, 6. श्रुत
Page #264
--------------------------------------------------------------------------
________________
मद करने से, 7. लाभ मद करने से, 8. ऐश्वर्य मद करने से नीचगोत्र बंध होता है, उच्चगोत्र 8 प्रकार के मद नहीं करने से बंधता है।
343. अन्तराय कर्म का 5 प्रकार से बंध होता है यथा दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य इन 5 में अन्तराय करने से बंधता है। 344. “कृत्सन कर्म क्षये” अर्थात सम्पूर्ण कर्मो क्षय मोक्ष है।
345. सकल कर्म वियोगे सर्व कर्माभाव लक्षणे निर्वाणे।
346. जीव का शुद्ध स्वरुप ही मोक्ष है। 347. मोचन कर्म पाशः वियोजनम् आत्मनो मोक्षः । 348. सम्यक, दर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्ष मार्गः । 349. “बंध वियोगो मोक्षः” जहाँ कर्मों के बंध का वियोग है।
350. सिद्ध- परमात्मा को मोक्ष तत्व में गिना जाता है।
351. मोक्षः मो = मोह। क्ष = क्षय, अर्थात जिसका मोह कर्म क्षय हो जाता है वही मोक्ष कहलाता है।
352. जन्म - मृत्यु वर्जित अवस्था मोक्ष है। 353. एकान्त सुख संगत (अव्याबाध सुख) मोक्ष है।
354. जहाँ दुःख. संभिन्न हो गया है, दुःख रहित अवस्था मोक्ष है।
355. अन्न, पाण, श्वास, इन्द्रिय आदि रहित अवस्था मोक्ष है।
356. मोक्ष अर्थात सदा सदा “स्वस्थ” अवस्था रहती हो, सदैव आरोग्य में ही रहता है।
240
357. स्वाभाविक सुख होता है, तथा भय का विवर्जन मोक्ष है।
358. उपमा का अभाव रुप अवस्था मोक्ष है। 359. अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंत सुख तथा अनंत शक्ति रुप अवस्था मोक्ष है।
360. समाधिराज, आत्म दर्शनी, अक्लेशित सदैव होते है।
361. अशरीरी, अक्षयस्थिति, अगुरुलघु तथा सदैव अदुःखी रहते है।
362. अंतिम गुण स्थान ( 14वाँ ) के अंतसमय में 4 अघाती कर्मों को क्षय करके आत्मा एक समय में उर्ध्व लोक के ऊपर के भाग में चली जाती है, उसे “मोक्ष” कहते है। . 363. लोकाग्र में सिद्ध शिला के ऊपर अनंतानंत सिद्ध परमात्मा रहते हैं।
364. मोक्ष के साधनों / कारणों को भेद माने गये है।
365. मोक्ष के 4 भेद यथा 1. सम्यक ज्ञान, सम्यक दर्शन, 3. सम्यक चारित्र, 4. सम्यक तप।
367. सिद्ध जीवों के उत्पन्न होने का विरह जघन्य एक समय उत्कृष्ट छह मास का होता है। 368. एक समय में जघन्य एक उत्कृष्ट 108 जीव मोक्ष जा सकते हैं।
369. अलोक से प्रतिहत है, लोक में रहते है, तिरछे लोक में शरीर छोड़ते है तथा लोकाग्र में सिद्ध कहलाते है।
370. पारिणामिक व क्षायिक भाव में सिद्ध रहते
है।
371. अनंतानंत सिद्ध साथ रहते है, जैसे बिजली के बल्वों का प्रकाश।
Page #265
--------------------------------------------------------------------------
________________
372. एक जीव का मोक्ष होते ही अव्यवहार राशि का एक जीव - व्यवहार राशि में आ जाता है।
373. सिद्ध परमात्मा को तीर्थंकर भगवान भी दीक्षा ग्रहण करने से पहले नमस्कार करते है, साधु की साधना ही सिद्ध पद तक पहुँचाती है, चारित्र - तप धर्म मोक्ष पहुँचाने
के अनिवार्य अंग है। ज्ञान-दर्शन चारों गति में मिलता है।
374. एक सिद्ध की अपेक्षा स्थिति सादि-अनन्त होती है अर्थात् जिसकी आदि है परन्तु अन्त नहीं।
375. सभी सिद्ध भगवन्तों की अपेक्षा स्थिति अनादि-अनन्त कहना।
376. सिद्ध भगवान के पास पृथ्वीकाय के पिण्ड को भी सिद्ध - शिला कहा जाता है। सिद्धों के पास होने से।
377. 45 लाख योजन लम्बाई व चौड़ाई बीच में जाड़ी (मोटी) 8 योजन है तथा किनारों पर मक्खी के पंख जितनी पतली है। ये सिद्धशिला आठवी पृथ्वी है।
378. सिद्ध शिला सफेद सोने (अर्जुन सोना) की है।
379. 15 प्रकार सिद्धों के (यहाँ से किस रूप में ये बताए है) 14 भेद भी बताए है।
380. स्त्री लिंग, नपुंसक लिंग व पुरुष लिंग से मोक्ष माना है, परन्तु वेद (वासना) से अवेदी ही होते है।
381. सिद्ध भगवान कर्म रहित भगवान है, वे मोह रहित हैं, पुनः संसार में अवतार नहीं लेते है।
241
382. सम्यक् दृष्टि जीवों व श्रावकों का लक्ष्य तो सिद्ध बनना है, अंतराय आदि कर्मों के उदय होने से वे पुरुषार्थ (चारित्र ग्रहण रुप) करने में मंदत्तम होते है। परन्तु वे सम्यक्त्व की भी उत्कृष्ट आराधना करके आराधक बन सकते है, वे 15 भव में मोक्ष जा सकते है, सभी अनंतानंत सिद्ध परमात्मा, अनन्त - अनन्त अव्याबाध सुख में लीन है, उनमें मात्र आत्मिक सुख होता है।
383. चतुर्विध संघ में नव तत्वों के ज्ञान से ही गरिमा और धर्म में वृद्धि होती है।
384. नव तत्व की श्रद्धा से समकित की प्राप्ति होती है।
385. समकित से देश विरति गुण प्रगट होता है। 386. देश विरति से सर्व विरति आती है। 387. सर्व विरति में निर्जरा संवर की प्रधानता होने से धर्म ध्यान शुक्ल ध्यान हो जाता है।
388. शुक्ल ध्यान एक महान तप है यथा वर्धमान परिणामों में क्षपक श्रेणी आरूढ़ हो जाता है।
389. क्षपक श्रेणी एक ऐसी भाव श्रेणी है, जिसमें
सवेदी से अवेदी होता है, सकषायी से वीतरागी, ये दोनों गुण प्रगट होते है।
390. क्षपक श्रेणी “मोहनीय कर्म” को सम्पूर्ण रुप से जलाकर क्षय कर देती है। तेरहवें गुणस्थान तक पहुँचाती है।
391. जिसके मोहनीय कर्म क्षय हो गया, वही पूर्ण शुद्ध महान स्नातक व स्व-रमणता को प्राप्त हो जाता है। (मोक्षगामी आत्मा)
Page #266
--------------------------------------------------------------------------
________________
392. मोहनीय कर्म ही “संसार की जड़ है", | 402. पुण्य भोगने के लिए नहीं, बल्कि सदुपयोग
जड़े उखाड़ने के बाद संसार रुपी वृक्ष व त्यागने के लिए होता है, ऐसा मानों। धड़ाम से गिर जाता है।
403. मृत्यु के समय भी पुण्योदय रुप शरीर, 393. स्नातक अवस्था “आत्मा” की परम शुद्ध वैभव व पारिवारिक मित्र आदि छूटते ही पर्याय है जहाँ केवल ज्ञान व केवल ज्ञान
है ना। सहित अनन्त शक्ति का प्रकटी करण हो
404. पाप का भोग! सेवन तो, मौत से भी जाता है।
भयानक है। मौत एक बार आती है परन्तु 394. जैन धर्म आत्म कल्याण का मार्ग है, परन्तु पाप तो भविष्य को अंधकार मय बनाता
पहले स्व कल्याण करने की श्रद्धा होनी है, दुःखों का जनक पाप ही है। चाहिए, यदि मात्र प्रचार प्रसार पद के
405. आश्रव में पुण्य पाप दोनों से कर्मों का आना पीछे लगे हुए लोग कल्याण की बजाय होता है। संसार की ही वृद्धि कर रहे है। ज्ञान से ज्यादा चारित्र का प्रभाव पड़ता है।
406. आश्रव को रोकता है “संवर"। जो कि आत्मा
का परम हितेषी प्रथम मित्र है। . 395. नव तत्व का ज्ञान जितना मानव भव में
407. संवर को श्रृंगार मय बनाती है - निर्जरा। सीखा जा सकता है, अन्य गतियों में नहीं।
बिना निर्जरा कर्मो का भार हल्का नहीं होता 396. श्रुत ज्ञान की आराधना नव तत्वों के ज्ञान ___ से ही होती है।
408. बंध और मोक्ष दोनों के अर्थ कहते हैं कि 397. ज्ञान परलोक में भी 'साथ' जाता है।
संसार में बांधे रखता है - वो तत्व है 398. पथ का प्रदर्शन 'ज्ञान' ही करता है।
बंध! मोक्ष का अर्थ कहता है कि संसार 399. नव तत्वों का ज्ञान प्राप्त करना और नव
से मुक्ति । परम चरम अवस्था शुद्ध जीव
भगवान और सिद्ध परमात्मा, स्वस्वरूप तत्वों पर श्रद्धा करना, दोनों विषय अलग
का सदा सदा के लिए "प्रगटी करण" अलग है।
(“नमो सिद्धाणं") ज्ञान आत्मा का विषय है। 400. जीव को अपना मानो “जीव को कल्याण"
भवभव तक साथ रहता है। केवलज्ञान होने में जोड़ना ही जीव के प्रति सच्चा लगाव के बाद आवरण कभी नहीं आता है।
409. जैन अर्थात - नव तत्वों का जानकर व 401. अजीव को मात्र जानों, इसको अपना मानना
उनपर (नव तत्वों पर) श्रद्धा करने वाला ही जीव के महत्व को घटाने समान है।
व शक्ति आधारित आचरण करने वाला।
जो उदयकर्म के अधीन कार्य कर रहा है, उसे 'दोषित' कैसे कहा जा सकता है?
उसको 'दोषित' देखना ही हमारा 'दोष' है।
Page #267
--------------------------------------------------------------------------
________________
卐 एक कदम अपनी ओर - 9॥ विषय : सामायिक भाष्य सार
हो।
सामायिक - ज्ञान दर्शन चारित्र - माया करण - तीन योग से सावद्य योगों के त्याग लाभ : समाय समाय एवं सामायिकं विनयादे होते हैं, वह सर्व सामायिक कहलाती है। अर्थातः ज्ञान, दर्शन, चारित्र, विनय आदि
13. सामायिक में साधु के समीप या पौषधशाला की आय से आत्मा में लाभ (समभाव का)
आदि निरवद्य स्थान में एक मुहूर्त काल
तक 18 पापों का त्याग करके रहते हैं। सावज्ज जोग विरइ “सामायिक"| | 14. सामायिक में वस्त्र अलंकार (मुद्रिकादि (सावद्यःपाप)
गहने) का त्याग होता है। सादगी से व समस्याय! समाय अर्थात समस्याओं की प्रतिलेखन में सरलता होनी चाहिए। समाप्ति सामायिक है।
साध के पांच महाव्रतों के धारण व "सावध 4. राग द्वेष विप्रमुक्तोः सामायिकः ।
योग त्याग” “सामायिक" ही है। पहले 5. सर्व सावध विरति रुप चारित्रम्।
सामायिक ली जाती है। 6. आर्त रौद्र ध्यान परिहारेण शत्र मित्र | 16. श्रावक की सामायिक 12 व्रतों मे से नवमाँ काञ्चनादिषु समतायाम्।
व्रत (शिक्षाव्रत) रुप होती है। प्रतिदिन
करणीय मानी गई है। सामायिक के दो भेद होते है 1. इत्वरिक . 2. यावत्कथिका
17. जो समो सव्व भूएसु, तसेसु थावरेसु य । 8. सावद्य कर्म मुक्तस्य दुर्ध्यान रहितस्य च।
तस्स सामाइयं होइ, इह केवलीभासिय ।।
(भाष्य गाथा) समभावे मूहूर्तम, तद्वत सामायिकाह्वयम्।। गाथा
18. सामायिक करने से क्या लाभ होता है? अतिशय युक्त तीर्थंकरों आदि के पास छः |
उत्तर - सावध योग से विरति होती है काया की रक्षा, विविक्त शैय्या में रहकर
(उत्तराध्ययन सूत्र 29 वाँ अध्ययन) सावद्य योग त्याग को सामायिक कहते है। सपाप-व्यापार परिहार निरवद्य योगा सेवा 10. चियं करेइ सुध्दयरं = जो चित्त को शुद्ध
याम्! सामायिक : करे वो सामायिकः
20. सावध = निन्द्य कर्म, गर्हित, कषायों से युक्त 11. देश सामायिक = जिसमें मुहूर्त प्रमाण सावद्य
तथा वज्र कर्म को सावध (पाप रुपी कहते योग का त्याग होता है, वह देश सामायिक कहलाती है।
21. श्रावक की सामायिक शिक्षा (अभ्यास) व्रत 12. सर्व सामायिक = जिसमें यावत्जीवन तीन |
में मानी गई है।
Page #268
--------------------------------------------------------------------------
________________
22. सामायिक क्या है? सामायिक 14 पूर्वा का सार है। सामायिक में ही सभी चारित्र (5 चारित्र) का समावेश हो जाता है।
23. सामायिक परम तप, परमजप, परमपद तथा परमगुण है।
परम पवित्र, निर्दोषक, आत्म कल्याणकअनुष्ठान है, सामायिक ।
24.
25. जैन दर्शन की भाषा में आचरण ! सदाचार को चारित्र या संयम कहते है।
26. महाव्रतो से छोटे (मर्यादित) होने से पाँच अणुव्रत कहलाते है।
27. पाँच अणुव्रतो के गुणों में वृद्धि कराते है, गुणव्रत कहलाते है।
वे
28. प्रतिदिन करणीयं शिक्षा व अभ्यास करने योग्य सामायिक आदि चार शिक्षाव्रत है।
29. दो घड़ी हिंसा आदि 18 पापों को त्यागकर समभाव में रहना सामायिक है।
30. मोहमाया व राग द्वेष बढ़ाने वाली प्रवृतियों को तथा अशुभ ध्यान को हटाना ही सामायिक का उद्देश्य है।
31. समस्त व्रतों में सामायिक ही मोक्ष का प्रधान अंग है।
32. अहिंसा आदि ग्यारह व्रत इसी समभाव (सामायिक) से जीवित रहते है।
33. दो घड़ी की सामायिक का अभ्यास श्रावक को, मुनि जीवन में यावज्जीवन के लिए धारण कर लिया जाता है
34. पाँचवे गुण स्थान से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक एक मात्र सामायिक व्रत की ही साधना की जाती है।
244
35. पूर्ण समभाव की प्राप्ति व सामायिक साधना की समाप्ति को मोक्ष अवस्था कहते है।
36. प्रत्येक तीर्थंकर सामायिक से ही साधना शुरु करते है।
37. सामायिक को आत्मा की समभाव परिणति मानी है। भगवती सूत्र “आयासामाइए” निश्चय नय से सम्पूर्ण समभाव की शुद्ध अवस्था ही सामायिक है।
38.
राग द्वेष में माध्यस्थ रहना सम है। मध्यस्थ भाव युक्त मोक्षाभिमुखी प्रवृत्ति का नाम सामायिक है।
39. ज्ञान दर्शन व चारित्र सम कहलाते है, उनमें अमन (सदाचार) यानि प्रवृति करने को सामायिक कहते है।
40. सभी जीवों पर मैत्री रखने को “साम” कहते है, अतः साम का लाभ जिससे हो, वह सामायिक है।
41. सम = अच्छा और अमन = आचरण! अर्थात् श्रेष्ठ अच्छा आचरण ही सामायिक है।
42. उचित समय पर करने योग्य आवश्यक कर्तव्यों
को सामायिक कहते है “समये कर्त्तव्यम् सामायिक" ये पाठ कर्तव्य की प्रेरणा देते है।
43. सामायिक का रुढ़ अर्थ है : एकान्त शांत स्थान पर दो घड़ी 18 पापों का त्याग करके सावद्य योगों का त्याग, सांसारिक झंझटो से अलग होकर अपनी अपनी योग्यता के अनुसार अध्ययन चिंतन ध्यान धर्मकथा आदि करना।
44. सामायिक का लक्षण = समता सर्व भूतेषु, संयम, शुभ भावना, आर्त रौद्र परित्याग सामायिक व्रतम्।
-
Page #269
--------------------------------------------------------------------------
________________
45. सामायिक का मुख्य लक्षण समता है, | 53. रजोहरण या पूंजनी आदि भी योग्य होवे,
ग्रन्थकार कहते है कि साधना करते करते जिससे भली भांति जीवों की रक्षा की जा अनन्त जन्म बीत गये, मुख स्त्रिका के
सके। हिमालय जितने ढेर लगा दिए, फिर भी
54. सामायिक में आभूषण श्रृंगार आदि नहीं आत्मा का कोई कल्याण नहीं हुआ, क्यों
करना चाहिए। नहीं हुआ? समता के बिना सामायिक निष्प्राण है।
55. मुँहपत्ती भी सादगी से हो, माला भी कीमती
चाँदी आदि की नहीं होनी चाहिए, आसन 46. सामायिक के उपकरणो में उपयोग की
भी बहुमूल्य नही अर्थात कुल मिलाकर प्रधानता होनी चाहिए। उपकरण अधिक
सामायिक के उपकरण सादगी से भरे ही आरंभ के, बहू मूल्य आदि न होवे, सौन्दर्य होने चाहिये। की बुद्धि न हो।
56. हमारी प्राचीन परम्परा में अनुपयुक्त अलंकार 47. उत्कृष्ट सामायिक की आराधना में साधक
गृहस्थवेषोचित पगड़ी कुरता आदि की तरह दुःख असाता परीषह तो क्या? जीवन ‘मरण जीन्स आदि वस्त्रों का तो त्याग करना ही तक' की समस्याओं को भूल जाता है,
चाहिये, ताकि संसारी दशा से साधना दशा उदाहरणार्थ गजसुकुमाल मुनि, मेतार्य की पृथकता मालूम हो और मनोविज्ञान से मुनि, धर्म रुचि अणगार आदि।
भी धर्म क्रिया में अपने आप को अनुभव 48. आचार्य हरिभद्रसूरि लिखते है कि चाहे
हो। वस्त्र भी मन को प्रेरणा के निमित्त बनते तिनका हो, चाहे सोना, चाहे शत्रु हो, चाहे मित्र पाप रहित उचित प्रवृति करना सामायिक 57. कुन्डकौलिक श्रावक के वर्णन में उन्होंने है, क्योंकि समभाव ही तो सामायिक है।
नाम मुद्रिका और उत्तरीय वस्त्र अलग पृथ्वी 49. शिक्षा नाम पुनः पुनरभ्यास! शिक्षा व्रतः।
शिला पट्ट पर रखकर भगवान महावीर के
पास स्वीकृत धर्म प्रज्ञप्ति स्वीकार की। 50. जो अपनी आत्मा को भय से मुक्त अर्थात्
58. जैन धर्म में प्रत्येक विधि विधान द्रव्य, निर्भय भाव में स्थापित करता है, वही
क्षेत्र, काल और भाव आदि लक्ष्य को लेकर सामायिक की साधना कर सकता है।
रखा गया है। 51. जिस प्रकार सामायिक में काल का सभी श्रावक श्राविका पूरा पूरा ध्यान देते हैं, तो
59. स्त्री जाति के लिए पुरुष की तरह वस्त्र
परिवर्तन का कोई संकेत नहीं मिलता है, उसी प्रकार द्रव्य व क्षेत्र का भी ध्यान देना चाहिए। वर्तमान में 'काल' पर पूरा पूरा
अत एव सादगी युक्त पहने वस्त्रों में ही ध्यान देते हैं।
बहनों में सामायिक करने की परम्परा में
कोई दोष नहीं है। 52. आसन, दुपट्टा, पूजनी आदि का प्रयोग द्रव्य शुद्धि का अंग है। ‘भाव सामायिक' पर विशेष
60. द्रव्य (क्षेत्र) शुद्धि साधारण साधकों के ध्यान देना चाहिए।
लिए अति आवश्यक है।
Page #270
--------------------------------------------------------------------------
________________
61. चित्त में अशान्ति व बाधाएं उत्पन्न न होवे, ऐसे काल में सामायिक करना चाहिये। “काल काले समायरे”
62. जैन शास्त्रों में साधु के लिए कठोर अनुशासन के अन्तर्गत यदि ग्लान- रोगी साधु की खोज (गवेसइ) नहीं करता है तो चातुर्मासी 'परिहार तप' का प्रायश्चित आता है, दण्ड का विधान
63. सोचें ? आज परिवार में रहते हुए रोगी की उपेक्षा करे, यदि सेवा धर्म छोड़ता है, तो दण्ड नहीं मिलेगा क्या?
64. सेवा धर्म महान है। सेवा धर्म गहन-गति बताया है।
65. सेवा (वैयावच्च) से तीर्थंकर नाम गोत्र का बंध होता है। सेवा में सामायिक के ही भाव छिपे रहते है।
66. यदि घर में कोई बीमार है, सेवा करनेवाला कोई नहीं है, तब भी सेवा छोड़कर सामायिक करने बैठ जाना, यह प्रथा उचित नहीं है। अतः एव काल शुद्धि के समय जरुर देखना चाहिये कि “किसी को मेरी सेवा की जरुरत तो नहीं है। "
67.
68.
भाव शुद्धि में (मुझे कैसे विचार करने चाहिय ?) मन ही मनुष्यों के बंध और मोक्ष का कारण है, इसे ज्ञान से जागृत बनाकर सोचना चाहिये कि अभी मेरे सामायिक है, मुझे कैसे विचार करने चाहिये?
"एक सामायिक का काल मान" जावनियम के स्थान पर एक मुहूर्त (48 मिनिट) या दो घड़ी प्रमाण आचार्यों ने नियत किया, जिससे कि एक रुपता बनी रहे।
246
69. प्रत्याख्यानों के वर्णन में भी टीकाकारों ने मुहूर्त प्रमाण माना है।
70. “अन्तो मुहूत कालं चित्तस्सेग्गमया हवईझाणं” यहाँ शुभ ध्यान काल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण ही माना गया है, 48 मिनिट में क्षण मात्र भी कम हो तो अन्तर्मुहुर्त ही माना है, सामायिक का काल पूर्वाचार्यों ने एक नियतकाल गृहस्थ के लिए मुहूर्त ही किया है।
71. मुहूर्त का नियम नहीं होता, तो कोई पाँच कोई दस मिनट आदि विभिन्न समय व अनियतता से एक रुपता में बाधाएं खड़ी होती है।
72.
मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी काल मर्यादा अति आवश्यक होती है, उसके बिना उपेक्षा व शैथिल्य भाव भी आ सकते है।
73. सामायिक की काल मर्यादा पर जितना ध्यान दिया जाता है। आज उसकी अपेक्षा सामायिक में भावों की शुद्धि, मर्यादा, वचन व गमनागमन की मर्यादा पर ध्यान अधिक से अधिक देने की जरुरत है। बिना भावों से द्रव्य सामायिक होती है।
74. काल शुद्धि के साथ साथ द्रव्य-क्षेत्र शुद्धियाँ भी सामायिक की बनी रहे, परन्तु भावशुद्धि पर विशेष ध्यान देना ही चाहिये।
75.
भाव शुद्धि के बिना उपरोक्त तीनो शुद्धियें कहीं हमारी निरर्थक न हो जाये। तीनों शुद्धियाँ अनंत बार कर चुका है।
76. भावों की शुद्धि में प्रधानरुप से तीन भाव माने गये हैं।
77. क्षायिक भाव = जहाँ 'चारित्र मोहनीय' का क्षय हो चुका है।
Page #271
--------------------------------------------------------------------------
________________
हो।
78. उपशम भाव जहाँ अन्तर्मुहूर्त के लिए उपशम | 90. उपरोक्त चार भावों की निरन्तर वृद्धि ही
अवस्था में हो, पुनः मोह का उदय होता भाव सामायिक है। ही है।
91. अनंतानंत जीव मात्र "भाव सामायिक से ही 79. क्षयोपशम भाव = इस भाव में लम्बेकाल मोक्ष गये है", जैसे मरुदेवी माता। बिना
तक सामायिक में रह सकता है, जिस भाव भाव से (निश्चय नय) सामायिक मानता ही में चारित्र मोहनीय का “क्षयोपशम” हो रहा नहीं है।
92. सामायिक में “सावध योग त्याग" यही 80. भरत चक्री की 'भाव' सामायिक क्षायिक' चतुर्विध संघ का प्रधान करणीय कर्म है। भावों में हुई।
93. धर्म तीर्थ की स्थापना में सावधयोग का 81. गजसुकमाल मुनि क्षयोपशम भावों की त्याग, इसी आधार पर तीर्थ व संघ संरचना
सामायिक से होते हुए क्षायिक भावमें गये। होती है। 82. उपशम श्रेणी के सामायिक वाले गिरकर के 94. सामायिक अर्थात सावद्य योगों का त्याग ही
मिथ्यात्व तक पहुँच सकते है। उपशमन करना नमस्करणीय है। और क्षय करने में अन्तर होता है।
95. भावशुद्धि हमारा लक्ष्य या साध्य है, परन्तु 83. भाव शुद्धिः अर्थात मन, वचन, और काया
द्रव्य, क्षेत्र व काल ये तीनों शुद्धि हमारी का शुद्धि करण, इन तीनों की शुद्धिकरण सामायिक के साधन हैं। .. का अर्थ इनकी एकाग्रता से है। निर्मलता
96. एकेन्द्रिय जीवों मे सावद्य योगों का त्याग से है।
नहीं होता। अत एव वंदनीय नमस्करणीय 84. योगों की एकाग्रता कषायों की मन्दता पर सावद्य योगों के त्यागी ही होते हैं। ही निर्भर है।
97. तप संयम व्यवहार मोक्ष मार्ग है और तप 85. जिस प्रकार चुल्हे पर पानी चढ़ाया और
संयम से भावित आत्मा निश्चय मोक्ष मार्ग अग्नि निरन्तर बढ़ा रहे है, तो क्या पानी शीतल होगा? नहीं। उसी प्रकार योगों में
98. तीर्थंकर तीर्थ स्थापना करते हैं परन्तु एकाग्रता व शुद्धिकरण तभी होगा जब हमारे
कहीं पर भी आगमों में यह वर्णन नहीं है कषाय शान्त हो या शांत हो रहे हों, यही
कि “तीर्थंकर प्रवचन! देशना देने के पूर्व" भाव शुद्धि का अभिप्राय है।
नमो तित्थस्स यानि तीर्थ को वंदन करते 86. क्रोध की जगह क्षमा गुण का सेवन करते रहना सामायिक है।
99. सामायिक पूर्व - उत्तर दिशा या गुरु मुख 87. लोम की जगह संतोष गुण का सेवन करना। के सामने करनी चाहिये। पूर्व व उत्तर दिशायें 88. मान की जगह विनयगुण का सेवन करना। को शुभ मानी गई हैं। .89. माया की जगह सरलता गुण का सेवन | 100. सामायिक की भाव शुद्धि में कषायों की करना।
उपशांतता अति जरुरी है, उसके बिना
Page #272
--------------------------------------------------------------------------
________________
.
"भाव सामायिक” में आनन्द नहीं आ सकता | 108. जो सामायिक की शुद्धिकरण में बाधा डालते
है, वे दोष कहलाते हैं। कुल 32 प्रकार के 101. भौतिक विज्ञान प्रकाश की गति 1,80,000
दोष माने गए है। मील प्रति सैकण्ड और मन की गति को | 109. दोषों को समझे बिना दोषों का परिहार एक सैकण्ड में 22,65,120 मील प्रति नहीं हो सकता है। सैकण्ड मानता है। चंचलता घटाना,
हव अज्ञानता आदि अनेक कारणों सामायिक का एक मुख्य उद्देश्य है।
से दोषों का जानते - अनजानते हुए सेवन 102. सावध योग अंधकार के समान है, सूर्य करता है। उदय होने पर अंधकार अपने आप चला
111. मन के दस, वचन के दस व काया के 12 जाता है वैसे ही क्षमादि गुणों के आते ही
कुल मिलाकर 32 दोष होते है, व्रत को कषाय रुपी अंधकार चले जाते है।
मलिन करें, वे दोष कहलाते हैं। 103. तीनो योगों की शुद्धि बढ़ने पर सामायिक
112. 1. अविवेक, 2. यश कीर्ति, 3. लाभ, 4. में तीन समाधि प्राप्त होती है, मन समाधि,
गर्व, 5. भय, 6. निदान, 7. संशय, 8. वचन समाधि, काया समाधि।
रोष, 9. अविनय व 10. बहुमान ये प्रमुख 104. कायशुद्धि का अभिप्राय यह नहीं है कि शरीर दस दोष मन के हैं। साफ सुथरा व सजा-सजा कर रखना चाहिये।
113. 1. कुवचन, 2. सहसाकार, 3. स्वच्छंद, काया से किसी भी जीव को पीड़ा न पहुँचाए,
4. संक्षेप, 5. कलह, 6. विकथा, 7. हास्य, काया से संयम यानि “काय" संयम होता है।
8. अशुद्ध, 9. निरपेक्ष (बिना उपयोग) और 105. सामायिक में “सावध योग" का सेवन नहीं 10. मुण मुण (स्पष्ट उच्चारण नहीं) ये
किया जाता है; परन्तु पूर्व सेवन किए सावद्य दस दोष, वचन शुद्धि - समाधि को तोड़ते योगों का प्रतिक्रमण - प्रायश्चित किए बिना है। सामायिक में ऊँचा रसायन नहीं आ सकता
114. कुआसन, 2. चलासन, 3. चलदृष्टि, 4.
सावद्य क्रिया, 6. आकुंचन प्रसारण 7. 106. आवश्यक सूत्र में (प्रतिक्रमण में) छह आलस्य, 8. मोड़ना (कटका) 9. मल
आवश्यकों में प्रथम सामायिक है। विषमता (मैल उतारना) 10. विमासन (शोकासन व (वांकाई), टेढ़ापन व वक्रता छोड़ना ही बिनापूंजे) 11. निद्रा व 12. वैय्या वच्च सामायिक है।
(अव्रती की सेवा करे व करावे) ये 12 दोष 107. सामायिक अवश्य करनी ही चाहिये,
से काय शुद्धि को कमजोर करते हैं। सामायिक प्रथम आवश्यक है, संसार के | 115. उपरोक्त 32 दोषों का विसर्जन/क्षयकरने काम बाद में, पहले सामायिक करनी ही है। से सामायिक में समता बढ़ती है और मन सावद्य योगों को त्यागे बिना सिख' असंभव
वचन व काय संयम होता है।
Page #273
--------------------------------------------------------------------------
________________
116. आर्त ध्यान, रौद्र ध्यान, से बचना ही भाव सदा ममात्मा विद्धातुदेव! अर्थात मैत्री सभी सामायिक है।
जीवों से, गुणीयों पर प्रमोद, दुःखियों पर 117. आर्त ध्यान = आर्त यानि पीड़ा बाधा, क्लेश,
करुणा तथा विपरीत आचरण करने वालों दुःख का होना।
पर माध्यस्थ भावनाएँ, हे देव हमें देवें। 118. मन में दुःख आदि आने के 4 कारण 1.
127. सभी जीवों से मैत्री पैदा हो, ऐसा गृहस्थ अनिष्ट संयोजन, 2. इष्ट वियोजन, 3.
की सामायिक में भाव आना मुश्किल होता प्रतिकूल वेदना जनित (रोग) 4. निदान
है। कोशिश से सफलता मिलती है। जनित। ज्ञान से मन को शांत किया जाता 128. गुण अच्छे लगेंगे तो ही गुणधारी गुणवानों है। कुध्यान छोड़ना ही ‘सामायिक' है।
के प्रति प्रमोद भाव होगा। 119. रौद्र = रुद्र यानि क्रूर - भयंकर और कठोर 129. उपरोक्त चार भावनाओं में रहकर ही जीव . परिणामों में रहना।
शांत रह सकता है। हे जीव! तू शांत रह!!! 120. रौद्र ध्यान के चार प्रकार :- 1. हिंसानन्द 130. अतः ऐसा काम' (कार्य) कर कि 'काम' (
2. मृषानंद 3. चौर्यानंद 4. परिग्रहानंद या इच्छा, वासना) का ही अन्त हो जाय, वो संरक्षणानंद।
'काम' (कार्य) सामायिक ही कर सकती है। 121. आर्त ध्यान में विचारों में भय, शोक, शंका, | 131. प्रमाण के अंश को नय कहते है, सामायिक
प्रमाद, कलह, चित्तभ्रम - व विषय भोगों की सात नयों के आधार पर विवेचना की इच्छा होती रहती है।
कीजिए? . 122. रौद्र ध्यान के विचारों में दुष्टता, क्रुरता, | 132. नैगम नय के अनुसार सामायिक करने जा
वंचकता, निर्दयता से भरे परिणामों में भोएँ रहा हूँ, तो सामायिक शुरु हो गई, मानना। चढ़ाए, लाल आँखे किये, राक्षसी रुप में संकल्प से ही शुरुआत हो जाती है। रहता है। सामायिक अर्थात् कठोरता का
133. संग्रह नय के अनुसार सामायिक आदि त्याग।
उपकरणों के साथ हो तो सामायिक कहना। 123. अत्यधिक आर्त ध्यान से तिर्यञ्च गति व (सामग्री के आधार पर) अत्यधिक रौद्र ध्यान से नरक गति में जीव
134. व्यवहार नय के अनुसार करेमि भंते का जाता है।
पाठ व वस्त्रादि वेश परिवर्तन हो तो सामायिक 124. आर्त (ध्यान) रौद्र (ध्यान) के विचारों में
कहना। सामायिक की क्या भाव शुद्धि हो सकती
135. उपरोक्त तीनों नयों को द्रव्यार्थिक नय कहा है? नहीं।
गया है, उसमें द्रव्य (बाह्य) की प्रधानता है। 125. सामायिक का प्राण ‘समभाव' ही है।
136. ऋजु सूत्र नय के अनुसार “सामायिक में 126. सत्वैषु मैत्री गुणीषु प्रमोदं, क्लिष्टेषु जीवेषु शुभभाव व समभावों की वृद्धि होतो सामायिक
कृपा पर त्वम्, माध्यस्थ भाव विपरीत वृतौ, | कहना"।
Page #274
--------------------------------------------------------------------------
________________
137. शब्द नय के अनुसार मोहनीय का उदय | 146. शब्दों से सामायिक का आनन्द नहीं मिलता
नहीं है, तो सामायिक कहना (राग द्वेष का है, सच्चा आनंद तो सामायिक करने पर उदय न हो)
ही मिलता है, जैसे मिश्री खाने से मीठा 138. समभिरुढ़नय के अनुसार मोह अज्ञान
रस मिलता है, मिश्री की बातों से नहीं। अदर्शन (निद्रादि) और विघ्नादि हट गये | 147. 'सामायिक' के मूल्य की तुलना तीन लोकों हो तो सामायिक कहना।
की सारी सम्पदा से भी नहीं हो सकती है। 139. एवंभूत (शुद्ध) नय के अनुसार अयोगी अलेशी
सामायिक तीन लोक की सारभूत है। अशरीरी व सिद्धावस्था हो तो सामायिक
148. जिस प्रकार प्रतिदिन निद्रा के में 5-6 घण्टे कहना।
व्यर्थ बेकार मानते हो क्या? नहीं। उसी
प्रकार “सामायिक योग" दो घड़ी का आत्मा 140. उपरोक्त चार नयों को दृष्टि से निश्चयात्मक
के लिए पाप से विश्राम है। सामायिक भावों पर मानता है। पर्यायार्थिक नय 4 (चार) है।
149. संसार का काम करते-करते, हे! आत्मा तुझे
अनंत काल बीत गया, परन्तु कोई भी आत्मा 141. तीर्थंकर परमात्मा भी इन्ही दिशाओं में
काम पूरा नहीं कर सका, तो तूं क्या कर विराजते है। इन्द्र (पूर्व) व सोम (उत्तर) ये
सकेगा? नहीं। देव इन दिशाओं (क्षेत्र) के मालिक होते है।
150. “आत्मा ही सामायिक" ये अवस्था सिद्ध 142. प्राकृत (अर्ध मागधी) में सामायिक अनुष्ठान
पद में होती है। के सभी मूल पाठों ने समस्त जैनों को एक
151. आगार व अणगार ये दो प्रकार की सामायिक सूत्र में जोड़ रखा है। अर्थ तो सीखना ही
शास्त्रों में मानी है। होगा (श्वेताम्बर परम्परा में)
152. आवश्यक के छह भेदों की सुरक्षा-संरक्षण 143. टीकाकार - चूर्णीकार व भाष्यकारों ने “करेमि
और शुद्धिकरण का आधार तो सामायिक भंते" पाठ को तीन बार बोलने की ही
आवश्यक ही है। प्रेरणा दी है, ताला बंद यानि पाप बंद करने का पाठ है, ताला भी दो या तीन बार बंद | 153. समय की नियमितता का मन पर करते समय देखा जाता है। 'करेमि भन्ते'
मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ता ही है, अतएव पाप बन्द करने का पाठ माना है।
नियमित समय पर सामायिक करनी चाहिये।
जो समय की कीमत समझता है, वही 144. श्रावक को सामायिक में “धर्म ध्यान" पर
ज्ञानी होता है। विशेष ध्यान देना चाहिये। अनित्य, एकत्व,
154. उच्छृखल मन को यों ही खुला छोड़ देने अशरण व संसार इन भावनाओं पर चिन्तन
पर अधिक उच्छंखल बन जाता है। मन को करावें।
ज्ञान ही समझा सकता है। 145. सम्पूर्ण द्वादशांगी का मूल “सामायिक" को ही माना है।
| 155. ब्रह्म मुहूर्त काल में जागकर प्रथम धर्म का
Page #275
--------------------------------------------------------------------------
________________
चिन्तन करना ही चाहिये। उत्तम पुरुषों का | 164. हमारे सभी “आदर्श” सामायिक है परन्तु नाम स्मरण करना चाहिए।
वर्तमान में जीना तो 'लोकोपचार विनय' 156. प्रातः व सन्ध्या ये दो काल विशेष सन्धिकाल
के आधार पर ही होता है। माने गये है अतएव अभय काल में सामायिक 165. सामाइयम्मिउ कए समणो इव सावओ हवइ, अनुष्ठान अवश्य ही करना चाहिए। सन्धि
जम्हा एएणं कारणेणं बहसो सामाइयं कज्जा अर्थात् सुन्दर अवसर।
“वि. भाष्य' अर्थात् सामायिक करने पर 157. सामायिक में सिद्धासन, पद्मासन,
श्रावक भी साधु जैसा हो जाता है, आदि
कारणों से सामायिक को बार-बार करना पर्यंकासन तथा सुखासन से बैठ सकते
चाहिए। 158. चक्षु व श्रोतेन्द्रिय की विशेष चपलता होने
166. गुण स्थान क्रमारोहण के आधार पर ही से स्वाध्याय ध्यान तथा जप तप में जुड़े
सामायिक की गुणवत्ता जानी जाती है। रहना चाहिये। (सामायिक में)
167. दर्शन सामायिक (श्रद्धा भाव) का गुण स्थान 159. पूर्व दिशा उदय की सूचना देती है तथा
अविरती सम्यक दृष्टि (चौथा है) उत्तर (उत् = ऊँचा, तर = अधिक) उच्च 168. श्रावक की सामायिक का गुण स्थान पाँचवा गति; उच्च जीवन तथा उच्च आदर्श को (देश विरति श्रावक) है। प्राप्त करने का संकेत देती है, अत एव
169. साधु के गुण - स्थानों की संख्या कुल नव सामायिक करते समय पूर्व या उत्तराभिमुख
है (6 से 14 तक) बैठना चाहिये।
170. जीवों की चार श्रेणीयां 1. सभी जीव 2. 160. निश्चय सामायिक की प्राप्ति नहीं भी हुई तो
गुणी जीव, 3. विपरीत आचरण वाले जीव भी व्यवहार सामायिक को छोड़ना नहीं,
4. दुःखी जीव। इन चारों में समता भाव सात महल का भव्य भवन न मिले। तो
रखते हुए भी अलग अलग परिणामों से क्या रोटी साग छोड़ देना या नहीं खाना।
समझना तभी नय प्रमाण आधार के आत्मा “करत करत अभ्यास के जड़मति होत
के विकास क्रमारोहण समझ आयेगा। सुजान। रसरी आवत जात सील पर पड़त
171. विरोधियों व दुश्चरित्र व्यक्तियों के प्रति भी निशान।।" अर्थात् सामायिक का अभ्यास न छोड़े।
घृणा भाव नहीं होता है, तो ही हमें
सामायिक का सच्चा भाव आया, समझना। 161. निश्चय सामायिक में तो एक ही स्तर (सब समान रुप) होता है। एवंभूत नय सर्व शुद्ध
172. वर्तमान इस विषम व संघर्षमय वातावरण
में माध्यस्थ वृति धारण करने की अति नय होता है।
आवश्यकता है। 162. व्यवहार सामायिक भी स्थूल पापों से बचाती
173. सामायिक के द्रव्य, क्षेत्र व काल आदि को
विस्तार से समझना है तो भी "निश्चय नय" 163. नरक तिर्यञ्च गति को रोकती है सामायिक। ।
तो मात्र “आया सामाइए' आत्मा ही सामायिक
Page #276
--------------------------------------------------------------------------
________________
है तथा आत्मा ही सामायिक का अर्थ है। | 185. तीर्थंकरों के मुख से अर्थ रुप तथा गणधरों 174. आत्मा का काषायिक विकारों से अलग किया
___ के सूत्र रुप से सामायिक निकली। लोक में हुआ, अपना शुद्ध स्वरुप ही सामायिक है।
सामायिक के भाव शाश्वत हैं। 175. शुद्ध स्वरुप को पा लेना ही सामायिक अर्थ | 186. सामायिक का अधिकारी कौन? जो अन्य फल है। (आया सामाइए अव्वे, भगवती सूत्र)
जीवों के दुःखों को समझकर अन्य किसी 176. भगवान ने तुंगियापुरी में श्रावकों को कहा
जीव को दुःख नहीं देते हैं, सभी जीवों को था कि आत्म परिणति आत्म स्वरुप की
अपनी आत्मा समान समझते हैं। उपलब्धि के बिना तपसंयम आदि की साधना | 187. 'संयति-भाव' की सिद्धि के लिए गणधरों से मात्र पुण्य प्रकृति का बंध होता है, ने तीर्थंकरो से सामायिक सुनी। सामायिक फल स्वरुप देव भव की प्राप्ति होती है, का स्वरुप समझा। मोक्ष की नहीं।
188. श्रुत सामायिक, चारित्र सामायिक, तथा 177. अन्त में साधक को व्यवहार सामायिक से सम्यक्त्व सामायिक ये 3 भेद होते हैं। निश्चय सामायिक की प्राप्ति का लक्ष्य होना
189. द्रव्यार्थिक नय के मत से सामायिक जीव चाहिये, क्योंकि निश्चय सामायिक के बिना
द्रव्य है (तीन नय) मोक्ष नहीं।
190. पर्यायार्थिक नय के मत से सामायिक जीव 178. व्यवहारिक सामायिक में अनेक प्रकार के
का गुण है (चार नय) स्तर श्रेणि की भूमिकाएं क्रमशः होती है।
191. सामायिक किस को प्राप्त होती है? जिसकी 179. नैगम नय से एवं-भूत नय की अति - विलक्षण
आत्मा संयम, नियम और तप से सन्निहित शैली है। जिसमें प्रथम से चरम परम
होती है, समता भाव सभी जीव-अजीवों सामायिक तक कैसे पहुँचना होता है, भली
पर रखता है। एक व्यक्ति से भी द्वेष नहीं भाँति समझाया गया है।
रखता हो। 180. सु-मन और सामायिक की जोड़ी है
192. श्रद्धा रुप सामायिक सर्व द्रव्यों व सर्व पर्यायों (अनुयोग द्वार सूत्र)
में होती है। देश विरत सामायिक न सर्व 181. मन को सुमन-बनाना ही सामायिक है।
द्रव्यों न सर्व पर्यायों में होती है। 182. बाहरी परिणितियों से विरत होकर
193. चारित्र सामायिक सर्व द्रव्यों में होती है - आत्मोन्मुखी होने को सामायिक कहते है।
परन्तु सर्व पर्यायों में नहीं। द्रव्य की पकड़ 183. सम अर्थात् मध्यस्थ भाव युक्त साधक की जल्दी होती है। मोक्षा-भिमुखी प्रवृति को सामायिक कहते है।
194. सम्यक्त्व व श्रुत सामायिक की स्थिति उत्कृष्ट 184. मोक्ष के साधन सम्यक् दर्शन-ज्ञान-चारित्र 66 सागरोपम झाझेरी तथा चारित्र
की साधना को सामायिक कहते हैं। पाँच सामायिक की उत्कृष्ट स्थिति देशोन करोड़ आचारों का पालन ‘सामायिक' है।
पूर्व वर्ष की होती है।
Page #277
--------------------------------------------------------------------------
________________
195. सामायिक का क्षेत्र ढाई द्वीप प्रमाण माना | 204. संज्ञी, मनुष्य जन्म व 15 कर्म भूमि क्षेत्रमें
गया है, सर्व लोक में भी कभी कभी होती है जिनशासन की छाया में “सामायिक की (केवली समुद्घात की अपेक्षा)
आराधना" करना यही तो वे श्रेष्ठ कार्य कर 196. श्रुत व देश विरति = सामायिक असंख्य
रहे है। करने योग्य को करे, यही तो भवों में बारबार आ सकती है।
समझदारी है। 197. “चारित्र" सामायिक मात्र आठ भवों में ही
205. नमस्कार शब्द में मेरे से आप उत्कृष्ट है, आती है। (संयम)
गुणों में बड़े है, मैं आप से गुणों में अनुत्कृष्ट
(न्यून) हूँ, गुणों में हीन हूँ। 198. सामायिक के अन्य नाम भी कहे गये है 1. सम्यगदर्शन, 2. शोधि, 3. सभाव, 4.
