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________________ कल्पना - जंबूद्वीप को (1 लाख यो.) सरसो या राई के दानों से भरदो, नहीं नहीं लाखो जंबूद्वीप जितने क्षेत्र को राई से भरदो, उससे भी असंख्य गुणाधिक एक समय में जीव मरकर एक साथ नरक मे चले जाते है | कितना साहसिक (पाप)। भगवती श.20 18) “पावन धरा - महाविदेह" वर्तमान अवसर्पिणी काल में भरत क्षेत्र में प्रथम ऋषभदेव तथा दुसरे तीर्थंकर अजित नाथ स्वामी हुए । इन दोनों तीर्थंकरों के बीच का काल इतना बड़ा था, कि महाविदेह से, असंख्यात तीर्थंकरो का निर्वाण हो गया । वाह रे धरा-महाविदेह । भग.श 12 उ.7 19) छोटी सी काया - वस्त्राभूषण न माया अनुत्तर विमान वासी देवों की काया एक हाथ ऊंची है । आश्चर्य है - न वस्त्र, न आभूषण, सामग्री, भौतिक, न फ्रिज, न फोन, आहार 33000 वर्ष में एक बार, होते हुए भी भौतिक श्रेष्ठ सुखका स्वामी कौन? अनुत्तरविमानवासी देव । 20) गर्भावास से सीधा नरकावास गर्भ से बाहर तो जीव कर्म बांधते दिखते हैं ही, परन्तु गर्भ मे रहा हुआ जीव 7 या 8 मास का अभी माँ का मुंह भी नहीं देखा, कानों से माँ का वचन सुनकर, शत्रु सेना आई, ऐसा सुनकर वैक्रिय लब्धि से सेना की विकुर्वणा करता है, और इन प्रकार भावों में ही यदि काल कर जावे तो प्रथम नरक में जाता है । है ना कैसी विचित्रता । भग.श 24 व श 1 उ7 21) गर्भ से ही सीधा देव भव गर्भ में रहा बालक, माता जैसा विचारती है, उसका बालक पर असर करता है । माता सोती है, बालक भी सोता है । माता प्रवचन सुनती है, बालक भी सुनता है, संस्कार का असर होता है, परमात्मा ने फरमाया, गर्भगत बालक 7 या 8 मास का यदि तथारुप साधु महात्मा का एक भी आर्यवचन सुनता है, और धर्म अनुरागी भी बनता है, यदि गर्भ में ही आयुष्य पूर्ण हो जाय तो देव लोक में जन्म लेता है। भग. श. 1 उ.7 22) आसक्ति वहां उत्पत्ति जहां आसक्ति वही उत्पत्ति होती है, यह उक्ति असंख्य जीवों पर लागू होती है, पल्योपम, सागरोपम की (असंख्य काल) उम्र में पांचो इन्द्रिय के सुखो को भोगने वाले दिव्य देव, काम भोग की अतृप्ति के कारण सदैव सुख के प्यासे ही रहते है, वे ही देव, फूल, पानी व हीरे आदि एकेन्द्रिय मे उत्पन्न हो जाते है । न नाक, न कान, न आँखे, न मुँह, बस शरीर (स्पर्श) से ही बेचारे जीवन जीते हैं । कहाँ गया वैभव उनका ? पन्नवणा पद 6 23) असंख्य देव - एक साथ एकेन्द्रिय में उत्पन्न कभी कभी ऐसा भी बनता है, कि वर्तमान मनुष्यों से भी असंख्य गणा अधिक संख्या के देव एक समय में काल करके, एकेन्द्रिय की पर्याय में उत्पन्न हो जाते है, लाखों देव सेवा करते थे, आज निराधार एकेन्द्रिय पर्याय .... कैसी विडम्बना.... पन्नवणा पद 6 24) नागकुमार के सिरपर भी मोह नाग देवता की एकेन्द्रिय में उत्पत्ति, कैसी करुणा, अनाथता, हमने जान ली। अब वैभव मोहजन्य देखो ! भवनपति नागकुमार यदि सांप (नाग) का रूप बनावे तो? लाख योजन के जंबूद्वीप को पूरा भरदे । उस नाग के फण से ही जंबूद्वीप ढक जावे । विपुल शक्ति मोह जन्य है। पन्नवणा
SR No.002325
Book TitleVinay Bodhi Kan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaymuni
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Sangh
Publication Year2014
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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