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________________ करके पांचो ने शीघ्र संथारा ग्रहण कर लिया और उसी साधना में भावों की विशेष शुद्धि को प्राप्त करके सर्व प्रकार की ऋद्धि से भरपूर मानव कुलों में जन्म पाकर फिर से साधना में लीन होकर केवल ज्ञान के आलोक से आलोकित हो जाते है अथवा अपनी नरक व तिर्यंच गतियों का अंत करके सुबाहु कुमार जैसे साधकों के समान एक भव देव का एक मानव का करते हुए सातवें मानव जन्म में अवश्य सिद्ध हो जाती है। इस प्रकार 'संथारा' आत्मा को से मनुष्य देव और भगवान बनाने की महासाधना है। सिर्फ मुनि ही नहीं आनंद जी जैसे श्रावक बहुत लाखों श्रावक भी इस साधना की महत्ता को समझकर, इसके महात्म्य से लाभान्वित होते हैं । परंतु अति दुःख है कि कितने ही लोग 'संथारे' जैसी महासाधना को 'आत्महत्या' समझ बैठते हैं । वास्तव में यह उनकी मति की महामन्दता व आत्मा में रहे हुए घोर अज्ञान अंधकार का ही विष परिणाम है । संथारा करने वाली आत्मा अपने अनादि काल से चले आ रहे जन्म पर जन्म में पाए जाने वाले घोर अति घोर दुःखों, अग्नि में बार बार जलना, बार बार तीखे शस्त्रों से छेद भेद जाना, भूख, प्यास, शीत, उष्ण, अपमान, भय, शोक, चिंता, क्लेश, भयंकर रोग आदि सर्व का अंत करके आत्मा के सच्चे व अनंत सिद्धि सुख को प्राप्त करती है जबकि आत्महत्या इन्हीं दुःखों से भरे जन्म मरण के अनंत गोतों वाले अनंत विस्तार वाले महा संसार सागर में अनंत काल के लिए डूबो देती है। दोनों की तुलना करते हुए आगे विशेष अंतर इस प्रकार कहे जाते हैं। 1) 2) आत्महत्या मृत्यु की तीव्र इच्छा है । तत्काल विष अग्नि फांसी आदि से प्राप्त की जाती है 158 3) 5) साधना का अंश भी नहीं। बार बार मृत्यु के वश होने की दुःख वृद्धि की क्रिया है । 6) मृत्यु से हार व जीवन की निष्फलता है । अपनी व दूसरों की महाहिंसा है । किसी भी पाप के त्याग रहित है । आहार के त्याग रहित परवशता है । जीवों के साथ वैर का बंध है । सर्व दोषों व पापों की आलोचना व प्रतिक्रमण रहित तीव्र आर्त्त व रौद्र ध्यान है । दुखों से दुःखी होकर की जाती है । संसार सागर में डूबोने वाली जन्म मरण के महा भय व दुखों को बढ़ाने वाली है । घोर अज्ञान अंधकार है। यह लोक और परलोक बिगाडती है । महादुःख रूप फल जीव के संग चलता है । सर्व लोक में निन्दित, अति निंदा को प्राप्त है। 8) 9) 10) 11) 12) 13) 14 ) 15) 16) 17) तीव्र क्रोध, मान, लोभ, तृष्णा, राग, द्वेष, मोह के वश होकर की जाती है। आवेश में भी होती है । इच्छा पूर्ण न होने पर तीव्र इच्छा के वश होकर आग के समान जलते हुए चित्त के साथ की जाती है। आवेश में भी होती है। 20) 21) 18 ) अज्ञानी के लिए नरक के दुःख समान है । 19) अनंत बार नरक व तिर्यंच के दुःख दिलाती है । सर्वथा अनिच्छित अकाम मरण है । मरण को अनंत बार प्राप्त होता है ।
SR No.002325
Book TitleVinay Bodhi Kan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaymuni
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Sangh
Publication Year2014
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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