| 206. यहाँ पर हीन या दासवृत्ति मनोवृत्ति नहीं दर्शन, 5. अवि पर्यय, 7. सुदृष्टि। समता
समझ कर पवित्र एवम् गुणात्मक संबंध मय परिणिति सामायिक होती है।
मानना चाहिये, जैसे गुरु-शिष्य, पिता
पुत्र। 199. सामायिक के सांगोपांग वर्णन को 'निरुक्ति'
207. नमस्कार एक प्रमोद भाव है। प्रमोद भावना कहते है।
का अभ्यास करने से सद्गुणों की प्राप्ति 200. सामायिक की आराधना श्रेष्ठ' नर ही कर
होती है तथा ईर्ष्यालुता डाह और मत्सर सकते हैं।
आदि दुर्गुणों का समूलता से नाश होता है। 201. सामायिक एक परम पवित्र अनुष्ठान है, जिसे
208. पाँच पद हमारे लिए आलम्बन आदर्श व तीर्थंकरो ने सेवन किया, गणधरों ने, 14
लक्ष्य रुप है। पूर्व धारियों ने, आगे बढ़ाया। अतः सामायिक के 2 घड़ी पवित्र काल को आलस्य प्रमाद
209. अरिहंत बने बिना सिद्ध नहीं बना जा सकता अशुभरुप निंदनीय प्रवृत्तियों में नहीं लगाना
(सिद्ध अर्थात् पूर्ण) चाहिये। उत्तम काम देर न करें। 210. अरिहंत आदि महापुरुषों का नाम लेने से 202. सामायिक की शक्ति आत्मा को भगवन्त -
पाप-मूल से उसी प्रकार दूर हो जाते है, परमात्मा रुप में निर्मलीकरण - उज्जवल
जिस प्रकार प्रातः काल सूर्योदय होने पर करती है, सर्व दोषों को दूर करने की राम
चोर भाग जाते है। बाण औषधि है - सामायिका
211. अन्य मत मतान्तरों में व्यक्ति को महत्व 203. कैवल्य ज्ञान, मनःपर्यय ज्ञान, विपुलमति
दिया जाता है, परन्तु “नमस्कार सूत्र" में ऋजुमति-मनः पर्यय ज्ञान, परम अवधि
किसी भी व्यक्ति के नाम को महत्व नहीं ज्ञान, 14 पूर्वो का ज्ञान, 13 पूर्व, 12 पूर्व
दिया गया है। “गुणेहि-साहु” गुण से साधु 11 पूर्व तथा दस पूर्व का ज्ञान ये कुल 9
माना गया है। प्रकार के ज्ञान नियमा चारित्र में ही होते है। 212. अहिंसा-सत्य आदि आध्यात्मिक गुणों का चारित्र से आत्मशुद्धता व ज्ञानोपलब्धि विकास ही गुण पूजा का कारण है। दुर्गुण होती है।
'स्व-पर' दोनों को दःखी करते है।
Page #278
--------------------------------------------------------------------------
________________
213. A) अरिहंत = कर्म शत्रुओं पर विजय (घाती | 221. सावध योग में दुख भरे है, सावद्य योगों के कर्म रूपी शत्रुओं पर)।
त्याग में ही आत्मा के सभी ज्ञान, दर्शन, B) अरहंत = संसार का कोई रहस्य छिपा
सुख व शक्ति आदि गुण भरे! रहे हुए है। नहीं।
वर्जने योग्य हो, वही सावध है। C) अस्थांत = परिग्रह रुपी रथ का अंत।
| 222. अरिहंतों ने ही अरिहंत बनने का मार्ग
दिया, अतएव हमारे लिए महान उपकारी D) अर्हत् = अतिशय महाप्रतिहार्यों सहित (इन्द्रों) के भी वंदनीय पूज्यनीय।
223. जैन धर्म की कितनी भी शाखाएं है, परन्तु E) अरहोन्तर = जिसका कोई रहस्य से
नमस्कार सूत्र के पाँच पदों पर सभी एकमत अंतर नहीं।
हैं, समस्त जगत के प्राणी मात्र के केन्द्र, ये F) अरुहन्त = मोहनीय रुपी बीज जल पाँच पद ही है। गया।
224. “साधयति ज्ञानादि शक्तिभिमोक्ष-मितीः 214. धर्म-आदि के कर्ता, जो परम सत्य पुरुष साधवः” जो मोक्ष प्राप्त करने हेतु ज्ञानादि
तीर्थंकर कहलाते है, साधना से साध्य प्राप्त शक्तियों को प्राप्त करने की साधना करे वो करके साधना का मार्ग बताते हैं।
साधु है। 215. कर्म जल का सदा सर्वथा अन्त, अजर, | 225. स्वयं को स्वयं का नमस्कार होता है, पर
अमर, सिद्ध, बुद्ध, मुक्त सर्व दुःखों का - भावों से स्व-भावों की तरफ ले जाता है अन्त कर गये। लोकाग्र पर विराजमान ज्योत
नमस्कार सूत्र। के समान अनंतानंत सिद्धों के साथ रहते
226. जीवन में अज्ञान रुपी अंधकार हमारा
घोरातिघोर शत्रु है, उसकी पहचान समझ 216. पाँच पदों को दो पदों में भी समावेश किया तथा सही मार्ग दर्शक होते है प्रत्यक्ष गुरु। है 1. सिद्ध पद 2. साधु पद।
"बिना धर्म गुरु, धर्म कैसे करेगा शुरु।" 217. आचार्य पंचाचार के पालक संघ के नेता 227. गुरु हमारी जीवन नौका के नाविक समान तथा 36 गुणों सहित होते है।
होते है। जो स्वयं पंगु हो तो क्या वह औरों 218. उपाध्याय = विशिष्ट साधु शास्त्रज्ञ, अध्ययन को लक्ष्य पर पहुँचायेगा? नहीं। अतः गुरु
व अध्यापन कराते है। पच्चीस गुण वाले जो स्वयं शास्त्रज्ञ हो, वैराग्य भरा हो, गुरु माने गए हैं।
की पहचान सम्प्रदाय या भक्तों से नहीं
करके तीन रत्न सम्यक ज्ञान, दर्शन व 219. साधु = पाँच महाव्रत, पाँच समिति, तथा तीन
चारित्र के आधार पर होनी चाहिये। गुप्ति का पालन करते है 27 गुणों सहित होते हैं।
228. अतः असाम्प्रदायिक भावों से, जहाँ गुरुता 220. पाँच पदो की मौन शिक्षा है, सावद्य योगों
गुणों के दर्शन हो वहीं पर सिर झुका का त्याग करो।
दीजिए।
हा
Page #279
--------------------------------------------------------------------------
________________
229. नमो लोए सव्व साहूणं के सव्व शब्द में गुणों प्रभु के पास गये थे, ये बहुमान है। सांसारिक
के आधारित गुरु वन्दन करके अपनी खोटी कार्यो को गौण करना। पकड़ की ग्रन्थी को खोल देवें।
237. वर्तमान में सांसारिक कार्यक्रमों मशगुल व 230. तिक्खुतो = तीन बार “आयाहिणं पयाहिणं" प्रमोद व बहुमान भावों की कमी से संतो के
ये करना, (to do)नमस्कार वंदन करने के योग-पधारने का सुनकर भी प्रवचन आदि रुप है, फिलहाल बोलने की परम्परा चल में आने का कोई भाव नहीं होता है, तो रही है। चिन्तनीय विषय है।
सम्मान - बहुमान कमजोर है। 231. गुरु वंदन भावों से भरा करने से हमारी | 238. आलस्य में पड़े रहना और कहना कि ये
वृतियों में कोमलता मृदुता आदि गुणों की काम, वो काम था समझना चाहिये कि प्राप्ति करने की भावना बनती है, गुरु शिष्य धर्म का अपमान कर रहा है। को गुरु व भगवान बनने का रास्ता बताते 239. कल्लाणं = प्रातः काल जिन का नाम
लिया जाय वो कल्याण है, क्षेम कुशल 232. वंदामि = गुणगान स्तुति करना, जो गुरु कल्याण कहलाता है। गुणगान नहीं करता है, वह वचन का चोर
240. आरोग्य निरोगता - स्वस्थता देते है। प्रातः है, पापों में वचन का प्रयोग तो करता ही
काल गुरुदेवश्री का नाम लेना भी कल्याण
रुप ही है। 233. जो गुणानुरागी नहीं होता, वह कभी भी
241. मंगलं जो पापों को क्षय करे, आनन्द देवे, गुणों की प्रशंसा नहीं करता है। गुणों की
ऐसे गुरु मंगल कारी होते है। गुरु दीपक - प्रशंसा अवश्य ही करनी चाहिए।
गुरु चानणा गुरु बिन ... 234. नमसामि = अर्थात् काया से नमस्कार करना,
242. जिसके द्वारा साधक के हित की प्राप्ति हो, पूजा का अर्थ प्रतिष्ठा है, उत्तम पुरुष को
आत्मा शोभायमान हो वह मंगल है, पाप सर्व श्रेष्ठ रुप मानना, सद्गुरु को सर्वश्रेष्ठ
को गलावे वो मंगल होता है। (मं पाप, माने बिना उनके उपदेश को आत्म सात्
गलगलना) करना बड़ा ही मुश्किल है। जीवन का आधार
243. जिस मंगल से साधक ‘पूज्य' होता है। गुरु होता है।
मंगति दूरं दुष्टमनेन अस्याद् वा इति मंगलं। 235. सत्कार = मन से आदर करना, सत्पुरुष
दुर्भाग्य, दुर्दैव आदि संकट दूर होते है। मानना, श्रद्धा व आदर के अमृत से अन्दर
244. द्रव्य मंगलों की प्रवंचना में न पड़कर गुरुदेव को भरकर गद गद हो जाइए।
रुप अध्यात्म मंगल की उपासना करनी 236. सम्माणेमि = बहुमान करना। भरत चक्रवर्ती
चाहिये। ने भगवान आदिनाथ को कैवल्य प्राप्ति,
245. देवयं = देव तथा देवता, आत्म स्वरुप से पत्र रत्न वचक्ररत्न के पैदा होने के समाचारों को सुनकर भी प्रथम आराध्य आदिनाथ
चमकते है, वे देव होते है। दिव्य-द्युति परिपूर्ण होते है।
Page #280
--------------------------------------------------------------------------
________________
246. जैन शास्त्रों में साधु को धर्म देव कहा है, | 254. इच्छा कारेणं के पाठ को आलोचना सूत्र धर्म करता है, धर्म देता है वह देव है।
कहते है, जिन जिन जीवों की विराधना की । 247. वंदामि = महत्वपूर्ण क्रिया होने से दो बार है, उसकी आलोचना की जाती है। बुरे वंदामि आया है।
कर्मो की ही तो आलोचना की जाती है
ना??? 248. क्षमा आदि दस धर्म, अहिंसा आदि पाँच महाव्रत ये कुल 15 गुणों को धारण करने
255. इच्छाकारेणं "स्व"इच्छा पूर्वक अपने दुष्कृत्यों वाला मानव, क्या महामानव रुप में देव की आलोचना करना चाहता हूँ। बिना दबाव नहीं कहलायेगा? अवश्य कहलायेगा।
से अर्ज करता है। 249. अन्तरंग आत्मशत्रुओं को जीतने की साधना | 256. संदिसह = आज्ञा दीजिए। भगवं - हे भगवन्। में लगा धर्म-देव ही है। धर्म देता है, वही
इरियावहियं = आने जाने से चलने रुप सच्चा धर्म देव' होता है।
क्रिया का। 250. चेइयं = चैत्य शब्द के अनेकानेक अर्थ होते
257. पडिक्कमामि = ये छोटा प्रतिक्रमण है, मैं है, चैत्य का अर्थ ज्ञान करने में कोई विवाद
प्रतिक्रमण करना चाहता हूँ। अतिक्रमण का नहीं है अर्थात् आप ज्ञानवंत हो। मुझे भी ही प्रतिक्रमण होता है। ज्ञानी बना दें।
258. सामायिक लेने से पूर्व, पूर्व में कोई की गई, 251. आचार्य अभय सूरिदेव ने स्थानांग टीका में सामायिक के बाद से लगाकर अभी तक मेरे
कहा कि जिनके देखने से चित्त में आल्हाद द्वारा जो भी इरियावहियं हुई अर्थात अधर्मा उत्पन्न होता है। यह ठीक ही अर्थ है कि चरण जो मेरे द्वारा किया गया है, उन सामान्य भक्त जन अपने गुरु के दर्शन
सबका प्रतिक्रमण करना चाहता हूँ। करके आल्हादित होते ही हैं।
259. जैसे रोटी खाई = भोजन में ली गई सभी 252. वंदन करने से नीच गोत्र का क्षय, ऊँच
वस्तुएँ पानी से पापड़ तक सभी का समावेश गोत्र का बंध सौभाग्य की प्राप्ति तथा उनकी होता है। वैसे ही मन-वचन-काया की अशुभ(गुरु की) बात को सहर्ष स्वीकार (बिना
हिंसादि सावद्य योगों का मेरे द्वारा सेवन अनाकानी) कर लेता है तथा दाक्षिण्य भाव
हुआ था, उन सबकी मैं आलोचना करता अथवा चतुराई, श्रेष्ठ सभ्यता को प्राप्त कर लेता है। नमे सो आम्बा आम्बली नमे सो 260. “इच्छं” = गुरु मुख से निकला शब्द मानो दाड़म दाख। एरण्ड बेचारा क्या नमे जिसकी
कह रहा है। यथा सुख इच्छायां, अहा ओछी साख ||
सुहम देवाणुप्पिया। बिना प्रेशर (दबाव) का 253. मत्थए - मस्तक अर्थात् गुरु वंदन करते
ही जीवन, जीवन है। समय गुरुश्री के चरणों में मस्तक झुकाकर 261. “पडिक्कमिउं" = निवृत होने की, अथवा वंदन करता है। शरीर के अवयवों में मस्तक छोड़ने की प्रतिक्रमण करने की भावना रखता को सर्वोच्च अंग माना गया है। “सिरसा- हूँ। आभ्यन्तर भावों से “प्रक्षालन" पापों को वंदे
धो देता है।
Page #281
--------------------------------------------------------------------------
________________
262. “इच्छामि" = मैं इच्छा करता हूँ कि सावद्य
योगों का त्याग तथा पूर्व पाप का प्रक्षालन
करूँ। धर्म भावना की उत्पति हुई। 263. बिना प्रतिक्रमण सामायिक आती ही नहीं
है, पापों से पीछे हटना तथा मिच्छामि
दुक्कडम् रुप होवे। 264. इरियावहिआए विराहणाए = इर्या पथिक
विराधना का। 265. गमणागमणे = आने जाने में। पाणक्कमणे . = प्राणी को दबाया हो। बीयक्कमणे = बीज
को दबाया हो। हरीयक्कमणे = हरि वनस्पति को दबाया हो। प्राणी, बीज व हरी इन
तीनों को खेदित किया हो। 266. संघाइया = इकट्ठे करना. जीवों को दुःख
पहुँचे, इस तरह से इकट्ठे करना, संघात अर्थात ऐसे परिग्रह को भी पाप करके संचय या एकत्रित कर रहे हैं, परिग्रह का संचय करने के पीछे कितने पापों का सेवन करता है जीव। मुछी - आसक्ति परिग्रह
ही है। 267. संघट्टिया = स्पर्श करना = वनस्पति आदि
का संघट्टा करने से भी कोमल शरीर वाले
जीवों को कष्ट पहुँचता है। 268. संघट्टिया में भावों से पुट्टिया का समावेश
हो जाता है। 269. वायु, अग्नि, पानी ,मिट्टी में सुखों के भोग
भाव से स्पर्श होता है, वस्त्र गहने आदि तथा जीवों के प्रति आसक्ति भावसे स्पर्श करना भी संघट्टिया में ही आता है। टच में स्पर्श
होता है। 270. परियाविया = परिताप पहुँचाना, मन वचन
से हम मानव जाति परस्पर एक दूसरे के
प्रति सोचकर-बोलकर कितनी पीड़ा दे रहे हैं, या पहुँचा रहे हैं, रिश्तों में खून-खून तथा ईर्ष्या, चुगली, अभ्याख्यान से हम अपने ही लोगों को कितना परिताप देते
है। अपनों को कितनी पीड़ा देते हैं। हाय! 271. हमारे मन, वचन व काया के असंयम से ही
हम मित्रों उपकारी जनों को इतनी पीड़ा देते है, ये सब “परियाविया” में ही आता है। "गैरों से करम (अच्छा वर्ताव)। अपनों
पे सितम" धिक्कार है मेरी आत्मा को!!! 272. किलामिया = खेद किलामना या थकाए
हो, फूलों से खिले चेहरे को शब्दादि बोलकर मार-पीट आदि से मरछाया चेहरा कर देना, शोकग्रस्त कर देना/हो जाना। 'क्लान्त' करता है। अभिहया = अभिहत, सन्मुख आते हुए को हना हो, अभिहया = इसका दूसरा अर्थ जो सन्मुख है, उनके यश कीर्ति को धूमिल करना, ऐसे दावपेंच कोर्ट आदि में फंसाना जिससे जीवन पर्यन्त खड़े न हो सके, हमेशा दबाव में रखना आदि। सैकड़ों के सामने ऐसे शब्दों को बोलना जिससे उसका
'मरण' हो जाए। 274. ओसा = ओस, उतिंग = कीडी बिल, पण्णग
= पाँच वर्ण की काई, दग = जल, मट्टी = मिट्टी, मक्कड़ा संताणा = मकड़ी के जालों को (कुचला), संकमणे = कुचला हो, जे = जो, मे = मैनें, जीवा = जीव, विराहिया पीडित किया हो। एगिदिया, बेइंदिया, तेइंदिया, चउरिंदिया, पंचिंदिया = एक इन्द्रिय वाले, दो इन्द्रिय वाले, तीन इन्द्रिय वाले, चार इन्द्रिय वाले, पाँच इन्द्रिय वाले जीवों को। पंचेन्द्रिय घात व बालक की भ्रूण
Page #282
--------------------------------------------------------------------------
________________
हत्या की तो जीवन भर तड़पता रह सकता 281. हिंसा का रौद्र रुप इसमें दिखता है।
252. रौद्र ध्यान में हिंसा में आनन्द मानना, 275. वत्तिया = धूल आदि से ढ़कना, किसी की आडम्बरों, भोजन में झूठन छोड़ना, इज्जत को मिट्टी में मिलाना, सभा में कहना
वाहनो की तेज गति से त्रस जीवों की कि रहने दो, कैसे है? हम जानते है, अभी भयानक हिंसा होना। कहूँगा तो मुख दिखाने लायक, नहीं रहोगे? 283. हाथों से शरीर से काम लेने के बजाय कूड़े लेख आदि से अपयश रुपी धूल से, मशीनों का प्रयोग दिनों दिन बढ़ता जा रहा यश कीर्ति को ढकना।
है, मशीन को दया करुणा आती है क्या? 276. लेसिया = मसलना। , लीख आदि को
कभी नहीं वो तो जड़ है, हिंसा का वातावरण जीवों के शरीर आदि को इतना दबाना कि
बढ़ता जा रहा है। कचूमर निकल जाये, दबाव से मन को 284. तस्स = उपरोक्त 10 विराधनाओं का, दबाना, प्रताड़ित करना, फिर लम्बे काल विराधना दुर्गति देती है, आराधना सुगति तक जी नहीं सके, भ्रूण हत्या तथा क्रुरता देती है। कठोरता से भरे व्यवहार करना. भाव हिंसा
285. मि = मेरे लिए, मिच्छा = (मिथ्या )निष्फल में रौद्र ध्यान के सहयोग से भाव हिंसा
होवे, हृदय से पश्चाताप हो तो पाप निष्फल तथा क्लेश, मानसिक प्रताड़ना तथा तीखे
हो जाते है। कठोर वचनों का प्रयोग करना।
286. सच्चे पश्चाताप से ही अपनी आत्मा को हल्का 277. उद्दविया = हैरान किये हो, भयभीत किये
बना सकते है, सत्य पश्चाताप किया हो तो हो, त्रस जीवों को, पशु पक्षियों को, बैल
(भावो से) अर्न्तमूहुर्त में नर से नारायण गायों को भयभीत किये हो।
बन सकता है। 278. ठाणाओ ठाणं संकामिया = एक स्थान से | 287. दुक्कड़म् = दुष्कृत पाप अर्थात् यह दस
दूसरे स्थान पर रखना, जीव जहाँ रहता प्रकार की विराधना ही पाप है, पाप का है वह स्थान छोड़ना नहीं चाहता परन्तु पश्चाताप इस पाठ का सार है। हम अपने स्वार्थ के लिए छुड़वाते है/छोड़ते
288. हमारे द्वारा सताये गये, दुःखित किये गये,
प्रीति - मैत्री भाव को थोड़े से स्वार्थ या अहम 279. जबरदस्ती मकान खाली करवाना, उपकारियों में, अकड़ाई में, कठोरता युक्त जीवन जीते
व प्रीति रखने वालों को भी स्थान छुड़वाना, रहना। हजारों बार “इच्छाकारेणं का पाठ" षड़यन्त्र व स्वभाव से (द्वेष से) इतना दुःख बोलकर कोमल या दयावान न बना तो समझना
देना कि स्वयं ही यहाँ से निकल जायें। कि सामायिक आई ही नहीं, बाहरी दिखावा 280. जीवियाओ ववरोविआ = जीवन प्राणों से
रहित करना, आरम्भिया - पाणाइवाइया | 289. इच्छाकारेणं - गिनते गिनते पश्चाताप के क्रियाएँ लगती ही है।
आ जाये तो भी मंगलकारी ही
Page #283
--------------------------------------------------------------------------
________________
समझना। उन आँसूओं के साथ-साथ पाप भी धूल जायेंगे। “कड़काई ज्यादा अच्छी नहीं होती है।”
290. सुख भोग इन्द्रिय भोग और मैत्री करुणा के भाव दोनों अलग अलग है। जीवों के प्रति रिश्ते नाते श्रावको को निभाते रहना चाहिये, नरक में, देवों में तो सामायिक आती ही नहीं है, द्रव्य हिंसा की जनक तो भाव हिंसा ही है।
291. मैत्री प्रीतिमय, वात्सल्य दाता व उपकारी जनों की उपेक्षावृति अच्छी नहीं होती है। "जीव की उपेक्षा करना मानो स्वयं की ही उपेक्षा करना है।”
292. लम्बे काल तक जिनके साथ मधुर बोलना, उठना, बैठना साथ रहा हो और अचानक एक दम रिश्तों को तोड़ना, छोड़ना ये घोरातिघोर अपराध है, सत्य तो यह है कि आलोचना का पाठ (“ इच्छाकारेणं") अन्दर में उतरा ही नहीं; यह पाठ अन्दर 'उतरते ही टूटे-फूटे रिश्ते-नाते पुनः मैत्री से भर जायेंगे, मन प्रहलाद व उमंगआनन्द से भर जायेगा।
293. दबाव - अण बनाव, अन्य की इज्जत यश को धूल में मिलाना, रुखा रुखा व्यवहार रखना, स्वार्थ व गरज होने पर मीठी मीठी चिकनी बातें करना, माता-पिता-गुरुज्ञान दाता की सेवा से दूरी बनाये रखना, ये सब इच्छाकारेण के पाठ की दस विराधनाओं में आये हैं। बचो विराधना से । 294. शिष्य द्वारा गुरु के यश को धूमिल करना,
सेवा से जी चुराना तथा गुरु द्वारा शिष्यशिष्याओं के बीच में भेद तथा निरपेक्षता का अभाव होना, ये सभी दुर्लभ बोधि
259
बनने तथा महामोहनीय कर्म बंध के कारण हैं। बिना इजाजत शिष्य - शिष्याओं को छीनना, घोर पाप है।
295. कोमलता आये बिना सामायिक आती ही नहीं है, जो संघ में भेद करावे, गुरु परम्परा व आगम परम्परा पर कुठाराघात करता है वह महामोहनीय कर्म बंध करता है।
296. एक इच्छाकारेण का पाठ बोलते-बोलते यदि भीतरी कठोरता नहीं टूटती है तो समझना चाहिये वो रौद्र ध्यानी है, रौद्र ध्यान नरक में जाने का प्रधान कारण है।
297. अनुकम्पा छोड़ना, मानो समकित रुपी रत्न को समुद्र में फैंककर किनारे पर बैठकर रो रहा है, दुःखी जीव पर अनुकंपा रखें। बिना मैत्री के धर्म-तप-पौषध सब फुटे घड़े में पानी भरने समान है।
298. इच्छाकारेणं कां इरियावहियं का एक कायोत्सर्ग केवलज्ञान दे सकता है, श्वेताम्बर परम्परा
वंता मुनि श्री की कथा में यही भाव है। एक 'इच्छाकारेणं' के भावों में कैवल्य ज्ञान होना, चमत्कार ही है।
299. श्रावक चर्या में “हक” अधिकार के लिए विराधनाएँ होती है। हक देने के बाद हक छीनना क्या उत्तम आचार है ?
300. परिग्रह आदि में हक कहने के बाद मुकर जाना, ठीक नहीं है। “हक की पीड़ा” मौत से भी भयानक होती है।
301. अपनी गलतियाँ समझने और सुधारने का
संदेश इच्छाकारेणं का पाठ देता है। गलतियाँ रुलाती भी है, रास्ता भी दिखाती है।
Page #284
--------------------------------------------------------------------------
________________
करें।
302. तर्क और स्वार्थ ने इन पढ़े लिखे अज्ञानी | 310. वही साधक सामायिक क्षेत्र में प्रगति कर
(स्वार्थ व भौतिकता) डिग्री धारियों में जीव सकता है, जो पाप प्रवृति पर पश्चाताप दया सद्गुणों की घटोतरी बढ़ा दी है।
करता हो, तथा भविष्य में नहीं करने के 303. श्रद्धा व अर्थ सहित उच्चारण करते करते लिए विशेष सावधान रहता है।
(अभिहया आदि दस बोलों) आँखों में | 311. 'आलोचना' के द्वारा अपने संयम-धर्म' पश्चाताप के आँस आये बिना नहीं रह को पुनः स्वच्छ शुद्ध बनाया जाता है। सकेगें। दुःखी के आँसू पोंछना भी 'आलोचना' से पहले सरलता का जन्म मानवाचार है।
होता है। 304. जिन-जिन को मानसिक पीड़ा (टार्चर) दी, | 312. पाप मल से दूषित हृदय में सामायिक अर्थात् शब्दों की मर्यादा व शालीनता की बात छोड़ी,
समभाव की “सुवास" कभी नहीं आ सकती अधिकार छीने और मानसिक रुप से है। अतः पहले हृदय की दूषितता को दूर प्रताड़ना/तड़फाया इन सबका पश्चाताप सामायिक लेने से पहले आना चाहिये। (करेमि
313. पाप मर्छित हृदय. समभाव की ताजगी भंते के पहले)।
को नहीं पा सकता है। 305. सामायिक व पौषध जीवन में उतरने के बाद |
314. सामायिक वहीं आयेगी, जहाँ पहले आत्मा अण बनाव रह ही नहीं सकता है, अनुराग,
में पश्चाताप आये। रुचि व हर्ष ये तीन पहचान समकित की है। साधर्मिक-सहयोग बिना मैत्री-प्रीति के नहीं
315. एकेन्द्रिय, बेइन्द्रिय आदि की विराधना काया हो सकता है।
से नहीं होवे (इस पर पूरा पूरा ध्यान दिया
जाता है) परन्तु पंचेन्द्रिय पर कठोरता - 306. जीवों की विराधना से बचने का उपाय है
अणबनाव, दबाव से तथा मानसिक रुप "यतना"
से भाव हिंसा घटाने पर ध्यान क्यों नहीं 307. शास्त्रकार कहते हैं प्रवति-धर्म की प्ररुपणा
दिया जाता है। पंचेन्द्रिय की मानसिक के साथ-साथ सभी प्रवृतियों में यतना होवे। प्रताड़ना महादुःख है। विनय पूर्वक ही धर्म करावें।
316. आज की इस दौड़ा दौड़ी के युग में पंचेन्द्रिय 308. यतना = अर्थात्-विवेक जागृति। यतना करते के प्रति पारिवारिक जीवन में लूखापन,
हुए भी प्रमाद से जीवों की विराधना हुई तो स्वार्थ के पग पग पर, भाव हिंसा का उसका पश्चाताप उक्त पाठ में किया है। भयानक तांडव मचा हुआ है। पुण्यवान"जयणा य धम्म जणणी"
पंचेन्द्रिय ज्ञान से समझे तब ना??? 309. भूल होना कोई असाधारण कृत्य पीड़ा नहीं 317. सामायिक स्थानों (धर्म स्थानों) को मानो
है, परन्तु उन भूलों के प्रति उपेक्षित रहना, राजनैतिक अखाड़े बना रखे हैं। ego इगो उन्हें स्वीकार नहीं करना, किसी भी प्रकार की समस्या सभी झगड़ो की जड़ है। धर्म का पश्चाताप न करना। (खेद प्रकरन करना) तत्वों की ना समझ ने धर्मस्थानों को “कुरुभयंकर चीज है। सत्य के पक्ष में ही सदैव क्षेत्र" बना दिया है। साथ होना चाहिए।
Page #285
--------------------------------------------------------------------------
________________
318. अहिंसा का सूक्ष्म रुप किसी जीव को एक | 325. अभिहया आदि दस विराधनाओं में सूक्ष्म व
जगह से दूसरी जगह रखना और स्थान स्थूल दोनों हिंसा का वर्णन मिलता है। बदलना भी हिंसा है, किसी भी जीव की
326. उपरोक्त दस विराधनाओं से हिंसा पाप स्वतंत्रता में किसी तरह का अन्तर डालना
का प्रधानता से सेवन बताया है, फिर शेष भी हिंसा है। पहले जोड़ना फिर तोड़ना,
पाप की आलोचना कहाँ हुई? जिस प्रकार मानो मूर्खता को पहनना है।
से “सर्व पदा हस्ति पदे निमग्ना" हाथी के 319. दुर्भावना व दया में बहुत अन्तर है, दया पैर में सभी पैरों का समावेश हो जाता है,
दृष्टि से धूप से छाया में रखा, तब तो उसी प्रकार हिंसा पाप में शेष 17 पापों का अहिंसा ही मानना।
अन्तर्भाव हो जाता है, असत्य कषायादि 320. पूंजने आदि में हमारे भावों में दया होने से
सेवन से स्वआत्मा के भाव-प्राणों की हिंसा, विराधना के भाव नहीं रहते है। जीवों के
हिंसा तो होती ही है। दुर्भावना को छोड़ना प्रति कोमलता - मृदुता होनी ही चाहिए।
अहिंसा ही है। 321. “मिच्छामि दुक्कड़म” के कुल 18,24,120
327. केवल मिच्छामि दुक्कडं शब्द का उच्चारण प्रकार के बताए है।
पाप दूर नहीं करता, पाप दूर करता है -
"मिच्छामि दुक्कड़म” शब्दों से व्यक्त 322. जिस प्रकार किसान जमीन में बीज बोने से
होनेवाला साधक के हृदय में रहा हुआ पहले क्षेत्र विशुद्धि करता है, उसी प्रकार
पश्चाताप का शुभ मंगल भाव। साधक भी सामायिक लेने से पहले आत्मा की असाता (काँटे आदि) को मिटाकर कोमल
328. पश्चाताप एक ऐसा ताप है (अग्नि है), बनाता है।
जिससे कर्म कालिका सारी जलकर नष्ट
हो जाती है। पश्चाताप एक निर्मल झरणा 323. एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय सूक्ष्म से सूक्ष्म तक
की हुई विराधना के लिए क्षमा याचना करता है। वही पहचान है साधक की।
329. श्री भद्रबाहु स्वामी ने आवश्यक नियुर्ति'
में मिच्छामि दुक्कड़ के एकएक अक्षर का 324. हृदय को कोमल बनाकर देखें कि जितनी
सुन्दर अर्थ दिया है। जीजीविषा कीड़े मकोड़े आदि जीव में है, वही आप में भी है। नरभक्षी शेर की आँखों
330. मि ति मि महवंते छ त्ति अ दोषणे छादणे में आपके जीवन का क्या मूल्य है? परन्तु
होय मि ति अ मे राइ हि ओ 'दु' ति दुगछामि जो दयालु व भावुक हृदयवाले होते है,
अप्पाणं ||150011 उनमें अनुकम्पा व आस्था के साथ-साथ कति कडं मे पाव उत्तम डेरमितं उवसमेणं कोमलता व करुणा से भरा हृदय होता है
एसो मिच्छामि दुक्कड़ - पंचक्खर थो । कहते है रामकृष्ण परम हंस किसीको भी
समासेणं ||1501|| हरी घास पर चलते देखते तो उनका हृदय
331. जीव के भेद वेदना से व्याकुल हो जाता था। भाई! मौजशौक वालों के दिलों में दिल होता है
14 नारकी 48 तिर्यंच 303 मनुष्य 198 क्या ???
देवता = 563
दि
Page #286
--------------------------------------------------------------------------
________________
अभिहया, वतिया, लेसिया, संघाइया, | देखा जाता है। उसी प्रकार आलोचना सूत्र संघटिया
में भूलों की अशुद्धि को देखा जाता है। परियाविया, किलमिया, उद्दविया - ठाणाओ | 335. अशुद्धता को निकालने की प्रक्रिया “कायोत्सर्ग ठाणं
पाठ" से समझाई गई है। संकामिया, जीवियाओ ववरोविया - कुल
336. कायोत्सर्ग पाँच कारणों से किया जाता है विराधना
यथा 563 x 10 5630 1) राग और 2) द्वेष =
1. आत्मा की श्रेष्ठता-उत्कृष्टता के लिए। 5630 x 2 =11260 मन, वचन, काया (3 योग) 11260 x 3 =
2. प्रायश्चित के लिए। 33780
3. विशेष निर्मलता के लिए। करना, करवाना त
4. शल्य रहित होने के लिए। 33780 x 3 = 101340
5. पाप कर्मो को पूर्णतया नाश करने के भूत, भविष्य, वर्तमान, 3) काल 101340 लिए। x 3 = 304020
337. साधना और चंचलता का मेल नहीं है, पंच परमेष्ठि और आत्मा (अपनी) 304020
शरीर की चंचलता सर्व प्रथम रोकना, घटाना x 6 कुल 1824120
ही साधना की प्रथम सीढ़ी है। 5 +1 = प्रकार से मिच्छामि दुक्कड़ दिया
338. कायोत्सर्ग सूत्र का दूसरा नाम ‘उत्तरी गया है।
करणेणं' का पाठ भी है। 332. मि = मृदुता, कोमलता तथा अहंकार रहितता के लिए है।
339. प्रायश्चित के अर्थ दिये गये है:- यथा छा = दोषों को छेदने त्याग । (छादने)
A) प्रायः बहुत, चित्त मन अर्थात जीव के
कर्म। मि = संयम मर्यादा में दृढ़ रहने के लिए। दु = पाप कर्म करने वाली आत्मा की निंदा B) पाप का छेदन करने वाला। के लिए है।
C) चित्त की शुद्धि-करण करता है। क = कृत पापों की स्वीकृति के लिए है।
D) प्रायश्चित कर लेने के बाद में जन मानस ड़ =उन पापों को उपशमाने के लिए, नष्ट में श्रद्धा की अपूर्व वृद्धि होती है। करने के लिए है।
E) दूषणों से मलिन आत्मा शुद्ध होकर 333. जीव का पर्याय वाची शब्द इन्द्र है, ऐश्वर्यशाली पुनः स्व स्वरुप में उपस्थित होती है। जीव होता है अजीव नहीं, संसारी आत्माओं
340. सामान्यतः पाप करने वाला व्यक्ति को जो कुछ भी बोध होता है, वह सब
जनमानस की नजरों में गिर जाता है, इन्द्रियों से ही होता है।
लोग घृणा से देखते हैं, क्योंकि सामान्यतः 334. जिस प्रकार घर (गृह) की सफाई करने से जनता में आदर धर्माचरण का होता है,
पहले कचरा कहाँ-कहाँ है, दिखाया या । पापाचरण का नहीं।
Page #287
--------------------------------------------------------------------------
________________
341. पाप कर्ता जब शुद्ध हृदय से प्रायश्चित कर | 348. शल्यों का त्याग और पाप कर्मो का नाश
लेता है, अपने अपराध का उचित दण्ड ले | कायोत्सर्ग से होता है। लेता है, तो लोगों का मानस भी बदल जाता
349. कायोत्सर्ग = काय के व्यापारों का त्याग है। वे प्रेम व गौरव की दृष्टि से देखते है।
निश्चल होता है, शरीर की अशक्य परिहार 342. सुव्रती बनने की प्राथमिकता शल्य रहित क्रियायें रहती है, शरीर के प्रति ममत्व भाव होना।
टुटता है, दृढ़ता बढ़ती है। 343. “शल्य ते ऽ नेन इतिशल्य" जिसके द्वारा 350. कायोत्सर्ग में आगार 12 प्रकार दिए है
अन्तर में पीड़ा-सालती रहती है, कसकती उसके सिवाय भी “एवमाइएहिं आगारेहिं" रहती है, बल व आरोग्य की हानि होती
अन्य कोई कारण हो। है, जैसे तीर भाला आदि। भाव-शल्य दुःख
351. कायोत्सर्ग पारने से पहले णमो अरिहंताणं की मात्रा को बढ़ा देता है।
बोले यह संकेत है कि जैन धर्म में अरिहन्त 344. जिस प्रकार कांटा तीर आदि शरीर में चुभ परमात्मा को विशिष्ट स्थान प्राप्त है।
जाने पर पीड़ा होती रहती है। चैन नहीं अरिहन्त ही अरि (शत्रु) को दूर करते हैं। पड़ता है। उसी प्रकार अध्यात्म क्षेत्र में
352. आचार्य हेमचन्द्र ने योग शास्त्र में अभग्गो 'माया' आदि शल्य अन्तर्हृदय में घस जाते
और अविराहिओ का अर्थ किया है “अभग्न" हैं तो साधक की आत्मा को शान्ति नहीं
का अर्थ पूर्णतः नष्ट न होना, “अविराहित मिलने देते हैं, हर समय व्याकुल-बैचेन
देशतः" (अंश रुप नष्ट न होना) किए रहते हैं। किसी को प्रताड़ना देना,शल्य
353. गृहस्थ जीवन और संयम जीवन दोनों में से कम नहीं है।
बार बार कायोत्सर्ग करने का अभ्यास करना 345: अहिंसा सत्य आदि “आध्यात्मिक स्वास्थ्य"
चाहिये। है, वह 'शल्य' के द्वारा चौपट हो जाता है,
354. काउस्सग की क्रिया से जीवन में होने वाली साधक आध्यात्मिक दृष्टि से बीमार हो जाता है। अन्दर में हए रोग शल्य से भी
भूलों का परिमार्जन तथा विशुद्धि करण, भयानक दुःख देते है।
परिशोधन होता है। 346. शल्य तीन 1. माया शल्य | निदान शल्य 355. बिना मन से लापरवाही से व अजागृति (भोग आदि को चाहना धर्माचरण के बदले
से किया गया 'काऊस्सग' उतना लाभ में) 3. मिथ्या दर्शन शल्य (असत्य का नहीं देगा | कितना भी बड़ा श्रावक या आग्रही होना)। द्रव्य-शल्य शरीर को दुःख साधु पद हो, बिना जागृति (नींद आती देते है, जबकि भाव-शल्य मन के अन्दर में
है) न तिरेगा न तारेगा। “संवत्सरी - दुःख देते है।
काउस्सग" में जो सोता है, झोका खाता 347. “उत्तरीकरणेणं" के पाठ का सार यह है कि
है? क्या होगा? गच्छ को डुबायेगा। आत्मा की स्वस्थता हेतु प्रायश्चित भाव शुद्धि
356. सर्व प्रथम आलोचना सूत्र से प्रतिक्रमण के बिना नहीं हो सकता है भाव शुद्धि हेतु
करके आत्मशुद्धि की विधि बतलायी गई, शल्य का त्याग जरुरी है।
माहिया
Page #288
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्पश्चात विशुद्ध उत्कर्ष हेतु “प्रायश्चित” रुप | 364. ऐसे धर्म तीर्थ की (सत्य आदि) स्थापना
कायोत्सर्ग करने का विधान बताया गया है। करते है, वे तीर्थंकर कहलाते है। 357. दोनों क्रियाओं के बाद भक्ति सुधा के अहो
365. राग, द्वेष, कषाय, इन्द्रिय, परिषह उपसर्ग भावों में 24 तीर्थंकरों के नाम तथा संक्षिप्त
तथा अष्ट विध कर्म के जीतने से जिन रुप से गुण स्मरण किया गया। ‘सामायिक'
कहलाते है। जिन नाम तीर्थंकर का पर्याय के आदि कर्ता तीर्थंकर देव ही होते है।
वाची नाम है। 358. तीर्थंकर (24) स्तुति को भावों से करने पर
366. जैन धर्म “तीर्थंकर वादी” है परन्तु ईश्वर सम्यग् दर्शन का निर्मली करण होता है।
वादी नहीं। धर्म श्रद्धा गहरी होती है।
367. सभी तीर्थंकरों ने अपने समय में चारित्र
धर्म (अहिंसा सत्य आदि) आत्म धर्म की 359. भगवत्स्मरण (नाम) को शुन्य न मानें! श्रद्धा
स्थापना की है, अधर्म में लगी तथा धर्म व विश्वास का बल लेकर आप स्मरण करोगे
से भ्रष्ट हुई जनता को पुनः धर्म में स्थिर तो विश्व की निधियाँ आपके श्री चरणों में
किया है। धर्म के 'सन्मुख' करते ही है। होगी। 'लोगस्स' का सदैव स्मरण करते रहो।
368. हमारे आदर्श वे ही होने चाहिये जो भूतकाल
में सकर्मक होकर भी सत्य-अहिंसा 360. ऋषभदेव का नाम आदि धर्म पुरुष रुप, आध्यात्मिक साधनो के बल पर व अरिहंत
नेमिनाथ दया पुरुष, प्रभु महावीर क्षमा जिन बन गए। हमें भी वही बनाना चाहते पुरुष, गजसुकुमाल मुनि मोक्ष (क्षमा) पुरुष हैं, जो खुद बने है। आदि आदि आते है।
369. नाम नन्हा है तो भी श्रद्धा का जल, ज्ञान 361. प्रभु महावीर व गौतम स्वामी का नाम लेते का कागज तथा चारित्र की कलम से लिखते
ही उनका जीवन याद आता है न । “नाम ही जाइए, लाभ ही लाभ है। में बहुत शक्ति होती है।"
370. सूखी स्याही की टीकिया कुछ नहीं कर
सकती है। बिना श्रद्धा ज्ञान व चारित्र के 362. तीर्थंकरो के नाम स्मरण कीर्तन संबल रुप
नाम स्मरण से क्या लाभ होगा? है। एक धुन व लय से स्मरण कीजिए:, उनका पथ हमें जरुर जरुर मिलेगा। हम
371. किसी से रुपये लेने है, जज पूछता है कि भी उन्ही के पथ पर चलेंगे। उच्च भावनाएँ
क्या नाम है? नाम नहीं बताने पर क्या जागेगी ही।
"केस" चलेगा? नहीं!
372. चौरासी में भटकते हुए जीवों को मोक्ष मार्ग 363. “तीर्थते ऽ नेन इति तीर्थम् धर्म एवं तीर्थम् ।।
दाता का नाम आलस्यवश कि वा उद्दण्डताआचार्य नमि।। अर्थात् संसार समुद्र से तिरने
वश भगवान का गुण कीर्तन न करे तो (हमारा वाला दुर्गति से उद्धार करने वाला “धर्म"
चुप रहना) अपनी वाणी को निष्फल करना ही सच्चा तीर्थ' है।
Page #289
--------------------------------------------------------------------------
________________
373. महापुरुषों का स्मरण हमारे हृदय को पवित्र | सिद्धि प्रभु नहीं देते, भक्त स्वयं ग्रहण
बनाता है, तेज बुखार में बर्फ की पट्टी (प्राप्त) करता है। समान शीतलता देने वाले तीर्थंकरो के नाम
381. अरिहन्त परमात्मा का ही बताया हुआ मार्ग स्मरण होते हैं। उपकारी को कभी न भूलो।
होने से, (उन्ही से प्राप्त हुआ) अहम् को 374. “देहरी दीपक न्याय" की तरह अन्दर व तोड़ने व पीछे परम्परा में "विनम्रता” बनी
बाहर दोनों प्रकाशमान करते है। 'धर्मी' स्वयं रहे यही भाव है। “विनय समाधि" धर्म का तथा 'पर' का कल्याण करता है।
देता है। 375. जैसी “श्रद्धा” होती है जैसा विश्वास रहा
382. जैसे व्यवहार में शीशु को चलना, बोलना होता है, वह वैसा ही बनता है। पुद्गल आदि क्रियाएं माता सीखाती है फिर भी स्वभाव से टूटते ही हैं, जीव विभावों से बड़ा होने के बाद भी उपकार तो माता सम्बन्ध तोड़ते हैं।
पिता का मानता ही है ना? अपनों को 376. वीरों के नाम से वीरता जागती है, कायरों कभी न भूलों। के नाम से कायरता जागती है। “यशस्वी
383. श्री कृष्ण महाराज, अर्जुन की तरफ से का साथ छोड़ना" आत्महत्या से भी भयंकर
सारथि बने, परन्तु युद्ध तो अर्जुन ने ही
किया था, अध्यात्म रण क्षेत्र में भी मार्ग 377. मन एक स्वच्छ कैमरा है, जैसी वस्तु या दर्शन अरिहन्तो का मिलेगा, परन्तु साधना
व्यक्ति की ओर अभिमुख होगा ठीक उसी के शस्त्र तो हमें ही उठाने होंगे, कषाय - का आकार अपने में धारण करलेगा। कसाई, वासनाओं से तो अर्जुन की तरह हमें ही साध्वी या साधु भगवान जिसका नाम लेंगे लड़ना होगा। हे वीर! जागे रह!!! 'हमारे भीतर वैसी ही आकृति बनेगी,
384. 'महिया' का पाठान्तर “मइआ" भी मिलता महापुरुषों का नाम लेते ही महामंगल दिव्य रुप आकार हमारे सामने आयेगा। (प्रवृति)
385. चतर्विशति स्तव जिन मद्रा या योग मद्रा में 378. जैन धर्म की प्रार्थना का आदर्श यह है कि
पढ़ना चाहिये। अस्त व्यस्त दशा में पढ़ने अपने आत्म निर्माण की सुन्दर कामना
से स्तुति का आनन्द रस नहीं मिलता है। करें। सद्गुणों को प्राप्त करने की भावना
सुखासन व विनम्रता के भावों से बैठे। भाएँ।
386. “अप्पाणं वोसिरामि” पाप व्यापार से आत्मा 379. जैन धर्म में भगवंत स्मरण केवल श्रद्धा के
को अलग करता है। बल को जागृत करने के लिए ही है। उमंग बिना जीवन निःसार होता है।
387. आत्म भूमि में सामायिक का बीजारोपण
प्रतिज्ञापाठ “करेमि भंते” के सूत्र द्वारा किया 380. “सिद्धा सिद्धिं मम दिसन्तु” इस पर अलग
जाता है। अलग चिन्तन रखे गए है, प्रभु तो वीतरागी कुछ नहीं किसी का करते है, परन्तु आलम्बन | 388. सामायिक अर्थात पाप व्यापार-त्याग रुप लेकर भक्त तो सब कुछ कर सकता है, है, प्रत्याख्यान स्वरुप है।
Page #290
--------------------------------------------------------------------------
________________
है।
389. मन वचन और काया की दुष्ट प्रवृतियों का | 396. 9 कोटि का अर्थ क्या है? तीन करण तीन
स्वीकृत नियम पर्यन्त त्याग करके मन से योग से पापों का त्याग नव कोटि कहलाता दुष्ट चिन्तन, वचन से दुष्ट वचन तथा काया से हिंसा नहीं करने की प्रतिज्ञा ही सामायिक
397. श्रावक की सामायिक में पापों का त्याग छ
कोटि से इस प्रकार भंग बनते है - करूँ नही 390. अपनी आत्मा पूर्व में पाप व्यापार में थी, मन से, करूँ नहीं वचन से, करूँ नहीं काया उसका प्रतिक्रमण प्रायश्चित करके पाप को
से, कराऊँ नही मन से, कराऊँ नहीं वचन वोसिराता हूँ तथा संयम व सदाचार को से, कराऊँ नहीं काया से। धारण करता हूँ, यही दो घड़ी का आचार
398. “ईमानदारी” ही व्रतों के प्रति निष्ठा बढ़ाती ही “सामायिक" प्रतिज्ञा पाठ है। “वचन
है और आराधक बनाती है। अपनों से निष्ठा बद्धता को तोड़ना नहीं चाहिए।"
कभी न तोड़े। 391. सामायिक का आदर्श मात्र “वेश-बदलना
399. भंते शब्द से भगवान (गुरु) को विनम्रता से ही नहीं" जीवन में चंचलता आदि घटनी
निवेदन किया जाता है। ही चाहिए।
400. भंते-भगवान-वीतरागी जागृति ही है, “मुझे 392. खेद है, विडम्बना है कि “नित्य सामायिक
भी पूर्ण तथा जागृति व निष्ठा से सामायिक करने वाले और नहीं करने वालों दोनों
करनी है" ऐसा सोचें। का बाह्याचार, कषायों, क्लेशों, आरोपों, प्रतिआरोपों और अण बनावों से खदबदता 401. सावद्य (सावय) अर्थात निन्दनीय, निन्दा है तो सही मायने में सामायिक का असर के योग्य कर्म। अतः जो कार्य निन्दनीय भीतर अन्तरंग में नहीं हुआ समझना
है, उसका ही तो सामायिक में त्याग किया चाहिये। युवा वर्ग ऐसे धर्म से धार्मिक नही जाता है। वर्जने योग्य कार्यों को सावध बनते है। आचरण का ही भारी प्रभाव पड़ता कहते है।
402. निन्दनीय कर्मो की प्रवृतियों के हटने से मन 393. “सामायिक" अर्थात दो घड़ी तक समस्त में निर्मलता पवित्रता बढ़ती है। प्रथम पांच जीवों से मैत्री सम्बन्ध हो जायें। “मैत्री ही
आश्रव निन्दनीय माने गए हैं। साधना का प्रथम द्वार है।"
403. सावद्य योगों का त्याग “पुण्यानुबंधी पुण्य" 394. “पूणिया" श्रावक जैसी शुद्ध सामायिक वाले का बंध कराता है। (सकषाय अवस्था तक) आज विरले ही मिलते है। परिग्रह - वृद्धि
404. “सामायिक' एक प्रकार का "अभयदान" से विकल्प संकल्प बढ़ते है। श्रमण भ.
ही है। महावीर प्रभु ने पूणिया श्रावक की प्रशंसा
405. दस लाख गायों का प्रति मास-मास दान की थी। (सामायिक का मूल्य)
देवे, उससे भी “संयम" को ऊँचा बताया 395. सर्व विरत सामायिक 9 कोटि से होती है,
है। सम-भाव लावो। (नमिराजर्षि ने इन्द्र को जब कि देश विरती सामायिक छ: कोटि से
कहा था) होती है।
Page #291
--------------------------------------------------------------------------
________________
406. सामायिक अर्थात कषाय मन्दीकरण ज्यों | है; परन्तु ऐसा न समझे कि हिंसा असत्य
ज्यों साधक का कषाय मन्द होता जाता है, एवम् पापों की प्रशंसा करता होवे, यदि
उसके कर्म बन्ध भी मन्द होते जाते है। पापों की खुले आम प्रशंसा आदि करे तो 407. दसवें गुण स्थान तक “सम्पराय बंध" (कषाय)
सामायिक के भाव आना ही असंभव है। माना है। 11,12,13 वे गुण स्थानों में मात्र 414. भगवती सूत्र में गृहस्थी सामायिक में रहा योगों से बंध होता है।
हुआ भी ममत्व नहीं छोड़ने से सूक्ष्म रुप 408. आचार्यों ने दो घड़ी (मुहूर्त) प्रमाण समय
से सावध की क्रिया लगती है। श्रृंखला देशविरतिका काल मान नियत किया है।
टूटी नहीं है। (सामायिक का)
415. साधक दुकान-कारखानों-परिग्रहादि की तो 409. सामायिक में “अनुमोदन" खुला होने पर
'सामायिक' में प्रशंसा प्रेरणा करता ही नहीं भी पाप या “सावद्य” की अनुमोदना में रस नहीं लेना चाहिये।
416. वस्तुतः आत्मा स्वभावतः क्षमाशील, विनम्र 410. श्रावक गृहस्थ में होने से उसका एक पांव
है सरल है, संतोषी ही है, परन्तु कर्मो के संसार मार्ग में है तो दूसरा पाँव मोक्ष मार्ग
सम्पर्क (उदय) से क्रोधी, मानी, मायावी में है, पूर्ण त्यागी न होने से 'अनुमोदन'
और लोभी बना हुआ है, स्वभाव अपने खुला है। ममता का तार पूरी तरह नहीं
आप होता है, विभाव दूसरों के सम्पर्क से टूटा होता है।
होता है, जैसे पानी तो शीतल ही होता है,
परन्तु आग के सम्पर्क से उष्ण हो जाता है, 411. निन्दा चाहे अन्य की करें, चाहे अपनी
आग से सम्पर्क हटने पर पुनः अपने आप करें, निन्दा से मन में हीनता-मलीनता
शीतल हो जाता है। उदासीनता आती है, जिसमें पर की निन्दा तो जघन्यतम कार्य है, दूसरों की बुराइयों
417. आत्म निन्दा करता हुआ पश्चाताप करताको रस लेकर करना तो “सुअर वृति" है।
करता गुण श्रेणियाँ आरोहण करता-करता
वीतरागी बन जाता है। 412. निन्दामि = निन्दा = यहाँ मात्र पापों की निंदा जाती है। अपने दुर्गुणो की निन्दा करनी
418. सावधानी रहे कि आत्म निन्दा पश्चाताप
तक ही रहे, ऐसा न हो जावे कि पश्चाताप ही चाहिये, निन्दा करते-करते पश्चाताप व प्रायश्चित के भाव पैदा होने ही चाहिये,
की ‘मंगल सीमा' उल्लघंन करके शोक ग्रस्त तभी निन्दामि गरिहामि' हमारी आत्मा
हो जावे। (दबाव या तनाव) में न आ जावें। को हल्का (कर्मो से) बनाएगी, मानसिक 419. पश्चाताप आत्मा को सबल बनाता है परन्तु शांति बढ़ेगी।
शोक निर्बल बनाता है, भयभीत बनाता है। 413. सामायिक में श्रावक परिवार परिग्रह से नाता | 420. शोक में साहस का अभाव तथा कर्तव्य नहीं तोड़ा होने से “अनुमोदना” खुली रहती बुद्धि का शून्यत्व हो जाता है। “शून्य-आकाश
वत् न बनें" (शिक्षा)
Page #292
--------------------------------------------------------------------------
________________
421. किसी भी वस्तु का “विवेक शून्य - अतिरेक" मुख द्वार तक लाता है, बाहर निकालना जीवन के लिए घातक ही होता है।
चाहता है; परन्तु ज्योंही अप्रतिष्ठा अपयश “विनयशीलता" में कमी न आवे।
की ओर दृष्टि जाती है त्यों ही चुपचाप
कुड़ा करकट घर के अन्दर की तरफ डाल 422. प्रतिष्ठा के झूठे अभिमान को त्याग करके
देता है। (त्याग कर) पूर्ण सरलभाव से गुरुदेव के समक्ष अपने हृदय की गाँठे खोल देता है,
429. “गर्दा करना” दुर्बल साधक के वश की बात उसे गर्दा कहते है।
नहीं है। 423. आत्म निन्दा से भी “गर्दा” में आत्म बल गर्दा “सउद्धेश्य” होती है पावाणं कम्माणं
की अधिक आवश्यकता होती है। गुरु साक्षी अकरणाए (अब्भुठि - ओमि) आत्मा के लिए महान सम्बल होता है।
430. 'गर्हा' से आत्मा की हम गंदगी को धोकर 424. एकान्त में स्वयं ही आत्म आलोचना करना
साफ करते है, छुपाकर नहीं रखते है, जहाँ "निन्दा" है जबकि गुरु आदि के समक्ष दुराव, छुपाव है वहीं जीवन का विनाश है। पश्चाताप की भट्टी में पापों को क्षय कर डालना स्वयं से क्या छिपा सकता है। ही गर्हा' है।
सामायिक एक आध्यात्मिक व्यायाम है, 425. मनुष्य अकेले में अपने आप को धिक्कार स्वयं से स्वयं का एकीभूत होना है। अन्तराय
सकता है परन्तु दूसरों के सामने अपने आप को आचरण हीन, दोषी और पापी
431. “अप्पाणं वोसिरामि" आत्मा को अपने आप बताना बहुत ही कठिन काम है।
को त्यागना है, “पाप कर्म से दूषित" हुए 426. संसार में “प्रतिष्ठा -रुप” महाभूत बहुत को त्यागना ही आत्मा को त्यागना है। आत्मा बड़ा काला सांप है। अपनी अपनी प्रतिष्ठा
में रहे - छिपे पापों को छोड़ना है। बनाने में लगे हुए है। (गच्छापतियों व
432. महावीर स्वामी का मूल कथन यह है कि - . आचार्यो को प्रायः ज्यादा सताती है)
मन को वासनाओं से खाली करके, कुसंस्कारों 427. कैसी विडम्बना है कि हजारों लाखों लोग का त्याग कर दे और सामायिक रुप अध्यात्म
प्रतिवर्ष गुप्त पाप दुराचार आदि के प्रगट जीवन स्वीकार करें। होने के कारण होने वाली अप्रतिष्ठा से
433. एक सामायिक तक मत रुकना, सामायिक घबराकर जहर आदि खाकर “आत्म
जीवन के “समस्त सद्गुणों” की आधारभूमि हत्या" कर लेते है, येन केन प्रकारेण आत्म
है, इसे छोड़ना मत, बढ़ाते ही रहना है। हत्या कर लेते है। “आत्मा हत्या" क्षणिक छुटकारा कर देती है, आगे तो घोर | 434. लोगस्स का पाठ अपने आराध्य के श्री अन्धकार! (परन्तु पश्चाताप व प्रायश्चित नहीं चरणों में श्रद्धा के सुमन अर्पण कर, करते हैं।
आत्मरुपी पवित्र भूमि “करेमि भंते” के पाठ
से सामायिक का बीजारोपण करता है, 428. मनुष्य पापों की झाड़ बुहार कर आत्मा के |
सामायिक कल्पवृक्ष का सूक्ष्म बीज है।
टुटना।
Page #293
--------------------------------------------------------------------------
________________
435. सामायिक के बीज बोने के बाद पुनः भक्ति योग स्वरूप नमोत्थुणं का पाठ किया जाता है।
436. जो जो गुण तीर्थंकरो ने “सामायिक की साधना” से ही प्राप्त किए। वे ही गुण साधक के समझ में आवे, अतः गुणगान गुणों का करना है।
437. तीर्थंकर स्तुति के साथ-साथ नमोत्थुणं, में वीतराग प्रभु के अनुपम गुणों का मंगल गान किया गया है।
438. भक्ति और भावों से एक-एक गुण पर चिन्तन करें तो इसी में ही बहुत कुछ प्राप्त हो
जायेगा।
439. गुणाः “पूजा स्थानं गुणि षु न चलिंग न च वयं” अर्थात गुण ही पूजा का कारण है, वेश या आयु नहीं।
440. पुरुषोत्तम अर्थात उत्तम श्रेष्ठ ! बाह्य व आभ्यन्तर दोनों से उत्तम होते है।
441. पुरुष सिंह अर्थात यहाँ भगवान को सिंह की उपमा देना, वीरता और पराक्रम से ही है, उपमा एक देशीय होती है।
442. मनुष्यों के दो प्रकार 1. कुत्ते के समान लाठी को पकड़ते है जब कि दूसरे सिंह के समान, लाठी मारने वाले को पकड़ते है। मूल शत्रु को पकड़ते है, तीर्थंकर प्रभु भी आत्म शत्रुओं (अज्ञान - मोह) को जीतते है । मेरा कोई दुश्मन नहीं है।
443. तीर्थंकर अन्य जीवों को शत्रु ही नहीं समझते है, परन्तु आभ्यन्तर अज्ञान मोह रुपी शत्रुओं पर स्वयं अपनी शक्ति एवम् साधना से विजय प्राप्त करते है।
269
444. पुरुषवर पुन्डरीक अर्थात् श्वेत कमल की उपमा तीर्थंकर को दी गई है, सौन्दर्य रुपी गुणों एवम् सुगन्ध रुपी यशोकीर्ति तीनों लोकों में फैली हुई है।
-
445. कषाय
भाव नहीं होने से श्वेत कमल की उपमा दी गई है।
-
446. गन्ध हस्ती सिंह की उपमा वीरता, पुन्डरीक कमल की उपमा सुगंध से दी गई है, जबकि वीरता एवं सुगंध ये दोनों उपमाएं मिश्रित रुप से गन्ध हस्ती पर लागू होती है।
-
447. तीर्थंकर को गंध हस्ती समान कहने का आशयतीर्थंकर की उपस्थिति मात्र से “पाखण्ड मत”, रोग, वैर विरोध अतिवृष्टि, अनावृष्टि आदि छिन्न भिन्न हो जाते है।
448. लोक प्रदीप समान अर्थात मिथ्यात्व रुपी घोर घनी भूत अंधकार को नष्ट कर सन्मार्ग का पथ केवलज्ञान से दिखाते है।
449. दस लाख योद्धाओं को जितनी सरलता
से जीता जा सकता है विषय विकारों से भरे काषायिक कुसंस्कारों को जीतना उतना ही महा मुश्किल कार्य है।
450. (अतएव )! अरिहंत ही श्रेष्ठ होते है, जिन्होंने आत्म शत्रुओं पर विजय प्राप्त करली। अपने ही शत्रु भीतर रहे होते है।
451. भगवान शब्द के छह अर्थ आचार्य हरिभद्रसूरि ने दिए है
1. ऐश्वर्य - प्रताप
2. वीर्य शक्ति या उत्साह
3. यश - कीर्ति
4. श्री शोभा
-
Page #294
--------------------------------------------------------------------------
________________
5. धर्म - सदाचार
460. चक्षुदाता - अर्थात् जिस तरह शरीर में
आँखों की ज्योति की क्या कीमत होती है 6. प्रयत्न - परिश्रम
उसी प्रकार प्रभु भी भव्य जीवों को श्रुतज्ञान उपरोक्त छह ही पूर्ण रुपेण परिभाषाएं लागू की आँख देते है, अंधे को आँख मिल होती है, वे ही भगवान कहलाते है।
जाय तो कितना आनन्दित होता है, ज्ञान
से ही विवेक की आँख खुलती है। विनय 452. प्रत्येक तीर्थंकर “द्वादशांगी" की स्वयं अर्थ रुप देशना देने से आदिकर कहलाते हैं।
से ही ज्ञान - विद्या आती है। धर्म के आदि कर्ता होते है। आदिनाथ भी | 461. धर्म चक्रवर्ती - चक्रवर्ती मनुष्यों के शरीरों कहते है। बारह अंग सूत्रों को “द्वादशांगी" पर शासन करते है जबकि धर्म चक्रवर्ती कहते है।
भीतरी कषाय अज्ञान दोषों को दर कराते
अतः वे हृदय सम्राट कहलाते है, शरीर 453. तीर्थ याने (घाट) भी होता है। नदियों को घाट से ही पार किया जाता है, तीर्थ याने
सम्राट - जो शरीरो पर राज करे। पुल भी है, जो तिरता है वह, भाव तीर्थ | 462. चक्रवर्तियों को भी कीचड़ से निकालने होता है। तिरता है - तिराता है तीर्थ।
धर्म चक्रवर्ती होते है, चक्रवर्तियों के 454. जीवों की तीन श्रेणियां 1. जगाने पर भी
भी चक्रवर्ती होते है। नहीं जगते 2. थोड़ा सा जगाने पर जग
463. छद्मस्थ अर्थात आवरण और छल। चार जाते है 3. कुछ जागे हुए ही होते है।
घाती कर्मो को क्षय करने से छद्मस्थता हमारा स्थान किस नम्बर पर है?
दूर हो जाती है। 455. तीर्थंकर स्वयं ही अपने आप प्रबुद्ध होने
464. कृत कृत्य होने के बाद भी केवल पर्याय में वाले, बोध पाने वाले होते है। जाग चुके
उपदेश इसलिए देते थे कि - “सव्वजगजीव होते है। “अपमाए"
रक्खण-दयढणाए। पावयणं भगवया 456. तीर्थंकर स्वयं ही अपने पथ - प्रदर्शक होते सुकहियं” सभी जीवों के कल्याणार्थ
है, तीसरी श्रेणी के जागृत ही होते है। जागे धर्मोपदेश दिया था। और जगावे!!!
465. सर्वज्ञ - सर्वदर्शी प्रभु पहले वीतरागी बनते 457. स्वयं तीनो लोकों के आत्म दीपकों को अपने है, कषायों को छोड़ना त्यागना ही जैन समान प्रकाशमान बनाते है। (पइवाणं)
साधना का रहस्य है, वीतराग अर्थात् 458. अभयदान के दाता- गौशालक को भगवान
चारित्राचार के पूर्ण पालक हो गये। ने बचाया, अनंत करुणाकर ने आकुल 466. “संपाविउकामाणं" मोक्ष की कामना रखने व्याकुल मानव जाति को अभयदान से
वाले ऐसे अरिहन्त भगवान। कामना का अर्थ निराकुल बनाया था।
यहां वासना या आसक्ति नहीं होकर ध्येय459. दोनों में श्रेष्ठदान अभयदान माना गया है, लक्ष्यता - उद्देश्य होना चाहिये।
सामायिक भी अभयदान ही है।
2700
Page #295
--------------------------------------------------------------------------
________________
467. नमोत्थुणं दो बार दिया जाता है- प्रथम
सिद्धों को व दूसरा अरिहन्तो को, टीकाओं व आगम में कुछ भेद। फर्क भी आया है। चिन्तन करने योग्य विषय है।
468. नमोत्थुणं के विभिन्न नाम मिलते है यथा, शक्रस्तव तथा प्रणिपात सूत्र (नमस्कार ) 469. स्तव-स्तुति मंगल गुणगान करने से ज्ञान, दर्शन और चारित्र रुप बोधि लाभ होता है, बोधि लाभ से साधारण दशा में कल्प विमान तथा उत्कृष्ट दशा में मोक्ष का आराधक होता है।
470. सामायिक व्रत के पाँच अतिचार 1. मन 2. वचन 3. काया ये तीनो को कुमार्ग में जोड़ा तो 4. सामायिक की स्मृति न रखी हो 5. अव्यवस्थित चंचलता आदि की हो।
= मन
471. सामायिक में चार दोष 1. अतिक्रम में अकृत्य का विचार लाना, 2. व्यक्तिक्रम अकृत्य सेवन की तैयारी करना, 3. अतिचार = व्रत भंग की सामग्री जुटा लेना या व्रत का अंशतः भंग होना, 4. अनाचार व्रत का टूटजाना, भंग करना।
472. प्र. मन की गति चंचल व सूक्ष्म होने से सावध - भाव मन में आने से सामायिक टूट जाती होगी ना? प्रतिज्ञा भंग का दोष भी लगेगा।
उत्तरः सामायिक छः कोटि से लेते है, एक कोटि मन से टूट गई तो पाँच तो बची है ना; विराधना के भय से प्रतिज्ञा न लेना तो मूर्खता है। उतार चढ़ाव अपूर्ण में ही तो
आते हैं।
473. सामायिक व्रत तो शिक्षाव्रत है, निरन्तर अभ्यास करने से ही सफलता मिलती है,
271
अभ्यास जारी रखिए, एक दिन मन पर नियन्त्रण हो जाएगा।
474. सामायिक को काया से (समाइय सम्मकाएणं) अर्थात जीवन में समभाव को लाये हैं। न फासियं = सामायिक के भावों को स्पर्श न किया हो, आत्मा में स्पर्श न हुई, न पालियं = अतिचारों को टालकर सामायिक न की हो । न तीरियं = सामायिक के काल मान के अंतिम क्षण तक पालन न की हो, न किट्टियं = कीर्तन (गुणानुवाद) या सामायिक प्रति बहुमान भाव न रखे हों। न सोहियं सामायिक के परिणामों में उत्तरोत्तर शुद्धि विशोधन न किया हो। न आराहियं = उत्सर्ग व अपवाद दोनों मार्गो से आराधना नही की हो, आणाए अणु पालियं न भवईः अर्थात तीर्थंकर व देव गुरुव श्रुत ज्ञान में निर्दिष्ट के अनुसार पूर्णतया, तीन योगों की एकाग्रता से पूरी पालन न की हो। तस्स मिच्छामि दुक्कड़म् = मुहूर्त प्रमाण काल (मेरे) द्वारा दुष्कृत का सेवन किया हो तो, उसका पाप मिथ्या हो, निष्फल हो। हे! वीतराग सामायिक में किसी दोष (संज्ञा इन्द्रिय आदि से) का सेवन किया, हो तो मिथ्या होवे।
=
475. आत्मा में रमणता आना ही सामायिक का प्रथम लक्षण है। आत्मा का स्वस्थता की ओर प्रयाण शुरु |
476. विषमता स्वयं दुःखी और दुःखों की जननी है और समभाव स्वयं सुखी और सुखों की जननी है।
चारित्र आत्म शुद्धि करण करता है, सामायिक से ही चारित्र (सर्व देश) प्रारम्भ होता है।
Page #296
--------------------------------------------------------------------------
________________
477. राग-द्वेष से ही आत्मा अजीवों में जुड़ा है - | सामायिक का स्वाद शुद्धता के आधार
फंसा है। जीव का अंतिम समाधि स्थान पर ही मिलता है। अव्याबाध सुख बीज तो सामायिक ही है।
485. ठाणांग सूत्र में आत्म-कल्याण के दो बोल 478. आवश्यक (प्रतिक्रमण) में 'सामायिक' न बताए है, 1. विद्या और 2. चरण। सम्यक आवे तो पाँचो आवश्यकों में उत्कृष्ट रसायन
ज्ञान और दर्शन को विद्या' माना गया है, नहीं आ सकता है।
तथा सम्यक चारित्र और तप को 'चरण'
बताया है। 479. तीर्थंकर देवों, गणधरो, आचार्यो, उपाध्याय व साधु भगवंतो ने इसी सामायिक धर्म की
| 486. “विद्याचरण" की आराधना ही मानव जीवन ही सेवना (पालना) की है, करते है और
का सार है। बिना ‘चरण' के विद्या अधूरी भविष्य में भी करेंगे।
है और बिना विद्या' के चरण लक्ष्य हीन
होते है। दिशा-निर्देश ‘मन' को साधना ये 480. मानव सामायिक की आराधना जितनी
काम विद्या' करती है। ‘काया' से तपउत्तम, पवित्र, श्रेष्ठ, श्रेष्ठतर कर सकता
चारित्र में अभिवृद्धि होती है। चारित्रतप से है। अन्य जीव चाहे सर्वार्थ सिद्ध का देव
आत्म द्युति-चमक (विद्या) बढ़ती ही रहती भी हो तो मुहूर्त प्रमाण 18 पापों का त्याग
है। चारित्र के बिना (सामायिक का मार्ग नहीं कर सकता है।
चारित्र ही है।) कैवल्य ज्ञान रुपी परम लक्ष्मी 481. बुद्धिमान मानव! जीवन में अनमोल अवसर प्राप्त नहीं होती है। बार बार नहीं मिलता है, “प्रतिदिन एक
सारः अनंतानंत तीर्थंकरों से आसेवित, परम सामायिक तो मुझे करनी ही है" ऐसा
हितकारी परम कल्याणकारी, परम शांति, संकल्प करें।
परम सन्तोष, परम विनय, परम सदाचार, 482. परिवार - पद - परिग्रह, प्रतिष्ठान यही आत्मा-त्राता, आत्म-गवेषक निर्मल, पावन
छूटने वाले है, पशुता से दो घड़ी तो बाहर पवित्र, “सामायिक-मार्ग" ही मोक्ष मार्ग आओ।
का प्रधान अंग है। तीनों योगों की शुद्धिकरण
सामायिक ही करता है। संसार में सामायिक 483. जय जिन धर्म - जय जिनेश्वरों की हो,
के (भावों के) आधार पर ही अव्याबाध सुख हमारे भावों में सामायिक से ही पवित्रता -
का प्रकटीकरण होता है। परम न्याय, परम आयेगी। तू स्वयं निर्मल' बन जायेगा। तू
भाव, परम चारित्र तथा परम तप सामायिक स्वयं 'जिनेश्वर' बन जायेगा।
में ही रहते है। 484. अनंत तीर्थंकरों ने जिस महामार्ग (सामायिक पथ) का सेवन किया, क्या वह मार्ग इतना
आओ!!! सामायिक रुपी “कल्पवृक्ष" के
नीचे हमेशा बने रहे। समता भावों से ही कच्चा हो सकता है? नमस्कार के पाँच पदो
सामायिक में निखार आता है। पर श्रद्धा है, तो पीछे मत हटो (हट)।
* इति
Page #297
--------------------------------------------------------------------------
________________
“विनय बोधि कण"
पारदर्शी परख (धनाक्षरी छन्द) विनय-बोधि कण में, भरा ज्ञान का आगार, विनय मुनि खींचन, किया उपकार है। प्रश्नों के सही उत्तर, ज्ञान बढ़े निरन्तर, जिन-धर्म का मर्म ही, समझाते सार हैं। पालें शुद्ध साध्वाचार, भाए न शिथिलाचार, शिविराचार्य पण्डित, रहें निर्विकार हैं। पारदर्शी का वन्दन, विनयमुनि चरण, पाएँ दीर्घायु - जीवन, जपे नवकार हैं। क्षमा-पर्व - २००७ गुनाह यदि कोई हुआ, हम सबसे स्वयमेव। माँग- पारदर्शी रहा, क्षमा-दान गुरुदेव ।।१।। विनय मुनि 'खींचन' लिखते, विनय बोधि कण ग्रंथ। पूछे पारदर्शी प्रश्न , उत्तर देते सन्त ।।२।।
गुरु चरणोपासक छन्द राजॐ पारदर्शी उदयपुर (राज.)
सतत् साहित्य लिख रहा पाने हित सहकार।। खोज रहा हर पत्र में गुरूवर चातुर्मास। आज अचानक पा गया अन्तर मन उल्लास ।। पावस दर्शन भावना रखता प्रभौ विशेष। अन्तराय बल कब मिटे नित्य मनन प्राणेश ।। एक बार पुनः वन्दना सादर लो स्वीकार। प्रेषित करता पत्र शुभ दीपक कलम पुकार।। भोपालगढ़ समीप में रूदिया नगर निधान। दीपक उप आश्रय यहां जोधपुर राजस्थान।।
“विनय बोधि कण"
श्रद्धा पद्य - पत्रम् महामहिम महितलमहक कोविद कुल श्रृंगार । न्यायनिष्ट निर्ग्रन्थवर स्पष्ट प्रवचन कार ।। आगमज्ञ आत्मज्ञ हो जिनाकाश भास्वान। श्रमण विनय खींचन' खरे चतुर्थतीर्थ के प्राण।। सुख पृच्छा अभिवन्दना सादर लो स्वीकार। दूर स्थित मी देह से करता शत शत बार।। दर्शन गांधीनगर (बेंगलोर) में हुए अचानक नाथ। अब तक दीपक दिल बसें करता नमन प्रभात ।। गुरुवर क्रिया आपकी अहो! देख प्रत्यक्ष। नत मस्तक दीपक बना सच्चे संयम रक्ष।। मिला लाभ गुरुदर्श का अल्प वक्त भगवन्त। पाद् पद्म सेवा रसिक नित्य चाह अत्यन्त।। मेरे मानस भवन में वास करे प्रतिपाल। दंर्शन कब हो आपके यह इच्छा चिरकाल।। श्रमणाश्रित उर लेखिनी इंगित के अनुसार।
विनय बोधि कण' देखकर पायी खुशी अपार। विनय मुनि जी आपको, वन्दन बारम्बार || दिव्य कलम से आपने, पैदा किये सवाल।
आगम से उत्तर दिये, सचमुच यह कमाल।। जिज्ञासु की भावना, करे जो इसका बोध। विनय मुनिश्री आपका , है यह पावन शोध।। चित्र युक्त झांकी बहुत, ऊँचा करे चरित्र। पुस्तक पढ़कर होगये, गदगद मेरे मित्र।। मन मेरा गुरुदेव की, करता जय जयकार। समाधान हर प्रश्न का, जिनवाणी का सार।। प्रश्न जड़े मोती सरिस, मन का भरम मिटाय। 'खटका' कर स्वाध्याय से, विनय भाव प्रकटाय।। धन्य प्रकाशन कर हुआ, सच मेहता परिवार। विनय बोधि कण' का करे, जग सारा सत्कार।। जिनवाणी से युक्त है, ग्रन्थ बड़ा अनमोल। मोती बिखरे पृष्ठ पर, पाये पुस्तक खोल।। प्रुफ की गलती रह गई। आगे करे सुधार। श्री विनय मुनि खींचन गुरु, मन बोले जयकार।। गुरुवर के कर कमल में, पहँचे मेरा पत्र। 'खटका' त्यागी सन्त ही, खुशी करे सर्वत्र।।
डॉ. खटका राजस्थानी, बिजयनगर (राज.)
Page #298
--------------------------------------------------------------------------
________________
(पाठकों के विचार)
श्रीमान श्री इन्दरचन्दजी कोठारी, दि. २५-१०-२०१० | मुनिजी म, डॉ. अमरेश मुनि निराला, मुनिशालिभद्रजी
डॉ. चन्द्रप्रभाजी, उप प्रवर्तनी महासती श्री चारित्रप्रभाजी उभय कुशलोपरि । साम्प्रतं - आपके द्वारा संप्रेषित ‘विनय
म.सा ने पुस्तक का संक्षिप्त क्षणों का अवलोकन किया। मगर बोधि कण' ग्रन्थ प्राप्त हुआ । आद्योपान्त पठनीय है। मननकर हार्दिक प्रसन्नता हुई।
सभी के मुखारविन्द से प्रसन्नता के भाव प्रकट हुवे। पुस्तक
को ज्ञान-ध्यान-स्वाध्याय में लाभदायक बताया । पूज्य श्री महा. सा जी के इच्छाकार। महा.सा जी का अनूठा
विश्वदर्शन १४, राजु, आठ कर्मों के उत्तर भेद.. छहसंहनन प्रयास सार्थक सिद्ध हो, साथ ही अनुकरणीय है।
छह संस्थान, आत्मा, तीर्थंकर, कालचक्र, षट् द्रव्य एवं धार्मिक शिक्षा जगत के लिये यह अनुपम कृति है। जिसे उसका स्वरूप, नवतत्व, छःलेश्या की पहचान जम्बूवृक्ष, पाठक सहर्ष स्वीकारेंगे। सभी को हार्दिक अभिनन्दन। जम्बूद्वीप, ढ़ाईद्वीप... नक्षत्र मण्डल, निगोद से मोक्ष पर्यंत __ पू. भट्टारक श्री जैन मठा कनकागिरि (कर्ना)
आत्मा का विकास क्रम, चौदह गुणस्थान, कर्म व उसके गुण
दोषों के शानदार चित्रांकन प्रस्तुत किये गये। इन चित्रों के अखिल भारतवर्षीय श्वेताम्बर
अवलोकन, चिन्तन-मनन से भवी आत्मा का जरुर-जरुर
उद्धार होगा। अज्ञानता का प्रखर अन्धेरा दूर होगा। सभी स्थानकवासी जैन कॉन्फ्रेंस चित्र आत्मा के उद्धार एवं ज्ञान वृध्दन में अच्छे सहायक 'विनय बोधि कण पर सम्मति'
सिद्ध होंगे। बहुत ही सुरक्षता के साथ प्राप्त हई पुस्तक के प्रथम अवलोकन
विनय बोधि कण के चारों भागों को एक स्थान पर से मेरे प्यासे लोचन तृप्त हो गये और मन पुस्तक को पढ़ने प्रस्तुत कर गागर में सागर का महान ध्येय उपलब्ध किया। समझने और अध्ययन करने को लालायित होने लगा। समस्त प्रश्नज्ञान वर्द्धक है। चौथे भाग में सुखी जीवन एवं
उन्नत जीवनार्थ अच्छी बातें प्रस्तुत की है। इस पुस्तक के पुस्तक का विशिष्ट आकार, स्थल काया, सजिल्द मूल्य
लेखन, प्रकाशन आदि कार्यों में जिसने भी परोक्ष-अपरोक्ष सदुपयोग, बहुरंगीय इन्द्रधनुषाकार, आकर्षक मन मोहक,
रुप से सहयोग दिया, वे सभी साधुवाद के पात्र हैं। अन्त में सुन्दर मुद्रांकन, स्पृष्ट शीर्षक और अक्षरों का गठन, लेखन
आपश्री के उज्जवल भविष्य, उत्कृष्ट चारित्र की एवं दीर्घायुमें जागृति एवं विभिन्न तल स्पर्शी आत्मिक गुणों का
स्वस्थ आयु की मंगल मनीषा करता हूँ। प्रस्तुतिकरण व चित्रांकन को देख कर हृदय गद-गद और
वन्दन कर्ता पुलकित हो गया।
ताराचन्द जैन (गोलेच्छा) पाली मारवाड (राज.), स्व. मणिबेन कीर्तिलाल मेहता इतना अदभूत प्रकाशन नहीं देख पा रहे होंगे। मगर उनकी सद् प्रेरणा और श्रेष्ठ
'विनय बोधि कण' ग्रन्थ के प्रकाशक मेहता परिवार की श्रुत सहयोग से हजारों-हजारों आंखे पुलकित और हर्षित हो रही
अनुमोदना, तीर्थंकर गोत्र नामकर्म बांधने जैसा प्रयास होगी। डॉ. उषा, पंकज मेहता, कौशिक मेहता, परेश
सराहनीय है। अद्वितीय स्वाध्याय हेतु उत्तमोत्तम पुस्तक है। मेहता की दिन रात की मेहनत पाठकों के पढ़ने, स्वाध्यायियों
पू. गीतार्थ पारसमुनिजी म.सा, उज्जैन (म.प्र) के लिये कुशल मार्गदर्शन, ज्ञान पिपासुओं की ज्ञान पिपासा बुझाने में रंग लारही होगी। पुस्तक जिस किसी के हाथ में
आपना तरफथी दरियापुरी सम्प्रदायना वरिष्ठ संत रत्न जायेंगी, वह पढ़ने के लिये लालायित होता दिखाई देगा।
तपोधनी बा. ब्र.प.पू. गुरूदेव राजेन्द्र मुनि महाराज साहेब
उपर मोकलेल 'विनय बोधि कण' ग्रन्थ संप्राप्त थयो। आभारनी पुस्तक प्राप्त होते ही इस पुस्तक को अवलोकनार्थ स्थानक
लागणी व्यक्त करीए छीए। में लेकर गया। एक फरवरी को यहाँ दो दीक्षार्थी बहनों की दीक्षा होने के कारण यहाँ अनेक सन्त सतियाँ विराज रही
'विनय बोधि कण' ग्रन्थ मननीय, तत्व सभर जैन तत्व ने थी। प्रवर्तक श्री रमेश मुनिजी म. प्रवर्तक श्री रूप मुनिजी
सरल, सादी अने सहज भाषा मां व्यक्त थयेल छे जे तत्व म. उप प्रवर्तक सुकनमुनिजी म. उप प्रवर्तक श्री नरेश
पीपासुओं माटे खूबज उपयोगी बनी रहेशे। अमोने याद करवा
Page #299
--------------------------------------------------------------------------
________________
बदल आपनो भाव पूर्वक आभार मानीए छीए अने कोई पण | प्रयत्नशील है। उसके लिए साधुवाद के पात्र है। श्रावकों का साहित्य होय तो नीचेना सरनामें मोकलवा कृपा करशोजी। | धन पुण्यानुबंधी पुण्य है। १०-११-२००८,ओज ली. गुरू आज्ञाथी
मुनि हर्षवर्धन, शांति निकेतन प्रतिष्ठान, ब्राह्मणी, अनंत शाह, अहमदाबाद, (गुज.)
अहमदनगर (M.S) विद्वद्वरेण्य मुनिप्रवर श्री विनयमुनिजी म.सा, सुखसाता!
पुस्तक अत्याधिक सुन्दर हैं। इसको पढ़कर प्रसन्नता हुई। आपका स्वास्थ्य स्वस्थ होगा। यहाँ कुशलता है। धर्म आराधना साध्वी श्री कुमुदलताजी, वैशालीनगर, अजमेर (राज.) सानंद चल रही है। आपने प्रश्नोत्तरी का जो ग्रन्थ भेजा, वह प्राप्त हुआ। स्वाध्याय के लिये अच्छा आधार है। योग्य कामकाज आपने हमको स्मृति में लाए, ये बुक ज्ञान का खजाना है। वह लिखें।,
ज्ञान हमारे सभी के जीवन में सम्यक बने यही कामना। उपाध्याय मणिप्रभसागर, हैदराबाद (A.P.) सदैव आपको याद करने वाला आपका अपना
मुनि पारस मुम्बई प्रिय आत्मन्
श्रावक रत्न श्री चंपालालजी सा, मकाणा सच में ही साधु • मंगल धर्मलाभ! “विनय बोधि कण' प्रस्तुत प्राप्ति
साध्वियों के लिए पितृ तुल्य ही है। इस ३ ३ भाग के संकलन पर साधुवाद समर्पित करते हैं। इस पुस्तक से जैन धर्म के में उनका कठिन परिश्रम अति प्रशंसनीय हैं। गणेश बाग में गूढ़ तत्व ज्ञान को सरलता से समझा जा सकेगा। लेखन ऐसे मुनिराज का चातुर्मास सफलता की गारंटी ही है। से लेकर प्रकाशन तक सभी सहयोगी संतो, सुश्रावकों को
आपका अपना ही आत्मिक धन्यवाद समर्पित करते हैं। चित्रांकन, सुप्रिन्टिंग
मुनि हर्ष वर्धन (M.S) से युक्त पुस्तक बेहद सुन्दर है, ज्ञान प्रचार में इसी तरह आगे बढ़ते रहें एवं सत्यवाणी, जीवन सापेक्ष मौलिक चिंतन डॉ. सरोज श्रीजी म.सा.ने वे दोनों पुस्तकें रख ली। आगे से आगे फैलाते रहें, इसी शुभेच्छा के साथ प्रणाम,
जैन महिला स्थानक, वीरनगर, दिल्ली प्यार, आशीर्वाद योग्य सेवा लिखें। पुनः साधुवाद, मंगल धर्मलाभ, उज्जवल भविष्य की शुभेच्छा के साथ...
'विनय बोधि कण' स्वाध्याय में बहुत उपयोगी रहेगी। पू. गुरु ललित चन्द्रप्रभु शिष्य, मुनि शान्तिप्रिय
गौतम मुनीजी म.सा ने किताब की बहुत तारीफ की है। ___ सम्बोधि धाम, जोधपुर (राज.)
कान्तीलाल बोथरा, रतलाम (म.प्र.) पुस्तकों का अवलोकन कर तथा पढ़कर बहुत प्रसन्नता हुई। पूज्य महाराज श्री जी व आपकी इस धर्म प्रभावना हेतु कोटिशः श्री राजेन्द्र मुनिजी म.सा, आष्टि बीड (महाराष्ट्र) कोटिशः साधुवाद। पुनः पुनः धर्म स्नेह। धर्म संदेश। पूज्य
प्रवर्तक श्री अमर मुनिजी म.साकी आज्ञा से, वरूण मुनि दक्षिण भारत से गांव गांव में धर्म का प्रचार, घर घर, गांव
'अमर शिष्य' शहर में पहुंचा रहे, 'विनय बोधि कण' अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हो रही है। आप द्वारा एक पुस्तक पहले आई थी। वह
आपके द्वारा भेजी गई बुक, साध्वी युगल निधि कृपा को पुस्तक आचार्य प्रवर हस्तीमलजी म.सा की सुशिष्या
हमने दे दी है। पूज्य साध्वीजी ने पूछवाया है, १०० प्रतियाँ महासतीजी ठाणा ६ की सेवा में उपयोग हेतु भेज दी थी।
चाहिये। हम प्रतियोगिता में इस्तेमाल करने की भावना रखते उनके अध्ययन के पश्चात यह पुस्तक श्री जैन रत्न हितैषी
है। शेष कुशल श्रावक संघ भोपालगढ़ जिला जोधपुर के पुस्तकालय विभाग
मैत्री चेरिटेबल फाउन्डेशन, नई दिल्ली में भेजने को कहा गया है। अभी महासतीजी की छोटी शिष्याओं द्वारा पढ़कर नोट करके अध्ययन कर आगे भेज
'विनय बोधि कण' पुस्तक क्या है ? साक्षात समुद्र मन्थन दी जायेगी। आपको धन्यवाद के साथ बहुत बहुत साधुवाद।
द्वारा निकाला गया अमृत कलश है। पृष्ठ-पृष्ठ पर मुनिश्रीजी
द्वारा बतलाया गया आध्यात्मिक, नैतिक जीवन बनाने का ___ मनमोहनचंद जैन, कानपुर (उ.प्र)
सीधा राजमार्ग है। जिसे पढ़कर यदि मानव इन्ही विचार पढ़मं नाणं, भ. महावीर ने ज्ञान को सबसे पहली आवश्यकता धाराओं पर नियमित चलता रहे तो जीवन का सर्वांगीण बताई है। उसी को साकार रूप देने के उद्देश्य से आप | विकास हो सकता है। मोक्ष मार्ग पर चढ़ने के लिए सीढ़ी का
Page #300
--------------------------------------------------------------------------
________________
काम करनेवाली सोपान है। मुनिश्रीजी ने साधकों के लिए | विनय बोधि कण' पुस्तक मल्यु, तेनी पोंच आ पत्थी जाणशो। शास्त्रानुसार अपने अनुभवों द्वारा सार भाग नवनीत जनता पुस्तक ज्ञाननो खजानो छ। दररोज स्वाध्याय थाय छ। सन् के हितार्थ परोसा है।
१९८३ ना वर्षे पू. महात्माजी म.सा. विनयमुनि आदि उपाध्याय ईश्वरमुनि, कलकत्ता (पं. बंगाल)
ठाणा ५ वांकी पधार्या हता २ दिवस रोकाया हता। घणा
प्रश्नोना समाधान महात्माजी पासे मल्या। वांकी संघे पण 'विनय आराधना' उपदेशी और भक्ति पूर्ण भजनों का सुन्दर तेमना प्रवचननो लाभ लीधो हतो। संग्रह है।
पू. विनोदचंदजी म.साहेबना धर्माशीश, वांकी कच्छ (गुज.) महामन्त्री सौभाग्य मुनिजी म.सा.
विनय बोधि कण' मली गयेल, गादिपति प्राणलालजी स्वामीनो 'कुमुद' आकोला (राज.)
धर्म लाभ लीधो। सौराष्ट्र केसरी गुरुदेव धीरजमुनि म.सा सुखसाता मां विराजे
दिलीप एस. देसाई, वर्द्धमान नगर, मुम्बई (महा) छे। आपे शासन प्रगति मां मोकलेल 'विनय बोधि कण' पुस्तक मलेल छ। जे वांची ने खूबज प्रभावित थयेल छीए। पू. विनय बोधि कण' मली गई छे। और बरवाला सम्प्रदायना विद्वान मनीषी के प्रवचन जनजन को जगाने वाले है। गच्छाधिपति पू. सरदार गुरुदेव की सेवा में रखी है। रजनीभाई बावीसी, ट्रस्टी, वर्धमान वैय्यावच्च केन्द्र, राजकोट
दिलीप दोसी, बड़ोदरा (गुज.) (गुज.)
विनय बोधि कण' बोधदायक व सुन्दर है। सम्यकज्ञान प्रेरणा आगमोना निचोड़ रूप पुस्तक वांचीने खुबज खुशी अनुभवी देनेवाला ग्रंथ है। संघ के सदस्यों को देते रहते है। गुरूदेव ने आगम सूत्रोंमांथी मंथन करीने तैयार करेल छे। आ पुस्तक बहुत उपकार किया है। आत्मा के कल्याण में निमित्त बनेगा। साधु साध्वीजीओ माटे उपयोगी बनी रहेशे। मुनिश्री नो श्रम संशोधन अनुमोदनीय अनुकरणीय छ।
३० वर्ष पूर्व चातुर्मास दामनगर में पू. गुरूदेव पू. महात्माजी
म.सा. की सेवामें गुरुदेव कर चुके है। सन् १९८२ में, तब ओज ली. श्री दीनबंधु फाउन्डेशन ट्रस्ट, मानव मंदिर,
आवाज की बुलन्दी, जैन रामायण, जैन जैनेतरों मे ल्हाणी बिदड़ा कच्छ (गुज.)
(प्रभावना) सबको आज भी ३० वर्ष पुरानी याद आती है। प्रत्येक विषय पर अगर सूत्र की शाख (ग्रन्थ) का आधार भावपूर्वक वंदना दिया गया होते तो ज्यादा अच्छा लगता।
कान्तिभाइ भोगीभाई बगड़िया, दामनगर, अमरेली (गुज.) मुनि धन्य (गोपाल सम्प्रदाय), 'विद्यानंद' नालासोपारा
आपका सम्यक् पुरुषार्थ अभिनंदनीय है। 'विनय बोधि कण' घणा पदार्थो नो संग्रह छ। पाकुं बाइंडिंग
__ पूज्य गौतम मुनि जी म.सा, रतलाम (म.प्र) अने सारा छापकाम वाळुटकाउ पुस्तक छे। पुस्तकनु अवगाहन समय मल्येथी विशेष करशुं।
विचक्षण श्री सत्यप्रकाशजी मुनि जी म.सा ठाणे २ को दे मुक्तिमुनिचंद विजयमुनि, सुरत (गुज.)
दिया है। ज्ञान प्रभावना की सराहना करते है।
सुलेखचंद जैन महा सचिव श्वे.स्था. जैन संघ करनाल (हरयाणा) परमात्मानी अचिंत्य कृपा फले अत्रे परमानंद छे। विनय बोधि कण' पुस्तक मल्युं। सचित्र विश्वदर्शन जगत जीवोने कराव्यु। पढ़कर अत्यंत आनंद आ रहा है। पूर्व में साथ बितायी ते सदाय मोक्ष पर्यन्त अविस्मरणीय रहेशे। १०० पाना घड़ियों की स्मृतिएं ताजी हो गई। स्वाध्याय के लिए अत्यन्त वांचन करता.. एक एक चित्र खूबज बोध दायक बने छ। उपयोगी है। सचित्र प्रकाशन, खूब भव्याकार करेल छ। भूरि भूरि अनुमोदना।
पू. लोकेश ऋषिजी म.सा, महाराष्ट्र आचार्य कीर्तिसेन सूरिजी, पालीताणा (गुज.)
अन्तगढ़ सूत्र वाचना पुस्तकों को पढ़कर बहुत ही ज्ञान की बा.न. किरणबाई महासतीजी आदि ठाणा सातामा छ। आपना बातें पढ़ने एवं आत्म चिंतन करने की ज्ञात हुई। हमारी ट्रस्ट तरफथी विनय बोधि कण' मली गयुं छे। पुस्तक सुन्दर छ। कमिटी आपके बहुत बहुत आभारी हैं। बहु ज उपयोगी छे। आपने पुरुषार्थ नी अनुमोदना करुं छु।
श्री दि.जैन.सि.क्षे पावनगिरीजी, संघाणी संघ, गोंडल (गुज.)
ऊन, जिला खरगोन (म.प्र)
Page #301
--------------------------------------------------------------------------
________________
अल्प सानिध्य हम सभी को मिला, वह आज तक मानस पटल पर विद्यमान है। पुस्तके पठनीय है। एवं हमारे लिए प्रेरणा स्पद रहेगी।
लोकेन्द्र बनवट, ASHTA (M.P.)
तत्व जिज्ञासा के निमित्त संघ को अच्छी धरोहर मिली। पू. श्री विनयमुनिजी म.सा सरल हृदय श्रमण रत्न है। ज्ञान क्रिया का सुन्दर संगम उनके जीवन में है। नम्रता एवं सरलता के वे धनी है। और जिन शासन के सफलता प्रचारक है। युग युग तक उनकी शासन प्रभावना याद रहेगी।
__ श्री पूज्य गु.श्री गौतम मुनि 'प्रथम' इन्दौर (म.प्र.)
'विनय बोधि कण' जिसे पाकर प्रसन्नता का अनुभव किया और महासतीजी म.सा को समर्पित कर दिया।
बोहामशीनरी स्टोर, लुधियाना (पंजाब)
पू. ज्ञान प्रभाजी की प्रेरणा से ‘विनय बोधि कण'मंगवाया। यह किताब बहुत ही अच्छी और भाषा में भी सरल है।
कु. हर्षा एस. चौरड़िया, पाथर्डी (M.S)
बहुत ही सुन्दर ग्रन्थ तात्विक, कर्मग्रन्थ का स्पष्टिकरण किया है। हिन्दी भाषी क्षेत्रो में बहुत उपयोगी होगा।
स्वाध्यायी गण (रायपुर) (C.G) नेश्रायवर्ती पू. निपुणाश्रीजी म.सा
पू. नरेश मुनिजी म.सा की सेवा में प्रस्तुत कर दी गई है, एक जैन स्थानक में रख दी गई है, उपयोगी है।
धनराज सांखला, समदड़ी (राज.)
चिन्तन पुर्वक लिखी गई, ये पुस्तकें पठनीय एवं आचरणीय है। ऐसा अनमोल ज्ञान हमें याद रखके हमारे तक पहुंचाया है। हमें बहुत अच्छा लगा। आगे भी आपके द्वारा प्रकाशित मौलिक साहित्य आप समय समय पर भिजवाने की कृपा करें।
साध्वी कल्पदर्शना, पारोला (M.S.)
'विनय बोधि कण' ग्रन्थ स्वाध्यायियों, शोधार्थियों तथा मुमुक्षुओं के लिए अति उपयोगी सिद्ध होगा।
बाबूलाल जैन, शोध संस्थान, लालभवन, जयपुर (राज.)
स्वागत गीत
स्वागत करते आपका, विनयमुनि महाराज,
'चम्पक' गुरु थे आपके, 'ज्ञानगच्छ' सरताज। गुरु, 'चम्पक' की शान हो शिविरों के सरताज;
नत मस्तक महिमा करें, उनकी हम सब आज ।। तुम्हारी ।।५।। तुम्हारी जय जय हो महाराज ||ध्रुव।।
वाणी गुंजे आपकी, वन में ज्युं वनराज। 'अन्नराजजी' के लाडले, ‘पापाबाई' के लाल।
मन में कोमलता भरी, श्रमणों के सरताज ।। तुम्हारी ।।६।। पुत्र रतन तुमसा मिला, दोनों हुए निहाल।। तुम्हारी।।१।। 'चेन्नई' पर किरपा करी, आप पधारे आज। 'खींचन' में जन्में गुरु, बचपन दिया बिताय।
'पारस' मन हर्षित हुआ, पुरण हो गई आस।। तुम्हारी ||७|| दीक्षाधारी आपने, “गंगा शहर' में आय।। तुम्हारी ।।२।।
(दि. ५-७-२००९ को माम्बलम जैन स्थानक में शिविराचार्य 'ललवाणी' कुल धन्य है, जिस कुल के तुम भान।
पू. श्री विनय मुनिजी म.सा के चातुर्मास प्रवेश के अवसर पर) खूब बढ़ाई आपने, जिन शासन की शान ।। तुम्हारी ॥३॥
पारस जे. नाहर (T.N) 'धीरज' की वाणी सुन, जाग गया वैराग। भव्य भावना से किया, घर संसार का त्याग ।। तुम्हारी ||४|| |
Page #302
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीमान इन्दरचंदजी कोठारी,
अनुक्रमणिका भी नहीं है। आगम, सामायिक, पच्चीस बोल, . सादर जय जिनेन्द्र!
साधु जीवन, श्रावक जीवन, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, विनय, . यह मेरा अहोभाग्य है कि 'विनय बोधि कण' ग्रन्थ मुझे । मुक्ति-संग्रह आदि सभी विषयों के सुंदर प्रश्नोत्तर बहुत ही मुनिराज पंडितरत्न श्री विनय मुनि ‘खींचन' के कर-कमलों ज्ञानपूर्ण है। इसके प्रकाशन के लिए मेरी बधाई स्वीकार से प्राप्त हुआ। क्षमा चाहता हूँ कि इसके अध्ययन के उपरान्त करें। गुरुदेव से चेन्नई में एक चातुर्मास करने का निवेदन मैं शीघ्र आपको पत्र नहीं लिख सका।
अवश्य करें। शिविराचार्य तत्वक्ता, प्रतिभा सम्पन्न मुनिराज पंडित
आपका अपना श्री विनय मुनि ‘खींचन' द्वारा दिये गये प्रवचनों का यह दुलीचन्द जैन, अध्यक्ष, करुणा अन्तर्राष्ट्रीय, चेन्नई (T.N.) संकलन बहुत ही सराहनीय कार्य है। धन्य है मेहता परिवार जिन्होंने इस संकलन को इतने सुन्दर रूप में प्रकाशित कर
विनय बोधि कण "एक समीक्षा" श्रावक-श्राविकाओं को धार्मिक ज्ञान वृद्धि का सुअवसर प्रदान
“गहरे पानी पैठने से मोती मिला है", इस कहावत को किया है।
गुरुदेव श्री विनय मुनिजी म.सा खींचन ने अपनी पुस्तक इस ग्रन्थ की आगम सम्मत विविध सामग्री में असीमित
'विनय बोधि कण' द्वारा चरितार्थ कर दिखाया है। सूत्रों,
शास्त्रों एवं आगमों में गहरे गोते लगाकर गुरुदेव श्री ने हम ज्ञान भरा हुआ है - ज्ञान का भण्डार है।
लोगों को सहज ही में एक अनमोल खजाना प्राप्त कराया इस ग्रन्थ का प्रकाशन भी बहुत सुन्दर हुआ है। उच्चकोटि का पेपर, सुन्दर प्रिंटिंग, नयनाभिराम चित्र,
पुस्तक का एक-एक शब्द अमृत कण के समान है। जिस अच्छी बाइंडिंग आदि सब कुछ सराहनीय है। अधिकतर
प्रकार गन्ने को चाहे किसी भी छोर से चक्खा जाय, मीठा सामग्री प्रश्नोत्तर के रूप में होने से अर्थ एवं मर्म समझना
और स्वादिष्ट लगता है। उसी प्रकार आँख बन्द करके इस बहुत आसान हो गया है और इसलिए सभी उम्र वाले
पुस्तक के किसी भी पृष्ट को खोलकर उसका अवलोकन इसका लाभ ले सकते है।
किया जाय, उसमें ज्ञान ही ज्ञान भरा दृष्टिगोचर होता है। मैं एक बार फिर मेहता परिवार को और संकलनकर्ताओं को धन्यवाद देता हूँ।
श्रद्धापूर्वक इसके पठन, पाठन मनन करने से मन
को अत्यन्त आनंद की अनुभूति होती है। गुरुदेव श्री ने इस आपका
अमृत कुंभ को हमें देकर हम लोगों पर भारी उपकार पी.एस.सुराना, मैलापुर - चेन्नै (T.N.)
किया है। भविष्य में भी गुरुदेव श्री इसी प्रकार ज्ञान की आदरणीय बंधु श्री इन्दरचंदजी कोठारी,
गंगा को बहाते रहेंगे। सादर जय जिनेन्द्र!
इन्हीं मंगल कामनाओं के साथआपके द्वारा भेजी गई 'विनय बोधि कण' पुस्तक
पारस जे.नाहर, चेन्नै (T.N.) प्राप्त हुई जिसके लिए मैं आपका आभारी हूँ। परम श्रद्धेय
निःसन्देह यह पुस्तिका सरस आकर्षक एवं ज्ञान से भरपूर गुरुदेव श्री विनय मुनिजी म.सा कहां पर विराजित हैं?
है। लेखक ने गागर में सागर भर दिया है। उनको मेरा सादर वंदन कहें।
६०-७० वर्ष पूर्व सुनी हुई बहुत सी उक्तियों को भी, जो इस पुस्तक में नव तत्व षट् द्रव्य, आठ कर्म एवं
समय के प्रभाव से लुप्त प्रायः हो रही थी, लेखक ने कर्म प्रकृतियों के भेद, ढ़ाई द्वीप, १४ राजूलोक, कर्मों के
पुस्तिका में स्थान देकर सुरक्षित कर दिया है। फल आदि के अद्भुत चार्ट हैं, जो स्वाध्यायियों के लिए
“सूत्र-प्रश्नमाला" तो पुस्तिका का सर्वाधिक अतीव ज्ञानवर्द्धक हैं।
प्रशंसनीय भाग है। जो श्रावक शास्त्र स्वाध्याय नहीं कर चारों भागों के प्रश्नोत्तर एवं बोधवाक्यों में जैन धर्म
पाते वह पुस्तिका के इस भाग का सामायिक में भी पठन के सभी पहलुओं की सुंदर सामग्री संकलित है। एक ही
कर सकते हैं। लेखक का प्रयास सराहनीय है। कमी है कि विषयों के अनुसार सामग्री नहीं दी गई है।
तिलकचन्द, तिलक, जम्मू १८०००४ (J.K.) सभी विषय अलग अलग स्थानों पर दिये हैं। विषयों की
Page #303
--------------------------------------------------------------------------
________________
RESEARCH FOUNDATION FOR JAINOLOGY
- CHENNAI, 31.7.2007 'विनय बोधि कण' जो ज्ञान वर्धक, सरल, उपयोगी एवं रोचक प्रयास है। स्वाध्याय में रूचि रखने वाले इससे अवश्य लाभान्वित होंगे। 'विनय बोधि कण' परिवार के सदस्य, प्रकाशक, सम्पादक, प्रुफ रिडर प्रिटर सभी साधुवाद के पात्र है। बहुमूल्य विषयों के रंगीन चित्रों का प्रकाशन भी किया गया है, जिन्हें समझने के लिए गुरु भगवंतों का सान्निध्य जरूरी है। पुस्तक के अन्त में मुनिजी के भावों एवं उद्गारों का संकलन भी प्रभावक है। मुनिजी की जीवनचर्या साक्षात् आगम स्वरूप है। अतः यह अपेक्षा भी स्वाभाविक है कि श्रावकों पर उसकी छाप स्पष्ट दृष्टिगोचर
मेरे ४८ साल के स्वाध्यायी काल में ऐसी निष्ठा एवं लग्न से परिश्रम से कार्य करने वाला कोई भी दृष्टिगत नहीं हुआ है। मात्र आप है।
चांदमल बाबेल, वरिष्ठ स्वाध्यायी , चित्तोड़गढ़ (राज.) 'विनय बोधि कण' को पहली बार ६-७-२००७ को माधव नगर (सांगली) में देखा साज सज्जा, भव्य चित्रण, अमूल्य कृति रत्नों का भण्डार सा लगा, किसी भी बहुमुल्य साधन केन्द्रों में इस स्वरूप की रचना शायद ही कहीं उपलब्ध हो। आपश्री के ज्ञान प्रसार भावना की कद्र करता हूँ। सम्माननीय गौरव प्रेषित करना चाहता हूँ।
धरमचंद बोहरा, इचलकरंजी (महाराष्ट्र) 'विनय बोधि कण' प्राप्त हुई। अति उत्तम है जो कि श्रावक श्राविका को पढ़ना चाहिये। मैं भी अवश्य उसका अध्ययन करूंगा व जीवन में धर्म ध्यान द्वारा उतारने का प्रयत्न करूंगा।
गुलाबचंद कोटड़िया, मिट स्ट्रीट, चेन्नै (T.N.) आप द्वारा प्रेषित सभी पुस्तकें (दो पार्सल) प्राप्त हो चुकी है, यथा समय अनुकूलतानुसार देखने के भाव है।
पारसमल चण्डालिया, व्यावर (राज)
हो।
Krishnachand chordia Chennai (TN)
गीतार्थ मुनिराज के चरणों में हमारी वंदना। धर्म सेवा सम्बन्धी वृद्धि की शुभ कामनाओं सहित।
अशोककुमार जैन, दुगड़, वीर नगर, दिल्ली
सुरुचि पूर्ण प्रश्नोत्तर शैली में आगमिक विषयों का सरल भाषा में स्पष्टीकरण सराहनीय है। ‘विनय बोधि कण' सभी पाठकों विशेषतः स्वाध्यायियों के लिए विशेष उपयोगी सिद्ध होगा। आत्म साधक - प्रोफेसर चान्दमल कर्णावट, उदयपुर (राज.)
आपके द्वारा प्रेषित शिविर के आयोजनों का शिक्षाप्रद संग्रह प्राप्त हुवा। आपका संकलन सराहनीय है। ये शिक्षायें तथा प्रेरणायें जीवनोपयोगी है।
वरिष्ठ श्रावक प्रेमचंद कोठारी, बून्दी (राज)
मेहनत का फल 'संसार' है और समझ का फल 'मोक्ष' |
'दीक्षा' अर्थात् ज्ञान को ज्ञान में बिठाना और अज्ञान को अज्ञान में बिठाना।
★★★ जहाँ संसार संबंधी बात ही नहीं होती, आत्मा-परमात्मा संबंधी ही बात होती है उसे भगवान ने 'मौन' कहा है।
★★★
जिन्हें मोक्ष जाने की प्रबल इच्छा है उन्हें किसी भी तरह से मार्ग मिल ही जाता है।
Page #304
--------------------------------------------------------------------------
________________
"विनय बोधि कण" नामक तत्व ग्रंथ प्राप्त हुआ है। यह तत्व ग्रंथ हमारे जैनबंधु हाथोंहाथ पढ़ रहे हैं। जब से प्राप्त हुआ है तब से अपने जैन बंधुवर ही पढ़ रहे हैं। अतः आपसे पुनःश्च सविनय निवेदन है कि “विनय बोधि कण" की दो पुस्तकें भेंट में स्वाध्यायार्थ शीघ्र ही प्रेषित करने की कृपया व्यवस्था एवं सहयोग कीजिए। मैंने अभी तक पूरा ग्रंथ पढ़ा नहीं है क्योंकि जब मेरे पास पढ़कर आता है तो दूसरे जैन बंधु उसी समय मुझसे स्वाध्यायार्थ ले जाते है। आपको जिनशासन, समाजसेवा कार्यार्थ कोटिशः हार्दिक धन्यवाद। कष्ट के लिए क्षमा कीजिए।
श्री अरविंद नरेंद्रजी जैन, जैन संस्कृति शिक्षा एवं जैन ग्रंथालय, दौंड (पुणे) (M.S)
'चा
नीलगीरि में कूनूर - बना धर्म में नूर
चरम तीर्थंकर भगवान महावीर के चरणों में कोटि कोटि वंदन। गुरुवर श्री विनयमुनिजी के चरणो में वंदन करने के बाद आप सभी की अनुमति से दो शब्द कहना चाहता हूँ।
संसार में संयोग-वियोग का चक्र हमेशा चलता रहता है। जब हमारे अहो भाग्य से गुरुवर का संयोग और चातुर्मास मिला तो घर घर में खुशियों की शहनाई बजने लगी, और श्रद्धालुओं की मन कली खिल उठी।
कहते है तीर्थंकर परमात्मा सूरज है तो सद् गुरुदेव । दीपक होते हैं। सूर्य के अभाव में जैसे दीपक रोशनी डालता है, उसी तरह हमारे अज्ञान रूपी अंधकार को दूर करने के लिए गुरुवर असीम परिश्रम तथा प्रयास करते रहे। सबने सच्चे धर्म का रूप देखा। जाना, पहचाना और उसका कुछ पान भी किया।
गुरुदेव ने अपने प्रवचनों में जिनवाणी की गंगा बहा दी थी। कभी कभी तो अमृत वाणी का प्रवाह ऐसा उमड़ पड़ा मानो गंगा भी गरजते लहरों के समुद्र समान दिखने लगी। अवसर पाकर कुछ भाग्यशालियोनें जोरदार डुबकी लगाकर अपना जन्म जन्म का मैल धो डाला। कोई सिर्फ हाथ पाँव धो कर संतुष्ट हो गए तो बाकी अभी तक समुद्र तट पर बैठकर लहरें शांत होने का इंतजार कर रहे है।
अब वियोग के पल निकट आ गये हैं तो हमारे दिलों में सुख दुःख की लहरें उठने लगी है। सुख इस बात का कि यह चातुर्मास सानंद संपन्न होने जा रहा है, और दुःख इस बात का कि पूज्य श्री विहार करके दूर चले जायेंगे। हर दिल एक अनोखा दर्द महसूस कर रहा है।
गुरुवर! आपने हर एक दिल में धर्म का बीज बोया है। अब बीज वृक्ष बनकर धर्म छाया दे तब तक उसे संभालना होगा। राजगिरि नगरी के लोग जैसे भी थे- योग्य मोती या नादान - उन्हें तारने के लिए भगवान महावीर वहाँ बारबार गये और करीब १४ चातुर्मास किये। उसी प्रकार, चाहे आपकी कसौटी पर कुन्नुर वासी कैसे भी निखरे हो, हमे तारने के लिए यहाँ बार-बार आने की कृपा आप अवश्य करना, यही हमारी कर जोड़ विनती है। और यह हमारी प्रभु से प्रार्थना है कि आपका संयम जीवन हमेशा आनंद मय चलता रहे।
गुरुवर! इन चार महिनों में हमारे व्यवहार से आपके हृदय को किसी भी तरह से चोट पहुँची हो तो मन वचन काया से क्षमा याचना करते हैं।
इस ऐतिहासिक चातुर्मास के लाभार्थी श्री अशोक कुमारजी, सुरेशकुमारजी अंकित-श्रेयांश बोथरा परिवार तथा प्रमुख कार्यकर्ता लोग धन्यवाद के पात्र है। उनकी प्रशंसा जितनी भी करें वह कम होगी। उन्होंने तो कमाल का काम कर दिखाया है। हम उनका हार्दिक अभिनन्दन करते हैं।धन्यवाद!
२००७, आशकरण लुणावत कुशुर नीलगीरी (त.ना) स्वाध्यायार्थ बहु उपयोगी छ। 'विनय बोधि कण' पुस्तक मली गयेल छे. आभार । बा.ब्र. समाज रत्न, कुमारपाल वि. शाह, वर्धमान सेवा
केन्द्र, धोलका (गुज.)
इस चातुर्मास को ऐतिहासिक बनाने में पूज्य गुरुवर तन-मन से लग गये और हर व्यक्ति का उत्साह बढ़ाने में तथा प्रेरणा देने में उन्होंने कोई कसर नहीं रखी। परिणाम यह हुआ कि एक तरफ तपस्या की ठाठ लगी तो दूसरी तरफ ४० लोगस्स, रामायण एवं नंदी सूत्र का पाठ सबको आकर्षित कर खींच लाये।
बीच बीच में सैंकड़ो रोमांचक धर्म कथाओं के जरिए गुरुवर ने संसार कीचड़ में भी कमल की तरह जीने की कला सिखाई। फिर इस चातुर्मास का सिरताज बन के आया उत्तराध्ययन सूत्र का वांचन। पूज्य गुरुवर ने साक्षात समोसरण का माहौल बना दिया था। सुनने वाले धन्य हो गये। और सुधर्मा स्वामी रचित वीर थुई उस सिरताज की अमूल्य मणि बन गयी।
ज्ञानियों का मानना है कि गुड़ से मीठी खांड़, खांड़ से शक्कर मीठी, शक्कर से मीठा अमृत और अमृत से भी मीठी जिनवाणी है। उस जिनवाणी का सार निचोड़कर अपनी मधुर भाषा मारवाड़ी में गुरुवर ने महान विषयों को सरल शब्दों में समझाया जैसे “भाव सुधारने से भव सुधरे", "दिशा बदलो तो दशा बदलेगी” “लंका में कोई दालिद्रि मत रहेजो" इत्यादि!
Page #305
--------------------------------------------------------------------------
________________
आदरणीय धर्म प्रेमी श्रीमान् इन्दरचन्दजी कोठारी, कोयम्बतूर सादर सप्रेम जयजिनेन्द्र ।
आपके द्वारा प्रेषित “विनय बोधि कण" पू. विनय मुनिजी म. सा (खींचन) के चार चातुर्मासों की संकलन ज्ञानवाणी, पुस्तक प्राप्त हुई। बहुत बहुत धन्यवाद। आपके भावना रूप स्थानक भवन मारवाड़ी रोड़, पहुँचा दी है। ऐसी कृति प्रथम बार ही देखने पढ़ने में आई है। बहुत ही सार गर्मित एवं उपयोगी पुस्तक है जो ज्ञानवाहिनी एवं स्वाध्याय के लिए अति उत्तम है। सभी को बहुत पसंद आई और खुब सराहा।
इसके साथ ही एक निवेदन है कि हमारे यहाँ कोहेफिजा कालोनी में भी बहुत बड़ा अच्छा स्थानक भवन निर्माण हुआ है। व्यक्तिगत उपयोग हेतु भी उपलब्ध किस मूल्य पर हो सकेगी, सो सूचित करावें । अत्रं कुशलं तत्रास्तु ।
फतहचन्द बाफणा भोपाल (म.प्र)
ज्ञान की गंगा बराबर बहाते रहते हैं। शिविर के ध्येय और उनमें परोसी गई सामग्री की गुणवत्ता कितनी सुन्दर है! और सब छोड़कर मन करता है कि इन्हीं का स्वाध्याय करता रहूं, धर्म प्रभावना में योगदान के लिए बहुत बहुत अनुमोदना के साथ
७-८-२००७
वरिष्ठ चिंतक डॉ. जीवराज जैन, जमशेदपुर (झारखण्ड)
Dear Sir Gotham chand Kataria
I am glad to acknowledge with thanks the receipt of a Book 'Vinay Bodhi Kan' sent by you with regards.
May Shree Manjunatha Swamy bless you.
Thanking you
D. Veerendra Heggade Dharmasthala, Dakshina Kannada karnataka State
जिनशासन की प्रभावना हेतु श्रावक रत्नों का प्रयास अति आदरणीय व सराहनीय है। साधक के लिए अति उत्तम है। प्रकाशक तथा संकलक को हार्दिक साधुवाद |
वरिष्ठ स्वाध्यायी कन्हैयालाल खाबिया, तिरूपति (A.P)
कोयम्बतूर आराधना भवन से प्रेषित 'विनय बोधि कण' प्राप्त हुआ धन्यवाद! पुस्तक की सामग्री बहुत ही उपयोगी है, प्रेरणास्पद है, नित्य पठन पाठन एवं स्वाध्याय में लाभकारी
281
है। पुस्तक के प्रकाशन में संलग्न सभी को तन-मन-धन के समर्पण के लिए धन्यवाद ।
बी. ए. कैलाशचंद जैन "कर्मवीर कैलाश" पत्रिका मैसूर (कर्ना.)
खींचन के रत्न ने ज्ञानरूपी अनमोल रत्न रतनवाड़ी को दिया है, धन्य है मेरी बहिन पापा बाई व बेनोइसा अनराजजी को जिन्होंने जैन संघ को जीवंत रतन दिया है। समस्थ- चंपक का अलबेला चेला है।' विनय बोधि कण' ग्रन्थ जो शास्त्र पुस्तक है, खींचन के स्थानक में रखवा दी गई है। चंपालाल मालू, खींचन (राज.)
आपकी पुस्तक 'विनय बोधि कण' मिली थी, किन्तु यात्रीगण पढ़ने को यह कहकर कि हम पुनः लौटा देंगे लेकिन नहीं लौटाई पुनः भेज सके तो अच्छा रहेगा, इतनी उपयोगी सुन्दर पुस्तक अवश्य विरायतन लाइब्रेरी हेतु मेजें। मिथिलेश, विरायतन राजगृह (बिहार)
'विनय बोधि कण' ग्रन्थ में जैन धर्म दर्शन का सार समाहित होने से सामान्य लोगों के लिए यह संजीवनी तुल्य बन गया है ग्रन्थ के चारों भाग / अंश अत्यन्त उपयोगी है तथा विषय को स्पष्ट करने में सक्षम हैं।
ऐसी सामग्री देश-विदेश के सभी पुस्तकालयों में जानी चाहिए। ऋषभचंद जैन, प्राकृत शोध संस्थान, वैशाली (बिहार) ज्ञानवर्धक पुस्तिका व पत्र प्राप्त कर अनुग्रहित हुआ, नई पीढ़ी को विशेष मार्गदर्शन की आवश्यकता है। आप सतत् जिन शासन की प्रभावना करते रहें।
डॉ. दिलीप धींग, उदयपुर (राज.)
जन्मदात्री की भावनाओं के अनुरूप सम्यक श्रुतज्ञान आराधना का लाभ लेकर आपने मोक्षमार्ग, अभिलाषी ज्ञान पिपासुओं हेतु सुन्दर सामग्री प्रस्तुत की है। निश्चित ही पुस्तक को पढ़ने से अनेक समस्याओं का समाधान स्वतः ही हो जायेगा। आपके सद्प्रयासों की जितनी भी अनुमोदना की जाय कम है। आपकी सद्भावनाओं को प्रणाम और सिर्फ प्रणाम ।
सुभाष लोढ़ा, बालाघाट (म.प्र)
'विनय बोधि कण' प्राप्त कर मेरा रोम रोम पुलकित हो उठा, जीवन की भागम भाग में अपनी शान्ति व सुख के लिए धर्म को जानना तो चाहते हैं लेकिन उसके लिए उनके पास समय नहीं है । गरिमामय जीवन चाहते हैं, लेकिन इस सुपथ से अनभिज्ञ हैं। इन सभी समस्याओं के समाधान के लिए संतो के प्रवचन
Page #306
--------------------------------------------------------------------------
________________
और पवित्र ग्रन्थ प्रायः हर व्यक्ति के पास उपलब्ध है। लेकिन | 'विनय बोधि कण' ज्ञान ग्रन्थ बहुत ही अमूल्य एवं उपयुक्त है। समया- भाव के कारण लम्बे चौड़े प्रवचन और विशालकाय आप लोगों का इस प्रकार जन जन तक महावीर का संदेश; ग्रन्थ घर की शोभा मात्र बनकर रह गये है। ऐसे परिवेश में ज्ञान पहुँचाने का प्रयास बहुत ही सराहनीय है। लोकाशाह के आवश्यक है 'विनय बोधि कण' जैसे संकलन की। वास्तव में समान इसकी उपमा कहे तो यह अतिषयोक्ति नहीं होगी। अथाह सागर से कुछ रत्न निकालकर इस छोटी सी पुस्तिका
मानक चंद बोहरा, खामगांव (महाराष्ट्र) का प्रत्येक वाक्य एवं प्रश्न व उसके उत्तर जैन धर्म और दर्शन की सुक्ष्म मीमांसाएं है।
पुस्तक हर प्रकार से बहुत ही सुन्दर और उपयोगी है। ज्ञान मनोहर सिंह मेहता, इन्दौर (म.प्र) वर्धन के साथ साथ स्वाध्याय योग्य और मननशील भी है।
पुस्तक के प्रकाशनार्थ सभी को हार्दिक शुभ कामनायें प्रेषित 'विनय बोधि कण' महाग्रन्थ की महिमा का वर्णन किस मुख
करता हूँ। प्रथम दृष्टया अवलोकन पर ग्रन्थ की सम्पूर्ण साज से करूं क्योकि मेरी तो जबान एक है। सचमुच में नित्य सज्जा एवं सामग्री अति मन मोहक लगी उसके लिए आप स्वाध्याय योग्य है, सबको बहुत खुशी हुई कि आपने इतनी सभी को हार्दिक शुभ कामनाएँ प्रेषित ग्रन्थ के लिए यहाँ का श्री अच्छी उपयोगी सदगुण युक्त स्वाध्याय बुक निःशुल्क भेजा, श्वेताम्बर जैन संघ अत्यन्त आभारी है। यह साहित्य जनजन के लिए अमूल्य निधि है।
राम स्वरूप जैन, लोहामण्डी, आगरा (UP) डॉ. लक्ष्मीचंद जैन, छोटी कसरावद (म.प्र)
यह अनुपम ग्रन्थ है। मणिबेन कीर्तिलाल मेहता आराधना 'विनय बोधि कण' ग्रन्थ हमारे सेवा भावी सुश्रावक श्री भवन को भी सदुपयोग के लिए आभार। कस्तूरचन्दजी साहेब ललवाणी इन्दौर से प्राप्त हो गया है। मंगलचंद जैन, (Retd. चीफ सचिव UP सरकार) नई दिल्ली पुस्तक पढ़ने के बाद सचमुच लगता है कि यह ग्रन्थ अन्तर्मुख 'विनय बोधि कण' ग्रन्थ श्री संघ को प्राप्त हवा। हार्दिक आभार बनने के लिए अत्यन्त ही लाभदायी सिद्ध होगा। इस ग्रन्थ के सहित धन्यवाद। ग्रन्थ की भव्यता अति सुंदर बनी है। उसमें सर्जक शिविराचार्य प.पू. विद्वद्वर्य मुनि श्री विनय मुनि म.सा जो सामग्री दी गयी है, उससे उसकी भव्यता को आकर्षण . ने अपनी लम्बी दीक्षा-पर्याय में जैन दर्शन और शास्त्रों को शक्ति प्राप्त हुयी है। महाराज श्री के अथक प्रयास का ही फल आत्मसात किया है और साथ ही साथ सतत् आत्मलक्षी है जिससे श्रावक ज्ञानगम्य बने और उन वचनों को संकलित साधना के पथ पर अत्यन्त प्रयत्नशील रहे है। ग्रंथ के प्रकाशक कर अन्यों को सरलता से ज्ञान प्राप्त हो सके, उसके लिये बधाई के पात्र है। यत्र तत्र सर्वत्र से ग्रंथ की मांग भाई श्री ग्रन्थ रूप में इसकी प्रेरणा को बनाया और सुज्ञ दान दाता कस्तुरचंदजी साहेब ललवाणी के पास आ रही है।
आगे आकर इसको प्रकाशित करवा कर जिनवाणी को श्रद्धा शान्तीलाल बड़ेरा, सुधर्म संघ, ग्रीन पार्क, इन्दौर (म.प्र)
स्वरूप बनाया धर्म के मार्ग को समझकर उस पर चलने के
लिए प्रेरित किया। श्री विनय मुनिजी म.सा. 'खींचन' का 'विनय बोधि कण' समी जैन संप्रदायों के लिए उपयोगी है। दक्षिण के क्षेत्र में धर्म प्रभावना करने में उनके प्रयासों को यह ग्रन्थ समग्र ज्ञान की कुंजी है। एक एक अक्षर में ज्ञान भरा सफलता के साथ निभाया है। प्रवचन के साथ प्रश्नमंच, शिविर, हआ है। कठिन से कठिन आगमों को सरल भाषा में लिखा है स्वाध्याय युवावर्ग में संस्कार निर्माण, श्राविका वर्ग में ज्ञान जो सबकी समझ में आ रहा है।
रुचि बढ़ाना आदि अनेक प्रकार से प्रभावना की है। कर रहे है। रविन्द्र कुमार मेहता, भोपाल (म.प्र)
शत शत वंदन एवं अभिनंदन.......
चेतन प्रकाश डुंगरवाल, बेंगलोर , (कर्नाटका) 'विनय बोधि कण' को देखा। उसे देखकर ऐसा प्रतीत हुआ कि यह ग्रन्थ अध्ययन एवं सदैव अपने पास रखने के योग्य है।
“विनय बोधि कण' ग्रन्थ का अवलोकन कर, अत्यन्त प्रसन्नता श्री विनय मुनिजी के दर्शन मैने इन्दौर में किये हैं। व्याख्यान भी
की अनुभूति हुई, प्राप्त कृति कठिन श्रम एवं दृढ़ संकल्प का सुने है। स्थानक वासी कई आचार्य/संत आज भी है। पर
प्रतीक है। पुस्तक के प्रकाशन के लिए आप श्रीमान को बहुत विनयमुनिजी का ज्ञान एवं कहने की शैली सबसे अलग है।
बहुत बधाई। इस बोधि कण से भविजन अवश्य बोधित होंगे। मैंने किताब ज्ञानगच्छ के स्थानक में अध्यक्ष को दी, यह भविष्य में भी आप इसी तरह के सृजानात्मक कृत्यों से प्रभु किताब गहराई से अध्ययन कर कल्याण करने योग्य है। महावीर के मार्ग को प्रशस्त करेंगे। मानमल बांठिया, भोपाल (म.प्र)
डुंगरमल सेठिया, भीनासर, बीकानेर (राज) 282
Page #307
--------------------------------------------------------------------------
________________
विचारों का संकलन बड़ा ही श्रमसाध्य है। विश्लेषक एवं प्रकार कृपा १२ व्रत धारी पर भावकृपा कराते रहें। प्रवचनकार पूज्य गुरुदेव श्री पंडित रत्न श्री विनय मुनि जी वरिष्ठ ध्यान साधक, सोहनलाल संघवी, चेम्बूर मुम्बई (महा.) म.सा. 'खींचन' का यह पुष्प अत्यन्त मनननीय एवं चिन्तन पूर्ण है। स्वाध्यायियों के लिए विशेष खुराक है।
शिवाजी नगर २०१० का चातुर्मास की यह शिविर की बुक PM चोरड़िया, साउकारपेट, चेन्नै (T.N.)
लिखावट, प्रिंटिंग बहुत सुन्दर है। जो भी हाथ में लेते हैं तो
पुरी पुरी पढ़कर ही छोड़ते है, तो अगर एक सेट और उपलब्ध आपका यह ग्रन्थ मैनें पत्र पत्रिकाओं मे समालोचना पढ़कर है तो पीछे के पते पर भेजने की कृपा करें। मंगाया था। जो मुझे मिल गया है। मेरे पास यहाँ धार्मिक पढ़ाने
प्रियाबेन आर. शाह, माटुंगा, मुम्बई (M.S.) वाली बहिनजी आती है, वो जहाँ जहाँ जायेंगी, उनके लिये उपयोग करेगी, ऐसा हमने सोचा है। हमारा परिवार भी पढ़ता मणिबेन कीर्तिलाल मेहता सा. का भी हार्दिक आभार प्रेषित है। मणिबेन का सपना साकार कर अपनी मातृभक्ति का करता हूँ कि जिन्होंने ऐसे अनूठे, अद्वितीय, आध्यात्मिक, परिचय देकर कर्तव्य निभाया है। आप सभी को बधाई व अव्याबाध का अति सुन्दर अनुपम बाग लगाया है। जो जनशुभकामनाए
कल्याणार्थ सार्थक सिद्ध होगा। आपने हमें एक ऐसा जिनशासन आर. प्रसन्नचंद चोरड़िया, साउकारपेट, चेन्नै (T.N.)
का अनुपम मोती 'विनय बोधि कण' जो ज्ञान दर्शन चरित्र की
पारसमणि है, भेजी है। आप द्वारा जो इतने लिफाफे में इतनी जिन शासन की प्रभावना में आप श्री का सम्यक पराक्रम धन्य सुरक्षा जैसी अपनी आत्मा को भी मेरे पास भेजी हो, आपका है। दक्षिण भारत में आपके मंगलकारी विचरण से जन जन बहुत बहुत धन्यवाद में व्यापक रूप से धर्म प्रभावना हो रही है।
मोहनलाल जाट, आसावरा (राज) हस्तीमल मेलावात, इन्दौर (M.P.)
'विनय बोधि कण' पुस्तकें मिल गई है। पुस्तकालयों को दे रहे 'विनय बोधि कण' संक्षिप्त में विस्तृत जानकारी देती है। वहीं दूसरी ओर महावीर दर्शन से आत्मा को साक्षात्कार कराती है।
१. श्री रत्न हितैषी श्रावक संघ सकारात्मक सोच (Positive Thinking) ही सफलता की
२. श्री वर्धमान स्था. जैन श्रावक संघ कुंजी है। बड़े छोटे व युवा वर्ग सबके लिए पुस्तक बहुत ही
३. सेवा मन्दिर अजीत कोलोनी उपयोगी है।
४. श्री सुधर्म संस्कृति रक्षक संघ राजेन्द्र जैन, आनंद ज्वेलर्स, देवास (M.P.) ५. श्री जयमल जैन श्रावक संघ 'विनय बोधि कण' मुझे प्राप्त हो गई। आपकी शानदार प्रकाशित
६. एक सेट लंडन विश्वविद्यालय भेजने का भाव है। कुछ पुस्तक के लिये हमारी शुभ कामनाएं स्वीकार कीजिये। पुस्तक
पुस्तकें महिला मण्डल को स्वाध्याय हेतु दे रहे है। जिनवाणी
के प्रचार प्रसार में आपका सहयोग, श्रम, अनुमोदनीय है। का पूरा पूरा सदुपयोग हो रहा है। सोहनराज 'अरविंद', पेरम्बूर चेन्नै (T.N.)
डा. सोहनलाल संचेती, जोधपुर (राज.) 'विनय बोधि कण' पुस्तक प्राप्त कर अति प्रसन्न हूँ। गृह जीवन
'विनय बोधि कण' प्रश्न उत्तर चारों भाग मानव जीवन व को बदलाने वाली है। गंगा के समान है। इसमें डुबकी लगाकर
स्वाध्याय के लिए अत्यन्त उपयोगी व सही पुरुषार्थ है। हिन्दी हम अपने को पवित्र पावन, प्रामाणिक, ईमानदार, अहिंसक
सरल भाषा में प्रश्न उत्तर स्वयं के आत्मकण अन्तरमन की बना सकते हैं।
गहराईयों को छूने सही पुरुषार्थ करते हुए समझने की कोशिश
करे तो चेतना जागृति रहती हुई परमात्मा पद पाने का सुनहरा C.प्रफुलकुमार जैन मदुरान्तकम (त.ना)
अवसर है। 'विनय बोधि कण' ग्रन्थ भेजकर एक स्वाध्यायी को अर्हता
सुमेरमल रौँका,मिंट स्ट्रीट, चेन्नै (T.N.) सम्पन्न बनाने की कृपा की। जिसके लिए कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ। अनुरूप जीवन बनाने का पूरा प्रयत्न करूंगा। मुनिश्री
विवेचना सरल शब्दों में तथा बिन्दुओं के रूप में की गई है। ज्ञान के अथाह सागर दिख रहे है। अनुरोध करता हैं कि इस । विद्वता की झलक इन पुस्तकों में स्पष्ट रूप से मिलती है। ये
Page #308
--------------------------------------------------------------------------
________________
पुस्तकें हम जैसे स्वाध्यायियों के साथ साथ तत्व ज्ञान सीखने तप की आराधना मानसिक पवित्रता और आत्म शुद्धि मूलक की रूचि रखने वालों के लिए भी अत्यन्त उपयोगी सिद्ध पवित्रता जीवन में अवगाहन करने की प्रेरणा मिलती है। इसमें होगी।
मूल्यात्मक चेतना की सम्पूर्ण अभिव्यक्ति का प्रयास किया दिनेशचंद जैन, जोधपुर (राज.)
गया है।
मानमल कुदाल, उदयपुर (राज) अति सुन्दर पुस्तकें, तीनों पुस्तकें समयानुकूल विषय पर केन्द्रित है। जीवन को Practical स्वाद कराने वाली है। पुस्तकें मुझे 'विनय बोधि कण' कई सज्जनों ने उसे देखी एवं पढ़ी है तथा भेजने में, मेरा चयन आप द्वारा होने पर मुझे बहुत प्रसन्नता है। अति प्रमोद भाव व्यक्त किए है। मेरी लाईब्रेरी से उस महाग्रन्थ सम्पत कोठारी, पाली मारवाड़ (राज.)
का अच्छा सदुपयोग हो रहा है। ज्ञान पंचमी के दिन भी वांचन
किया गया। इस ग्रन्थ की समीक्षा तो यही है कि इतना अच्छा 'विनय बोधि कण' ग्रंथ प्राप्त हुआ। धर्मनिष्ठता के प्रति यह सुंदर पठनीय ग्रन्थ मेरी देखने में पहली बार आया है। आप एक ज्वलंत उदाहरण है। ऐसे ही धर्म के प्रति आपके सदैव लोगों ने अहिन्दी भाषी क्षेत्र होते हुए भी इतना अच्छा प्रकाशन कदम बढ़ते रहे, जिससे आत्मा उज्जवल व पवित्र बनकर किया, सो धन्यवाद! शाश्वत सुखों की ओर अग्रसर हो। किताब का संकलन बहुत
L.C जैन, छोटी कसरावद (म.प्र.) ही अच्छे तरीके से किया गया है। सुभाष चंद मालू, बुलडाणा (महाराष्ट्र)
'विनय बोधि कण' गागर में सागर के अनुरूप एक विशाल
ग्रंथ के रूप में तैयार हुआ है। मोक्ष मार्ग में प्रथम सोपान के रूप 'विनय बोधि कण' ग्रन्थ बहुत ही लाजवाब है। जिसके लिए में अत्यन्त उपयोगी है। समय समय पर प्रकाशित सभी पुस्तकें मणिबेन कीर्तिलाल मेहता ट्रस्ट धन्यवाद का पात्र है। आदरणीय प्राप्त होती रही है। मैंने सन् ८७ से स्वाध्यायी सेवा दे रहा हूँ। विनयमुनिजी म.सा.का चातुर्मास, रायपुर का आज भी लोगों इससे काफी जानकारी प्राप्त हुई। के स्मृति पटल पर अंकित है। 'विनय बोधि कण' का संपादन,
ताराचंद लोढ़ा, 'आनंद' बालाघाट (म.प्र.) संकलन व प्रकाशन (प्रथम भाग) का रायपुर से ही हुआ था। पत्रकार - ओमप्रकाश बरलोटा, रायपुर (छत्तीसगढ़) 'विनय बोधि कण' ग्रन्थ प्राप्त हआ। ग्रन्थ अपने आप में
विशिष्ट है। जिसमें जैन धर्म के मूल सिद्धान्तों का आकर्षक एवं मैनें सारी पुस्तकें रीडिंग तो कर ली है पर चिन्तन अभी बाकी ग्राह्य रूप में निरूपण किया गया है। यह ग्रन्थ अनन्त उपयोगी है। मुझे पुस्तकें अच्छी लगी। आज के भागम - भाग के युग में है। आपने यह ग्रन्थ भेजकर श्री संघ भानपुरा पर अनन्त बच्चों के लिये भी ये पुस्तकें उपयोगी है। इन्हे बच्चे चाहें तो उपकार किया है। आसानी से पढ़कर आगम के गूढ़ रहस्यों को जान सकते है।
विमलकुमार चोरड़िया, पूर्व सांसद, विधायक, भानपुरा (म.प्र). जीवन को कैसे जीना, यह समझ सकते है। श्रीमती रतन चोरड़िया, जोधपुर (राज) आपने जो हमारे लिए परिश्रम किया और हमको धर्म मार्ग पर
लगाया उसके लिए धन्यवाद के पात्र है, और भविष्य में भी तत्व चिन्तन साधना से आगमाम्बुधि से मुक्ता अन्वेषित कर आप समाज जनों के लिए प्रेरणा स्रोत बनें। यही हमारी श्री जैन युवा उत्कर्ष संस्कार शिविरार्थियों के तथा स्वाध्याय आपके लिए शुभ कामना है। आपकी भेजी हुई 'विनय बोधि इच्छुकों के ज्ञान कोष को समृद्ध बनाने का वरदान तुल्य कण' मेरे को मिल गई है। मैं आपका ऋणी हूँ, आपके कहे प्रयास किया है। समाज में नैतिक एवं चारित्रिक शुद्धता के अनुसार खुद स्वाध्याय करूँगा और सभी समाज जनों को भी विकास की अत्यन्त आवश्यकता के लिए इस प्रकार के संस्कार स्वाध्याय के लिए प्रेरित कर स्वाध्याय करने की अपील करूँगा। शिविर भगवान महावीर के उपदेशों एवं जैन सिद्धांतों को
जीतमल जैन, आगर (म.प्र) जीवन में आचरण शुद्धि का क्रियात्मक कायाकल्प कराते हैं। देवेन्द्रनाथ मोदी, जोधपुर (राज.) 'विनय बोधि कण' ग्रन्थ मेरे स्वाध्याय ज्ञान हेतु अनमोल
खजाना है। इस ग्रन्थ का प्राप्त होते ही अध्ययन प्रारम्भ कर प्रकाशित सामग्री में अहिंसा-समता वैराग्य, अप्रमाद, अनासक्ति, | दिया है। यह ग्रन्थ ज्ञान का खजाना है। मुझे यह ग्रन्थ प्राप्त निस्पृहता. सहिष्णुता, ध्यान सिद्धि, उत्कृष्ट संयम साधना | होते ही इतनी प्रसन्नता हुई, जैसे मुझे कोहीनूर मिल गया हो।
Page #309
--------------------------------------------------------------------------
________________
यह ग्रंथ मेरा प्राण है।
रोशनलाल कटारिय, नीमच (म.प्र.)
'विनय बोधि कण' का संयुक्तांक प्राप्त हुआ। पुस्तक देखते ही जिज्ञासुओं को आकर्षित कर लेती है। छपाई, साज सज्जा, प्रस्तुतीकरण आदि अद्वितीय और बेहद चित्ताकर्षक है। प्रत्येक जिज्ञासु निःसंदेह इस पुस्तक को अमूल्य निधि समझ कर रखना पसंद करेगा। आज के समय में प्रश्नोत्तर ही वह सहज
और सरल साधन है, जिससे आम पिपासु में ज्ञान की भूख जगा सकते है। और तृप्त भी कर सकते है। धन्य है पूज्य गुरुदेव और धन्य है इस पुस्तक के माननीय प्रकाशक। इस पुस्तक का खुब उपयोग हो और जिनवाणी के प्रचार प्रसार में यह मील का पत्थर साबित हो। यही हमारी शुभकामनाएँ हैं।
अभयकुमार बांठिया, बेंगलोर (कर्ना.)
पुस्तक पठनीय, संग्रहणीय व अनुमोदनीय है। छपाई व कागज सुंदर है। इन पुस्तकों में आई पेपर की जगह साधारण अच्छा कागज का प्रयोग हो तो लम्बे समय तक सुरक्षित रहता है। एक कदम अपनी ओर में जैन चिन्ह सभी पृष्ठों पर सही अनुपात में है।
ललित कुमार नाहटा, नई दिल्ली कुछ भाग पढ़ने पर पुस्तक को रखने का मन नहीं किया स्वयं कलम उठाने का मन बना तथा आपका धन्यवाद किन शब्दों में किया जावे, वे शब्द ही नहीं, ऐसी वीर वाणी का आपने सम्पादन करवाकर श्रुतज्ञान फैलाया। आप धन्यवाद के पात्र है। वीरवाणी का प्रचार प्रसार करना, कराना, अनुमोदन करना २० बोलों में एक बोल है। उच्च गोत्र बांधने के लिए आप धन्य
आप द्वारा भेजा गया 'विनय बोधि कण' ग्रंथ हमारे पड़ौसी श्रीमान बी. जवाहरलालजी जैन ने लाकर हमें दिया, सरसरी निगाह डालनेसे हमें लगा कि यह ग्रंथ न केवल श्री संघो के यहाँ परन्तु हर घर में हो, जो वाणी संकलित है उसे पढ़ने और उस पर अमल करने से सचमुच प्रत्येक व्यक्ति का जीवन सँवर जाएगा। किसी एक व्यक्ति के जीवन में भी अगर परिवर्तन आ गया तो आपका उस पर उपकार तो होगा ही, साथ में आप श्री द्वारा की गई इतनी महेनत और खर्चा भी मानो सफल हो जाएगा
श्रीचंद सिंघी, सरिता संगम पत्र, बेंगलोर (कर्ना.)
श्री महावीर प्रसाद जैन, S.S जैन सभा त्रीनगर, दिल्ली 'विनय बोधि कण' नामक ग्रन्थ पढ़ने में आया बहुत ही अच्छा एवं उपयोगी लगा। यदि प्रभावना वश भेज सकें तो १ प्रति एवं कीमत से भेज सके तो ५ प्रति भिजवाने का कष्ट करें। आशा है मेरे अनुरोध पर गौर होग।
खुशालचंद देशलहरा, दुर्ग (C.G)
'विनय बोधि कण' चार चातुर्मास के अमृत रूपी वाणी को एक ग्रन्थ के रूप में रखकर वास्तव में बहुत ही श्रेष्ठ कार्य किया।
राजेन्द्र जिन्दानी, भेल (BHEL), भोपाल (म.प्र)
'विनय बोधि कण' ग्रन्थ की पंजाब व हरियाणा की प्रतियों का पार्सल मुझे मिल गया था। वो जैसे ही संघ का कोई व्यक्ति दिल्ली आता है, मैं उसको सौंप देता हैं। दिल्ली की सभी संघो को दे दी है। बाहरवाली का कुछ समय लगेगा।
श्रीचंद जैन (जैन बंधु),माडलटाउन, दिल्ली
बाह्यसज्जा, मुद्रांकन और चित्रांकन की सुन्दरता बहुत ऊँची है, इस ज्ञान दान के लिए हमेशा ऋणी रहेंगे। मार्ग दर्शक
और ज्ञान क्षुधा की तृप्ति की अक्षय क्षमता लिए हुए है। 'विनय बोधि कण' को हाथ में लेते ही शुरु से अन्त तक निरन्तर पढ़ने की भावना जागृत होती है। इसका पठन दुर्लभ, सुखद अनुभव लगता है। मेहता परिवार को बहुत बहुत बधाई।
श्रीमती पुष्पा राजेन्द्रकुमारजी कीमती, अध्यक्ष,
आ प्र. महिला कॉन्फ्रेंस, हैदराबाद (A.P)
'विनय बोधि कण' हमारे संघ को मालेगांव से प्राप्त हुआ है। तथा यह किताब बहुत अच्छी बनी है। ज्ञान की अच्छी से अच्छी मालुमात होने में बहुत ही सहायक है। पढ़ने में बहुत ही सरल और समझने में सौ फीसदी अच्छी लगी। आपके हम ऋणी है।
रमेश कर्नावट, दोडाईचा (महाराष्ट्र) धार्मिक साधना की सार्थकता इसी में है कि हम अपने राग-द्वेष को त्यागकर वीतराग बने। शेष सब प्रपंच है।
साधक - कन्हैयालाल लोढ़ा, जयपुर (राज.)
'विनय बोधि कण' हमारे आवास के ऊपर पुस्तकालय में रखी है, जहाँ साधु साध्वियाँ शेष काल में पधारना-रुकना होता है, स्वाध्याय के उपयोग आएगी ही। आप सभी ने कठिन परिश्रम से उक्त पुस्तक का निर्माण किया। कुछ अन्य संघो ने भी उक्त ग्रन्थ की मांग की है।
प्रकाशचंद पगारिया अपर जिला एवं सेशन न्यायाधीश, बांसवाड़ा (राज.)
Page #310
--------------------------------------------------------------------------
________________
'विनय बोधि कण' प्राप्त हुई। सुबह में धार्मिक क्लास और | 'विनय बोधि कण' का प्रथम पृष्ठ देखते ही दो महान आत्माओं प्रवचन भी एक मास तक सुनने का शुभ अवसर प्राप्त हुआ। के चित्र देखकर आंसू की धारा बहने लगी, वो कितने सुबह की क्लास और गुरूदेव के प्रवचन काफी प्रभावशाली महान थे, जिन्होंने धर्मध्यान के लिए धर्मस्थान का निर्माण और जैन दर्शन की जानकारी देने वाले रहे। कुन्नर वासी भावना बनाई। उनके परिवार को बारम्बार धन्यवाद है काफी लाभ ले रहे है।
उन्होंने स्वर्गस्थ आत्मा को शान्ति प्राप्त हो। अतः उनके आनन्दराज जैन C.A. (झाबक)खींचन, कुन्नुर (T.N.)
विचारों को मुहरत रूप दिया। आपने लक्ष्मी का सद् उपयोग
किया। लक्ष्मी वो छोड़ गए परन्तु आप परिवार ने उनकी 'विनय बोधि कण' पुस्तक जो भेजी, वह बहुत ही श्रम इच्छा को बहुत अच्छा रूप दिया। जरूर इनकी आत्मा जहाँ साध्य एवं संकलन, सम्पादन, प्रेसकार्य आदि अवर्णनीय होगी शांति मिलेगी। गुरूदेव ने बड़ी कृपा -चातुर्मास दिया। श्रेष्ठ है। मेटर भी धर्मकथा, धर्मबोध युक्त है। यह पत्र राजकोट अब अपन सभी का लक्ष्य होना चाहिए कि साधु साध्वी को से लिखवाया गया है।
बुलवावें और आराधना भवनमें ३६५ दिन दरवाजे खुले छोटमल दिलीपकुमार गोलेछा, रायपुर (C.G)
रहें, संवर निर्जरा में ही उपयोग होना चाहिए, आडम्बर
आरंभ समारंभ से बचना चाहिए। आगम मंथन कर ज्ञान के प्रकाशवान कणों को 'विनय बोधि मै पुनः स्वर्गीय आत्मा को श्रद्धांजलि देता हूँ। कण' पुस्तक का रूप देकर पाठकों के लिए एवं स्वाध्याय
बंशीलाल कोटेचा, शिवाजीनगर, मदनगंज (राज.) बन्धओं के लिए आगम की जानकारी सुलभ करा दी। अंधकार में भटकते मस्तिष्क का नया आलोक देगी एवं जीवन का मालवा तथा इन्दौर में श्रावक श्राविकागण तथा पंचम पद उर्ध्वपथ प्राप्त करेगी।
के अधिकारी भी 'विनय बोधि कण' की चाहना रखते है। गणेशलाल गोखरू, उदयपुर, श्री देवेन्द्र धाम, उदयपुर (राज.)
उचित जगह, उचित व्यक्ति को निरन्तर देते रहते है। पू.
विनय मुनिजी म.सा को हमारे परिवार की वंदना अर्ज 'विनय बोधि कण' प्राप्त हुई। पुस्तक बहुत ही महत्वपूर्ण करावें। तथा जैन धर्म की समस्त जानकारियां उसमें निहित है।इस कस्तूरचंद शांतिलाल राजेन्द्र कुमार महेन्द्र कुमार ललवानी, इन्दौर (म प्र.) पुस्तक के अध्ययन से जैन धर्म की जानकारी उन लोगों को भी हो सकती है जो जैन नहीं है। छपाई एवं कवर इत्यादि
विनय बोधि कण' मलेल छ। आपे आq सुन्दर अमुल्य अत्यन्त मोहक है।
पुस्तक अमारा संघने याद करीने मोकलाव्यु ते माटे जयसिंगपुर प्रो. मंगलचंद टाटिया, जबलपुर (म.प्र.)
संघ तरफथी अमे हार्दिक आभार मानीए छीए। सद्दर पुस्तक
जैन धर्मनो अमूल्य खजानो छे। जैन धर्म ना मूल सिद्धान्तों पुस्तक कानपुर संघ को प्राप्त हुई, ऐसी बहुमुल्य पुस्तक
ने खूबज सरल भाषामां तथा चित्रों द्वारा खूबज सुलभ कभी कभी ही देखने को मिलती है। ज्ञान से परिपूर्ण इस
रीते समजावेल छ। पुस्तक को बार बार पढ़ने का मन प्रत्येक को होता है।
जयसिंगपुर स्था. संघ ट्रस्ट, कोल्हापुर (महाराष्ट्र) कानपुर स्था.संघ, मनमोहनचंद बाफना (U.P.)
विनय बोधि कण' बहु उपयोगी स्वाध्याय पुस्तक छ। मने आ
प्रमाणे पुस्तको खास करीने आफ्रिका वसता जैन परिवार ने 'विनय बोधि कण' में स्वाध्यायार्थ बहुत ही उपयोगी सामग्री
संघ उपयोगी रीते जैन समाजने मोकलु छ। आपश्री ने पण है। शास्त्र की जानकारी कषाय निवारण कर्म बंधन-मुक्ति,
योग्य लागे तो आफ्रिका, युगान्डा, कंपाला जैन समाजने प्रतिक्रमण सामायिक का वर्णन है। पुस्तक का एक भाग विभिन्न
नामे Post Box 7825 हेम इन्टरनेशनल नामे मोकली शको चित्र युक्त चित्र बहुत ही सुन्दर हैं। चित्रों को देखते ही
छो। व्यक्ति पढ़ने को उद्यत होजाता है। आपसे विनम्र अनुरोध है कि अमोल जैन ज्ञानालय द्वारा पूज्य आचार्य अमोलक ऋषिजी
इन्दिरा मनहरलाल मोदी, राजकोट (गुज.) द्वारा लिखित जैन तत्व प्रकाश की २०वी आवृत्ति प्रकाशित
जैन तत्व के सभी विषयों को प्रश्नोत्तरी के रूप में सम्मिलित होने जा रही है। उपरोक्त सभी चित्र हम उसमें देना चाहते है। "हमें आज्ञा दिरावें"।
करके आपके मंडल ने शासन की बड़ी सेवा की है। हमने
इन चारों भागों का गुजराती भाषा में भाषान्तर कर दिया प्रो. प्रेमसुख छाजेड़, मन्त्री धुलिया (महाराष्ट्र)
Page #311
--------------------------------------------------------------------------
________________
है। जिससे गुजरात के घर घर में ये पुस्तकें ज्ञानपिपासु | विषय वस्तु को प्रश्नोत्तर रूप में रखने का आपका यह पढ़ सके। अनुमति चाहते है प्रकाशन करने की।
प्रयास तो सदियों से स्तुत्य व अनुकरणीय रहा है। अधिक भरत भाई शाह, जैन चेरिटेबल ट्रस्ट, नवरंगपुरा, अहमदाबाद (गुज.)
क्या कहुं, इस पुस्तक का अंग्रेजी, तमिल, गुजराती आदि
भाषाओं में अनुवाद अवश्य कराया जाना चाहिए, जिससे गागर में सागर वत् छोटे छोटे वाक्यांश बहुत ही अर्थ समेटे
जिनवाणी की सुन्दर प्रभावना की जा सकती है। हुए है। हर एक भाई व बहन को कम से कम एक बार
प्रोफेसर डॉ. प्रियदर्शना राखेचा अवश्य पढ़नी चाहिए।
जैनोलोजी मद्रास विश्वविद्यालय, चेन्नई (T.N) जी.एम.बुधमल (अध्यक्ष) सम्पतराज डागा मन्त्री श्री वी.एस.जैन संघ, मंडया (Kar)
गुरुजी आप पधारे, प्रतिष्ठा हुई आपका प्रत्यक्ष-परोक्ष
आशीर्वाद सदैव हमारे पर बना रहे। हम लोगों पर इतना धर्मानुरागी उदार हृदयी शासन रसिक, शासनरत्न
बड़ा उपकार किया है, सदैव ऋणी रहेंगे। डॉ. उषाजी मेहता, श्री पंकजजीसा मेहता, श्री कौशिक सन् २०१०
गौतम गिरिश कटारिया ऊटी (T.N) जी.सा मेहता, श्री परेशजीसा मेहता
स्वाध्याय मंडल साकेत में सन् १९९५ से निरन्तर व नियमित सभी को सविनय सादर चरण वंदन, आपश्री द्वारा प्रेषित
सामायिक व शास्त्र स्वध्याय हो रहा है। 'विनय बोधि कण' 'विनय बोधि कण' को ग्रन्थ रूप पाकर अत्यंत आनंद हुआ।
ग्रन्थ स्वाध्यायार्थ अति ही सहज व सरल भाषा में, जो . धन्य है आपकी मातुश्री मणिबेन जिनके दिव्य संस्कारों की इन्दौर में सिखाये श्रुतज्ञान का ही दर्पण रूप लगता है। वजह से आप समाज रत्न हो पाये है।
ग्रन्थ के प्रकाशक, व्यवस्थापक सभी को धन्यवाद देते है।
स्वाध्याय मंडल, साकेतनगर इन्दौर-१८(म.प्र) मेहता परिवार का धर्म प्रेम . शासन सेवा, अद्भुत गुरु भक्ति देखकर मन अत्यन्त आल्हादित हुआ।
सन् १९९२ में हुए चातुर्मास में अहिंसा विहार संघ में पू. माता की भावनाओं का मूर्त रूप 'विनय बोधि कण' है। एक
'खींचन' म.सा ने जो स्वाध्याय की नींव रखी थी। धर्म बीज अनुपम अद्वितीय संकलन है। दो प्रति हो सके तो भेजे, जो
के फल स्वरूप में हमें 'विनय बोधि कण' (कुल दश भाग) भी निर्धारित शुल्क होगा, देने के भाव रखते हैं।
देखने-पढ़ने आत्मसात करने तथा उपकारी का ऋण चुकाने
का समय आ गया है।श्रुतज्ञान की छोटी सी ज्ञान वाटिका अरविंद कोठारी, भीलवाड़ा शहर (राज.)
रूप ग्रन्थ सदैव स्वाध्याय की सौरभ फैलायेगा। अहिंसा ग्रन्थ ज्ञान - धर्म से ओत प्रोत व कल्याणार्थ बन पड़ा है।
विहार संघ के सभी श्रद्धालुजनों ने भूरि भूरि प्रशंसा व आप सभी मोक्ष मार्ग पर बैठे है। यह पुण्य कर्मों का ही फल
अनुमोदना की है।
श्रीमती दीपा देवेन्द्र जैन, मन्त्री
श्री श्रुतविनय विराङ्गनास्वरूपचंद जैन, पूर्व विधायक व महापौर, रायपुर (छ.ग)
दि. २८-११-२०१२ महिला मंडल, अहिंसा विहार,
दिल्ली८५ कोठारी सा द्वारा प्रेषित 'विनय बोधि कण' प्राप्त हुई। अत्यन्त हर्ष एवं प्रमोद के साथ कृतज्ञता के भाव से ओत प्रोत होने
'विनय बोधि कण' ग्रन्थ बहुत ही सार्थक एवं सारगर्भित है। का सुन्दर सुअवसर प्राप्त हुआ। आपने इस तुच्छ जीव को आप जैसे महान कृपालु ही जनसाधारण के लिए इतना याद किया और प्रति भिजवाई। उसके लिए "कृतज्ञोऽस्मि"
महान ज्ञान उपलब्ध करा पाये है। 'विनय बोधि कण' की मैं कृतार्थ हुई।
जानकारी सर्वत्र न केवल राष्ट्र में अपितु विदेशों में भी जो पुस्तक जिस दिन से प्राप्त हुई उस दिन से मेरे M.A के
जैन साहित्य को पढ़ना चाहते है, उन्हें भी प्राप्त हो सके। छात्र छात्राओं के पास Circulate हो रही थी। दो तीन ने
ऐसा कुछ कीजिये। तो नित्य पठन हेतु xerox भी करवा लिया। उनके पारिवारिक
सुमति कुमार जैन, जगमग दीप ज्योति, अलवर (राज.) जनों ने भी इस पुस्तक की सराहना की है। पुस्तक की साज
'विनय बोधि कण' का कवर पृष्ठ व पैकिंग बहुत ही सुन्दर सज्जा तो सुन्दर है ही, व मुद्रण भी आकर्षक है।
है। छपाई सुन्दर है। विषयों का समायोजन आज के संदर्भ
Page #312
--------------------------------------------------------------------------
________________
को देखते हुए सही है। युवा पीढ़ी के प्रश्नों का समाधान हेतु सुन्दर प्रयास है।
न. सुगनचंद जैन, दीप्लीकेन चैन्नई -५
अंकल संस्कृति बड़े बुजुर्गों का चरण स्पर्श करना, भारतीय संस्कृति की पहचान है। अपनी प्यारी मातृभाषा मारवाड़ी में श्री विनयमुनिजी म. सा द्वारा जिनवाणी श्रवण के अमृतपान से प्रसन्नता हो रही है। यह पुस्तक एक बहुत ही महत्वपूर्ण कृति है।
महेन्द्र एच. सिंघी, हुबली ( कर्ना)
'विनय बोधि कण' की दो प्रति सुशील बहु मंडल के प्रधान विजयाजी मल्हारा को दे दी गई है। सभी ने बहुत ही सराहा है। बहु मंडल की सभी सदस्याओं को बहुत ही अच्छी लगी। आपका अनंत उपकार है। कुछ स्वाध्याय किया है उसमें से कई क्या बहुत सी बातें पहली बार ही जानी है।
जलगाँव संघ द्वारा बहुत बहुत बधाइयाँ । सौ. भारती अरविंदकुमारजी बाफना जलगाँव (M.S)
सन्तों की इस परम्परा में इस काल में युगादिदेव ऋषभदेव से लेकर आज तक सहस्रों महापुरुष हो गये, जिन्होंने अपनी वाणी से कृतियों से समाज का पथ प्रदर्शन किया। उसी कड़ी में एक नाम जुड़ जाता है पूज्य श्री विनय मुनिजी म.सा खींचन का
'विनय बोधि कण' के चौथे भाग का प्रत्येक शब्द गुणों को देने वाला है। गुणरागी सुश्री अनिताजी सुपुत्री श्री विजयराजजी सुराना ने बाणी के अंशो को संकलित कर यशोपार्जन किया।
विमलकुमार चोरड़िया स्वतंत्रता सेनानी, पूर्व सांसद व विधायक, भानपुरा (म.प्र) कोठारी सा से निवेदन है कि 'विनय बोधि कण की पांच पुस्तकें भिजवाने की कृपा करावें पुस्तक अति उत्तम है।
सुभाष ओसवाल, उपाध्यक्ष जैन कॉन्फ्रेंस, दिल्ली
I deeply convey my heartfelt thanks, in regard to the sending of above useful religious matter. I also take this opportunity to enquire that whether i had to send any amount in reciprocation of this mearit to be precious collection for me. 'Vinay Bodhi Kan' is best book.
AvinashChordia Natial President Shri AISSJ Conference - Delhi
Further we request you to note that we are requiring 450 (Four Hundred Fifty) Gujarati Vinay Bodhi Kan' Books to distribute in Gujrat. Hence arrange to send the 450 books as and when printing works get over.
Thanking You,
Yours' truly Dinesh N. Sheth Sthanakwasi Jain Sangh Navragpura, Ahemdabad-9
'विनय बोधि कण' श्रेष्ठतम कृति है। पुस्तक पढ़कर समीक्षा 'लोकमत' में दी जाएगी।
विजय दर्डा, सांसद (राज्यसभा) नागपुर (M.S)
पुस्तक ज्ञान अभिवृद्धि में सहायक ही नहीं बल्कि श्रेष्ठ है। ज्ञान अभिवृद्धि के इस महान यज्ञ में आप व आपकी संस्था सदैव गतिशील रहे।
288
गौतम पारख, राजनांदगांव (CG)
क्या नया ढंग, नई सोच, नई नवेली की रूप सज्जा व आदर्श Booklet हस्तलिखित प्रकाशन किया। एक अभूतपूर्व कार्य श्रीसंघ गणेशबाग ने किया है।
"
विनय बोधि कण संयुक्त चारों भाग वाला प्राप्त करके मैं सदैव आपका चिर ऋणी रहूँगा स्वाध्याय हेतु शास्त्रोंका अमृत ग्रन्थ में है। पढ़ भी रहा हूँ जीवनमें उतारने की कोशिश भी है।
दक्षिण भारत में महाराज श्री जो कर रहे है वैसा काम तो राजा अशोक नहीं किया होगा। ऐसे प्रान्त जो धर्म से अछूते रहे वहाँ पर पूज्य महाराज श्री ने जो कुछ किया है, आपकी थाती बन गई।
बहुत वर्षो पहले घनश्यामदास बिड़ला ने "गीता" की बढ़िया प्रतियें छपवाकर हर पाँच व तीन तारा होटलों के कमरों में फ्री गिफ्ट के तौर पर भेजकर सारे भारत में प्रचार करवाया था। उसी तरह 'विनय बोधि कण' ग्रन्थ की प्रतियें हर लाईब्रेरी में अवस्य भेंट कर भिजवायें।
आने वाली पीढ़ी को 'बोधि कण' प्रदान करने का यह प्रयत्न गुरुवर को अमरता देगा।
स्वाध्याय जिनेन्द्र कुमार जैन दिल्ली सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट, दिल्ली
Page #313
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्व बोध ग्रन्थों में विनय बोधि कण' पुस्तक अपने आप में | श्रीमती इन्दिरा भटेवडा, उपचेयरमेन, नगरपालिका बिजय नगर (राज.) अनुठी, सुन्दर एवं अत्यन्त ही उपयोगी तो है ही, साथ ही पूरे जैन समाज एवं समस्त संघो के लिए संग्रहणीय है।
'विनय बोधि कण' चलता फिरता आराधना भवन ही है।
जिसने भी देखा, चाहा, सराहा। धर्म के ज्ञान का महान शाश्वत धर्म पत्रिका बेंगलोर (कर्ना.)
खजाना और इतनी अच्छी गेटअप के साथ हम कह सकते पुस्तकें एक से एक अनुपम एवं सार गर्भित है। स्वाध्याय
है कि ऐसी बहुत कम पुस्तकें है। मन बहुत ही हर्षित हुआ। हेतु उपयोगी सिद्ध हुई है 'विनय आराधना' में हिन्दी -
डॉ. धर्मचंद मेहता, श्री नाथद्वारा (राज.) गुजराती व राजस्थानी तीनों भाषाओं में रचनाएं दी है।
यह 'विनय बोधि कण' पुस्तक हर जैन के घर में होनी पंचांग प्रणतिपूर्वक वंदना ।
चाहिए, जिससे परिवार में सद् संस्कारों के निर्माण में - नैनसुख संचेती, कोप्पल (कर्ना.)
बहुत बड़ी उपलब्धि पा सकते है। ऐसी व्यवस्था एवं "ज्ञान का खजाना" विनय बोधि कण' प्राप्त हुआ। उसके
अनुकुळता बनावे ऐसी मेरी भावना है। लिए आपका उपकार मानते है। धन्यवाद। आप विश्वास
विजय चोपड़ा, (जीत की मेरी) अजमेर (राज.) बनाए रखे कि हम इसका सद्उपयोग ही करेंगे।
आज के जीवन में महत्वपूर्ण पठनीय ग्रन्थ है। इससे सभी कु.शा.नोरतनमल आनंद बोहरा, अलसूर, बेंगलोर (कर्ना.) को अच्छा मार्गदर्शन मिलेगा प्रबंधन बहुत ही सुन्दर है।
पी. जेठमल टाटिया, खींचन जोधपुर (राज.) धूलिया में अमोल जैन ग्रन्थालय में २४ “विनय बोधि कण' प्राप्त हुए। अलग अलग संघो पर समय समय पर
बहुत बहुत प्रभावक और अच्छे शब्दों का तालमेल युक्त भेज दिए जायेंगे। सेवा कार्य लिखें।
प्रस्तुतिकरण लगा, डॉ. उषा महेता परिवार का सहयोग प्रोफेसर प्रेम सुख छाजेड़, धुलिया (महा.) प्रशस्त हुआ।
शान्तिलाल ललवानी, पाली (राज.) 'विनय बोधि कण' ग्रन्थ के वांचन से आत्म कल्याण के साथ, अपने जीवन में बदलाव आकर धर्म की धूरी पर
'विनय बोधि कण' पुस्तक वाकई अद्वितीय है, पैकिंग भी अग्रणी होने में सहायता मिल सकती है।
बहुत ही सुन्दर थी । यह पुस्तक संघ के पुस्तकालय में
रहेगा, जिससे सभी श्रद्धालुजन लाभ ले सकेंगे। लालचंद लूंकड़, मरुधर पत्रिका, जोधपुर (राज.)
संजय चौपड़ा, सहमंत्री, सदर, नागपुर (M.S) ज्ञान पिपासु साधकों के लिए प्रश्नोत्तर रूप में 'विनय बोधि कण' एक मौलिक ज्ञान खजाना है शासन प्रभावना का
आपकी ज्ञान आभा से चकित हैं आप का ज्ञान पुरुषार्थ आपका कार्य प्रगतिपथ पर बढ़ता रहे, यही मनो कामना ।
ऐसा गजब का है कि इतना अच्छा लेखन प्रकाशन सहज
हो रहा है। निःशुल्क वितरण किया जा रहा है। धन्यवाद। सोहनलाल नथमल टाटिया, समर्थ आराधना भवन, चौपड़ा (M.S)
छोटी कसरावद,संघ (म.प्र) अगर सुविधा हो तो और दो प्रति 'विनय बोधि कण'
'विनय बोधि कण' अध्यात्म आलोक के जिज्ञासु श्रावक भेजने की कृपा करें।
इसको पढ़ रहे है, बहुत ही उपयोगी है। मेरी भ्रान्तियें दूर कल्याणमल डागा, मन्त्री, श्री साधुमार्गी जैन ज्ञान श्रावक संघ, हुई तथा ग्रन्थ की महिमा के लिए मेरे मस्तिष्क में कोई
___ जोधपुर (राज.) उचित शब्द नहीं आ रहा है। शासनदेव, मेहता परिवार
को दीर्घायु देवें एवं इसी तरह शासन की सेवा करते रहे, चारों ही भाग चिन्तनात्मक व उपयोगी है। प्रश्न संकलन
यही परम पिता परमेश्वर से प्रार्थना करते है। भी चार हजार से ज्यादा है। ज्ञान का तो खजाना ही है।
मोहनलाल बाफना, मल्हारगढ़ (म.प्र) धर्म के प्रति अभिरुचि पैदा करने की आप की सुन्दर क्षमता को शत्शत् अभिनंदन।
'विनय बोधि कण' प्राप्त हो गई। बागली में भी प्राप्त हो गई मोहनलाल रांका, खामगांव (M.S) है। यह ग्रन्थ बहुत उपयोगी एवं पढ़ने योग्य है। स्वाध्याय
मंडल में जिसे भी आवश्यकता होती है, पढ़ने के लिए मेहता परिवार ने एक अच्छे ग्रन्थ का प्रकाशन ज्ञानवर्धक प्रश्न- | देते रहते हैं। सुन्दर संकलन के लिए मणीबेन कीर्तिलाल उत्तर का संकलन छपवाया है, पुण्योपार्जन का काम किया।
Page #314
--------------------------------------------------------------------------
________________
मेहता आराधना भवन कोयम्बतुर बधाई के पात्र है। । प्रश्न उत्तर द्वारा आगमों का जो ज्ञान हमें दिया है। वह बहुत बहुत बधाई।
बहुत उत्तम है। इतनी सरल भाषा में आगमों की जानकारी . महेन्द्र जिन्दाणी, साकेत नगर, इन्दौर (म.प्र) देकर गुरूदेव इस पुस्तक को पढ़ने वालों के मन में आगमों .
के स्वाध्याय प्रति उत्सुकता व इच्छा बढ़ायेंगे। आपके द्वारा भेजी गई स्मृति 'विनय बोधि कण' सुरक्षित
गौतम चंद गोलेच्छा, घाटकोपर मुम्बई प्राप्त हुई। अभी अभी खोला है। स्व. पूजनीय मातुश्री मणिबेन किर्तीलाल मेहता को समर्पित इस अंक का अध्ययन आप जैसा सज्जन श्रावक बहुत कम देखने में आये है। करने के पश्चात समीक्षा छापकर पत्र सातवाँ दिन गौरान्वित जो समाज का ध्यान रखते हुए 'विनय बोधि कण' ग्रन्थ होगा।
को समाज तक पहुँचने के बारे में निरन्तर प्रयास कर रहे सातवौँ दिन पत्रिका, डॉ. विनोद कोचर, बालाघाट (म.प्र) हैं। आपने ग्रन्थ की जो पेकिंग की है, उसके लिये आपको 'विनय बोधि कण' पुस्तक हाथ में लेने पर छोड़ना नहीं धन्यवाद। आपको धर्म दलाली का पूरा लाभ प्राप्त होगा। मालूम पड़ा। पुरा पढ़ने की कोशिश कर रहा हूँ। अभी सारे भारत वर्ष में उसकी प्रतियां भेजकर आपने जो धर्म बहुत से भाई और बहनों ने लाभ लिया है। और भी इससे दलाली कमाई है, प्रभु से प्रार्थना है कि आपको अवश्य लाभान्वित होंगे।
लाभ मिले। किसनलाल रतनचंद मुनोत सतपाल जैन, जैन गली, टोहाना, जिला फतेहबाद (हरियाणा) जैन स्वाध्याय, भवन, बीड (महाराष्ट्र)
३२ शास्त्रों का मंथन करके भी जो हमें प्राप्त नहीं हुआ।वह 'विनय बोधि कण' की सुन्दरता देखते ही बनती है।
नवनीत रूपी बोध इस महा साहित्य को पढ़कर प्राप्त हो उसमें जो गुढ़ प्रश्न उत्तर गुरूदेव के मुखारविंद से समझाये रहा है। विनय बोधि कण’ सागर के मोती स्वरूप लग रहा गये है। उनको पढ़कर सुश्रावक बोधि को प्राप्त हो सकता है। ‘विनय बोधि कण' रूपी इस महान ग्रन्थ में ३२ शास्त्रों है। ऐसा मेरा पूर्ण विश्वास है। गुरूदेव का उपकार है।
का निचोड़ है। स्तवनों को स्वाध्याय में गाते हुए हमेशा गुरूदेव को याद
सूर्यकान्त पारख, होलनाथा (M.S.) करते रहते हैं। डॉ. उत्तम जैन, कालानीनगर, इन्दौर (म.प्र) जैन रत्न पुस्तकालय-भोपालगढ़ में दर्ज कर लिया गया है।
स्वाध्याय करने वालों को नियमित रूप से पढ़ने हेतु दिया 'विनय बोधि कण' हमें बेहद पसंद आई, यह पुस्तक जायेगा। अत्यन्त जीवनोपयोगी व जीवन तारणहार ग्रन्थ हम और मंगवाना चाहते है सो आप कृपा कर VPP द्वारा है। अत्यन्त हर्ष व सधन्यवाद! भिजवावें।
सोहनलाल बोथरा, भोपालगढ़ (राज.) आनंदीलाल बड़ाला, सनवाड उदयपुर (राजस्थान)
'विनय बोधि कण' डाक से प्राप्त हई। 'विनय बोधि कण'.
भाग १,२और ३ अतिरिक्त भेजे, जिसकी अत्यावश्यकता 'विनय बोधि कण' मैनें मदनगंजसंघ, संघ तथा है। जो हमारी पुस्तकालय में सूचीबद्ध होगी। ताकि सभी वृजमधुकर संघ को दे दिए है और ये सभी अजमेर से श्री को (चतुर्विध संघ) लाभान्वित किया जा सके। गुमानमलजी लूणिया से लाये थे। ऐसा ही आशीर्वाद पुरुषोत्तम धारीवाल, मेनेजर, सुधर्मसंघ, शास्त्री नगर जोधपुर (राज) मिलता रहे, आप जीओ लाखो साल। एस.एल जैन, मदनगंज, (राजस्थान)
'विनय बोधि कण' ग्रन्थ अति उत्तम व स्वाध्याय करने
वालों के लिए महत्वपूर्ण है। अतः यह ग्रन्थ मैने संघ के अत्यन्त उपयोगी, श्रेष्ठ ज्ञान का भण्डार ‘विनय बोधि पुस्तकालय में रख दिया है। राजस्थान में कोई भी संत कण' प्राप्त हुआ, पुस्तक प्राप्त कर अत्यन्त ही प्रसन्नता
सतीवृंद के मंगाने पर पढने के लिए दे देंगे। बहुत ही प्राप्त हुई। महत्वपूर्ण ज्ञान अन्यों को भी देने का है।
रोचक व अच्छी लगी। वीरेन्द्र कोठारी, औबेदुल्लागंज (म.प्र)
बुधराज झामड़, मेड़ता सिटी (राज)
“विनय बोधिकण" प्राप्त हुआ। स्वाध्याय करके बड़ी खुशी
'विनय बोधि कण' (प्रश्नोत्तर की किताब) प्राप्त हुई। विनय हुई। मुनिश्री ने खूब खोज तथा मेहनत की।
आराधना में संग्रहित प्रत्येक भजन वैराग्य भावना से भरपूर प्रताप सिंह जैन, जनपथ समाचार सिलीगुड़ी (आसाम)
| है। आपका प्रयास बहुत ही महान है। आप जिनशासन एवं
Page #315
--------------------------------------------------------------------------
________________
गुरुभक्ति की जो महान प्रभावना कर रहे है। वह सराहनीय | और आपश्री इसी तरह धर्म की जाहोजलाली करते रहे।
रमेश चंगेरिया , बोलिया (म.प्र) विमल मूथा, पल्लिपेट, तिरूवल्लूवर (त.ना)
कृपया ऐसा उच्च कोटि का धार्मिक साहित्य भविष्य में भी 'विनय बोधि कण' इतनी सुन्दर एवं उत्तम विचारों के यथा समय भेजने की कृपा करावें। इस प्रकार के उत्तम ज्ञान से परिपूर्ण ग्रन्थ पाकर धन्य हुये। एवं हृदय से साहित्य का सामायिक एवं स्वाध्याय प्रवृत्ति में पठन करने आपके आभारी है। म.सा.जी का आशीर्वाद एवं स्नेह, की भावना है। ज्ञान भविष्य में सदैव प्राप्त होता रहेगा।
जौहरीमल छाजेड़, जोधपुर (राज.) सुभाष जैन, देवास (म.प्र)
'विनय बोधि कण' नव तत्व विवेचना सार, सामायिक २५ सेट (विनय बोधिकण) और चाहिये, कृपया हम भाष्य सार प्राप्त हुई। आपसे सानुरोध है कि यह पत्रिकाएं उस हेतु आपको रूपये कैसे भिजावें, यह लिखने की कृपा सरकारी विभाग में भी भेजे, ताकि वह सुधर सकें। करें। बहुत ही अच्छी धार्मिक पुस्तक है।
सम्पतराज खाटेड, रंगीला राजस्थान, लाडनू (राज) श्रीमती शकुन्तला संघवी, इन्दौर (म.प्र)
आप द्वारा प्रेषित पुस्तक - जिनवाणी के अध्ययनशील पांच शिविरों की पुस्तिकाएं प्राप्त हुई। ऐसे अमूल्य उपहार श्रावकों के उपयोग में आवेगी। हमारे समुदाय के कर्णधारों के लिए जितनी प्रशंसा और धन्यवाद दिया जाए वह के विचारों में परिवर्तन नहीं होगा, तब तक हम सामायिक कम है।
साधना में आगे नहीं बढ़ सकते। मैं और आप आगे बढ़ने श्रीमती पूजा खजांची, इन्दौर (M.P.) की कोशिश करेंगे। ऐसी आशा सहित।
नौरतनमल बाबेल, व्यावर (राज) हमारे लिए बहुत अच्छी व जीवन में उपयोगी सिद्ध होने वाली आपकी पत्रिका सराहनीय है। विशेष हमें आपकी अन्तगड़सुत्र वाचना मिली। पढ़कर बहुत आनंद आया। पत्रिकाएं देखकर ऐसा लगा कि अपने हाथों से इतना भगवान से प्रार्थना करते हैं कि आपकी सफलता दिन दूनी बढ़िया लेखन, सुनियोजित ढंग से ऐसा कार्य करना रात चौगुनी फलती रहे। अपने आप में एक बड़ी उपलब्धि है।
ज्ञानचंद कटारिया, लखपतराज एण्ड कंपनी, जोधपुर (राज) ___AGAM NIGAM, MUMBAI (M.S.)
'विनय बोधि कण' ग्रन्थ आपकी व्यवस्था द्वारा मुझे मिल 'विनय बोधि कण' पढ़कर अति हर्ष हुआ। आपकी सेवा
गया है। यह ग्रन्थ जैन धर्म के अमूल्य सिद्धान्तों का एकीकृत बहुत सराहनीय है। ऐसी ज्ञान से भरी पुस्तकें भेजने की
संकलन है एवं निसंदेह बहुउपयोगी एवं गागर में सागर कृपा करेंगे। हमने यह पुस्तकें लाईब्रेरी में रख दी है।
की भांति है। इसको कोई भी श्रावक एवं कोई भी साधु साध्वी पढ़ सकतें
प्रकाशचंद चोपड़ा, रायपुर (छत्तीसगढ़)
पतराम जैन, पिलुखेड़ामंडी (हरियाणा)
'विनय बोधि कण' ग्रन्थ हमें प्राप्त हो गया। महावीर स्वामी
की अंतिम देशना चित्र सहित है, वह ‘विनय बोधि कण' संस्कार शिविर आयोजित किये गये, उनसे सम्बधित साहित्य | भेजने की कृपा करावें। मुझे प्राप्त हुआ। पढ़कर ज्ञान वृद्धि हई तथा जिस जिस
बालचंद राखेचा, इन्दौर (म.प्र.) ने पढ़ा उन्होंने सराहना की। मुझे 'विनय बोधि कण' की पुस्तक मिली थी, वो भी सराहनीय रही।
'विनय बोधि कण' प्राप्त हुई, वाकई एक अद्वितीय पुस्तक हंसराज जैन, रोहतक (हरियाणा)
है। अगर और पुस्तकें छपी हो तो कृपया भिजवाने की
महेरबानी करावें। विनय भावना पढ़कर हर्ष से पुलकित हआ। आपश्री की
अशोक महेता, इछावर (म.प्र) धर्म भावना देखकर मन गद गद हुआ। मैं जिनेश्वर देव से प्रार्थना करता हूँ कि आपकी धर्म भावना ऐसी ही बनी रहे। । पुस्तकें रजिस्ट्री पार्सल से प्राप्त हुई। आप सभी को संघवी
Page #316
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिवार की ओर से सादर जय जिनेन्द्र। पुस्तक बहुत | ‘विनय बोधि कण' मिली पुस्तक का उपयोग हो, इसलिये अच्छी छपी है।
एक एक सप्ताह के लिए एक एक जैन परिवार को पढ़ने । कनकमल बदामबाई संघवी पारमार्थिक ट्रस्ट, गौराकुण्ड, इन्दौर (म प्र.)
के लिये दी जाय ऐसा सोचता हूँ। पर्युषण पर्व बाद जैन
पुस्तकालय में रख दी जायेगी। 'विनय बोधि कण' किताबें यहाँ पहुँच गयी। आदेश अनुसार
खींचन प्रवासी - हीरालाल जैन, विशाखापट्टनम (A.P.) पुस्तकें इन क्षेत्रों में - चिदम्बरम, सीरकाली, मायावरम, कड़लूर, पांडीचेरी, तिन्डीवनम, मदुरांतकम, पनरूटी, ग्रन्थ बहुत ज्ञानवर्धक है। आप द्वारा भेजी गई पुस्तक विल्लिपुरम, उलंदूरपेट, तिरूकोईलूर आदि पहुँचा दी तेरापंथ समाज अहमदाबाद के अध्यश्र श्री जीतमलजी गई है। ये पुस्तकें बहुत लाभदायक है।
भंसाली जो एक अच्छे स्वाध्यायी हैं, उनकी रूचि देखकर पी. चन्द्रप्रकाश, कड़लूर (त.ना) उनको देनी पड़ी, और ग्रंथ भिजवावे।
पारसमल बागरेचा, बेंगलोर (कर्ना.) 'विनय बोधि कण' पुस्तक हमें प्राप्त हो गई है। पुस्तक हमारे लिये बहुत बहुत उपयोगी एवं मार्ग दर्शक सिद्ध
'विनय बोधि कण' ग्रन्थ बहुत ही उपयोगी है एवं अध्ययन होगी। पु. मुनिश्री जोरदार जिनवाणी का अमृतपान करा
करने से आध्यात्मिक ज्ञान की बहुत जानकारी होती है। रहे हैं। आप लोग बहुत पुण्यवान हैं।
एवं ज्ञान वृद्धि होती है। धरमचंद खारीवाल, वेपेरी, चेनै (T.N.)
रमेशचंद श्रीमाल, चामराजनगर (कर्ना.) 'विनय बोधि कण' पुस्तक के द्वारा गुरूदेव के ज्ञान की
'विनय बोधि कण' ग्रन्थ हमको प्राप्त हो गया है। एवं गंगा का कुछ अंश सीखने का अवसर हमें भी मिला।
उसका हम स्वाध्याय करते हैं। इस पुस्तक के द्वारा हमारे गुरुदेव के ज्ञान का प्रकाश फैलाने में गुरूवर की सेवा में
ज्ञान में उत्तरोत्तर वृद्धि हो रही है। तत्पर रहेंगे। जय जिनेन्द्र। धन्यवाद!
__ शुक्लचंदजैन - कान्तादेवी जैन, दिल्ली (दिलशाद गार्डन) इन्दु ए. कटारिया, बेंगलोर (कर्ना.)
'विनय बोधि कण' किताब मिल गयी है। धन्यवाद! और पुस्तक मिली। वाणी भूषण रतनमुनिजी के सुख साता
कोई आवश्यकता पड़ी तो जानकारी देंगे। कृपा बनी रहे। है। चातुर्मास शानदार रहा। पुस्तक का स्वाध्याय हो रहा
मिश्रीलाल गोलेच्छा, विलेपार्ले, मुम्बई (M.S.) है। बेजोड़ व शानदार कृति है।
पुस्तकें बहुत सुंदर है और युवाओं के जीवन के लिए एस. मोहनलाल मूथा, शांतिनगर, बेंगलोर (कर्ना.)
अत्यन्त प्रेरणादायी है। इस श्रुत सेवा के लिए आप, 'विनय बोधि कण' ग्रन्थ सबको बहुत पसंद आया।
संकलनकर्ता प्रेरणा के स्रोत है। किरणदेवी और उनके सपरिवार, पहाड़गंज दिल्ली - ५५
सम्पतराज चौधरी, दिल्ली आपका तरूण जैन में 'विनय बोधि कण' जो भी आता है,
“विनय बोधि कण' हमारे यहाँ पहुँच गयी है। पुस्तक स्वाध्यायी कटिंग करके रख लेती हूँ। अच्छा ज्ञान वृद्धि कारक है।
के लिए व शिविर में अध्ययन करनेवालों के लिए बहुत ___ शान्ता जैन, पश्चिमविहार, दिल्ली उपयोगी है। पुस्तक 'विनय बोधि कण' अति सुंदर व आध्यात्मिक
संतोषकुमार बाफना, राजनांदगांव (छत्तीसगढ़) प्रगति में विशेष लाभदायक है। जय नगर संघ में प्रतिदिन सुचारू रूप से धर्म ध्यान स्वाध्याय चल रहा है।
दक्षिण में खूब प्रभावना कर रहे है, यह शुभ संकेत है।
इन वर्षों में प्रश्नोत्तर, गीत, भजन की पुस्तकें प्रकाशित हुई उत्तमचंद दुगड़, जयनगर, बेंगलोर (कर्ना.)
हो तो किन्ही बन्धुवर से संकेत करके, भिजवाने की कृपा 'विनय बोधि कण' स्वाध्याय में रूचि, रखने वालों के लिए करें। शिक्षा संकेत युक्त पत्र लिखवाते रहे। यह पुस्तक अति उपयोगी साबित होगी।
धरमचंदजी महावीरचंदजी संचेती, डोंडी लोहारा (C.G) केवलचंद जैन, (पिरगल) बेंगलोर (कर्ना.)
'विनय बोधि कण' (डाक) खोलकर देखने पर मन अति
Page #317
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रसन्न हुआ। ग्रंथ स्थानक भवन में रखकर प्रतिदिन सुबह स्वाध्याय होता है। इस ग्रंथ को पढ़ने व पढ़कर अन्य श्रावकों को सुनाने के भाव रखता हूँ।
कंवरलाल जैन, बालोद (C.G)
"विनय बोधि कण' ग्रन्थ बहुत लोगों की माँग है (कम से कम ४०-५० प्रति) ज्ञान का अपूर्व कोष भण्डार है, जो भी देखता है, मंगा दो।
पुखराज ललवाणी, (मुनिश्री के काकाश्री) रायपुर (C.G) 'विनय बोधि कण' पुस्तक भिजवाने के लिए आपको बहुत बहुत धन्यवाद। पठनीय आचरणीय, अति उत्तम है। धन्यवाद सहित
·
माधवी सांखला, दुर्ग (छत्तीसगढ़)
"विनय बोधि कण' पुस्तक की (पुरानी आवृत्ति) आ चुकी है। इसलिए मुझे पता है यह कितनी उपयोगी ज्ञानवर्धक है। उसमें किसी तरह के charge का उल्लेख नही हैं, इसलिए समझ में नहीं आ रहा क्या करना चाहिये ? मंडल को और Books चाहिए।
Bharti B. Lodaya, Jalgaon (M.S)
दो पुस्तकें प्राप्त हुई। आपको बहुत बहुत धन्यवाद। पुस्तकें बहुत सुंदर बन पड़ी। आपके प्रयास से जन जन अधिक से अधिक लाभ उठावे, यही मंगलकामना।
उमरावमल सियाल, इन्दौर (म. प्र. )
'विनय बोधि कण' पुस्तक की उपयोगिता के बारे में इतना लिखना भी कम होगा कि आत्मा को प्रकाशित करने में यह पुस्तक उपादेय होगी।
उमरावमल जैन, टाँक (राज)
मेरे शुभ कर्मों के उदय से 'विनय बोधि कण' पढ़ने को मिला अनेकानेक श्रावको ने पठन किया है। भाषा सरल एवं सीधी होने से ५-५ बुक हमें भिजावें ।
रिखबचंद बेद मेहता, जोधपुर (राज.)
आपकी ओर से सेवा अजोड़ है, शासन की सेवा करते रहिए। ज्ञान ध्यान में आगे बढ़ें। ज्ञान वृद्धि के साथ साथ आत्म शुद्धि होगी।
भाविन भाई वकील खंभात स्थानक जैन संघ (गुज.) अहमदाबाद में श्रीमान विजयराजजी बोहरा के यहाँ पढ़ने
293
को मिली। 'विनय बोधि कण' से धर्म-ज्ञान में वृद्धि होगी। नोरतनमल बुरड़, अहमदाबाद (गुज.)
'विनय बोधि कण' अमने मलेल छे। अने अमो आपना आभारी छीए । अ जे आपणे त्या आवां बहुमुल्य पुस्तक मोकलेल छे।
राजस्थान एस एस जैन संघ, हरिनगर, अहमदाबाद (गुज.)
विनय बोधि कण' मने मत्युं छे विहंगावलोकन करता पुस्तक खूबज ज्ञान वर्धक अने जीवन उपयोगी छे। ज्ञान प्रचार ना आपना सुंदर कार्य बदल खूबज धन्यवाद। अने आपना पुरुषार्थनी हूँ अनुमोदना करूं छु।
पोपटभाई पटेल, अहमदाबाद (गुज.)
आपने द्वारा मोकलेल पुस्तक मली, शासननी सेवा करो छो। अमरेली संघ आपनो आभारी छे ।
किशोर दोसी, स्था संघ, अमरेली (गुज.)
विनय बोधि कण' मली गयेल छे पेकींग घणुज सरस छे। जेयी ग्रन्थ सारी रीते सही सलामत पहोंची गयेल छे। बुक बहुज सारी छे स्वाध्याये काम आवशे ।
विनोदकांत हरिलाल, मुजफ्फर नगर (U.P.)
'विनय बोधि कण' जैन समाज के सभी वर्ग के लिए अति महत्वपूर्ण ज्ञान वर्धक एवम् पुस्तकालय में संग्रह के साथ साथ श्रद्धालु बुद्धिजीवी लोग अपने ज्ञान का सम्यक् विस्तार आसानी से करेंगे।
श्री विचक्षण स्वाध्याय केन्द्र छोटी जैन दादावाडी नईदिल्ली
'विनय बोधि कण' में एक साथ शास्त्रों के गूढ़ प्रश्न उत्तर के माध्यम से सहज ही हृदय को छुनेवाला महसूस हुआ । जगदीश बोहरा मंड्या (कर्ना.)
'विनय बोधि कण' बहुत ही उपयोगी ग्रन्थ है, यह बहुत ही ज्ञान का खजाना है
श्यामलाल दिलीप गन्ना, जसवंत कोठारी, मैसूर (कर्ना.) ‘विनय बोधि कण' को पढ़कर अन्यों को लाभ लेने हेतु अवश्य दूंगा।
अमरचन्द सेठिया बेंगलोर (कर्नाटका)
मेहता परिवार को लाख लाख बधाई।
Page #318
--------------------------------------------------------------------------
________________
ज्ञान भण्डार नामक विनय बोधि कण ग्रन्थ प्राप्त हुआ। पू. गुरूदेव तपस्वीराज के आदर्श सुशिष्य रत्न गुरुदेव विनय मुनिजी म.सा को वंदना सुखसाता पृच्छा ज्ञात करावें।
चंपालाल मकाना दौड्डबालापुर (कर्ना.)
ज्ञान की प्रभावना से तीर्थंकर नाम गोत्र बांध रहे हो,.. पढ़मं णाणं तओ दया, जो अभयकुमारजी की बुद्धि जैसी । ज्ञान गंगा मिली है।
श्रीमती कमलादेवी सालेचा, बालोतरा (राज.)
बहुत ही उपयोगी है, ज्ञान बढ़ाने हेतु सहायक, सिद्ध होगी।
-पी. प्रकाशचन्द खींवसरा शांतिनगर, बेंगलोर (कर्ना.)
'विनय बोधि कण' देखकर बहुत ही रोमांचक लगा। बहुत ही अनुकंपा की है।
मोहनलाल खटवड़, मावली जं (राज.)
अद्वितीय, बेजोड़ कृति, नई सदी की पुस्तक 'विनय बोधि कण' पढ़कर आत्मिक आनंद प्राप्त हुआ। आस्ट्रेलिया एक प्रति भेजी है, पुत्र रोहित बोहरा के लिए। धन्यवाद
कु.शा. महावीर बोहरा अलसूर, बेंगलोर (कर्ना.)
'विनय बोधि कण' मिली। उत्तम प्रकाशन किया । आपने स्मरण किया - उसके लिए आभार।
अक्षय जैन, 'दालरोटी' पत्रिका मुम्बई (महा.)
संघ ने सराहनीय भाव दर्शाये तथा संघ की धरोहर बन चुकी है 'विनय बोधि कण'।
राणुलाल कोचर विजयानगरम् (A.P)
हम स्वाध्याय में रुचि रखने वाले होने के नाते यह 'विनय बोधि कण' हमारे लिए बहुत ही उपयोगी सिद्ध होगी।
बसन्तकुमार जैन, उबाले (म.हा)
हस्तलिखित नये तरीके की साज सज्जा के साथ अनुठा 'विनय बोधि कण' ग्रन्थ में बड़ी मेहनत से, तन मन धन संग्रह है, तथा दुर्लभ सत्कार्य है।
से बना है। आप सभी शासन की सेवा कर रहे हैं। हंसराजे कोठारी रायपुर (C.G)
सुरेश नागसेठिया, नाशिक (महा.) 'विनय बोधि कण' ग्रन्थ जिनवाणी का अमूल्य तोहफा
‘विनय बोधि कण' ज्ञान ध्यान के लिए बहुत ही उपयोगी सिद्ध होगा ही, साथ साथ सकल संघ के ज्ञान वृद्धि में |
है। पुस्तक बहुत ही बढ़िया है। सहायक होगा।
बी. केवलचंद गुलेच्छा, मुम्बई (महा.) कमलचन्द टाटिया, विशाखापट्टनम् (A.P)
जिनशासन की श्रुत सेवा के लिए वीतराग प्रभु से हम मेहता परिवार को बधाइयां! 'विनय बोधि कण ग्रन्थ'
आपकी दीर्घायु की प्रार्थना करते है। विनय बोधि कण का अति उत्तम श्रेष्ठ ग्रन्थ देखा, स्वाध्याय निरन्तर जारी है।
संघ के बहुत सदस्यों ने उपयोग किया। सन्तोष पितलिया हैदराबाद (A.P)
प्रसन्नचंद बाफना, अमलनेर (M.S)
'विनय बोधि कण' ग्रन्थ का काटुन प्राप्त हुआ। सधन्यवाद। स्वाध्याय हेतु उत्तम है।
अनिल जैन, आन्ध्रप्रदेश स्वाध्यायी संघ, हैदराबाद (A.P)
अत्यन्त उपयोगी ग्रन्थ है। लाख लाख धन्यवाद
विनोद दीपचंद बोथरा, पाचोरा (M.S)
हमारा प्राथमिक ज्ञान बढ़ाने में बहुत सहायक होगी, बहुत अच्छी जानकारी है।
राजेन्द्र गोलेच्छा, राजनांदगांव (C.G)
महत्ति कृपा करके 'विनय बोधि कण' भेजा तदर्थ भंडारा संघ का आभार
टीपी सुराना, जैन संघ, भंडारा (M.S)
हर व्यक्ति के जीवन में आचरण करने योग्य प्रश्नोत्तर
'विनय आराधना' हमारे घर के सभी २६ सदस्यों हेत भिजवावें, सभी को बहुत ही पसंद आई।
लालचंद पोरवाल, पाली (राज.)
ताराशंकर, नागदा (म.प्र)
Page #319
--------------------------------------------------------------------------
________________
सनवाड़ स्थानक के लाइब्रेरी रजिस्टर में ८९४ न. पर | आगम भवन औरंगाबाद इसका पूरा पूरा सदुपयोग करेगा। जमा कर ली गई है। धन्यवाद !
आपकी सेवामें सदैव । नवलसिंह चपलोत, सनवाड़ (राज.)
नरेश गणेशमल बाफना, औरंगाबाद (M.S)
'विनय बोधि कण' पुस्तक से संघ के सभी घटक तथा
ग्रन्थ सभी को बहुत ही पसंद आया, चित्रावली ने पुस्तक स्वाध्यायी बंधु लाभान्वित होगे।
में चार चांद लगा दिए। समझने में बहुत ही सरल भाषा मे __शांतिलाल कोठारी, चिकारड़ा (राज.)
लिखा है, सकल संघ ग्रन्थ का उपयोग ले रहा है। 'विनय बोधि कण' का स्वाध्याय करने में आनंद आ रहा
मनीष बोगावत, पाढर कवड़ा (M.S) है। अनमोल रत्न है।
अध्यात्म ज्ञान का उत्तम संग्रह है। देवीचंद भण्डारी, स्वाध्याय चिंतन केन्द्र, जयपुर (राज.)
'विनय बोधि कण' बहुत ही उपयोगी लगी। आपकी इस श्रुतसेवा के लिए हार्दिक आभार ।
वरिष्ठ स्वाध्यायी, जशकरण डागा, टोंक (राज.) रतनलाल जैन, स्वाध्याय संघ, गुलाबपुरा (राज.)
हमने ज्ञानार्जन शुरू कर दिया है। आसींद संघ द्वारा बधाइयाँ, ग्रन्थ मिला
प्राज्ञ महिला मण्डल, गुलाबपुरा (राज.) श्री स्था संघ, आसींद (राज.)
चारित्र आत्माओं द्वारा 'विनय बोधि कण' का उपयोग हो आप जो जिन शासन की प्रभावना कर रहे हो वह शब्दातीत
रहा है, बहुत ही उपयोगी है है, पुस्तक पठनीय और अभिनन्दनीय है।
वरिष्ठ स्वाध्यायी, चंचलमल चोरड़िया, जोधपुर (राज.) कमलचंद कटकानी, रतलाम (म.प्र)
पू. विनयमुनिजी की बहुत अनुकंपा से हमें सद् साहित्य 'विनय बोधि कण' की प्राप्ति से प्रसन्नता हुई, अन्य
पढ़ने को मिल रहा है। साहित्य भिजावे
बंशीलाल बाफना, भूपाल सागर (राज.) मंजुश्री बहुमंडल, कोपरगांव (M.S)
आचार्य सुदर्शनलालजी म.सा की सेवा में प्रस्तुत कर दी बहुत ही उपयोगी ग्रन्थ साबित होगा।
गई है। वर्द्धमान पावेचा, मोरा (म.प्र)
ताराचंद जैन, नसीराबाद (राज.) महिला संघो के लिए बहुत ही उपयोगी महत्वपूर्ण ग्रन्थ
'विनय बोधि कण' बारी बारी से समाज के घरो में पढ़ने
हेतु भेज रहे है। पुस्तक बहुत ही अच्छी लगी। नोरतनमल चपलोत, गुलाबपुरा (राज.)
उत्तमचंद लूणावत, श्रीसंघ, मदारगेट अजमेर (राज.) 'विनय बोधि कण' की दस प्रतियें भिजवाने की कृपा करावें।
'विनय बोधि कण' ग्रन्थ का फिलहाल अध्ययन चारित्र आर.हरखचंद डोसी, सांचोर (राज.)
आत्माएं कर रही है। एक अच्छी पुस्तक मिली, बहुत बहुत धन्यवाद
भीकमचंद सुराना, गोविन्द गढ़ (राज.) जयप्रकाश सिंघवी, जैन संघ। बकानी (राज.)
सन् १९९६ में दर्शन हुए, शरीर ९० वर्ष का हो चुका है। 'विनय बोधि कण' हमारे ज्ञान भण्डार में रखी गई है। | रायपुर में निर्मित 'विनय बोधि कण' का प्रथम भाग धन्यवाद
देखकर अति आहलाद हुआ। खरतरगच्छ संघ, जयपुर (राज.)
स्वतन्त्रता सेनानी तथा पूर्व विधायक,
चंदनमल बनवट, आस्टा (म.प्र) बहुत ही सारगर्मित तथा सभी के लिए उपयोगी है।
(मूल निवासी - खींचन) बुधराज जामड, मेड़ता सीटी (राज.)
है।
295
Page #320
--------------------------------------------------------------------------
________________
पुस्तक अमने बहु फाव्यु, संघ में रख दिया है
ग्रन्थ हमने नजदीकी क्षेत्र मालेगांव में देखा था। जो कि हमें मनुभाई मोदी, हर्षदभाई रुपानी, प्रफुलभाई तुरखिया पाठशाला के बच्चों के लिए अत्यन्त उपयुक्त लगा। . गुजरात स्था.संघ, इन्दौर (म.प्र) आपश्री ने हमारे इस छोटे क्षेत्र को भी याद रखके किताब
भेजी, इसके लिए धन्यवाद। 'विनय बोधि कण' पढ़ने के बाद संस्था में रख दूंगा। श्री
सविता प्रदीपजी सुराणा, देवाला (महाराष्ट्र) पंकज, श्री कौशिक, श्री परेश महेता का हृदय से आभार मानता हूँ।
We have received the book through Srichand Jain,
Jain Bandhu वीरेन्द्र कुमार नाहटा, ग्वालियर (म.प्र)
सुरजीत कुमार जैन 'विनय बोधि कण' सागर में मोती की तरह हमें लगती है।
For S.S.Jain Sabha, Janakpuri, Delhi पुष्पा श्रीमाल, सारंगपुर (म.प्र) १४३ विषयों पर काव्यांजलि ‘विनय आराधना' श्रेष्ठ कृति है।
दानमल जैन, छापीहेड़ा (म.प्र.) 'विनय बोधि कण' ज्ञानवाणी के संकलन से मनासा संघ अवश्य ही लाभान्वित होगा।
प्रश्नोत्तर एवं बोध वाक्यों से सुसज्जित यह ग्रन्थ सभी नरेन्द्रकुमार भण्डारी, मनासा (म.प्र)
भव्य आत्माओं के लिये बहुत ही उपयोगी है।
भंवरलाल बोथरा, माड़ी जैपुर, उडीसा 'विनय बोधि कण' पुस्तक बहुत ही उपयोगी है। घर में सभी सदस्य इसका लाभ ले रहे है।
'विनय बोधि कण' यहाँ संघ में पढ़ने का काम लिया जाएगा
तथा सुरक्षित यहां रखा जाएगा। अनुपमा जैन, जयश्री दुगड़, इन्दौर (म.प्र)
तिरलोकचंद जैन, सोनीपत हरियाणा 'विनय बोधि कण' देखी। बहुत अच्छी शिक्षाप्रद है।
'विनय बोधि कण' एक श्रावक के यहाँ पढी , बहुत ही ज्ञान शान्तीलाल रूणावाल , झाबुआ (म.प्र) में वृद्धि होने जैसी है। प्रश्न उत्तर भी सटीक व अच्छी
तरह समझाकर दिये है। 'विनय बोधि कण' को ग्रन्थालय की परिग्रहण संख्या
तुषार चम्पालाल मुनोत, बार्शी (महाराष्ट्र) ८७८५ पर व्यवस्थित किया गया है। सर्वोदय जैन विद्यापीठ, सागर (म.प्र) | विनय आराधना जिसमें बहुत ही भावपूर्ण और अच्छे स्तवन
है। 'विनय बोधि कण' ये पुस्तक भी हम सब मण्डलवाले 'विनय बोधि कण' पुस्तक बहुत ही उपयोगी है।
पढ़ रहे है। भंवरलाल बाफना, मन्दसौर (म.प्र)
संगीता गुगले, मलाड़, मुम्बई
'विनय बोधि कण' संकलित सामग्री अत्यन्त दुर्लभ एवं उपयोगी है।
समरथ जैन C.A देवास (म.प्र)
'विनय बोधि कण' बहुत सुंदर ज्ञानकारी युक्त, महत्वपूर्ण जानकारी तथा बोध प्रद पुस्तिका के लिए धन्यवाद। राजेन्द्र लुणावत, R.K समाचार साप्ताहिक,
अमरावती (महाराष्ट्र)
सर्व गुण बोध सम्पन्न किताब 'विनय बोधि कण' हमें प्राप्त हुई। बहुत बहुत धन्यवाद!
सोभागमल मुनीम, शैतानमल मुनीम , मन्दसौर (म.प्र)
जो पुस्तकें आई थी, वह उन उन संघो को पहुँचा दी गई
किमतीलाल जैन, अम्बाला हरियाणा)
'विनय बोधि कण' ग्रन्थ प्रकाशित हआ। हमारे जैन भवन स्थानक में सद्उपयोग हो रहा है।
राजेन्द्रकुमार ललवाणी, सारंगपुर (म.प्र)
'विनय बोधि कण' प्राप्त पुस्तक अपने में एक अलग है। जिसे पढ़कर काफी ज्ञान की प्राप्ति हो सकती है।
हणवंतराज डोसी, सांचोर, (राज.) दिल्ली
Page #321
--------------------------------------------------------------------------
________________
हमारे श्री संघ को "विनय बोधि कण' मिल चुकी है। यह बहुत ही उपयोगी पुस्तक है तथा हमें ४-५ पुस्तकों की और जरूरत है।
दिनेश जैन, चाँदनी चौक, दिल्ली
'विनय बोधि कण' नामक ग्रन्थ हमें प्राप्त हुआ, इसके लिये हम बहुत आभारी है। आगे भी ऐसा कोई ग्रन्थ आदि यदि प्रकाशित होवे तो भेजने की कृपा करेंगे।
विनयचंद जैन श्वेताम्बजैन मन्दिर, चाँदनी चौक दिल्ली
"
"विनय बोधि कण' बहुत ही अच्छा संकलन है, यह बहुत उपयोगी है। तथा इसमें सभी तरह की जानकारियाँ उपलब्ध है। हम अधिक से अधिक इसकी प्रभावना कर इसकी सार्थकता सिद्ध करने का पूर्ण प्रयास करेंगे। सीमा गांधी, सिंगोली (म.प्र) "विनय बोधि कण' प्राप्त ग्रन्थ जलगांव से देखने के लिए यहाँ आया। ग्रन्थ सुन्दर यथानाम तथा गुणयुक्त है। स्था. संघ, पारोला (जि. जलगांव) महाराष्ट्र 'विनय बोधि कण' प्राप्त हुआ। आपश्री को अनन्त धन्यवाद । अनन्त साधुवाद। पुस्तक की महिमा अवर्णनीय है।
रमेश बेदमुथा जैन, उल्हासनगर, मुम्बई (M.S.) 'विनयं बोधि कण' किताब बहुत अच्छी लगी, थोड़ी पढ़ी है और बाकी अभी पढ़नी बाकी है।
बी. सी. जैन, विलेपार्ले मुम्बई (M.S.) आपश्री द्वारा जिनवाणी के प्रसार के प्रयास अत्यन्त ही सराहनीय है। प्रभुवाणी का प्रचार करके जिन शासन की प्रभावना में निश्चित तौर से अभिवृद्धि कर रहे है।
हस्तीमल जैन, मुम्बई (M.S.)
'विनय बोधि कण' ग्रन्थ पढ़कर बहुत ज्ञान प्राप्त हुआ। हम आपके अत्यन्त आभारी है। हम जिस दिन भी विनयमुनीजी को दिल से याद करते है उस दिन उनकी कोई न कोई पुस्तक हमें प्राप्त हो जाती है।
रमेश कान्ताजी - अभिनन्दन जैन, करोल बाग, नई दिल्ली
'विनय बोधि कण' साहित्य जगत की श्रेष्ठ कृति है, पुस्तक भेजने हेतु धन्यवाद । एस. टीन जैन, अबोहर (पंजाब)
297
'विनय बोधि कण' दस ग्रन्थ भिजवायें। बहुत अच्छी उपयोगी 'बुक है। शांतिलाल कोठारी, पश्चिमविहार, दिल्ली
' विनय बोधि कण' सभी को बहुत ही पसंद आई अच्छी लगी, अमूल्य पुस्तक भेजी, धन्यवाद देते है।
धनराज जैन, पीतमपुरा, दिल्ली
पाठकों के लिए पुस्तकालय में रखी गई है तथा उपयोग में आ रही है।
महेन्द्रकुमार जैन, एस एस जैन सभा, अशोक विहार, दिल्ली
'विनय बोधि कण' प्राप्त हुई। अति महत्वपूर्ण ग्रन्थ सदैव उपयोगी हैं। महिला मण्डलों के लिए विशेष उपयोगी है। सोनाली सालेचा, बेंगलोर (कर्नाटका)
‘विनय बोधि कण' ग्रन्थ इस संघ को भेजा, जो कि स्वाध्याय में रूचि रखने वाले पढ़कर अपने ज्ञान को अग्रसर करेंगे। इस पुस्तक में जो ज्ञानवृद्धि हेतु जानकारी दी गई है, वह हर कोई नहीं दे सकता है। जिसके लिए आप तथा आपका परिवार धन्यवाद का पात्र है। इसके अलावा बुक में छपाई इतनी सुन्दर है कि आम आदमी भी इसको सरलता से पढ़कर अपना जीवन सफल बना सकता है। रूपचंद मेहता, किशनगढ़ (राज.)
'विनय बोधि कण' ग्रन्थ मिला। यह ग्रन्थ पढ़कर (स्वाध्याय) कर्मों की निर्जरा अवश्य करेंगे।
सुरेशकुमार बोहरा, मदुरै (T.N.)
‘विनय बोधि कण' पुस्तक मिली, आपका बहुत ही आभार। मुझे स्वाध्याय करने में बहुत ही उपयोगी है।
मृदुलाबेन कामदार, चेन्नै (T.N.)
लम्बी प्रतीक्षा के बाद प्राप्त होते ही प्रसन्नता हुई। स्वाध्याय ज्ञान में वृद्धि, सामायिक तत्वज्ञान में तल्लीनता समभाव शान्ति एवं आनंद की अनुभूति होगी।
'विनय बोधि कण' हर एक श्रावक के पास जरूर होनी चाहिए, यह पुस्तक प्राप्त कर मुझे प्रसन्नता हुई। नेमीचंद मूथा, तिण्डीवनम (T.N.)
Page #322
--------------------------------------------------------------------------
________________
पुस्तके हमें मिली। धार्मिक पुस्तके हो, जो बच्चों में संस्कार | Bookबहुत ही सुन्दर, शुद्ध हस्तलिखित, गुणकारी लगी, डालने के काम आये, ऐसी पुस्तके अवश्य भेजने की कृपा उसके लिए आपको बहुत बहुत धन्यवाद। करें।
महावीरचंद बाघमार, साउकारपेट, चेन्नै (T.N.) गौतमचंद बोहरा, महावीर पौषधशाला, सैदापेट, चेन्नै (T.N.)
'विनय बोधि कण' हमे प्राप्त हो चुका है। धन्यवाद! 'विनय बोधि कण' ग्रन्थ मिला। ग्रन्थ अच्छा है।
पल्लव टाइम्स, चेन्नै - ५ (T.N.) डॉ. राजेन्द्र दुगड़, कालीकट (केरला)
'विनय बोधि कण' किताब यहाँ पर दादा वाड़ी में सबके The Reading material is excellent & will be very उपयोग में रखी गयी है। useful in our library. Thankyou again.
विजयराज झाबक, कोयम्बतुर (T.N.) Ramesh Gandhi, Gandhinagar, Gujarat
'विनय बोधि कण' ग्रन्थ को खोलकर देखे हैं। और कुछ 'विनय बोधि कण' उपयोगी पुस्तक भेजने हेतु यह संघ भाग पढ़े भी हैं। मुझे काफी पसंद आई है, एवं अच्छी भी आपका हार्दिक आभार व्यक्त करता है।
लगी है। मूलराज भण्डारी, जालोर (राज)
N. प्रदीपकुमार बुरड़, सेलम (T.N.)
'विनय बोधि कण' पुस्तक अति सुन्दर है तथा ज्ञानवर्धन करने वाली है। संघ को हमारी तरफ से बहुत बहुत बधाई
पदमचंद छाजेड़, सैदापेट, चेन्नै (T.N.)
ग्रन्थ बहुत उपयोगी एवं पठनीय है।
भोजराज बाफना (खींचन), Director खादी ग्रामोद्योग जयपुर 'विनय बोधि कण' समता भवन में रखी है। उसका उपयोग पूर्णतया ज्ञान, ध्यान व साधु संतो की सेवा में रहेगा।
वीना कुमारी पोखरना बेंगु, चित्तोड़गढ़ (राज) 'विनय बोधि कण' यह एक अति उत्तम सदप्रयत्न है। बधाई ! महावीर भवन में धार्मिक पुस्तकों का अच्छा कलेक्शन
'विनय बोधि कण' बहुत ही उपयोगी ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ में छोटी छोटी बातें जानने व समझने लायक है। सभी ग्रन्थ का उपयोग कर रहे है।
R. राशि बोहरा, तंजावूर (त.ना)
दौलत सिंह खमेसरा, उदयपुर (राज)
'विनय बोधि कण' पुस्तक ज्ञान वर्धक है। सब लोग पढ़
रहे है। 'विनय बोधि कण' प्राप्त करके अत्यन्त प्रसन्नता हुई।
S.S.जैन संघ ट्रस्ट, चिदम्बरम (T.N.) शान्तीलाल बुरड़, पाली (राज)
'विनय बोधि कण' पुस्तक को पढ़ने से हमे ज्ञान मिलेगा।' 'विनय बोधि कण' पुस्तक हमने देखी पुस्तक तत्वों की रूपचंद श्री श्रीमाल, मंत्री, कानाना (जैन संघ), बाड़मेर (राज) जानकारी व स्वाध्याय के लिए बहुत अच्छी है।
ज्ञान वर्धक मसाला बुकलेट-५ का सेट प्राप्त हुआ। इसे नारायणलाल श्री श्रीमाल, चित्तोड़गढ़ (राज)
स्थानक कोहे फिजा, भोपाल ज्ञानार्जन हेतू रखा जायेगा। 'विनय बोधि कण' ग्रन्थ भेजा उसके लिए हम तहेदिल से | बहुत ही उपयोगी साहित्य है। आपके लिए प्रार्थना करते हैं।
फतहचंद बाफना, स्था. संघ भोपाल (M.P.) देव कृष्ण जैन, फतेह नगर (राज)
'विनय बोधि कण' किताबें भेजी वो मिली और किताबें 'विनय बोधि कण' नामक तत्व ग्रन्थ मिला।
यहाँ पर डिस्ट्रीब्युट कर दी गयी है। सो जाने। बहुत भेरूबाग पार्श्वनाथ जैन श्वेताम्बर संघ जोधपुर (राज)
धन्यवाद
गौतमचंद मालु, MALEGAON (M.S.) अत्यन्त अनुकरणीय है। अगर व्यक्ति थोडा बहत भी जीवन में उतार लेवे तो निश्चय ही जीवन में सफल हो
श्रतज्ञान की किताबें प्राप्त हई, बहत अच्छी लगी, पहले सकता है।
भी 'विनय बोधि कण' भेजी थी उसका भी लाभ ले रहे हैं। मोहनलाल चतरलाल जैन, मावली जं (राज)
अध्यक्ष : प्रमिला पोखरना, श्राविका मण्डल, धुलिया (M.S.)
Page #323
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुशलता की मंगल कामना ‘विनय बोधि कण' सामायिक | 'विनय बोधि कण' ग्रन्थ हमारे लिये बहुत उपयोगी होगा भाष्य सार, नव तत्व विवेचनासार पुस्तकें प्राप्त हुई। क्योंकि इसमें आगमाधारित जानकारी प्राप्त होगी। आभार
व धन्यवाद! J.K.Sanghvi थाने (महाराष्ट्र)
मगराज जैन, जलगांव (M.S.) पुस्तकें भेजी सो प्राप्त हुई। बहुत प्रसन्नता से पढ़ रहे हैं। अजितनाथ जैन मन्दिर, नागपुर (M.S.)
आपकी भेजी हुई 'विनय बोधि कण' किताब प्राप्त हुई।
आपको अनंत अनंत धन्यवाद.... आदरणीय खींचन मुनिश्री के अमृत वचनों का साहित्य
विरेन्द्र पुगलिया, नागपुर (M.S.) पाकर हर्षित हूँ। आगमोद्धारक, डॉ. सुभाष जैन, उज्जैन (म.प्र)
'विनय बोधि कण' का उपयोग 'जैन प्रतीक' में एवं
हमारे जीवन में करने का लक्ष्य रहेगा। इन्दौर की तरफ महाराजसा की स्वाध्यायियों पर असीम कृपा रही है। याद
पधारने का लक्ष्य रखें। दास्तीबहुत अच्छी रखे हुए है।
नरेन्द्र कुमार रौंका जैन प्रतीक, इन्दौर (म.प्र.) भँवरलाल गादिया, दौडबालापुर (कर्ना.)
पुस्तकें श्री जवाहर मण्डल, देशनोक में मिली। जिन्हे
थोड़ी बहुत पढ़ी जो अच्छी व ज्ञान की बढ़ोतरी करने 'विनय बोधि कण' हमें प्राप्त हुई। जिसके लिए बहुत बहुत
वाली है। धन्यवाद जी। अन्य बहुत लोग मांग रहे है। अनोपचंद ललवाणी, रायपुर (C.G.)
घेवरचन्द बुच्चा, देशनोक (राज.) 'विनय बोधि कण' का उपयोग सभी स्वाध्यायी लोगों के
हस्त लिखित किताबें ५ डाक से यहाँ पहँची है। हमने पढ़ी लिए होगा। एवं स्वयं भी इसका पठन पाठन का लाभ प्राप्त करने का प्रयास रहेगा।
• मनोहरलाल गुलेछा, बेलवा (राज) सागरमल पानगड़िया, भीलवाड़ा (राज.)
साहित्य का अपूर्व खजाना पुंज मिला। आपके उपकार के 'विनय बोधि कण' संकलन श्रेष्ठ है तथा ज्ञान आराधना में लिए अगणित साधुवाद। सहायक है। चित्रांकन बहुत उत्तम है। समझने में बहुत
मोतीलाल सांखला, अजमेर (राज) सहायक है।
'विनय बोधि कण' पुस्तक संघ के कार्यालय में रखी गयी दिलीप कुमार नागोरी, बम्बोरा (राज.)
है। पुस्तक भेजने हेतु संघ की ओर से आपको साधुवाद। 'विनय बोधि कण' पुस्तक बड़ी उपयोगी व वैराग्य उत्पन्न
विमलचंद भन्साली, बालोद (दुर्ग ता.) करने वाली है।
पुस्तकें प्राप्त हुई। इसके लिये सहृदय धन्यवाद। इनका श्री व० स्या० श्रावक संघ, पचपदरा बाड़मेर (राज)
सदुपयोग मेरे द्वारा एवं अन्यों से भी करवाया जाएगा। 'विनय बोधि कण' इसमें बहुत ही ज्ञानवर्धक प्रश्नोत्तर है,
कमला हणवन्तलाल सुराणा, जोधपुर (राज) इसे स्थानक भवन में रख दिया है। निश्चय ही इससे बहुत ही लाभ लेवेंगे।
'विनय बोधि कण' निश्चित रूप से पुस्तक का कलेवर सुरेश जैन, महिदपुर (M.P.) सामग्री श्रेष्ठ है। 'समीक्षा' चेतना में दे दी गई है।
विनोद संघवी, रतलाम (म.प्र) ग्रन्थ पहुँच गया है। सिरकाली संघ की ओर से आपका अभिनंदन करते है।
'विनय बोधि कण' पुस्तक बहुत सुन्दर बन पड़ी है। जैन S.S. जैन संघ लाइब्रेरी, सिरकाली (T.N.) धर्म की पुर जोर प्रभावना हेतु श्रीसंघ को साधुवाद।
दीपक ठाकुरिया, रीगल टाकीज, इन्दौर (म.प्र)
Page #324
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धर्म-दर्शन की जानकारी हेतु ‘विनय बोधि कण' पुस्तक | मुनिश्री के तप, तेज पुरूषार्थ और प्रवचन शैली से धर्म उपयोगी है। श्रम के लिए मुनिप्रवर अभिनन्दनीय हैं। की प्रभावना की गूंज हमें निरन्तर प्राप्त होती रहती है। डॉ. सागरमल जैन, शाजापुर (म.प्र.)
इन्दरचंद कर्णावट, नई दिल्ली
'विनय बोधि कण' भेजी थी वह भी मिल गई थी, श्री देहली 'विनय बोधि कण' पुस्तक का लाभ सभी को मिले, इसलिये
गुजराती स्थानकवासी जैन संघ धन्यवाद देता है। स्थानक में रख दी गयी है।
अध्यक्ष, रमेशभाई शाह, दिल्ली प्रवीण तातेड़, देवास (म.प्र)
विनय बोधि कण डाक से प्राप्त हुई। अति प्रसन्नता हुई। पुस्तक हाथ लगी मैनें पुरा subject धर्म प्रतिबोध देखा।
रतनसिंह कोठारी, बिजयनगर (राज.) थोड़ा पढ़ा पूरे लगन से पढ़ने की चाह है। पी.किशनलाल जैन, कड़मत्तुर (त.ना)
'विनय बोधि कण' सुशीला बहु मण्डल व श्री संघ को
भेजी, वह प्राप्त हो चुकी है। संत महाराजजी को भी बता 'विनय बोधि कण' प्राप्त हुआ है व इस पुस्तक का हमारे
दिया है। सभी सदस्यगण सदुपयोग कर रहे है।
पारसमल टाटिया, जलगाँव (महा.) श्री वर्धमान स्था. सेलम संघ, सेलम (T.N.) 'विनय बोधि कण' किताब भेजी वह मिली। संघ आपके
प्रति आभारी है। आपने फोटो सहित जो जानकारी और 'विनय बोधि कण' वास्तव में बेजोड़ ज्ञान का भण्डार है।
प्रश्नोत्तर के माध्यम से सूक्ष्म से सूक्ष्म जानकारी दी है। इन्दरराज बैद, नंगनल्लुर, चेन्नै (T.N.)
पढ़ने वालो के लिए बहुत सरल है।
हीरालाल संचेती, वैजापूर, (महा) We have received Jain Book. Heartly thanking you. GM.Jain, मानवी, (कर्नाटक)
'विनय बोधि कण' हबली से गौतमचंदजी के साथ पहँच
गया है। आपको बहुत बहुत धन्यवाद। 'विनय बोधि कण' ग्रन्थ संघ को मिल गया है। संघ के
S.S.श्री संघ, बागलकोट (कर्ना.) उपयोग में आ रहा है।
__ 'विनय बोधि कण' बहुत उपयोगी सिद्ध होरहा है। शान्ताबाई भूरट, हुबली (कर्नाटक)
संघ मंत्री - हरकचंद विनायकिया, शिमोगा (कर्ना.). उत्तम साहित्य 'विनय बोधि कण' पुस्तक यहाँ पर है। एक
'विनय बोधि कण' की एक प्रति आज प्राप्त हुई। मेरी खुशी और पुस्तक हमने बंगारपेट स्थानक में पहुँचायी है।
का पार नहीं रहा। आपकी सेवा अतुल्य तथा आदरणीय है। जे. इन्दरचंद बोहरा K.GF (कर्ना.)
नथमल सांखला, v.V. पुरम बेंगलोर (कर्ना.) 'विनय बोधि कण' ग्रन्थ हमे करीब ६ महिने पहले ही
'विनय बोधि कण' पुस्तिका प्राप्त हो गयी। संघ की तरफ प्राप्त हुआ है। स्थानक भवन के वाचनालय में रख दिया
से धन्यवाद। है। सदस्यगण पढ़कर लाभ ले रहे है।
चैनराज तातेड़ घेवरचंद सिंधवी, हनुमतनगर, बेंगलोर (कर्ना.)
हलसूर, बेंगलोर (कर्ना.) "विनय बोधि कण' अपूर्व एवं अद्वितीय कृति है। 'विनय बोधि कण' की पूर्ण सद उपयोगिता का ध्यान सुभाष ओसवाल, जैन कान्फ्रेन्स, दिल्ली रखूगी।
सीमा बालचंदजी बोरून्दिया, हलसूर, बेंगलोर (कर्ना.) 'विनय बोधि कण' पुस्तक देखने में आई, पुरे परिवार को इस पुस्तक के बारे में भारी उत्कंठा एवं जिज्ञासा है। आपकी भेजी हुयी 'विनय बोधि कण' किताबें हमें प्राप्त हुई। 33 D.P PRIUT Kothrud, Pune (HERIE)
आपका सहृदय से धन्यवाद। पूरा पूरा उपयोग करेंगे।
मानकंवर बाई जागड़ा, आशा बाई बोहरा - हलसूर बेंगलोर
Page #325
--------------------------------------------------------------------------
________________
अच्छे अध्ययनशील आपको धन्यवाद देते है। छपाकर उनसे | 'विनय बोधि कण' पुस्तक मिल गई है, आभार सहित लाभान्वित हो हमारे साधर्मी। यही उद्देश्य है। आभार! | बहुत ही अच्छी व शिक्षाप्रद है। आशीर्वाद की प्रतीक्षा में'माणकचंद छाजेड़, मेड़ता (राज.)
संदीपकुमार मोहनलाल ललवानी, पड़ाना (म.प्र) 'विनय बोधि कण' हमारे पास है। जो आपके द्वारा भेजी
I am by caste Gujrati but i know to read hindi Lanगई है। सद् साहित्य के प्रचार-प्रसार के लिए धन्यवाद।
guage and I will read regularly. Thanks! श्री जैन संघ ग्रंथालय, बालोद (C.G)
Kutch Vikas, Mumbai (M.S.) प्रेषित ग्रन्थ 'विनय बोधि कण' यथा समय प्राप्त हो गया।
ज्ञानार्थे मिल गई है और भी अन्य कोई किताबे हो तो उच्च कोटि का साहित्य है।
भेजिए ललवाणी सेल्स कोर्पोरेशन, राजनांदगांव (C.G.)
मुकेश महेता स्था. जैन संघ, डोम्बीवली (M.S.) 'विनय बोधि कण' सदुपयोग कर रहे है, सुखद कृति है।
Received from you Vinay Bodhi Kan by Regd Post पुस्तक के लिए बहुत बहुत धन्यवाद।
Parcel. Thanks R.K.कोठारी, दुर्ग (C.G.)
Rajanikant Modi, Upleta (Guj) 'विनय बोधि कण' प्राप्त हआ, जिसे स्वाध्याय हेतु स्थानक भवन के वाचनालय में रखा जावेगा। जिससे अधिक से
आपना तरफथी विनय बोधि कण' ग्रन्थ पुस्तक मलेल।
बह उत्तम अने स्वाध्याय माटे उपयोगी छे. समालोचना अधिक लोग ज्ञानार्जन लाभ उठाएंगे।
समय रीते कल्याण मां आवी जशे. लागणी बदल आभार। प्रकाशचंद नाहर, कवर्धा (C.G)
कल्याण प्रकाशन, सुरेन्द्रनगर (गुज.) 'विनय बोधि कण' ग्रन्थ ज्ञानवर्धक, पठनीय एवं मननीय
मांडवीना त्रणे उपाश्रयमां वाराफरती वांचन करावीशुं ते
जाणशोजी मूलचंद गोलछा, दल्लीराजहरा (C.G)
मांडवी जैन संघ (गुज.) 'विनय बोधि कण' बहुत ही मूल्यवान है।
प्रसिद्ध थयेल पुस्तक विनय बोधि कण' वांचवामां रस राजेन्द्रकुमार चोपड़ा, श्री व.स्था. जैन श्रावक संघ कुशलगढ़
होवाथी, आभार मानुं छु। . (राज)
__श्रावक - माणेकचंद, नलिया (कच्छ) 'विनय बोधि कण' पुस्तक मुझे पढ़ने को मिली।
पू. गुरूदेव नो पुस्तक मली गयेल छ। खूब ज आनंद जितेन्द्र बांठिया, S.v.s जैन संघ, बाड़मेर (राज) | थयो, पुस्तक खूबज ज्ञान सभर छ।
भरतभाई, राणपर (गुज.) 'विनय बोधि कण' पुस्तक को देखने से ही ज्ञान का खजाना एवं अति आकर्षक प्रतीत होती है।
अमे बधा आपने पले पले याद करीए छीए 'विनय बोधि . शान्तीलाल पोरवरना, भीलवाड़ा (राज.) कण' घणुज सरल छ। बेंगलोर वहेला पधारो।
सुरेशभाई शाह 'विनय बोधि कण' ग्रन्थ हमने सांचोरी संघ में रखवा दिया
सपना बुक हाउस गांधीनगर, बेंगलोर (कर्नाटका) है। धर्म प्रेमी श्रावक पढ़कर लाभ लेंगे। पुस्तक बहुत ही उच्च कोटि का है।
हीरा माणेकसे अधिक कीमती है, लाभार्थी परिवारने वरिष्ठ -श्रावक, बाबूलाल मेहता, मुम्बई (M.S.)
वंदन। Our Pranam to Maniben Kirtilal Mehta for such
जयन्तीभाइ संघवी, नारणपुरा स्था.संघ, अहमदाबाद (गुज.) • noble contribution.
राजकोट मां ६० उपाश्रयोंमां लगभग बधी जग्या मली __Binod Kumar Bagchar,
गयेल छ। S.M.J. Tirtharaksha Trust, Ranchi (झारखण्ड)
जयसूर्यभाई पंचमिया, राजकोट (गुज.)
Page #326
--------------------------------------------------------------------------
________________
विनय बोधि कण' पुस्तक पांडिचेरी संघमां आव्यु छ। सकल | ‘विनय बोधि कण' तत्वज्ञान से युक्त बहुत ही उपयोगी संघ ओनो सारी रीते उपयोग करशेज। मंत्री वती - जंबूकुमार देशलहरा एस.वी.मेहता, पांडिचेरी
कृपाचंद टाटिया, भिलाई (C.G) 'विनय बोधि कण' जैन साहित्य में यह पुस्तक अपने आप
रजिस्टर्ड पार्सल से प्राप्त हई, 'विनय बोधि कण' को में एक मिसाल है।
देख बहुत आनंद हुआ। संघ में उपयोग होगा। सुभाष ताराचंद जैन, पहाड़ी धीरज, दिल्ली - ६
जी.एल.चोपडा, नन्दुरबार (M.S)
ग्रन्थ पढ़कर हम अपूर्व ज्ञान वृद्धि कर सकते है। गागर में सागर भर दिया है। श्रुत ज्ञान की लेखन शैली
नांदुरा संघ (M.S) प्रभावशाली है। श्रीसंघ के सभी घरों में बारी बारी से लाभ ले रहे है। महिला संघ भी आभार प्रदर्शन करता है। रायपुर में प्रकाशित प्रथम भाग पढ़ा था प्रश्नों के सरल व
सहज भाषा में आगम सम्मत उत्तर दिए है। नेमीचंद जैन,स्था. जैन संघ, शुजालपुर सीटी (म.प्र)
जैन श्रावक संघ, डोंगरगांव (C.G) 'विनय बोधि कण' मील के पत्थर के समान है। गागर में
ग्रन्थ उपयोगी-संग्रहणीय है। संकलनकर्ता का महद् प्रयास सागर भरने का अद्भुत चमत्कार किया है। आगम को है। मेहता परिवार से जिनशासन की प्रभावना हुई है। समझना अब और सरल हो गया है।
स्था. संघ हुबली (कर्ना) अलसूर श्रावक संघ, बेंगलोर (Kar.)
ग्रन्थ की भाषा बहुत ही सरल व मधुर होने से सहज भाव कोयम्बतुर २ (मेनचेस्टर) द्वारा धर्म आराधना की जा रही से व्यक्ति को समझ में आती है। है, अनुमोदना करते है।
श्रावक संघ, बजरिया (राज.) विल्लीपुरम संघ (T.N) अनेकानेक आत्माएँ ज्ञान से लाभान्वित होगी ही, स्वाध्याय
हेतु उपयुक्त ग्रन्थ है। स्वाध्याय का प्रकाश मिलेगा, यथार्थ मूल्यांकन तो भविष्य
सुगनचंद बरड़िया, किलपॉक चेन्नई (T.N) में आनेवाला समय ही निर्धारण करेगा।
मुनिश्री का वर्षावास का योग मिलना, बड़ी उपलब्धि रही है। एस.एस जैन ट्रस्ट, रायापुरम (T.N)
मोहन जैन, इन्दौर (म.प्र) 'विनय बोधि कण' भेजने के लिए तह दिल से धन्यवाद
We have received 'Vinay Bodhi Kan' Thankyou देती हूँ। आपने हमें याद किया और इस लायक समझा
Sarita Mehta , Shri V.S.Jain Shravak Sangh इसके लिए आपकी आभारी हूँ।
Valkeshwar Mumbai-06 डॉ. कौशल्या सिंघवी, चेन्नई (T.N)
“Vinay Bodhi Kan" Book Received, very very 'विनय बोधि कण' प्राप्त हुई। बहुत ही शुक्रगुजार हैं।
happy for all Jain Samaj, Wynad अवश्य ज्ञान में वृद्धि करेंगे।
Please tell Vinaymuniji Vandana - Namosthu
P.J.Vijaykumar Jain, Wynad (Kerala) केडगांव जैन संघ (M.S)
डोम्बीवली-आदि बम्बई में गुजराती समुदाय के सन्त 'विनय बोधि कण' अमृत भरी है तथा सहजता से बनी
सतीयाजी का विचरण होता है और गुजराती भाषा की हुई है। ज्ञान की अनमोल भण्डार है।
प्रधानता देते है , सो ध्यान रहे। श्रीमती कमलेश श्रीपाल जैन, शाहदरा विस्तार, दिल्ली ९३
मिलाप राखेचा, डोम्बीवली (महाराष्ट्र) जैन धर्म बोधक है। ज्ञान वर्धक है, सभी श्रावकों ने अनुमोदना
आपके द्वारा प्रेषित पुस्तक हेतु एवं इस उपकार के लिए की है।
मात्र यही अनुनय विनय है कि भविष्य में भी ऐसा अनुग्रह कामता प्रसाद जैन
बनाए रखे। सन्मति जैन पुस्तकालय, जैन स्थानक बड़ोत (U.P)
मनोहरलाल जैन, धार (म.प्र)
Page #327
--------------------------------------------------------------------------
________________
'विनय बोधि कण' स्वाध्याय प्रश्नोत्तर आदि बहुत उपयोगी है। । विनय मुनिजी म. सूझबूझ सम्पन मनीषी विद्वान विचारक
एवं जागरुक सन्त है। वे जहाँ जाते है समाज में नई शान्तीलाल बोहरा, सुखेड़ा (म.प्र) चेतना पैदा करते है।
कवि कमल जैन विद्वद वर्य जिनशासन प्रभावक श्री विनय मुनिजी म.सा
महरोली, नई दिल्ली 'खींचन' के द्वारा सम्पादित/सानिध्य “विनय बोधि कण" का आद्योपांत वांचन किया। मुनिश्री ने अच्छा प्रयास किया युवाओं के लिए नई जानकारियाँ सहित अति उत्तम व है। स्वाध्यायी बंधुओं के लिए सर्वथा उपयोगी ग्रन्थ है। सार्थक होगी। आगमों के सामान्य एवं विशिठ ज्ञान का इस ग्रन्थ में
घेवरचंद तातेड़ राताकोट (राज.) संकलन किया है।
बहुत ही अच्छा संकलन है। ज्ञानावरणीय कर्म क्षय अवश्य प्रत्येक संघ एवं पुस्तकालय में संग्रहित कर प्रत्येक पाठक
होंगे। कृपापूर्ण स्नेह बनाए रखें। तीन बुक और भिजवाने को इसका अवश्य अवलोकन ज्ञान वृद्धि करनी चाहिए।
की कृपा करें। भविष्य में भी इसी प्रकार का और संकलन संवर्धन कर
गौतमचंद चौपड़ा, खैरागढ़ (छा.ग) शासन की सेवा करते रहे।
“विनय बोधि कण" पुस्तक उपयोगी के साथ साथ ज्ञान व्याख्याता प्रखर श्रमण संघीय महामन्त्री जी म.सा एवं
वर्धक भी है। प्रश्नोत्तर शैली में होने से अपूर्व ज्ञान वृद्धि पूज्य गौतम मुनिजी म.सा की आज्ञा से
होगी। भीखाराम चौधरी, बदनौर (राज)
व. स्था. जैन श्रावक संघ
टेनरी रोड, फ्रेजर टाउन, बेंगलोर (कर्ना) विभिन्न विषयों से भरपूर श्री विनय मुनिजी म.सा के प्रवचनांश
जो कार्य बड़ा बड़ा साधुसमुदाय नहीं कर सकता वह कार्य - तत्वज्ञान विचार कणों का संकलन, काफी विचार उपयोगी
पूज्य श्री विनय मुनिजी म.सा के समान फक्कड़ सन्त के है। सैद्धान्तिक विचारों के साथ साथ व्यवहारिक जीवन के
द्वारा सम्पन्न हो जाता है। अलभ्य लाभ वर्षावास का मिला है। लिए उपयोगी है। ध्यान से समझने योग्य है।
चन्दनमल बनवट, आस्टा (मूल खींचन)(म.प्र) उपरोक्त विचार स्पष्ट वक्ता श्री विनोदमुनिजी म.ने फरमाये है।
सरल एवं गम्भीर आत्मा पू. सरपंच मुनिजी म.सा ने कहा
रामकुमार जैन कि ग्रन्थ में उपादेयता भरी हुई है। ज्ञान से भरी है। सभी जैन स्थानक, नवी पेठ अहमदनगर (M.S) बिरादरी ने प्रशंसा की है। पू. महासतीजी सुमन कुंवरजी ठाणा ७ विराजित है। विनय
एस.एस.जैन सभा, साढ़ौरा (पंजाब) आराधना की १०० प्रति हमें भिजवावें। बहुत ही उपयोगी ग्रन्थ में जैन धर्म के मूल सिद्धान्तों को उल्लेखित करने में है। (प्रतिदिन)
कथनीय योग दान दिया है। महावीर भवन अमरोली (सूरत) गुज
संपतराज ढ़ाबरिया Beawar (Raj) ज्ञानावरणीय कर्मनो जबर क्षयोपशम करी रह्या छो।
ग्रन्थ पढ़कर जीवन में पवित्रता अवश्य आवेगी तथा आत्मा
में जमा विकार अवश्य दूर होगा। बा.ब. साधनाबाईनी आज्ञाथी रुपल देसाई राजकोट (गुज)
धवलचंद मेहता, सांचोर (राज.) चारित्र ज्येष्ठा बा.ब्र विजया बाई महासतीजी को पुस्तकें
“विनय बोधि कण" बहत उपयोगी छपाई है। हम रोज दी गई है। आप सभीका आभार शुक्रिया अदा करता हूँ।
सामायिक में पढ़ते है। मन बहत आनंदित होता है। म.सा मुकुटभाई पारेख (गोंडल संघाणी संप्रदाय) को वंदन अर्ज करावें। आप द्वारा भेजी गई भावना एवं विनय प्रभावना मिली।
मोहनलाल लूणिया, चण्डावल (पाली) राज. गुरुदेव हम सभी को धर्म मार्ग पर ले ने हेतु कितना प्रयत्न
तिरुपती में "विनय बोधि कण" ग्रन्थ देखा था। बहुत कर रहे है। शायद ऐसे गुरुदेव मिलना दुर्लभ है। आप
अच्छी लगी। (गणेशबाग) भाग्यशाली हो।
पारसमल बनवट, एस.एस.जैन संघ, रेणीगुन्टा (AP) इन्दरचंद कोठारी, कोयम्बतुर
पठनीय सामग्री बड़ी ही सरल एवं रुचिकर है। सकल संघ “विनय बोधि कण" बहुत ही उपयोगी है। इस तरह के
ने सराहा है। प्रकाशन की वर्तमान में आवश्यकता है। शिविराचार्य श्री
जगदीश जैन (अध्यक्ष), अमीनगर सराय U.P
Page #328
--------------------------------------------------------------------------
________________
आपके द्वारा यह श्रुतज्ञान प्रसार व शासन प्रभावना का | गई। सेलम वासियों की भी बहुत मांग है पुस्तक के लिए। कार्य प्रशंसनीय, अभिनंदनीय, सराहनीय एवं अनुकरणीय
राजन पुनावाला, शशिकान्त पुनावाला, सेलम (T.N) है। “विनय बोधि कण" की प्रति USA भेज दी है।
आप लोग साहित्य के साथ साथ ऐसे आत्मिक संत का अनंत साबद्रा C.A, नासिक M.S
अधिक से अधिक लाभ ले, ऐसे संत बहुत कम मिलते है। सुशील बहु मंडल, जगलाँव को विनय बोधि कण प्राप्त
__ जीतमल पारस, इन्दौर (म.प्र) हई। देखकर मंडळ की सभी सदस्याओं को बहुत प्रसन्नता
“विनय बोधि कण" का प्रकाशन से जैन समाज में एक हुई, धन्यवाद
प्राथमिक ज्ञान, जैनत्व का बीज रुप अच्छी पुस्तक ने विजया राजेन्द्र मल्हारा, खूबचंद सागरमल, जलगांव (M.S) ख्याति प्राप्त की है। हर कोई इसे घर में रखना व पढ़ना "विनय बोधि कण" के चिंतन कणों से अधिकाधिक श्रावक
चाहता है। श्राविका जुड़े। ऐसी मनोभावना है।
ए. प्रसन्नचंद कोटड़िया, ऊटी (T.N) अभयकुमार जैन, भवानीमंडी (राज.) Thankyou very very much, for your king action of “विनय बोधि कण" की दो प्रति बालोतरा संघ को प्राप्त हई
sending us 'Vinay Bodhi Kan' है, दोनों स्थानकों में रखी गई जिससे सभी लोग लाभान्वित
___For S. Vimal, Pudducherry हो सके।
पुस्तकें मिली, अति प्रसन्नता हुई, संघ की संपति रहेगी, स्था.जैन संघ बालोतरा (राज.)
सभी उपयोग करेंगे। “विनय बोधि कण” को पढ़ा, हमें बहुत अच्छा लगा।
देवराज टाटिया (संघपति), जबलपुर (म.प्र) ___ श्री लक्ष्मी, वल्लम (T.N)
पुस्तकें मिली। गुरुदेव ने हम पर बड़ी कृपा की, आगे भी विनय आराधना आदि सभी ग्रन्थ स्वाध्याय उपयोगी है।
कृपा बनाये रखना। पठन पाठन करते है।
प्रेम प्रसन्न चेरिटेबल ट्रस्ट, तिरुतनि (T.N) मूलराज गोलेच्छा, खींचन (राज.)
ग्रन्थ पढ़कर बहुत ही हर्षोनुभव हुआ। इन्दौर से प्राप्त ग्रन्थ में शास्त्र चर्चा अति उत्तम व सही
उत्तमचंद भागचंद भूरा, देशनोक (राज.) ज्ञान की जानकारी दी हुई है।
बहुत ही सुन्दर स्तवन, भजन तथा प्रार्थनाएँ भरी हुई है। शंकरलाल बागरेचा बोदवड़ (M.S)
कमलेश कोठारी कालीकट (Kerala) पुस्तक पढ़कर बहुत ही आनंद आता है। पुस्तक क्या साक्षात मुनिराज ही मानो बोल रहे है।
विनय आराधना प्रभावना व भावना पढ़कर हृदय के द्वार
खुल गए स्वाध्याय करके आत्मा को जागृत करेंगे। और नरेशचंद जैन, मु.नगर (U.P)
पुस्तके भिजवावें। पुस्तकें अच्छी तथा पठनीय है।
चतरसिंह बड़ा महुआ, भीलवाड़ा (राज.) दुर्गाचंद बैद ऊटी (T.N)
पुस्तक पढ़कर बहुत खुशी हुई। आपका आभार मानते है। पीपाड़ भण्डार लाइब्रेरी में रख दी गई है।
मा. तारासिहं ढढ्ढा, कडलूर (T.N) एस.मूथा, पीपाड़ सीटी (राज.)
धर्ममा आगल वधवा अने स्थिर रहेवा आप प्रयत्न करी बहुत ही अच्छा उपयोग हो रहा है। बहुत ही काम की बुक रह्या छो जेनो अमे खूब उपकार गणीओ, मानीओ छीओ।
रसिकलाल एन. सेठ, कोयम्बतूर (T.N) ललित कोटड़िया लोहावट (राज.)
बहुत ही अच्छे विचारों से भरी किताब सभी को प्रभावित शिविरनो साहित्य मलेल, ते बदल आभारी छीए, गुजरातीमां करने वाली है। “विनय बोधि कण" बहु सरस अने संघने उपयोगमा आवशे।
महावीर बोहरा (अध्यक्ष), स्था. संघ अरसीकेरे (कर्ना.) संघ वती - प्रदीप गांधी (अध्यक्ष),
सभी धर्म सन्देश पुस्तक के माध्यम से प्राप्त हुए। पढ़कर गुजराती स्था. संघ इन्दौर
अत्यन्त ही आनंद की अनुभूति हुई। हमने २३ पुस्तक (वि.बो. कण) Books महाराष्ट्र के विभिन्न
शांतिलाल बेताला, दिल्ली - ९ गावों शहरों में भिजवा दी है। लिस्ट भी आपको भिजवा दी
304
Page #329
--------------------------------------------------------------------------
________________
विनय बोधि कण में पठनीय सामग्री समाई हई है। आपने साहित्य भिजवाकर बहुत ही प्रभावना की है।
पी सी जैन, नई दिल्ली - ४९
आशीर्वचन रुप साहित्य सदैव संघ को भिजवाते रहें।
स्था. संघ नलखेड़ा (म.प्र)
दोनों पुस्तक पढ़कर हृदय भाव विभोर हो गया।
विमल कक्कड़, सरवाड़ (राज.)
किताबें सभी सराहनीय पठनीय है। हम सामायिक में उपयोग करते है।
सवाईलाल कोचर, Neyveli (T.N)
Received your book, please send red colour Vinay Bodhi Kan (Bhavana) book if available. Thanking you.
M. Mangilal Baid, Tirupattur (T.N)
बोलिया संघ को ज्ञान वर्धक अति उत्तम पुस्तक प्राप्त हुई। आगे भी ऐसी अन्य ज्ञानवर्धक पुस्तकें भिजवाते रहियेगा।
जैन स्थानक संघ,
बोलिया (म.प्र) विनय विवेक से बढ़े आत्मा, आत्मा का कल्याण करुं। रहे प्रयास इस मानख भव में विनय विवेक से कल्याण करूं। हर पंक्ति से जीवन में सौरभ व आत्म कल्याण में पथ दर्शक बनेगी, प्रेरणा की स्त्रोत बनेगी,इसी मंगलमय भावना के साथ
बारम्बार श्रद्धा पूर्वक वंदना।
विवेक लूकड़, गदग (कर्ना.) आपका धर्माचार नवयुवकों में जागरुकता लाता है। पुस्तकें सभी स्वाध्याय के लिए अति उत्तम है।
पारसमल धोका, मैसूर (कर्ना.) “विनय बोधि कण" ग्रन्थ सुन्दर यथानाम तथा गुण युक्त है।
सुनिलकुमार बोहरा, बोलारम (सिकन्द्राबाद) “विनय बोधि कण" पढ़कर-देखकर मन प्रसन्न हुआ। पुस्तक को पुरा पुरा पढ़ने की भावना रखते है । ज्ञान का खजाना है। म.सा. को मेरे परिवार की वंदना कहियेगा।
आदरणीय विनयमुनिश्री महाराज सा. दि.७७०७
ईन्दौर सादर चरण स्पर्श “विनय बोधि कण" की पांलिपी मिली। उसे पढ़ते पढ़ते लगा जैसे प्रत्यक्ष में महाराजसा के प्रवचन सुन रहा हूँ। प्रिय अनिता का संकलन सुंदर और सार्थक प्रयास है। न केवल वह विनय वाणी सार है - विस्तृत साधारण गृहस्थ मे लिये वह जिनवाणी है। सरल बोध रहित भाषा में अहिंसा, अनेकांत, अपरिग्रह, दया, करूणा, कर्मबंधन, त्याग, क्षमा जैसे गूढ़ गुणत्ता को ऐसा समझाया है कि वह सीधे हृदय व मस्तिष्क तक पहुँच कर उसे जीत लेता है। विशेषता यह है कि मूलभूत जैन सिद्धांतों को व्यावहारिक रोजमर्रा के जीवन में दृष्टिकोण से श्रावक ग्राह्य भाषा व भावना से समझाया गया है। छोटे छोटे वाक्य, सरस भाषा में अभिव्यक्त और दैनंदिन जीवन में उदाहरण लेकर धर्म के प्रति आस्था जगाना - इस संकलन की उपलब्धि है। साधारण गृहस्थ के लिए यह एक विस्तृत आचार संहिता परिभाषित करती, जिसको अपनाकर वह आत्म साधना में लीन होकर आत्मकल्याण की ओर बढ़ सहता है। महाराज सा. आपने दक्षिण भारत में विस्तृतः धर्मक्रांति ला दी है और धर्म की प्रभावना और साधना का अनुपम वातावरण बना दिया है। इसी प्रकार आपकी वाणी से जिनवाणी सर्वत्र फैले और मानव का कल्याण करे, यही विनम्र भावना और शुभ कामना है। रानी और मेरी ओर से अत्यन्त आदरपूर्वक अभिवादन स्वीकार करें। अभी हाल ही मैनें एक नई पुस्तक लिखी है।, हिन्दी में “जैन धर्म - एक विराट संस्कृति"। मैनें जैन धर्म को पूरे संसार की संस्कृतियों के व्यापक परिपेक्ष में देखा है, और यह बताना चाहा है कि जैन धर्म के सिद्धान्त इतने उदात्त और व्यावहारिक है कि वह जन-धर्म और युग धर्म बन सकता है।
और सब कुशल मंगल है। शांत चित्त तनाव रहित और आस्था की शक्ति एकत्रित कर धर्माचरण में हम दोनों लगे हुए है। शक्ति व वत्ति अनुसार दया और करुणा, त्याग-तपस्या, संयम और स्वेच्छिक नियन्त्रण के प्रयत्न से मन में बड़ा ताजापन रहता है और प्रेरणा प्रवाह चलता रहता है, बहता रहता है। बेंगलोर में आपश्रीके दर्शन हुए थे, लम्बा काल हो गया पुनः इन्दौर पधारिएगा। सादर
नरेन्द्र जैन Dr.N.P.Jain, IFS (Retd) Former Secretary Ministry of External Affairs Government of India
E-50, Saket, & Ambassador of India to UN,
Indore-452001 European Union (EU)
Phone : 0731-2561273 Mexico, Belgium and Nepal
0731-2563119 E-50, Saket, INDORE - 452001 E-mail: narendrapl@yahoo.co.in
U. SUDIR LODHA Member, State Minorities Commission Tamilnadu
Office : No. 735, Annasalai, LLA Building, 3rd Floor, Chennai - 600 002. Res. : New NO. 9. (Old No. 22). Tilak Street, T.Nagar, Chennai - 600 017.
Mobile: 9841044955 e-mail: sudhir@fashionaccess.net
Page #330
--------------------------------------------------------------------------
________________
“वर्ष २००६ का मणिबेन कीर्तिलाल । चम्पालालजी पालरेचा ने पूरे चार मास तक एकासना मेहता आराधना भवन कोयम्बत्तूर में किये। व पूरे चार मास तक स्थानक में रहकर धर्मध्यान प्रथम ऐतिहासिक चातुर्मास सानंद करने का व्रत लिया। अनेकों भाई-बहनों ने चार मास बियासना, सम्पन्न”
एकासना के तप किए। यहाँ (मणिबेन कीर्तिलाल मेहता आराधना भवन में) इस आज के नवयुवक धर्म का रास्ता वर्ष पूज्य गुरुदेव स्वर्गीय श्री चम्पालालजी म.सा एवं छोड़कर गलत रास्ते न जावे, ज्ञान गच्छाधिपति श्रुतधर श्री प्रकाशचंदजी म.सा के शिष्य
श्री विनयमनिजी म.सा का यहीं मुख्य लक्ष्य है। पंडितरत्न शिविराचार्य पूज्य श्री विनयमनी म.सा खींचन'
इसको लक्ष्य में रखते हुए शुरु से ही 'युवाउत्कर्ष संस्कार का चातुर्मास आराधना भवन परिवार को मिला। आराधना
शिविर' प्रतिदिन प्रातः ८.०० से ९.०० बजे तक शुरु कर भवन में यह पहला चातुर्मास है। पूज्य गुरुदेव चामराजनगर,
दिया था। जिसमें लगभग १२५ नवयुवक तथा नवयुवतियों नंजनगुड़, गुंडलपेट, मैसुर, ऊटी, कुन्नूर व मेट्टपालयम
ने निरंतर भाग लिया और जैन धर्म को पहचाना। कई होते हुए दि. १९-०६-२००६ को कोयम्बतूर पधारे।
नवयुवक यह कहते पाये गये की हमने पहली बार अपने दि.२३-०६-२००६ का दिन स्वर्ण अक्षर में लिखा जैन धर्म के बारे में इतनी जानकारी प्राप्त की। गुरुदेव ने जायेगा क्योंकि गुरुदेव ने उसी दिन अपने श्रीमुख से वर्ष इन चार महिनों में सामायिक सूत्र, २५ बोल सम्यक के २००६का चातुर्मास आराधना भवन कोयम्बत्तुर में करने ६७ बोल की विस्तार से पुरी जानकारी दी। कई कथाओं व की स्वीकृति प्रदान की, हालांकि गुरुदेव ने वर्ष २००६ उदाहरणों के माध्यम से नवयुवकों को समझाया। धर्म का चातुर्मास कोयम्बत्तुर का आगार रखते हुए मेट्टपालयम श्रद्धा मजबुत हुई। खोल दिया था लेकिन आराधना भवन परिवार की प्रबल इच्छा को देखते हुए व महाराजश्री की शारीरिक स्थिति
पर्युषण पर्व में श्रावक-श्राविकाओं में सैकड़ो पौषध
हए। पर्युषण में चार चाँद लगाने दिल्ली से डॉ.सुश्री को देखते हुए मेट्टपालयम संघ ने बड़ी उदारता कर
कंचनबेन, इन्दौर से, श्री कस्तुरचंदजी ललवाणी पधारे गुरुदेव का चातुर्मास कोयम्बत्तुर करने की सहर्ष स्वीकृति में सहयोग दिया।
व धर्म ध्यान की गंगा बहाई। डॉ. कंचन बहिन द्वारा अंतगढ़
सूत्र का वांचन बहुत ही सुन्दर ढंग से किया गया। जिससे गुरुदेव के चातुर्मास खुलने के समाचार सुनकर लोगों को सुनने की बहुत चाह बढ़ी और आठों दिन उपस्थिति मणिबेन कीर्तिलाल महेता परिवार में तथा कोयम्बत्तुर के बहुत अच्छी रही। श्रावक श्राविकाओं में खुशी की लहर छा गई। यह ऐतिहासिक
प्रति रविवार को बाल संस्कार शिविर का आयोजन किया चातुर्मास आराधना भवन बनने के बाद पहला चातुर्मास
गया ।जिसमें गुरुदेव ने अपनी मधुर वाणी से भजन, है जिस भावना व सुन्दर तरीके से भवन बनाया, हमको
बालकथा एवं छोटे-छोटे त्याग पच्चक्खाण का महत्व बताया। प्रबल पुण्यायी से ऐसे त्यागी क्रान्तिकारी गुरुदेव का चातुर्मास
इससे प्रभावित होकर बच्चों ने व्रत प्रत्याख्यान लिए व धर्म मिला। भवन चाहे कितनाही सुन्दर क्युं न हो लेकिन धार्मिक आराधना के बिना फीका है। हम कितने भी धर्म
सीखने का उत्साह रहा। विशेष सौरभ गुलेच्छा (१० वर्ष)
ने बियासने का मास खमण किया, हर्ष गुलेच्छा (३ वर्ष) ने की जानकारी लेना चाहे, लेकिन धर्म का मर्म सीखने वाला न हो तो व्यर्थ है।
सामायिक का पाठ सिखा। गुरुदेव की प्रेरणा से बच्चों ने
(६० बच्चों) ने दीपावली पर पटाखे नहीं छोड़ने का व्रत गुरुदेव का चातुर्मास प्रवेश सादगी पूर्ण बिना लिया और भगवान् के निर्वाण दिवस को याद कर विशेष आडम्बर से दीः २८.०६.०६ को दोपहर करीब १२-३० धर्म ध्यान किया। बजे हुआ। यहाँ गुरुदेव के प्रवेश से ही धर्म की आराधना
विशेष कौशिक भाई मेहता ने सपरिवार बैल्जियम की झड़ी लग गई। विशेष नवयुवकों ने एकासना, बियासना
से पधारकर पर्वाधिराज पर्युषणपर्व यहाँ आराधना भवन में की अट्ठाई, मास खमण लगातार चार मास तक की शुरु
मनाया। सामायिक, प्रतिक्रमण की आराधना की व सामायिक हुई। श्रीमान ईश्वरचंदजी लुणिया और उनकी धर्मपत्नी
करने का व्रत लिया। गीताबाईने चौथे व्रत को अंगीकार किया। श्रीमान
Page #331
--------------------------------------------------------------------------
________________
महिलाओं व युवतियों में विशेष जागृति रही और प्रतिदिन व्याख्यान के पश्चात एवं दोपहर में क्लास के माध्यम से धर्मध्यान किया, व्रत प्रत्याख्यान लिए। रात्रि में ७-३० से ८-१५ बजे तक भाईयों ने ज्ञान चर्चा के माध्यम से, नई जानकारी प्राप्त की ।
चेन्नई से सुश्रावक श्री पन्नालालजी बाफणा, श्रीमती प्रिया राखेचा एवं सूत्र विनय स्वाध्याय मंडल, दिल्ली की संयोजिका दीपा बहिन ने शिविर चलाए जो एक चातुर्मास के मुकुट में कोहिनूर का हीरा रूप साबित हुआ।
यहाँ पर गुरुदेव के सान्निध्य में पर्युषण पर्व मनाने ऊटी, दिल्ली, इन्दौर से श्रावक-श्राविकाएँ पधारे, धर्म आराधना की।
` चातुर्मास काल में ऊटी, कुन्नुर, मेट्टूपालयम, तिरूपुर, सेलम, तिरूपात्तुर, चेन्नई, नंजनगुड़, चामराजनगर, गुंडलेपट, मांडिया, बैंगलोर, रायचूर, हैदराबाद, मुम्बई, गुजरात, राजस्थान, दिल्ली लुधियाना, कोचीन, कालीकट आदि क्षेत्रों से निरंतर दर्शनार्थियों का पधारना हुआ।
इस प्रकार मणिबेन कीर्तिलाल मेहता आराधना भवन में पूज्य गुरुदेव श्री विनयमुनिजी म.सा खींचन का
ऐतिहासिक चातुर्मास का समापन समारोह दो दिन मनाया गया। (दि. ४ व ५ नवम्बर)
डॉ. उषा मेहता, परेशभाई, सीमा बहिन ने समापन में बताया कि आज हमारी स्वर्गीय मातुश्री की इच्छा पूर्ण हुई है। गुरुदेव के प्रति श्रद्धा के फूल रूप में उन्होंने विनय आराधना व विनय बोधि कण जैसी अद्भुत ग्रंथो का प्रकाशन करवाया व वितरण किया। शिविरार्थियों को २५ बोल की सचित्र पुस्तक एवं धार्मिक उपकरणों से सम्मानित किया। बालकों का उत्साह बढ़ाने हेतु उनको भी सम्मानित किया गया। चातुर्मास समापन पर अनेक लोगों ने त्याग प्रत्याख्यान व्रत आदि ग्रहण किये।
यह एक अद्भुत ऐतिहासिक चातुर्मास रहा जो सबको याद रहेगा। स्व. मणिबेन कीर्तिलाल मेहता परिवार की भावनाओं को डॉ. उषा मेहता ने भरी सभा में कहा कि इस प्रकार भविष्य में भी आप सकल समाज इस आराधना भवन में तप त्याग व सामायिक पौषध की आराधना करते रहें, इसी मंगल मनीषा सहित सभी का आभार मानते हुए कृतज्ञता ज्ञापित की।
इन्दरचंद कोठारी
५-११-२००६
कोयम्बतूर
अनुमोदना के दो शब्द
जैन आगम आधारित प्रश्न-उत्तर, प्रवचानांश युवा शिविर में उत्कर्ष संस्कार तथा पनरह चातुर्मासों में श्रुतज्ञान गंगा का प्रवाह, भक्तिगीत, उपदेशी गीतिकाएँ, सारगर्भित चिन्तन मनन को परोसा गया है। विनय भावना, विनय आराधना, विनय प्रभावना तथा विनय बोधि कण के दश भागों में श्रुत आराधना की कुल लगभग एकलाख इक्कतीस हजार से अधिक प्रतिएँ छपजाना, तथा बिना शुल्क लिए वितरण, जिनशासन की महाप्रभावना रुप कार्य की अनुमोदना से हम मुदित हुए हैं। सौजन्य दाताओं के सहयोग का 'विनय बोधि कण' परिवार हार्दिक अभिनंदन करता है।
307
नोट : हजारों पत्र एवं दुरभाषादि से 'विनय बोधि कण' प्राप्ति की कृतज्ञता सम्मति रुप पत्रादि प्राप्त हुए, उन में से लगभग ५०० पत्रों के भावों को यहां प्रस्तुत किया गया है।
दक्षिण भारत जैन मुनि वैय्यावच्च समिति, संयोजक - गण
इन्द्रचंद कोठारी कोयम्बत्तुर
गौतमचंद कटारिया ऊटी
अमृतराज चन्द्रकान्त मेहता इरोड़
वसंत पंचमी सन् २०१३ जैन मन्दिर ऊटी
Page #332
--------------------------------------------------------------------------
________________
दो शब्द
"गण न हो तो रूप व्यर्थ है, विनम्रता न हो तो विद्या व्यर्थ है,
उपयोग न हो तो धन व्यर्थ है, साहस न हो तो हथियार व्यर्थ है, भूख न हो तो भोजन व्यर्थ है,
होश न हो तो जोश व्यर्थ है, छू न पाये जो आचरण को तो, वो संस्कार व्यर्थ है।" जीवन में क्या - कितना हम व्यर्थ कर रहे हैं यह जान पाने की दृष्टि पू. गुरुवर विनय मुनिजी के सानिध्य से पाई। जीवन को एक नये नजरिये से देखने, तौलने व जीने का अंदाज पाया। जैन दर्शन की गहराई व सूक्ष्मता को समझने का सुअवसर मुनिश्री की निश्रा में पाया। जो पाया उसको बांटने का अपना निराला आनंद है।
चातुर्मास के पावन दिनों में सत्संग का लाभ सहज ही सुलभ हो जाता है किन्तु शेषकाल में सहयोगी होती है “सत्संग की सुरभि"। बस इसी सुरभि को शाश्वत रखने के उद्देश्य से इस संकलन की इच्छा बनी। चातुर्मास के दौरान मुनिश्री ने जो भी प्रश्न चलाये, उनका संकलन प्रस्तुत हैं।
“विनय - बोधि · कण" के रूप में । स्वप्न से साकार तक की भूमिका में मैं समस्त सहयोगियों का हृदय से आभार व्यक्त करती हूँ. विशेष रूप से मैं श्री योगेन्द्र भैय्या को साधुवाद देना चाहती हूँ, जिन्होंने ये काम पूरा अपना समझ कर किया। अतः में गुरुदेव से अंतस के भावों से क्षमायाचना अपने किसी भी अविनय अविवेक के लिए।
“सौ - सौ सूरज उगे, चंदा उगे हजार, चाँद - सूरज हो फिर भी, गुरू बिन घोर अंधार ।"
सभी को प्रकाश मिले बस यही भावना .... संगोई हॉल, रायपुर
- श्रीमती दीपा विजय संगोई दिनांक : २८-११-१९९८
(आद्य संपादन)
अपना क्या है इस जीवन में,
सब कुछ लिया उधार । सारा लोहा उन लोगों का,
अपनी केवल धार ।।
Page #333
--------------------------------------------------------------------------
________________
| "विनय बोधि कण" पर सम्मति
१. 'विनय बोधि कण' भाग दूसरा, १०.जी करता है एकबार ही,
४. जैनागम से ज्ञान गहन को, तीजा, चौथा, देखे साथ, पढ़लें पुस्तक सारी जी।
ऐसा अहो! निचोड़ा है। 'प्रश्न उठाकर उनके 'उत्तर', नहीं छोड़ने को मन करता,
लगता है, न विषय सामयिक, दिये गये है फिर साक्षात।। लगती ऐसी प्यारी जी ।।
शेष एक भी छोड़ा है।। २. ज्ञान बढ़ानेवाली शैली, ११.हर इक घर क्या, हर इक कर पर, ५. प्यारे पाठक जैन तत्त्व को, जो अनुपम अपनाई है, भाग सभी है रहने योग।
ऐसा इससे पायेंगे। सभी परख हाथ कहेंगे, लाभान्वित अति होंगे इनसे,
जन साधारण से साधारण, करनी कठिन बड़ाई है।। यों गुणग्राही लाखों लोग।।
विज्ञ बड़े बन जायेंगे।। ३. आगम सम्मत इन भालों में, १२.विनयमुनिश्वर ‘खींचन' जिनको, नहीं छोड़ने को मन करता, है जो ज्ञान-खजाना जी। कहते सादर सारे लोग।
इस पुस्तक को लेकर हाथ। गागर में ही सागर जैसे, प्रबल प्रणेता इन भागों के,
जी करता है पढ़ते जायें, कोई नहीं ठिकाना जी।। परम प्रशंसा के हैं योग।।
दिन देखें, न देखें रात।। ४. आगम-गैय्या मैय्या का जो, १३. 'ज्ञान गच्छ' के अधिपति मनिवर, ७. विनय मुनि जी 'खींचन' सादर, मधु-सा दूध निराला है, चम्पालाल तपस्वीराज।
सारे कहते जिनको लोग। उसको मथकर 'उत्तर' रूपी, इनके ही आशीर्वाद से,
उनने दिये 'रायपुर' भाषण, यह नवनीत निकाला है।। उन्नत विनय मुनिश्वर आज।।
सचमुच परम प्रशंसा योग।। ५. जो भी इसको खाये उसको, १४.लखकर कृतियाँ कथा-कला की, ८. उगनी सौ अट्ठाणु सन का, अमर बनाने वाला है। मन न खुशी समाई है।
अमर हो गया वह चौमास। ऐसा अनुपम अमृत हमने, "चन्दनमुनि” पंजाबी देता,
संग्रह कर्ता जैन संघ को, देखा है न भाला है।। लाखों-लाख बधाई है।।
लाखों-लाखों है शाबाश।। एक-एक हम कहें भाग को,
ऐसा शिष्य मिला है जिनको,
कविराज की सम्मति ज्ञान-गुलों का दस्ता है।
जिसकी मिलती नहीं मिसाल। एक 'प्रश्न' हर 'उत्तर' उसका, कवि रत्न श्री चन्दन मुनि (पंजाबी) धन्य हो गये महा तपस्वी, लाखों में भी सस्ता है।। १. विनय बोधि कण भाग प्रथम का।
गुरुवर प्यारे चम्पालाल।। चारों भागों को जो सादर,
१०. हरइक घर पर हरइक कर पर, प्रिय पाठक पढ़जायेंगे। द्वितीयावृत्ति पाई है।
पुस्तक है यह रहने योग। ज्ञान-गगन में ऊँचे-ऊँचे, पुस्तक क्या है? सुधा-धार-सी,
होंगे परम प्रशंसा पातर, नजर हमें तो आई है।। बहुत बहुत चढ़जायेंगे।।
इसको पढ़ने वाले लोग।। २. नौ पद जैसे नौ ही भाषण, ८. अति कम क्षम का लाभ बड़ा ,
११. ऐसी प्यारी पुस्तक पर कुछ, जब आ जायेगा अपने घर। आए इसमें सारे हैं।
लिखने को जब पाता है। होने वाले हृदय-हर्ष की,
एक-एक से बढ़कर-चढ़कर, नये-निराले-न्यारे हैं।।
“चन्दन मुनि” पंजाबी के, कुछ भी तो न पूछे बात।।
न मन में मोद समाता है।। ९. क्या बतलायें इन भागों की ,
३. ज्ञान बढ़ाने समझाने का, सरल सरस क्या भाषा है।
प्रश्न और उत्तर का ढंग। लिया गया है इसमें जो बस,
- कविरत्न श्री चन्दन मुनि इनके सम्मुख मिश्री का भी, फीका पड़ा पताशा है ।। देख-देख है मति अति दंग।।
(पंजाबी)
६.
७
Page #334
--------------------------------------------------------------------------
________________
सकल जैन समाज...
-: भव पार भवि होते :मैत्री को अपनाते, भव पार भवि करते क्षमा को जो दूर करे, भव पार नहीं होते ॥टेर ॥ अपनों में पराया जो, मोह दृष्टि में दिखता है। कौन शत्रु मित्र होता, सब कर्मों का लेखा है। यात्रा के मुसाफिर हो, उलझे क्यो मारग में ॥क्षमा ......॥ ॥१॥ "मित्तीमे सव्व भूएसु" आप्त पुरुष वचन कहते । "खामेमि सव्वे जीवा" फिर भी भकटि सर पे । तुम यश से जीना चाहो, सब भी यही चाहते हैं । क्षमा ...॥२॥ प्रिय अप्रिय की भटकन में, हम श्रेय को भूलगए । 'संख्या की दौड़ में रत, हम साध्य - से दूर हुए। रह गए बस जयकारे, वाहवाही में झूम रहे ॥ क्षमा ......॥ ॥३॥ जिनसूत्रों के रहस्यों को, जो सुलझाते, कहते । स्वयं में उलझ बैठे, जन जन के मन टूटे मात्र वचनों की शक्ति से, श्रेयस्कर नहीं होते ॥ क्षमा ॥॥४॥ तँमानै सब जग में. मैं ही हँ अक्लमंद । चउद पूरबी चउज्ञानी, नहीं तोड़ सके भव फंद । खुद री निबलाई ने, कद तूं सहलासी ॥ क्षमा ......॥ ॥५॥ नभ से नीचे देखों, रेखांकित भू दिखता । 'भू' से नभ को देखो, सब एक नेक दिखता। "आकाश"के सम बनकर, सबको अपना करलो॥क्षमा ॥६॥ 'सीता' के निमित्त से जो, 'दशमुख' का अपयश हआ । बन तीर्थंकर गणधर, भावी में यश होगा। तुम भूतकाल भूलों, 'वर्द्धमान' में आ जावो
॥७॥ तर्ज - होठों से छूलो तुम मेरे गीत ..... छोटों पर वात्सल्य धरे, पूज्य का हो समादर ॥ ऐसे धर्म संघ का, पार हुआ भव सागर ॥ दोहा ॥
Page #335
--------------------------------------------------------------------------
________________
वृक्ष चला गया, छाया रह गई। फूल चले गये, सुगंध रह गई ।।
26 श्री अनराजजी ललवानी स्वर्गवास १३/४/२००८
श्रीमती पापाबाई ललवानी स्वर्गवास : १०/७/२००८
जीवन परिचय
पु. पिताजी श्री अनराजजी ललवानी एवं मातुश्री श्रीमती पापाबाई खीचन निवासी वर्तमान में इन्दौर का, स्वर्गवास मात्र तीन माह के अन्तराल मे हो गया।
आप दोनों ही अत्यन्त धर्मनिष्ठ एवं तत्वज्ञाता थे। आपकी धर्म के प्रति प्रगाढ़श्रद्धा थी, __आप द्वय ने धर्म ध्यान सुनते-सुनते त्याग व्रत एवं समाधि भावों में अंतिम सांस ली।
आपके एक पुत्र वर्तमान में पं.र. शिविराचार्य पु. विनयमुनिजी म.सा' खीचन' एवम् एक पुत्री स्थिविरा महा भागवान पु. धीरज कुंवरजी म.सा जिन शासन की महत्ती प्रभावना कर रहे है। आपके पूरे परिवार ने अंतिम समय मे हिम्मत रखकर आप दोनों की खूब सेवा-सुश्रुषा की और धर्म का भाता बंधाया। परिवार जनों ने आर्तध्यान नहीं करने का संकल्प लिया। आप अपने पीछे भरा पूरा परिवार छोड़कर गये।
प्रस्तुति डॉ. कंचन जैन, दिल्ली
पुत्र - पुत्रवधु कस्तूरचंद शांतिलाल राजेन्द्रकुमार महेन्द्रकुमार चम्पादेवी भंवरीदेवी ललितादेवी
अनितादेवी
Page #336
--------------------------------------------------------------------------
________________ विनय बोधि कण बिनय बोधि कण विनय बोधि कण भाग 11-12 पवन यात्रिय गुरुदेव नपामीराधानाजनी म सा के शिष्य पडितम शिविराधान्य पुरुदेव श्री बिनबमुनिजी म.सा. 'बींचन' श्री.मेलामायालयाची संध जैन धान नाति गुण गाईन के पास) लोमानारी (ल.ना.) सदगमहल-4001 भाग 5-6-7-13 पंडितरल शिबिराचार्य पूजगुरुदेव श्री बिनयमुनिजी म.सा. खीचन' चातुर्मास सन् 2006 विक्रम संवत् 2062 पंडिनान शिबिराचार्य पूज्य गुरुदेव श्री विनयमुनिजी म.सा, 'वीचन' भगवान महावीर स्वाध्याय पीठ मैन्नई-800017 मभिवनकातिलाल मेहता आराधनामवन भाग 1-2-3-4 भाग 11-12 विनयभावना चिनयाराथना विनय प्रभावना पावन सानिध्य परम पूज्य गुरुदेवबीमालालजी म.सा. शिष्य पण्डित रन,शिविराया। श्री विनय मुनिजी म.सा. 'खींचन' कामावादुरिगताम्। सन् 2012 विक्रम संवत् 206 र उपलस में श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन संघ गणेश बाग, शिवाजीनगर, मनवान महावीर मार्ग (इन्टरी रोड) बैंगलोर-800001 फोन 1000-228104GY सानिध्य पंडितरल शिविरणार्य पूज्य गुरुदेव थी विनयमुनिजी म.सा. धीधन' चातुमाग सन् २०पर विधान नबन०६९ पायमान म्यानकतामा नाप नातायातमालयावर स्तवन संग्रह भजन वाटिका पु. गुरुदेव तपस्वीराज चंपालालजी म.सा. के शिष्य पंदितरत्न शिविराचार्य यज्य गुरुदेव श्री विनयमुनिजी म.सा, खींचन मानणाम bena ke श्री तारस्वानकवासीयाdaaiundaiute) गोमाग शिवाजीनारावाजीरमा करशहा संग -560001. सोन000-22860467 आध्यात्मिक भजन